Friday 27 March 2015

'अँधेरे में' और हिंदी कविता के पचास वर्ष

.........इस गोष्ठी का विषय है- ‘मुक्तिबोध और हिंदी कविता के पचास वर्ष, लेकिन मैं इस विषय पर बोलने की जगह ‘अँधेरे में और हिंदी कविता के पचास वर्ष’ पर बोलना पसंद करूँगा | यह विषय पहले की तुलना में अपेक्षाकृत छोटा है | वैसे उतना छोटा भी नहीं है कि मुझे बोलने के लिए आधे घंटे की जो अवधि दी गई है, उसमें विषय के विस्तार को समेट सकूँ | 1964 में ‘अँधेरे में’ कविता का प्रकाशन हुआ था और उसी वर्ष मुक्तिबोध का निधन भी हुआ | इस तरह ‘अँधेरे में’ कविता के प्रकाशन के पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं | इस कविता के प्रकाशन की अर्द्धशती के अवसर पर देश में कई आयोजन हुए और उसी क्रम में आपका यह आयोजन..... इस सिलसिले का शायद अंतिम कार्यक्रम | मुझे याद नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य की किसी रचना को उसकी  अर्द्धशती के अवसर पर इस तरह याद किया गया हो | इस अर्थ में यह हिंदी की अद्वितीय रचना है | यह सौभाग्य शायद ही किसी एक कविता को मिला हो !
          ‘कामायनी’ की तरह ‘अँधेरे में’ कविता भी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल है | जैसे ‘उसने कहा था’ के बिना हिंदी कहानी का कोई प्रतिनिधि संकलन नहीं तैयार किया जा सकता, वैसे ही ‘कामायनी’ और ‘अँधेरे में’ को अलग रखकर आधुनिक हिंदी कविता पर बात नहीं हो सकती | दूसरे कई महत्वपूर्ण कवि हैं जो कवि रूप में आधुनिक हिंदी कविता पर चर्चा के क्रम में अवश्य ही शामिल किये जाते हैं, लेकिन उनकी कोई एक कविता चर्चा का आधार रहे और उस काल की कविता की मुख्य प्रस्तावना भी, ऐसा संभवतः दूसरा उदहारण देखने को नहीं मिलेगा | ‘कामायनी’ महाकाव्य है, न सिर्फ काव्य-रूप में, बल्कि अपने प्रभाव में भी; जबकि ‘अँधेरे में’ एक लम्बी कविता भर है- लगभग 40 पृष्ठों की, लेकिन इसका प्रभाव भी वैसा ही महाकाव्यात्मक है और युगव्यापी भी |  ‘कामायनी’ आलोचकों के लिए चुनौती रही, इसलिए उसकी बहुतेरी व्याख्याएँ हुईं, उनमें से एक व्याख्या मुक्तिबोध की भी है-‘कामायनी: एक पुनर्विचार’ नाम से | उस व्याख्या से पता चलता है कि प्रसाद और ‘कामायनी’ का मुक्तिबोध के लिए क्या महत्व था | वे अपनी ‘सभ्यता-समीक्षा’ में ‘कामायनी’ और प्रसाद को एक बड़ी चुनौती के रूप में देखते हैं | कुछ आलोचकों ने इस ओर इंगित किया है कि क्यों मुक्तिबोध आधुनिक कविता के इतिहास में ‘कामायनी’ को इस महत्व के साथ अपने दृष्टि-पथ में रखते हैं | आखिर किसी दूसरे कवि की रचना मुक्तिबोध के लिए वैसी चुनौती क्यों नहीं ? ‘कामायनी’ की तरह ‘अँधेरे में’ कविता भी आलोचकों के लिए चुनौती रही है | इसकी भी अनेक व्याख्याएं-कुव्याख्याएं हुई हैं | नामवर सिंह और रामविलास शर्मा की व्याख्याएं ज्यादा चर्चित और बहसतलब रही हैं | एक व्याख्या नन्द किशोर नवल कि भी है, जो फासीवाद के सन्दर्भ में इस कविता को देखती है .......मुक्तिबोध की एक व्याख्या इस गोष्ठी के अध्यक्ष दूधनाथ सिंह की भी है | कुछ लोग कहते हैं कि वह व्याख्या किसी काम की नहीं | लेकिन कोई बात नहीं | वह कविता पचास वर्ष बाद भी अपनी व्याख्या के नए-नए द्वार खोलती जा रही है | यह उसके कालजयित्व और श्रेष्ठता का बड़ा प्रमाण है |
              ‘अँधेरे में’ ‘नई कविता’ की सबसे बड़ी उपलब्धि है | वह न सिर्फ ‘नई कविता’ की, बल्कि सम्पूर्ण छायावादोत्तर दौर की सबसे बड़ी उपलब्धि है | वह ‘कामायनी’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ के बाद हिंदी की सबसे महान कविता है | महत्वपूर्ण और बड़ी कविताएँ अनेक हैं, अनेक प्रगतिशील और गैर प्रगतिशील कवि भी हैं, हिंदी कविता के विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन ‘अँधेरे में’ के मुकाबले किसी दूसरी कविता को नहीं रखा जा सकता | यह अपना उदाहरण अपने आप है | नई कविता दौर की ही एक महत्वपूर्ण उपलब्धि अज्ञेय की लम्बी कविता ‘असाध्य वीणा’ भी है | वह भी महत्वपूर्ण कविता है | उसके भी अनेक पाठ-कुपाठ हुए हैं | एक कुपाठ नामवर सिंह का भी है | ‘कविता के नए प्रतिमान’ में ‘असाध्य वीणा’ की जो व्याख्या है, उससे आप परचित होंगे |  उस कविता का सब कुछ नामवर सिंह के लिए ‘बासी’ है | रामविलास जी को तो उसमें नव रहस्यवाद नजर आया | लेकिन आज जब मैं उस कविता को पढ़ता हूँ तो इन कुपाठों से अलग वह एक सुन्दर और महत्वपूर्ण कविता के रूप में मुझे दिखाई देती है | यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि रामविलास शर्मा और नामवर सिंह ने अज्ञेय का विरोध जरूर किया, लेकिन उन्हें अछूत नहीं माना | इस तथ्य की ओर ध्यान देने की जरूरत है कि मुक्तिबोध की विरासत को संभालने का दावा करने वाली जो नई पीढ़ी है वह अपने ‘विरोधी’ विचार के कवि-लेखक को पढ़ती ही नहीं | सुने-सुनाये आधारों पर बयान देने और हमले करने का प्रचलन इधर के दौर में ज्यादा बढ़ा है........बहरहाल एक ही दौर में लिखी गयी दो बड़ी कविताएँ हैं- ‘अँधेरे में’ और ‘असाध्य वीणा’ | एक में जगत-समीक्षा है तो दूसरी में कला-समीक्षा | एक अपने समय की तमाम उथल-पुथल को समेटे हुए है तो दूसरे में कला-साधना का समाधि-भाव है | मैं अनावश्यक रूप से दोनों कवियों और कविताओं की  तुलना करके एक को श्रेष्ठतर और दूसरे को कमतर, परीक्षोपयोगी मूल्यांकन प्रणाली वाली समीक्षा के विरुद्ध हूँ......फिर भी दोनों के बारे में मेरी राय जानना चाहें तो मैं कहना चाहूँगा कि ‘अँधेरे में’ मेरी लिए ऐसी कविता है, जिसे मैं जीवन भर बार-बार पढ़ना चाहूँगा |
         आज जब हम ‘अँधेरे में और हिंदी कविता के पचास वर्ष’ पर बात कर हैं तो कुछ बातें साफ़ हो जानी चाहिए | ‘अँधेरे में’ कविता जब लिखी गयी थी तब वह शीतयुद्ध का समय था | दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी | समाजवादी खेमा और गैर समाजवादी खेमा | हिंदी में भी दो ध्रुव थे-प्रगतिशील और गैरप्रगतिशील |   मुक्तिबोध के सामने पक्ष बिलकुल साफ़ था | वे विश्वस्तर पर समाजवादी खेमे के पक्ष में थे | हिंदी  में प्रगतिशील चेतना के पक्ष में अपने पक्ष को लेकर मुक्तिबोध के सामने कोई दुविधा नहीं थी | वे बड़े मजे में पूछ सकते थे कि ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?’, इस पक्ष में हो कि उस पक्ष में ? आज सोवियत संघ समेत तमाम समाजवादी मुल्क बिखर चुकें हैं, दुनिया दो ध्रुवीय न रहकर एक ध्रुवीय हो गयी है | वैसे में आज कवि को अपना पक्ष बनाने में मुक्तिबोध के समय से अधिक सतर्कता और सचेतता की जरुरत है | यह समस्या मुक्तिबोध के सामने नहीं रही होगी | भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन बिखराव और हताशा के दौर से गुजर रहा है | वह भारतीय युवा वर्ग को आकर्षित करने और उसके भीतर मानव-मुक्ति का नया स्वप्न जगाने में उस तरह कारगर नहीं है | आज कम्युनिस्ट होना मुक्तिबोध के समय की तरह अग्निपथ पर चलने की तरह भी नहीं है | इसलिए आज के कवि के सामने वे चुनौतियां भी नहीं हैं, जो मुक्तिबोध के सामने थीं |
         इस कविता के अपने ऊपर प्रभाव की चर्चा करूँ तो मैं कहना पसंद करूँगा कि इसका प्रभाव मेरे ऊपर वैसा ही पड़ता है जिस तरह कबीर, सूर, रैदास, तुलसी, नानक, मीरा आदि भक्त कवियों को पढ़ने पर पड़ता है | ‘अँधेरे में’ की विषयवस्तु भक्ति विषयक नहीं है | वह हमारे समय के झंझावातों की कविता है | उसका प्रभाव मेरे ऊपर अगर भक्ति कविता की तरह पड़ता है तो इस अर्थ में नहीं कि मुझे उससे कोई धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना और तोष प्राप्त होता है, बल्कि इसलिए कि भक्ति-कविता में जो शब्द और कर्म की नैतिक आभा है, वह आभा मुझे यहाँ भी दिखाई देती है | भक्ति कविता को पढ़ते हुए कवि के शब्द और कर्म में हम कोई द्वैत नहीं पाते, मुझे ‘अँधेरे में’ को पढ़ते हुए उसी भाव-भूमि की अनुभूति होती है | ‘अँधेरे में’ मेरे लिए छायावादोत्तर युग की सबसे बड़ी उपलब्धि है तो इसकी एक वजह और है | वह यह कि यह कविता सिर्फ दिमाग की ही नहीं, दिल की भी बेचैनी के साथ पाठक के सामने उपस्थिति होती है | इसी के साथ यह कि ‘करुण रसाल और ह्रदय’ के संयोग से बनी इस कविता का स्वर छायावादोत्तर दौर का सबसे भिन्न और पाठकीय भरोसे का स्वर है | यह बेचैनी एक लय की तरह पूरी कविता में व्याप्त है | यह बेचैनी किसी भावुक प्रसंग की नहीं, गहन-गंभीर विचार की है, जो संगीत की तरह पूरी कविता में सुनाई देती है | मुक्तिबोध कहते हैं ‘आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी / मेरी नींद गँवा दी’, तो यूँ ही नहीं कहते | यह चैन भुलाने और नींद गंवाने की भाव-भूमि से पैदा हुई कविता है | यह कविता सिर्फ विचार से नहीं पैदा हुई है | विचार के साथ हृदयपक्ष भी जुड़ा है- ‘करुण रसाल वे ह्रदय के स्वर हैं’| विचार के साथ ‘ह्रदय के स्वर’ इस कविता की शिराओं में अपनी पूरी गति और ऊष्मा से भरे हुए हैं | यह इसका सबसे मजबूत पक्ष है |
 मुक्तिबोध की यह कविता मुझे इसलिए भी प्रिय है कि उसमें गीतात्मक अनुगूँज है | इसके कारण इसमें गजब का प्रवाह है |  गीतात्मक अनुगूँज कहीं प्रकट होकर तो कहीं लय बनकर पूरी कविता में व्याप्त है | बानगी के तौर पर कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं -  


