Thursday 25 December 2014

अभिभावक साथी बदरी विशाल पित्ती

हैदराबाद जाने के पूर्व मैं बदरी विशाल पित्ती को ‘कल्पना’ के संस्थापक-संचालक के रूप में जानता तो था, लेकिन उनसे कभी मिला नहीं था| सन २००० में जब मैं पटना से हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य हेतु गया तो मिलने का और उनके संपर्क में आने का सौभाग्य मिला| हैदराबाद में, हिंदी विभाग के साथी अध्यापकों के अतिरिक्त, मैं सिर्फ दो लोगो को ही जानता था| वे थे- बदरीविशाल पित्ती और वेणु गोपाल| पित्ती जी के साथ ‘कल्पना’ का स्वर्णिम अतीत तो था ही, वे राममनोहर लोहिया के मित्र-सखा और समाजवादी आन्दोलन के नेता भी रह चुके थे| वेणु गोपाल की प्रतिष्ठा क्रन्तिकारी कवि की थी| स्वाभाविक था कि इन दोनों के प्रति मेरे मन में सम्मान एवं आकर्षण था| समाजवाद मेरी चेतना का हिस्सा था, मैं जे.पी. आन्दोलन में काम कर चुका था| इसलिए जे.पी. और लोहिया के साथी के लिए जो सम्मान होना चाहिए, वह तो था ही, ‘कल्पना’ के इतिहास का अतिरिक्त आकर्षण भी था| वेणु कवि भी थे और क्रन्तिकारी भी| क्रांति और कविता इन दोनों में मैं रुचि रखता था| पिछली सदी के आठवें-नौवें दशक में कुमारेन्द्र, कुमार विकल, आलोकधन्वा आदि कवियों के साथ वेणु गोपाल का भी नाम अनिवार्य रूप से जुड़ा था| नक्सलबाड़ी आन्दोलन से जुड़ाव के कारण इन कवियों का नयी पीढ़ी के हिंदी पाठकों के बीच बड़ा शोर था| वेणु की एक कविता अक्सर मैं उद्धृत करता था- ‘यहाँ - अँधेरे में हो/ इसलिए/ अकेले हो/ रोशनी में आओगे/ तो कम से कम/ अपने साथ/ एक परछाई/ तो/ जुड़ी/ पाओगे|’ इसलिए हैदराबाद का मेरे लिए अर्थ था- बदरीविशाल पित्ती और वेणु गोपाल|
      वेणु गोपाल से तो विश्वविद्यालय में योगदान करने के एक-दो दिन बाद ही भेंट हो गई| वे तब केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हमारे विभाग में ही अतिथि अध्यापक थे और छात्रों के बीच खासे लोकप्रिय थे| लेकिन पित्तीजी से मिलने का सुयोग बना दो-तीन महीने बाद| उनसे मिलना बहुत कठिन तो नहीं, लेकिन बहुत आसान भी नहीं था| वे मात्र हिंदी की दुनिया के आदमी नहीं थे| राजनीति, समाज, शिक्षा आदि कई क्षेत्रों में उनकी व्यस्तता बनी रहती थी| समृद्ध और बड़े घराने में पैदा होने के कारण स्वाभाविक रूप से उनके चारों ओर कई तरह के घेरे थे| उनमें सबसे बड़ा घेरा थी, उनकी तबीयत और रईसी में पले-बढे व्यक्ति की आरामतलब सुस्त दिनचर्या| इसलिए चाहने पर भी मैं उनसे जल्दी नहीं मिल सका| इसका कारण अब समझ में आता है| वह शायद यह था कि एक अपरिचित, अनजान और अनाम व्यक्ति के लिए अपनी दिनचर्या से खींचतान करके कोई व्यक्ति समय क्यों निकाले! उनके पास तरह-तरह के लोग तरह-तरह की समस्याएँ लेकर आते ही रहते थे और वे उन्हें सुलझाते ही रहते थे| मैंने जब-जब फ़ोन किया, उनके सहायक ने उनकी व्यस्तता के कारण ‘आगे कभी’ पर छोड़ दिया| लेकिन दो-तीन महीने बाद ही ऐसा संयोग बना कि उनसे मिलना भी आसान हो गया और उनका स्नेह भाजन बनना भी| विश्वविद्यालय में रामवृक्ष बेनीपुरी की शतवार्षिकी के अवसर पर तीन दिनों का राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित करने का निर्णय हुआ| लेकिन पैसे कम पड़ रहे थे| विभाग के अध्यक्ष प्रो. सुवास कुमार को पित्तीजी की याद आई| उन्होंने फ़ोन किया और समय मिल गया| आखिर मामला बेनीपुरी जी का था| बेनीपुरी जी हिंदी के बड़े लेखक तो थे ही, समाजवादी आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के नेता भी रह चुके थे| जे.पी. - लोहिया से उनका बराबरी का सम्बन्ध था और पार्टी को खड़ा करने में उनकी अग्रणी भूमिका थी| सो, समय मिल गया और सुवास जी ने मुझे भी साथ ले लिया|      खैरताबाद स्थित उनके पैतृक आवास – परिसर में जब हम पहुँचे, तो भवन और परिसर की भव्यता और विस्तार देखकर मैं चकित था| सुवास जी ने बताया पित्तीजी उन पन्नालाल पित्ती के पुत्र हैं, जिन्हें ‘राजा’ की उपाधि मिली थी| वे थे तो व्यवसायी, लेकिन उनकी समृद्धि के कारण राजा की उपाधि मिली थी| इसलिए राजा पन्नालाल पित्ती के पुत्र बदरीविशाल पित्ती  भी घर में और नगर में ‘राजा साहब’ के नाम से जाने गए| उनकी पत्नी को भी घर में ‘रानी साहिबा’ कहा जाता था|      कहा जाता है कि पिता के दुलारे पुत्र बदरी विशाल ने कमाया तो कुछ नहीं, पैतृक सम्पत्ति को राजनीति, साहित्य और समाज हित में लुटाया खूब| यह भी कहा जाता है कि कार्ल मार्क्स के निर्माण में जो भूमिका फेडरिक एंगल्स की थी, वही राममनोहर लोहिया के निर्माण में पित्ती जी की थी| लोहिया के पीछे तन-मन-धन तीनों के साथ उनके जीवन और बाद के दिनों में भी वे प्राणप्रण से खड़े रहे| ‘लोहिया समता न्यास’ और ‘नव हिन्द प्रेस’ से न सिर्फ लोहिया का, बल्कि समाजवादी धारा का साहित्य प्रकाशित होता रहा| जे.पी. – लोहिया के न रहने पर पित्तीजी बिना भटके उसे सींचते रहे|      खैर, मैं चकित भाव से चुपचाप सबकुछ देखता-सोचता रहा| सुवास जी कुछ-कुछ बताते रहे| तभी किसी की नज़र हम पर पड़ी| हमें स्वागत-भाव से बैठकखाने में बिठाया गया| थोड़ी देर बाद नमस्कार भाव से हाथ जोड़े हल्की मुस्कराहट के साथ पित्तीजी दाखिल हुए| खादी का सफ़ेद जे.पी. कट कुर्ता और धोती पहने शालीनता-भद्रता की जीवित प्रतिमा| तब तक मैंने उनकी कोई तस्वीर तक नहीं देखी थी| मेरे मन में उनकी छवि एक पुराने सेठ की थी| भारी भरकम गुलथुल शरीर, सिर पर पगड़ी, झबरीली मूछें आदि उस काल्पनिक छवि के अनिवार्य हिस्से थे| जिन व्यक्तियों और चरित्रों के बारे में हमने पढ़ा-सुना है, लेकिन उन्हें प्रत्यक्ष देखा नहीं है, उनकी एक काल्पनिक छवि मन में बनी रहती है| जैसे ‘गोदान’ के होरी की एक छवि मेरे मन में है| महाभारत के भीम की है| इसी तरह चाणक्य, चन्द्रगुप्त, अकबर आदि ऐतिहासिक चरित्रों की भी है| सो, पित्तीजी को सामने देखकर मैं विस्मय भाव से उन्हें देखता रहा| पता नहीं कैसे एक पुराने सेठ की छवि मन में बैठ गई थी| वह छवि एकबारगी टूटी| धोती-कुर्ते में आधुनिक सोच का यह भद्र व्यक्ति ही ‘कल्पना’ का संस्थापक – संचालक तथा लोहिया का मित्र हो सकता है| काल्पनिक छवि का टूटना अच्छा लगा| सुवास जी ने मेरा परिचय दिया| यह जानकर कि मैं जे.पी. आन्दोलन में भाग ले चुका हूँ और जयप्रकाश जी के संपर्क में रह चुका हूँ, वे प्रसन्न हुए| देर तक जयप्रकाश के महत्व और व्यक्तित्व पर अपने अनुभव बाँटते रहे| सोसलिस्ट पार्टी के गठन और चढ़ाव-उतार की भी चर्चा की| सोसलिस्ट पार्टी के टूटने की पीड़ा भी उनकी बातचीत में झलकती रही| फिर बेनीपुरी पर होने वाले सेमिनार का प्रसंग उठा| आर्थिक पक्ष की कमजोरी की भी चर्चा हुई| उन्होंने कहा की यह सेमिनार जरूर होना चाहिए| ‘कांता पित्ती ट्रस्ट’ की ओर से सेमिनार के लिए आर्थिक सहयोग का भी उन्होंने आश्वासन दिया| सुवास जी ने सेमिनार के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में उनकी उपस्थिति का आग्रह किया| उपस्थिति को लेकर वे लगातार अपना संकोच प्रकट करते रहे| जिस सेमिनार के आयोजन में उनका सहयोग हो, उसमें मुख्य अतिथि के रूप में अपनी उपस्थिति उनकी नज़र में उचित नहीं थी| लेकिन बेनीपुरी जी के नाम पर और बार-बार आग्रह करने पर वे किसी तरह तैयार हुए| उद्घाटन सत्र में समय पर पहुंचे तथा बेनीपुरी जी पर संक्षिप्त किन्तु बहुत आत्मीय वक्तव्य दिया|      उस मुलाकात के बाद उनसे मिलना थोड़ा सहज हो गया| उन्हीं  दिनों उन्होंने लोहिया की प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंटरवल डयूरिंग पॉलिटिक्स’ मुझे भेंट की, जिसे उन्होंने स्वयं छापा था| उसकी प्रति अब भी मेरे पास है| उनसे मिलना अपने अभिभावक समान साथी से मिलना होता था| देश-दुनिया और साहित्य-संस्कृति पर ढेरों बातें होती थीं| वे अक्सर कहते थे – ‘मैं कोई लेखक तो हूँ नहीं, मैं तो समाज और साहित्य का सेवक हूँ| जितना बन पड़ा, उतना किया| अब आपलोग आगे काम करें|’ एक बार बातचीत के क्रम में अपने नासमझ उत्साह में मैंने प्रस्ताव दे दिया कि ‘कल्पना’ फिर क्यों न निकाली जाये? थोड़ी देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा – “अब ‘कल्पना’ का निकलना संभव नहीं| आपलोग हैदराबाद से एक नयी साहित्यिक पत्रिका निकालिए| ‘कांता पित्ती ट्रस्ट’ की ओर से उसमे सहयोग मिलेगा| हाँ, मेरी एक शर्त यह जरूर होगी कि उसमें छपने वाले लेखकों को पारिश्रमिक जरूर दिया जाये|” उनके सहयोग के आश्वासन के बावजूद हम पत्रिका तो नहीं निकल सके, ‘कल्पना’ के पुनः प्रकाशन सम्बन्धी