Sunday 21 January 2018

संस्मरण और ईमानदारी

मुक्तिबोध रचनाकार के लिए चरित्र और आलोचक के लिए ईमानदारी जरूरी मानते थे। चरित्र और ईमानदारी ही वह चीज है जो रचना और आलोचना को विश्वसनीय बनाती है। रचनाकार से मुक्तिबोध का आशय मुख्यतः कवि, कथाकार और नाटककार से है। लेकिन संस्मरण और आत्मकथा ऐसी विधाएँ हैं जिनके लेखक की ईमानदारी पर ही इसकी विश्वसनीयता टिकी है। ईमानदारी के कारण ही किसी संस्मरणात्मक या आत्मकथात्मक कृति में आग पैदा होती है। इन विधाओं में लेखक की ईमानदारी साफ-साफ दिखाई देती है। संस्मरण जिन लोगों पर लिखा जाता है, वे लोग उसकी विश्वसनीयता की पुष्टि करने के लिए प्रायः जीवित नहीं होते। यूँ सही या गलत तथ्यों की प्रामाणिकता का पता सिर्फ लेखक को होता है, फिर भी उसकी गलतबयानी पाठक की नजर में आ जाती है और वह कृति बार-बार प्रश्नांकित होती रहती है।
          यशपाल की संस्मरणात्मक कृति सिंहावलोकन स्वतंत्रता के लिए जूझते और आग से खेलते क्रांतिकारियों की घटनाओं से जुड़ा हुआ है। भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों की शहादत का जीवित साक्ष्य होते-होते यह कृति रह गई तो इस कारण कि भगवतीचरण बोहरा और आज़ाद के निधन के प्रसंग में यशपाल की ईमानदारी बार-बार प्रश्नांकित होती रही। इसी तरह क्या भूलूँ क्या याद करूँ में कहा गया कि बच्चन ने यशपाल और प्रकाशवती के साथ न्याय नहीं किया। कहने का आशय यह है कि संस्मरण या आत्मकथा में लेखकीय ईमानदारी पहली आवश्यक शर्त है। इसके बिना न तो संस्मरण पठनीय भरोसा अर्जित करेगा और न आत्मकथा।
          ईमानदारी की दृष्टि से महात्मा गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग भारत में प्रथम कोटि की रचना कही जाएगी। इसे पढ़ते हुए पाठक को कहीं भी यह नहीं लगता है कि इस पुस्तक का लेखक अपने को छुपा रहा है। गाँधी ने पूरी तरह अपने को खोलकर रख दिया है। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आत्मकथा अपनी खबर लेखकीय ईमानदारी की दृष्टि से हिंदी की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा कही जाएगी। इसका कारण यह है कि ‘उग्र’ ने अपने गोपन पक्ष को भी इस तरह प्रस्तुत किया है कि वह पाठकीय भरोसा अर्जित कर लेती है। कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा निराला की ऐसी संस्मरणात्मक या शब्दचित्रात्मक रचनाएँ हैं जिनमें विधाओं की सीमाएँ टूटती हैं और लेखकीय ईमानदारी का जबर्दस्त प्रभाव पाठक महसूस करता है। कुल्लीभाट में निराला की जो आत्म स्वीकृति है वह इस रचना को अनुपम बना देती  है। कुल्लीभाट एक ऐसे चरित्र के रूप में हमारे सामने आते हैं जो निराला की ईमानदार कलम की देन हैं। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में अपने निजी जीवन को कम खोला है, पर सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की सच्चाइयों से इतना ईमानदार आत्म-साक्षात्कार किया है कि वह सिर्फ उनकी कृति न रहकर स्वतंत्रता संग्राम के तूफानी दौर का एक दस्तावेज बन जाती है। इसी तरह से पाब्लो नेरुदा की रचना मेम्वायर्स भी नेरुदा के व्यक्तिगत संस्मरणों से ऊपर उठकर साहित्यिक सोच-विचार का जीवित दस्तावेज बन जाती है। वह निजी प्रसंग हो या साहित्यिक प्रसंग, नेरुदा की साफगोई और ईमानदारी पाठक वर्ग को छू जाती है।
