यहाँ अँधेरे में हो
इसलिए
अकेले हो
रोशनी में आओगे
तो कम से कम
अपने साथ
एक परछाई
तो
जुड़ी पाओगे।
1980 के दशक में वेणु गोपाल की यह कविता हमारी जुबान पर
होती थी। इस कविता के जरिए हमने उस कवि को जाना था। तब हमारे मन में वेणु की बड़ी ही
प्यारी क्रांतिकारी छवि थी। नक्सलबाड़ी
आंदोलन का असर कहीं न कहीं हमारी चेतना पर
था। कुमारेन्द्र, कुमार विकल , वेणु गोपाल, आलोक धन्वा आदि के नाम का शोर तब हिंदी में खूब था। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने
हिंदी कविता का मन-मिजाज बदलना शुरू किया था। वेणु और आलोक तो जैसे इस चेतना के
हीरो कवि थे। कारण शायद यह हो या पटना में होने की भौगोलिक सुविधा, मैं कुमारेन्द्र और आलोक के बहुत करीब था। लगभग रोज का जीवंत संग-साथ और
गपशप हमारी दिनचर्या के जरूरी हिस्सा थी । अकादमिक संसार से बाहर की साहित्यिक
दुनिया के बड़े हिस्से से मेरा परिचय इनके जरिए ही संभव हो पाया। लेकिन वेणु
हैदराबाद में रहते थे। चाहकर भी मैं तब के अपने प्रिय कवि से मिल न पाया। मिलना तभी
हुआ जब मैं सेंट्रल यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में अध्यापक होकर
गया। वहाँ मैं आधे मन से गया था। एक अहिंदी भाषी शहर में हिंदी अध्यापक होकर जाने
का भीतर बहुत उत्साह नहीं था। लेकिन एक खुशी जरूर थी कि वहाँ ‘कल्पना’ जैसी पत्रिका के संस्थापक-संपादक बदरी
विशाल पित्ती हैं और मेरे प्रिय कवि वेणु गोपाल का भी वह गृह नगर है।
3
अक्टूबर 2000 को मैंने सेंट्रल युनिवर्सिटी में योगदान किया। उसके अगले दिन हिंदी
विभाग के अध्यापक प्रो. सुवास कुमार से मैंने कहा कि वेणु गोपाल से मिलने की इच्छा
है। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि हम अभी आपकी इच्छा पूरी किए देते हैं। हम
विभाग के बाहर खड़े थे और गपशप कर रहे थे। उन्होंने हाथ से सामने की दिशा में यह
कहते हुए इशारा किया- ‘ये रहे वेणु गोपाल!’
मैंने उधर देखा। मझोले कद का एक व्यक्ति कंधे से झोला लटकाए और दाहिने हाथ में कुछ
किताबें छाती से दबाए धरती को दबाता सधे कदमों से हमारी ओर आ रहा है। अगल-बगल
विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं की टोली। पास आने पर मैंने हाथ जोड़कर अपना परिचय
देते हुए नमस्कार किया। वेणु ने अपना हाथ बढ़ाया और कहा- ‘वेणु गोपाल।’ वे देर तक मेरा हाथ अपने
हाथों में लिए रहे। मैंने ऊपर वाली कविता उन्हें सुनाई जो जुबानी याद थी। वे
मुस्कुराते रहे।
वे
कक्षा लेकर निकले थे। बौद्धिक थकान मिटाने के लिए उन्हें कॉफ़ी- सिगरेट की जरूरत
थी। वे हमें लिए हिंदी विभाग के पीछे की दुकान की ओर चल पड़े। दुकान के सामने एक
पेड़ के नीचे पड़े पत्थरों पर हम बैठे तो
काफी देर तक बैठे ही रहे। साहित्य, संस्कृति और राजनीति पर हमने लंबी बातचीत
की। कॉफी-चाय के कई दौर चले। उस दिन की हमारी कथाएँ समाप्त हो चुकी थीं । हम
फुर्सत में थे। वेणु शाम को ‘स्वतंत्र वार्ता’
हिंदी दैनिक पत्र में फीचर पेज संभालते थे। वहाँ वे पाँच-छह बजे जाते थे और दस