प्रस्ताव की अपनी मूर्खता पर मुझे हँसी जरूर आई| ‘कल्पना’ को जो काम करना था, वह पूरा हो चुका था| अब उसकी उसी स्तर से वापसी संभव नहीं थी| संपादन, भाषा-संस्कार, लोकतान्त्रिक मन-मिजाज़ और नयी रचनाशीलता की प्रस्तुति का जो तरीका था, वह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का स्वर्णिम इतिहास बन चुका है| उसे उसी रूप में पाना संभव नहीं| इसे पित्तीजी जानते थे| इसलिए उन्होंने पुनः प्रकाशन से इनकार कर दिया| लेकिन नयी पत्रिका के प्रकाशन से हमें हतोत्साहित भी नहीं किया|      ‘कल्पना’ की चर्चा प्रायः हमारी हरेक मुलाकात में होती थी| उस चर्चा के साथ वे अपनी पिछली स्मृतियों में खो जाते थे और ढेर सारी बातों के साथ संपादक मंडल के अपने साथियों को भी याद करते थे| उनकी कर्मठता, उनकी योग्यता की याद, उनकी बातचीत में अक्सर झलक उठती थी| वे अक्सर कहते थे कि उनकी योग्यता के अनुसार ‘कल्पना’ की ओर से भुगतान नहीं हो सका| इसका गहरा दुःख था उन्हें| संपादक मंडल के अन्य लोगों से तो मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई, मुनीन्द्र जी और प्रयाग शुक्ल से जरुर मिलना- जुलना होता रहा| लेकिन उन दोनों ने कभी किसी कमी की चर्चा नहीं की| उलटे वे यही कहते रहे कि ‘कल्पना’ में काम करते हुए उन्हें जो सम्मान मिला, वह दुर्लभ है|      ‘कल्पना’ में प्रकाशित होने वाली एक-एक रचना पर संपादक मंडल कैसे निर्णय लेता था और कैसे भाषा-नीति का पालन किया जाता था, यह प्रसंग भी वे बताते| वह सब जानना पत्रिका निकालने वाली हमारी पीढ़ी के लोगों के लिए जरूरी है| आज जब न तो किसी साहित्यिक पत्रिका या अखबार की कोई भाषा-नीति है और न भाषाई शुद्धता का आग्रह, तब ‘कल्पना’ की संपादन-प्रक्रिया को जानना वाकई ऐसे प्रसंग को जानना है, जो भाषाई अराजकता के हमारे दौर के लिए एक प्रेरक उदहारण है| जब शुद्ध लिखने वाले छात्रों, अध्यापकों, पत्रकारों एवं लेखकों की संख्या घट रही हो, तब आज़ादी के बाद  ‘कल्पना’ जैसी सार्थक एवं गौरवशाली इतिहास बनाने वाली  पत्रिका की संपादन-प्रक्रिया के इतिहास को जानना जरूरी है| लेकिन प्रश्न है कि यह हमारी पीढ़ी को बताये कौन? ‘कल्पना’ से जुड़े सारे लोग एक-एक कर जा चुके| कवि-लेखक प्रयाग शुक्ल ही अब एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जो प्रामाणिक ढंग से और आधिकारिक तौर पर इस पर प्रकाश डाल सकते हैं| हमारी अपेक्षा है कि बदरीविशाल  पित्ती पर जो पुस्तक वे सम्पादित कर रहे हैं और जिस पुस्तक के लिए मैं उनके आग्रह पर यह टिप्पणी लिख रहा हूँ, वे उस पुस्तक की भूमिका में अवश्य ही इस पर प्रकाश डालेंगे|       यह कहा जाता है कि ‘कल्पना’ की जो सम्पादकीय नीति थी, उसमें भूलवश चूक एक बार ही हुई| दिनकर की काव्य-कृति ‘उर्वशी’ का भव्य और समारोही प्रकाशन हुआ था| ‘उर्वशी’ की प्रशंसात्मक समीक्षाएं छप रही थीं| उसका बड़ा शोर था| तभी ‘कल्पना’ में भगवतशरण उपाध्याय की ‘दिनकर की उर्वशी’ शीर्षक से लगभग बीस पृष्ठों की ध्वंसात्मक समीक्षा छपी| समीक्षा एकतरफा थी और साहित्येत्तर आरोपों-प्रत्यारोपों की ज़मीन पर टिकी थी| ऐसी समीक्षा के ‘कल्पना’ जैसी संतुलित दृष्टि और लोकतान्त्रिक मन की पत्रिका में छपने पर स्वाभाविक रूप से अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई| संपादक-मंडल ने, लगता है भूल सुधार के क्रम में, बाद में पूरी तैयारी के साथ उस समय के प्रसिद्ध- वरीय एवं कनीय - बाईस लेखकों की प्रतिक्रियाएं छापी| पांच लेखकों के पत्र भी छपे| किसी एक कृति को लेकर चला यह अपने ढंग का अनोखा विवाद था, जिसकी गूँज-अनूगूंज वर्षों बनी रही| मैंने इस प्रसंग की चर्चा के क्रम में पित्ती  जी से जानना चाहा कि यह चूक कैसे और किसकी वजह से हुई, तो उन्होंने हमारी आशंका को ही गलत बताया| उन्होंने कहा कि जो भी हुआ, सामूहिक निर्णय से हुआ| किसी भी सदस्य को उन्होंने कठघरे में खड़ा नहीं किया| यह उनके चरित्र का बड़प्पन था, जो अपने किसी सहकर्मी मित्र पर किसी तरह का आक्षेप बर्दाश्त नहीं करता था| यही कारण है कि उनके साथ काम करने वाले या उनसे जुड़े किसी भी व्यक्ति से पित्तीजी की शिकायत कभी शायद ही सुनने को मिले| मैंने अपने जीवन में पित्ती जी जैसा उदार, भला और बड़े मन का आदमी कम देखा है| मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि उनके सान्निध्य में मुझे भी कुछ वर्ष रहने का अवसर मिला|      सन २००० में पित्तीजी ने ‘कल्पना’ के सभी अंकों के कई जिल्दों में दर्जनों सेट बनवाये और हैदराबाद तथा उससे बाहर साहित्य प्रेमियों के बीच वितरित कर दिया| ‘कल्पना’ की जो लाईब्रेरी थी, उसकी सारी किताबें वे हमारे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को अर्पित कर चुके थे| अक्टूबर २००० में मैं जब हैदराबाद गया तो परिचय होने पर मैंने भी एक सेट की मांग की| उन्होंने कहा कि ‘मैं ‘कल्पना’ का सबकुछ लोक को अर्पित कर चुका हूँ और अब उसके भार से अपने को मुक्त कर चुका हूँ|’ मुझे निराशा हुई, लेकिन मैं क्या कर सकता था| उसी समय एक सुखद घटना घटी, जिसकी चर्चा करना मैं आवश्यक समझता हूँ| अपने विश्वविद्यालय में मुझे ‘उर्वशी’ के अध्यापन का जिम्मा दिया गया| अध्यापन-कार्य हेतु मैं विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में ‘उर्वशी’ की प्रति खोज रहा था, तभी मुझे ‘उर्वशी’ की वह प्रति मिली जो दिनकर जी ने पित्तीजी को भेंट की थी| पुस्तक हाथ में लिए मैं देर तक उसे देखता रहा| रॉयल डीलक्स साइज़ में उम्दा कागज पर अनेक चित्रों और रेखाचित्रों से सुसज्जित ‘उर्वशी’ का वह पहला संस्करण था, जो अपनी भव्यता में बेजोड़ था| तब तक हिंदी में किसी काव्य-कृति का वैसा भव्य संस्करण शायद ही निकला हो| मैंने चर्चा सुनी तो थी लेकिन प्रथम संस्करण को देख न पाया था| मैं देर तक उलट-पलट कर देखता रहा| तभी मेरी नज़र उस जगह पर पड़ी, जहाँ लाल रोशनाई से लिखा हुआ था- ‘भाई श्री बदरीविशाल पित्ती  के योग्य|’ नीचे की लाइन में ‘दिनकर’ हस्ताक्षर के साथ १७.७.६१ की तारीख पड़ी हुई थी| मैं ख़ुशी से भर उठा| लगा खज़ाना हाथ लग गया| मैंने वह प्रति अपने नाम पर ले ली| एक दिन मैंने वह प्रति पित्ती जी को दिखाई| अपनी सहज मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा : ‘हाँ, यह दिनकर जी की भेंट है|’ इसके बाद वे देर तक दिनकर से अपनी आत्मीय मुलाकातों के बारे में बताते रहे| पहली मुलाकात की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा – “मेरी पहली मुलाकात बड़ी दिलचस्प थी| दिनकर जी जब दिल्ली में रहते थे, तब मैं उनके सांसद निवास पर एक दिन सुबह आठ-नौ बजे पहुंचा| मुझे बताया गया कि वे पूजा पर हैं| मैं तब तक बैठूँ और प्रतीक्षा करूँ| पूजा समाप्त कर दिनकर जी आये| उन्होंने ढीली-ढाली धोती पहन रखी थी| ऊपर बदन पर रेशमी चादर थी| हाथ में पूजा का प्रसाद था| आते ही मुझे लक्ष्य कर अपनी भारी आवाज में उन्होंने पूछा- ‘कहाँ हैं बदरीविशाल पित्ती?’ जब मैंने प्रणाम निवेदित करते हुए अपना नाम बताया तो आश्चर्य से वे मुझे ऊपर से नीचे तक देखते रहे| फिर मुस्कुराते हुए बोले – ‘आप तो अभी नौजवान हैं| मैंने समझा था कि बदरीविशाल  पित्ती कोई बुजूर्ग व्यक्ति है|’ फिर वे देर तक ‘कल्पना’ के संपादन- प्रकाशन और नए सोच की चर्चा करते रहे|”      उसी दिन ‘कल्पना’ के ऐतिहासिक उर्वशी-विवाद को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की योजना मेरे दिमाग में आई| मैंने जब उनसे इसकी चर्चा की तो वे बहुत प्रसन्न हुए| मुझे उत्साहित करते हुए उन्होंने कहा- ‘यह काम यथाशीघ्र आप कर डालिए| इससे साहित्य का भला होगा| एक ऐतिहासिक विवाद से नयी पीढ़ी भी परिचित होगी| वह विवाद दरअसल आधुनिक हिंदी कविता को समझने का जरूरी दस्तावेज है|’ फिर क्या था- दूसरे दिन से मैं अपने विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी से ‘कल्पना’ की फाइलों से उर्वशी प्रसंग वाले अंश निकालने में लग गया| सारी सामग्री को क्रम देकर एक भूमिका लिखी और पुस्तक का नाम रखा- “कल्पना’ का ‘उर्वशी’ विवाद|” यह नाम उन्हें पसंद आया| मैंने उन्हें बताया कि यह पुस्तक आपको समर्पित होगी| उन्होंने किंचित संकोच के साथ कहा- ‘जैसी आपकी इच्छा|’ पाण्डुलिपि लेकर मैं दिल्ली गया कि किसी प्रकाशक से प्रकाशन के लिए बात करूँ| मैं गोमती गेस्ट हाउस में रूका था| अभी मैं किसी प्रकाशक से बात करने ही वाला था कि एक दिन कवि पंकज सिंह से सूचना मिली कि बदरीविशाल पित्ती कल गुजर