Sunday 5 May 2019

राम कथा का बहुवचानात्मक पाठ


....कमलानन्द झा की पुस्तक ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध ऐसे समय में प्रकाशित हुई है, जब तुलसीदास पर लगातार हमले हो रहे हैं. तुलसीदास की कविताओं का कुपाठ करके उनपर श्रद्धा करने वाले भी हमला कर रहे हैं और तुलसी को वर्ण-व्यवस्था समर्थक सिद्ध करने वाले या उन्हें प्रतिक्रियावादी कवि बताने वाले भी कर रहे हैं. ऐसे समय में तुलसीदास पर तर्कपूर्ण पुस्तक का प्रकाशन एक शुभ-संकेत है. यह आलोचना की एक दिलचस्प किताब है- सचमुच की आलोचना के अर्थ में. दिलचस्प इस अर्थ में कि कमलानन्द ने आलोचना में रचनात्मकता की गुंजाईश खोजी है. यह तुलसीदास पर लगातार बहस करती हुई किताब है. आजकल तुलसीदास पर लोग लिख नहीं रहे हैं, यह कहना ज्यादे मुनासिब होगा कि तुलसीदास पर सही-सही बात करने से बच रहे हैं. यह पुस्तक तुलसीदास के काव्य-विवेक को रेखांकित करते हुए उनके मर्यदाबोध की समीक्षा करती है.
इस किताब की एक अच्छी बात यह है कि यह न तो तेजाबी भाषा में  लिखी गई है और न ही तेजाबी शैली में. इसके विपरीत यह तर्कपूर्ण वाद-विवाद शैली में लिखी गई है. तुलसी का अध्ययन यहाँ निर्धारित ढाँचे में नहीं किया गया है, यहाँ तुलसी को साहित्यिक के साथ सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भों में भी देखने की कोशिश की गई है. सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भों में भी उस तरह से नहीं, जिस तरह आजकल किताब से किताब और विमर्श से विमर्श चलाने की प्रक्रिया चल रही है और साहित्य का अध्ययन करते हुए टेक्स्ट प्रायः छूट जाता है और  दूसरों की कही बातों पर ही सारी बहस होती रह जाती है. सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ होते हुए भी इस किताब के केंद्र में कविता है और तुलसीदास का टेक्स्ट है. इसलिए यह किताब आज की तारीख में महत्वपूर्ण है. एक अन्य कारण से भी पुस्तक की प्रासंगिकता बढ़ जाती है. यह पुस्तक अस्मितामूलक विमर्श के दौर में लिखी जा रही है और इसमें तुलसीदास की कड़ी आलोचना की गई है, लेकिन यहाँ विमर्शमूलक दबाव नहीं है, इसके बरक्स यहाँ बहसधर्मी- चेतना है. यही कारण है कि यहाँ दृष्टि की सम्पूर्णता नज़र आती है, एकआयामिता नहीं.
इधर के वर्षों में साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने के क्रम में टेक्स्ट कम हुआ है और साहित्य-सिद्धांत की बातें ज्यादा होने लगी हैं. टेरी इगलटन ने इस तरह की प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की है कि हमारे विद्यार्थी कविता पर कम बात करते हैं और साहित्य-सिद्धांत पर अधिक. इसमें दोष छात्रों का नहीं हम शिक्षकों का है कि हमारे अध्यापन में टेक्स्ट हाशिये पर चला गया है. ऐसे समय में यह देखकर अच्छा लगता है कि कमलानंद की यह पुस्तक टेक्स्ट के इर्द-गिर्द घूमती है. इस पुस्तक में तुलसी अध्ययन सम्बन्धी सारे मुद्दे, जटिलताएं, विरोधाभास आदि पर गंभीर बहस टेक्स्ट को केंद्र में रखकर की गई है. इस कारण पुस्तक की विश्वसनीयता बनी रहती है.
