Friday 11 September 2015

गाँव में घर

                                        

  1974 ई.में मैं उच्च शिक्षा के लिए अपने गाँव से मुजफ्फ़रपुर के लिए निकला था, हाथ में टीन का बक्सा और कंधे पर झोला उठाए| बस पर बैठा तो रो पड़ा | लगा कलेजा मुँह को आ जायेगा| गावं जो छूट रहा था| एक बार जो निकला तो गाँव फिर वापसी नहीं हुई| मुजफ्फ़रपुर से पटना, हैदराबाद होते हुए लगभग ग्यारह वर्षों से दिल्ली में हूँ|अब उम्मीद यही है कि शेष जीवन दिल्ली में ही कटेगा, गाँव में वापसी नहीं होगी| दिल्ली को अपना परदेस कहने वाले लोग भी कहाँ लौटे कि मैं वापस होऊंगा ! गाँव में अब रखा भी क्या है कि लौटूं ? जमीन – जायदाद न के बराबर है| माँ- बाप हैं नहीं, बहनें सब अपने- अपने घर हैं| मेरे भाई और चचेरे भाइयों की अब अपनी – अपनी दुनिया है| मतलब यह कि गाँव जाने का न कोई भौतिक आकर्षण है और न कोई भावनात्मक बंधन, फिर भी मैं हूँ कि साल में दो-तीन बार गाँव हो ही आता हूँ|अब दो- तीन वर्षों की दौड़ धूप और लगभग बीस लाख खर्च करने के बाद वहाँ एक छोटा घर भी बना लिया है| पैसों की  व्यवस्था मैंने की, लेकिन भवन निर्माण की सारी परेशानियाँ पत्नी और पुत्रों ने उठाई|
दिल्ली में अभी मेरे पास कोई फ़्लैट नहीं है|दो कमरे का एक फ़्लैट खरीदने की योजना में लगा हूँ| लेकिन अपनी जेब थोड़ी छोटी पड़ रही है| गाँव में घर नहीं बनाया होता तो उतनी मुश्किल नहीं आती|गाँव में जब घर बनाने जा रहा था तो दिल्ली के मेरे मित्रों ने यह मूर्खता न करने की नेक सलाह दी थी|उन लोगों के उदहारण दिए थे, जिन्होंने दिल्ली में होते हुए अपने गाँव में घर बनाए और जो अनेक कारणों से वहां रह नहीं सके| सबसे बड़ा उदहारण दिल्ली विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष स्व. प्रो. उदयभानु सिंह का था| प्रो. सिंह ने आज़मगढ़ जिला स्थित अपने गाँव में बढ़िया मकान बनवाया था|गाँव में रहने भी लगे थे , लेकिन गांववालों की खुराफात और सेहत ने वहां उन्हें टिकने नहीं दिया| दिल्ली वापस होना पड़ा- पुत्रों के पास | अंतिम साँस भी दिल्ली में ही ली|
मैं जानता हूँ कि जब रहना नहीं है तो घर बनाना भावुकता है| लेकिन मैं सारे लाभकारी तर्कों को छोड़कर अपनी इस भावुकता के साथ जीना चाहता हूँ| मै यह भी जानता हूँ कि भावुक होना कोई अच्छी बात नहीं है| फिर भी घर बनाया तो अपने कुछ निजी भावुक कारण थे| मैं अपने गाँव से इतना जुड़ा हूँ कि उससे पूरी तरह कट जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता| गाँव में घर मुझे अपना स्थाई पता- ठिकाना लगता है| मेरे जीवन में ही शहर बदलते रहे|मुहल्ले बदले, आवास बदले| पचासों बार पत्राचार के पते बदले, फोन न. बदले | इस बदलते रहने ने मुझे आर्थिक- अकादमिक रूप से थोड़ा विस्तृत किया| इस भूमंडलीकृत दुनिया में जब सब कुछ तेजी से परिवर्तनशील है तो मैं उससे अछूता कैसे रहता! फिर भी मैं गाँव में घर की तरह खान-पान की कुछ आदतों, रिश्तेदारी, मित्रता आदि को स्थाई भाव से जीता हूँ| सो दिल्ली में घर के पहले मैंने गाँव के घर के बारे में सोचा|
मुझे लगता है कि गाँव में घर के कारण मेरे भीतर थोडा देसीपन, लोकतत्व, रागात्मकता, संबंधों में स्थायित्व का भाव आदि चीजें बची रहेंगी| मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो गाँव छोड़कर महानगरों में बस चुके हैं, भूलकर भी गाँव नहीं जाते, लेकिन कविता- कहानी, आलोचना आदि में लोकतत्व की महिमा गाते रहते हैं| यूँ तो ग़ालिब ‘बेदरो दीवार का एक घर बनाया चाहिए’, जैसी दार्शनिकता के साथ भौतिक घर की व्यर्थता बतला चुके हैं, पर मैं उतने ऊँचे दार्शनिक घर में जीना नहीं चाहता| मुझे तो हिंदी के दो छोटे कवियों की घर विषयक परेशानी अपनी ही लगती है| दुष्यंत कुमार ने लिखा है ‘ जान पहचान नहीं, शेष हैं रिश्ते घर में,घर किराए पे लिए घर की तरह लगते हैं|’ रमेश रंजक ने लिखा है : ‘कहाँ है घर? घर जिसे आराम कहते हैं, थकी- माँदी शाम कहते हैं, एक ठंडी साँस लेकर राम कहते हैं| कहाँ है घर ?’ नगरों और घरों-संबंधों में बेगानेपन की तीव्र अनुभूति है इनमें |नगरों में रहते हुए मैं इस बेगानेपन से हमेशा परेशान रहा हूँ|गाँव का घर इस परेशानी के बीच सुकून का पड़ाव है मेरे लिए|गाँव में घर के कारण मेरे माता-पिता,चाचा-चाची ,भाई-बहन,गंवई रिश्तेदार-दोस्त मेरी स्मृति में बने रहते हैं|स्मृतियों में जीना मुझे अच्छा लगता है|मेरी स्मृति में अपना मिट्टी का वह घर टंका हुआ है,जहां मेरा जन्म हुआ और पांच वर्ष तक जिसमें रहने का सौभाग्य मिला|फिर 1960 में मेरे पिता और चाचाओं ने ईंट का छतदार घर बनाया,जो कभी पूरा नहीं बन सका,और जो दो साल पहले तक गाँव में हमारा पुश्तैनी घर था|वह घर हमारे रहने लायक नहीं रह गया था|उसे तोड़कर हमने नया घर बना लिया है,जो नए मन- मिजाज के अनुकूल है|उस घर के कारण मैं,मेरी पत्नी,मेरे बेटे बार-बार गाँव जाते हैं| हमारे पास स्थायी घर और पता-ठिकाना जो है |
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