Thursday 25 December 2014

अभिभावक साथी बदरी विशाल पित्ती

हैदराबाद जाने के पूर्व मैं बदरी विशाल पित्ती को ‘कल्पना’ के संस्थापक-संचालक के रूप में जानता तो था, लेकिन उनसे कभी मिला नहीं था| सन २००० में जब मैं पटना से हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य हेतु गया तो मिलने का और उनके संपर्क में आने का सौभाग्य मिला| हैदराबाद में, हिंदी विभाग के साथी अध्यापकों के अतिरिक्त, मैं सिर्फ दो लोगो को ही जानता था| वे थे- बदरीविशाल पित्ती और वेणु गोपाल| पित्ती जी के साथ ‘कल्पना’ का स्वर्णिम अतीत तो था ही, वे राममनोहर लोहिया के मित्र-सखा और समाजवादी आन्दोलन के नेता भी रह चुके थे| वेणु गोपाल की प्रतिष्ठा क्रन्तिकारी कवि की थी| स्वाभाविक था कि इन दोनों के प्रति मेरे मन में सम्मान एवं आकर्षण था| समाजवाद मेरी चेतना का हिस्सा था, मैं जे.पी. आन्दोलन में काम कर चुका था| इसलिए जे.पी. और लोहिया के साथी के लिए जो सम्मान होना चाहिए, वह तो था ही, ‘कल्पना’ के इतिहास का अतिरिक्त आकर्षण भी था| वेणु कवि भी थे और क्रन्तिकारी भी| क्रांति और कविता इन दोनों में मैं रुचि रखता था| पिछली सदी के आठवें-नौवें दशक में कुमारेन्द्र, कुमार विकल, आलोकधन्वा आदि कवियों के साथ वेणु गोपाल का भी नाम अनिवार्य रूप से जुड़ा था| नक्सलबाड़ी आन्दोलन से जुड़ाव के कारण इन कवियों का नयी पीढ़ी के हिंदी पाठकों के बीच बड़ा शोर था| वेणु की एक कविता अक्सर मैं उद्धृत करता था- ‘यहाँ - अँधेरे में हो/ इसलिए/ अकेले हो/ रोशनी में आओगे/ तो कम से कम/ अपने साथ/ एक परछाई/ तो/ जुड़ी/ पाओगे|’ इसलिए हैदराबाद का मेरे लिए अर्थ था- बदरीविशाल पित्ती और वेणु गोपाल|
      वेणु गोपाल से तो विश्वविद्यालय में योगदान करने के एक-दो दिन बाद ही भेंट हो गई| वे तब केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हमारे विभाग में ही अतिथि अध्यापक थे और छात्रों के बीच खासे लोकप्रिय थे| लेकिन पित्तीजी से मिलने का सुयोग बना दो-तीन महीने बाद| उनसे मिलना बहुत कठिन तो नहीं, लेकिन बहुत आसान भी नहीं था| वे मात्र हिंदी की दुनिया के आदमी नहीं थे| राजनीति, समाज, शिक्षा आदि कई क्षेत्रों में उनकी व्यस्तता बनी रहती थी| समृद्ध और बड़े घराने में पैदा होने के कारण स्वाभाविक रूप से उनके चारों ओर कई तरह के घेरे थे| उनमें सबसे बड़ा घेरा थी, उनकी तबीयत और रईसी में पले-बढे व्यक्ति की आरामतलब सुस्त दिनचर्या| इसलिए चाहने पर भी मैं उनसे जल्दी नहीं मिल सका| इसका कारण अब समझ में आता है| वह शायद यह था कि एक अपरिचित, अनजान और अनाम व्यक्ति के लिए अपनी दिनचर्या से खींचतान करके कोई व्यक्ति समय क्यों निकाले! उनके पास तरह-तरह के लोग तरह-तरह की समस्याएँ लेकर आते ही रहते थे और वे उन्हें सुलझाते ही रहते थे| मैंने जब-जब फ़ोन किया, उनके सहायक ने उनकी व्यस्तता के कारण ‘आगे कभी’ पर छोड़ दिया| लेकिन दो-तीन महीने बाद ही ऐसा संयोग बना कि उनसे मिलना भी आसान हो गया और उनका स्नेह भाजन बनना भी| विश्वविद्यालय में रामवृक्ष बेनीपुरी की शतवार्षिकी के अवसर पर तीन दिनों का राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित करने का निर्णय हुआ| लेकिन पैसे कम पड़ रहे थे| विभाग के अध्यक्ष प्रो. सुवास कुमार को पित्तीजी की याद आई| उन्होंने फ़ोन किया और समय मिल गया| आखिर मामला बेनीपुरी जी का था| बेनीपुरी जी हिंदी के बड़े लेखक तो थे ही, समाजवादी आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के नेता भी रह चुके थे| जे.