          बहुत लोग संस्मरण को दूसरों की निंदा या उनके चरित्र हनन का औज़ार बना देते हैं। संस्मरण में अपने युग का इतिहास भी छिपा होता है और वह  समकालीनों को बदनाम करने का जरिया भी बनता है। रवीन्द्र कालिया लिखित गालिब छुटी शराब खिलंदड़ी  भाषा और शानदार अंदाजे बयां के बावजूद एक बहुत अच्छी कृति बनते-बनते इसलिए रह जाती है कि इसमें आए लोगों के प्रति लेखक जितना तल्ख और निर्मम हैं उतना अपने प्रति नहीं हैं। इसी तरह दूधनाथ सिंह की संस्मरणात्मक कृति लौट आओ धार में लेखक वर्णित लोगों के प्रति जितना आलोचनात्मक हैं उतना अपने प्रति नहीं हैं। इसलिए बहुत रचनात्मक और काव्यात्मक भाषा के बावजूद वह कृति उम्दा किस्म का साहित्यिक दस्तावेज नहीं बन पाती। उसकी तुलना में उनकी कृति महादेवी ज्यादा उम्दा मानी जाएगी और दूधनाथ सिंह की पुस्तकों में सबसे अच्छी भी। इसलिए कि लेखक ने इस संस्मरण को आलोचनात्मक स्पर्श के साथ एक ऐसी भाषा में रचा है जो उसे दूधनाथ सिंह की सबसे अच्छी पुस्तक बनाती है।
          संस्मरण और आत्मकथा साहित्य की आधुनिक विधा है। हिंदी में इस विधा का जन्म भारतेन्दु काल में हुआ। तब से यह विधा निरंतर विकसित होती रही। लेकिन यह विधा हिंदी में उस ऊंचाई पर कभी नहीं पहुँची जहाँ कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और नाटक पहुँचे। कहा जा सकता है कि संस्मरण हिंदी की गौण विधा है। इसका कारण यह है कि संस्मरण या आत्मकथा लेखन के लिए जिस साहस और ईमानदारी की जरूरत है उसका हिंदी लेखकों में अभाव है। हिंदी समाज बौद्धिक रूप से पिछड़ा हुआ है और नैतिकता के उसके प्रतिमान अभी भी बहुत पुराने हैं। कथा सम्राट प्रेमचंद ने इसीलिए अपना जीवनवृत्त बहुत संक्षेप में प्रस्तुत किया। उसमें प्रेमचंद की सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक स्थितियाँ तो दर्ज हैं ही, उनका साहित्यिक संघर्ष भी सामने आता है। लेकिन उसमें प्रेमचंद का अलक्षित जीवन खुलकर सामने नहीं आता। शिवरानी देवी की संस्मरणात्मक कृति प्रेमचंद घर में के जरिए प्रेमचंद का वह  अलक्षित पक्ष सामने आता है जिसे प्रेमचंद या उनके आलोचकों ने जाने अनजाने ढँक रखा है। हिंदी लेखकों के पुत्र-पुत्री या पत्नियाँ उनके संस्मरण लिखें और ईमानदारी से लिखें तो लेखकों का ‘देवत्व’ थोड़ा कम होगा और उसका वास्तविक रूप हिंदी पाठक के सामने आएगा।
           हिंदी के पेशेवर लेखकों से भिन्न समाज और राजनीति में काम करनेवाले कुछ लोगों के संस्मरणों से भारतीय समाज का इतिहास बनता हुआ दिखाई देता है। इन संस्मरणों को किसी भी पेशेवर लेखक के संस्मरण से कमतर नहीं कहा जा सकता। चंपारण सत्याग्रह के संदर्भ में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा  लिखित बापू के कदमों में या अन्य संस्मरणों को पढ़ें तो मालूम पड़ता है कि चंपारण सत्याग्रह का इतिहास इसके बिना पूरा नहीं होता। इसलिए कि लेखक ने बड़ी ही ईमानदारीपूर्वक अपनी सीमाओं और सत्याग्रह से जुड़े लोगों के कार्यों की गहरी छानबीन की है। बिनोवा भावे की संस्मरणात्मक कृति गाँधी जैसा मैंने देखा को पढ़कर गाँधी के व्यक्तित्व की बारीकियाँ समझ में आती हैं। आमतौर से बिनोवा को गाँधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना जाता है। लेकिन इस पुस्तक से पता चलता है कि गाँधी के भरोसेमंद होने पर भी बिनोवा कितनी ईमानदारी से गाँधी के जीवन और कार्यों पर आलोचनात्मक नजर रखते थे।