परिशिष्ट को छोड़कर कुल सात अध्यायों में यह किताब लिखी गई है. हर अध्याय एक-एक समस्या को लेकर बहुत ही योजनबद्ध और सिलसिलेवार ढंग से आगे बढ़ता है. पहले ही अध्याय ‘तीन सौ रामायण : अर्थांतरण की महिमा’ में हमारा साक्षात्कार एक जरूरी बहस से होता है. ए. के. रामानुजन के तीन सौ रामायण पर आधारित महत्वपूर्ण शोधकार्य को केंद्र में रखकर रामकथा के एक पाठ को ही असली पाठ बना देने की राजनीति और रणनीति पर इस किताब में  खुल कर बात की गई है. अपने उक्त शोधकार्य में रामानुजन जोर देकर कहते हैं कि अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग समयों पर, रामायण के अलग-अलग पाठ रहे हैं. कमलानन्द झा पूरे आत्मविश्वास के साथ इस बात को प्रतिपादित करने की कोशिश करते हैं कि रामकथा का कोई एक पाठ नहीं है और कोई भी पाठ किसी भी दूसरे पाठ से कम महत्वपूर्ण नहीं है. कहने की आवश्यकता नहीं कि रामानुजम दक्षिण भारतीय भक्ति साहित्य के जाने-माने विद्वान् रहे हैं. 15-20 साल पहले ‘मानुषी’ पत्रिका में उनका एक अत्यंत महत्वपूर्ण साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने एक मार्के की बात यह कही थी कि भक्ति साहित्य पर बात करते हुए हमारी आदत ‘सिंगुलर’ में बात करने की है, जबकि भक्ति साहित्य का पूरा चरित्र ‘प्लुरल’ है. बहस का मुद्दा भक्ति की ‘सिंगुलर’ दृष्टि और ‘प्लुरल’ दृष्टि का है. ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यदाबोध’ पुस्तक का पूरा जोर भक्ति साहित्य की इसी बहुलतावादी दृष्टि पर है. यही इस अध्ययन का वैशिष्ट्य है और इसे आगे ले जाने की जरूरत है. रामकथा को जैसे ही ‘सिंगुलर’ दृष्टि से एक पाठ में बदलने की कोशिश की जाएगी, और उसे प्रचारित करने का प्रयास किया जाएगा, उसके साथ एक ख़ास तरह की राजनीति शुरू हो जाएगी और वह राजनीति फासिज्म की होगी, इसमें दो राय नहीं.
पुस्तक के अन्य अध्यायों के नाम ही विषय-वस्तु के बारे में बहुत कुछ कह जाते हैं, जैसे- रामराज्य का सांस्कृतिक निहितार्थ, कलियुग और रामराज्य का अंतर्द्वंद,  तुलसीदास का मर्यादाबोध बजरिये आलोचक, रामराज्य से मोहभंग : एक साक्ष्य, आधुनिक रामकथा :रामराज्य का नया पाठ तथा रामराज्य बरक्स मैथिली रामायण की सीता. सभी अध्याय प्रत्यक्षतः अलग-अलग किन्तु परोक्ष रूप में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. वर्ण-व्यवस्था का खंडन लेखक शुरू से अंत तक करता है- तुलसी के सन्दर्भ में भी और रामचंद्र शुक्ल के सन्दर्भ में भी. उसके अनुसार तुलसी भी वर्णवादी ठहरते हैं और शुक्लजी भी. लेखक की यह स्थापाना शुक्लजी की व्यावहारिक आलोचना के आधार पर  विशेषकर तुलसी के सन्दर्भ में की गई है. लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि शुक्लजी ने सैद्धांतिक और वैचारिक निबंध भी लिखा है और काफी व्यवस्थित ढंग से लिखा है. इस दृष्टि से उनके वैचारिक निबंधो को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए था. अंग्रेजी में उनका एक लेख है जो बाद में हिंदी में अनूदित हुआ, ‘जाति व्यवस्था’. जाति की व्यर्थता को जिस तल्ख़ भाषा में उसमें प्रस्तुत किया गया है वह लेखक कमलानंद के निष्कर्ष से उलट है. इस निबंध में शुक्लजी कहते हैं कि जिसे हम हिन्दू जाति कहते हैं, वह कोई एक जाति नहीं है. यहाँ न जाने कितनी जातियाँ आयीं और यहाँ आकर बस गईं, यहीं की होकर रह गईं.  यह बात वे 1924 में कह रहे थे. 1948 में हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘अशोक के फूल’ नामक निबंध में  इसी बात को आगे बढ़ाते हैं कि यहाँ शक आए, हूण आए. आशय यह कि यहाँ कुछ भी अविशुद्ध नहीं है. यह बात शुक्लजी ‘जाति व्यवस्था निबंध में रेखांकित कर रहे हैं. शुक्लजी  की व्यावहारिक आलोचना और वैचारिक-सैद्धांतिक आलोचना में जो तनाव है, वह ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक’ पुस्तक में नज़र नहीं आता.