अब युग बदला है वाकई 
कहीं आग लग गई,कहीं गोली चल गई

भागता मैं दम छोड़ 
घूम गया कई मोड़

ओ मेरे आदर्शवादी मन 
 ओ मेरे सिद्धांतवादी मन

हाय-हाय नुमा,टॉलस्टॉय नुमा
‘अँधेरे में’ कविता अपने जटिल वितान के बावजूद ऐसा बहुत कुछ कहती है जो बहुत सहज ढंग से सिद्धांत-सूत्र की तरह आदर्श वाक्य के रूप में नई पीढ़ी की जुबान पर है | किसी कविता का इस तरह सिद्धांत वाक्य बनकर जन-समाज में लोकप्रिय होना मामूली बात नहीं है | यह भूमिका वही कविता अदा करती है, जो जीवन की आग से पैदा होती है | कुछ उदहारण देखे जा सकते हैं-
कविता में कहने की आदत नहीं,पर कह दूँ

वर्तमान समाज चल नहीं सकता| 
पूँजी से जुड़ा हुआ ह्रदय,बदल नहीं सकता| 
स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी 
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को 
जन को |

दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर 
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट 
कोई भी मुर्गा 
यदि बांग दे उठे जोरदार 
 बन जाए मसीहा

अभिव्यक्ति के खतरे 
उठाने ही होंगे 
 तोड़ने होंगे ही गढ़ और मठ सब
हिंदी कविता का कौन-सा प्रेमी पाठक मुक्तिबोध की ऐसी पंक्तियों को दुहराता न मिलेगा !
     ‘अँधेरे में’ कविता का एक और वैशिष्ट्य मुझे बार-बार आकर्षित करता है | वह है, उसका नाटकीयता से भरपूर रचाव | एक-एक पंक्ति नाटक के संवाद की तरह कसी हुई है और किसी नाटक के संवाद की तरह प्रभाव डालती है | नाटक के दृश्यों की ही तरह ‘अँधेरे में’ के दृश्य बदलते हैं | प्रसाद के नाटकों की संवाद-योजना से ‘अँधेरे में’ की नाटकीयता का मिलान करके इसको देखा जा सकता है | जिन्होंने ‘अँधेरे में’ कविता का नाट्य मंचन देखा है, वे उसके नाट्यधर्मी प्रभाव के कायल हुए बिना नहीं रहेंगे :
खुला-खुला कमरा है, सांवली हवा है 
झांकते हैं खिड़की से, अँधेरे में टंके हुए सितारे 
फैली है बर्फीली साँस-सी, वीरान 
तितर-बितर सब फैला है सामान
  इस कविता को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि मुक्तिबोध को देश में मार्शल लॉ का खतरा उपस्थित होता हुआ दिखाई दे रहा था | वे उस स्थिति की भी कल्पना कर रहे थें, जिसमें दिन के उजाले में जन-समर्थन का स्वांग करने वाले लोग रात के अँधेरे में मार्शल लॉ के समर्थन में थे | मुक्तिबोध के सामने जनता की मुक्ति की एक ही राह थी और वह थी- जनक्रांति | ‘अँधेरे में’ कविता उस जनक्रांति के स्वप्न की कविता है | वह जनक्रांति बहुत कुछ बोल्शेविक क्रांति का समरूप है | आज वैसी जनक्रांति की बात न कोई करता है और न उसकी गूँज इधर की कविता में सुनाई पड़ती है | अब कविता में प्रतिरोध का जनक्रांति वाला स्वर नहीं है | प्रतिरोध के अब अनेक मंच हैं और अनेक तरह के स्वर हैं | अब दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक अपने प्रतिरोध को कविता में वैसे नहीं दर्ज करते जिसे ‘अँधेरे में’ की स्पष्ट विरासत कहा जाए | अनामिका ‘दरवाजा’ शीर्षक कविता में कहती हैं :


मैं एक दरवाजा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई|
अन्दर आए आनेवाले तो देखा-
चल रहा है एक वृहत्चक्र- चक्की रूकती है तो चरखा चलता है
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची- सुई
गरज यह कि चलता ही रहता है अनवरत कुछ-कुछ ! 
.........और अंत में सब पर चल जाती है झाड़ू 
तारे बुहारती हुई बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर-
सृष्टि के सब टूटे- बिखरे कतरे जो 
एक टोकरी में जमा करती जाती है 
मन की दुछत्ती पर |
यह काव्य-स्वर ‘अँधेरे में’ कविता से अलग हिंदी कविता में एक नए प्रस्थान की तरह है | मुक्ति का स्वप्न तो इसमें भी है | इसी तरह गगन गिल ‘अँधेरे में बुद्ध’ सीरीज की कवितायें जब लिखती हैं तो स्त्री-मुक्ति का नया ही सन्दर्भ उभरता है | ‘यह आकांक्षा समय नहीं’ संग्रह में उनकी एक कविता है ‘वह सचमुच’ | उसे भी जरा देखिए :
दरवाजा भड़भड़ा रहा  है                                                                                                                          
जाने कब से
घंटी बज रही है                                                                                                                             
फोन की                                                                                                                                  
तुम्हारे खाली कमरे में
                                                                                                                                                  
वह खड़ी है                                                                                                                           
तुम्हारी खिड़की के बाहर                                                                                                                 
पिछले कई दिन-रात से
                                                                                                                                                  
मंडरा रही है                                                                                                                                 
तुम्हारी सोई आँखों के पास
देख रही है                                                                                                                                   
निकाल कर                                                                                                                               
तुम्हारा दिल
रात के इस सन्नाटे में
                                                                                                                                                  
रोक रही है रास्ता                                                                                                                      
पकड़ कर तुम्हारा चीवर
                                                                                                                                            
मैं तुम्हे जाने नहीं दूंगी                                                                                                                       
मैं तुम्हे जाने नहीं दूंगी

नहीं                                                                                                                                           
 यह                                                                                                                                             
हवा नहीं है
                                                                                                                                              
भ्रम नहीं है
वह                                                                                                                                            
सचमुच आन पहुंची है                                                                                                                    
तुम्हारे एकांत में
दलित कवयित्री रजनी अनुरागी की  मुक्ति का स्वप्न कुछ दूसरा है-

अगर पढ़ सको तो पढ़ो                                                                                                                     
हमको ही                                                                                                                                    
 हमारी कविता की तरह                                                                                                                    
 हम औरतें भी                                                                                                                                
 एक कविता ही तो हैं |

अँधेरे में से आगे और उससे अलग हिंदी कविता का यह नया इलाका है | एकदम नया और उर्वर | मुक्ति को नया अर्थ देता हुआ | हिंदी कविता के आकाश में नए क्षितिज को उद्घाटित करता हुआ | मुक्ति का यह सपना ‘अँधेरे में’ के स्वप्न का विस्तार है या कुछ अलग है, इसपर विचार होना चाहिए |
मुक्तिबोध की चेतना जिस विचारधारा से संचालित है, जनक्रांति उसकी अनिवार्य परिणति है | भविष्य में जनक्रांति होगी और जनता की मुक्ति की सारी बाधाएं दूर हो जाएंगी, इसे लेकर ‘अँधेरे में’ कविता के रचनाकार को कोई दुविधा नहीं है | उस जमाने में विश्वस्तर पर और भारतीय समाज में मार्क्सवाद की जो मोहक उपस्थिति थी, उसे देखते हुए मुक्तिबोध के जनक्रांति के सपने को यथार्थ मानने में तब भला किसे आपत्ति हो सकती थी ! लेकिन पचास वर्षों बाद दुनिया और भारत के नक़्शे पर जनक्रांति का आदर्श कहीं भी मजबूत स्थिति में दिखाई नहीं पड़ता | इसलिए आज न तो उनका जनक्रांति का वह सपना निर्विवाद है और न उस जनक्रांति के लिए लड़ने वाले जन की निष्ठा | मुक्तिबोध आज होते तो उनकी जनक्रांति के सपने को कई ओर से चुनौतियां मिलतीं | कारण साफ़ है- आज शोषक और शोषित के विभाजन की स्वीकार्यता निर्विवाद नहीं है | प्रगतिशील मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा का यथार्थ और वर्ग का आग्रह ब्राह्मणवादी करार दिया जा चुका है | नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ का विरोध दलित विमर्शकारों द्वारा किया जा चुका है | ‘सरस्वती’ में हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ के प्रकाशन को महावीर प्रसाद द्विवेदी का षडयंत्र बताया जा चुका है, आदि-आदि | ऐसे में ‘अँधेरे में’ के सामने का जो काव्य-परिदृश्य है उसमें बहुत बदलाव आया है | यह बदलाव लाने में स्त्रियों की भूमिका तो है ही, दलित कवियों की भी भूमिका है | ......मैंने पहले कहा कि ‘अँधेरे में’ में भारतीय जन के प्रतिरोध का जो का दृढ स्वर है और जनक्रांति का जो सपना है उसे हमारे दौर की अस्मितावादी प्रतिरोधी आवाजें उस रूप में स्वीकार नहीं करतीं, उन्हें मुक्ति की समाजवादी  क्रांति के बदले अपनी-अपनी मुक्ति का सवाल ज्यादा परेशान करता है | ओम प्रकाश वाल्मीकि की एक कविता है- ‘ठाकुर का कुआँ’ | यह प्रेमचंद की कहानी का कविता में दलित पाठ है-



चूल्हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की

तालाब ठाकुर का

रोटी बाजरे की


बाजरा खेत का

खेत ठाकुर का


बैल ठाकुर का हल ठाकुर का


हल की मुठ पर हथेली अपनी 
 फसल ठाकुर की 
 कुआँ ठाकुर का 
 खेत खलिहान ठाकुर के 
 फिर अपना क्या? 
 गाँव?
 शहर? 
 देश ?

