महावीर
प्रसाद द्विवेदी हिंदी के पहले लेखक थे, जिन्हें जनता ने आचार्य की उपाधि दी |
वे
शंकराचार्य,
रामानुजाचार्य,
वल्लभाचार्य
आदि की तरह न तो किसी मत के प्रवर्तक थे और न किसी महाविद्यालय के प्रधान अध्यापक |
उन्होंने
आचार्य की कोई परीक्षा भी पास नहीं की थी | फिर
जनता ने उन्हें इस आचार्य विशेषण से क्यों नवाज़ा ? गुरु,
मत-प्रवर्तक
आदि कोशगत अर्थों के साथ उसका अर्थ असाधारण पंडित भी होता है और पूज्य पुरुष भी |
इसी
के साथ आचार्य का एक अर्थ आचरणीय भी होता है- ऐसा व्यक्ति जिसका अनुसरण किया जाए |
मुझे
लगता है कि जनता ने इसी अर्थ में उन्हें आचार्य की उपाधि दी |
वे
असाधारण विद्वान और पूज्य पुरुष तो थे ही, ऐसे
आचरणीय भी थे,
जिनका
लोगों ने अनुसरण किया | उनके
बहुआयामी व्यक्तित्व में आचार्यत्व की जो आभा है, उसका
गहरा सम्बन्ध हिंदी नवजागरण से है | हिंदी
नवजागरण की जो चेतना उन्हें विरासत में भारतेंदु
युग से मिली थी,
उसे
उन्होंने स्वाधीनता और स्वदेशी का मजबूत आधार देकर और प्रखर बना दिया |
आचार्य
उनके इसी ऐतिहासिक कार्य का जनता द्वारा किया गया लोक सम्मान था |
एक तरफ यह लोकमत और लोक सम्मान
था तो दूसरी ओर हिंदी के आलोचक थे | रामचंद्र
शुक्ल, नन्ददुलारे
वाजपेयी और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे आलोचकों के द्विवेदी सम्बन्धी मतों को
देखने से पता चलता है की वे ‘सरस्वती’
के
यशस्वी संपादक और भाषा परिष्कारक भर थे | महावीर
प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली के संपादक भारत यायावर ने ऐसे सभी मतों का परिक्षण किया
है | शुक्ल जी का मत है कि “....लिखने
की सफलता वे इस बात में मानते थे कि पाठक
भी उससे बहुत कुछ समझ जाएँ | कई
उपयोगी पुस्तकों के अतरिक्त उन्होंने फुटकल लेख भी बहुत लिखे |
पर
इन लेखों में अधिकतर लेख ‘बातों
के संग्रह’ के
रूप में ही हैं | भाषा
के नूतन शक्ति चमत्कार के साथ नए- नए विचारों के उद्भावना वाले निबंध बहुत ही कम
मिलते हैं |......द्विवेदी
जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए
लिख रहा है |” ऐसी
स्थिति में उनका ऐतिहासिक योगदान क्या है ?
शुक्ल
के विचार हैं : “....यदि
द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसा अव्यवस्थित, व्याकरण विरुद्ध और ऊटपटांग भाषा
चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती |” कुल मिला कर शुक्ल जी के
विचार से द्विवेदी जी का महत्व भाषा सुधार के क्षेत्र में है और उनका साहित्य मोटी
अक्लवालों के लिए है | कुछ ऐसे ही विचार हजारी प्रसाद द्विवेदी के भी हैं | ‘हिंदी
साहित्य : उद्भव और विकास’ (१९३२) नामक पुस्तक में उन्होंने लिखा है : “पंडित
महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्पष्टवादिता से भरे हुए और नई प्रेरणा देने वाले निबंध
यद्यपि बहुत गंभीर नहीं कहे जा सकते, परन्तु उन्होंने गंभीर साहित्य के निर्माण
में बहुत सहायता पहुँचाई |”
एक तरफ आलोचकों की यह बंधी-बंधाई धारणा थी तो
दूसरी तरफ वह लोकमत था जो महावीर प्रसाद द्विवेदी को आचार्य और बीसवीं सदी के
प्रारंभिक दो दशकों का नेता मानता था | कई बार विद्वानों की राय से लोकमत अधिक सही
हुआ करता है और इतिहास की नई प्रस्तावना का आधार भी बनता है | आलोचकों से अलग प्रेमचंद, निराला और
पन्त जैसे रचनाकार थे जो द्विवेदी जी को सही परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे |
प्रेमचंद ने लिखा है : “आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं के बनाए हुए हैं
.....उन्होंने हमारे लिए पथ भी बनाया और पथ प्रदर्शक का काम भी किया |” आगे है :
“हिंदी के लिए उन्होंने अपना तन-मन-धन सबकुछ अर्पित कर दिया |
हमारी
उपस्थित उपलब्धि उन्हीं के त्याग का परिणाम है |”
निराला
ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में आचार्य द्विवेदी के योगदान का आकलन किया है |
उन्हें
‘हिंदी भाषा के
सर्वश्रेष्ठ संपादक, समालोचक
और लेखक’ बताते
हुए निराला ने १९३३ में लिखा- “....वह
आधुनिक हिंदी के निर्माता हैं | विधाता
हैं | सर्वस्व
हैं | वह
राष्ट्रभाषा हिंदी के मूर्तिमान स्वरुप हैं |
उन्हें
लोग आचार्य कहते हैं- वह सचमुच आचार्य हैं |
आधुनिक
हिंदी की उन्नति और विकास का अधिकांश श्रेय उन्हीं आचार्य को है |”
प्रेमचंद,
निराला
आदि की आचार्य द्विवेदी सम्बन्धी धारणा के आलोक में डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘महावीर
प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ (१९७७) लिख
कर न सिर्फ उनकी युगांतकारी भूमिका का विस्तार से वस्तुनिष्ठ आकलन किया,
बल्कि
यह भी बताया कि हिंदी में भाषा,साहित्य और विचार की दृष्टि से नए युग को संभव
बनाने वाले वे अद्वितीय योद्धा थे | डॉ. शर्मा
ने हिंदी नवजागरण को बंगाल, गुजरात और
महाराष्ट्र के नवजागरण की शाखा न मानकर १८५७ की स्वातंत्र्य चेतना से जोड़ा और
महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा उनके काल को हिंदी नवजागरण का तीसरा चरण बताया |
पहला
चरण १८५७ का स्वाधीनता संग्राम और दूसरा चरण भारतेंदु युग है |
सन् ५७ के
प्रथम स्वतंत्रता- संग्राम के भीतर सक्रिय चेतना की छः विशेषताओं की चर्चा रामविलास
शर्मा ने की है- १. राष्ट्रीय एकता, २. राज्यसत्ता
का जनता के हित में होना,३. सामंत
विरोधी रुख,
४.
उच्च वर्ण और निम्न वर्ण के किसानों की भागीदारी, ५.
असाम्प्रदायिक राष्ट्रीय रूप तथा ६. हिंदी क्षेत्र का जातीय संग्राम |
ये
सारी विशेषताएँ द्विवेदी जी के व्यक्तित्व
में तो थी हीं,
तिलक
और गाँधी के नेतृत्व में उनके समय में जारी स्वाधीनता आन्दोलन की व्यापकता,
सक्रियता
और स्पष्टता भी उनके व्यक्तित्व में जुड़ी | इस
कारण वे हिंदी जाति की चेतना को नयी भूमिका के लिए आंदोलित करने में सफल हुए और
युग नेता बने |
१९००
से १९२० के हिंदी साहित्य के कालखंड को ‘द्विवेदी
युग’
की
संज्ञा किसने दी, यह ठीक-ठीक कहना कठिन है |
ऐसा
संभव है कि हिंदी समाज ने जैसे आचार्य उपाधि दी, वैसे ही ‘द्विवेदी
युग’
भी
कहना शुरू कर दिया हो और आलोचकों- इतिहासकारों को मानना पड़ा हो |
वैसे
नंददुलारे वाजपेयी ने १९३३ में और रामविलास शर्मा ने १९७६ में ‘द्विवेदी
युग’
की
चर्चा की है |
नंददुलारे
वाजपेयी ने स्थायी और शाश्वत साहित्य के प्रणेता के रूप में उनके महत्व को स्वीकार
नहीं किया था |
उनकी
दृष्टि में द्विवेदी जी का महत्व उनके द्वारा सम्पादित ‘सरस्वती’ के अंकों के कारण
है |
यद्यपि
इतिहास ने वाजपेयी जी की इस धारणा को गलत साबित करते हुए ‘सरस्वती’
के
संपादन-कार्य के साथ उनके तमाम लेखन के ऐतिहासिक महत्व को नए सिरे से उद्घाटित कर
दिया है,
फिर
भी यहाँ यह दुहराने की जरुरत है कि द्विवेदी जी और ‘सरस्वती’
ने
जो केन्द्रीयता और हैसियत अपने समय में हासिल की, वह
न तो किसी दूसरे संपादक को मिली और न किसी दूसरी पत्रिका को |
ऐसा
यशस्वी और विद्वान संपादक हिंदी में दूसरा न हुआ |
