Sunday 10 October 2021

रामविलास शर्मा की आलोचना-दृष्टि

 सुनते हैं कि रूसी भाषा के महान लेखक लेव तोलस्तोय का सम्पूर्ण साहित्य 90 खंडों में प्रकाशित है.  इधर चर्चा है कि रामविलास शर्मा का सम्पूर्ण लेखन 45 खंडों में प्रकाशित हो रहा है. हिंदी में इतने अधिक खंडों में किसी भी लेखक-आलोचक की ग्रंथावाली नहीं है.इतनी विपुल संख्या में लिखा हुआ साहित्य न सिर्फ रामविलास जी की लेखकीय प्रतिबद्धता का; बल्कि उनके व्यापक मानवीय- साहित्यिक सरोकार का द्योतक माना जाएगा.

          कविता, आलोचना, निबंध, जीवनी, आत्मचरित आदि कई विधाओं में रामविलास शर्मा का साहित्यिक लेखन दिखाई देता है. साहित्य के अलावा भाषा विज्ञान, इतिहास, दर्शनशास्त्र, संगीत आदि अन्य अनुशासनों में भी उन्होंने लेखन कार्य किया है. उनके लिखे हुए ग्रंथों को देखने से पता चलता है कि उनका अध्ययन बहुत व्यापक था. वे बहु-अनुशासनात्मक ज्ञान के धनी लेखक थे. हालाँकि उनके लेखन कार्य को उन अनुशासनों के विद्वान वह महत्त्व नहीं देते जो उन्हें दिया जाना चाहिए. रामविलास शर्मा उनके लिए लिख भी नहीं रहे थे. उनके सामने हिंदी भाषी जनता थी जिसे शिक्षित करने का काम उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कई हिंदी लेखकों की तरह किया. वे अकादमिक जगत के विद्वानों के नहीं, हिंदी भाषी जनता के लेखक थे.

          कई विधाओं और कई अनुशासनों में लिखने के बावजूद रामविलास शर्मा की मूल पहचान हिंदी साहित्य के इतिहासकार-आलोचक की है. उन्होंने हिंदी साहित्य का इतिहास नाम से कोई पुस्तक नहीं लिखी, लेकिन जो उनका व्यापक आलोचना-कर्म है वह हिंदी साहित्य के इतिहास की नई प्रस्तावना प्रस्तुत करता है और रामचंद्र शुक्ल की इतिहास-दृष्टि को विस्तृत करते हुए मजबूती प्रदान करता है. उन्होंने अनेक अवधारणात्मक पद दिए हैं जो हिंदी साहित्य के इतिहास को देखने का नया आधार प्रदान करते हैं. आज हिंदी पाठक का अपने साहित्य इतिहास के संबंध में जो कॉमन सेन्स है, वह बहुत हद तक रामविलास शर्मा का बनाया हुआ है. ‘लोक जागरण’, ‘हिंदी नवजागरण’, ‘हिंदी जाति’ आदि पद प्रचलित करनेवाले और इन दृष्टियों से हिंदी साहित्य को देखनेवाले रामविलास शर्मा ने न सिर्फ हिंदी आलोचना साहित्य को समृद्ध किया है, बल्कि हिंदी साहित्य के इतिहास को नया आधार भी दिया है.

          भक्तिकाल से लेकर छायावाद तक साहित्य का जो वस्तृत काल खंड है, उसको देखने की व्यापक दृष्टि रामविलास शर्मा ने तैयार की है. इस दृष्टि के निर्माण में ‘लोक जागरण’ और ‘नव जागरण’ जैसी दृष्टियों का बड़ा हाथ है. वे भारतेंदु युग से पहले के साहित्य को ‘लोक जागरण’ की दृष्टि से देखते हैं तो भारतेंदु युग से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल, ‘निराला’, ‘प्रसाद’, माखनलाल चतुर्वेदी, रामवृक्ष ‘बेनीपुरी’ आदि के साहित्य को नवजागरण के आधार पर देखने की जमीन तैयार करते हैं. ‘लोक जागरण’ और ‘नवजागरण’ की चेतना से संपन्न होकर हिंदी समाज विकास की दिशा में आगे बढ़ा है और बढ़ेगा, यह आलोचक रामविलास शर्मा की मुख्य चिंता है. ‘लोक जागरण’ के भीतर मूल रूप से सामंतवाद विरोधी और ‘नव जागरण’ के भीतर साम्राज्यवाद और पूँजीवाद विरोधी चेतना भरी हुई है. इनके आधार पर शोषण मूलक व्यवस्थाओं को हटाकर समता मूलक समाज निर्मित किया जा सकता है, यह उनकी मूल स्थापना है.