साढ़े दस तक काम करते थे। सो वे भी इत्मीनान के मूड में थे। संभव है मेरे प्रति यह
उनका शिष्टाचार हो। पहली मुलाक़ात थी। समय की कमी की शिकायत का कोई मौका वे मुझे
नहीं देना चाह रहे हों । उस दिन ज़्यादातर वे ही बोले। मैं तो लगभग चुप ही था।
सुनता रहा। सुवास जी यूँ भी कम बोलते हैं।
सो वेणु ही बोलते रहे। उनका अध्ययन क्षेत्र बड़ा व्यापक था। देश-विदेश के साहित्य
का बहुत कुछ वेणु को याद था। उस दिन की वह बैठक मेरे लिए बड़ी सुखकारी थी। हैदराबाद
जाने का बेमन का मेरा जो फैसला था वह बुरा नहीं लगा। मुझे लगा कि जिस नगर में वेणु
गोपाल जैसा सुशिक्षित हिंदी का कवि रहता हो वह रहने लायक तो है ही।
उसके
बाद तो मिलने-बैठने का लगभग रोज का सिलसिला-सा हो गया। सोमवार से शुक्रवार तक
सप्ताह में पाँच दिन कक्षाएँ चलती थीं। वेणु तब गेस्ट फ़ैकल्टी के रूप में अध्यापन
कार्य कर रहे थे; सो हमारी मुलाक़ात प्रायः
होती और हमारी जीवंत रचनात्मक बातचीत जारी रहती। कमरों की कमी थी | इस कारण खाली
समय में हम दोनों के बैठने की व्यवस्था एक ही कमरे में थी | यह व्यवस्था मेरे लिए
बहुत ही सुखकारी साबित हुई | इस कारण बिना
किसी कोशिश के हमारी नियमित मुलाकात
अमूमन होती ही थी | कभी कमरे में और कभी
पेड़ के नीचे कॉफ़ी पीते हुए हम घंटों बतियाते | यह एक तरह की अड्डेबाजी थी, जो
हमें ख़ूब पसंद थी | विभाग के दूसरे
अध्यापक प्राय: इस तरह की अड्डेबाजी में नहीं शामिल होते थे | हाँ , कुछ साहित्य
प्रेमी छात्र ज़रूर हमारी बैठक में शामिल
रहते | मेरे द्वारा एक गेस्ट फैकल्टी को इतना महत्व दिया जाना बहुतों को शायद पसंद नहीं था | हिंदी के बहुतेरे अध्यापक हीनता
ग्रंथि के शिकार होते हैं | इसे वे अपनी अतिरिक्त अकड़ से छिपाते हैं | रचनाकारों
के संग अड्डेबाजी मेरा प्रिय शौक है | न जाने जीवन का कितना बड़ा हिस्सा ऐसी
अड्डेबाजियों में मैंने खर्च किए हैं , और यह अब भी मुझे दीवानगी की हद तक प्रिय
है | सो मैं दूसरों की कुंठाओं से मुक्त इस बैठकी में शामिल रहता | वेणु का
संग-साथ पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरक भी होता था और चुनौतीपूर्ण भी। कहना व्यर्थ है
कि वह संग-साथ मेरे लिए मूल्यवान था। लेकिन सिलसिला ज्यादा दिन नहीं चला। दिसंबर
में सत्रांत हुआ और वेणु की छुट्टी हो गई।
नियमित
फ़ैकल्टी के अभाव में वेणु गेस्ट फ़ैकल्टी के तौर पर पिछले दो-ढाई साल से पढ़ा रहे
थे। पगार आठ हजार रुपये थी। बेरोजगार व्यक्ति के लिए आठ हजार की रकम ज्यादा नहीं
थी, लेकिन यहाँ उससे अधिक कुछ और भी
था, जो वेणु को बहुत प्रिय था। वह था अध्यापन का सुख, जो उनका पुराना सपना था।
विश्वविद्यालय परिसर का बौद्धिक माहौल और छात्रों से नियमित संवाद उन्हें बहुत
प्रिय था। इस सुख के लिए उन्होंने क्या नहीं किया! जिसका मुंह देखना भी उन्हें
गंवारा नहीं था, उसके पीछे-पीछे हाथ बांधकर खड़े रहना पड़ा।
कुछ की थीसिसें तक उन्होंने लिखीं, पर वेणु को हिंदी के आचार्यों ने, खासतौर से हैदराबादी आचार्यों ने एक तरह से धोखा दिया। सारी शैक्षणिक