  हिंदी में संस्मरण लेखन जितना रचनात्मक अर्ज के तहत लिखा जाता है उससे अधिक हिसाब चुकता करने के लिए लिखा जाता है.कांतिकुमार जैन के लिखे संस्मरणों  में ये दोनों प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं.यही स्थिति राजेंद्र यादव की ‘मुड़-मुड़ के देखता हूँ’ और मैत्रेयी पुष्पा की ‘वो सफ़र था कि मुकाम था’ की है.यह प्रवृत्ति हिंदी के बहुत सारे संस्मरण लेखकों में है.संस्मरण लेखन एक विशिष्ट रचनात्मक कार्य है इसका ध्यान बहुत कम लोग रखते हैं.संस्मरण एक व्यक्ति का छोटा इतिहास और उसका मूल्याङ्कन भी होता है,इस बात का ध्यान कम रखा जाता है.दिनकर की ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियां’,जगदीश चन्द्र माथुर की संस्मरणात्मक कृति ‘दस तसवीरें’,अज्ञेय की ‘स्मृति लेखा’,शिवपूजन सहाय की ‘वे दिन वे लोग’,केसरी कुमार की  ‘हिंदी का तडपता राजहंस’,काशीनाथ सिंह की ‘याद हो कि न याद हो’ आदि को जिन लोगों ने पढ़ा है वे स्वीकार करेंगे कि संस्मरण लेखन कितना गंभीर रचनात्मक कार्य है.इन संस्मरणात्मक कृतियों के जरिये वर्णित विषय या व्यक्ति नए रूप में सृजित होता हुआ दिखाई देता है.संस्मरण के भीतर ही यात्रा-संस्मरण को गिना जाना चाहिए.यात्रा-संस्मरणों के जरिये लेखक अपनी भाषा के बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करता है,साथ ही जीवन और प्रकृति के विस्तार का पाठक के लिए झरोखा भी बनता है.ऐसी कृतियों को याद करना हो तो बेनीपुरी की पुस्तक ‘पैरों में पंख बांधकर’,ब्रजकिशोर नारायण का ‘यूरोप कुछ ऐसे कुछ वैसे’,प्रभाकर माचवे का ‘गोरी नज़रों में हम’ हिंदी के कुछ ऐसे यात्रा-संस्मरण हैं जो अपने रचनात्मकता के लिए सहज ही याद आते हैं.ऊपर जिन कृतियों का उल्लेख हुआ है उनके लेखकों का उद्देश्य न तो पर निंदा है और न ही आत्म प्रदर्शन,उद्देश्य सिर्फ एक ही है इनके जरिये हिंदी में कुछ नया निर्मित करना .

      अज्ञेय ने कहा है कि आत्मकथा लेखन एक तरह का आत्म प्रदर्शन है.वे यह भी मानते हैं कि इसके मूल में यह भाव निहित है कि हम कुछ ऐसा मूल्यवान जानते हैं जिसे दुनिया को बताया जाना चाहिए.इसके ठीक उलट इधर के वर्षों में दलितों और स्त्रियों ने जो आत्मकथा लेखन किया है वह आत्म प्रदर्शन की जगह उनकी अथाह पीड़ा का दस्तावेज अधिक है.निश्चित रूप से मुख्यधारा के लेखकों से भिन्न दलितों और स्त्रियों का अपने जीवन को अपनी ही आँखों से देखना साहित्य में नए युग की शुरुआत है.आत्मकथा चाहे जिस धारा की हो उसके केंद्र में लेखक का अपना जीवन होता है लेकिन संस्मरण के केंद्र में दूसरा व्यक्ति या दूसरा प्रसंग होता है.इस भिन्नता के बावजूद दोनों ही विधाओं में ईमानदारी आवश्यक है.ईमानदारी के अभाव में कोई आत्मकथात्मक या संस्मरणात्मक कृति  कुछ दिन तक शोर-शराबे पैदा कर ले उसका स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता.इधर आने वाली बहुत-सी संस्मरणात्मक कृतियों में पाठक को उस ईमानदारी की कमी नजर आती है जो किसी रचना को औसत से ऊपर उठाकर विशिष्ट बनाती है.अपने आग्रहों-दुराग्रहों और संस्कारों की सीमा में बंधा हुआ व्यक्ति जब तक इनका अतिक्रमण नहीं करेगा अच्छा संस्मरण नहीं लिख सकता.यहाँ यह कहना चाहिए कि अपनी सीमाओं का अतिक्रमण वही व्यक्ति करता है जो भीतर से ईमानदार होता है.अच्छे संस्मरण लेखन में कई दफा विचारधारा भी बाधक होती है.भिन्न विचारधारा के व्यक्ति पर संस्मरण लिखते हुए संस्मरण लेखक प्रायः अनुदार होते हैं.इस अनुदारता के दृश्य हिंदी में आम हैं.इसलिए मुक्तिबोध ने किसी भी लेखक के लिए विचारधारा के साथ अंतःकरण की आवाज सुनने पर जोर दिया है.यह अंतःकरण और कुछ नहीं लेखक की ईमानदारी का पर्याय है.

