Sunday 15 January 2017

मेले में गोपेश्वर

पुस्तक मेले को पुस्तकों का कुंभ कहा जाता है। लेकिन इससे मेरी विनम्र असहमति है। कम से कम हिंदी के मामले में यह एक भयानक बाढ़ है जिसका दुर्गंधमय पानी वितृष्णा पैदा करता है। हिंदी का हर पुस्तक मेला पिछले की तुलना में ज्यादा घटिया होता जा रहा है। अगर दस नई पुस्तकें आती हैं, तो उनमें से नौ कूड़ा होती हैं, जो इसलिए छपती हैं क्योंकि प्रत्येक  प्रकाशक को बेचने के लिए लगातार कुछ चाहिए। साहित्य का उत्पादन कम हो रहा है और वितरण तथा विक्रय ज्यादा। माँग और पूर्ति के सरल सिद्धांत के अनुसार हर ऐरे-गैरे लेखक को अपनी किताब छपवाने का अवसर मिल जा रहा है – रॉयल्टी भले ही किसी एक या दो को मिले। यह हिंदी में पुस्तक के अवमूल्यन का समय है।

        इस निराशाजनक माहौल में हाथ में एक भी अच्छी किताब पड़ जाए, तो मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ। मैं बिना किसी हिचक के कह सकता हूँ कि प्रो. गोपेश्वर सिंह की ताजा कृति ‘भक्ति आंदोलन और काव्य’ एक ऐसी ही गंभीर, नवोन्मेषी और विचारोत्तेतक किताब है। व्यक्तिगत रूप से मुझे भक्ति काल और उसके साहित्य से चिढ़ है। यह चिढ़ बुनियादी रूप से धर्म और अध्यात्म से चिढ़ है और तब और बढ़ जाती है जब धर्मविहीन अध्यात्म की बात की जाती है। धर्म सीधा-सादा है, अध्यात्म में पाखंड की गुंजाइश रहती  है। मुझे यह देख कर बहुत खुशी हुई कि इस पुस्तक के अनेक निबंधों में इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि को बकवास बता कर इनकी भर्त्सना की गई है। कबीर में इन नाड़ियों का, जिनके होने के बारे में आधुनिक ज्ञान कोई सूचना नहीं देता, जिक्र सब से ज्यादा है – इसके बावजूद भक्त कवियों में कबीर ही सब से ज्यादा तार्किक और विवेकवादी हैं। गोपेश्वर सिंह की खूबी यह है कि वे पूरब की ओर देखते हुए पश्चिम या उत्तर-दक्षिण की अनदेखी नहीं करते।

        मानव स्वभाव शायद हमेशा इतना चौकस रहने का नहीं है। इसीलिए हिंदी के साहित्य आलोचकों में सहज ही दो संप्रदाय विकसित हो गए है – एक कबीर पंथियों का और दूसरा तुलसी पंथियों का। शुरुआत रामचंद्र शुक्ल ने की थी – उनका भावुक मन तुलसी और खासकर मानस  में रमा हुआ था। कबीर को कवि मानने में भी उन्हें दिक्कत थी। शुक्ल जी के जमाने में कविता जिस तरह परिभाषित थी, उस कसौटी पर कबीर को महान कवि मान पाना आज भी कठिन है। कबीर के मर्म को पहली बार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने खोला, जिसके आधार पर ‘दूसरी परंपरा की खोज’ शुरू हुई। उसके कुछ वर्ष बाद कबीर हिंदी के सब से बड़े कवि हो गए। आज लगता है कि कबीर और मुक्तिबोध को छोड़ कर हिंदी में कोई और कवि हुआ ही नहीं।