योग्यता और बौद्धिक काबिलियत होते हुए वे किसी कॉलेज-युनिवर्सिटी में एक अदद
लेक्चरार तक नहीं हो सके। इसका कारण यह था कि अपने क्रांतिकारी भावावेश के दिनों
में वे हिंदी- आचार्यों की बौद्धिक हैसियत की ऐसी-तैसी कर चुके थे। जब इसका ज्ञान हुआ तब देर हो चुकी थी। आचार्यों ने उनके एक-एक पाप (?) का बदला लिया। अपनी खुशामद कराते रहे, उनका शोषण करते रहे, लेकिन
नौकरी नहीं दी। एक आचार्या का वे वर्षों
तक भाषण लिखते रहे | भाषण देने उस
मोहतरमा को जाना होता और लाइब्रेरियों की खाक वेणु गोपाल छानते ! सुना कि उस ‘
विदुषी’ की डी. लिट्. की थीसिस भी उन्होंने ने ही लिखी थी ! प्रलोभन यह दिया गया
था कि विश्वविद्यालय में नियुक्त हो जाओगे, लेकिन जब नियुक्ति हुई तो पैनल में
वेणु कहीं नहीं थे | आर्थिक मजबूरी में वे
उन आचार्यों के पीछे-पीछे विनत भाव से चलने को मजबूर होते गए। उस विनत भाव का ही फल था,
हमारे विश्वविद्यालय में गेस्ट फ़ैकल्टी के रूप में उनका प्रवेश जो अब छिनने जा रहा था।
आखिरी
दिन का अंतिम क्लास लेने के बाद वेणु कमरे
में आए। चुप और उदास! थोड़ी देर बाद जैसे अपने आप बोले: “पिछले दो-ढ़ाई वर्षों से आठ हजार की नियमित आमदनी की आदत हो गई थी। दस हजार
के करीब ‘स्वतंत्र वार्ता’ से
मिलते हैं। जीवन जैसे-तैसे चल रहा था। अब आगे सिर्फ अंधेरा है। संघर्ष करने की भी
एक उम्र होती है। साठ का होने जा रहा हूँ। अब कोई काम मिलने से रहा। लेकिन मित्रों
की इतनी बड़ी जमात है! उस पर जब मैं नजर डालता हूँ तो भविष्य जगमग लगता है।” वेणु
आशा – निराशा के बीच की मन:स्थिति में थे | मुझे उनके दूसरे काव्य संग्रह ‘हवाएँ चुप नहीं रहतीं’ की ‘देखना और सुनना’
शीर्षक कविता याद आई और देर तक दिमाग में बजती रही:
देखने के नाम पर
मेरे पास सिर्फ वह अंधेरा है
जो बढ़ता ही चला जा रहा है
लेकिन सुनने के नाम पर
ढ़ेर सारी किलकारियाँ हैं
घुटनों के बल
खिसक-खिसक कर आते हुए बच्चे भी।
मैं
जो कुछ भी देख पा रहा हूँ
वह आज है
लेकिन जो सुन रहा हूँ
वह आने वाला कल है’।
‘चलिए कॉफी पीते
हैं!’ वेणु ने कहा और हम आखिरी बार अपने मयकदे में थे।
मयकदा यानी हिंदी विभाग के पीछे वाली कॉफ़ी की दुकान। हम साथ-साथ अंतिम बार पेड़ के नीचे पड़े
पत्थरों पर बैठकर कॉफी पी रहे थे। वेणु बीच-बीच में सिगरेट जलाते रहते थे। उस दिन
भी हम देर तक बैठे रहे। दुनिया जहान की बातें करते रहे। वेणु पिछला भूल चुके थे और
फॉर्म में थे। हमारी यह बैठक भी पहली बैठक-सी थी। अधिकतर वे ही बोले। विश्वविद्यालय परिसर में हमारी वैसी बैठकी फिर
नहीं हो पाई। हमारे साथ और कौन था यह तो याद नहीं, लेकिन
इतना याद है कि उस दिन मैं वेणु को छोड़ने ‘वार्ता’ कार्यालय तक गया। हमारे साथ एम. फिल और पी. एच. डी. के कुछ छात्र भी थे |
विश्वविद्यालय
से छुट्टी के बाद ‘स्वतंत्र वार्ता’
की नौकरी वेणु की जीविका का अंतिम पड़ाव थी। वे शाम की शिफ्ट में वहाँ बैठते थे।
उनके जिम्मे रविवार के विशेष पन्ने थे। उसके अलावा प्रतिदिन अखबार में आचार्य