Wednesday 17 January 2018

आलोचना: साहित्य के जनतंत्र में प्रतिपक्ष



साहित्य के जनतंत्र में आलोचना प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली विधा है
             (वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर सिंह से अनुराधा गुप्ता की बातचीत )


गोपेश्वर सिंह हमारे समय के महत्त्वपूर्ण आलोचक व चिन्तक हैं. आधुनिक साहित्य के साथ भक्ति साहित्य  को अलग नजरिए से देखने और उसके महत्त्वपूर्ण आयाम उद्घाटित करने में उनका विशेष योगदान है.उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं - नलिन विलोचन शर्मा, साहित्य से संवाद, आलोचना का नया पाठ तथा भक्ति आंदोलन और काव्य. उनके द्वारा संपादित महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं: भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार, शमशेर बहादुर सिंह: संकलित कविताएँ, ‘कल्पनाकाउर्वशीविवाद, नलिन विलोचन शर्मा: रचना संचयन आदि.
उत्कृष्ट आलोचना कर्म के लिए उन्हें ‘केदारनाथ अग्रवाल स्मॄति संस्थान’ का प्रतिष्ठित  रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ दिया जा रहा है. गोपेश्वर सिंह से उनके लम्बे लेखकीय और जीवनगत अनुभवों के साथ समकालीन आलोचना से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण  मुद्दों पर बात करने का अवसर मिलाप्रस्तुत हैं  बातचीत के  कुछ अंश ..
प्रश्न- गोपेश्वर जी, सबसे पहले रामविलास शर्मा पुरस्कार मिलने की आपको बहुत-बहुत बधाई. आप कैसा महसूस कर रहे हैं?
उत्तर- मैं आभारी हूँ रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान देने वाले संस्थान का और निर्णायकों का उन्होंने मुझे इस योग्य माना. रामविलास शर्मा का जीवन और कर्म मेरे लिए हमेशा प्रेरक रहा है. उनका विशाल ज्ञान, लेखन के प्रति समर्पण, जनपक्षधर रुझान, दुनिया के छल-छंद से निर्लिप्त, लाभ-लोभ की राजनीति से दूर रहने वाली प्रवृत्ति के लिए मेरे मन में गहरा सम्मान है. इस लिए इस सम्मान को दिए जाने की सूचना जब विभूति नारायण राय ने दी तो मुझे बेहद खुशी हुई. खुशी एक तो अपने आलोचना कर्म के पहचाने जाने की तथा दूसरी, जिन रामविलास शर्मा को हिंदी आलोचना का मैं शिखर मानता हूँ, उनके नाम पर मिले इस सम्मान की.
प्रश्न- आलोचना आपकी प्रिय विधा रही है, ऐसा क्यों?
उत्तर- लिखने के लिहाज से आलोचना मेरी प्रिय विधा है. वैसे मेरी सर्वाधिक प्रिय विधा तो कविता है, लेकिन एक पाठक के तौर पर. मुझे जो बहुत सारे अफ़सोस हैं उनमें से एक  कवि न होने का भी है . बचपन में कुछ कविताएँ लिखी थीं लेकिन अंतत: कविता मुझसे सध न सकी और कविता से मेरा प्रेम सिर्फ़ पढ़ने तक सीमित हो गया. अच्छी कविता पढ़ने पर मुझे समाधि में जाने का सुख मिलता है. लेकिन मैं लिखता तो हूँ आलोचना. आलोचना में मैं क्यों आया मैं कह नहीं सकता, उसकी कोई तैयारी नहीं थी. परिचित सम्पादक मित्रों ने आलोचना लिखने के काम में लगा दिया और मैं तब से लगा हुआ हूँ. आलोचना अब मैं इसलिए लिखता हूँ कि साहित्य के जनतंत्र में वह प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका में है. आलोचना के बिना ग़लत के विरुद्ध सही समय पर सही आवाज़ नहीं उठ सकती. साहित्य के जनतंत्र में आलोचना प्रतिपक्ष की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली विधा है.
प्रश्न- आज के समय में आलोचना की वास्तविक भूमिका क्या है और ये क्यों जरूरी है?
