Sunday, 21 December 2014

हिंदी में शोध की दशा

अक्सर यह चिंता व्यक्त की जाती है कि हिंदी में शोध की दशा बहुत ही दयनीय है| हिंदी ही क्यों, अन्य भारतीय भाषाओं बांग्ला, उर्दू, उड़िया, तेलुगु, कन्नड़, असमी, संस्कृत आदि के बारे में भी यही बात कही जाती है| निष्कर्ष यह निकलता है कि मानविकी के विषयों में अंग्रेजी और दर्शनशास्त्र को छोड़कर शेष विषयों की कोई विशेष हैसियत  अकादमिक दुनिया में नहीं है| आम धारणा बन गई है की हिंदी समेत अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओँ में एम.ए., पीएच. डी. करना बहुत आसान है| यह भी कहा जाता है कि न तो इन विषयों से एम.ए कर चुके विद्यार्थी अकादमिक रूप से सक्षम होते हैं, न ही इनके शोध कार्य में कोई मौलिकता होती है| विश्वविद्यालय परिसर में इन विषयों की और इन विषयों से जुड़े शिक्षकों एवम छात्रों की अकादमिक हैसियत वैसी ही होती है, जैसे पुराने समय में अछूत कही जाने वाली जातियों की होती थी| इन विषयों के प्रति अकादमिक जगत और समाज की यह धारणा क्यों है, इस पर ठहर कर विचार करने की जरूरत है|

   संस्कृत को छोड़कर हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालयों में अनुशासन के रूप में अध्ययन-अध्यापन का इतिहास बहुत पुराना नहीं है| इलाहाबाद विश्वविद्यालय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे कुछेक विश्वविद्यालयों में हिंदी आजादी के पूर्व पढ़ाई जाती थी| हिंदी को अनुशासन के रूप में विकसित करने में इन विश्वविद्यालयों की बड़ी भूमिका है| आजादी के बाद देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी हिंदी विभाग खुले और हिंदी एक अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठित हुई| आज देश का शायद ही कोई विश्वविद्यालय हो जहाँ हिंदी विभाग न हो| वे चाहे दक्षिण के विश्वविद्यालय हों या उत्तर-पूर्व के| यहाँ तक कि विश्व के दूसरे देशों के बहुतेरे विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग हैं और वहाँ हिंदी विधिवत पढ़ाई जाती है| इस अभूतपूर्व विस्तार के बावजूद अपने साठ-सत्तर वर्षों के संक्षिप्त दौर में ही अनुशासन के रूप में उच्च शिक्षा में हिंदी गुणवत्ता की दृष्टि से पिछड़ती हुई देखी जा रही है, तो इसके कारणों पर विचार करने की जरूरत है|