पी. - लोहिया से उनका बराबरी का सम्बन्ध था और पार्टी को खड़ा करने में उनकी अग्रणी भूमिका थी| सो, समय मिल गया और सुवास जी ने मुझे भी साथ ले लिया|      खैरताबाद स्थित उनके पैतृक आवास – परिसर में जब हम पहुँचे, तो भवन और परिसर की भव्यता और विस्तार देखकर मैं चकित था| सुवास जी ने बताया पित्तीजी उन पन्नालाल पित्ती के पुत्र हैं, जिन्हें ‘राजा’ की उपाधि मिली थी| वे थे तो व्यवसायी, लेकिन उनकी समृद्धि के कारण राजा की उपाधि मिली थी| इसलिए राजा पन्नालाल पित्ती के पुत्र बदरीविशाल पित्ती  भी घर में और नगर में ‘राजा साहब’ के नाम से जाने गए| उनकी पत्नी को भी घर में ‘रानी साहिबा’ कहा जाता था|      कहा जाता है कि पिता के दुलारे पुत्र बदरी विशाल ने कमाया तो कुछ नहीं, पैतृक सम्पत्ति को राजनीति, साहित्य और समाज हित में लुटाया खूब| यह भी कहा जाता है कि कार्ल मार्क्स के निर्माण में जो भूमिका फेडरिक एंगल्स की थी, वही राममनोहर लोहिया के निर्माण में पित्ती जी की थी| लोहिया के पीछे तन-मन-धन तीनों के साथ उनके जीवन और बाद के दिनों में भी वे प्राणप्रण से खड़े रहे| ‘लोहिया समता न्यास’ और ‘नव हिन्द प्रेस’ से न सिर्फ लोहिया का, बल्कि समाजवादी धारा का साहित्य प्रकाशित होता रहा| जे.पी. – लोहिया के न रहने पर पित्तीजी बिना भटके उसे सींचते रहे|      खैर, मैं चकित भाव से चुपचाप सबकुछ देखता-सोचता रहा| सुवास जी कुछ-कुछ बताते रहे| तभी किसी की नज़र हम पर पड़ी| हमें स्वागत-भाव से बैठकखाने में बिठाया गया| थोड़ी देर बाद नमस्कार भाव से हाथ जोड़े हल्की मुस्कराहट के साथ पित्तीजी दाखिल हुए| खादी का सफ़ेद जे.पी. कट कुर्ता और धोती पहने शालीनता-भद्रता की जीवित प्रतिमा| तब तक मैंने उनकी कोई तस्वीर तक नहीं देखी थी| मेरे मन में उनकी छवि एक पुराने सेठ की थी| भारी भरकम गुलथुल शरीर, सिर पर पगड़ी, झबरीली मूछें आदि उस काल्पनिक छवि के अनिवार्य हिस्से थे| जिन व्यक्तियों और चरित्रों के बारे में हमने पढ़ा-सुना है, लेकिन उन्हें प्रत्यक्ष देखा नहीं है, उनकी एक काल्पनिक छवि मन में बनी रहती है| जैसे ‘गोदान’ के होरी की एक छवि मेरे मन में है| महाभारत के भीम की है| इसी तरह चाणक्य, चन्द्रगुप्त, अकबर आदि ऐतिहासिक चरित्रों की भी है| सो, पित्तीजी को सामने देखकर मैं विस्मय भाव से उन्हें देखता रहा| पता नहीं कैसे एक पुराने सेठ की छवि मन में बैठ गई थी| वह छवि एकबारगी टूटी| धोती-कुर्ते में आधुनिक सोच का यह भद्र व्यक्ति ही ‘कल्पना’ का संस्थापक – संचालक तथा लोहिया का मित्र हो सकता है| काल्पनिक छवि का टूटना अच्छा लगा| सुवास जी ने मेरा परिचय दिया| यह जानकर कि मैं जे.