          लोक जागरण की चेतना आगे चलकर नवजागरण चेतना में परिवर्तित होती है और उसकी चिंताधारा अधिक व्यापक होती है. लोक जागरण का संबंध मुख्य रूप से भक्ति साहित्य से है, जबकि हिंदी नवजागरण का संबंध भारतेंदु युग और उसके बाद के साहित्य से है. अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ में रामविलास जी ने लिखा है: “भारतेंदु युग उत्तर भारत में जन जागरण का पहला या प्रारंभिक दौर नहीं है; वह जन जागरण की पुरानी परंपरा का एक ख़ास दौर है. जन जागरण की शुरुआत तब होती है जब यहाँ बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाँ के विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है. यह सामंत विरोधी जन जागरण है.” (पृष्ठ-13) सामंत विरोधी इस जन जागरण का संबंध भक्तिकाल से है जिसे रामविलास जी लोक जागरण कहते हैं. भारतेंदु युग उसी पुराने जन जागरण का ‘एक खास दौर’ है. इसके ख़ास होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इसका संबंध प्लासी युद्ध से शुरू होकर 1857 के व्यापक स्वतंत्रता संग्राम से है. रामविलास जी के शब्दों में ‘यह साम्राज्यवाद विरोधी जन जागरण है. भारतेंदु युग इस जागरण से जुड़ा हुआ है.’ (वही)

          कुछ लोग मानते हैं कि 1857 का संघर्ष देशी सामंतों का अपने स्वार्थ के लिए किया गया संघर्ष था. ऐसे लोग 1857 के संघर्ष को स्वतंत्रता संग्राम नहीं मानते. ऐसे लोग यह भी मानते हैं कि ‘भारतेंदु युगीन साहित्य की मुख्य धारा अंग्रेजी राज के प्रति भक्ति भाव से प्रेरित थी; ऐसे लोगों के लिए 1857 से भारतेंदु युग को जोड़नेवाला कोई सूत्र हो ही नहीं सकता.’ (वही) ऐसे लोगों को जवाब देते हुए रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक में विस्तार से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का संबंध नये जन जागरण से जोड़ा है और उसे ‘हिंदी नवजागरण’ का नाम दिया है. उनका मानना है कि 1857 की लड़ाई आम जन ने, खास तौर से किसानों ने लड़ी. उस संघर्ष के दौरान विकसित हुई साम्राज्यवाद विरोधी चेतना भारतेंदु और उस काल के लेखकों के चिंतन का  मुख्य आधार बनी . यही दौर है जब हिंदी भाषा का जातीय भाषा के रूप में पूर्ण विकास हुआ और हिंदी जाति का गठन मजबूत हुआ. इस प्रक्रिया का गहरा संबंध हिंदी नवजागरण से है.       

          भक्तिकाल संबंधी रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि निर्गुण और सगुण जैसी परस्पर विरोधी भक्ति धाराओं के आधार पर बनी है.वे निर्गुण पंथ और निर्गुण पंथियों के प्रति किंचित अनुदार हैं. उनके ‘लोकमंगल’ के दायरे में सगुणपंथ और तुलसीदास का ही महत्त्व है. रामविलास शर्मा भक्तिकाल के उदय में ‘लोक जागरण’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानते हैं जो मूल रूप से सामंत विरोधी है और जिसकी मूल चेतना प्रेम की है. इसलिए रामविलास शर्मा किसी निर्गुण-सगुण और कबीर-तुलसी संबंधी विवाद में नहीं पड़ते. वे मानते हैं कि भक्ति-काव्य की केन्द्रीय धारा प्रेम की है और इस कारण कबीर और तुलसी दोनों ‘प्रेममार्गी’ कवि हैं. रामविलास शर्मा कबीर और तुलसी को आमने-सामने करके भिड़ंत करानेवाली जो विमर्शजनित आलोचना है उससे इत्तेफाक नहीं रखते. भक्त कवियों में मानव मात्र को जोड़ने वाले एकता के जो सूत्र हैं वे उन पर जोर देते हैं. एकता के वे सूत्र व्यापक रूप में प्रेम की भावधारा से सिंचित हैं. रामविलास जी के अनुसार भक्ति आंदोलन के केंद्र में यही भावधारा सबसे मजबूत है. उसमें कुछ भिन्नता भी है, लेकिन उससे अधिक महत्त्वपूर्ण और मजबूत आधार प्रेम का है, यह भक्ति आंदोलन की केन्द्रीय चिंता धारा है. इसलिए रामविलास शर्मा भक्ति आंदोलन को निर्गुण-सगुण विभाजनों के जरिए समझने वाली इतिहास और आलोचना दृष्टि का विरोध करते हैं और उसकी जगह नया आधार प्रस्तावित करते हैं. वह आधार- ‘योग बनाम भक्ति’ का है. इसी के साथ वे भक्ति आंदोलन जैसे महान सांस्कृतिक आंदोलन को ‘कनफटे योगियों का मोहताज’ बताई जाने वाली धारणा का विरोध करते हैं.