    पुस्तक का पांचवाँ अध्याय ‘रामराज्य से मोहभंग : एक साक्ष्य’ है जो विलक्षण है और साथ ही बहसतलब एवं समस्यापरक भी. इस अध्याय की मूल स्थापना यह है कि तुलसीदास रामचरितमानस में जिस भव्य आदर्श रामराज्य की कल्पना करते हैं, वह ‘कवितावली’ और ‘हनुमानबाहुक’ तक आते-आते टूट जाती है. रामराज्य के माध्यम से तुलसीदास वेद, वर्ण और स्त्री सम्बन्धी जिन नैतिक मानदंडों की सिफारिस करते हैं, वह उनकी बाद की रचनाओं में देखने को नहीं मिलते. ‘मानस’ में आदर्श में जीनेवाले, स्वप्न में जीनेवाले, रामराज्य का सपना देखने वाले और वर्ण-व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने वाले जो तुलसीदास हैं, उनका ‘कवितावली’ में मोहभंग हो जाता है. लेखक प्रश्न शैली में उत्तर देते हुए लिखता हैं कि, “मानस के उत्तरकाण्ड में यहाँ से वहाँ तक रामराज्य का गुणगान किया गया है, लेकिन ‘कवितावली’ के उत्तरकाण्ड (जो आधे से अधिक भाग में है) में प्रसंगवश ही रामराज्य की चर्चा हुई है, क्या यह रामराज्य से तुलसी का मोहभंग नहीं है?...मानस के उत्तरकाण्ड में वर्णाश्रम को वैध ठहराने की जी-तोड़ कोशिश तुलसीदास ने की है, इसके विपरीत ‘कवितावली’ के उत्तरकाण्ड में ही विशेष रूप से वर्णाश्रम की इस वैधता को नकारा गया है”. (पृष्ठ 110) इतना ही नहीं ‘कवितावली’ की पंक्ति उद्धृत करते हुए रामराज्य की असमंजसता को लक्षित किया है- ‘संकट समाज असमंजस में रामराज’. रमेश कुंतल मेघ, बच्चन सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी के तुलसी संबंधी अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हुए उनकी स्थापनाओं से लेखक ने अपनी सहमति जताई है.
लेखक की इस स्थापना से यह साफ़ ध्वनित होता है कि तुलसीदास अगर महत्वपूर्ण हैं तो ‘कवितावली’ और ‘हनुमानबाहुक’ के आधार पर. यह विचारणीय सवाल है. यहाँ प्रश्न है कि तुलसीदास यदि महाकवि हैं तो क्या वे ‘कवितावली’ और ‘हनुमानबाहुक’ के कारण हैं? क्या यह तुलसीदास का सही-सही मूल्यांकन है? मुझे आलोचना की ऐसी समझ पर संदेह है. तुलसी का जो भी कद है और वे जिस बड़ाई में हैं; वे यदि महाकवि हैं तो उसमें ‘रामचरितमानस’ की बड़ी भूमिका है. ‘मानस’ की वैचारिक सीमाएँ हो सकती हैं, लेकिन तुलसी के कवित्व का शिखर ‘रामचरितमानस’ ही है. उस शिखर में योगदान उनकी अन्य रचनाओं का भी है. लेकिन अगर हम मानस को हटाकर तुलसी के कवित्व पर बात करेंगे, महत्व पर बात करते हैं तो एक तरह से हम तुलसीदास के वास्तविक महत्त्व को रेड्युस कर रहे हैं, उन्हें कमतर कर रहे हैं.
पुस्तक रामराज्य के बहाने सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक सरोकारों से भी मुठभेड़ करती प्रतीत होती है. लेखक ने तुलसी के रामराज्य की तुलना गाँधी के रामराज्य से की है और कहा है कि गांधी का रामराज्य सत्य और अहिंसा का है, वहाँ वर्ण-व्यवस्था की कोई बात नहीं है. पुस्तक में अवध के किसान आन्दोलन के  सन्दर्भ में बाबा रामचद्र भी आते हैं, यह भी आता है कि उन्होंने इस आन्दोलन में  किस तरह  तुलसी की रचनाओं का रचनात्मक उपयोग किया. पुस्तक में गाँधी के रामराज्य को अत्यंत संक्षेप में चलताऊ ढंग से निपटा दिया गया है. जबकि आज के सन्दर्भ में तुलसीदास के रामराज्य की बात करते हुए, रामराज्य को मेटाफर के रूप में आधुनिक राजनीति के सन्दर्भ में यदि किसी ने रखा है तो गांधी ने. गांधी ने उसे एक  मुहावरा बना दिया, जिसके कारण उनकी आलोचना भी हुई, प्रशंसा भी हुई और उनकी राजनीति को लोकप्रियता भी मिली. पुस्तक की भूमिका में जिस सामजिक-राजनीतिक सदर्भ की बात की गई है, उस रूप में वह सन्दर्भ पुस्तक में नहीं दिखता है.