पी. आन्दोलन में भाग ले चुका हूँ और जयप्रकाश जी के संपर्क में रह चुका हूँ, वे प्रसन्न हुए| देर तक जयप्रकाश के महत्व और व्यक्तित्व पर अपने अनुभव बाँटते रहे| सोसलिस्ट पार्टी के गठन और चढ़ाव-उतार की भी चर्चा की| सोसलिस्ट पार्टी के टूटने की पीड़ा भी उनकी बातचीत में झलकती रही| फिर बेनीपुरी पर होने वाले सेमिनार का प्रसंग उठा| आर्थिक पक्ष की कमजोरी की भी चर्चा हुई| उन्होंने कहा की यह सेमिनार जरूर होना चाहिए| ‘कांता पित्ती ट्रस्ट’ की ओर से सेमिनार के लिए आर्थिक सहयोग का भी उन्होंने आश्वासन दिया| सुवास जी ने सेमिनार के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में उनकी उपस्थिति का आग्रह किया| उपस्थिति को लेकर वे लगातार अपना संकोच प्रकट करते रहे| जिस सेमिनार के आयोजन में उनका सहयोग हो, उसमें मुख्य अतिथि के रूप में अपनी उपस्थिति उनकी नज़र में उचित नहीं थी| लेकिन बेनीपुरी जी के नाम पर और बार-बार आग्रह करने पर वे किसी तरह तैयार हुए| उद्घाटन सत्र में समय पर पहुंचे तथा बेनीपुरी जी पर संक्षिप्त किन्तु बहुत आत्मीय वक्तव्य दिया|      उस मुलाकात के बाद उनसे मिलना थोड़ा सहज हो गया| उन्हीं  दिनों उन्होंने लोहिया की प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंटरवल डयूरिंग पॉलिटिक्स’ मुझे भेंट की, जिसे उन्होंने स्वयं छापा था| उसकी प्रति अब भी मेरे पास है| उनसे मिलना अपने अभिभावक समान साथी से मिलना होता था| देश-दुनिया और साहित्य-संस्कृति पर ढेरों बातें होती थीं| वे अक्सर कहते थे – ‘मैं कोई लेखक तो हूँ नहीं, मैं तो समाज और साहित्य का सेवक हूँ| जितना बन पड़ा, उतना किया| अब आपलोग आगे काम करें|’ एक बार बातचीत के क्रम में अपने नासमझ उत्साह में मैंने प्रस्ताव दे दिया कि ‘कल्पना’ फिर क्यों न निकाली जाये? थोड़ी देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा – “अब ‘कल्पना’ का निकलना संभव नहीं| आपलोग हैदराबाद से एक नयी साहित्यिक पत्रिका निकालिए| ‘कांता पित्ती ट्रस्ट’ की ओर से उसमे सहयोग मिलेगा| हाँ, मेरी एक शर्त यह जरूर होगी कि उसमें छपने वाले लेखकों को पारिश्रमिक जरूर दिया जाये|” उनके सहयोग के आश्वासन के बावजूद हम पत्रिका तो नहीं निकल सके, ‘कल्पना’ के पुनः प्रकाशन सम्बन्धी प्रस्ताव की अपनी मूर्खता पर मुझे हँसी जरूर आई| ‘कल्पना’ को जो काम करना था, वह पूरा हो चुका था| अब उसकी उसी स्तर से वापसी संभव नहीं थी| संपादन, भाषा-संस्कार, लोकतान्त्रिक मन-मिजाज़ और नयी रचनाशीलता की प्रस्तुति का जो तरीका था, वह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का स्वर्णिम इतिहास बन चुका है| उसे उसी रूप में पाना संभव नहीं| इसे पित्तीजी जानते थे| इसलिए उन्होंने पुनः प्रकाशन से इनकार कर दिया| लेकिन नयी पत्रिका के प्रकाशन से हमें हतोत्साहित भी नहीं किया|      ‘कल्पना’ की चर्चा प्रायः हमारी हरेक मुलाकात में होती थी| उस चर्चा के साथ वे अपनी पिछली स्मृतियों में खो जाते थे और ढेर सारी बातों के साथ संपादक मंडल के अपने साथियों को भी याद करते थे| उनकी कर्मठता, उनकी योग्यता की याद, उनकी बातचीत में अक्सर झलक उठती थी| वे अक्सर कहते थे कि उनकी योग्यता के अनुसार ‘कल्पना’ की ओर से भुगतान नहीं हो सका| इसका गहरा दुःख था उन्हें| संपादक मंडल के अन्य लोगों से तो मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई, मुनीन्द्र जी और प्रयाग शुक्ल से जरुर मिलना- जुलना होता रहा| लेकिन उन दोनों ने कभी किसी कमी की चर्चा नहीं की| उलटे वे यही कहते रहे कि ‘कल्पना’ में काम करते हुए उन्हें जो सम्मान मिला, वह दुर्लभ है|      ‘कल्पना’ में प्रकाशित होने वाली एक-एक रचना पर संपादक मंडल कैसे निर्णय लेता था और कैसे भाषा-नीति का पालन किया जाता था, यह प्रसंग भी वे बताते| वह सब जानना पत्रिका निकालने वाली हमारी पीढ़ी के लोगों के लिए जरूरी है| आज जब न तो किसी साहित्यिक पत्रिका या अखबार की कोई भाषा-नीति है और न भाषाई शुद्धता का आग्रह, तब ‘कल्पना’ की संपादन-प्रक्रिया को जानना वाकई ऐसे प्रसंग को जानना है, जो भाषाई अराजकता के हमारे दौर के लिए एक प्रेरक उदहारण है| जब शुद्ध लिखने वाले छात्रों, अध्यापकों, पत्रकारों एवं लेखकों की संख्या घट रही हो, तब आज़ादी के बाद  ‘कल्पना’ जैसी सार्थक एवं गौरवशाली इतिहास बनाने वाली  पत्रिका की संपादन-प्रक्रिया के इतिहास को जानना जरूरी है| लेकिन प्रश्न है कि यह हमारी पीढ़ी को बताये कौन? ‘कल्पना’ से जुड़े सारे लोग एक-एक कर जा चुके| कवि-लेखक प्रयाग शुक्ल ही अब एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जो प्रामाणिक ढंग से और आधिकारिक तौर पर इस पर प्रकाश डाल सकते हैं| हमारी अपेक्षा है कि बदरीविशाल  पित्ती पर जो पुस्तक वे सम्पादित कर रहे हैं और जिस पुस्तक के लिए मैं उनके आग्रह पर यह टिप्पणी लिख रहा हूँ, वे उस पुस्तक की भूमिका में अवश्य ही इस पर प्रकाश डालेंगे|       यह कहा जाता है कि ‘कल्पना’ की जो सम्पादकीय नीति थी, उसमें भूलवश चूक एक बार ही हुई| दिनकर की काव्य-कृति ‘उर्वशी’ का भव्य और समारोही प्रकाशन हुआ था| ‘उर्वशी’ की प्रशंसात्मक समीक्षाएं छप रही थीं| उसका बड़ा शोर था| तभी ‘कल्पना’ में भगवतशरण उपाध्याय की ‘दिनकर की उर्वशी’ शीर्षक से लगभग बीस पृष्ठों की ध्वंसात्मक समीक्षा छपी| समीक्षा एकतरफा थी और साहित्येत्तर आरोपों-प्रत्यारोपों की ज़मीन पर टिकी थी| ऐसी समीक्षा के ‘कल्पना’ जैसी संतुलित दृष्टि और लोकतान्त्रिक मन की पत्रिका में छपने पर स्वाभाविक रूप से अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई| संपादक-मंडल ने, लगता है भूल सुधार के क्रम में, बाद में पूरी तैयारी के साथ उस समय के प्रसिद्ध- वरीय एवं कनीय - बाईस लेखकों की प्रतिक्रियाएं छापी| पांच लेखकों के पत्र भी छपे| किसी एक कृति को लेकर चला यह अपने ढंग का अनोखा विवाद था, जिसकी गूँज-अनूगूंज वर्षों बनी रही| मैंने इस प्रसंग की चर्चा के क्रम में पित्ती  जी से जानना चाहा कि यह चूक कैसे और किसकी वजह से हुई, तो उन्होंने हमारी आशंका को ही गलत बताया| उन्होंने कहा कि जो भी हुआ, सामूहिक निर्णय से हुआ| किसी भी सदस्य को उन्होंने कठघरे में खड़ा नहीं किया| यह उनके चरित्र का बड़प्पन था, जो अपने किसी सहकर्मी मित्र पर किसी तरह का आक्षेप बर्दाश्त नहीं करता था| यही कारण है कि उनके साथ काम करने वाले या उनसे जुड़े किसी भी व्यक्ति से पित्तीजी की शिकायत कभी शायद ही सुनने को मिले| मैंने अपने जीवन में पित्ती जी जैसा उदार, भला और बड़े मन का आदमी