          भारतीय नवजागरण के संदर्भ में बंगला नवजागरण, मराठी नवजागरण आदि की चर्चा होती है. यह मानकर चला जाता है कि हिंदी प्रदेशों में नवजागरण की जो छिटपुट चेतना आई, वह बंगाल से होकर आई और वह उसकी शाखा मात्र है. यह धारणा व्यापक स्तर पर फैली हुई थी. रामविलास शर्मा ने उसका प्रत्याख्यान किया और ‘हिंदी नवजागरण’ जैसी अवधारणा की बात की. इस हिंदी नवजागरण का संबंध उन्होंने 1857 के ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ से जोड़ा और हिंदी की आधुनिक मनीषा को स्वतंत्र पहचान दी. रामविलास शर्मा का मानना है कि 1857 का ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ मुख्य रूप से हिंदी प्रदेशों की जनता ने लड़ा, जिसमें साम्राज्यवाद विरोधी और सामंतवाद विरोधी चेतना सक्रिय रूप से काम कर रही थी. इस चेतना के आलोक में ही हिंदी नवजागरण का विकास हुआ और भारतेंदु हरिश्चंद्र इसी हिंदी नवजागरण के अग्रदूत थे. अपने प्रिय कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में रामविलास शर्मा का कथन है: “जैसे 1857 का कोई वीर सेनानी युद्ध छोड़कर साहित्य के मैदान में चला आया हो.” इस पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह ने लिखा है: “ज्यादा सही है कि यह वीर सेनानी रामविलास शर्मा स्वयं हैं. योद्धा के रूप उनकी ख्याति तो है ही, विशेष रूप से उल्लेखनीय है 57 के स्वाधीनता संग्राम से उनका गहरा लगाव. सन् 57 जैसे उनके समस्त चिंतन की धुरी है और है उनके वैचारिक संघर्ष का बीज भाव.” (केवल जलती मशाल, संकलित निबंध, पृष्ठ-194) अपने वैचारिक संघर्ष के इस बीज भाव को लेकर रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल, ‘प्रसाद’, ‘निराला’, माखनलाल चतुर्वेदी, रामवृक्ष ‘बेनीपुरी’ आदि का मूल्यांकन किया है. महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद तक आकर सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी जो हिंदी नवजागरण की चेतना है, उसमें वर्ग दृष्टि का समावेश होता है और पूँजीवाद विरोध भी उसमें शामिल हो जाता है. रामविलास शर्मा के सम्पूर्ण लेखन में यह चेतना काम करती है.