गए| वह २००३ के दिसंबर की सर्द सुबह थी| इस खबर से मेरे उत्साह पर पानी पड़ गया| मैं पाण्डुलिपि लेकर हैदराबाद लौट गया और वर्षों उसके प्रकाशन को स्थगित किये रहा| अंततः वह पुस्तक उसी नाम से २०१० में ‘वाणी प्रकाशन’ से छपी| ‘‘कल्पना’ के संस्थापक- संपादक बदरीविशाल पित्ती की पावन स्मृति को” - समर्पित इस पुस्तक का एक साहित्यिक विवाद के महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में हिंदी जगत में स्वागत हुआ| कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने ‘जनसत्ता’ के अपने लोकप्रिय स्तम्भ ‘कभी-कभार’ में इस प्रयास की प्रशंसा की| लेकिन हमारा दुर्भाग्य कि पित्ती जी अपनी आँखों से उसे नहीं देख सके|      दिनकर से पित्तीजी के लगाव का एक दूसरा उदाहरण देखने को तब मिला, जब उनके रामबाग स्थित प्रांगण में ‘उर्वशी’ का काव्य मंचन उन्होंने आयोजित किया| उन्होंने हैदराबाद के अपने मित्रों-परिचितों को वह कार्यक्रम देखने के लिए आमंत्रित किया| मैं भी आमंत्रित था| वैसे तो ‘उर्वशी’ काव्य नाटक ही है, लेकिन मैंने उसका मंचन कभी देखा नहीं था| हमेशा कविता के रूप में ही पढ़ता-पढ़ाता रहा था| उस दिन ‘उर्वशी’ का जब मंचन देखा, तो दूसरा अनुभव हुआ और यह अनुभव हुआ कि उसकी एक ताकत उसकी नाटकीयता भी है| उस पक्ष को नज़रअंदाज करके ‘उर्वशी’ के महत्व को ठीक-ठीक नहीं समझा जा सकता| वैसे ‘उर्वशी’ के प्रारंभिक सर्ग आकाशवाणी पटना से रेडियो काव्य-नाटक के रूप में ही प्रसारित हुए थे|रामबाग में जो मंदिर है, वह पित्ती परिवार द्वारा निर्मित है| उसका परिसर काफी बड़ा है| पित्ती जी के अनुसार वहीं किसी कमरे में एम.एफ. हुसेन के बनाये रामकथा से सम्बंधित दर्जनों चित्र थे, जिनके लिए चित्रशाला निर्मित करने की उनकी योजना थी| हुसेन का  हैदराबाद से गहरा लगाव था | अपने कैरियर की शुरुआत में उन्हें बदरी विशाल पित्ती से भरपूर संरक्षण मिला था| हुसेन उन्हीं के घर रहते थे और चित्र बनाते थे| सुना है कि ‘कल्पना’ का अक्षरांकन (लेटरिंग) हुसेन ने ही किया था| उसके बहुत-से अंकों के कवर-पेज भी उन्होंने ही डिजाईन किये थे| उनसे पित्ती जी की गाढ़ी मित्रता थी| पित्ती जी उन्हें प्यार से ‘मौलाना’ कहकर बुलाते थे| हुसेन की बनायी रामकथा श्रृंखला अब किस हालत में है, कहना मुश्किल है| लोहिया ने रामायण और राम पर जो लिखा है, वह भारतीय संस्कृति में उनकी गहरी पैठ का उदाहरण है| उसी का अगला विस्तार चित्रकूट में उनके द्वारा आयोजित होने वाला रामायण मेला था| इसी क्रम में हुसेन के रामकथा चित्रों की श्रृंखला को भी देखना चाहिए| लोहिया और हुसेन दोनों ने रामकथा की अपने-अपने माध्यमों से अपनी-अपनी व्याख्या की| उन व्याख्याओं का उद्देश्य भारत को भावात्मक रूप से जोड़ना था| क्या यह महज संयोग है कि दोनों महान – लोहिया और हुसेन – पित्तीजी से अभिन्न थे और रामकथा की उनकी व्याख्याओं के लिए आधार देने का काम उन्होंने ही किया|      पित्तीजी जब तक रहे, आचार्य नरेन्द्रदेव, जे.पी., लोहिया आदि समाजवादी चिंतकों को उनके जन्मदिन पर याद करते रहे| बड़े तो नहीं, लेकिन छोटे आयोजन वे जरूर करते थे| हमलोग भी जाते थे| नरेन्द्रदेव के जन्मदिन पर उन्होंने एक बार मुझे और सुधाकर रेड्डी को बोलने के लिए आमंत्रित किया था| सुधाकर रेड्डी तब सी.पी.आई. के आँध्रप्रदेश के सेक्रेटरी थे, अब केन्द्रीय सचिवालय के सेक्रेटरी हैं| ऐसे आयोजन समाजवाद के प्रति पित्तीजी की अडिग आस्था और खुली दृष्टि के परिचायक थे| लोहिया के नहीं रहने पर समाजवादी आन्दोलन में जो बिखराव और भटकाव आया, उससे पित्तीजी निराश जरूर हुए, लेकिन खुद अवसरवाद और भटकाव के शिकार नहीं हुए| आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से उनकी जो हैसियत थी, उसके आधार पर वे किसी भी बड़े दल में आसानी से जा सकते थे और सत्ता के खेल में शामिल हो सकते थे| लेकिन वे तो मूल्यों और सपनों को जीने वाली पीढ़ी के आदमी थे| वे अपनी राह चलने वाली जमात के सदस्य थे|      मुझे लगता है कि पित्ती जी अतिशय रचनात्मक और उत्सवधर्मी मन के व्यक्ति थे| उनके इसी मिजाज का एक कार्यक्रम था ‘त्रिवेणी’, जो हैदराबाद के साहित्यकारों, चित्रकारों और संगीतकारों के रचनात्मक मिलन-जुलन का मंच था| त्रिवेणी तो गंगा, यमुना और सरस्वती के मेल को कहते हैं, लेकिन पित्ती जी की ‘त्रिवेणी’ में साहित्य, संगीत और चित्रकला की नदियाँ मिलती थीं| साहित्य के भीतर हिंदी, उर्दू और तेलुगु की त्रिवेणी थी| एक तरह से यह बहुकलाधर्मी और बहुभाषी मंच था, जहाँ महीने दो महीने पर पित्ती जी के संयोजन में अनौपचारिक रूप से शाम लगभग छः बजे से आठ बजे तक का कार्यक्रम चलता था| हर कार्यक्रम में कोई न कोई विशिष्ट गायक होता था, जिसकी प्रस्तुति से सभी संगीतमय मानसिकता में आ जाते थे| फिर किसी बड़े चित्रकार की पेंटिंग्स दिखाई जाती और उसपर बातचीत होती| अंत में हिंदी, उर्दू और तेलुगु - तीनों भाषाओँ के कवि-कहानीकार अपनी रचनाओं का पाठ करते थे| मेरे जीवन की यह विलक्षण घटना थी, जहाँ सभी कलाओं और भाषाओं के लिए समान आदर और उन्हें समझने- सराहने की मानसिकता तैयार की जाती थी| यह पित्तीजी के बड़े और उदार विज़न का एक नायाब उदाहरण था| ‘त्रिवेणी’ के ही आयोजनों में मेरा परिचय हैदराबाद के हिंदी, उर्दू और तेलुगु के लेखकों से हुआ| वहीं मैं तेलुगु के प्रसिद्ध कवियों – ज्वालामुखी, निखिलेश्वर, नग्न मुनि आदि से जुड़ा, जिससे मेरे साहित्यिक बोध के विकास में बड़ी मदद मिली| मेरा ख्याल है कि ऐसा आयोजन भारत में शायद ही किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा किया जाता हो| पित्तीजी आयोजन में कहीं भी मंच पर नहीं होते थे, जबकि कार्यक्रम उनके खैरताबाद स्थित आवास- परिसर में ही होता था| वे चुपचाप आम दर्शक-श्रोता की तरह बैठे रहते थे| कार्यक्रम के अंत में वे माइक पकड़ते, दो वाक्यों में धन्यवाद ज्ञापन करते और ‘थोड़ा-सा भोजन करके आप सब जाएँ’, यह निवेदन करते| जब सब लोग खा रहे होते, तो एक-एक से पूछते कि खाना कैसा है और आपने क्या-क्या खाया और क्या-क्या नहीं खाया| भोजन के बाद सभी लोगों को हाथ जोड़कर वे सादर विदाई देते और तभी स्वयं भोजन करने जाते|      मैं जीवन में बहुत से बड़े लोगों से मिला हूँ लेकिन बदरी विशाल पित्ती जैसे बड़े मन का आदमी कोई दूसरा न मिला| उनके न रहने पर मेरे लिए हैदराबाद वह नहीं रहा, जो पहले था| इसी बीच हमारे मित्र वेणु गोपाल को गैंग्रीन हो गया, उनका एक पैर काटना पड़ा| मैंने यह भी देखा कि जो वेणु गोपाल हाथों में किताबों का बण्डल दबाए, अपने कुछ साहित्य-प्रेमी लड़के-लड़कियों से घिरे मस्त चाल में चला करते थे, वे बैसाखी पर चलने लगे| बाद में उन्हें कैंसर हो गया और आगे चलकर उसी से उनकी मृत्यु हो गयी| हैदराबाद में आज भी मेरे मित्रों की संख्या सबसे अधिक है, लेकिन पित्ती जी और वेणु के रहने पर मेरे लिए हैदराबाद का जो अर्थ था, वह अब नहीं है| कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि पित्ती जी के लिए मेरे मन में बेपनाह सम्मान और प्रेम क्यों है? व्यक्तिगत रूप से उन्होंने मेरी कोई मदद नहीं की और न मुझे उनकी मदद की जरूरत थी| मैं स्वयं उनके किसी काम नहीं आया| मैं हमेशा एक ही आग्रह उनसे करता रहा कि आप मुझे अपने जीवन और मन के उस एकांत का परिचय दें, जिसने आपको व्यवसाय छोड़कर समाजचेता और क्रांतिचेता आदमी बनाया| मैं चाहता था कि उनसे मैं लम्बी बातचीत करूँ| वे अपने सहज स्वाभाविक संकोचवश टालते रहते थे| मेरा आग्रह जब दुराग्रह में बदलने लगा तो वे अंततः तैयार हुए| बोले कि ‘मेरे घर में बैठकर बात करने का एकांत बिलकुल नहीं है| मैं आपके घर चलूँगा और वहीं बैठकर बातें करेंगे|’ मैं हैदराबाद में जैसे-तैसे रह रहा था| मैंने जब कहा: ‘मेरे घर में आपके लायक कोई व्यवस्था नहीं है’, तो उन्होंने कहा- ‘कोई बात नहीं, वहीँ बैठेंगे| लेकिन अभी मुझे इटली जाना है| वहाँ से लौटने के बाद कार्यक्रम बनाया जायेगा|’ लेकिन वह कार्यक्रम नहीं बन सका, क्योंकि उससे पूर्व ही अचानक उनके देहावसान की खबर मिली| जब भी पित्तीजी की याद आती है, तो मुझे अपने पोर्टिको में खड़े होकर हाथ जोड़े, विदा करते पित्तीजी याद आते हैं| मैं अक्सर उनके यहाँ सुवास कुमार के साथ उनकी गाड़ी में जाता था| वे हमें विदा करने गाड़ी तक आते थे| जब कभी हमारे पास गाड़ी नहीं होती, वे अपनी मर्सिडीज बुलाते और हमें उससे हमारे घर भेजते| उतने बड़े आदमी से वैसी स्नेह भरी विदाई कितनों को नसीब होती है?