उत्तर- आलोचना का जो आधुनिक रूप है उसका गहरा संबंध लोकतंत्र, लोकतांत्रिक आकांक्षा और लोकतांत्रिक मिजाज़ से है. मैं अगर कह रहा हूँ कि आलोचना साहित्य के जनतंत्र का प्रतिपक्ष है तो उसके पीछे यह भाव निहित है कि उसका जन्म लोकतंत्र के उदय से जुड़ा हुआ है. पहले जब राजतंत्र था तब जिसे साहित्य शास्त्र कहते हैं उसका ज़माना था. चूंकि हम राजतंत्र में राजा की अलोचना नहीं कर सकते, क्योंकि आलोचना का अधिकार जनता को नहीं था इसलिए उस ज़माने की आलोचना यानी साहित्य शास्त्र, रस-छन्द, अलंकार , वक्रोक्ति आदि के माध्यम से तैयार हुआ. वहाँ साहित्य के कंटेट पर जोर कम और रूप विधान पर अधिक है लेकिन जब लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ तब सत्ता पक्ष के साथ प्रतिपक्ष का भी जन्म हुआ. संसद में जो भूमिका प्रतिपक्ष की है साहित्य में वही भूमिका आलोचना की है. प्रतिपक्ष के बिना आधुनिक साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती . आलोचना समाज और साहित्य को जन आकांक्षाओं के अनुरूप बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार है.
प्रश्न- आप हिन्दी के किन आलोचकों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और क्यों?
उत्तर- मेरे  प्रिय आलोचक हैं जो हमेशा मेरी आँखों में रहते हैं, वे हैं रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नलिन विलोचन शर्मा, विजयदेव नारायण साही और नामवर सिंह .और भी बहुत से आलोचक हैं जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है लेकिन बहुधा जिन्हें मैं उद्धॄत करता हूँ और जो मेरे दॄष्टि पथ में प्राय: रहते हैं वे यही हैं. सीखने के लिए तो हमने अंग्रेजी के और दूसरी भाषा के आलोचकों से भी बहुत कुछ सीखा है लेकिन हिंदी का होने के नाते मेरे दॄष्टि पथ में यही आलोचक रहते हैं.
प्रश्न- जिन आलोचकों का आपने जिक्र किया उनकी कौन सी बात आपको अच्छी लगती है?
उत्तर- रामचंद्र शुक्ल मुझे इसलिए अच्छे लगते हैं कि उनकी आलोचना में सिद्धांत और व्यवहार का मणि कांचन योग है. उनके यहाँ दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे रचना के मर्म को पहचानने वाले आलोचक हैं. शुक्ल जी ने कहा कि महाकवि वह  होता है जिसे जीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान हो. इसी वजन पर मैं कहना चाहूँगा कि आलोचक भी बड़ा वह  होता है जो रचना के मर्म को पहचानता है. शुक्ल जी ने यदि कह दिया कि केशव को कवि हॄदय नहीं मिला था तो साहित्य के आचार्य अज्ञेय और विश्वविद्यालय के आचार्य विजयपाल सिंह के कलम तोड़ लिखाई के बावजूद उन्हें कवि हॄदय नहीं मिला. शुक्ल जी की ही तरह रचना के मर्म को उद्घाटित करने में नामवर सिंह की आलोचक प्रतिभा कमाल करती रही है. रामविलास शर्मा इसलिए प्रिय हैं कि आज हिन्दी पाठक का जो कामनसेंस है उसका अधिकांश  उन्हीं का बनाया हुआ  है. भारतेन्दु, प्रेमचंद, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, हिन्दी नवजागरण, हिन्दी जाति, लोकजागरण का जो बोध हिन्दी पाठक के पास है वह रामविलास शर्मा का निर्मित किया हुआ है, यह कोई सामान्य बात नहीं. यह काम कोई असाधारण मेधा वाला आलोचक ही कर सकता है. इनके अलावा नलिन विलोचन शर्मा बहुत प्रिय रहे हैं. वे मानते थे कि आलोचना वही अच्छी है जो किसी कॄति का निर्माण करे. रचना के रूप पक्ष की घनघोर सराहना करने वाले नलिन जी ने विज्ञान सम्मत साहित्य  दॄष्टि पर जोर दिया और किसी भी तरह की चमत्कार प्रियता, वह चाहे धर्म की हो या साहित्य की, का विरोध किया. विजय देव नारायण साही ने समाज सापेक्ष जिस आलोचना की प्रस्तावना लिखी वह समाज सापेक्षता बहुत हद तक भारतीय ज़मीन से जुड़ी हुई है. इन्हीं सब कारणों से ये आलोचक मुझे प्रिय लगते हैं. लेकिन इनमें से किसी एक को चुनने की मज़बूरी हो तो मैं रामचंद्र शुक्ल को ही चुनूँगा.