        गोपेश्वर सिंह इस अतिवाद के सख्त खिलाफ हैं और यही उनकी ताकत है। वे कबीर के प्रतिक्रियावादी तत्वों को हमारे सामने रखते हैं और तुलसी तथा सूर के प्रगतिशील तत्वों को रेखांकित करते हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें अपना एक तीसरा पंथ खड़ा करना है, बल्कि इसलिए कि पहले के दोनों पंथों की प्रामाणिकता को खंडित किए बिना सत्य को प्रगट ही नहीं किया जा सकता। मेरा खयाल है, वामपंथ ने हिंदी आलोचना के क्षेत्र में सब से ज्यादा खोटे लेबेल पैदा किए हैं। प्रगतिशीलता के नाम पर जिनकी दुकानें उठा देने की कोशिश की गईं, उनमें तुलसी और रामचंद्र शुक्ल सब से ऊपर हैं। दिलचस्प है कि भक्ति आंदोलन और उसके साहित्य पर सब से उच्छृंखल नुक्ताचीनी मुक्तिबोध ने की है और गोपेश्वर सिंह ने बहुत ही तार्किक ढंग से और सप्रमाण उसका निराकरण किया है। रामचंद्र शुक्ल वास्तव में ब्राह्मणवादी थे या ब्राह्मणवाद के विरोधी, यह जानने के लिए उनके विचारों के कई अज्ञात टुकड़े गोपेश्वर जी ने खोज निकाले हैं। यद्यपि बुद्धि से ब्राह्मणवाद-विरोधी होते हुए भावना से कोई ब्राह्मणवादी हो सकता है, जैसे कबीर के अकथ प्रेम, गहरी सामाजिकता और तर्कदृष्टि की वाह-वाह करने वाले अनेक लेखक महानुभाव परस्पर घृणा, तिकड़म और लोभ के कुंड में डूबे नजर आते हैं।

        रामविलास शर्मा को अपने देश से अगाध प्रेम था और उसकी सांस्कृतिक विरासत को वे झटकना नहीं, समझना चाहते थे, ताकि आज के भारत के लिए रास्ता निकाला जा सके। इसीलिए तुलसी पर रीझते हुए भी वे कबीर की महत्ता के कायल थे। यह समन्वयवाद नहीं, सार्वभौमिकता थी, जिसकी व्याप्ति उन विचारधाराओं में नहीं है जो साहित्य से जीवन  प्राप्त करने की जगह समाज में कलह पैदा करना चाहती हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी का मिजाज थोड़ा रोमांटिक था, उनका मन कालिदास और बाणभट्ट में ज्यादा रमता था। इसीलिए वे तुलसी की अनुशासित कविता के सौंदर्य का आस्वाद नहीं ले सके। नामवर सिंह में एक विद्रोहीनुमा व्यक्ति  की अदाएँ हैं।  इन अदाओं के लिए कबीर ज्यादा मुआफिक पड़ते हैं। लेकिन मैं ऐसे लाखों रसिकों की कल्पना कर सकता हूँ जो अपने-अपने कारणों से कबीर, सूर, तुलसी  और मीरा चारों का आनंद ले सकते हैं और इसमें उन्हें कोई अंतर्विरोध दिखाई नहीं पड़ता।


        मेरा खयाल है, गोपेश्वर सिंह कुछ इसी तरह के आलोचक हैं। साहित्य का रस लेते हुए उनकी आँखें हमेशा खुली रहती हैं। इसीलिए वे गुलाब से लिपटे काँटों और कमल का जिसमें वास होता है, उस गँदले पानी की ओर से आँख मींच नहीं लेते। समन्वय उनके स्वभाव में है – लेकिन ऐसा समन्वय नहीं कि बाभन बाभन रहे और कायस्थ कायस्थ और दोनों मिल कर जाति प्रथा का विरोध करते रहें, बल्कि ऐसा समन्वय जिसमें गुड़ और चीनी दोनों का अलग-अलग स्वाद लिया जा सके और गुड़ से चीनी होने की और चीनी से गुड़ होने की माँग न की जाए। इसीलिए गोपेश्वर जी तुलसी और कबीर, किसी से भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं  हैं, लेकिन हर एक में इतना पाते हैं कि उस पर मुग्ध हुआ जा सके। साहित्य के प्रति यह सकारात्मक दृष्टि ही वह नागरिक पैदा कर सकती है जो अपनी संपूर्ण सांस्कृतिक विरासत को समग्रता में समझ पाएगा। मुझे अतिरिक्त खुशी है कि इस कोशिश में राममनोहर लोहिया को बार-बार याद किया गया है जो भारत के महान प्रेमी और मर्मज्ञ थे।​

राजकिशोर ------------------