कम देखा है| मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि उनके सान्निध्य में मुझे भी कुछ वर्ष रहने का अवसर मिला|      सन २००० में पित्तीजी ने ‘कल्पना’ के सभी अंकों के कई जिल्दों में दर्जनों सेट बनवाये और हैदराबाद तथा उससे बाहर साहित्य प्रेमियों के बीच वितरित कर दिया| ‘कल्पना’ की जो लाईब्रेरी थी, उसकी सारी किताबें वे हमारे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को अर्पित कर चुके थे| अक्टूबर २००० में मैं जब हैदराबाद गया तो परिचय होने पर मैंने भी एक सेट की मांग की| उन्होंने कहा कि ‘मैं ‘कल्पना’ का सबकुछ लोक को अर्पित कर चुका हूँ और अब उसके भार से अपने को मुक्त कर चुका हूँ|’ मुझे निराशा हुई, लेकिन मैं क्या कर सकता था| उसी समय एक सुखद घटना घटी, जिसकी चर्चा करना मैं आवश्यक समझता हूँ| अपने विश्वविद्यालय में मुझे ‘उर्वशी’ के अध्यापन का जिम्मा दिया गया| अध्यापन-कार्य हेतु मैं विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में ‘उर्वशी’ की प्रति खोज रहा था, तभी मुझे ‘उर्वशी’ की वह प्रति मिली जो दिनकर जी ने पित्तीजी को भेंट की थी| पुस्तक हाथ में लिए मैं देर तक उसे देखता रहा| रॉयल डीलक्स साइज़ में उम्दा कागज पर अनेक चित्रों और रेखाचित्रों से सुसज्जित ‘उर्वशी’ का वह पहला संस्करण था, जो अपनी भव्यता में बेजोड़ था| तब तक हिंदी में किसी काव्य-कृति का वैसा भव्य संस्करण शायद ही निकला हो| मैंने चर्चा सुनी तो थी लेकिन प्रथम संस्करण को देख न पाया था| मैं देर तक उलट-पलट कर देखता रहा| तभी मेरी नज़र उस जगह पर पड़ी, जहाँ लाल रोशनाई से लिखा हुआ था- ‘भाई श्री बदरीविशाल पित्ती  के योग्य|’ नीचे की लाइन में ‘दिनकर’ हस्ताक्षर के साथ १७.७.६१ की तारीख पड़ी हुई थी| मैं ख़ुशी से भर उठा| लगा खज़ाना हाथ लग गया| मैंने वह प्रति अपने नाम पर ले ली| एक दिन मैंने वह प्रति पित्ती जी को दिखाई| अपनी सहज मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा : ‘हाँ, यह दिनकर जी की भेंट है|’ इसके बाद वे देर तक दिनकर से अपनी आत्मीय मुलाकातों के बारे में बताते रहे| पहली मुलाकात की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा – “मेरी पहली मुलाकात बड़ी दिलचस्प थी| दिनकर जी जब दिल्ली में रहते थे, तब मैं उनके सांसद निवास पर एक दिन सुबह आठ-नौ बजे पहुंचा| मुझे बताया गया कि वे पूजा पर हैं| मैं तब तक बैठूँ और प्रतीक्षा करूँ| पूजा समाप्त कर दिनकर जी आये| उन्होंने ढीली-ढाली धोती पहन रखी थी| ऊपर बदन पर रेशमी चादर थी| हाथ में पूजा का प्रसाद था| आते ही मुझे लक्ष्य कर अपनी भारी आवाज में उन्होंने पूछा- ‘कहाँ हैं बदरीविशाल पित्ती?’ जब मैंने प्रणाम निवेदित करते हुए अपना नाम बताया तो आश्चर्य से वे मुझे ऊपर से नीचे तक देखते रहे| फिर मुस्कुराते हुए बोले – ‘आप तो अभी नौजवान हैं| मैंने समझा था कि बदरीविशाल  पित्ती कोई बुजूर्ग व्यक्ति है|’ फिर वे देर तक ‘कल्पना’ के संपादन- प्रकाशन और नए सोच की चर्चा करते रहे|”      उसी दिन ‘कल्पना’ के ऐतिहासिक उर्वशी-विवाद को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की योजना मेरे दिमाग में आई| मैंने