इस कविता का कैनवास निश्चित रूप से ‘अँधेरे में’ जैसा बड़ा नहीं, बहुत छोटा है | प्रश्न है कि इसके भीतर उठने वाले सवाल दलित जीवन के सन्दर्भ में बड़े हैं या नहीं ? यह ‘अँधेरे में’ जैसी जटिल वितान वाली कविता के सामने सीधी-सपाट है, लेकिन दलित भारत की ओर से सवाल तो ऐसी ही कविताएँ उठाती हैं | जय प्रकाश कर्दम की एक कविता है- ‘किले’ |  उसका एक अंश है –


ब्राम्हण का मान

ठाकुर की शान

सेठ की तिजोरी

खेत-खलिहान


मिल-कारखाने

कोठी और हवेली मेरे श्रम और शोषण से 
फले-फूले हैं


.............. 
असमानता और अन्याय के


ये सारे किले मेरी 
आँखों में गड़े हैं |

ये दलित कविताएँ एक बयान की तरह हैं- सरल और सपाट | रेटोरिक से भरी हुई | हिंदी कविता भाव और शिल्प की जिस ऊंचाई पर पहुँच चुकी है, उसे देखते हुए ये बयानधर्मी कविताएँ कविता के परिभाषित परिसर की  नहीं लगतीं | खुद अँधेरे में कविता के जरिए हिंदी कविता का आकाश जितना विस्तृत और ऊँचा हुआ है उसे देखते हुए इन्हें सरल कविताओं के खाते में डाला जा सकता है, लेकिन इसमें उठने वाले सवाल हिंदी कविता में बिलकुल नए हैं | इन नए सवालों से बनने वाली हिंदी कविता चाहे जितनी सरल-सपाट लगे वह ‘अँधेरे में’ के आगे हिंदी कविता की नई ज़मीन है इससे कौन इनकार करेगा ! भले वह भूमि अभी थोड़ी अनुर्वर और उबड़-खाबड़ ही सही |   
‘अँधेरे में’ से पता चलता है कि मुक्तिबोध ने प्रगतिशील हिंदी कविता का अलग रास्ता पकड़ा | वह रास्ता नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि प्रगतिशील कवियों से भिन्न था | वे ‘नई कविता’ के भीतर ही प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना का संघर्ष कर रहे थे | कामरेड डांगे के नाम उनका जो ऐतिहासिक पत्र है वह इसका प्रमाण है | मुक्तिबोध ने समाज और विचारधारा के साथ व्यक्ति के ह्रदय पक्ष को जोड़ा | हृदय-पक्ष यानी व्यक्ति का अनुभव, द्वंद्व, आत्मसंघर्ष आदि | विचारधारा के साथ उनकी आत्मा के दर्पण पर पड़ने वाले अनुभव के प्रकाश से यह कविता निर्मित होती है | उन्होंने उभरते हुए नए मध्यवर्ग की शक्ति को पहचाना, उन्होंने यह भी देखा कि इस वर्ग की कथनी और करनी में द्वैत है | मध्यवर्गीय व्यक्ति के माध्यम से उन्होंने मुक्तिकामी संघर्ष का आकलन किया और एक आदर्श जनवादी व्यक्ति की तस्वीर पेश की, जिसका चरम उद्देश्य है-अभिव्यक्ति के पूर्ण रूप की खोज | लेकिन अँधेरे में’ के आगे हिंदी कविता का जो प्रगतिशील-जनवादी परिदृश्य है, उसमें आत्मा का आयतन कम वैचारिक चेतना का आयतन ज्यादा प्रमुख है | इस लिहाज से मैं आलोकधन्वा, राजेश जोशी और अरुण कमल की कविताओं को उदाहरण रूप में रखना चाहूँगा |  ‘मैं’ इन कविताओं में भी है, लेकिन यह ‘अँधेरे में’ के ‘मैं’ से अलग लगता है | आलोकधन्वा की कविता ‘जनता का आदमी’ की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं –



जब कविता के वर्जित प्रदेश में

मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा

तो उन तमाम कवियों को 
मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा 
जो केवल अपनी सुविधा के लिए 
अफीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे 
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,
 भाषा और लय के बिना,केवल अर्थ में-
 उस गर्भवती औरत के साथ 


जिसकी नाभि में सिर्फ इसलिए गोली मार दी गयी 
 कि कहीं एक और ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए |

कुछ लोगों ने ‘जानता का आदमी’ को ‘अँधेरे में’ के बाद सबसे महत्वपूर्ण कविता घोषित किया था | इस कविता का जितना शोर एक ज़माने में था, आज उसका अता-पता नहीं है | उसका कारण यह है कि इस कविता का प्रपेक्षण बिंदु ही जनक्रांति का किताबी आइडिया है, जिसका कवि के जीवनानुभव से कुछ लेना-देना नहीं है | यह वैचारिक चेतना से संचालित है जिसमें ‘अँधेरे में’ जैसा ईमानदार आत्मालोचन का अभाव है | ‘जानता का आदमी की तुलना में आलोक की ‘पतंग’ और ‘कपड़े के जूते’ अधिक विश्वसनीय और प्रभावशाली कविताएँ हैं | ‘जनता का आदमी’ के साथ ही बहुतेरी ऐसी कविताएँ उस दौर में लिखी गई जो थोड़े दिन के शोर-शराबे के बाद सतह पर बैठ गईं | अब इससे अलग राजेश जोशी की एक कविता ‘मै झुकता हूँ’ को देखते हैं, जिसमे मध्यवर्गीय व्यक्ति की चापलूसी और चालाकी पर चोट है | मानवीय गरिमा को स्वाभिमान दिलाने के क्रम में राजेश जोशी लिखते हैं -



दरवाजे से बाहर जाने से पहले

अपने जूतों के तस्में बाँधने के लिए मैं झुकता हूँ

रोटी का कौर तोड़ने और खाने

झुकता हूँ अपनी थाली पर

जेब से अचानक गिर गई कलम या सिक्के को उठाने को झुकता हूँ| 
 झुकता हूँ लेकिन उस तरह नहीं 
 जैसे एक चापलूस की आत्मा झुकती है 
 किसी शक्तिशाली के सामने
 जैसे लज्जित या अपमानित होकर झुकती हैं आखें
 झुकता हूँ
 जैसे शब्दों को पढ़ने के लिए आँखें झुकती हैं

आलोकधन्वा और राजेश जोशी की कविताओं के साथ अरुण कमल की ‘अंत’ शीर्षक कविता को भी इसी  क्रम में देखा जा सकता है –



आखिर इसी जान 
 इसी देह की खातिर तो सब किया


जहाँ बोलना था चुप रहा 
 जिससे बोलना बंद कर देना था उससे 
 हँस-हँस कर बोला 
 आखिर इसी देह की खातिर 
 नाक पर डाले रुमाल 
 गरीब बहन के आँगन से गुजरा 
और बलवंत के आगे टांगे रहा भरा पीकदान