रजनीश से लेकर अन्य बाबाओं के प्रवचनों के अंश होते थे जो प्रायः वेणु द्वारा
तैयार किए जाते थे। प्रति सप्ताह जो राशिफल प्रकाशित होते थे, वे भी प्रायः वेणु लिखते थे। यह वेणु के नाम से नहीं, गोपालाचार्य के नाम से छपता था। एक बार दोपहर में जब मैं वेणु के घर गया
तो वे राशिफल से संबंधित उस स्तम्भ के लिए किसी को डिक्टेशन दे रहे थे। मेरे लिए
उन्होंने चाय मंगाई। मैं बैठकर चुपचाप चाय पीता रहा और वे डिक्टेशन देते रहे। काम
पूरा होने के बाद उन्होंने वेदना में डूबी आवाज में कहा कि “जीविका के लिए वह
सब भी करना पड़ता है, जिसमें अपनी कोई आस्था नहीं
होती।”
‘स्वतंत्र वार्ता’ तेलुगु और हिंदी में निकलने
वाला हैदराबाद का प्रसिद्ध दैनिक पत्र है। तेलुगु संस्करण अधिक प्रसिद्ध है। वहाँ
की तेलुगु पत्रकारिता की मुख्य धारा के पत्रों के साथ उसकी प्रतियोगिता है। लेकिन
हिंदी संस्करण की वैसी स्थिति नहीं है। इसका मुख्य कारण अहिंदी भाषी शहर में उसका
होना है। उसका मुख्य पाठक व्यवसायी और हिंदी के अध्यापकों और अंग्रेजी कम
जाननेवाले हिंदी भाषियों का एक वर्ग है। यह वह वर्ग है जो सोच में पिछड़ा और
दकियानूस है | अध्यात्म और धर्म के पन्नों के कारण इस वर्ग में उसकी शायद बिक्री
होती थी। उन पन्नों को संभालने का मुख्य दायित्त्व वेणु गोपाल पर था, जिसका निर्वाह वे मन या बेमन से प्रतिष्ठान के अनुरूप करते थे।
वेणु
गोपाल तो उनका साहित्यिक नाम था। असली नाम नन्द किशोर शर्मा था। वेणु के पूर्वज
बहुत पहले राजस्थान से जीविका की खोज में हैदराबाद गए और वहीं के होकर रह गए। एक
मंदिर में पुजारी का काम शर्मा परिवार करता था। वेणु को पैतृक रूप में पुजारी का
काम जीविका के लिए मिली, लेकिन मार्क्सवाद और
नक्सलबाड़ी आंदोलन के असर में वे पुजारी के काम से भागते रहे। तेलुगु के
क्रांतिकारी काव्य आंदोलन का प्रभाव भी उनपर था। क्रांतिकारी कवि वरवर राव, ज्वालामुखी, निखिलेश्वर आदि से परिचय-मित्रता भी
थी। उस आंदोलन का ऐसा असर था कि वे घर-परिवार छोड़कर नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित
साथियों के साथ इधर-उधर घूमते रहे | उसी दौरान उनकी गिरफ्तारी हैदराबाद के पास के
कस्बे कागज नगर में हुई। गिरफ्तारी की खबर से देश के साहित्यिक जगत में वे एक चर्चित नाम हो गए। गिरफ्तारी के दौरान उन्हें
तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। उन्हें एक ऐसे कमरे में बंद रखा गया जिसमें जहरीले
जीव-जन्तु थे। वहाँ से निकलने के बाद उनके जीवन को जैसे पंख लग गए । वे इस शहर से
उस शहर घूमते रहे। कभी विदिशा- भोपाल, कभी पटना, कभी राँची, कभी कलकत्ता। यायावरी वेणु गोपाल का
प्रिय शौक थी । इसी क्रम में उन्होंने विजय बहादुर सिंह के सहयोग से पीएचडी कर ली।
उन्हें उम्मीद थी की इस डिग्री के आधार पर उन्हें किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में नौकरी मिल जाएगी, लेकिन
उन्हें यह नौकरी नहीं मिलनी थी, सो नहीं मिली !