Sunday 21 December 2014

हिंदी में शोध की दशा

अक्सर यह चिंता व्यक्त की जाती है कि हिंदी में शोध की दशा बहुत ही दयनीय है| हिंदी ही क्यों, अन्य भारतीय भाषाओं बांग्ला, उर्दू, उड़िया, तेलुगु, कन्नड़, असमी, संस्कृत आदि के बारे में भी यही बात कही जाती है| निष्कर्ष यह निकलता है कि मानविकी के विषयों में अंग्रेजी और दर्शनशास्त्र को छोड़कर शेष विषयों की कोई विशेष हैसियत  अकादमिक दुनिया में नहीं है| आम धारणा बन गई है की हिंदी समेत अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओँ में एम.ए., पीएच. डी. करना बहुत आसान है| यह भी कहा जाता है कि न तो इन विषयों से एम.ए कर चुके विद्यार्थी अकादमिक रूप से सक्षम होते हैं, न ही इनके शोध कार्य में कोई मौलिकता होती है| विश्वविद्यालय परिसर में इन विषयों की और इन विषयों से जुड़े शिक्षकों एवम छात्रों की अकादमिक हैसियत वैसी ही होती है, जैसे पुराने समय में अछूत कही जाने वाली जातियों की होती थी| इन विषयों के प्रति अकादमिक जगत और समाज की यह धारणा क्यों है, इस पर ठहर कर विचार करने की जरूरत है|

   संस्कृत को छोड़कर हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालयों में अनुशासन के रूप में अध्ययन-अध्यापन का इतिहास बहुत पुराना नहीं है| इलाहाबाद विश्वविद्यालय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे कुछेक विश्वविद्यालयों में हिंदी आजादी के पूर्व पढ़ाई जाती थी| हिंदी को अनुशासन के रूप में विकसित करने में इन विश्वविद्यालयों की बड़ी भूमिका है| आजादी के बाद देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी हिंदी विभाग खुले और हिंदी एक अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठित हुई| आज देश का शायद ही कोई विश्वविद्यालय हो जहाँ हिंदी विभाग न हो| वे चाहे दक्षिण के विश्वविद्यालय हों या उत्तर-पूर्व के| यहाँ तक कि विश्व के दूसरे देशों के बहुतेरे विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग हैं और वहाँ हिंदी विधिवत पढ़ाई जाती है| इस अभूतपूर्व विस्तार के बावजूद अपने साठ-सत्तर वर्षों के संक्षिप्त दौर में ही अनुशासन के रूप में उच्च शिक्षा में हिंदी गुणवत्ता की दृष्टि से पिछड़ती हुई देखी जा रही है, तो इसके कारणों पर विचार करने की जरूरत है|

  आधुनिक समय में शिक्षा का उद्देश्य अलग है, जबकि भारतवर्ष में पहले शिक्षा का उद्देश्य अलग था| हमारे यहाँ शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान-प्राप्ति और व्यक्तित्व का विकास था| आज शिक्षा का मतलब रोजगार से है| वही शिक्षा अच्छी है, जो रोजगार दिला सके| इस दृष्टि से देखें तो विश्वविद्यालयों में हिंदी समेत अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं के जो विभाग हैं, उनमे पढ़ने वाले छात्रों के सामने रोजगार के अवसर कम हैं| पहले भौतिकी, रसायन, गणित आदि शास्त्रीय विषयों को रोजगार दिलाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता था| इसलिए इन विषयों का और इन विषयों को पढ़ने-पढ़ाने वाले छात्रों-अध्यापकों का विश्वविद्यालयों और समाज में दबदबा था| उस समय भी मेडिकल और इंजीनियरिंग के क्षेत्र ज्यादा रोजगार-परक थे| इसलिए ये भौतिकी, रसायन, और गणित जैसे विषयों से भी आगे थे| आज बिजनेस मैनेजमेंट और सूचना-प्रद्यौगिकी जैसे विषयों ने इन्हें भी पीछे छोड़ दिया है| शिक्षण संस्थानों में सबसे अधिक भीड़ अब इन्हीं विषयों में होती है| जो विषय जितने अधिक पैकेज के साथ जल्दी रोजगार देता है, वह विषय समाज और शैक्षणिक जगत में उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा पाता है| अनुशासन के रूप में मान्य विषयों का अगर श्रेणीक्रम बनायें तो हिंदी तथा अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओँ के विभाग सबसे निचले पायदान के अनुशासन होंगे| इसका कारण यह है कि रोजगार दिलाने की दृष्टि से इन विषयों का क्षेत्र बहुत विस्तृत रूप में उद्घाटित नहीं हुआ है| हिंदी जैसे विषय पढ़ने वाले छात्रों के सामने एकमात्र रोजगार अध्यापन है| कुछ लोग पत्रकारिता में भी चले जाते हैं| हिंदी और दूसरी भाषाओँ में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र एकाध अपवादों को छोड़ दें तो किसी बड़ी प्रतियोगी परीक्षा के जरिये कोई बड़ी हैसियत वाली नौकरी प्राप्त करते नहीं देखे जाते| हिंदी पढ़कर यदि कोई बड़ी नौकरी में नहीं जा सकता और समाज में बड़ी हैसियत नहीं पा सकता तो स्वाभाविक रूप से समाज में उसकी हैसियत कम होगी और उन विषयों को पढ़ने वालों की भी कोई सामाजिक हैसियत नहीं होगी| यही कारण है कि हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओँ के विभागों में वही छात्र पढ़ने आते हैं, जिनका नामांकन दूसरे विषयों में नहीं होता| एक तरह से हिंदी पढ़ने वाले छात्र, कुछेक अपवादों को छोड़कर, प्रायः पिछड़ी सामाजिक, आर्थिक और अकादमिक स्थिति के होते हैं| ऐसे छात्र प्रायः हीनताग्रंथी के शिकार होते हैं| वे विश्वविद्यालय में अपने को मिसफिट पाते हैं| ऐसे ही छात्रों में से कुछ लोग हिंदी विभागों के अध्यापक बनते हैं| ऐसे छात्र-अध्यापकों के भरोसे हिंदी शोध की जो दशा और दिशा है, वह सबके सामने है| आज हिंदी में शोध कार्य संपन्न करके पीएच.डी. उपाधि धारण करने वाले नौजवानों की बड़ी संख्या है| ये बेरोजगार डॉक्टरेट हैं| इनकी डिग्री की समाज में कोई पूछ नहीं| इनके शोध कार्य की कोई उपयोगिता भी समाज में नहीं है| इन्ही में से कुछ सौभाग्यशाली जैसे-तैसे अध्यापकी पा जाते हैं और वे इस दिशाहीन शोध कार्य के धंधे को आगे बढ़ाने लगते हैं| क्या ऐसे लोग भाषा-विभागों में, शोध कार्यों की दुनिया में कोई गुणात्मक परिवर्तन ला सकते हैं?


 शोध का अर्थ किसी नए सत्य या तथ्य की खोज है| इस नए सत्य या तथ्य के जरिये साहित्य की नयी व्याख्या या नयी अवधारणा के विकास की अपेक्षा की जाती है| नए तथ्यों के उद्घाटन से साहित्य के इतिहास को नयी दिशा मिलती है| जिन शोध कार्यों के जरिये साहित्य के इतिहास को नयी दिशा मिले, साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन की नयी राह निकले, उनका तो स्वागत होना चाहिए| लेकिन बिना किसी शोध दृष्टि के नए सत्य और तथ्य से रहित सैकड़ों-हजारों की संख्या में जो शोध कार्य पिछले दशकों में हुए हैं, उनकी उपादेयता संदिग्ध है| असल में इन शोध कार्यों का उद्देश्य किसी नए सत्य या तथ्य का उद्घाटन नहीं, डिग्री हासिल करना भर है, जो शोधार्थी को रोजगार दिला सके| जब शोध का उद्देश्य डिग्री हो जायेगा तो शोध कार्य से मौलिकता की उम्मीद नहीं की जा सकती|

  ऐसा नहीं है कि हिंदी में अच्छे शोध प्रबंध नहीं लिखे गए हैं| पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का शोध प्रबंध ‘निर्गुण स्कूल ऑफ़ पोएट्री’,कामिल बुल्के का ‘रामकथा: उद्भव और विकास’, कवि धर्मवीर भारती का ‘सिद्ध साहित्य’, शिवप्रसाद सिंह का ‘सूर पूर्व ब्रजभाषा’, नामवर सिंह का ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’, श्रीराम शर्मा का ‘दक्किनी भाषा: उद्भव और विकास’ आदि कुछ ऐसे शोध प्रबंध हैं, जो सहज ही याद आते हैं| इनके अतिरिक्त और भी शोध प्रबंध हैं जो अपनी गुणवत्ता और मौलिकता के लिए याद किये जाते हैं, लेकिन हिंदी में जितने बड़े पैमाने पर शोध प्रबंधों का उत्पादन हो रहा है, उसमे अच्छे शोध प्रबंधों की संख्या बहुत थोड़ी है| हिंदी में शोध कार्य की दुर्दशा का कारण क्या है?