‘अँधेरे में’ और मुक्तिबोध की जो जनवादी काव्य-परंपरा है, ये कवि उसी परंपरा के माने जाते हैं | इन कवियों की जो तीन कविताएँ यहाँ रखी गई हैं, इन तीनो कविताओं में ‘मैं’ है, जो पाठक से संवाद करता दिखाई पड़ रहा है | क्या इन कविताओं का ‘मैं’ ‘अँधेरे में’ के ‘मैं’ से तुलनीय है ? ‘अँधेरे में’ कविता में जगत समीक्षा और आत्म समीक्षा का जो द्वंद्व है, वह क्या इनमें है ? ‘अँधेरे में’ के ‘मैं’ के भीतर जो द्वंद्व और तनाव है, वह इनमें कम है | कहना ही हो तो मैं कहना चाहूँगा कि ‘अंत’ का जो ‘मैं’ है वह पाठक को ज्यादा भरोसे का लगता है | ‘मैं झुकता हूँ’ और ‘जानता का आदमी’ का स्थान क्रमशः उसके बाद होगा | मुक्तिबोध ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में अपने समय की कविता का ‘अपने परिवेश के साथ द्वंद्व स्थिति’ अनिवार्य मानते हैं और कवि के लिए उन द्वंद्वों का अध्ययन जरुरी समझते हैं | क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके समय की कविता ‘पुराने काव्य-युगों से कहीं अधिक, बहुत अधिक, अपने परिवेश के साथ द्वंद्व स्थिति में प्रस्तुत है | इसलिए उसके भीतर तनाव का वातावरण है |’ पाब्लो नेरुदा अपने ‘मेम्वायर्स’ में कविता के लिए ‘रियल’ और ‘अनरिअल’ के बीच तनाव और द्वंद्व की उपस्थिति को ज्यादा ठीक मानते हैं |  
लेकिन प्रश्न है कि ‘अँधेरे में’ को उसके बाद की प्रगतिशील-जनवादी कविता का निकष क्यों बनाया जाए ? मुक्तिबोध के समय का न तो विश्वव्यापी-राष्ट्रव्यापी वैसा राजनीतिक माहौल है और न सपनो-आदर्शों से अनुप्रमाणित मुक्तिबोध सरीखी पीढ़ी | ‘अँधेरे में’ कविता जिस यूटोपिया, सामजिक-राजनीतिक संघर्ष और आत्म संघर्ष की उपज है, जितने विस्तृत एवं जटिल वितान तथा ताने-बाने की रचना है, वह उसे महाख्यानपरक कविता के दर्जे में बिठाता है | वह कविता अंतर्वस्तु के स्तर पर बहुस्तरीय तथा शिल्प एवं काव्यभाषा के स्तर पर बहुआयामी है | इसमें भाषा, भाव और शिल्प के बहुतेरे उतार-चढ़ाव हैं | यह एक सम पर चलने वाली कविता नहीं है, जैसे कि ‘असाध्य वीणा’ | यथार्थ और फैंटेसी तथा स्वप्न और जागृति के धरातल पर यह एक साथ चलती है | इतने जटिल वितान और ‘विजन’ की कविता हर दौर में लिखी ही जाए, कोई जरुरी नहीं | इसका अनुकरण तो हरगिज संभव नहीं, प्रभाव की कुछ छायाएँ भले ही कहीं-कहीं दीख जाएँ | इस अर्थ में मुक्तिबोध ‘निरबंसिया’ कवि हैं | बाद की पीढ़ी पर ‘अँधेरे में’ का प्रभाव कितना है, यह तो विस्तृत छानबीन का विषय है, लेकिन इतना तय है कि बाद की हिंदी कविता ‘अँधेरे में’ की तत्सम बहुलता से मुक्त हो गई | यह मुक्ति जरुरी थी |
‘अँधेरे में’ कविता को पढ़ते हुए एक बात से मैं थोड़ा हैरान हुआ | मुक्तिबोध इसमें तोल्स्तोय, तिलक और गांधी का बड़ा ही सकारात्मक स्मरण करते हैं | १९६० के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी के आइकन तो ये हर्गिज  नहीं थे | तोलस्ताय को लेनिन ने ‘सोवियत क्रांति का दर्पण’ जरुर कहा था | इसलिए उनके प्रति सम्मान तो था, लेकिन आइकन तो गोर्की थे | कम्युनिस्ट पार्टी का नजरिया गांधी के प्रति ही काफी कठोर था, तिलक की तो खैर बात ही छोड़िए ! ऐसे में इन तीनों के स्मरण का अर्थ क्या है ? लगता है तब कम्युनिस्ट पार्टी की जो लाइन थी, मुक्तिबोध उसका अतिक्रमण करते हैं | ऐसा करके क्या वे तब की मार्क्सवादी समझ को अद्यतन कर रहे थे ? एक बात और ध्यान देने लायक है- ‘अँधेरे में’ का प्रकाशन ‘कल्पना’ में हुआ था | ‘कल्पना’ समाजवादियों की पत्रिका थी | उसके प्रेरणा-पुरुष राममनोहर लोहिया थे और संचालक उनके समाजवादी सखा बदरीविशाल पित्ती | संपादक मंडल में प्रायः समाजवादी लोग ही थे | मुक्तिबोध का मार्क्सवादी रुझान जगजाहिर था | कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के अपने-अपने विवाद भी थे | फिर भी ‘कल्पना’ ने व्यापक वामपंथी समझ का परिचय देते हुए मुक्तिबोध समेत किसी भी मार्क्सवादी कवि-लेखक को छापने से परहेज नहीं किया | मेरी सहज जिज्ञासा है कि तब मार्क्सवादी मंचों से निकलने वाली पत्रिकाएं भी इसी उदारता और व्यापक समझ के तहत समाजवादी लेखकों को छापती थीं या नहीं ? मुझे लगता है कि तब की बात तब के लोग जानें, लेकिन आज भी मार्क्सवादी मंचों की पत्रिकाओं में यह उदारता और खुलापन नहीं आया है | जिस परम अभिव्यक्ति की खोज करते हुए मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता लिखी थी, उस अभिव्यक्ति पर तब की तुलना में आज कई गुणा अधिक खतरा है | ऐसे वक्त में यह कविता व्यापक लोकतान्त्रिक और वामपंथी (अगर वामपंथ सिर्फ कम्युनिस्ट संगठनों तक महदूद नहीं है तो) समझ और पहल की मांग करती है | ........... ‘अँधेरे में और हिंदी कविता के पचास वर्ष’ पर बात करते हुए अपनी कुछ समझ, कुछ ऊहापोह को इस तरह मैंने आपसे साझा किया | अपनी समझ से कुछ आयामों पर मैंने बात की | संभव है कुछ आयाम और भी हों, जिनपर आगे बातचीत होगी .............
(म. गाँ. अं. हि. वि. वि., वर्धा के इलाहाबाद केंद्र द्वारा २९ दिसंबर २०१४ को आयोजित गोष्ठी में दिए गए वक्तव्य का लिखित एवं किंचित सम्पादित-संवर्धित रूप)

प्रस्तुति : सुनील कुमार मिश्र    

Wednesday 18 March 2015

जे. पी. आन्दोलन और नागार्जुन

१८ मार्च १९७४ को पटना में शुरू हुए छात्र आन्दोलन को बिहार आन्दोलन या जे.पी. आन्दोलन भी कहते हैं | प्रारंभ में आन्दोलन के कर्ता-धर्ता छात्र ही थे | लेकिन जब सरकार ने उनकी मांगे सुनने और मानने की जगह दमन की नीति अख्तियार कर ली तो आन्दोलन को कुशल नेतृत्व की जरुरत महसूस हुई | नेतृत्व हेतु पटना में ही रह रहे जयप्रकाश नारायण पर छात्र नेताओं की दृष्टि गयी | जयप्रकाश जी १९४२ की क्रांति के नायक माने जाते थे | उस कारण दिनकर ने ‘सेनानी करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है’ और ‘जयप्रकाश है नाम देश की चढ़ती हुई जवानी का’, जैसी कविता लिखी थी, जो खासी लोकप्रिय हुई  थी | रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘जयप्रकाश’ नाम से पूरी किताब लिखी, जो अपने समय में खूब पढ़ी गयी | वे स्वतंत्र भारत में जवाहर लाल नेहरु के बाद सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे | भारत में समाजवादी विचारों के प्रसार में उनकी बड़ी भूमिका थी | उन्होंने न सिर्फ ‘व्हाई सोशलिज्म’ (१९३६) लिखकर नए भारत के निर्माण का नया वैचारिक आधार प्रस्तुत किया था, बल्कि सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर उसे सक्षम नेतृत्व भी दिया था | उनके नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी थी | कांग्रेस का विकल्प जयप्रकाश के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी को ही माना जाता था | लेकिन १९५२ के प्रथम आम चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी की पराजय तथा सोवियत संघ में स्टालिन कालीन दमन नीतियों से वे काफी निराश हो गए | उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़ सर्वोदय की राह पकड़ी | मोहर सिंह सरीखे चम्बल के डाकुओं का आत्मसमर्पण १९७० के दशक में उनके नेतृत्व में हो चुका था | १९७१ में बांग्लादेश के निर्माण के संघर्ष के पक्ष में उन्होंने विश्वव्यापी दौरा किया था | उनकी छवि ईमानदार और त्यागी नेता की थी | अंग्रेजों की जेल में उन्होंने भयंकर यातनाएँ सही थी और स्वतंत्र भारत में सत्ता की राजनीति से अपने को दूर रखा था – जबकि उनके पास प्रधानमंत्री तक बनने का अवसर था |

            जयप्रकाश जी ने छात्र नेताओं की बातें सुनीं | वे स्वयं भी बढती हुई महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सत्ताधारी दल की बढ़ती निरंकुशता से चिंतित थे | वे सर्वोदय में जरूर थे, पर वे आश्रम बनाकर बैठ जाने वाले मठी नहीं थे | उनकी मूल चेतना संघर्षधर्मी, परिवर्तनकामी और समाजवादी थी | उनकी इस चेतना का एक उदाहरण ‘बिहार रिलीफ कमिटी’ थी | १९६६-६७ में जब बिहार में भयंकर सूखा पड़ा तो उन्होंने ‘बिहार रिलीफ कमिटी’ बनाई और उसके जरिये विपदा की मारी जनता को सहायता पहुंचाने के अनुपम काम किए | सो, छात्रों ने जब उनसे नेतृत्व सँभालने का आग्रह किया तो वे अपने को आन्दोलन से अलग नहीं रख सके | उन्होंने छात्र नेताओं के सामने शर्त रखी – ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा |’ यह बिहार आन्दोलन का नारा बन गया | इसका  अर्थ यह था कि आन्दोलन का चरित्र अहिंसक, शांतिपूर्ण और लोकतान्त्रिक होगा |

            जयप्रकाश जैसे लोकप्रिय, बेदाग, तपे-तपाये और बड़े व्यक्ति द्वारा नेतृत्व सँभालने का अर्थ था – आन्दोलन को बहुआयामी और व्यापक दिशा देना | उनके नेतृत्व सँभालने के बाद आन्दोलन का चरित्र बदला | छात्रों के साथ नौजवानों, किसानों और बुद्धिजीवियों की व्यापक भागीदारी के कारण आन्दोलन राजधानी पटना से लेकर गाँवों - कस्बों तक फैल गया और यह नारा चारों ओर गूंजने लगा – ‘नया बिहार बनायेंगे|’ जयप्रकाश जी के कारण कवियों-लेखकों-पत्रकारों की बड़ी जमात आन्दोलन में आई | फणीश्वरनाथ रेणु के साथ नए – पुराने तमाम साहित्यकार आन्दोलन में अपनी भागीदारी निभाने तन-मन- धन से आगे आये | नुक्कड़ों पर कवियों ने काव्य-पाठ शुरू किया | नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में आन्दोलन को शक्ति देने वाली कविताएँ गूंजने लगी | वामपंथी नागार्जुन भी इस जन आन्दोलन से अपने को अलग नहीं रख सके और वे पूरे जोश से आन्दोलन में कूद पड़े | गलियों-चौराहों पर उनके नेतृत्व में लालधुआं, सत्यनारायण, गोपीवल्लभ, रवीन्द्र भारती, परेश सिन्हा, रवीन्द्र राजहंस, रामवचन राय आदि कवियों का काव्य-पाठ आये दिन का कार्यक्रम हो गया | कवि आलोकधन्वा भी कभी-कभार नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में शामिल हुए |  आन्दोलन की बुलेटिन ‘तरुण क्रांति’ के संपादक और प्रसिद्ध गांधीवादी चिन्तक कुमार प्रशांत ने बातचीत में बताया कि आन्दोलन को लेकर आलोक के कुछ ‘रिजर्वेशन’ थे और उनका आलोचनात्मक समर्थन आन्दोलन को था | खैर,उन्ही नुक्कड़ कविताओं में से कवि सत्यनारायण की एक कविता काफी लोकप्रिय हुई-

जुल्म का चक्का और तबाही कितने दिन ?
हम पर तुम पर सर्द सियाही कितने दिन ?