जब उनसे इसकी चर्चा की तो वे बहुत प्रसन्न हुए| मुझे उत्साहित करते हुए उन्होंने कहा- ‘यह काम यथाशीघ्र आप कर डालिए| इससे साहित्य का भला होगा| एक ऐतिहासिक विवाद से नयी पीढ़ी भी परिचित होगी| वह विवाद दरअसल आधुनिक हिंदी कविता को समझने का जरूरी दस्तावेज है|’ फिर क्या था- दूसरे दिन से मैं अपने विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी से ‘कल्पना’ की फाइलों से उर्वशी प्रसंग वाले अंश निकालने में लग गया| सारी सामग्री को क्रम देकर एक भूमिका लिखी और पुस्तक का नाम रखा- “कल्पना’ का ‘उर्वशी’ विवाद|” यह नाम उन्हें पसंद आया| मैंने उन्हें बताया कि यह पुस्तक आपको समर्पित होगी| उन्होंने किंचित संकोच के साथ कहा- ‘जैसी आपकी इच्छा|’ पाण्डुलिपि लेकर मैं दिल्ली गया कि किसी प्रकाशक से प्रकाशन के लिए बात करूँ| मैं गोमती गेस्ट हाउस में रूका था| अभी मैं किसी प्रकाशक से बात करने ही वाला था कि एक दिन कवि पंकज सिंह से सूचना मिली कि बदरीविशाल पित्ती कल गुजर गए| वह २००३ के दिसंबर की सर्द सुबह थी| इस खबर से मेरे उत्साह पर पानी पड़ गया| मैं पाण्डुलिपि लेकर हैदराबाद लौट गया और वर्षों उसके प्रकाशन को स्थगित किये रहा| अंततः वह पुस्तक उसी नाम से २०१० में ‘वाणी प्रकाशन’ से छपी| ‘‘कल्पना’ के संस्थापक- संपादक बदरीविशाल पित्ती की पावन स्मृति को” - समर्पित इस पुस्तक का एक साहित्यिक विवाद के महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में हिंदी जगत में स्वागत हुआ| कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने ‘जनसत्ता’ के अपने लोकप्रिय स्तम्भ ‘कभी-कभार’ में इस प्रयास की प्रशंसा की| लेकिन हमारा दुर्भाग्य कि पित्ती जी अपनी आँखों से उसे नहीं देख सके|      दिनकर से पित्तीजी के लगाव का एक दूसरा उदाहरण देखने को तब मिला, जब उनके रामबाग स्थित प्रांगण में ‘उर्वशी’ का काव्य मंचन उन्होंने आयोजित किया| उन्होंने हैदराबाद के अपने मित्रों-परिचितों को वह कार्यक्रम देखने के लिए आमंत्रित किया| मैं भी आमंत्रित था| वैसे तो ‘उर्वशी’ काव्य नाटक ही है, लेकिन मैंने उसका मंचन कभी देखा नहीं था| हमेशा कविता के रूप में ही पढ़ता-पढ़ाता रहा था| उस दिन ‘उर्वशी’ का जब मंचन देखा, तो दूसरा अनुभव हुआ और यह अनुभव हुआ कि उसकी एक ताकत उसकी नाटकीयता भी है| उस पक्ष को नज़रअंदाज करके ‘उर्वशी’ के महत्व को ठीक-ठीक नहीं समझा जा सकता| वैसे ‘उर्वशी’ के प्रारंभिक सर्ग आकाशवाणी पटना से रेडियो काव्य-नाटक के रूप में ही प्रसारित हुए थे|रामबाग में जो मंदिर है, वह पित्ती परिवार द्वारा निर्मित है| उसका परिसर काफी बड़ा है| पित्ती जी के अनुसार वहीं किसी कमरे में एम.एफ. हुसेन के बनाये रामकथा से सम्बंधित दर्जनों चित्र थे, जिनके लिए चित्रशाला निर्मित करने की उनकी योजना थी| हुसेन का  हैदराबाद से गहरा लगाव था | अपने कैरियर की शुरुआत में उन्हें बदरी विशाल पित्ती से भरपूर संरक्षण मिला था| हुसेन उन्हीं के घर रहते थे और चित्र बनाते थे| सुना है कि ‘कल्पना’ का अक्षरांकन (लेटरिंग) हुसेन ने ही किया था| उसके बहुत-से अंकों के कवर-पेज भी उन्होंने ही डिजाईन किये थे| उनसे पित्ती जी की गाढ़ी मित्रता