प्रश्न- आपकी आलोचना और  भाषा में कोई उलझाव नहीं. वह बेहद सम्प्रेषणीय और साफ़ है. यह गुण आपने किस आलोचक से अर्जित किया?
उत्तर- हाँ, यह कहना आपका सही है कि मेरी भाषा और मेरे कथन में सफ़ाई है. सफ़ाई का सीधा संबंध आपकी साफ़ समझ और साफ़ दॄष्टि और साफ़ मन से है. मैं वही लिखता हूँ जिसके बारे में मेरी समझ साफ़ है और जो मेरी समझ का हिस्सा है. मैं मानता हूँ कि हमारे कहने में उलझाव तब पैदा होता है जब हमारी दॄष्टि और हमारी समझ में उलझाव हो. उलझी समझ और उलझी दॄष्टि के साथ मैं नहीं लिखता. मैं उन्हीं विषयों और व्यक्तियों के बारे में लिखता हूँ जिनके बारे में दॄष्टि और समझ साफ़ हो. साफ़गोई मेरे जीवन व्यवहार में भी है और आलोचना व्यवहार में भी. जहाँ तक भाषा की सफ़ाई की बात है तो वह गुण मैंने हिन्दी के दो कवियों से लेने की कोशिश की. लोगों को आश्चर्य तो होगा लेकिन मेरे लिए यह सत्य है कि साफ़-सुथरा गद्य लिखने की कला मैंने बच्चन और दिनकर से सीखी. इन दोनों का गद्य हिन्दी प्रकॄति का है, कर्ता कर्म और क्रिया वाला गद्य. उस पर अंग्रेजी वाक्य रचना का प्रभाव बिल्कुल नहीं. यह गुण रामविलास शर्मा के गद्य में भी है. तो कहने की सफ़ाई मैंने इन्हीं लोगों से सीखी. यों सीखने के लिए तो हम बहुतों से बहुत कुछ सीखते रहते हैं. साही की बहसधर्मी भाषा और नामवर सिंह की काव्यात्मक  भाषा मुझे अच्छी लगती रही है. इसी के साथ ही मैं यह भी कह दूँ कि जब मैं आलोचना लिखता हूँ तो अपने आप को मंच पर खड़े वक्ता के रूप में देखता हूँ और मुझे लगता है कि मेरे पाठक जो हैं वो मेरे श्रोता की तरह हैं जो मेरे कथन के उलझाव को समझने की जगह साफ़-साफ़ कहते-लिखते देखना चाहते हैं इसलिए मेरी कोशिश होती है कि जो मैं कहूँ वह पढ़ने वाले की समझ से सीधे टकराए. मेरा कहा हुआ या तो मेरे पाठक को बदल देगा या वह उसे अस्वीकार करके मुँह पर दे मारेगा. मैं अपने लिखे शब्दों की ताकत इसी रूप में आजमाना चाहता हूँ.
प्रश्न- आलोचना के लिए जिस समाज दॄष्टि की जरूरत की बात की जाती है, वह आपने किस तरह अर्जित की?
उत्तर-दॄष्टि और समझ के निर्माण में बहुत सारे दार्शनिकों, विचारकों, समाज-सुधारकों नेताओं लेखकों आदि का योगदान होता है. किसका कौन सा योगदान हमारे चेतन-अवचेतन में किस रूप में बैठा हुआ है कहना मुश्किल है. मेरी चेतना के निर्माण में सचेत रूप से जिनका योगदान मैं महसूस करता हूँ वे हैं बुद्ध, विवेकानंद, गाँधी और राममनोहर लोहिया. जे०पी० आंदोलन में मैं रहा हूँ अपने छात्र जीवन के दो वर्ष मैंने धरना प्रदर्शन, लाठी खाने, जेल जाने, नारे लगाने आदि में बिताए हैं तो जयप्रकाश जी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का भी असर है. बाद में मैने मार्क्सवाद का अध्ययन  किया. जयप्रकाश जी की प्रेरणा से मार्क्सवाद का भी असर मेरे सोच-विचार पर है. अम्बेडकर के लेखन से भी बहुत कुछ सीखा है. समाजवादी नेताओं में मैं स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर के करीब रहा हूँ. इन सबका मिला-जुला असर मेरी चेतना पर होगा. लेकिन बुद्ध, विवेकानन्द और गाँधी मेरी चेतना के तीन नेत्र हैं. जिनका विस्तार अन्य लोगों के जरिए भी हुआ.