रामगोपाल दीक्षित की एक कविता तो इतनी पसंद की गयी कि हर आन्दोलनकारी की जुबान पर चढ़ गयी | वह कविता थी –

                    जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है,
                   तिलक लगाने तुम्हे जवानों क्रांति द्वार पर आई है |

यह कविता हर बड़ी रैली में आन्दोलनकारी गायकों द्वारा गाई जाती थी और इसकी धुन पर जयप्रकाशजी स्वयं झूमने लगते थे | इसी के साथ नागार्जुन की भी एक कविता पढ़ी जाती थी, जो आन्दोलन के दौरान लिखी गयी थी | हजारों-लाखों लोगों को इस कविता द्वारा आंदोलित होते मैंने स्वयं देखा है | वह कविता   है –

                    क्या हुआ आपको ?
                    क्या हुआ आपको ?
                   सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को ?
                   इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको ?

जैसे-जैसे आन्दोलन तेज होता गया, सरकार की दमन नीति और कड़ी होती गयी | एक विशाल जुलूस का जब जयप्रकाश जी नेतृत्व कर रहे थे तब पुलिस ने उनपर बर्बरतापूर्वक लाठियां बरसाईं | नागार्जुन ने इस दमन का प्रतिकार किया और कविता के रूप में उनकी प्रतिक्रिया सामने आई | यह कविता  भी लोगों की जुबान पर चढ़ गयी -
                        
                   एक और गाँधी की हत्या होगी अब क्या ?
                   बर्बरता के भोग चढ़ेगा योगी अब क्या ?
                   पोल खुल गयी शासक दल के महामंत्र की ?
                   जयप्रकाश पर पड़ी लाठियां लोकतंत्र की ?

फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन और अन्य कवियों की जयप्रकाश जी से अक्सर मुलाकात होती थी और जयप्रकाश जी उनसे आन्दोलन के सन्दर्भ में बातचीत करते थे | कभी-कभी रेणु और नागार्जुन सम्मानपूर्वक जयप्रकाश जी के साथ मंच पर भी होते थे | आज के नेताओं के साथ इस दृश्य की कल्पना नहीं की जा सकती | लेकिन यह सच है, तब मेरी तरह उस आन्दोलन से जुड़े हजारों-लाखों लोगों ने यह दृश्य देखा था |

नागार्जुन जनपक्षधर रचनाकार थे | वे आँख मूंदकर आन्दोलन में नहीं उतरे थे | वे अपनी खुली आँखों से उसमें आते उतार-चढ़ाव को भी देख रहे थे | उन्हीं दिनों उन्होंने एक कविता लिखी, जिसका शीर्षक है- ‘क्रांति सुगबुगाई है’ –
            क्रांति सुगबुगाई है
          करवट बदली है क्रांति ने
          मगर, वह अब भी उसी तरह लेटी है
          एक बार इस ओर देखकर 
          उसने फिर से फेर लिया है
          अपना मुंह उसी ओर.........
          ‘सम्पूर्ण क्रांति’ और ‘सम्पूर्ण विप्लव’ के मंजु घोष
          उसके कानों के अन्दर
          खीज भर रहे हैं या गुदगुदी
          यह आज नहीं कल बतला सकूंगा !
          हवा में भर उठी इन्कलाब के कपूर की खुशबू
          बार-बार गूंजा आसमान
          बार-बार उमड़ आए नौजवान
          बार-बार लौट गए नौजवान

बिहार आन्दोलन में अक्सर गूंजने वाली इन कविताओं के द्वारा हमने कवि नागार्जुन को जाना | लेकिन उन्हें करीब से देखने का सौभाग्य मिला १९७५ में, इमरजेंसी लगने के ठीक पहले | बिहार के सीवान शहर में एक जन सभा हो रही थी, जिसे नागार्जुन भी संबोधित कर रहे थे | वे अपनी कविताएँ भी सुना रहे थे | सीवान के बगल के जिले गोपालगंज से छात्र संघर्ष समिति के साथियों के साथ मैं भी उस सभा में उपस्थित था | वहीं पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया | सीवान से छपरा और बाद में बक्सर जेल में वे स्थानांतरित कर दिए गए | कुछ दिनों बाद ही इमरजेंसी लग गई | इमरजेंसी के बीच में ही लगभग एक साल बाद खबर आई कि नागार्जुन छूट गए हैं | बाहर आने के बाद नंदकिशोर नवल और खगेन्द्र ठाकुर की पहल पर उनका एक साक्षात्कार छपा, जिसमें अभद्र भाषा में जयप्रकाश और आन्दोलन की आलोचना थी |

डॉ. नंदकिशोर नवल के आवास पर १५ जुलाई,१९७६ को, यानी इमरजेंसी का अँधेरा जब खूब घना था और सन्नाटे में पूरा देश डूबा हुआ था तब यह साक्षात्कार लिया गया था | साक्षात्कार में जे.पी. आन्दोलन को ‘वेश्याओं और भंडुओं की गली’ कहा गया था, जहाँ जाकर नागार्जुन लौट आये थे | उसके अतिरिक्त उद्धरण चिह्नों के भीतर नागार्जुन का वक्तव्य है- “सम्पूर्ण क्रांति का पूरा तूमार ‘तरुण क्रांति’ और ‘विचार क्रांति’ की बुनियाद बनाकर खड़ा किया गया था | सम्पूर्ण क्रांति वालों की दृष्टि में डेमोक्रेसी पटरी से उतर गयी थी और व्यक्तिगत स्वाधीनता धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी | गुजरात की तरुण क्रांति के बाद उन्होंने बिहार में अपना मोर्चा जमाया | बंगाल के ‘अष्टवास’ (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बना आठ वामपंथी पार्टिओं का मोर्चा) के प्रभाव में बुद्धिजीवियों का जो एक गिरोह था, मुझ पर थोड़ा-बहुत उसका प्रभाव था और वह भारत-चीन-सीमा-संघर्ष के दिनों से ही था | १९६४ के बाद से वह प्रभाव और गहरा होता चला गया |  ‘अष्टवास’ द्वारा कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का जो अंधविरोध किया जा रहा था, मैं उसका शिकार था | ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की ओर मैं जो लपक पड़ा, उसके मूल में यही बातें थीं...........वे अभी भी मौजूदा शासन के ‘ईमानदार’ विकल्प की टोह में हैं...........आन्दोलन के वर्ग-चरित्र को मैं अंध कांग्रेस विरोध के प्रभाव में रहने के कारण समझ नहीं पाया | सम्पूर्ण क्रांति की असलियत मैंने जेल में समझी | सीवान, छपरा और बक्सर की जेलों में सम्पूर्ण क्रांति के जो कार्यकर्ता थे, उनमें अस्सी प्रतिशत जनसंघी और विद्यार्थी परिषद् वाले थे | सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता दाल में नमक के बराबर थे और भालोद के कार्यकर्ता दाल में तैरते हुए जीरे के बराबर | औद्योगिक और खेत-मजदूर न के बराबर थे | हरिजन भी इक्के-दुक्के ही थे | यह सब देखकर मैं समझ गया कि यह आन्दोलन किन लोगों का था | इस आन्दोलन के चरित्र के सम्बन्ध में मैं शुरू से ही संशयग्रस्त था | ठीक इसी तरह सम्पूर्ण क्रांति के लोग अपने मन में संशय रखते थे | ............कम्युनिस्ट पार्टी के बिहार के साथियों ने सम्पूर्ण क्रांति के अश्वमेध के घोड़े को नाथने का जो बहादुराना काम किया, वह बेमिसाल था |” इसके आगे नागार्जुन ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को यह सलाह दी थी कि कांग्रेस का अंध विरोध न करके उसके प्रगतिशील क़दमों का समर्थन करना चाहिए | इमरजेंसी और बीस सूत्री कार्यक्रम पर उनकी टिप्पणी थी – “इमरजेंसी के लिए जो वक्त चुना गया था, वह बिलकुल मौजू था | जरा भी देर होती तो महा अनर्थ घटित होता...........इस कार्यक्रम (यानी बीस सूत्री कार्यक्रम) ने सम्पूर्ण क्रांति वालों की कमर तोड़ दी है...........मेरे सम्पूर्ण क्रांति के मित्रों को जरा भी बुद्धि हो तो उन्हें हुलसकर बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करना चाहिए |” नागार्जुन के उस साक्षात्कार में गैर भाकपाई वामपंथी लोगों की आलोचना के साथ सोवियत संघ की भूमिका का भी समर्थन है – “मुझे अपने वामपंथी मित्रों पर दया आती है, जो सोवियत संघ के प्रति संशयग्रस्त हैं | अंगोला, मोजाम्बिक आदि देशों में सोवियत संघ की भूमिका उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाती है, लेकिन मुझे वह पूर्णतः संगत लगती है | भारत-सोवियत सम्बन्ध को भी हमें इसी रोशनी में देखना चाहिए |”

  भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘जनशक्ति’ दैनिक में छपी यह बातचीत, उस समय की पार्टी लाइन के अनुसार थी | यहाँ यह भी जानना जरूरी है कि खगेन्द्र ठाकुर कॉलेज की अध्यापकी छोड़कर पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता हो गए थे | नंदकिशोर नवल अध्यापकी बरक़रार रखते हुए भाकपा के उत्साही सदस्य थे | स्वाभाविक रूप से उन दिनों दोनों भाकपा और सोवियत संघ के खिलाफ एक शब्द भी सुनना नहीं पसंद करते थे | आगे चलकर नागार्जुन प्रसंग में ही दोनों का स्थाई विवाद हो गया |  इसका मूल कारण ‘नागार्जुन की राजनीति’ नामक पुस्तिका थी | बहरहाल, दोनों बिहार में भाकपा के सांस्कृतिक नेता थे और इस गुरुत्तर और ऐतिहासिक दायित्व के तहत पार्टी लाइन के अनुसार ही अपना काम जोश-खरोश के साथ कर रहे थे | बिहार के गैर भाकपाई वामपंथी मित्रों के बीच चर्चा होती थी कि इसी ‘गुरुत्तर तथा ऐतिहासिक दायित्व’ को संपन्न करने के निमित्त पार्टी के मौखिक निर्देश पर यह साक्षात्कार लिया गया था और वही छपा था जो पार्टी लाइन के अनुसार था | ‘सम्पूर्ण क्रांति’ को ‘मानव-विरोधी’ घोषित करते हुए साक्षात्कार के प्रारंभ में नवलजी की  टिप्पणी है – “हिंदी भाषा ही नहीं, इस देश की अहिन्दी  भाषी जनता के लिए यह समाचार अत्यंत दुखद था कि पिछले दिनों बाबा ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के पक्षधर हो गए थे | यह समाचार उसके लिए न केवल दुखद था, बल्कि आश्चर्यजनक भी था | कारण यह कि बाबा का मानववाद अब कोई छिपी हुई चीज नहीं है | इस मानववाद को छोड़कर वे ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के मानव-विरोधी आन्दोलन में कैसे सम्मिलित हुए, इस संबंध में तरह-तरह की अटकलें लगायी जा रही थीं |”

लेकिन हम इस लोकचर्चा को महत्व क्यों दें कि नागार्जुन पर भाकपाई साथियों का दबाव था और उन्होंने वैसा ही बयान दिया, जो पार्टी लाइन के अनुसार था | भाकपा जरूर ऐसा चाहती होगी, क्योंकि वह जे.पी. आन्दोलन के खिलाफ थी और सत्तारूढ़ कांग्रेस से उसका गठबंधन था | तब शांतिपूर्ण सहयोग की डांगेवादी नीति पर चलने वाली पार्टी न सिर्फ सत्तारूढ़ कांग्रेस की समर्थक थी, बल्कि जे.पी. आन्दोलन को फासिस्ट और जयप्रकाश को अमेरिकी दलाल बता रही थी | ऐसे में कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि और चेतना के नागार्जुन का आन्दोलन में शामिल होना पार्टी लाइन के प्रतिकूल था | आन्दोलन के खिलाफ जितना कांग्रेस थी, उससे अधिक भाकपा थी| आन्दोलन के कार्यक्रमों के सामानांतर भाकपा भी आन्दोलन विरोधी अपना कार्यक्रम चला रही थी | नागार्जुन उस समय पार्टी सदस्य न थे, पर पार्टी से उनका जुड़ाव बहुत पुराना था | सो, जेल से निकलने के बाद उनका जयप्रकाश और आन्दोलन के विरोध में दिया गया बयान उसे राहत पहुँचाने वाला था और यह स्वाभाविक भी था कि भाकपा उनसे इस तरह के बयान की अपेक्षा करे | नागार्जुन कोई बच्चे तो थे नहीं ! पहल भले खगेन्द्र ठाकुर और नंदकिशोर नवल की रही हो, वक्तव्य तो नागार्जुन का ही था और उन्होंने उसका कोई खंडन भी नहीं किया था | न सिर्फ उस समय बल्कि बाद के दिनों में भी | कुछ वर्षों बाद अन्य लोगों को दिए गए साक्षात्कार में भले ही ‘रंडियों और भंडुओं’ जैसी शब्दावली का प्रयोग न हो, मगर जे.पी. आन्दोलन के प्रति उनका वही स्टैंड था| हाँ, तब भाकपा की लाइन को और सत्तारूढ़ दल की नीतियों को सही मानने का जो स्टैंड था, उसमें फर्क आ गया | नवम्बर १९७९ में विजय बहादुर सिंह से बातचीत करते हुए नागार्जुन ने कहा : “..............७१-७२ के बाद सत्तारूढ़ पार्टी के नेतृत्व में तानाशाही मंसूबे साफ़-साफ़ उभरने लगे | श्रमजीवी वर्ग और प्रखर बौद्धिक जमात पर शासन का शिकंजा कसने लगा | ............मार्च-अप्रैल १९७४ में बीसों छात्र एवं युवक शासकीय बर्बरता के शिकार हुए | हमें लगा कि बर्बरता के खिलाफ लिखना ही काफी नहीं होगा | हम प्रतीक अनशन पर बैठे | चौराहों और नुक्कड़ों पर कवितायेँ सुना-सुना कर शासन के प्रति हमने अपनी बौखलाहट जाहिर की | अपने प्रगतिशील बंधुओं की ओर से मुझे बार-बार समझाया गया कि यह सब फासिस्टों का सत्यानाशी तमाशा है........ परन्तु मेरा विवेक बार-बार मुझे ले जाकर चौराहों पर खड़ा कर देता था | जेल के अन्दर मैंने शिद्दत से महसूस किया कि समूचा आन्दोलन दक्षिणपंथी तत्वों की गिरफ्त में है | बाहर लाखों की भीड़ वाले प्रदर्शनों में इस तथ्य का पता नहीं चला, इसलिए जेल से बाहर आने पर मैंने  आन्दोलन के विरोध में खुलकर वक्तव्य दिए |”

जे.पी. आन्दोलन के सन्दर्भ में नागार्जुन का एक और साक्षात्कार देखना जरूरी है | २२ जून १९८६ की ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित कर्ण सिंह चौहान, वाचस्पति और मंगलेश डबराल से बातचीत में नागार्जुन ने कहा : “जे.पी. आन्दोलन में शामिल हुआ तो बड़ा हल्ला-गुल्ला हुआ | कई मित्र समझाने आये कि कुछ करना हो तो आप कॉपी में लिखकर रखिये, चौराहे पर मत जाइये, जयप्रकाश के हाथों में मत खेलिए | हमने कहा कि किसी के हाथ में खेलने की बात नहीं है | हमने जयप्रकाश का विरोध ही किया है जीवन में | तो हम जब उस आन्दोलन में आये तो जयप्रकाश बहुत चौंके कि ‘जानि न जाई निसाचर माया |’ कहीं केजीबी ने तो नहीं भेजा है | लेकिन वह खुला आन्दोलन था | कोई किसी को रोक नहीं सकता था कि कोई अन्दर नहीं जायेगा| अप्रैल ७४ में यह शुरू हुआ | पहले प्रदर्शन में आठ सौ लोग थे, मुंह पर पट्टी बांधे हुए | हमको लगा कि सक्रिय हस्तक्षेप भी करना होगा | साहित्यकार, शिल्पी, कलाकार हिस्सेदारी करेगा, तो उसका कोई अलग रूप तो होगा नहीं | तो चौराहे पर अनशन किया| उस अनशन में हम और रेणु और छः सात आदमी और थे | बारह घंटे का अनशन था | हम जेल गए | जे. पी. ने हमको लिखा कि आपकी बाहर बहुत जरूरत है, आप जेल मत जाइये | हमने तर्क दिया कि सरकार ने अपने ढंग से गिरफ्तार किया है और अपने ढंग से छोड़ेगी, हम लिखकर क्यों देंगे कि अब हम बाहर जाना चाहते हैं | यह तो छिनाली हुई | जयप्रकाश के अन्दर चले जाने से आन्दोलन में जो कमी आती थी, उसको हमलोग पूरा करते थे | एक रिक्शा करते थे | एक भोंपू होता था और प्रतिदिन तीन-चार चौराहों को कवर करते थे | जब छूटकर आये तो हमने जयप्रकाश के खिलाफ वक्तव्य दिया | बड़ा हल्ला हुआ | जे.पी. ने अपना आदमी भेजा कि आप सिर्फ दो लाइन का वक्तव्य दे दें कि आपके नाम से जो कुछ छप रहा है, वह आपका नहीं | हमने कहा कि यह छिनाली राजनीति वाले  करते हैं | हम साहित्य वाले राजनीति से ऊपर हैं |............और जब हम छूटे तो सी.पी.आई. में हमारी खोज हुई कि अब इनका मोहभंग हुआ है तो इनका इलेक्शन में इस्तेमाल करें | हम चुपचाप दिल्ली में आकर बैठ गए | न इनके हाथ खेलना है न उनके हाथ | हम अपने विवेक को बहुत बड़ा स्थान देते हैं | कोई मुगालता नहीं कि हम कोई गलती नहीं करेंगे | लेकिन सही समय पर हमको अपने अन्दर की आवाज जो कहती है, उसका बड़ा महत्त्व है |”