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि मुझे तुलसीदास की रामायण का जो संस्कार मिला, वह जीवन भर काम आया. गाँधी को जब-जब संकट आया उन्होंने तुलसी की रामायण से और भक्त कवियों से शक्ति ली. जिस समय हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के सभी राजनेता जश्ने आज़ादी मना रहे थे गाँधी अपने चंद साथियों के साथ नोआखोली के साम्प्रदायिक दंगे में निर्भीक होकर ‘वैष्णव जण ते तेणे रे कहिये’ गाते हुए मोर्चे पर डटे हुए थे. गांधीजी की प्रपौत्री मधुबेन की 1946 से 1948 तक की डायरी से पता चलता है कि ऐसा अभय गाँधी को कहाँ से मिला. यह अभय उन्हें भक्ति-काव्य से मिला, तुलसी से मिला, नरसीं से मिला. और यह अभय कब आता है और कहाँ से आता है? आपके भीतर साहस तब आता है जब आपके भीतर सत्य होता है. गांधीजी को लगा कि सांप्रदायिक सौहार्द ही सत्य है, इसके लिए जान भी चली जाय तो कोई बात नहीं. सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ के बीच खड़े होकर तुलसी के साहित्य पर जब विचार किया जाय तो यह सन्दर्भ आने चाहिए. आम तौर पर गाँधी को तुलसी से जोड़ा तो जाता है, लेकिन उचित सन्दर्भ में जोड़ने की कोशिश कम हो पायी है. इस सन्दर्भ को जोड़ते हुए गाँधी के प्रतीकों और आशयों को समझना जरूरी है. तब हम समझ पाते हैं कि वे किस तरह भक्त कवियों से शक्ति ग्रहण करते हैं. तुलसी के रामराज्य और गाँधी के रामराज्य में फर्क यह है कि गाँधी के रामराज्य में श्रम-भेद नहीं है. इसलिए गाँधी मानते हैं कि श्रम-भेद ही जाति-भेद का मूल कारण है. शौचालय साफ करने से लेकर पोथी  लिखने तक का काम जब सभी लोग करेंगे तो वर्ण-व्यवस्था अपने आप समाप्त हो जाएगी. वर्ण-व्यवस्था समाप्त करने का यह अहिंसक तरीका था गाँधी का. गाँधी ने एक तरफ़ तुलसी से रामराज्य लिया तो चरखा लिया कबीर से. यह अध्यात्म और उद्योग का मणिकांचन योग है. रामराज्य के सन्दर्भ में राम मनोहर लोहिया का सन्दर्भ भी महत्वपूर्ण है. लोहिया ने रामचरितमानस और रामराज्य पर विचार किया है. ये सारे सन्दर्भ भी पुस्तक में आने  चाहिए थे.
लेखक का यह संकेत कि तुलसी के रामराज्य में कोई परिवर्तनकारी सपना नहीं है, पूर्ण सच नहीं है. इस सन्दर्भ में हिंदी में सगुण बनाम निर्गुण पर लम्बी बहस चली. इस बहस में निर्गुण भक्त कवि ज्यादे परिवर्तकामी सिद्ध हुए हैं. दादू के सन्दर्भ में इतिहासकार हरबंस मुखिया ने लिखा है कि भक्त कवियों के पास व्यवस्था के प्रति क्षोभ तो है लेकिन इस सामंती व्यवस्था का कोई विकल्प उनके पास नहीं है. वे बुरे राजा का विकल्प अच्छे राजा में देखते हैं.  तुलसीदास के पास भी बुरे राजा का विकल्प अच्छा राजा ही है. जिस राज्य में प्रजा दुखी हो, वैसा राजा तुलसीदास को भी नहीं चाहिए. तुलसीदास को आज के आन्दोलनकारी के रूप में मान कर उनपर विचार नहीं किया जा सकता है. कहने का आशय यह कि तुलसीदास अपनी रचना यात्रा में थोड़ा इधर से उधर हुए हैं जरूर, लेकिन उनकी यात्रा कुल मिलाकर एक अच्छे राजा की खोज ही है. 
     (दिनांक-15 फ़रवरी 2018 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कला संकाय सभागार में इरफ़ान हबीब की अध्यक्षता में ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध’ पुस्तक पर संपन्न विचार-गोष्ठी में दिए गए वक्तव्य का किंचित संशोधित-संपादित रूप जो 'बया' के नए अंक में प्रकाशित है.)