Sunday 1 October 2017

गाँधी का 'अभय' मंत्र

विनोबा भावे की एक छोटी-सी पुस्तक है - ‘गाँधी जैसा मैंने देखा’.उसमें साबरमती आश्रम में गाँधी के साथ बिताए दिनों की यादें हैं. ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए...’ भजन वहां गया जाता था. विनोबा के मन में यह सवाल उठा कि इस भजन में एक वैष्णव व्यक्ति के जो लक्षण बताए गए हैं वे गाँधी में कितने हैं! अपने अनुभव के आधार पर बिनोवा भावे ने लिखा है कि एक सच्चे वैष्णव के सभी गुण गाँधी में थे. वे गुण थे- सादगी, सच्चाई, अपरिग्रह, अभय, निरभिमान आदि. इन गुणों को गाँधी ने भारत की राजनीति से जोड़कर नए भारत का और नयी सभ्यता का सपना देखा.गाँधी राजनीति और समाज को जिन गुणों से जोड़ना चाहते थे,उन्हें अब कोई याद भी नहीं करता.राजनीति में जब सारा जोर ‘राज’ पर हो और उससे ‘नीति’ गायब हो, जब ‘ग्राम स्वराज’ की कल्पना स्थगित कर दी गई हो और देश ‘स्मार्ट सिटी’ के सपने में मुबत्तिला हो, तब गाँधी को याद करने का अर्थ क्या है?
     ‘सत्याग्रह’ के रूप में गाँधी ने सामजिक और राजनीतिक प्रतिरोध का नया औजार भारत को दिया. इस सत्याग्रह के जरिए उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में नयी जान फूँक दी. जो ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ सिर्फ प्रस्ताव पारित करने वाली जमात थी, उसे गाँधी ने जन आन्दोलन में बदल दिया. उनके ‘सत्याग्रह’ की प्रथम प्रयोगशाला चंपारण है जिसका 2017 शताब्दी वर्ष है.उन्होंने सत्याग्रहियों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी की और नए स्वतंत्र भारत का सपना देखा. गाँधी के सपनों का यह भारत वैकल्पिक सभ्यता का भारत था जो अतिशय भोग को नकारता था और अतिशय मशीनीकृत दुनिया के समानांतर श्रम आधारित सभ्यता को महत्त्व देता था.गाँधी ने मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के फर्क को ख़त्म किया और शौचालय की सफाई से लेकर राष्ट्र निर्माण के काम को एक ही समान माना.इस तरह उन्होंने हर तरह के श्रम को नए सिरे से परिभाषित किया और श्रम-विभाजन पर टिकी  भेदभाव कारी वर्ण-व्यवस्था पर चोट की.
     भक्ति साहित्य ने यदि उन्हें मोहनदास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी बनने में बड़ी भूमिका निभाई तो आधुनिक साहित्य से प्राप्त गहरे संस्कारों ने भी उनके आत्मबल को मजबूत किया. गाँधी जब दांडी मार्च पर जाने को थे और उसकी सफलता को लेकर बहुतों के मन में संदेह था, तब टैगोर ने अपने प्रसिद्ध गीत ‘एकला चलो रे’ पर पोस्टर बनाकर कलकत्ते में लगाया था और गाँधी को इस तरह अपना नैतिक समर्थन दिया था. उस पोस्टर के चित्र नंदलाल बोस ने बनाए थे. वही गाँधी जब 1947 में अपनी जान जोखिम में डालकर दंगाग्रस्त नोआखाली में घूमते हुए लोगों के जख्मों पर मरहम लगा रहे थे, तब उनके साथी ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ के साथ ‘एकला चलो रे’ भी गाते थे. भारतीय राजनीति के सबसे भयावह दौर में जब जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा से वे गुजर रहे थे, तब उनके आत्मबल को बनाए रखने में कविताओं की बड़ी भूमिका रही. यह भारत की आधुनिक राजनीति का साहित्य से जुड़ाव का परिणाम था. इसका असर उस समय की राजनीति पर व्यापक रूप से पड़ा. राजनीति से साहित्य के जुडाव का यह सिलसिला आज़ादी के बाद लगभग दो-ढाई दशक तक कमोबेश चलता रहा. लेकिन उसके बाद से राजनीति यदि संस्कारहीन हुई तो उसका मुख्य कारण उसका साहित्य-संस्कृति के सरोकारों से वंचित होना है .
    