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अनेक विधाओं में रचना की |
कविता, कहानी, आलोचना, पुस्तक समीक्षा, अनुवाद, जीवनी आदि विधाओं के साथ उन्होंने
अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास आदि अन्य अनुशासनों में न सिर्फ विपुल मात्रा में
महत्वपूर्ण लिखा, बल्कि अन्य लेखकों को भी इस दिशा में काम करने के लिए
प्रोत्साहित किया | द्विवेदी जी सिर्फ कविता, कहानी, आलोचना आदि को ही साहित्य
मानने के विरुद्ध थे | वे अर्थशास्त्र, इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र आदि विषयों
को भी साहित्य के ही दायरे में रखते थे | असल में स्वाधीनता, स्वदेशी और स्वावलंबन
को गति देने वाले ज्ञान-विज्ञान के तमाम आधारों को वे आंदोलित करना चाहते थे |
इसके लिए उन्होंने सिर्फ उपदेश नहीं दिया, बल्कि मनसा, वाचा, कर्मणा स्वयं लिखकर
दिखा दिया | इसलिए उनके लिखे हुए को स्थायी और शाश्वत साहित्य के अपने तराजू से
तौलने वाले आलोचक भूल गए कि द्विवेदी जी किसी एक विधा के लेखक नहीं हैं | उनका
युगांतकारी व्यक्तित्व अनेक प्रकारों से बना था | हिंदी नवजागरण की एक बड़ी चिंता
हिंदी परिसर को साहित्य के साथ अन्य ज्ञानानुशासनों के मौलिक लेखन से समृद्ध करने
की थी | इस अर्थ में हिंदी नवजागरण के सबसे बड़े योद्धा महावीर प्रसाद द्विवेदी थे
| उनके इस रूप का सबसे बड़ा प्रमाण १९०६-७ में लिखी उनकी विख्यात पुस्तक
‘सम्पतिशास्त्र’ है | कहने की जरुरत नहीं कि हिंदी को ज्ञानानुशासन के अनेक विषयों
से समृद्ध करने की जो मशाल द्विवेदी जी ने जलाई, वह आज़ादी के बाद धीरे-धीरे बुझती
गई है | अब हिंदी सिर्फ साहित्य और मनोरंजन की भाषा है | ज्ञान-विज्ञान और शासन की
भाषा आज भी हिंदी नहीं है | नवजागरण के सन्दर्भ में महावीर प्रसाद द्विवेदी के
सम्पूर्ण रचना कर्म और उनकी चिंता को आज बार-बार रेखांकित करने की जरुरत है |
रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण को जब सन्’५७ की चेतना की
उपज माना था तब उनके ध्यान में कंधे से कंधा मिलाकर एक लक्ष्य के लिए एक साथ लड़ने वाले
हिन्दू मुसलमान दोनों थे, दोनों की साझी भाषा- हिंदी-उर्दू की एकता भी थी |
स्वतंत्रता सेनानियों ने जो इश्तहार सन्’ ५७ में निकाले थे, वह उर्दू-हिंदी दोनों
में थे | द्विवेदी जी नवजागरण के अग्रदूत इस अर्थ में भी हैं कि वे जहाँ हिन्दू-मुस्लिम
एकता के पक्षधर हैं, वहीं हिंदी-उर्दू की साझी विरासत के भी | वे अनेक भाषाओं के
गहरे जानकार तो थे ही, उर्दू-फारसी भी ठीक से जानते थे | उनकी प्रारंभिक शिक्षा
अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और फारसी में ही हुई थी | मराठी, गुजराती, बांग्ला आदि
भाषाएँ तो उन्होंने स्वेच्छया सीखीं | उन्होंने जिस हिंदी में लिखा, वह तत्सम
प्रधान हिंदी नहीं, बल्कि भारतेंदु युग से प्राप्त सहज-सरल हिंदी है | छायावाद के
साथ हिंदी कविता में तत्समता बढ़ी | इसका परिणाम यह हुआ किहिंदी-उर्दू की दूरी तो
बढ़ी ही, हिंदी कविता भी धीरे-धीरे जनता से दूर होती गई | हिंदी नवजागरण के सन्दर्भ
में महावीर प्रसाद द्विवेदी की विरासत पर विचार करते हुए हिन्दू-मुस्लिम समस्या
तथा हिंदी-उर्दू समस्या जिस रूप में और जिस वजह से राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर
प्रश्न बन गई है, उसपर विचार करने की जरुरत है | यह इसलिए भी जरुरी है कि
भारतेन्दुयुगीन नवजागरण की चेतना से द्विवेदीयुगीन चेतना का पार्थक्य समझा जा सके