          रामविलास शर्मा मार्क्सवादी हैं. जीवन और जगत को देखने का उनका नजरिया भौतिकवादी है. वे अपने सम्पूर्ण लेखन के जरिए भौतिकवाद को प्रतिष्ठित करते हैं, भारतीय वांग्मय में भौतिकवादी चिंतन और साहित्य की परंपरा को रेखांकित करते हुए भाववाद को खारिज करते हैं. वे किसी भी धार्मिक, आध्यात्मिक और दैवीय शक्ति में भरोसा नहीं करते और भौतिकवादी दृष्टि से साहित्य, समाज और संसार की व्याख्या करते हैं. उनका कथन है: “वैज्ञानिक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य प्रकृति की उपज है और विचार चेतना मानव-मस्तिष्क की उपज. मस्तिष्कहीन विचार और चेतना का अस्तित्व केवल कल्पना की वस्तु है. भौतिकता से परे चेतना का निवास नहीं है.” (यथार्थ जगत और साहित्य, ‘आस्था और सौंदर्य’, पृष्ठ-15) वे ‘गोचर सौंदर्य’ की सत्ता स्वीकार करते हैं. उसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि की भूमिका को भी स्वीकार करते हैं, जिससे मनुष्य का ऐन्द्रिय बोध निर्मित होता है. इसी ऐन्द्रिय बोध के साथ मनुष्य का भाव जगत है. रामविलास जी के अनुसार: “भाव जगत व्यक्ति के मन में ही होता है, किन्तु उसका परिष्कृत और समृद्ध रूप सामाजिक विकास और सामाजिक जीवन में ही संभव हुआ है. भाव जगत का आधार व्यक्तिगत और सामाजिक- दोनों ही कोटि की अनुभूतियाँ हैं. इन दोनों ही कोटि की अनुभूतियों का आधार मनुष्य का सामाजिक जीवन है. यह वस्तुगत आधार होने से ही हम एक-दूसरे के अनुभव को जानते-पहचानते हैं; भिन्नता के होते हुए भी इस वस्तुगत आधार के कारण एक-दूसरे के निकट आते हैं. भारतीय काव्यशास्त्र ने साधारणीकरण के सिद्धांत द्वारा इस भाव जगत की सामान्य अनुभूति-भूमि की ओर संकेत किया, यह उसकी बहुत बड़ी विशेषता है.” (सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास, ‘आस्था और सौंदर्य’, पृष्ठ- 30)

          मार्क्सवाद और भौतिकवाद में गहरी आस्था के कारण रामविलास जी भाववादी दर्शन का विरोध करते हैं और इसी कारण साहित्य में रहस्यवाद का भी. उनका यह भी मानना है कि भाववाद व्यक्तिवादी विचारधारा का उत्स है और भौतिक सचाई की प्रायः अनदेखी करता है. वे लिखते हैं: “व्यक्तिवादी विचारधारा क्षीण होकर निर्जीव, विकृत, अस्वस्थ, यथार्थ-विरोधी रचनाओं की सृष्टि कर रही है. यथार्थवादी विचारधारा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य से ऐसी रचनाएँ करने की ओर प्रवृत्त है जिससे हमारी सामाजिक चेतना प्रखर हो, और हमारी सौन्दर्यबोध की वृत्तियाँ भी संतुष्ट हों. आधुनिक हिंदी साहित्य की मूल धारा भी हमें इसी ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है.” (यथार्थ जगत और साहित्य, ‘आस्था और सौंदर्य’, पृष्ठ-25)  

          भारत जैसे प्राचीन सभ्यता-संस्कृति वाले देश में अपनी परंपरा के मूल्यांकन की समस्या सबसे बड़ी है. बहु धार्मिक, बहु जातीय, बहु भाषीय और बहु सांस्कृतिक समाज के साहित्य की लम्बी परंपरा का मूल्यांकन कठिन काम है. प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत में परंपरा को देखने की उसकी दृष्टि बहुत संकीर्ण थी. प्राचीन साहित्य और मध्यकालीन साहित्य को लेकर प्रगतिशील आंदोलन का नकारात्मक रवैया था. उस नकारवादी माहौल के भीतर रामविलास शर्मा ने परंपरा के मूल्यांकन का काम शुरू किया और उसे अंजाम तक पहुँचाया. परंपरा के मूल्यांकन के प्रश्न पर विचार करते हुए रामविलास जी ने लिखा: “...साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्य निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिंबित करता है. इसके साथ हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है, और यह देखने का प्रयत्न करते हैं कि वर्तमान काल में जनता के लिए कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस तरह हो सकता है. इसके अलावा जो साहित्य सीधे सम्पत्तिशाली वर्गों की देख-रेख में रचा गया है और उसके वर्ग हितों को प्रतिबिंबित करता है, उसे भी परखकर देखना चाहिए कि यह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या ह्रासमान वर्ग का.” (परंपरा का मूल्यांकन, पृष्ठ-10-11).

