Sunday 25 December 2016

2016 की हिंदी आलोचना




समकालीन हिंदी आलोचना को लेकर रचनाकारों की शिकायत आम बात है |अक्सर सुनने को मिलता है कि हिंदी में आलोचना की दशा ठीक नहीं है |इंदिरा गांधी कला केंद्र की एक गोष्ठी में केन्द्रिय मंत्रियों के साथ आलोचक नामवर सिंह के मंच साझा करने पर तो विवाद हुआ ,लेकिन उन्हीं के संपादन में ‘रामचंद्र शुक्ल रचनावली’ और उसमें लिखी उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका की चर्चा न के बराबर हुई |हजारी प्रसाद द्विवेदी के समर्थक और शुक्ल विरोधी के रूप में नामवर सिंह को देखने की आदत जो हिंदी आलोचना में विकसित होती गई है,यह रचनावली उसका प्रत्याख्यान है |
 ‘नामवर के नोट्स’ (सं.-शैलेश कुमार,नीलम सिंह) इस वर्ष की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है| इसमें कक्षाओं में दिए गए नामवर सिंह के व्याख्यान हैं| भारतीय काव्यशास्त्र को आधुनिक दृष्टि से देखने वाली  यह अत्यंत जरुरी पुस्तक है|मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ‘मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता’ न सिर्फ हिंदी साहित्य बल्कि भारतीय समाज और राजनीति को नई दृष्टि देने वाली आलोचनात्मक पहल के रूप में इस वर्ष की उपलब्धि मानी जायेगी|वरिष्ठ आलोचक राजेन्द्र कुमार की  –‘कविता का समय-असमय’ तथा ‘कथार्थ और यथार्थ’ समकालीन हिंदी आलोचना को समृद्धि और विस्तार देने वाली किताबें हैं | अवधेश कुमार सिंह की पुस्तक ‘समकालीन आलोचना विमर्श’ गंभीर आलोचनात्मक पहल का श्रेष्ठ उदहारण है|  वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की ‘कहानी के साथ-साथ’ हिंदी कहानी की आलोचना का विकास करने वाली पुस्तक है | रोहिणी अग्रवाल की ‘हिंदी उपन्यास : समय से संवाद’, कथा आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तक भी  इस वर्ष के खाते में दर्ज है | इस वर्ष आलोचना के महत्वपूर्ण प्रकाशनों में वरिष्ठों की सक्रिय उपस्थिति आश्वस्ति कारक है | अशोक वाजपेयी की पुस्तक ‘कविता के तीन दरवाजे’ और नन्दकिशोर नवल की पुस्तक ‘कवि अज्ञेय’ तथा ‘नागार्जुन और उनकी कविता’ आलोचना के भिन्न मिजाज और आधार का पता देती हैं | रेवती रमण की इस वर्ष प्रकशित नई पुस्तक ‘परंपरा का पुनरीक्षण’ अपने गंभीर विवेचन-विश्लेषण के कारण हमारा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करती है | सुधीर रंजन सिंह की पुस्तक ‘कविता के  प्रस्थान’ भी यहाँ सहज स्मरणीय है | 
इस वर्ष दो वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह और मैनेजर पाण्डेय उम्र का पचहत्तरवां पड़ाव पार कर गए | भोपाल में वहां के साहित्यिक समाज द्वारा विजय बहादुर के आलोचनात्मक अवदान पर  ‘आलोचना का देशज विवेक’ (सं. – आनंद कुमार सिंह और महेंद्र गगन ) शीर्षक  पुस्तक  जारी हुई | पाण्डेय जी की आलोचना से सम्बंधित दो पुस्तकें ‘दूसरी परंपरा का शुक्ल पक्ष’ ( कमलेश वर्मा) तथा ‘आलोचना और समाज’ (संपादक- रविकांत)  हिंदी समाज की सक्रियता के रूप में याद की जाने वाली पहल है | बहुजन साहित्य की अवधारणा को लेकर पिछले कुछ वर्षों से सक्रियता बढ़ी है | ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ (संपादक- प्रमोद रंजन : आयवन कोस्का) तथा ‘हिंदी साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’ (संपादक- प्रमोद रंजन) पुस्तकों के जरिए बहुजन साहित्य के सैद्धांतिकी को ठोस रूप देने की कोशिश भी इस वर्ष के आलोचना खाते में दर्ज  है |  ‘बांग्ला दलित साहित्य : सम्यक अनुशीलन’ (संपादक- बजरंग बिहारी तिवारी) पुस्तक भी इसी  वर्ष आई जो हिंदी दलित साहित्य सम्बन्धी चिंतन को विस्तार देने वाली है | ‘बहुजन वैचारिकी’ (संपादक- धर्मवीर यादव ‘गगन’) का तुलसीराम विशेषांक दलित साहित्य की सैद्धांतिकी को मजबूत आधार देने वाला सार्थक आलोचनात्मक प्रयास कहा जायेगा | सार्थक रचनाशीलता के मूल्यांकन के लिए आलोचना पुस्तकें जहाँ नई दृष्टि और सोच का आधार बनती है वहीं रचनाकारों पर केन्द्रित पत्रिकाओं के विशेषांकों और शताब्दी वर्ष में होने वाली संगोष्ठियों के जरिए भी आलोचना का माहौल और आधार तैयार होता है | इस दृष्टि से देखें तो इस वर्ष जानकीवल्लभ शास्त्री, नलिन विलोचन शर्मा, अमृतलाल नागर, मुक्तिबोध और त्रिलोचन पर मुजफ्फरपुर, पटना, लखनऊ, बनारस, दिल्ली आदि शहरों में जो गभीर और बहस-तलब गोष्ठियाँ हुईं वे हिंदी में जीवंत आलोचनात्मक माहौल का उदाहरण है | ‘साखी’ (संपादक- सदानंद शाही), ‘सामयिक सरस्वती’ (अतिथि संपादक- दिनेश कुमार) और ‘आलोचना’ (संपादक- अपूर्वानंद) के मुक्तिबोध पर केन्द्रित अंक मुक्तिबोध सम्बन्धी आलोचना में बहुत कुछ जोड़ते हैं | ‘उत्तरप्रदेश’ (संपादक- कुमकुम शर्मा) पत्रिका का अमृतलाल नागर विशेषांक तथा ‘समकालीन भारतीय साहिय’ (संपादक- रणजीत साहा) के नगेन्द्र और भीष्म साहनी पर केन्द्रित अंकों के जरिए भी आलोचना की बदलती भंगिमा का पता चलता है | ‘बहुवचन’ (अतिथि संपादक- कृष्ण कुमार सिंह) का  नामवर सिंह पर केन्द्रित अंक चर्चित रहा | वह चर्चा नए ढंग से नामवर के मूल्यांकन का परिणाम थी | इस वर्ष के अन्य उल्लेखनीय आलोचना पुस्तकों में ‘कविता का संघर्ष’ (कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह ),’नई सदी की कविता’ (गणेश पाण्डेय),’शताब्दी का प्रतिपक्ष’ (वैभव सिंह),आदि सहज ही स्मरणीय है |
सीमित स्थान और समय में स्मृति के आधार पर की गई यह टिप्पणी 2016 में हिंदी आलोचना साहित्य का विहगावलोकन भर है, जिसमे कुछ छूट जाने की भी संभावना है | बावजूद इसके यह कहने की जरूरत है कि हिंदी आलोचना सक्रिय है और नया आकार ग्रहण कर चुकी है | वह व्यंग्य, विडम्बना, तनाव, यथार्थवाद आदि आलोचनात्मक प्रतिमानों से आगे बढ़ते हुए अपने समय-समाज के यथार्थ को देखने की नई दृष्टि से अपने को युक्त कर चुकी है | जो लोग हिंदी में आलोचना के अभाव का रोना रोते हैं वे आलोचना को समकालीनता तक या अपने तक सीमित कर देना चाहते हैं | आलोचना समकालीन रचनाशीलता का मूल्यांकन तो करती ही है, उसके साथ वह पुराने साहित्य का मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन भी करती है और साहित्य की नई समझ पैदा करती है | इस दृष्टि से 2016 की आलोचनात्मक सक्रियताएं – जो पुराने अधवयस और नए आलोचकों के कारण संभव हो पाई है – हिंदी आलोचना के विकास की गवाही देती प्रतीत होती हैं |