|
कुरीतियों का विरोध और वैज्ञानिक चेतना का प्रसार
द्विवेदीयुगीन नवजागरण का मुख्य एजेंडा था | विज्ञान और वैज्ञानिकों पर द्विवेदी
जी ने खुद तो लिखा ही, अपने युग के लेखकों को भी लिखने के लिए प्रेरित किया |
द्विवेदी जी द्वारा विज्ञान और वैज्ञानिकों पर लिखी गई टिप्पणियों से ही उस युग की
चेतना का पता चलता है | इस दृष्टि से उस काल की हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन
दिलचस्प होगा | देखना चाहिए की उस काल की पत्र-पत्रिकाओं में अन्धविश्वास अधिक है
या आज की | उसी तरह यह भी देखना चाहिए कि तकनीकी पिछड़ेपन के बावजूद तब की
पत्रकारिता का वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर जोर क्यों अधिक है ?
भारत के विकास का अर्थ है – गाँवों का विकास, किसान का
विकास | यह गाँधी के शब्द और कर्म की धुरी है तो महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी
शब्द और कर्म की | किसानों की हीन अवस्था की चर्चा करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं
: “यह देश इने-गिने अंग्रेजी पढ़े हुए वकीलों, बैरिस्टरों, मास्टरों, इंस्पेक्टरों,
दफ्तर के बाबुओं, कौंसिल के मेम्बरों, महाजनों और व्यवसायियों से ही आबाद नहीं |
आबाद है वह उन लोगों से जिनकी संख्या फीसद ७५ है, जो देहात में रहते हैं और जो
विशेष करके खेती से अपना गुजर-बसर करते हैं | अब यदि जन-समुदाय की यह इतनी बड़ी
संख्या दुःख, दारिद्र और मूर्खता के पंक में पड़ी सड़ा करे और समर्थ देशवासी उनके
उद्धार की चेष्टा न करें तो कितने परिताप की बात है | इन्हीं किसानों या
काश्तकारों ही से तो देश आबाद है |” यह स्थिति कैसे बदले, इसके लिए वे किसानों के
संगठन पर जोर देते हैं | वे मानते हैं कि संगठन में ही परिवर्तन की शक्ति है | वे
हिन्दू-मुसलमान, शिया-सुन्नी, ब्राह्मण-गैर ब्राह्मण, शैव-शाक्त आदि के बीच भेद और
वैमनस्य को दूर कर जनता की एकता पर जोर देते हैं |
स्त्री-शिक्षा और स्त्री-स्वाधीनता नवजागरण का मुख्य एजेंडा
था | यह द्विवेदी जी के चिंतन और लेखन का भी मुख्य एजेंडा था | “स्त्रियों के
कर्तव्य क्या हैं ? परिवार और समाज में उनका दरजा कौन सा है ? पुराने ज़माने में
उनकी स्थिति कैसी थी ? अब कैसी है ?” ऐसे सवाल द्विवेदी जी को अक्सर परेशान करते
थे | स्त्री-शिक्षा सम्बन्धी उनके एक लेख पर कड़ी बहस हुई थी | पंडितों ने द्विवेदी
जी के स्त्री-शिक्षा और स्वाधीनता सम्बन्धी मतों का जबर्दस्त विरोध किया था | द्विवेदी
जी ने उनको उत्तर देते हुए लिखा : “पढ़ने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे
अनर्थ हो सके | अनर्थ का बीज इसमें हर्गिज नहीं | अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं |
अपढों और पढ़े-लिखों, दोनों से | अनर्थ, दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं
और व्यक्ति विशेष का चाल-चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं | अतएव स्त्रियों को अवश्य
पढ़ाना चाहिए | जो लोग यह कहते हैं कि पुराने ज़माने में स्त्रियाँ न पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की मुमानियत थी, वे या तो
इतिहास से अनभिज्ञता रखते हैं या जान-बूझकर लोगों को धोखा देते हैं | समाज की
दृष्टि में ऐसे लोग दंडनीय हैं | क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना
समाज का अपकार और अपराध करना है – समाज की उन्नति में बाधा डालना है |”