एक बार
कवि कुमार अंबुज अपने बैंक के काम से हैदराबाद गए। उनके आग्रह पर मेरे यहाँ उनकी,
सुवास कुमार और वेणु गोपाल की रात भर की बैठकी का प्रोग्राम बना। खाना खाने के बाद
हम चारों जमीन पर गोलाकार बैठ गए और शुरू हुई देश-दुनिया और
साहित्य-संस्कृति की बेशकीमती बातचीत। उसी बातचीत के क्रम में अंबुज ने वेणु के
ऊपर थोड़े आक्षेप भी किए, थोड़ा दुःख भी प्रकट किया।
कुमार अंबुज का कहना था - वेणु तो हमारे हीरो थे, उन्हें
पूजा-पाठ और ज्योतिष वगैरह का, बेमन से ही सही, काम करते हुए देखकर दुःख होता है।
वेणु देर तक अंबुज को सुनते रहे। जब अंबुज चुप हुए तो उन्होंने इतना ही कहा - ‘किसी भी
विचारधारा के लिए शहीद होने की जगह अपने परिवार और जीवन की रक्षा मेरे लिए अधिक जरूरी है।’
वे बीच-बीच में उस मंदिर में पूजा-पाठ भी संभालते थे जहाँ से वे पैतृक रूप से जुड़े
थे और जहाँ उनकी पत्नी और बच्चे रहते थे। अंबुज का हमला शायद उनके इसी काम को लेकर
था।
मैं जब
हैदराबाद में था, तभी पटना के हमारे दो कवि
मित्र- मदन कश्यप और कुमार मुकुल नौकरी छूट जाने से बेरोजगार हो गए। ‘वार्ता’ संपादक से मेरा परिचय था। मैंने उन दोनों के
लिए उनसे बात की। वे तैयार हो गए। क्योंकि ‘वार्ता’ को उन दिनों अनुभवी पत्रकारों की जरूरत थी। दोनों के ‘वार्ता’ ज्वाइन करने के बाद एक दिन जब वेणु से मुलाक़ात
हुई तो उन्होंने एक वाक्य कहा, जिससे मैं कई दिनों तक परेशान रहा। उन्होंने कहा :
‘ गोपेश्वर जी ! ध्यान रखिएगा कि मेरी नौकरी पर किसी तरह का संकट न आए’। मुझे लगा कि मदन कश्यप और कुमार मुकुल के आने से वे असुरक्षित महसूस कर
रहे थे। उन्हें लगने लगा था कि संपादक
कहीं उन्हें हटाकर उन दोनों को फीचर पेज का जिम्मा दे सकता है ! हालांकि ऐसी कोई
बात नहीं थी। वेणु की यह चिंता निर्मूल थी। लेकिन असुरक्षाबोध से घिरे मन में इस
तरह के ख़यालों का उठाना स्वाभाविक था। उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटी, जिसके लिए
मैं अपने को जीवन भर माफ नहीं करूंगा। एक दिन शाम को वेणु से मिलने ‘वार्ता’ दफ्तर गया। मैं वेणु की ओर जा रहा था तभी
संपादक मिल गए और मुझे लिए हुए अपने केबिन में चले गए। हम दोनों चाय पी रहे थे और बात कर रहे थे कि वेणु गोपाल
अगले दिन छपने वाले अखबार के एक पेज का ऑफ प्रिंट लेकर आए। उसमें तकनीकी त्रुटि थी
जो शायद वेणु की असावधानी से छूट गई थी।
संपादक ने उन्हें बहुत ज़ोर से डांटा और अपने चेम्बर से निकल जाने को कहा। वेणु ‘सॉरी’
बोलकर चुपचाप बाहर चले गए। मैं थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा | मन ख़राब हो गया | उठकर
चला आया। लेकिन मन में वह घटना आती-जाती
रही। मुझे अब भी लगता है कि वह ऐसी गलती नहीं थी कि वेणु को एक बाहरी व्यक्ति के
सामने इस तरह डांटा जाए ! मुझे आज भी अफसोस है कि मैंने संपादक को मना क्यों नहीं
किया कि मेरे सामने यह सब न करें !