  आधुनिक समय में शिक्षा का उद्देश्य अलग है, जबकि भारतवर्ष में पहले शिक्षा का उद्देश्य अलग था| हमारे यहाँ शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान-प्राप्ति और व्यक्तित्व का विकास था| आज शिक्षा का मतलब रोजगार से है| वही शिक्षा अच्छी है, जो रोजगार दिला सके| इस दृष्टि से देखें तो विश्वविद्यालयों में हिंदी समेत अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं के जो विभाग हैं, उनमे पढ़ने वाले छात्रों के सामने रोजगार के अवसर कम हैं| पहले भौतिकी, रसायन, गणित आदि शास्त्रीय विषयों को रोजगार दिलाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता था| इसलिए इन विषयों का और इन विषयों को पढ़ने-पढ़ाने वाले छात्रों-अध्यापकों का विश्वविद्यालयों और समाज में दबदबा था| उस समय भी मेडिकल और इंजीनियरिंग के क्षेत्र ज्यादा रोजगार-परक थे| इसलिए ये भौतिकी, रसायन, और गणित जैसे विषयों से भी आगे थे| आज बिजनेस मैनेजमेंट और सूचना-प्रद्यौगिकी जैसे विषयों ने इन्हें भी पीछे छोड़ दिया है| शिक्षण संस्थानों में सबसे अधिक भीड़ अब इन्हीं विषयों में होती है| जो विषय जितने अधिक पैकेज के साथ जल्दी रोजगार देता है, वह विषय समाज और शैक्षणिक जगत में उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा पाता है| अनुशासन के रूप में मान्य विषयों का अगर श्रेणीक्रम बनायें तो हिंदी तथा अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओँ के विभाग सबसे निचले पायदान के अनुशासन होंगे| इसका कारण यह है कि रोजगार दिलाने की दृष्टि से इन विषयों का क्षेत्र बहुत विस्तृत रूप में उद्घाटित नहीं हुआ है| हिंदी जैसे विषय पढ़ने वाले छात्रों के सामने एकमात्र रोजगार अध्यापन है| कुछ लोग पत्रकारिता में भी चले जाते हैं| हिंदी और दूसरी भाषाओँ में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र एकाध अपवादों को छोड़ दें तो किसी बड़ी प्रतियोगी परीक्षा के जरिये कोई बड़ी हैसियत वाली नौकरी प्राप्त करते नहीं देखे जाते| हिंदी पढ़कर यदि कोई बड़ी नौकरी में नहीं जा सकता और समाज में बड़ी हैसियत नहीं पा सकता तो स्वाभाविक रूप से समाज में उसकी हैसियत कम होगी और उन विषयों को पढ़ने वालों की भी कोई सामाजिक हैसियत नहीं होगी| यही कारण है कि हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओँ के विभागों में वही छात्र पढ़ने आते हैं, जिनका नामांकन दूसरे विषयों में नहीं होता| एक तरह से हिंदी पढ़ने वाले छात्र, कुछेक अपवादों को छोड़कर, प्रायः पिछड़ी सामाजिक, आर्थिक और अकादमिक स्थिति के होते हैं| ऐसे छात्र प्रायः हीनताग्रंथी के शिकार होते हैं| वे विश्वविद्यालय में अपने को मिसफिट पाते हैं| ऐसे ही छात्रों में से कुछ लोग हिंदी विभागों के अध्यापक बनते हैं| ऐसे छात्र-अध्यापकों के भरोसे हिंदी शोध की जो दशा और दिशा है, वह सबके सामने है| आज हिंदी में शोध कार्य संपन्न करके पीएच.डी. उपाधि धारण करने वाले नौजवानों की बड़ी संख्या है| ये बेरोजगार डॉक्टरेट हैं| इनकी डिग्री की समाज में कोई पूछ नहीं| इनके शोध कार्य की कोई उपयोगिता भी समाज में नहीं है| इन्ही में से कुछ सौभाग्यशाली जैसे-तैसे अध्यापकी पा जाते हैं और वे इस दिशाहीन शोध कार्य के धंधे को आगे बढ़ाने लगते हैं| क्या ऐसे लोग भाषा-विभागों में, शोध कार्यों की दुनिया में कोई गुणात्मक परिवर्तन ला सकते हैं?


 शोध का अर्थ किसी नए सत्य या तथ्य की खोज है| इस नए सत्य या तथ्य के जरिये साहित्य की नयी व्याख्या या नयी अवधारणा के विकास की अपेक्षा की जाती है| नए तथ्यों के उद्घाटन से साहित्य के इतिहास को नयी दिशा मिलती है| जिन शोध कार्यों के जरिये साहित्य के इतिहास को नयी दिशा मिले, साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन की नयी राह निकले, उनका तो स्वागत होना चाहिए| लेकिन बिना किसी शोध दृष्टि के नए सत्य और तथ्य से रहित सैकड़ों-हजारों की संख्या में जो शोध कार्य पिछले दशकों में हुए हैं, उनकी उपादेयता संदिग्ध है| असल में इन शोध कार्यों का उद्देश्य किसी नए सत्य या तथ्य का उद्घाटन नहीं, डिग्री हासिल करना भर है, जो शोधार्थी को रोजगार दिला सके| जब शोध का उद्देश्य डिग्री हो जायेगा तो शोध कार्य से मौलिकता की उम्मीद नहीं की जा सकती|