  इसका पहला और बड़ा कारण है शोधकार्य के जरिये प्राप्त डिग्री को अध्यापन की नौकरी से अनिवार्यतः जोड़ देना| मानविकी के विषयों में शोध कार्य को अध्यापकी पाने की अनिवार्य योग्यता के साथ जोड़ देना, शोध के साथ न्याय नहीं है| शोध कार्य की विशेष उपयोगिता अध्यापन करने वाले नए अध्यापक के लिए नहीं है| एक अध्यापक का काम  अपने छात्रों को साहित्य की शिक्षा देना तथा साहित्य में उसकी दिलचस्पी पैदा करना है| हाँ, कुछ विषयों के अध्यापन के लिये विशेषज्ञता की जरूरत पड़ती है, लेकिन यह विशेषज्ञता पीएच.डी. डिग्रीधारी अध्यापक के पास ही होगी, यह जरूरी नहीं| एक अध्यापक के लिए एम.ए. करने के बाद किसी क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करने का सबसे अच्छा उपाय है कि उस क्षेत्र में अल्प अवधि का पाठ्यक्रम विश्वविद्यालय चलाये, जिसे एम.ए. पास अभ्यर्थी पूरा करके उस क्षेत्र में विशेष पैठ बना सके| इसके साथ ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा संचालित की जाने वाली राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उतीर्ण अभ्यर्थी ही विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में व्याख्याता पद के योग्य माने जाने चाहिए| पीएच.डी. की अनिवार्य शर्त रखकर शोध की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ करने का जो लापरवाह रवैया है, उसे बंद कर देना चाहिए| मानविकी के विषयों में शोध कार्य वही लोग करें, जिनकी सचमुच की दिलचस्पी शोध कार्य में हो और जिनके पास शोध का कोई मौलिक विषय हो| बिना इच्छा और बिना मौलिक शोध विषय के जो शोध कार्य हो रहे हैं, उनसे हिंदी की दुनिया में कुछ भी नया नहीं जुड़ रहा है| न तो विषय-विशेषज्ञ पैदा हो रहे हैं और न ही साहित्य की किसी नयी दिशा का उद्घाटन हो रहा है|

  हिंदी विभागों में लिखे जाने वाले शोध प्रबंधों की अगर सूची बनायी जाये तो सार्थक और मौलिक शोध प्रबंधों की संख्या बहुत कम होगी| शोध विषयों का ऐसा अभाव दीखता है कि  एक ही शीर्षक को थोड़ा हेर-फेर के साथ दर्जनों शोध प्रबंधों के लायक मान लिया जाता है| एक समय था जब किसी रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व को शीर्षक बनाकर शोध कार्य शुरू हुए| फिर क्या था, छोटे-बड़े सभी रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर धड़ल्ले से शोध कार्य होने लगे, जिसमें आधी सामग्री पूर्व के शोध प्रबंधों की आवृत्ति होती थी| फिर किसी रचनाकार के कथ्य और शिल्प पर शोध कार्य करने की आंधी चल पड़ी| जिसे देखो वही किसी रचनाकार के कथ्य और शिल्प पर शोध कार्य कर रहा है| उसके बाद किसी रचनाकार की रचनाओं में सामाजिक चेतना, यथार्थ चेतना पर शोध कार्य करने की धूम मच गयी| इधर स्त्री चेतना या विमर्श तथा दलित चेतना और विमर्श का फैशन है| इन शोध प्रबंधों में सामाजिक चेतना और यथार्थ चेतना को समझाने में ही आधा प्रबंध पूरा हो जाता था| कहने की जरूरत नहीं कि यह कार्य पूर्व के शोध प्रबंधों की आवृत्ति मात्र होता है| ऐसे ही लोकप्रिय शोध विषयों में से कुछ समाजशास्त्रीय अध्ययन, मनोवैज्ञानिक अध्ययन, विश्लेषणात्मक अध्ययन आदि हैं, जिनके आधार पर किसी भी रचना या रचनाकार का अध्ययन किया जाता है| कहने की जरूरत नहीं कि शोध कार्य के नाम पर यह एक अकादमिक धोखाधड़ी है, जो धड़ल्ले से हिंदी की दुनिया में चल रही रही| यह भी सुनने में आता है कि बहुत सारे विश्वविद्यालयों में इन सतही और चलताऊ विषयों पर भी शोध प्रबंध लिखने का काम शोधार्थी नहीं करता, यह महत्वपूर्ण कार्य उसके शोध-निर्देशक ही अच्छी दक्षिणा लेकर संपन्न कर देते हैं| ऐसी स्थिति में मौलिक शोध प्रबंधों का अभाव हो गया हो तो क्या आश्चर्य !

  असल में ऊपर जिस तरह के शोध विषयों की चर्चा की गयी है, कायदे से वे शोध विषय हैं ही नहीं| वे मूल रूप से आलोचनात्मक लेखों के विषय हैं| बहुत पहले हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने हिंदी शोध की गिरती हुई दशा पर विचार किया था और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे| उन्होंने हिंदी में तात्विक शोध समस्या पर विचार किया है और कहा है कि जो विषय आलोचना के हैं, उनपर शोध कार्य न करके तथ्य आधारित शोध कार्य को बढ़ावा देना चाहिए| अपने प्रसिद्ध निबंध ‘तात्विक शोध समस्या’ में उन्होंने तात्विक शोध (Fundamental Research) की समस्या पर विचार किया है और कहा है- ‘हिंदी शोध की मुख्य समस्या, मेरी समझ से, तात्विक शोध को लेकर ही है| साहित्य में तात्विक शोध से मेरा क्या तात्पर्य है, इसे, मतभेद की संभावना का ध्यान रखते हुए भी, स्पष्ट करना आवश्यक है| साहित्य विषयक तात्विक शोध न तो सर्वथा अज्ञात का अविष्कार होता है, न सुपरिचित का अनुशीलन; स्वल्प-परिचित और गौण लेखकों की उपेक्षित एवं दुर्लभ कृतियों का सश्रम संपादन और विश्लेषण ही तात्विक शोध माना जा सकता है| हिंदी में आज भी ऐसे असंख्य प्राचीन कवि होंगे, जिनकी कृतियों के सर्वप्रथम उद्घाटन का श्रेय सहज ही किसी को मिल सकता है| ऐसी कृतियों का प्रकाशन-मात्र भी महत्वपूर्ण उपादेय होगा, किन्तु उसे प्रारंभिक शोध ही कहा जायेगा| दूसरी ओर प्रमुख प्राचीन कवियों की पुस्तकों के प्रामाणिक पाठ-निर्धारण की भी आवश्यकता हो सकती है................तात्विक शोध तो हिंदी के उन कवियों पर ही किया जा सकता है जो साहित्येतिहास में युग-विशेष के गौण कवियों के रूप में अनिवार्यतः उल्लेख के योग्य भी माने जाते हैं और जिनके अध्ययन के लिए पाठ्य-सामग्री का अभाव भी बना हुआ है|’

  नलिन जी ने प्रेमचंद, निराला आदि की कृतियों में सामाजिक-चेतना या यथार्थ-चेतना जैसे विषयों पर शोध कार्य करने की जगह किसी शोधार्थी के लिए यह उपयुक्त माना है कि वह इन रचनाकारों की रचनाओं के प्रकाशन वर्ष को ही ठीक से रखने का और उसके विश्लेषण का काम करे, तो हिंदी शोध का ज्यादा भला होगा| विज्ञान के विषयों की देखादेखी मानविकी के विषयों में नौकरी प्राप्त करने के लिए शोधोपाधि प्राप्त करने की जो होड़ है, उससे हिंदी शोध की गुणवत्ता निश्चित रूप से प्रभावित हुई है| उसे स्तरीय और मौलिक बनाने का यही उपाय हो सकता है कि उसे नौकरी प्राप्त करने या प्रोन्नति पाने की अर्हता से मुक्त कर दिया जाये| शोध कार्य अंततः जिज्ञासु मन की सक्रियता और उसके लिए सही दिशा में किए जाने वाले श्रम का परिणाम होता है| जिनके पास न वह जिज्ञासा है और न उस जिज्ञासा के पीछे दौड़ने की संकल्पशक्ति, वे अगर शोध के क्षेत्र में आयेंगे तो निश्चित रूप से शोध का स्तर वह नहीं रहेगा जिसकी अपेक्षा की जाती है|    

Wednesday 10 December 2014

कबीर: कल, आज और कल

...आज जब मैं दिल्ली से रोहतक आ रहा था- कबीर पर बोलने के लिए तो अचानक तुलसीदास याद आए। हुआ यह कि रास्ते के दोनों ओर बड़ी संख्या में खिले हुए कास देर तक दिखते रहे। तुलसीदास उन्हीं खिले हुए कासों के कारण याद आए- फूले कास सकल मही छाई, जनु बरखाकृत प्रकट बुढ़ाई’| तुलसीदास की इस चौपाई में वर्षा ऋतु के खत्म होने का खिले हुए कासों के जरिए जो कलात्मक वर्णन है, उससे उस कवि की काव्य-शक्ति का अनुभव हुआ। यहाँ कोई सगुण-निर्गुण विवाद नहीं, गहन जीवन-बोध है। फिर दूसरे प्रसंग में कबीर की भी पंक्तियाँ याद आईं और जीवन के गहन-गंभीर प्रश्नों से साक्षात्कार करने की निर्भय शैली की याद आई -

वेद कहे सरगुन के आगे निरगुन का बिसराम।
सरगुन-निरगुन तजहु सोहागिन, देख सबहि निज धाम।।

यह कबीर का सूफियाना राग है जिसमें सगुण-निर्गुण से परे सच्ची आध्यात्मिकता पर जोर है। और उसी के साथ यह भी याद आया कि हिंदी आलोचना में कबीर और तुलसी को आपस में भिड़ाने का जो सिलसिला चल निकला है, वह एक तरह से रक्तरंजित विवाद में बदल चुका है। सगुण-निर्गुण, ज्ञानमार्गी-राममार्गी नाम से जो बंटवारे आलोचकों ने कर रखे हैं, उनके जरिए इन दोनों कवियों के केंद्रीय भावों को समझने की बजाय दोनों को एक-दूसरे के विपरीत साबित करने पर ही जोर ज्यादा है। आज हमारे लिए वे केंद्रीय भाव ज्यादा जरूरी हैं, बनिस्बत भेद के। बहरहाल, कबीर और तुलसी को आपस में लड़ाने का जो आलोचनात्मक सिलसिला है, यहाँ उससे अपने को अलग रखते हुए मैं कबीर पर कुछ बातें निवेदित करूंगा।

कुछ दिनों पहले मुझे इस संगोष्ठी में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया और विषय बताया गया - कबीर-कल आज और कलतो मुझे अपने छात्र जीवन की एक फिल्म याद आई। फिल्म राजकपूर की थी। नाम था- कल आज और कल। फिल्म में पृथ्वीराज कपूर दादा की भूमिका में हैं, राजकपूर पुत्र की भूमिका में और रणधीर कपूर, उनकी यह पहली फिल्म थी, पोते की भूमिका में हैं। जहाँ तक याद है, 1970-72 में यह फिल्म बनी थी। इसमें राजकपूर ने तीन पीढ़ियों का संघर्ष दिखाया है। दादा अपनी मान्यताओं और अपने मूल्यों से बंधा हुआ है। वह मानता है कि हम जो कर रहे हैं, हमारा जो समय है, वह सही है। पोता अपने ढंग से जीना चाहता है, दादाजी सुबह चार बजे उठते हैं और भजन गाते हैं, पोता देर तक सोता है और उठकर जोर-जोर से पश्चिमी संगीत बजाता है। इसके कारण दादा और पोते के बीच टकराहट होती है। राजकपूर उनमें से एक का पुत्र है और दूसरे का पिता। वह पिता को सम्मान देना चाहता है और बेटे को प्यार, लेकिन उसके लाख प्रयत्न के बाद भी दादा और पोते में मेल-मिलाप नहीं होता। पिता उसे अपनी ओर खींच रहा है और पुत्र अपनी ओर। दादा और पोते की इस खींचतान में पिता यानी राजकपूर की चिंता किसी को नहीं है। दोनों की आपसी खींचतान में वह सैंडविच बना हुआ है। अंत में जो निष्कर्ष हाथ आता है, जहां तक मुझे याद है, वह यह कि राजकपूर अंत में कहता है कि एक को अपने बीते हुए कल की चिंता है, दूसरे को आने वाले कल की; मैं जो आज हूं, मुझ आज की चिंता किसी को नहीं। उस फिल्म में जो तनाव है, अतीत, वर्तमान और भविष्य का, वह तीन पीढ़ियों का है। वह राजकपूर के समय में भी था और हमारे समय में भी है। आज यहाँ संगोष्ठी का जो विषय है, उसमें भी यह तनाव है। जहां तक मैं समझ रहा हूँ आयोजकों की चिंता यह है कि कबीर कैसे थे कल, कैसे हैं आज, और कैसे होंगे भविष्य में?