‘वार्ता’ के संपादक शायद वेणु को बहुत पसंद नहीं करते थे। इसका कोई कारण तो नहीं
था, कारण था तो यह कि वे वेणु के कारण हीनताबोध के शिकार थे।
वेणु का साहित्यिक सम्मान तो था ही, उनसे देश भर के बड़े-
छोटे लेखक जब कभी हैदराबाद आते तो मिलने आते। नगर में भी वेणु की साहित्यिक
प्रतिष्ठा थी। संपादक को अपने मातहत किसी व्यक्ति का इतना सम्मानित होना शायद अच्छा नहीं लगता था ! इस कारण बाद में वेणु
ने मिलने आये मित्रों से कार्यालय के बाहर मिलना शुरू किया,
मित्रों को कम समय देना शुरू किया। हर हाल में उन्हें नौकरी बचानी जो थी!
कुछ
दिनों बाद मालूम हुआ कि वेणु गोपाल को गैंग्रीन हो गया। यह शायद 2004 की
जनवरी-फरवरी के महीने थे। हम अस्पताल गए। पैर काटने की बात चल रही थी। वेणु के
किसी मित्र ने ‘रामवाण-सा असर करने वाली’ होम्योपैथिक दवा लाकर दी थी। वेणु को उस
दवा पर भरोसा था, हम उन पर कोई दवाब देना नहीं
चाहते थे। कुछ दिनों तक उस दवा का सेवन उन्होंने किया लेकिन उसका असर कुछ भी न
हुआ। अंततः पैर काटना पड़ा और वेणु वैशाखी पर चलने लगे। आत्मविश्वास से भरा, जमीन को दबाते हुए चलने वाला एक कवि वैशाखी पर खड़ा था, लेकिन चेहरे पर
कोई दैन्य भाव नहीं था। हमें लगा कि ‘वार्ता’ की नौकरी अब छूट जाएगी। हमलोगों ने संपादक से उनको नौकरी में जारी रखने
का आग्रह किया। हमारा आग्रह था कि वेणु के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। लेकिन
प्रबंधन का रवैया ऐसा रहा कि वेणु ने एक दिन कहा- ‘गोपेश्वर
जी, आप मानवीय व्यवहार की उम्मीद कर रहे थे, मेरे साथ तो दानवीय व्यवहार भी नहीं किया गया। इसके आगे मैं क्या कहूँ’| वे वैशाखी पर चलते हुए ‘वार्ता’ कार्यालय जाते और देर रात तक अपना काम करते रहते।
कवि के
साथ वेणु अच्छे रंगकर्मी भी थे। उनकी एक छोटी-सी रंग मंडली थी। उसके जरिए वे
कभी-कभार नाटकों का मंचन करते और जगह-जगह उसका प्रदर्शन करते। वे जितने अच्छे
नाट्य निर्देशक थे, उतने ही अच्छे अभिनेता भी।
उनके नाटक मैंने देखे थे और उनका यह रूप भी मुझे बहुत पसंद था। अपने नाटक की एक
भूमिका में जब वे बहुत शानदार अभिनय कर रहे थे तो हैदराबाद के हिंदी के प्रोफेसर
ने ईर्ष्या भाव से कहा ‘न जाने इसके कितने रूप हैं !’ सचमुच वेणु के कई रूप थे। वे वास्तव में जीनियस थे। जीवन की मुश्किलों ने
उन्हें किसी भी रूप में पूरी तरह खिलने न दिया !