द्विवेदी जी राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के प्रबल पक्षधर थे |
उन्हें न तो देश की गुलामी पसंद थी और न अपनी भाषा की | उनका सम्पूर्ण चिंतन और
लेखन स्वतंत्र और मजबूत राष्ट्र तथा हिंदी के विकास को समर्पित है | लेकिन इसका
अर्थ यह नहीं कि वे अंधराष्ट्रवादी थे | वे अंधराष्ट्रवाद को बुरा मानते थे | वे
यह मानकर नहीं चलते थे कि ज्ञान-विज्ञान और भाषा-साहित्य में जो कुछ अच्छा है, वह
भारत का है | उन्हें अपनी विरासत पर गर्व था, अपनी विरासत के वे गहरे जानकार थे |
इसलिए उन्हें विरासत की शक्ति का पता था तो उसकी कमजोरी का भी | अपनी विरासत के
साथ देश-दुनिया में जहाँ कहीं अच्छाई है, उसका वे स्वागत करते थे | इसीलिए
उन्होंने संसार भर के वैज्ञानिकों-चिंतकों का अध्ययन किया और उन पर लिखा भी |
अंधराष्ट्रवाद को उन्होंने ‘विषाक्त स्वदेश-प्रेम’ की संज्ञा दी और बताया कि यह
योरप की उपज है | उन्होंने उसकी आलोचना करते हुए लिखा : “स्वदेश-प्रेम से मनुष्य
के ह्रदय में एक मिथ्या अहंकार का उदय होता है, उसकी बुद्धि संकुचित हो जाती है,
यहाँ तक कि उसके प्रत्येक कार्य में, उसकी प्रत्येक इच्छा में, एक घृणित स्वार्थ
की दुर्गन्ध आने लगती है |” वे स्वस्थ राष्ट्रवाद के साथ अंतर्राष्ट्रीयतावाद में
भरोसा करते थे | अंधराष्ट्रवाद और राष्ट्रों के बीच गलत प्रतिस्पर्द्धाओं को
नकारते हुए उन्होंने सभी देशों के बीच भ्रातृभाव पर जोर दिया : “संसार की वर्तमान
विकट समस्या को हल करने के लिए हमें राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धाओं और वैमनस्यों से
हाथ खींच लेने पड़ेंगे | राष्ट्रों के परे भी कोई वस्तु है | राष्ट्रों का अस्तित्व
उसी वस्तु के लिए है | और वह है मानव जातीयता | संसार के पुनर्निर्माण की नवीन
समस्याओं पर हमें आदर्श अंतर्राष्ट्रीयतावाद की दृष्टि से ही विचार करना होगा |
राष्ट्रों को अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से अपने पथ पर अग्रसर होना होगा, तभी हम
सार्वजनिक भ्रातृभाव स्थापित कर सकेंगे और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का आदर्श कार्य में
परिणत हो सकेगा | संसार के उद्धार का एकमात्र यही साधन है |”
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने माधव राव सप्रे, महामहोपाध्याय
रामावतार शर्मा और चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे अपने समकालीन विद्वान लेखकों को याद
किया है | इसलिए कि ये सभी द्विवेदी जी की तरह बहुभाषाविद्, बहुज्ञ और विज्ञान एवं
वैज्ञानिक दृष्टि को महत्व देने वाले लेखक थे | इन्हीं के प्रयासों से हिंदी में
नवजागरण संभव हो सका | द्विवेदी युग के बाद हिंदी में साहित्यिक विधाओं का तो
विकास हुआ किन्तु हिंदी में ज्ञान-विज्ञान का अंतरानुशासनिक परिसर वैसा नहीं बन
सका जैसा सपना द्विवेदी जी ने देखा था | उनकी परंपरा में जिन लेखकों को याद किया
जा सकता है, उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है | राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद
द्विवेदी, भगवतशरण उपाध्याय और रामविलास शर्मा जैसे थोड़े नाम हैं, जिनके लेखन की
दुनिया द्विवेदी जी की तरह विस्तृत है |
सम्प्रदायवाद, जातिवाद और अन्धविश्वास के घनघोर विरोधी तथा
वैज्ञानिक चेतना के समर्थक महावीर प्रसाद द्विवेदी ब्राह्मण जाति में पैदा जरुर
हुए थे, लेकिन वे ब्राह्मणवादी नहीं थे | ब्राह्मणवाद के मुख्य चार आधार हैं- वर्णव्यवस्था, अवतारवाद, पुनर्जन्म और कर्मकांड