मेरी एक सहज जिज्ञासा है कि क्या किसी कवि की इतने लंबे कालखंड में प्रासंगिकता ढूंढ़ना ठीक है? वह कल भी प्रासंगिक था, आज भी है और भविष्य में भी बना रहेगा- मुझे लगता है कि किसी कवि से ऐसी अपेक्षा रखना उसके साथ न्याय नहीं है। हर रचनाकार को अपने समय में फिट कर देने की इस प्रवृत्ति को कभी नामवर सिंह ने प्रासंगिकता का प्रमादकहा था। उन्होंने लिखा है: प्रासंगिक क्या वही है जो हमारे विचारों का अनुमोदन करता है और आज के अनुकूल है? जो आज से भिन्न है और हमें चुनौती देता है, वह प्रासंगिक क्यों नहीं? आज यह सवाल उठाना इसलिए जरूरी है कि प्रासंगिकता की चिंता प्रमाद की सीमा तक बढ़ गई है। अतीत के हर बड़े लेखक को किसी-न-किसी तरह समकालीन बनाने की ऐसी कोशिश हो रही है कि अतीत की अतीतता तो सुरक्षित रही नहीं, वर्तमान की अपनी विशिष्टता भी लुप्त हो रही है- यहाँ तक कि अतीत और वर्तमान का अंतर मिटता जा रहा है और इस तरह आज की ज्वलंत समस्याओं से बच निकलने का बहाना मिल रहा है।मैं भी यह समझता हूँ कि इतने लंबे कालखंड में महान से महान आदमी प्रासंगिक ही बना रहे, यह जरूरी नहीं। मेरे पिता जी बहुत अच्छे आदमी थे। मेरी तुलना में कई अर्थों में बहादुर आदमी थे। जिन अर्थों में वे बहादुर थे, उन अर्थों में मैं बहादुर नहीं। लेकिन स्त्रियों के बारे में, जातियों के बारे में, उनके जो विचार थे, वे कहे नहीं जा सकते। वे अपने मुसलमान दोस्तों के लिए जान दे सकते थे, लेकिन उसके साथ बैठकर खा नहीं सकते थे। हम खाना खा लेते हैं, अपने किसी मुसलमान दोस्त के लिए जान देने की बात आएगी तो सौ बार सोचेंगे। तब क्या मेरे पिताजी मेरे किसी काम के नहीं रहे? अपने उपन्यास- शायद ढाई घरमें गिरिराज किशोर ने इस सवाल को उठाते हुए कहा है- कि हमने छोटी समस्या तो हल कर ली, थाली और रोटी की समस्या हल कर ली, साथ खाने लगे लेकिन जो बड़ी समस्या थी, दिल के मिलने की समस्या- वह और बड़ी होती गई है। जब मेरे और मेरे पिताजी के समय में इतना अंतर आ गया है, यह समस्या ज्यादा जटिल हो गयी है, तब सोचिए कबीर तो चार-पांच सौ वर्ष पहले हुए थे। उनकी प्रासंगिकता पर आज यदि हम विचार कर रहे हैं तो यह जाहिर है कि सामान्य तौर पर एक भले और अच्छे आदमी से वे लाख गुना अच्छा और आगे के थे। हमारे समय में हिंदू-मुसलमान की समस्या जितनी भयावह है, वह कबीर के समय से अधिक है। हमारा समय कबीर के समय से अधिक असहिष्णु है। वे आज होते तो उन्हें अपनी साखियाँ कहने में हजार परेशानियाँ उठानी पड़तीं। मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा।

मैं 2000 से 2004 तक हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहा था। उस बीच वहाँ चंद्रबाबू नायडू की सरकार थी। आंध्र प्रदेश के इंटरमीडिएट हिंदी पाठ्यक्रम में कबीर की साखियाँपढ़ाई जाती थीं। उनमें एक साखी थी- कांकड़-पाथर जोरि के, मसजिद लियो बनाय।सवाल उठे कि यह मस्जिद का मजाक है। एक खास संप्रदाय के लोगों ने कहा कि यह हमारी भावना पर चोट है। आप जानते हैं कि चुनावी राजनीति के कारण सरकारें कितनी छुई-मुई हो गई हैं। जहाँ तक मुझे याद है कि बिना अर्थ जाने, बिना आशय समझे, असुविधाजनक साखियों को हटा दिया गया। हो सकता है- वेद का, मंदिर का, तीर्थों का जो मजाक कबीर ने उड़ाया है, उसको देखकर कुछ हिंदूवादी शक्तियों की भावनाएं भी आहत होने लगें। क्या आपको नहीं लगता कि हिंदू-मुसलमानों के पाखंडों की आलोचना करते हुए कबीर आज की तुलना में अपने समय में अधिक सुविधाजनक स्थिति में थे? आज हम जरा वेद, कुरान, मंदिर-मस्जिद पर टिप्पणी करके तो देखें। कबीर आज भी प्रासंगिक हैं, लेकिन ज्यादा चुनौतीपूर्ण अर्थों में। आज जैसी चुनौती कबीर के सामने है, उनके समय में शायद नहीं थी! कबीर के समय में उनका कोई संप्रदाय नहीं था कि उनके लिए- उनके पक्ष में उठ खड़ा होता और उनके समर्थन में लाठियाँ भांजता। कबीरपंथी मठ तो बाद में बने, ऐसा इतिहासकारों का कहना है| और मठ भी कैसे? उन मठों में आप जाएँ तो पाएँगे कि कबीर जिन चीजों का विरोध करते आए थे, वही चीजें वहाँ प्रतिष्ठित हैं, मसलन- अवतारवाद, मूर्तिपूजा, कर्मकांड आदि। कबीर आज हमारे समय, समाज, राजनीति और अकादमिक जगत के लिए अपने समय से अधिक बड़ी चुनौती हैं।

कबीर के जो विचार उनकी कविताओं में व्यक्त हैं, उन सबके साथ संपूर्णता में आपकी सहमति नहीं होगी। स्त्रियों के बारे में जो उनके विचार हैं उनसे आज किसी भी विचारवान आदमी की सहमति नहीं होगी। स्त्रियों के बारे में उनके विचार तुलसीदास से भी भयंकर हैं। निर्गुणपंथियों में कबीर हों या दादू, स्त्रियों के प्रति वे काफी अनुदार हैं। निर्गुणपंथियों में नानक ही हैं, जिनके यहाँ स्त्रियों के लिए सम्मान भाव है। कबीर ने तो स्त्री को सांप से भी अधिक जहरीला बताया है- नारी की झाईं परत, अंधा होत भुजंग। दादू तो यहाँ तक कहते हैं कि अस्सी साल की बुढ़िया तक पर भरोसा न करो। इस  अर्थ में कबीर हों या दादू, कैसे प्रासंगिक माने जाएँगे? वैसे समय में निर्गुणपंथियों में नानक जैसा कवि मिलता है, जो स्त्रियों के प्रति अनुदार नहीं है-
भंडि जंमीअै भंडि निंमीअै भंडि मंगण बीआहु।।
भंडहु होवै दोसती भंडहु चलै राहु।।
भंडु मुआ भंडु भालीअै भंडि होवै बंधानु।।
सो फिउ मंदा आखीअै जितु जंमहि राजान।।

गुरू ग्रंथ साहिबमें संग्रहीत यह गुरू नानक देव की वाणी है। इसका भाव यह है कि स्त्री के जरिए ही यह सृष्टि चलती है। सारा संसार उसी से जन्म लेता है। वह राजाओं-महाराजाओं की जननी है। उसे मंदायानी बुरा क्यों कहा जाए? उसे सबसे ऊपर का दर्जा देते हुए नानक ने कहा कि उसके ऊपर केवल वाहिगुरुयानी भगवान है।
सगुणपंथियों में सूरदास जैसा कवि मिलता है, जिसके यहाँ स्त्री के लिए सम्मान और समता का भाव मिलता है। इसीलिए तो सूरदास के कृष्ण पर लिखते हुए समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा है कि स्त्रियाँ कहीं अगर पुरुष के बराबर दिखती हैं तो वृंदावन में और कान्हा के साथ। मध्यकालीन साहित्य में इस घटना को डॉ. लोहिया स्त्री-पुरुष समानता के पक्ष में विलक्षण घटना मानते हैं। इस अर्थ में हम कबीर को नहीं देख पाते। हालांकि आलोचकों ने कहा है कि प्रत्यक्ष रूप से कबीर ने स्त्री-निंदा जरूर की है, लेकिन स्वयं को स्त्री-रूप में रखकर विरह के जो गीत उन्होंने लिखे हैं, उसमें स्त्री के दर्द को महसूस किया है, मसलन- तड़पत बिन बालम मोर जिया’, जैसे पदों में मध्यकाल में स्त्री की जो घरेलू जिंदगी थी, उसकी जो विरह दशा थी, उसका मार्मिक चित्र मिलता है, लेकिन यह तो व्याख्या का भाव हुआ। जो प्रत्यक्ष अर्थ कबीर का हमारे सामने खुलता है वह वही है जो मध्यकालीन समाज का है। वे मध्यकालीन सीमा का अतिक्रमण करते हुए नहीं दिखाई पड़ते, जैसा कि वे अन्य प्रसंगों में दिखते हैं। आज हमें उनका वह रूप ठीक नहीं लगता, भविष्य में भी नहीं लगेगा। वे जब कुंडलिनी जगाने की बात करते हैं, तब भी हमें ठीक नहीं लगता। वह सब आज अव्यावहारिक लगता है।