जब वे
भोपाल में ब. व. कारन्त के साथ नाटक करना सीख रहे थे तभी उनके जीवन में वीरां जी
आई। दोस्ती प्रेम में और प्रेम शादी में बदलते देर नहीं लगी। वीरां जी से वेणु की
एक प्यारी-सी बच्ची थी कोंपल, जो बहुत अच्छी नृत्यांगना थी। वीरां जी बाद में
भोपाल आ गई थी और वहीं के जूनियर कॉलेज में पढ़ाने लगी थीं । वेणु गोपाल कभी वीरां
जी के साथ होते, कभी मंदिर वाली अपनी पहली पत्नी के साथ।
दो घरों में बंटा हुआ उनका जीवन कितना तनावपूर्ण रहा होगा, इसकी मैं सिर्फ कल्पना
भर कर सकता हूँ। इसी बंटे हुए जीवन के कारण वे शायद बिखर गए !
पहली
पत्नी से, जहाँ तक याद है, एक लड़की और एक
लड़का था। लड़की की शादी उसी मंदिर वाले घर
में हुई थी। हैदराबाद का साहित्यिक समाज उस दिन एकत्रित था। वेणु ने पिता के सारे
धार्मिक कर्मकांड पूरे किए। शादी में आने वाले खर्च की व्यवस्था उन्होंने कैसे की
यह तो वही जानते थे । बेटे को जब इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के समय भी वेणु को
भयंकर अर्थ संकट से जूझना पड़ा। दिल्ली के एक कथाकार ने, जो पहाड़ से आता है, जो ख़ुद
बेरोजगार युवाओं का अपनी पत्रिका के लिए शोषण करता है , जो पम्फ़लेटनुमा एक मासिक पत्रिका निकालता है और जो खुद को भारी
क्रांतिकारी समझता है, वेणु की अपनी पत्रिका में ख़ूब
लानत- म लामत की कि यह सेठों से अपने बेटे की पढ़ाई के लिए
चंदे उगाहता है।
जून
2004 में जब मैं हैदराबाद छोड़ रहा था तो वेणु से मिलने गया- वीरां जी के घर पर। उस
दिन हमारी बातचीत न के बराबर हुई। हम चाय पीते रहे और लगभग चुप-चुप-सा रहे। दिल्ली
आने के बाद हमने एक-दूसरे को चिट्ठियाँ लिखीं। दिल्ली से वेणु को अनेक शिकायतें
थी। वे मुझे हिदायद दे रहे थे कि मैं दिल्ली की मानसिकता में आने से अपने को बचाऊँ
!
कुछ समय बाद हम ‘वार्ता’ कार्यालय के बाहर मिले। मैं और अरुण कमल
किसी सिलसिले में हैदराबाद में थे। फोन किया तो वेणु ने शाम को कार्यालय के बाहर
बुलाया। हम सड़क किनारे खड़े थे। वेणु बैशाखी पर धीरे-धीरे आए। थोड़ी देर हमने बात
की। यह वेणु से मेरी आखिरी मुलाक़ात थी।
कुछ समय बाद मैं बरेली में वीरेन डंगवाल के साथ बैठा हुआ था। वेणु की चर्चा चली। वीरेन
ने फोन लगाया। उधर से वेणु ने कहा कि ‘वे कैंसर से पीड़ित
हैं। और ज्यादा दिन अब नहीं बचेंगे।’ वीरेन डबराल ने उन्हें
प्यार भरी डांट लगाई और कहा कि ‘हमसे यह नाटक मत करो।’ फिर फोन मेरी ओर बढ़ा दिया। हमने उस दिन यही समझा कि वेणु ने हमसे मज़ाक
किया है। लेकिन वह सच था। गैंग्रीन के बाद वे सचमुच कैंसर से जूझ रहे थे। कुछ ही दिनों बाद 2
सितंबर 2008 की सुबह खबर मिली कि कवि वेणु गोपाल का कल निधन हो गया। लीलाधार
मंडलोई और मेरे प्रयास से दिल्ली में वेणु गोपाल की स्मृति में सभा हुई, जिसमें बड़ी संख्या में
लेखक-संस्कृतिकर्मी आए। अशोक वाजपेयी, मुरली मनोहर प्रसाद
सिंह, मैनेजर पाण्डेय आदि साहित्यकारों ने उन्हें बहुत
शिद्दत से याद किया। लीलाधार मंडलोई ने, जब मैं हैदराबाद में था, दूरदर्शन के लिए वेणु का
एक इंटरव्यू कराया था। उसके बाद भी कुछ इंटरव्यू कराए। वेणु को जो लोग बेइंतहा
प्यार करते थे उनमें एक लीलाधार मंडलोई भी
थे। वे वेणु की रचनाओं को एक जगह संपादित प्रकाशित करने में लगे थे। पता नहीं यह
काम कहाँ तक पहुँचा!