          प्रगतिशील आंदोलन के प्रथम घोषणा पत्र में पुराना साहित्य और भक्त कवि ‘निस्तेज’ और ‘निष्प्राण’ बताए गए थे. रामविलास शर्मा ने इस नकारवादी प्रवृत्ति के खिलाफ़ संघर्ष किया. उन्होंने कालिदास, भवभूति आदि संस्कृत कवियों के साथ भक्तिकाल के तुलसीदास एवं अन्य कवियों की सकारात्मक व्याख्या की. यही नहीं, ऋग्वेद का भी मूल्यांकन करते हुए उसमें उन्होंने ‘श्रम संस्कृति’ का महत्त्व प्रतिपादित किया. संभवतः रामविलास शर्मा के परंपरा संबंधी मूल्यांकन को ही ध्यान में रखते हुए प्रगतिवाद की आलोचना करनेवाले आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा: “...प्रगतिवाद का नेतृत्व  दूरदर्शी मनस्वी कर रहे थे और उन्होंने इस धारा को मरुभूमि में जाकर अपने को खत्म करने से बचा लिया. प्रगतिवाद की परंपरा हिंदी के प्राचीन साहित्य से जोड़ी गई. तुलसीदास भक्तों के या पुराणपंथी आलोचकों के ही कंठाहार नहीं रह गए, आज के बुद्धिवादी प्रगतिशील समालोचकों ने भी उनकी महत्ता सादर, साभार स्वीकृत की और छायावाद की भी अपने समय की दृष्टि से सार्थकता मान ली. जो साहित्यिक अपने को आधुनिक कहते थे किन्तु जिनके पास कोई विशिष्ट ध्येय नहीं था, कला की कोई ख़ास कसौटी नहीं थी, उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि प्रगतिवादियों ने यह कौन-सा रुख अख्तियार कर लिया; जो लोग प्रगतिवाद से बहुत आशा रखते थे, किन्तु उसके वर्तमान रूप से क्षुब्ध हो गए थे, उन्हें इस रूप से संतोष हुआ और प्रगतिवाद को प्रतिष्ठित क्षेत्रों में भी प्रश्रय मिला.” (छायावाद और प्रगतिवाद, संकलित निबंध, पृष्ठ-37-38) यह सब लिखने के बाद नलिन जी ने जब प्रगतिशील साहित्य को ‘हिंदी की जागरूकता का सन्देश वाहक’ कहा तो उनके ध्यान में अवश्य ही रामविलास शर्मा जैसे प्रगतिशील आलोचक थे.

          परंपरा के मूल्यांकन की समस्या आई तो रामविलास शर्मा के सामने प्रश्न यह था कि परंपरा को देखने की दृष्टि क्या हो? उन्होंने लिखा: “...साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्यांकन निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिंबित करता है. इसके साथ हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है... साहित्य का हर स्तर सम्पत्तिशाली वर्गों के हितों से बंधा हुआ नहीं रहता.” (परंपरा का मूल्यांकन, पृष्ठ -10-11) यह कहने के साथ ही रामविलास जी ने यह भी कहा: “साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है. उसमें मनुष्य का इंद्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ, आंतरिक प्रेरणाएँ भी व्यंजित होती हैं. साहित्य का यह पक्ष स्थायी होता है.” (वही) अपने इसी सोच के तहत उन्होंने भक्ति साहित्य का मूल्यांकन किया और तुलसीदास को उसका सबसे बड़ा कवि घोषित किया. ऐसा करते हुए उनके ध्यान में तुलसी काव्य के सामंत विरोधी मूल्य थे, न कि ब्राह्मण और शूद्र के बीच की भेदकारी नीति.

          आलोचक के रूप में रामविलास शर्मा का महत्त्व कई कारणों से है. लेकिन उनकी ख्याति का बड़ा आधार छायावाद और निराला संबंधी उनका मूल्यांकन है. छायावाद और निराला के प्रति हिंदी आलोचना में अच्छी राय नहीं थी . नंददुलारे वाजपेयी जैसे आलोचक छायावाद को प्रतिष्ठित करने  का आलोचनात्मक संघर्ष कर रहे थे. उस संघर्ष को व्यापकता प्रदान की रामविलास शर्मा ने. निराला, प्रसाद और पंत की कविताओं को स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में और साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के रूप में प्रतिष्ठित करने का काम उन्होंने व्यापक पैमाने पर किया. तीन खंडों में ‘निराला की साहित्य साधना’ जैसा ग्रंथ लिखकर उन्होंने न सिर्फ निराला को, बल्कि छायावाद को भी सही परिप्रेक्ष्य देने का काम किया. निराला का महत्त्व स्थापित करते हुए उन्होंने पाँच टुकड़ों में एक कविता लिखी है जो ‘तार सप्तक’ में संकलित है और जिससे निराला का कालजयी कवि- रूप दिखाई देता है. ‘कवि’ शीर्षक इस कविता का एक अंश है-