तीन जगहों पर तीन समयों में अलग-अलग लोगों को दिए गए साक्षात्कारों में कुछ बातें ध्यान देने लायक हैं | पहली यह कि बिहार आन्दोलन नागार्जुन की नज़र में जन आन्दोलन था | उसमें आमजन के साथ साहित्यकारों की भी भागीदारी थी | आन्दोलन में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक लोग शामिल थे | इस कारण नागार्जुन आन्दोलन से अलग हुए और बाहर आकर जे.पी.  आन्दोलन के खिलाफ वक्तव्य दिया | नवलजी और खगेन्द्रजी को दिए गए साक्षात्कार में जे.पी. आन्दोलन की कड़ी भर्त्सना के साथ सी.पी.आई. और शासक दल की नीतियों को सही ठहराया गया है, जबकि ‘जनसत्ता’ वाले साक्षात्कार में सी.पी.आई. द्वारा इस्तेमाल किये जाने की नौबत आने पर भाग निकलने की स्पष्ट घोषणा है | अंतिम बात यह कि अपने ‘विवेक’ और अपने ‘अन्दर की आवाज’ पर ही भरोसा करने की बात नागार्जुन करते हैं | यहाँ ध्यान देने लायक बात यह भी है कि उन्होंने अपने दूसरे साक्षात्कारों में संघियों की मौजूदगी के कारण जयप्रकाश आन्दोलन की निंदा तो की है, पर सी.पी.आई., सोवियत संघ, बीस सूत्री कार्यक्रम तथा इमरजेंसी की जन एवं जनतंत्र विरोधी नीतियों का समर्थन नहीं किया है | इस वजह से नवल जी और खगेन्द्र जी वाले साक्षात्कार में दोनों साक्षात्कारकर्ताओं की मंशा पर कभी-कभी शंका होती है | इस शंका का कारण यह है कि ‘वेश्याओं और भंडुओं की गली’ जैसी शब्दावली के जरिए जयप्रकाश आन्दोलन की निंदा का फूहड़ उपक्रम भी उन साक्षात्कारों में नहीं है | ‘एक और गाँधी’ संज्ञा के जरिए जिस जयप्रकाश के लिए वे अपार सम्मान व्यक्त कर चुके थे, उसी के लिए सड़क छाप गाली-गलौच ! सहसा विश्वास नहीं होता | दूसरा कारण यह कि तब भी और बाद के दिनों में भी नागार्जुन सी.पी.आई. और सोवियत संघ के प्रति अति आलोचनात्मक थे | उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों से भाकपा एवं प्रगतिशील लेखक संघ के कुछ लोगों को खासी तिलमिलाहट होती थी | उस तिलमिलाहट का मूर्त रूप पटना प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से प्रकाशित ‘नागार्जुन की राजनीति’ नामक पुस्तिका थी, जिसके लेखक अपूर्वानंद और भूमिका लेखक नंदकिशोर नवल थे | पुस्तिका में नागार्जुन के राजनीतिक विचलन की चर्चा तो थी ही, उन्हें ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ करने की ‘समझदार’ कोशिश भी थी | इस पुस्तिका पर प्रलेस के भीतर ही तूफ़ान उठ खड़ा हुआ | नामवर सिंह के कड़े विरोध के कारण पासा पलट गया | कहने वाले कहते हैं कि इस प्रसंग में खगेन्द्र ठाकुर एवं अन्य लोग व्यावहारिक निकले | इस पूरे प्रकरण से वे अनजान बन गए | इस विवाद की अंतिम परिणति नागार्जुन को ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ करने की कोशिश में लगे नंदकिशोर नवल और अपूर्वानंद जैसे भाकपा और प्रलेस के सदस्यों की दोनों संगठनों से विदाई के रूप में सामने आई | नागार्जुन अपनी जगह कायम रहे | उनका भाकपा एवं सोवियत संघ के प्रति आलोचनात्मक रूख कठोर से कठोरतर होता गया | खैर, अब लौटते हैं, उनके वक्तव्य की वास्तविकता पर |     
             १८ मार्च ७४ को शुरू हुए छात्र-आन्दोलन में समाजवादी युवजन सभा और विद्यार्थी परिषद् के साथ अन्य छात्र संगठन भी शामिल थे | लेकिन जयप्रकाश जी के नेतृत्व सँभालने के बाद आन्दोलन का दायरा जब व्यापक हुआ तो उसमें सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, संगठन कांग्रेस आदि राजनीतिक पार्टियाँ शामिल हुईं | मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ कुछ नक्सल समूह भी समर्थन में थे | धरना, प्रदर्शन, जेल भरो आन्दोलन में ये सभी साथ थे | यह सही है कि जनसंघ और विद्यार्थी परिषद् के लोग भी बड़ी संख्या में थे | लेकिन यह कहना कि ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के जो कार्यकर्ता थे, उनमें अस्सी प्रतिशत जनसंघी और विद्यार्थी परिषद् वाले थे और सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता दाल में नमक के बराबर थे, आन्दोलन का सही आकलन नहीं है | यहाँ तथ्य की अनदेखी है और वास्तविकता को अतिरंजित करके देखा गया है | इसलिए कि जनसंघ और विद्यार्थी परिषद् के अतिरिक्त बड़ी संख्या सोशलिस्टों की थी | जयप्रकाश जी सोशलिस्ट पार्टी के स्टार नेता रह चुके थे | उनके कारण निष्क्रिय सोशलिस्ट भी सक्रिय हो गए थे | बड़ी संख्या ऐसे छात्रों-युवाओं की भी थी, जिनकी चेतना आन्दोलन के दौरान बनी थी | ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ के रूप में जयप्रकाश जी ने एक ऐसा युवा संगठन तैयार किया था जो साम्प्रदायिकता, जातिवाद, धार्मिक रुढ़िवाद, तिलक-दहेज़, जनेऊ आदि के खिलाफ था और शोषण मुक्त - भ्रष्टाचार मुक्त भारत के निर्माण के साथ विकेन्द्रित राजनीतिक व्यवस्था का हिमायती था | जयप्रकाश जी के आह्वान पर ऐसे लोग और छात्र भी आन्दोलन में कूद पड़े थे, जो किसी दल के सदस्य न थे | कहा जाये तो सबसे बड़ी संख्या इन्हीं लोगों की थी | ‘सम्पूर्ण क्रांति’ बदले हुए समय में लोहिया की ‘सप्त क्रांति’ ही थी | यह बात जयप्रकाश जी के बाद के वक्तव्यों से साफ़ होती है | ‘सम्पूर्ण क्रांति’ हो या ‘सप्त क्रांति’, दरअसल यह समाज के आमूल-चूल परिवर्तन का राजनीतिक स्वप्न थी | जयप्रकाश जी का यह अपना सामाजिक-राजनीतिक एजेंडा था | वे संघ के एजेंडे पर काम नहीं कर रहे थे | उनका जो व्यक्तित्व था और जो राजनैतिक हैसियत थी, वह संघ के एजेंडे का  मुहताज नहीं थी |

यह सही है कि आन्दोलन में शामिल साम्प्रदायवादी अपने एजेंडे के प्रति सचेत थे | उस आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण और जेल-यात्रा में उन सबके आचरण का प्रत्यक्ष गवाह होने के कारण इन पंक्तियों का लेखक कह सकता है कि आन्दोलन के दौरान बीच-बीच में सोशलिस्टों एवं संघियों के मतभेद सतह पर आते रहते थे | जयप्रकाश जी को संघियों के कारगुजारियों की खबर भी थी | अतीत में वे संघ की रीति-नीति के कट्टर आलोचक रह चुके थे | जब सोशलिस्ट पार्टी का वे नेतृत्व कर रहे थे तो साम्प्रदायिकता विरोध उनके राजनीतिक एजेंडे में सर्वोपरि था | लेकिन इस बार आन्दोलन में शामिल होने पर उन्हें संघ से परहेज नहीं था क्योंकि वे तो सबसे अपने-अपने झंडे, बैनर और राजनीतिक लाइन छोड़कर ‘सम्पूर्ण क्रांति’ में शामिल होने का आह्वान कर रहे थे | इस व्यापक जन भागीदारी वाले आन्दोलन के जरिए सत्ता परिवर्तन नहीं, व्यवस्था परिवर्तन उनका मुख्य लक्ष्य था | उन्हें उम्मीद थी कि ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के अभियान में सबका कायाकल्प हो जायेगा, लेकिन यह उनका भ्रम साबित हुआ | ‘वाहिनी’ के लोगों को छोड़कर कोई उनके साथ शत-प्रतिशत सच्चे मन से नहीं था | संघी तो बिलकुल नहीं थे | वे उनके साथ रहकर राजनीतिक वैधता प्राप्त करना चाहते थे | ‘वाहिनी’ के अतिरिक्त सब सत्ता के भूखे थे | जयप्रकाश आन्दोलन के जरिये सत्ता का रास्ता उन्हें दिख रहा था | व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन उनके सपने में भी नहीं था | इमरजेंसी के बाद जयप्रकाशजी का सारा ध्यान तानाशाही को पराजित करने पर केन्द्रित हो गया था | जल्दी में उनकी पहल पर विरोधी दलों को भंग कर ‘जनता पार्टी’ बनायी गयी | जनता पार्टी प्रचंड बहुमत से जीती | तानाशाही पराजित हुई | लेकिन जो जनता सरकार बनी उसके एजेंडे में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ दूर-दूर तक नहीं थी | जयप्रकाश जी हाशिये पर डाल दिए गए | सरकार में संघियों और समाजवादियों के टकराव खुल कर सामने आने लगे और अंततः सरकार गिर गयी | जनता सरकार की विफलता से निराश बीमार जयप्रकाश का निधन हो गया |

नागार्जुन ने अपने ‘विवेक’ और ‘अन्दर की आवाज’ की बात की है | उनके जानने वालों को पता है कि यही ‘विवेक’ और ‘अन्दर की आवाज’ उनके कवि-व्यक्तित्व की ताकत है | इसी कारण उन्हें नामवर सिंह ने ‘आधुनिक कबीर’ कहा है | खुली आँखों देखे अनुभव के सच को अनभय यानी बिना भय के कहने की कला का नाम ‘अनभै सांचा’ है, जो नागार्जुन की कविता की मूल प्रकृति है | यह ‘विवेक’ ही उन्हें जमीन और जनता से हमेशा जोड़े रहता है | जाग्रत विवेक और परिणत प्रज्ञा के कवि हैं नागार्जुन, लेकिन कभी-कभी उनका यह ‘विवेक’ पाठक को असमंजस में डालता है और उनका स्टैंड उसकी समझ से परे होता है | भाकपा जब बिहार आन्दोलन और जयप्रकाश का खुल कर विरोध कर रही थी, तब नागार्जुन भाकपा के सदस्य नहीं थे  | लेकिन अतीत में वे औपचारिक सदस्य रह चुके थे और पार्टी के कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी निभा चुके थे | एक अर्थ में उनके राजनीतिक संघर्ष का इतिहास भाकपा के राजनीतिक संघर्ष के इतिहास से जुड़ा हुआ था | उनसे भाकपा की स्वाभाविक अपेक्षा थी कि वे बिहार आन्दोलन का विरोध न भी करें तो कम-से-कम चुप रहें | लेकिन उनका विवेक जन आन्दोलन के पक्ष में था | वे अपने भाकपाई मित्रों की मनाही के बावजूद आन्दोलन में शामिल हुए | आन्दोलन के पक्ष में कविताएँ भी लिखीं, वक्तव्य भी दिए, धरना-प्रदर्शनों में भाग भी लिया, जेल भी गए | उनके जेल जाने के बाद इमरजेंसी लग गई | जयप्रकाश समेत, भाकपा को छोड़, अन्य वामपंथी दलों तथा विरोधी दलों के तमाम नेता जेलों में डाल दिए गए | प्रेस की स्वतंत्रता छीन ली गयी | बिना सेंसर किये कोई भी खबर नहीं छपती थी | जनता के मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए | भाकपा ने सरकार की इस दमनकारी नीति का समर्थन किया |