थी| पित्ती जी उन्हें प्यार से ‘मौलाना’ कहकर बुलाते थे| हुसेन की बनायी रामकथा श्रृंखला अब किस हालत में है, कहना मुश्किल है| लोहिया ने रामायण और राम पर जो लिखा है, वह भारतीय संस्कृति में उनकी गहरी पैठ का उदाहरण है| उसी का अगला विस्तार चित्रकूट में उनके द्वारा आयोजित होने वाला रामायण मेला था| इसी क्रम में हुसेन के रामकथा चित्रों की श्रृंखला को भी देखना चाहिए| लोहिया और हुसेन दोनों ने रामकथा की अपने-अपने माध्यमों से अपनी-अपनी व्याख्या की| उन व्याख्याओं का उद्देश्य भारत को भावात्मक रूप से जोड़ना था| क्या यह महज संयोग है कि दोनों महान – लोहिया और हुसेन – पित्तीजी से अभिन्न थे और रामकथा की उनकी व्याख्याओं के लिए आधार देने का काम उन्होंने ही किया|      पित्तीजी जब तक रहे, आचार्य नरेन्द्रदेव, जे.पी., लोहिया आदि समाजवादी चिंतकों को उनके जन्मदिन पर याद करते रहे| बड़े तो नहीं, लेकिन छोटे आयोजन वे जरूर करते थे| हमलोग भी जाते थे| नरेन्द्रदेव के जन्मदिन पर उन्होंने एक बार मुझे और सुधाकर रेड्डी को बोलने के लिए आमंत्रित किया था| सुधाकर रेड्डी तब सी.पी.आई. के आँध्रप्रदेश के सेक्रेटरी थे, अब केन्द्रीय सचिवालय के सेक्रेटरी हैं| ऐसे आयोजन समाजवाद के प्रति पित्तीजी की अडिग आस्था और खुली दृष्टि के परिचायक थे| लोहिया के नहीं रहने पर समाजवादी आन्दोलन में जो बिखराव और भटकाव आया, उससे पित्तीजी निराश जरूर हुए, लेकिन खुद अवसरवाद और भटकाव के शिकार नहीं हुए| आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से उनकी जो हैसियत थी, उसके आधार पर वे किसी भी बड़े दल में आसानी से जा सकते थे और सत्ता के खेल में शामिल हो सकते थे| लेकिन वे तो मूल्यों और सपनों को जीने वाली पीढ़ी के आदमी थे| वे अपनी राह चलने वाली जमात के सदस्य थे|      मुझे लगता है कि पित्ती जी अतिशय रचनात्मक और उत्सवधर्मी मन के व्यक्ति थे| उनके इसी मिजाज का एक कार्यक्रम था ‘त्रिवेणी’, जो हैदराबाद के साहित्यकारों, चित्रकारों और संगीतकारों के रचनात्मक मिलन-जुलन का मंच था| त्रिवेणी तो गंगा, यमुना और सरस्वती के मेल को कहते हैं, लेकिन पित्ती जी की ‘त्रिवेणी’ में साहित्य, संगीत और चित्रकला की नदियाँ मिलती थीं| साहित्य के भीतर हिंदी, उर्दू और तेलुगु की त्रिवेणी थी| एक तरह से यह बहुकलाधर्मी और बहुभाषी मंच था, जहाँ महीने दो महीने पर पित्ती जी के संयोजन में अनौपचारिक रूप से शाम लगभग छः बजे से आठ बजे तक का कार्यक्रम चलता था| हर कार्यक्रम में कोई न कोई विशिष्ट गायक होता था, जिसकी प्रस्तुति से सभी संगीतमय मानसिकता में आ जाते थे| फिर किसी बड़े चित्रकार की पेंटिंग्स दिखाई जाती और उसपर बातचीत होती| अंत में हिंदी, उर्दू और तेलुगु - तीनों भाषाओँ के कवि-कहानीकार अपनी रचनाओं का पाठ करते थे| मेरे जीवन की यह विलक्षण घटना थी, जहाँ सभी कलाओं और भाषाओं के लिए समान आदर और उन्हें समझने- सराहने की मानसिकता तैयार की जाती थी| यह पित्तीजी के बड़े और उदार विज़न का एक नायाब उदाहरण था| ‘त्रिवेणी’ के ही आयोजनों में मेरा परिचय हैदराबाद के हिंदी, उर्दू और तेलुगु के लेखकों से हुआ| वहीं मैं तेलुगु के प्रसिद्ध कवियों – ज्वालामुखी, निखिलेश्वर, नग्न मुनि आदि से जुड़ा, जिससे मेरे साहित्यिक बोध के विकास में बड़ी मदद मिली| मेरा ख्याल है कि ऐसा आयोजन भारत में शायद ही किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा किया जाता हो| पित्तीजी आयोजन में कहीं भी मंच पर नहीं होते थे, जबकि कार्यक्रम उनके खैरताबाद स्थित आवास- परिसर में ही होता था| वे चुपचाप आम दर्शक-श्रोता की तरह बैठे रहते थे| कार्यक्रम के अंत में वे माइक पकड़ते, दो वाक्यों में धन्यवाद ज्ञापन करते और ‘थोड़ा-सा भोजन करके आप सब जाएँ’, यह निवेदन करते| जब सब लोग खा रहे होते, तो एक-एक से पूछते कि खाना कैसा है और आपने क्या-क्या खाया और क्या-क्या नहीं खाया| भोजन के बाद सभी लोगों को हाथ जोड़कर वे सादर विदाई देते और तभी स्वयं भोजन करने जाते|      मैं जीवन में बहुत से बड़े लोगों से मिला हूँ लेकिन बदरी विशाल पित्ती जैसे बड़े मन का आदमी कोई दूसरा न मिला| उनके न रहने पर मेरे लिए हैदराबाद वह नहीं रहा, जो पहले था| इसी बीच हमारे मित्र वेणु गोपाल को गैंग्रीन हो गया, उनका एक पैर काटना पड़ा| मैंने यह भी देखा कि जो वेणु गोपाल हाथों में किताबों का बण्डल दबाए, अपने कुछ साहित्य-प्रेमी लड़के-लड़कियों से घिरे मस्त चाल में चला करते थे, वे बैसाखी पर चलने लगे| बाद में उन्हें कैंसर हो गया और आगे चलकर उसी से उनकी मृत्यु हो गयी| हैदराबाद में आज भी मेरे मित्रों की संख्या सबसे अधिक है, लेकिन पित्ती जी और वेणु के रहने पर मेरे लिए हैदराबाद का जो अर्थ था, वह अब नहीं है| कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि पित्ती जी के लिए मेरे मन में बेपनाह सम्मान और प्रेम क्यों है? व्यक्तिगत रूप से उन्होंने मेरी कोई मदद नहीं की और न मुझे उनकी मदद की जरूरत थी| मैं स्वयं उनके किसी काम नहीं आया| मैं हमेशा एक ही आग्रह उनसे करता रहा कि आप मुझे अपने जीवन और मन के उस एकांत का परिचय दें, जिसने आपको व्यवसाय छोड़कर समाजचेता और क्रांतिचेता आदमी बनाया| मैं चाहता था कि उनसे मैं लम्बी बातचीत करूँ| वे अपने सहज स्वाभाविक संकोचवश टालते रहते थे| मेरा आग्रह जब दुराग्रह में बदलने लगा तो वे अंततः तैयार हुए| बोले कि ‘मेरे घर में बैठकर बात करने का एकांत बिलकुल नहीं है| मैं आपके घर चलूँगा और वहीं बैठकर बातें करेंगे|’ मैं हैदराबाद में जैसे-तैसे रह रहा था| मैंने जब कहा: ‘मेरे घर में आपके लायक कोई व्यवस्था नहीं है’, तो उन्होंने कहा- ‘कोई बात नहीं, वहीँ बैठेंगे| लेकिन अभी मुझे इटली जाना है| वहाँ से लौटने के बाद कार्यक्रम बनाया जायेगा|’ लेकिन वह कार्यक्रम नहीं बन सका, क्योंकि उससे पूर्व ही अचानक उनके देहावसान की खबर मिली| जब भी पित्तीजी की याद आती है, तो मुझे अपने पोर्टिको में खड़े होकर हाथ जोड़े, विदा करते पित्तीजी याद आते हैं| मैं अक्सर उनके यहाँ सुवास कुमार के साथ उनकी गाड़ी में जाता था| वे हमें विदा करने गाड़ी तक आते थे| जब कभी हमारे पास गाड़ी नहीं होती, वे अपनी मर्सिडीज बुलाते और हमें उससे हमारे घर भेजते| उतने बड़े आदमी से वैसी स्नेह भरी विदाई कितनों को नसीब होती है?

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