वह सहज विलंबित मंथर गति जिसको निहार

गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार;

काले लहराते बाल देव-सा तन विशाल

आर्यों का गर्वोन्नत, प्रशस्त, अविनीत भाल;

झंकृत करती थी जिसकी वाणी में अमोल,

शारदा सरस वीणा के सार्थक सधे बोल;-

 

‘छायावाद साम्राज्य-विरोधी चेतना के निखार का साहित्य है’, यह बात रामविलास शर्मा ने व्यापक पैमाने पर प्रमाणित की और निराला के साहित्य का संबंध ‘स्वाधीनता आंदोलन के नवीन उत्थान’ के  साथ घोषित किया. कवि निराला का महत्त्व स्थापित करते हुए उन्होंने लिखा: “निराला का सहज स्वर उदात्त है; ओज उनके साहित्य का प्रधान गुण है. उनका माधुर्य अन्य कवियों के माधुर्य से भिन्न है; उनका शोक अन्य कवियों की वेदना से भिन्न है. कोई भी कवि एक ही उदात्त स्तर पर कविता नहीं लिख सकता, न उसे लिखनी चाहिए. निर्माण सौंदर्य के लिए उसे अनुदात्त या स्वरित स्तरों पर भी रचना करनी चाहिए. निराला एक ही कविता में भिन्न स्तरों पर अपने रचना-कौशल का परिचय देते हैं, अलग-अलग रचनाओं में भी. उनके श्रेष्ठ साहित्य में- भाव चाहे कोमल हो, चाहे कठोर- एक अंतर्निहित शक्ति का परिचय मिलता है. यह शक्ति स्वाधीनता आंदोलन के नए उत्थान की थी, यह शक्ति निराला के व्यक्तित्व की थी. दोनों के संयोग से ही निराला की साहित्य साधना पूरी हुई.” (निराला की साहित्य साधना, भाग-2 पृष्ठ-552) निराला संबंधी रामविलास शर्मा के इस मूल्यांकन को देखकर संभवतः कवि दिनकर ने कहा था कि भाग्यशाली है वह कवि जिसे रामविलास शर्मा जैसा आलोचक मिला. इस टिप्पणी से रामविलास शर्मा का आलोचकीय महत्त्व प्रकट होता है.

          कहा जा सकता है कि रामविलास शर्मा मुख्य रूप से छायावाद के आलोचक हैं. इसे विस्तार देकर यह भी कहा जा सकता है कि वे छायावाद के पूर्व के साहित्य के भी महत्त्वपूर्ण आलोचक हैं. लेकिन प्रयोगवाद, नई कविता और प्रेमचंदोत्तर कथा-साहित्य के मूल्यांकन में उनकी आलोचकीय गति और मति शिथिल पड़ने लगती है. वे ‘तार सप्तक’ के कवियों में शामिल हैं, बावजूद इसके वे प्रयोगवाद, नई कविता का महत्त्व ठीक-ठीक नहीं रेखांकित कर पाते हैं. ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ नामक उनकी पुस्तक उनके असफल आलोचनात्मक लेखन का सुन्दर उदाहरण है. यथार्थवाद की आलोचनात्मक कसौटी पर साहित्य को जाँचने की उनकी कोशिश इस पुस्तक में आकर असफल हो जाती है. इसी तरह प्रेमचंद और ‘गोदान’ की कसौटी पर जब वे फनीश्वरनाथ ‘रेणु’ और ‘मैला आँचल’ का मूल्यांकन करते हैं तो उस लेखक औरउसकी कृति के साथ न्याय नहीं कर पाते.

          ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में यथार्थवाद की जिस कसौटी पर वे नई कविता के कवियों को कसते हैं, वे हैं अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध आदि. इनके समानांतर केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन आदि को रखते हैं. इस तरह नई कविता के कवियों समानांतर उन कवियों का पक्ष रखते हैं, जो प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हुए हैं. रामविलास शर्मा की समझ यह है कि नई कविता पर अस्तित्ववाद का प्रभाव है और हिंदी की वास्तविक कविता केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन आदि के माध्यम से परवान चढ़ती है. ये कवि यथार्थवादी हैं और इनकी कविताएँ यथार्थ परक हैं. रामविलास जी का निष्कर्ष है कि अज्ञेय, शमशेर आदि पर न सिर्फ अस्तित्ववाद का प्रभाव है; बल्कि उनकी कविताओं में ‘नव रहस्यवाद’ भी है. उनकी नजर में मुक्तिबोध पर न सिर्फ अस्तित्ववाद का प्रभाव है, बल्कि वे सिजोफ्रेनिक भी हैं और उनका कवि-व्यक्तित्व विभाजित है. वे यह भी कहते हैं कि मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ विभाजित व्यक्तित्व की कविता है. रामविलास शर्मा की नजर में नई कविता दौर के सबसे बड़े कवि केदारनाथ अग्रवाल हैं. इस दौर की कविता के बारे में अपनी राय स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं: “नई कविता का उत्थान और प्रसार कई तरह से प्रगतिशील काव्यधारा के इतिहास से जुड़ा हुआ है. प्रगतिशील और प्रगति विरोधी रुझानों के भेद को मिटाने का प्रयत्न तो किया ही गया है, प्रगति विरोधी कविता को भी प्रगतिशील बताकर अनेक बार प्रस्तुत किया गया है. प्रगतिशील कविता की चर्चा में यथार्थवाद पर यथेष्ट जोर न देने के कारण इस कविता के इतिहास को समझने में भूलें होती हैं और अनेक कवियों के योगदान का सही मूल्यांकन नहीं होता.” (नई कविता और अस्तित्ववाद, 256) यह कहने के साथ रामविलास शर्मा ने यथार्थवादी काव्यधारा के विकास में निराला का महत्त्व बतलाते हुए केदारनाथ अग्रवाल के योगदान पर विस्तार से लिखा है. उनके अनुसार निराला के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण और बड़े कवि केदारनाथ अग्रवाल हैं. निराला और केदारनाथ अग्रवाल रामविलास शर्मा की दृष्टि में सही राजनीतिक दृष्टि से लिखनेवाले कवि हैं. रामविलास जी की स्पष्ट राय है: “ये दोनों कवि हिंदी कविता में क्रांतिकारी यथार्थवाद के संस्थापक हैं.” (वही-279)

            यथार्थवाद की साहित्यिक कसौटी पर जो कथाकार रामविलास शर्मा को सबसे उपयुक्त लगता है, वे हैं प्रेमचंद.उनके अनुसार सामंतवाद, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद-विरोध की सारी शर्तें प्रेमचंद का साहित्य पूरी करता है. इसलिए प्रेमचंद को वे ‘स्वाधीनता-संग्राम के सैनिक साहित्यकार’ के रूप में याद करते हैं. लेकिन यथार्थवाद वाली उनकी साहित्यिक कसौटी ‘मैला आँचल’ और नए मिजाज के उपन्यासों के मूल्यांकन में असफल साबित होती है. प्रगतिशील परंपरा के मूल्यांकन में  व्यापक और उदार दृष्टि का परिचय देनेवाला आलोचक यथार्थवाद की संकीर्ण गली में फँस जाता है.   ‘मैला आँचल’ का मूल्यांकन करते हुए रामविलास जी ने कहा कि वह प्रेमचंद की परंपरा का उपन्यास नहीं है. उन्होंने लिखा है: “... ‘मैला आँचल’ में नई चीज है, लोक संस्कृति का वर्णन. लोक गीतों और लोक नृत्यों के वर्णन द्वारा लेखक ने एक अंचल-विशेष की संस्कृति का चित्र अंकित किया है. इसके साथ कथा कहने की उसकी नई पद्धति है. वह सिनेमा के चित्रों के समान बहुत-से शॉट इकट्ठे कर देता है, ये शॉट एक-दूसरे से कितने विछिन्न हैं, इसका ध्यान नहीं रखता, एक ही अध्याय में तीन-चार बार ‘कट’ लगाकर पाठक को चौंधिया देता है. नतीजा यह है कि चलचित्र में जो सम्बद्धता होती है, उसका यहाँ अभाव है. उसकी चित्रण-पद्धति यथार्थवाद से अधिक प्रकृतिवाद के निकट है.... ‘मैला आँचल’ का लेखक प्रेमचंद की परंपरा से दूर जा पड़ा है.” (प्रेमचंद की परंपरा और आँचलिकता, आस्था और सौंदर्य, पृष्ठ-97) प्रेमचंद उनके लिए वो निकष हैं, जिससे पर वे जैनेन्द्र और रेणु समेत बहुतेरे कथाकारों को खारिज कर देते हैं. जैनेन्द्र की गाँधीपंथी सामाजिकता और उनकी अलग कथा शैली उन्हें यथार्थवादी नहीं लगती, बल्कि प्रतिक्रांतिकारी लगती है. जैनेन्द्र की समूची उपलब्धि को वे ‘देवर भाभी वाद’ तक सीमित कर देते हैं. इसी तरह यशपाल के कथा साहित्य का भी वे मूल्यांकन करते हैं और उसे भी ‘चोली जंफर उतार’ जैसी संज्ञा से चिह्नित करते हैं.यही आलोचनात्मक व्यवहार उन्होंने राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, अमृत राय आदि वामपंथी लेखकों के साथ भी किया है.उनकी इस तरह की आलोचना को ‘कुल्हाड़ी मार’ आलोचना की संज्ञा वामपंथी लेखकों ने ही दी है.