  ऐसा नहीं है कि हिंदी में अच्छे शोध प्रबंध नहीं लिखे गए हैं| पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का शोध प्रबंध ‘निर्गुण स्कूल ऑफ़ पोएट्री’,कामिल बुल्के का ‘रामकथा: उद्भव और विकास’, कवि धर्मवीर भारती का ‘सिद्ध साहित्य’, शिवप्रसाद सिंह का ‘सूर पूर्व ब्रजभाषा’, नामवर सिंह का ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’, श्रीराम शर्मा का ‘दक्किनी भाषा: उद्भव और विकास’ आदि कुछ ऐसे शोध प्रबंध हैं, जो सहज ही याद आते हैं| इनके अतिरिक्त और भी शोध प्रबंध हैं जो अपनी गुणवत्ता और मौलिकता के लिए याद किये जाते हैं, लेकिन हिंदी में जितने बड़े पैमाने पर शोध प्रबंधों का उत्पादन हो रहा है, उसमे अच्छे शोध प्रबंधों की संख्या बहुत थोड़ी है| हिंदी में शोध कार्य की दुर्दशा का कारण क्या है?

  इसका पहला और बड़ा कारण है शोधकार्य के जरिये प्राप्त डिग्री को अध्यापन की नौकरी से अनिवार्यतः जोड़ देना| मानविकी के विषयों में शोध कार्य को अध्यापकी पाने की अनिवार्य योग्यता के साथ जोड़ देना, शोध के साथ न्याय नहीं है| शोध कार्य की विशेष उपयोगिता अध्यापन करने वाले नए अध्यापक के लिए नहीं है| एक अध्यापक का काम  अपने छात्रों को साहित्य की शिक्षा देना तथा साहित्य में उसकी दिलचस्पी पैदा करना है| हाँ, कुछ विषयों के अध्यापन के लिये विशेषज्ञता की जरूरत पड़ती है, लेकिन यह विशेषज्ञता पीएच.डी. डिग्रीधारी अध्यापक के पास ही होगी, यह जरूरी नहीं| एक अध्यापक के लिए एम.ए. करने के बाद किसी क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करने का सबसे अच्छा उपाय है कि उस क्षेत्र में अल्प अवधि का पाठ्यक्रम विश्वविद्यालय चलाये, जिसे एम.ए. पास अभ्यर्थी पूरा करके उस क्षेत्र में विशेष पैठ बना सके| इसके साथ ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा संचालित की जाने वाली राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उतीर्ण अभ्यर्थी ही विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में व्याख्याता पद के योग्य माने जाने चाहिए| पीएच.डी. की अनिवार्य शर्त रखकर शोध की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ करने का जो लापरवाह रवैया है, उसे बंद कर देना चाहिए| मानविकी के विषयों में शोध कार्य वही लोग करें, जिनकी सचमुच की दिलचस्पी शोध कार्य में हो और जिनके पास शोध का कोई मौलिक विषय हो| बिना इच्छा और बिना मौलिक शोध विषय के जो शोध कार्य हो रहे हैं, उनसे हिंदी की दुनिया में कुछ भी नया नहीं जुड़ रहा है| न तो विषय-विशेषज्ञ पैदा हो रहे हैं और न ही साहित्य की किसी नयी दिशा का उद्घाटन हो रहा है|