     गाँधी ने सत्याग्रही का ‘अभय’ होना अनिवार्य माना. आज देश में गाँधी के मंत्र अभय की बहुत जरूरत है. चंपारण सत्याग्रह के दौरान गाँधी ने जो अनेक काम किए उनमें सबसे पहला स्थान अभय का है. चंपारण की जनता ‘निलहों’ के अत्याचार से पीड़ित तो थी ही, बहुत डरी हुई भी थी. लोग अत्याचार सहना पसंद करते थे, लेकिन अत्याचार के खिलाफ बोलना नहीं.गाँधी जब गए तब उनके साथ खड़े होने वाले राजकुमार शुक्ल समेत बहुत कम लोग थे. इसका कारण यह था कि जनता में अंग्रेजों का भय व्याप्त था. गाँधी ने वहाँ सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए अभय होकर न्याय के लिए लड़ना सिखाया. गाँधी के विदेशी साथी चार्ली और एंड्रूज जब चंपारण से वापस लौटने लगे तो वहाँ के लोग चाहते थे कि ये चंपारण में ही बने रहें. कारण यह था कि गोरों  की उपस्थिति चंपारण की जनता को मानसिक तोष देती थी कि इनके रहते अंग्रेज गोरे उन पर अत्याचार नहीं करेंगे. गाँधी ने लोगों की यह कमजोरी महसूस की और अपने दोनों साथियों को जाने दिया. गाँधी चाहते थे कि न्याय के रास्ते पर लोग निर्भय होकर चलना सीखे. लोगों ने उनकी यह बात मानी और चंपारण सत्याग्रह में व्यापक जन भागीदारी हुई. गाँधी का यह मंत्र आज भी किसी फासिस्ट कारवाई के विरुद्ध सबसे कारगर हथियार है.
     गाँधी का मानना था कि देश में जो भी नीति बने, उसे बनाते समय ध्यान में रखा जाए कि समाज के सबसे कमजोर आदमी पर उसका क्या असर होगा. राजनीति की जगह गाँधी की यह लोकनीति थी. कहने की जरूरत नहीं कि हमारी वर्त्तमान राजनीति की चिंता के केन्द्र में समाज का वह आखिरी आदमी नहीं है जो गाँधी की लोकनीति में पहला स्थान रखता है. हमारी विकास नीति अब आखिरी व्यक्ति को ध्यान में रखकर नहीं बनती, पूंजीपतियों को ध्यान में रखकर बनती है. इस कारण समाज में सुविधा संपन्न और वंचित तबके के बीच गैर-बराबरी की खाई चौड़ी हुई है. दुखद यह है कि गाँधी की लोकनीति को दरकिनार करके विकास की जो फसल उगाई जा रही है वह गरीबों के हित में नहीं. इस विकासनीति से उपजा हुआ जो मध्यवर्ग है वह समाज चिंता से कटा हुआ मध्यवर्ग है. वह भारतीय नवजागरण की चेतना वाला मध्यवर्ग नहीं है जिसकी चिंता के दायरे में समतामूलक समाज का एजेंडा था. नए वेतनमानों से अघाया हुआ यह मध्यवर्ग आत्मकेंद्रित और लालची मध्यवर्ग है. यही कारण है कि एक तरफ गंडा ताबीज बेचने वाले बाबाओं की देश में बाढ़ आ गई है जिनके ज्यादातर भक्त इसी मध्यवर्गीय समाज से आते हैं. एक कहावत है कि लालचियों के गाँव में ठग कभी भूखे नहीं रहते.  इसका दूसरा पहलू यह है कि इस विकासनीति को चुनौती देने वाले सत्याग्रहियों के साथ जो व्यापक जन भागीदारी होनी चाहिए थी, उसका सर्वथा अभाव है.
     गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में कहा था कि यह धरती दुनिया के सभी लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए काफी है, लेकिन एक लालची व्यक्ति के लिए छोटी है. उस पृथ्वी का दोहन जब हम अपनी जरूरत के लिए नहीं, लालच के लिए कर रहे हैं और संकट को आमंत्रित कर रहे हैं, तब जो व्यक्ति सबसे पहले याद आता है वह गाँधी हैं. गाँधी अपने घर की खिड़कियाँ खुली रखना चाहते थे ताकि बाहर की हवा आ सके, लेकिन इतनी नहीं कि बाहर की आँधी उसे उड़ा ले जाए. नयी आर्थिक नीति के समय में हमने सिर्फ खिड़कियाँ ही नहीं बल्कि सारे दरवाजे भी खोल रखे हैं, फल यह है कि बाहर से आई विकास की आँधी हमारी परंपरा और संस्कार समेत घर की सारी वस्तुओं को उड़ाए लिए जा रही है. गाँधी ऐसे समय में बरबस याद आते हैं,और याद आता है उनका स्वदेशी का अभियान.
     गाँधी की कहानी लिखने वाले अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर ने गाँधी और जिन्ना की तुलना करते हुए लिखा है कि गाँधी हर हाल में भारत विभाजन रोकना चाहते थे और जिन्ना हर हाल में पाकिस्तान बनाना चाहते थे. विभाजन के लिए गाँधी अपनी हर कुर्बानी देने को तैयार थे और पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए जिन्ना हर तरह की बर्बादी देखने को तैयार थे. फिशर ने इस विडम्बना पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि नास्तिक जिन्ना धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनाना चाहते थे और धार्मिक गाँधी धर्म निरपेक्ष अविभाजित भारत चाहते थे. दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन्ना जीते और गाँधी अपने मिशन में कामयाब नहीं हुए.धर्म की राजनीति करने वालों को इससे सीखने की जरूरत है.

     गाँधी बुद्धि के साथ अतःकरण पर जोर देने वाले व्यक्ति थे. बुद्धि और अन्तः करण के मेल का अद्भुत समन्वय उनके जीवन में दिखाई देता है. इस अर्थ में वे भक्त कवियों से जुड़ते हैं जिनके यहाँ शब्द और कर्म में कोई द्वैत नहीं है. गाँधी को याद करने का मतलब अपने आचरण और अपने अन्तःकरण को फिर से  टटोलना है.