          यह सही है कि रामविलास शर्मा ने प्रगतिशील आंदोलन की प्रारंभिक संकीर्णता से संघर्ष किया और उसे व्यापक रूप देते हुए हिंदी साहित्य के लगभग एक हजार वर्षों के इतिहास का मूल्यांकन किया. लेकिन उनका यह मूल्यांकन-कार्य अपने से पूर्व के लेखकों और साहित्य का था. अपने समय और बाद के लेखकों के साहित्य का मूल्यांकन करते हुए वे काफी ‘सब्जेक्टिव’ रहे. कहा जाता है कि वे राजनीतिक सोच के स्तर पर स्टालिनवादी थे और उनके साहित्य चिंतन पर प्लेखानोव, काडवेल आदि मार्क्सवादी साहित्य चिंतकों का प्रभाव था, साथ ही यथार्थवाद वाली उनकी कसौटी घिस चुकी थी, जिसका पता उन्हें नहीं था. उन्होंने साहित्य मूल्यांकन के जो निकष बनाए, मसलन ‘नवजागरण’, ‘यथार्थवाद’ आदि वे बदलते समय में नाकाफी हो चुके थे. छायावाद और निराला के बाद के साहित्य पर लिखी हुई उनकी आलोचना को इसी संदर्भ में देखना चाहिए.

          हिंदी नवजागरण संबंधी उनकी अवधारणा को बाद के वर्षों में चुनौती दी गई और उसे एक तरह से ‘हिन्दू नवजागरण’ की संज्ञा दी गई. उनके हिंदी नवजागरण संबंधी तर्क को अति व्याप्ति दोष से ग्रसित माना गया और यह कहा गया कि जिसे रामविलास शर्मा ‘हिंदी नवजागरण’ कहते हैं, वह सामाजिक नवजागरण नहीं है, वह साहित्यिक नवजागरण भर है. इसे बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरण के समानांतर नहीं देखा जा सकता. हिंदी नवजागरण जैसी किसी सचाई से इंकार करते हुए वीरभारत तलवार ने लिखा है: “हिंदी नवजागरण एक भ्रामक नाम है. कुछ हिंदी लेखकों द्वारा एक मुहावरे की तरह चलाए गए इस शब्द का, उनकी चर्चाओं से बाहर, कहीं कोई अस्तित्व नहीं. जिसे हिंदी नवजागरण कहा जाता है, वह दरअसल ब्राहमों समाज और खासकर आर्य समाज के धार्मिक सुधारों के खिलाफ़, उनकी प्रतिक्रिया में हुआ, सनातनी बुद्धिजीवियों का आंदोलन था जिसमें उस समय के सभी बड़े हिंदी लेखकों और संपादकों ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया....उनके आंदोलन को नवजागरण कहना धार्मिक-सामाजिक सुधारों वाली भारतीय नवजागरण की धारा से उन्हें गडमड कर देना होगा.” (रस्साकस्सी, पृष्ठ-342)


इन सब आलोचनाओं के बावजूद रामविलास शर्मा की मान्यताएँ अपनी जगह हैं और वे आज भी हिंदी पाठक का सामान्य बोध बनी हुई हैं.