  हिंदी विभागों में लिखे जाने वाले शोध प्रबंधों की अगर सूची बनायी जाये तो सार्थक और मौलिक शोध प्रबंधों की संख्या बहुत कम होगी| शोध विषयों का ऐसा अभाव दीखता है कि  एक ही शीर्षक को थोड़ा हेर-फेर के साथ दर्जनों शोध प्रबंधों के लायक मान लिया जाता है| एक समय था जब किसी रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व को शीर्षक बनाकर शोध कार्य शुरू हुए| फिर क्या था, छोटे-बड़े सभी रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर धड़ल्ले से शोध कार्य होने लगे, जिसमें आधी सामग्री पूर्व के शोध प्रबंधों की आवृत्ति होती थी| फिर किसी रचनाकार के कथ्य और शिल्प पर शोध कार्य करने की आंधी चल पड़ी| जिसे देखो वही किसी रचनाकार के कथ्य और शिल्प पर शोध कार्य कर रहा है| उसके बाद किसी रचनाकार की रचनाओं में सामाजिक चेतना, यथार्थ चेतना पर शोध कार्य करने की धूम मच गयी| इधर स्त्री चेतना या विमर्श तथा दलित चेतना और विमर्श का फैशन है| इन शोध प्रबंधों में सामाजिक चेतना और यथार्थ चेतना को समझाने में ही आधा प्रबंध पूरा हो जाता था| कहने की जरूरत नहीं कि यह कार्य पूर्व के शोध प्रबंधों की आवृत्ति मात्र होता है| ऐसे ही लोकप्रिय शोध विषयों में से कुछ समाजशास्त्रीय अध्ययन, मनोवैज्ञानिक अध्ययन, विश्लेषणात्मक अध्ययन आदि हैं, जिनके आधार पर किसी भी रचना या रचनाकार का अध्ययन किया जाता है| कहने की जरूरत नहीं कि शोध कार्य के नाम पर यह एक अकादमिक धोखाधड़ी है, जो धड़ल्ले से हिंदी की दुनिया में चल रही रही| यह भी सुनने में आता है कि बहुत सारे विश्वविद्यालयों में इन सतही और चलताऊ विषयों पर भी शोध प्रबंध लिखने का काम शोधार्थी नहीं करता, यह महत्वपूर्ण कार्य उसके शोध-निर्देशक ही अच्छी दक्षिणा लेकर संपन्न कर देते हैं| ऐसी स्थिति में मौलिक शोध प्रबंधों का अभाव हो गया हो तो क्या आश्चर्य !

  असल में ऊपर जिस तरह के शोध विषयों की चर्चा की गयी है, कायदे से वे शोध विषय हैं ही नहीं| वे मूल रूप से आलोचनात्मक लेखों के विषय हैं| बहुत पहले हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने हिंदी शोध की गिरती हुई दशा पर विचार किया था और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे| उन्होंने हिंदी में तात्विक शोध समस्या पर विचार किया है और कहा है कि जो विषय आलोचना के हैं, उनपर शोध कार्य न करके तथ्य आधारित शोध कार्य को बढ़ावा देना चाहिए| अपने प्रसिद्ध निबंध ‘तात्विक शोध समस्या’ में उन्होंने तात्विक शोध (Fundamental Research) की समस्या पर विचार किया है और कहा है- ‘हिंदी शोध की मुख्य समस्या, मेरी समझ से, तात्विक शोध को लेकर ही है| साहित्य में तात्विक शोध से मेरा क्या तात्पर्य है, इसे, मतभेद की संभावना का ध्यान रखते हुए भी, स्पष्ट करना आवश्यक है| साहित्य विषयक तात्विक शोध न तो सर्वथा अज्ञात का अविष्कार होता है, न सुपरिचित का अनुशीलन; स्वल्प-परिचित और गौण लेखकों की उपेक्षित एवं दुर्लभ कृतियों का सश्रम संपादन और विश्लेषण ही तात्विक शोध माना जा सकता है| हिंदी में आज भी ऐसे असंख्य प्राचीन कवि होंगे, जिनकी कृतियों के सर्वप्रथम उद्घाटन का श्रेय सहज ही किसी को मिल सकता है| ऐसी कृतियों का प्रकाशन-मात्र भी महत्वपूर्ण उपादेय होगा, किन्तु उसे प्रारंभिक शोध ही कहा जायेगा| दूसरी ओर प्रमुख प्राचीन कवियों की पुस्तकों के प्रामाणिक पाठ-निर्धारण की भी आवश्यकता हो सकती है................तात्विक शोध तो हिंदी के उन कवियों पर ही किया जा सकता है जो साहित्येतिहास में युग-विशेष के गौण कवियों के रूप में अनिवार्यतः उल्लेख के योग्य भी माने जाते हैं और जिनके अध्ययन के लिए पाठ्य-सामग्री का अभाव भी बना हुआ है|’