इमरजेंसी का आतंक जब चरम पर था, बचे-खुचे विरोधी भी जब खोज-खोज कर बंद किये जा रहे थे, तभी नागार्जुन जेल से छूट गए | कैसे छूटे, यह कैसे संभव हुआ ? आन्दोलन समर्थक और नागार्जुन को जानने वाले हर व्यक्ति के मन में यह जिज्ञासा थी | अफवाह थी कि पैरोल पर छूटे हैं | बाहर आने के बाद नवलजी और खगेन्द्रजी को जयप्रकाश और आन्दोलन के बारे में उन्होंने जो तीखे बयान दिए, उनका वह ‘विवेक’ गैर भाकपाई उनके तमाम प्रशंसकों-पाठकों की समझ से परे था | उनकी समझ में यह भी नहीं आ रहा था कि इमरजेंसी विरोध में जब अधिक दृढ़ता से डटे रहने की जरूरत थी, तब जन आन्दोलन की चेतना वाला यह कवि एक जन आन्दोलन के विरोध में और इमरजेंसी के समर्थन में कैसे खड़ा हो गया ! क्या सिर्फ इसलिए कि उसमें संघी भी थे ! वह कैसे भूल गया कि इमरजेंसी के विरोध में संघियों के अतिरिक्त सोशलिस्ट पार्टी, सर्वोदय, वाहिनी, संगठन कांग्रेस  और गैर भाकपाई वामपंथियों समेत छात्रों-युवाओं के रूप में गैर सांगठनिक लोग भी बड़ी संख्या में हैं ! यही नहीं उन्होंने बिहार सरकार का वह वजीफा भी पुनः ले लिया, जिसे न लेने की वे सार्वजनिक घोषणा कर चुके थे | बिहार सरकार बिहार के मसिजीवी साहित्यकारों को प्रतिमाह ढाई-तीन सौ रूपए का वजीफा मदद के तौर पर देती थी | जयप्रकाश जी पर जब लाठियां चली तो विरोध स्वरूप पटना के गाँधी मैदान में एक जन सभा हुई | जयप्रकाश की उपस्थिति में नागार्जुन और रेणु ने वजीफे लौटा दिए थे | रेणु ने ‘पद्मश्री’ का सम्मान भी लौटा दिया था | नागार्जुन ने वह वजीफा फिर वापस क्यों लिया ? उनका यह ‘विवेक’ भी आन्दोलन समर्थक- इमरजेंसी विरोधी उनके प्रेमियों की समझ से परे था | जबकि रेणु ने न तो वह  वजीफा पुनः लिया और न अस्वस्थ रहने के बावजूद वे पैरोल पर जेल से छूटे | क्या नागार्जुन ने आर्थिक मजबूरी में ऐसा किया ? या यह उनका ढुलमुलपन था ? उनके जीवन और राजनीतिक संघर्ष को देखते हुए ऐसा सोचना अपराध-सा लगता है | अर्थाभाव की कौन-सी भार नहीं झेली इस कवि ने ! राजनीतिक संघर्ष के कौन-से कष्ट नहीं उठाए ! फिर क्यों रेणु अपने निर्णय पर डटे रहे और और नागार्जुन ने ‘यू-टर्न’ ले लिया ? कहीं आन्दोलन और जयप्रकाश नारायण से उनका पूरी तरह मोहभंग तो नहीं हो गया था ? मोहभंग तो हो गया था, तभी तो वे डंके की चोट पर इसकी घोषणा करते हैं | किन्तु इमरजेंसी का समर्थन क्यों किया मानव अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध इस कवि ने ? इन प्रश्नों का कोई उत्तर देना नागार्जुन के घनघोर समर्थक के लिए भी कठिन है | लेकिन यहाँ यह भी देखना चाहिए कि इमरजेंसी-समर्थन और वेश्याओं और भंडुओंवाली बात केवल नवलजी वाले साक्षात्कार में है, अन्यत्र नहीं | प्रश्न है कि यह नागार्जुन का हड़बड़ी में दिया गया भावुकता भरा अविचारित क्षोभ है या इसके अलग निहितार्थ हैं ?

बहरहाल, नागार्जुन ने कवि-रूप में उस आन्दोलन का आकलन किया और उसे ‘खिचड़ी-विप्लव’ नाम दिया | ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ नाम से उनका संकलन भी आया | इस संकलन में इमरजेंसी के दौरान जेल में लिखी गयी कविताएँ भी शामिल हैं | नागार्जुन आन्दोलन में जी-जान से जुटे हुए थे | लेकिन जैसी जनक्रांति वे चाहते थे, उसकी पहल, व्यापक जनसमर्थन के बावजूद, जयप्रकाश की ओर से नहीं हो रही थी | ‘वो सब क्या था आखिर’ शीर्षक कविता में नागार्जुन कहते हैं कि दस लाख की बड़ी भीड़ दिल्ली में उन्हें अपना ‘मुख’ बनाकर कूच कर रही थी और उनका स्पष्ट आदेश चाह रही थी, लेकिन व्यापक जनक्रांति की उनकी अनिच्छा ने कवि को निराश कर दिया –

            उस दिन मार्च की छठी तारीख थी
          ‘लोकनायक’ उस रोज को तुम कौन थे ?
          तुम्हारा भोलापन
          तुम्हारी ‘लोकनीति’
          सम्पूर्ण क्रांति वाले तुम्हारे सोंधे ख्याल
          व्यापक जनक्रांति की तुम्हारी अनिच्छा
          सर्वहारा के प्रति परायेपन के तुम्हारे भाव
            अभिनव महाप्रभुओं के प्रति शक्ति-संतुलन का
          तुम्हारा हवाई मूल्यबोध .....
          तुम्हारी मसीहाई महत्वाकांक्षाएं
          काहिल, आरामपसंद, संशयशील, डरपोक, कपटी, क्रूर
          ‘भलेमानसों’ से दिन-रात तुम्हारा घिरा होना
          वो सब क्या था आखिर ?   

वामपंथी नागार्जुन के मन में क्रांति का जो रूप और सपना था, उसका पूरा मेल जयप्रकाश की ‘सम्पूर्ण क्रांति’ तथा ‘लोकनीति’ से बन नहीं पा रहा था | उनके मन में क्रांति का सपना रूसी और चीनी क्रांतियों का था | उसका मेल ‘सम्पूर्ण क्रांति’ जैसे अहिंसक और जनतांत्रिक आन्दोलन से कैसे होता ! इसलिए बीच-बीच में वे आलोचनात्मक रूख अख्तियार कर लेते थे | अंततः उससे वे निराश हुए और नाम दिया ‘खिचड़ी विप्लव’ | ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ शीर्षक कविता में उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ को ‘क्रांति विलास’ और ‘भ्रान्ति विलास’ की संज्ञा दी –

                        खिचड़ी विप्लव देखा हमने
                   भोगा हमने क्रांति विलास
                   अब भी ख़त्म नहीं होगा क्या
                   पूर्ण क्रांति का भ्रान्ति विलास

            ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ संग्रह में एक कविता है जो इमरजेंसी का विरोध करनेवालों के स्वागत में है | लगता है यह कविता तब लिखी गयी थी, जब नागार्जुन इमरजेंसी के प्रारंभ में छपरा जेल में थे | छपरा शहर में इमरजेंसी विरोध में और जयप्रकाश के समर्थन में एक छोटी सी घटना घटित हुई | बीस-पच्चीस नौजवानों ने छपरा शहर में घूमते हुए इमरजेंसी विरोधी नारे लगाये | नागार्जुन को खबर लगी तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था –

                        धज्जी-धज्जी उड़ा दी छोकरों ने इमरजेंसी की
                   घूमते फिरे लगातार चार घंटे
                   गलियों में, सड़कों पर, चौराहों, तिराहों पर
                   आवाम ने मज़ा लिया
                   साथ-साथ स्लोगन मारे
                   मुठ्ठियाँ उछली हवा में साथ-साथ
साथ-साथ पसीना बहा इनका-उनका
सारा नगर घूम आया विरोध का काला झंडा
पुलिस ने कहीं भी छेड़खानी नहीं की उनसे
जाने दिया उन्हें
आने दिया उन्हें
लगाने दिए मनमाने नारे
चायवालों  ने उस रोज पहली बार
निडर होकर तरुणों को चाय पिलाई
जे.पी. के बारे में पूछा, बहुत कुछ जानना चाहा
पानवालों ने पान के बीड़े ऑफर किये........
क्या हुआ छपरा टाउन में उस रोज
धज्जी-धज्जी उड़ा दी छोकरों ने इमरजेंसी की
यह क्या हुआ आखिर उस दिन छपरा टाउन में !

            उस घटना के कुछ और ब्यौरों के बाद उस कविता का अंत इन पंक्तियों के साथ होता है –

                    पीछे, तफसील में हमने सुनी सारी बातें.......
                   खूब हँसे, खूब हँसे, खूब हँसे ........
                   खुश हुए खूब, खुश हुए खूब, खुश हुए खूब ..........


            यहाँ इमरजेंसी विरोध भी है और जयप्रकाशजी के लिए जिज्ञासा भी | आखिर नागार्जुन का कौन-सा रूप सही है ? जे.पी. आन्दोलन और इमरजेंसी के सन्दर्भ में उनके पाठक-प्रशंसक के सामने यह पूरा प्रकरण बड़ा-सा यक्ष प्रश्न है |