वे प्रासंगिक वहाँ लगते हैं, जहाँ वे जाति निरपेक्ष और धर्मनिरपेक्ष समाज की बात करते हैं, जहाँ वे धार्मिक बाह्याडंबरों से मुक्त सच्ची मानवता की बात करते हैं, मंदिर-मस्जिद से मुक्त होकर एक ऐसे ईश्वर को अपने में ही उतार लेने की बात करते हैं जो हर कण में हर जगह है। इस रूप में मुझे लगता है कि यह भारतीय समाज और धर्म साधना के इतिहास में धर्म की नयी प्रस्तावना है। कबीर ने कहा- कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर। वही पीर है, वही फकीर है, वही संन्यासी है जो दूसरों की पीर जानता है। वह नहीं जो मंदिरों-मठों में रहता है, तरह-तरह के कर्मकांड करता है और मस्जिद में रोजा-नमाज पढ़ता है। इस भावधारा को देखें। यही बात तुलसीदास कहते हैं- परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।नरसी मेहता भी यही बात कहते हैं- वैष्णव जन तो तेने कहिए, जिन पीर पराई जाणी रे।मध्यकाल में, संपूर्ण भारत में, वे चाहे कबीर हों, तुलसी हों, नरसी मेहता हों, वसवन्ना हों, शंकरदेव हों, उनके काव्य में धर्म की नई अवस्था, धर्म की नई प्रस्तावना, धर्म की एक नई जमीन तैयार होती हुई आपको दिखाई देगी। वह जमीन क्या है? वह जमीन है- सच्ची मनुष्यता की जमीन, वह जमीन है- सादगी की जमीन, वह जमीन है- भाईचारे और  ईमानदारी की जमीन। हमारा स्वतंत्रता संग्राम गाँधी के नेतृत्व में मनुष्यता की इसी जमीन पर लड़ा गया। कबीर ने छोटे-बड़े का, हिंदू-मुस्लिम का, मंदिर-मस्जिद का जो सवाल उठाया था, उस सवाल की रोशनी में स्वतंत्रता आंदोलन लड़ा गया। भारतीय जनता को सोचने और तर्क करने की आजादी पर लड़ा गया- हमारा स्वतंत्रता आंदोलन। उसके भीतर आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हर तरह की समता का स्वप्न था। उस स्वप्न में निश्चित रूप से कबीर का भी स्वप्न शामिल था और दूसरे भक्त कवियों का भी। कबीर ने हमें तर्क का हथियार दिया था। यह तर्क ही है जो सभी तरह की गैरबराबरी पर सवाल करता है। वह तर्क ही है जो पूछता है कि ये मंदिर और मस्जिद क्यों? ये ब्राह्मण और शूद्र क्यों? यह कर्मकांड क्यों? यह क्योंहमारे लिए और हमारे समाज के लिए जरूरी है।

हमारे समय में मठों की, बाबाओं की, मंदिरों की संख्या जितनी तेजी से बढ़ी है, हमारे भीतर की सच्ची मनुष्यता की शिक्षा उतनी ही तेजी से घटी है। कबीर आदि संत कवियों ने जिस सादगी, ईमानदारी, अपरिग्रह आदि की बात की, आज वह हमारे जीवन और समाज में कहीं नहीं है। यह अजब विडंबना है कि हमारे समय में कबीर की चर्चा जितनी तेजी से बढ़ी है, उतनी ही तेजी से धार्मिक कर्मकांड बढ़ा है, उतनी ही तेजी से नकली बाबाओं की संख्या बढ़ी है, भोग और संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी है। एक तरफ हम वैज्ञानिक उपकरणों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हैं, दूसरी तरफ हम अंधविश्वास की भी गिरफ्त में हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जो देशी भाषाओं की भारतीय पत्रकारिता थी उसमें राशिफल की ऐसी भरमार नहीं थी, जैसी आज है, उसमें तर्कशीलता और वैज्ञानिक चेतना पर जोर था। उस पत्रकारिता को संचालित करने वाला और पसंद करने वाला भारत का वह मध्यवर्ग था जो भारतीय नवजागरण की पैदाइश था, जिसके खून में स्वतंत्रता आंदोलन के तराने थे। वह मध्यवर्ग अब समाप्त हो चुका है। उसकी जगह छठे वेतनमान से अघाया हुआ मध्यवर्ग है, वह लालची मध्यवर्ग है, जिसके लालच का कोई अंत नहीं। इसी मध्यवर्ग के कारण हमारे समय में नकली और पांच सितारा बाबाओं की भरमार है। कबीर का साहित्य इस मध्यवर्ग के सामने चुनौती भी है और आदर्श भी।....

कबीर ने जब कहा था कि बागों न जा रे न जा, तेरी काया में गुजलार- तब उसका आशय यह था कि बाहर कहीं भटकने की जरूरत नहीं, तुम्हारा शरीर ही वह मंदिर है, जिसके भीतर तुम्हारा साईं बसता है- तेरा साईं तूझ में, जाग सके तो जाग। मैंने जैसा कहा कि धर्म की एक नई प्रस्तावना, एक नई जमीन तैयार कर रहे थे कबीर। आप याद करें कबीर के पूर्ववर्ती कवि हैं- वसवन्ना। कन्नड़ में 12वीं शताब्दी के हैं वसवन्ना, कबीर तो 15वीं शताब्दी के हैं। तीन सौ साल पहले वसवन्ना ने यही प्रस्तावना दी थी-
धनी लोग तुम्हारे मंदिर बनाएंगे प्रभु,
मैं क्या बनाऊंगा, मैं एक गरीब आदमी
मेरा तन ही मंदिर है, सिर कलश,
दोनों पैर स्तंभ हैं
हृदय गर्भगृह
मैं कहाँ से मंदिर बनाऊंगा मेरे प्रभु
मैं एक गरीब आदमी।

वसवन्ना हों या कबीर, दक्षिण भारत हो या उत्तर भारत, इन संतों ने लगभग 12वीं सदी से लेकर 15वीं, 16वीं सदी तक भारतीय धार्मिक जीवन की, भारतीय सामाजिक जीवन की, आध्यात्मिक जीवन की एक ऐसी प्रस्तावना तैयार की, जिसके आधार पर आधुनिक भारत का निर्माण होना चाहिए था। आधुनिक युग के महानायक महात्मा गाँधी ने उस प्रस्तावना को ठीक से समझा था। तभी उनके जीवन में इन संत भक्त कवियों की सादगी-सच्चाई थी, तभी उनके सपनों में उन संत-भक्त कवियों के आदर्श थे। तुलसीदास उनके प्रिय कवियों में थे। नरसी मेहता का भजन- वैष्णव जन तो तेने कहिए.... उनका प्रिय भजन था। उन्होंने कबीर का चरखा लिया और उसके जरिए स्वावलंबन की सीख दी। चरखा जो कबीर की रोजी-रोटी का जरिया भी था और चरखा जो उनके आध्यात्मिक अर्थ का सबसे बड़ा रूपक भी। कबीर कहते हैं कि यह सृष्टि चरखा है और ब्रह्म रूपी जुलाहा उसे चला रहा है। यदि कबीर के लिए चरखा रोजी-रोटी कमाने का और स्वालंबन का जरिया है तो उसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। गाँधी के लिए भी चरखा यही अर्थ रखता है। वे कबीर के इस चरखे के जरिए स्वावलंबी और अध्यात्मिक भारत का सपना देख रहे थे। गाँधी कबीर के चरखा और रामचरितमानस के रामराज्य का प्रतीकार्थ लेते हुए एक ऐसे भारत का सपना देख रहे थे जिसमें कोई दुखी और दीन न हो।

गाँधी के लिए कबीर, तुलसी, नरसी मेहता और दूसरे मध्यकालीन संत-भक्त कवि यदि प्रासंगिक थे तो हमारे लिए क्यों नहीं हो सकते? आज उपभोक्तावाद और समाज में विषमता जिस कदर बढ़ी है, वंचित वर्ग और सुविधा संपन्न वर्ग का फर्क जितना बढ़ा है, उतना पहले नहीं था। हम ऐसे समाज में आ गए हैं, जिसके लालच का कोई अंत नहीं है। आज हमारे समय में इतने बाबाओं का उदय क्यों हुआ है? इसलिए कि हमारे लालच का कोई अंत नहीं है, हम और ज्यादा पाना चाहते हैं। एक कहावत है कि लालचियों के गाँव में कोई ठग भूखा नहीं रहता। इसीलिए हम लालची लोगों के बीच इन बाबाओं का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। कबीर की प्रासंगिकता पर यह गोष्ठी हो रही है तो इस बात को याद करने की जरूरत है।

जैसा कि मैंने कहा कि कबीर धर्म और अध्यात्म की नई जमीन तैयार करते हैं। उनके साथ एक विलक्षण और अभूतपूर्व सिलसिले की शुरुआत होती है। वे संन्यास का अर्थ बदल देते हैं। कबीर के पहले संन्यास का अर्थ था- घर-द्वार छोड़कर, पत्नी वगैरह से मुक्त हो कर अकेला जीवन जीना। बुद्ध पत्नी को छोड़कर भागे थे। मतलब यह कि पत्नी संन्यास मार्ग में बाधक है, संन्यास के लिए घर छोड़ना जरूरी है। शंकराचार्य ने तो विवाह ही नहीं किया था। यह हमारे यहाँ संन्यास की परंपरा थी। कबीर ने घर में रहते हुए संन्यास को नया अर्थ दिया। उन्होंने बताया कि बाल-बच्चों के साथ रहते हुए, रोजी-रोटी कमाते हुए, चरखा चलाते हुए और कपड़ा बेचकर, पैसा कमाकर भी संन्यासी हुआ जा सकता है। यह संन्यास का नया अर्थ था, जिसकी घोषणा कबीर ने डंके की चोट पर की। अगर यह सब करते हुए कबीर संत-महात्मा थे तो आज के युग में महात्मा और संत वे नहीं हैं जो धर्म का कारोबार कर रहे हैं, संत-महात्मा वे हैं जो बड़े-बड़े वैज्ञानिक हैं, चिंतक हैं, पर्यावरणविद हैं। कबीर को आज पढ़ने का मतलब यह है कि हम सच्ची धार्मिकता और दिखावे की धार्मिकता में फर्क करना सीखें।


कबीर को याद करने का एक अर्थ यह भी है जो अर्थ कबीर से गाँधी तक आता है। बड़े बांधों और बड़े उद्योगों के जरिए विकास की जो राह हमने चुनी है, उस पर कबीर का चरखा प्रश्नचिह्न लगाता है। चरखा प्रतीक है- श्रम का, स्वालंबन का और हर हाथ में काम की गारंटी का। गाँधी यही चाहते थे ताकि विषमता न फैले और हर हाथ को काम मिले। कबीर ने इसी के साथ संन्यास की एक दूसरी परिभाषा भी दी कि संन्यास का मतलब दूसरों के भरोसे खाना नहीं, दूसरों को ठगकर, चमत्कार दिखाकर, मठों, मंदिरों में बैठकर चढ़ावे का माल उड़ाना तथा हलवा-पूड़ी खाना नहीं। संन्यास का अर्थ है खुद कमाकर खाना। परिवार के साथ रहना, पत्नी के साथ रहना, बाल-बच्चों का पेट भरना- यह सब करके भी संन्यासी हुआ जा सकता है, यह कबीर ने बताया। इस तरह कबीर दो विलक्षण काम करते हैं- एक तो गार्हस्थ संन्यास की नींव डालते हैं, दूसरा श्रमशील संन्यास की।