प्रश्न- प्राय: यह शिकायत सुनने को मिलती है कि आलोचना वह दायित्व नहीं निभा रही है जो पहले की आलोचना निभाती रही है. दूसरे शब्दों में यह आरोप लगता है कि नामवर सिंह के बाद आज हिन्दी में कोई बड़ा आलोचक नहीं है.
उत्तर- नामवर सिंह निश्चित रूप से पिछले दौर के महत्त्वपूर्ण आलोचक रहे हैं लेकिन यह सही नहीं है कि आज सार्थक आलोचना नहीं लिखी जा रही. नामवर सिंह के बाद लिखी गई आलोचना पर आप नज़र डालें तो पाएंगे कि आलोचनात्मक विवेक का विस्तार हुआ है और उसके कई नए आयाम उद्घाटित हुए हैं. पिछले दौर की, रामविलास शर्मा, साही, नामवर सिंह आदि की आलोचना अच्छी रही है. लेकिन इधर लिखी जा रही आलोचना पर यदि ध्यान दे तो आप को आश्चर्यजनक रूप से हमारे इन महान आलोचकों की आलोचना दॄष्टि की सीमाएं नज़र आएंगी. अब यथार्थवाद, लघुमानव या व्यंग्य विडंबना और तनाव तक ही हिंदी आलोचना सीमित नहीं है. उसमें स्त्री दॄष्टि, दलित दॄष्टि और हाशिए के समाज को मुख्यधारा में लाने की संघर्ष करती हुई दॄष्टि भी शामिल है. उपन्यास और लोकतंत्र को लेकर मैनेजर पांडेय की चिंता, हिन्दी नवजागरण की बहस को आगे ले जाने वाली शम्भूनाथ और वीरभारत तलवार की चिंता, कथा साहित्य को स्त्री नज़रिए से देखने वाली रोहिणी अग्रवाल की चिंता और दलित नज़रिए से हिन्दी साहित्य को देखने वाले धर्मवीर, कंवल भारती या बजरंग बिहारी तिवारी की दॄष्टि को देखते हुए कैसे कहा जा सकता है कि हिन्दी आलोचना कहीं से भी पिछड़ी हुई है. आज भक्ति काल, रीति काल आदि के बारे में हमारी वही धारणा नहीं जो ३०-४० साल पहले थी.
प्रश्न- हिन्दी आलोचना में भी क्या आप उतनी ही निर्भीकता और ईमानदारी देखते हैं? क्या वर्तमान हिन्दी आलोचना अभिव्यक्ति के खतरे उठाती दिखती है?
उत्तर- आपकी चिंता वाज़िब है. रचनाकारों और आलोचकों के चरित्र, ईमानदारी आदि को लेकर आज तरह-तरह की बातें की जाती हैं. अवसरवादी प्रवॄत्ति भी आज, पहले की तुलना में, लेखकों में ज़्यादा है. किसी बड़े आदर्श, किसी बड़े नेता या कहें किसी महास्वप्न के अभाव का यह दौर है.बाजारवादी प्रवृत्तियां और लाभ-लोभ की प्रवृत्ति अपने विकॄत और विकराल रूप में हमारे चारों ओर फैली हुई  है. स्वाभाविक रूप से इसका असर  जीवन और समाज के सभी क्षेत्रों पर पड़ा है. मुक्तिबोध का यह शताब्दी वर्ष है और वे ऐसे कवि-आलोचक हैं जिनका असर लेफ्ट-राइट सभी पर है. उनकी एक बात ध्यान देने लायक है वे रचनाकार की ईमानदारी और आलोचक के चरित्र पर बहुत जोर देते हैं. उसके अभाव में रचना और आलोचना दोनों की चमक थोड़ी मद्धिम पड़ेगी. जो अपने को आलोचक मानते हैं और जिनकी प्रतिबद्धता इस विधा से है वे अवश्य ही अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं. आप के प्रश्न में जो आपकी आशंका है वह निर्मूल नहीं है. हमारे समय ने जिस तरह रचना के सामने संकट उपस्थित किए हैं उसी तरह आलोचना के मार्ग में भी बाधाएं उपस्थित की हैं. लेखक संगठनों की गुटबाजी, लेखकों के अपने गुट, लाभ-लोभ और पुरस्कारों की राजनीति में आलोचना ने अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने की प्रवॄत्ति को कमजोर किया है. नई पीढ़ी के रचनाकारों की आकांक्षा भी निर्भीक और तटस्थ आलोचना के मार्ग की बाधा हैं. रचनाकार आलोचना का अर्थ सिर्फ़ अपनी प्रशंसा मानने लगे हैं वे आलोचकों से प्रतिकूल टिप्पणी सुनना नहीं चाहते. मेरा ख़्याल है कि इन सबका असर आलोचना पर कहीं न कहीं तो पड़ता ही है. दलित लेखक तो अपनी आलोचना हरगिज़ नहीं सुनना चाहते. स्वस्थ आलोचना के लिए स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल और स्वस्थ संवाद की जरूरत है. दुर्भाग्य से जिसका हिंदी में कुछ क्षरण हुआ है.