वेणु
गोपाल के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित थे- ‘वे हाथ होते
हैं’ (1972), ‘हवाएँ
चुप नहीं रहती’ और ‘चट्टानों का जलगीत’ (1980)। पत्र-पत्रिकाओं में अभी भी कई संग्रहों लायक कविताएँ बिखरी पड़ी हैं। कुछ
पूरी-अधूरी कविताएं अप्रकाशित भी होगी। अंतिम दिनों में वेणु ने बहुत अच्छी
कहानियाँ भी लिखीं । कुछ संस्मरण भी लिखे। संभव है, नाटक भी
लिखे हों! ये सारी रचनाएँ अप्रकाशित है। ‘हवाएँ चुप नहीं
रहती’ संग्रह में ‘सपना मेरा ही है’ शीर्षक कविता है। यह कविता आपातकाल में लिखी गई थी। लेकिन आज जब मैं इसे
पढ़ता हूँ तो लगता है जैसे वेणु गोपाल ने गैंग्रीन और कैंसर जैसे अंधेरे से संघर्ष
करते हुए यह कविता अभी-अभी लिखी है और लिखते-लिखते हमसे सदा के लिए दूर चले गए
हैं-
“पहली बार ऐसा लग रहा है कि
इस बार लौटना
नहीं हो सकेगा
मंजिल पर
उतर जाऊँगा तो बस उतर ही जाऊँगा,
इस भीड़ के साथ
और
वह स्टेशन कभी नहीं
देख पाऊँगा जहाँ से,
मेरे पिछले सारे सफर शुरू होते थे
और खत्म भी वहीं।”
अत्यधिक मार्मिक संस्मरण लिखने और कविवर वेणुगोपाल के व्यक्तित्व से परिचित कराने के लिए हार्दिक आभार।
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी और मूल्यवान संस्मरण!
ReplyDeleteनमस्ते, बहुवचन में भी यह संस्मरण पढा था, सही लिखा आपने। वेणु जी का अखबार में आत्मीय साथ ही रहा। उन्हें डिक्टेशन देने की आदत थी, मैं उस काम को एक बार के बाद खुद ही कर दिया करता था ठीक ठाक, इससे वे असहज हो जाते थे, पर मेरे लिए वह सहज था। जैसे अखबार के लिए रोज पहेली बनाने का काम था वह मैं एक बार के बाद खुद करने लगा। फिर जब तक मैं रहा खेल की तरह रोज एक पहेली बना दिया करता, उसमें प्रयेाग भी करता और हिंदी के साथ स्थानीय तेलुगू के शब्द भी प्रयोग करता। तेलुगू सिखाने की एक पुस्तक भी ली थी जिससे हिंदी से मिलते शब्दों को मैं छांटता रहता। इसी तरह एक बार जब उन्होंने दैनिक राशिफल डिक्टेट कराने को कहा तो मैंने कहा कि ये ज्योतिष की किताबें दीजिए मैं यह भी कर लूंगा। हालांकि उन्होंने दी नहीं और खुद लिख दिया उसे। शायद इस सब से गलतफहमी हुई हो। जब वे बीच में पान खाने निकलते तो मैं अक्सर साथ हो लेता। वे हमेशा मीठे ढंग से बातें करते। उनका मंदिर मेरे घर से एक किलोमीटर पर था, छुटिटयों में वहां भी जब तब जा धमकता तो बैठकी लगती।
ReplyDeleteआज बहुत दिनों बाद वेणु जी के बारे में यह संस्मरण पड़ा और मन भीग गया।बहुत अच्छा लगता है उनके बारे में पढ़ना। वेणु गोपाल जी के निधन के बाद वीरा जी को मैंने कुछ कविताएं भेजी थी जो उन्होंने किसी संकलन में प्रकाशित की थी लेकिन मुझे पता नहीं वह संकलन मुझे नहीं मिला अगर वीरा जी का कोई कांटेक्ट नंबर हो तो जरूर दीजिए
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