  नलिन जी ने प्रेमचंद, निराला आदि की कृतियों में सामाजिक-चेतना या यथार्थ-चेतना जैसे विषयों पर शोध कार्य करने की जगह किसी शोधार्थी के लिए यह उपयुक्त माना है कि वह इन रचनाकारों की रचनाओं के प्रकाशन वर्ष को ही ठीक से रखने का और उसके विश्लेषण का काम करे, तो हिंदी शोध का ज्यादा भला होगा| विज्ञान के विषयों की देखादेखी मानविकी के विषयों में नौकरी प्राप्त करने के लिए शोधोपाधि प्राप्त करने की जो होड़ है, उससे हिंदी शोध की गुणवत्ता निश्चित रूप से प्रभावित हुई है| उसे स्तरीय और मौलिक बनाने का यही उपाय हो सकता है कि उसे नौकरी प्राप्त करने या प्रोन्नति पाने की अर्हता से मुक्त कर दिया जाये| शोध कार्य अंततः जिज्ञासु मन की सक्रियता और उसके लिए सही दिशा में किए जाने वाले श्रम का परिणाम होता है| जिनके पास न वह जिज्ञासा है और न उस जिज्ञासा के पीछे दौड़ने की संकल्पशक्ति, वे अगर शोध के क्षेत्र में आयेंगे तो निश्चित रूप से शोध का स्तर वह नहीं रहेगा जिसकी अपेक्षा की जाती है|    

11 comments:

  1. आजकल अकेडमिक परफॉर्मेंस इंडेक्स का शिगूफा इसे और भयावह रूप देने पर आमादा है . छपास की भूख बढ़ती ही जा रही ......येन- केन प्रकारेण छापना मज़बूरी बन चुकी है .इस निदान हेतु शोध -पत्रिकाओं की बाढ़ आ गयी है ..जहाँ पैसा फेंको तमाशा देखो वाला हाल बन गया है . सर , आप ने ऊँगली नहीं रक्खी बल्कि मुक्का मारा है . शायद कुछ तो भला हो........ इस उम्मीद के साथ आप के इस विचारणीय लेख के लिए साधुवाद .

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  2. मैं सहमत हूं कि ऐसे शोध स्तर ने हम प्राध्यापको के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।

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  3. आपका आलेख बहुत सारगर्भित है और हिन्दी वालों के लिए जरूरी भी है,कुछ शिक्षा के दलाल इससे चौकन्ने भी होंगे,जो 'शोध' के नाम पर कूड़ों का ढेर को भविष्य की इमारत बनाने में तल्लीन हैं। पता नहीं क्या-क्या या कितना बदलेगा, किन्तु इस विषम राग से कुछ तो सावधानी की उम्मीद की ही जा सकती है। ...... हमलोग भी पिछले साल से इस विषय पर 'गंभीर चर्चा' की सोच रहे थे और इसले लिए इसी विषय पर पिछले साल यूजीसी को राष्ट्रीय सेमिनार का एक प्रस्ताव मैंने भेजा था। वह इस साल 2015 में करने की उम्मीद है।

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  4. बेहतर आलेख है । बधाई हो श्री गोपेश्वर जी ।

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  5. भारत में शिक्षा एक व्यापार बन चुकी है उच्चस्तरीय शिक्षा और कालेज की पढ़ाई की तो बाद की बात है के जी में एडमिशन दिलवाने में अभिभावकों का तेल निकल रहा है

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  6. चितनशील सकारात्मक सोच वाले वो लोग ही शोध कार्य के योग्य हैं जिनमें कुछ नया करने की ललक व जिज्ञासा हो

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  7. क्या आप"हिंदी में शोध का आरंभ" के बारे में कोई जानकारी दे सकते हैं? आपकी बड़ी कृपा होगी।

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  8. ताविक शोध और अनुप्रयुक्त शोध या है

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  9. Aajkal Har Jagah paison ka bolbala hai log degree pane ke liye this is ko paise dwara khareed Lete Hain bus degree Mil Gai Gyan Mil Gaya Rojgar mein bhi degree dekhte hain Gyan nahi Anubhav Nahin Dekhte Dekhte

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  10. बहुत ही व्यवस्थित और सुचिन्तित आलेख. बधाई.

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