प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में सोशल मीडिया की क्या कोई भूमिका है? यदि है तो आप उसे कैसे देखते हैं? आपने अपने एक लेख में वर्तमान पुस्तक समीक्षा के चलतेट्रैंडको देखते हुए आलोचना के गिरते स्तर की बात की थी उसी परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया का जिक्र भी आया था. क्या सोशल मीडिया में तुरत-फुरत आती प्रतिक्रियाएँ और आम आदमी की सहभागिता आलोचना का अच्छा संकेत है या फिर इसने आलोचना का बिगाड़ ही किया है?
उत्तरसोशल मीडिया नि:संदेह एक ऐसा माध्यम या मंच है जिसके जरिए बेजुबानों को ज़ुबान मिली है. वैसे लोग जिनकी अभिव्यक्ति की भूख मर जाया करती थी वे इस माध्यम के जरिए अपनी रचनात्मक क्षमता की अभिव्यक्ति कर रहे हैं. लेकिन यह बहुत तेज़ी से भागता तुरंता माध्यम है इसका न कोई सम्पादक है, न एक-दूसरे को जानने- समझने का कोई  उपाय हैं यहाँ . इसलिए सोशल साइट्स पर बेतहाशा रचनाएं आ रही हैं और जा रही हैं उससे कोई गम्भीर साहित्यिक कॄति सामने आ रही हो ऐसा मुझे नहीं लगता. वहाँ विचार की उपस्थिति और गंभीर रचनाकर्म की संभावना अभी कम है. मुझे फेसबुक के माध्यम से नीलिमा चौहान की किताबपतनशील पत्नियों के नोट्सपढ़ने का मौका मिला. मुझे खुशी हुई कि स्त्री-विमर्श की सैद्धान्तिकी के बोझ से परे बहुत ही खिलंदड़ी भाषा और अंदाज़ में स्त्री जीवन की विभिन्न समस्याओं को लेखिका ने उठाया है. लेकिन हिंदी सोशल साइट्स पर मिलने वाले ऐसे उदाहरण बहुत कम ही देखने को मिले हैं. इसी के साथ एक बात और जोड़ना बहुत जरूरी है कि यह अब बहुत तेज़ी से भागता हुआ ओवर क्राउडेड माध्यम है. यहाँ अच्छी से अच्छी सामग्री को ठहर कर इत्मीनान से पढ़ने का अवकाश नहीं है. फिर भी सोशल साइट्स की भूमिका लोकमत के निर्माण और साहित्य के प्रचार-प्रसार में तो है ही.लेकिन  उससे आलोचना की कोई गंभीर ज़मीन नहीं बनती. ....आप ने मेरे जिस लेखआभासी दुनिया के राग रंगपर उठे बवाल की चर्चा की तो सुन लीजिए कि उसके बाद सोशल साइट्स पर मुझे कितनी गालियाँ दी गई. मेरा चरित्र हनन किया गया और अपने  व्यक्तिगत स्वार्थ के मुद्दों को भी उससे जोड़ दिया गया. निश्चित रूप से इन प्रतिक्रियाओं को वहीं छपना चाहिए जहाँ मेरा लेख छपा है . लेकिन चूंकि वहाँ एक सम्पादक बैठा है और वह गाली गलौज नहीं छपने देगा. ऐसी स्थिति में सोशल साइट्स ने कुछ अलेखकों या कुलेखकों को यह  सुविधा तो दे ही रखी है कि वे जिस पर चाहें हमले करें या गालियाँ दें. फिर भी मैं सोशल साइट्स के महत्त्व से इंकार नहीं कर रहा. यह नए ज़माने की नई तकनीक है, जो समता और स्वतंत्रता की हमारी आकांक्षा को उड़ने का नया  प्लेटफार्म   देती  है.