यह सब कैसे संभव हुआ? कबीर जैसी शक्ति, उन जैसी मेधा, उन जैसी धर्म की नई प्रस्तावना कैसे संभव हुई? यह प्रश्न जिज्ञासु लोगों को परेशान करता है। इसका कोई उत्तर रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास में नहीं मिलता। इसका उत्तर हमें उन इतिहासकारों से मिलता है जिन्होंने मध्यकालीन भारत के आर्थिक इतिहास की खोजबीन की है। ऐसे इतिहासकारों में प्रमुख हैं- इरफान हबीब, जिन्होंने बताया है कि कबीर आदि संतों का उद्भव इसलिए संभव हुआ कि दस्तकारी के बहुत सारे औजार उसी काल में आए, चरखा उसी काल में आया। रहट भी उसी काल की देन है। तो ये जो छोटे-छोटे उत्पादन के औजार आए, इनसे दबी-पिछड़ी जातियों को ऊपर आने का मौका मिला। हम जानते हैं कि जब नई टेक्नोलॉजी आती है, तब नए मानवीय संबंधों का जन्म होता है। नयी तकनीक के ही कारण मध्यकाल में धुनिया, जुलाहा, चमार, नाई आदि दस्तकार जातियों का आर्थिक स्वालंबन संभव हुआ। आर्थिक आधार अगर कमजोर है तो आप सिर नहीं उठा सकते। प्रेमचंद के गोदानमें धनिया  होरी को डांटती है कि क्या राय साहब के यहाँ दौड़ते रहते हो, वे कुछ लेते-देते तो हैं नहीं; होरी धनिया को जवाब देते हुए कहता है कि भाग्यवान! जिस पाँव के नीचे अपनी गदरन दबी हो उसको सहलाते रहने में ही भलाई है। कबीर ब्राह्मणवाद और पुरातनवाद के गढ़ काशी में रहते हैं और उसी की आलोचना करते हैं। जाहिर है, इसका आधार उनका आर्थिक स्वावलंबन है, जिसे उन्होंने चरखा के जरिए प्राप्त किया है। इरफान हबीब ने जाट जाति का उदाहरण दिया है। उन्होंने बताया है कि जाट 12वीं शताब्दी तक सिंधु नदी के किनारे रहते थे, उनकी सामाजिक स्थिति अत्यंत नीची थी। 12वीं शताब्दी में रहट उनके हाथ लगी। उन्होंने उसके जरिए उन्नत खेती की कला सीखी और मालदार हो गए। जब मालदार हुए तो उन्हें धर्म की जरूरत महसूस हुई। वे नानक के एकेश्वरवाद में शामिल हो गए। बाकी हिंदू-धर्म में ही अच्छी सामाजिक हैसियत के हकदार हो गए।

कबीर चरखा के जरिए, जिस स्वाभिमान और आर्थिक स्वावलंबन का संदेश दे रहे थे, उसके आशय को गाँधी ने ग्रहण किया था। उसके जरिए उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवाद से लोहा लिया और उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। लेकिन आजादी के बाद हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने गाँधी के आशय को धीरे धीरे छोड़ दिया। आप इलाहाबाद आनंद भवन में जाएँगे तो वहाँ इंदिरा गांधी की शादी की तस्वीर मिलेगी। वहाँ लिखा है कि जवाहर लाल नेहरू ने जेल में रहते हुए जो सूत काता, उससे बनी हुई साड़ी इंदिरा जी ने शादी के समय पहनी। कोई आभूषण नहीं पहना। उन्हें फूलों से सजाया गया था। गाँधी का प्रभाव उस युग के लोगों पर पड़ा। जवाहरलाल जैसे राजकुमार पर भी पड़ा। लेकिन उसी नेहरू ने आजादी के बाद चरखा मार्का उद्योग-धंधों का रास्ता छोड़कर बड़े बांधों और बड़े उद्योगों का रास्ता पकड़ा। परिणाम हम सबके सामने है।

एक बात और मित्रो, वह यह कि भक्ति काव्य पूरी दुनिया में विलक्षण कविता है। वह चाहे जिस भाषा में लिखी गयी हो, ब्रज में हो, अवधी में हो, पंजाबी में हो, कन्नड़ में हो, बंगाली में हो, असमिया में हो, वह सिर्फ कविता नहीं, वह वो नैतिकता है, जो हमें और हमारी आत्मा को हिला कर रख देती है। वह हमारे अंतर्जगत को बदल देने वाली कविता है। यह काम दुनिया के बड़े से बड़े कवि की कविता नहीं करती। आप दुनिया के बड़े से बड़े कवि को पढ़ जाएँ। आप उसकी कविता को सराहेंगे, उसकी कहानी को सराहेंगे, रूपक और मेटाफर को सराहेंगे, आप अपने देश के कालिदास को पढ़ जाएँ, जो कवि कुलगुरु माने जाते हैं, वे हमारी नैतिकता को उस तरह से हिलाकर नहीं रखते जिस तरह से मध्यकालीन भारत में पैदा हुए भक्त-संत कवि। कबीर, तुलसी, वसवन्ना, शंकरदेव को आप पढ़ें, आप एकबारगी हिल जाएँगे। वह कविता आपकी आत्मा को झकझोरेगी। वह सिर्फ आपकी सौंदर्य-चेतना को जाग्रत भर करने का काम नहीं करेगी। आप एक बार मन से भक्ति कविता को पढ़कर देखें, आपकी आत्मा के भीतर की कालिमा उज्ज्वलता में बदलती जाएगी।

मुझे उम्मीद थी कि जब कबीर पर गोष्ठी हो रही है तो आप कुमार गंधर्व का गाया हुआ कबीर का भजन जरूर सुनवाएँगे। कारण यह है कि भाषण का उतना असर नहीं होता, जितना गायकी का होता है। कुमार गंधर्व जब गाते हैं- उड़ जाएगा हंस अकेला.... उड़ जाएगा। इसे कुमार गंधर्व भी गा रहे हैं और आधुनिक युग के कथाकार मार्कण्डेय इस शीर्षक से कहानी लिख रहे हैं- हंसा जाई अकेला। मार्कण्डेय की कहानी कबीर पर नहीं है, न आत्मा-परामात्मा पर, वह हमारे समय की सच्चाई पर है। लेकिन कबीर का जो सूफियाना राग है, कहीं-न-कहीं उसमें गूंजता है। यही सूफियाना राग कुमार की गायकी में गूंजता है कि उड़ना है तो इतना संचय किस लिए? यह तन एक दिन लकड़ी की तरह जल जाएगा- देह जरै जिन लाकड़ी, केस जरै जिन घास। इसे जाना ही है तो इतना हाय-तौबा क्यों? कबीर अगर कुमार और मार्कण्डेय के लिए प्रासंगिक हैं तो हमारे लिए क्यों नहीं?

इसी के साथ यह भी याद करने की जरूरत है कि आज के लेखकों-गायकों के लिए कबीर क्यों जरूरी हैं? भीष्म साहनी जब अपना नाटक- कबिरा खड़ा बाजार में लिखते हैं, ‘इकतारे की आंखजब मणि मधुकर लिखते हैं, प्रहलाद टिपानिया जब कबीर को गाते हैं, हिन्दुस्तान-पकिस्तान के दर्जनों गायक जब कबीर को गाते हैं, तब उनको वे क्यों जरूरी लगते हैं? यहाँ थोड़े उदाहरण दिए जा रहे हैं। दर्जनों रचनाएँ हैं- आधुनिक काल की, जिनकी पृष्ठभूमि में कबीर हैं। आप विजयदेव नारायण साही  के काव्य-संग्रह साखीको याद कीजिए। आप देखेंगे कि उसमें जो कविताएँ हैं, उनमें वही फक्कड़ाना अंदाज, सूफियाना मस्ती और निर्भीक शैली है जो कबीर से विरासत में आज के कवि को मिली है।साखीकी कविताएँ पढ़िए और अपने भीतर कबीर के कबीरपन को महसूस कीजिए। ‘साखी’ की एक कविता प्रार्थना: गुरु कबीर दास के लिएको याद कीजिए:
परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे।

दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गांठों को मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा।
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।
इस कविता की भाषा पर ध्यान दीजिए, इसमें व्यक्त वाणी पर ध्यान दीजिए, कवि-आकांक्षा को देखिए- कबीर की आत्मा समकालीन कविता की शिराओं में दौड़ती हुई दिखाई देगी।

मित्रो, कबीर को मैं जिन अर्थों में लेता हूँ, वह अर्थ यही है मेरे लिए। वे कल यानी अतीत में जैसे थे, आज जैसे हैं और कल यानी भविष्य में जैसे होंगे, उसकी एक हल्की बानगी, मैंने आपके सामने पेश की। उनके कुछ विचार आज हमें प्रासंगिक नहीं लगते, मसलन- कुंडलिनी जगाने और स्त्रियों के प्रति उच्चरित उनके विचार। मगर कबीर का जो व्यापक परिप्रेक्ष्य है, वह मुझे आकर्षित करता है। वह व्यापक परिप्रेक्ष्य है- नई आधुनिक चेतना का, नए श्रमशील और स्वावलंबी भारत के निर्माण का और ऐसे समाज के निर्माण का जिसकी आकांक्षा हाय-हाय की नहीं, संतोष की हो- साई इतना दीजिए..... हम लोग रोज कहते रहते हैं कि साई इतना दीजिएऔर हाय-हाय करते रहते हैं कि हे लक्ष्मी! आ जाओ, आ जाओ। हम लोग कहते हैं कि हमारा देश आध्यात्मिक और धार्मिक देश है। लेकिन हम इतने भोगी, विलासी और लालची हैं, जितने पश्चिम वाले भी नहीं, जिन्हें हम भौतिकवादी कहते हैं। कबीर मुझे प्रासंगिक लगते हैं तो इस अर्थ में कि वे हमारे लालच पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। वे हमारे जीवन के पंख को नई आध्यात्मिक उड़ान देते हैं। यही काम गाँधी भी करते हैं। गाँधी कहते हैं कि यह धरती संपूर्ण मनुष्य जाति का पेट भरने और जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी है, लेकिन यह धरती एक आदमी के लालच को पूरा करने के काबिल नहीं। आप कबीर से, कबीर के निस्पृह भाव से, गांधी के इस भाव को, राजनीतिक चिंतन को जोड़ें, तब आपको लगेगा कि कबीर हमारे समय के लिए कितने जरूरी हैं।

अंत में मैं फिर याद दिलाऊँ, कबीर कहते हैं और कुमार गंधर्व गाते हैं कि उड़ जाएगा हंस अकेला। इस उड़ते हुए हंस के खेल को पहचानने वाले कबीर की याद का, यह जो उपक्रम आपने किया है, उसमें शामिल होकर मुझे अच्छा लगा। मेरे लिए यह साहित्यिक विमर्श भर नहीं, जीवन-मरण के प्रश्न की तरह सामाजिक और आध्यात्मिक यात्रा है...
(24 अक्टूबर, 2013 को महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित संगोष्ठी में दिए गए बीज वक्तव्य का लिखित एवं किंचित परिवर्धित-सम्पादित रूप)

प्रस्तुति: रूपेश कुमार शुक्ल