| द्विवेदी जी के जीवन, चिंतन और लेखन को देखने पर पता चलता है कि उस समय पूरी
दुनिया में विवेकवाद की जो लहर थी, उसके वे भारतीय रूप थे | लेकिन आज विमर्शकारों
द्वारा उनके चिंतन और लेखन को ब्राह्मणवादी करार देने में तनिक भी देरी नहीं की
जाती | विमर्शों के जरिए खंडित मुक्ति की जो बहस जारी है, उसमें उनके द्वारा
‘सरस्वती’ में प्रकाशित की गई हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ भी दलित
विमर्शकारों द्वारा उनका एक षडयंत्र बता दी जाती है | व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और
सम्पूर्ण मनुष्य जाति की मुक्ति का जो विराट स्वप्न द्विवेदी जी और उनके युग के
विवेकशील लोग देख रहे थे, उसको विमर्शकार मुक्ति के खंडित स्वप्न में बदलने में
लगे हुए हैं | यह हिंदी नवजागरण की मूल प्रतिज्ञा पर आघात-सा है|
(“महात्मा
गाँधी अंतररास्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय”, वर्धा तथा “महादेवी सृजन पीठ” के
संयुक्त तत्वावधान में महावीर प्रसाद दूवेदी की डेढ़ सौवीं जयंती के उपलक्ष में
२९-३० अगस्त २०१४ को रामगढ़ में आयोजित संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख|)
अत्यंत प्रेरक वक्तव्य..शुक्ल जी ने 'पुष्य स्मरण' के बहाने आचार्य द्विवेदी के सम्पूर्ण लेखन को हाशिए पर धकेल दिया| आज हिंदी के सामान्य विद्यार्थी द्विवेदी जी को भाषा सुधारक और विशेष रूप से 'शुद्ध भाषा के हिमायती" के रूप में जानते-पहचानते हैं| मजे की बात यह है कि आचार्य ने भाषा की तथाकथित शुद्धता वाले सिद्धांत का जीवन भर विरोध किया था| उनका जोर हिंदी के मानकीकरण पर था, संस्कृत भाषा के शब्दों को हिंदी में ठूँसकर कोई नई शुद्ध हिंदी तैयार करने पर नहीं|
ReplyDeleteहिंदी भाषा को ज्ञान-विज्ञान की विस्तृत भाषिक अर्थवत्ता से परिपूर्ण करने के उनके महान उद्यम को आज भुला-सा दिया गया है| आपका वक्तव्य निश्चय ही आचार्य के योगदान और प्रयत्न को नए सिरे से समझने के लिए हिंदी के सुधीजन को प्रेरित करेगा|
शुक्रिया आनंद |
Deleteबेहतरीन...
ReplyDeleteहाँ इस व्याख्यान को सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है...
मुझे याद है शशांक, रामगढ में आपसे मुलाक़ात|
Deleteहार्दिक धन्यवाद !
ReplyDeleteSir..adbhut
ReplyDeleteशुक्रिया |
Deletesir, aapke likhat-padhat ko padhkar sahi samajh ki ek khidki khulti hai..vicharon ko naye aayam milten hai...
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया जान कर ख़ुशी हुई|
Deleteमहावीर प्रसाद द्विवेदी जी की बारे में बहुत बढ़िया साहित्यिक जानकारी पढ़ने को मिली, इसके लिए आपका बहुत धन्यवाद ...
ReplyDeleteहिंदुस्तान एवं जनसत्ता में आपको ब्लॉग पोस्ट . "रागी मन की वापसी" पढ़ना अच्छा लगा ....हार्दिक बधाई..
आपने पढ़ा और पसंद किया| आभारी हूँ |
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद सर । महावीर प्रसाद द्विवेदी के बारे में आपने जो लिखा है ,ऐसी जानकारी पत्र पत्रिकाओं में न के बराबर होता है ।हमें यह तो पता है कि भारतेंदु को ( हरिशचंद्र ) की उपाधि किसने दी । लेकिन नहीं पता कि महावीर प्रसाद द्विवेदी को ( आचार्य ) की उपाधि किसने दी? मुझे तो आपसे पता चला इसके लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद सर
ReplyDeleteहिंदी साहित्य की जिस नयी इतिहास दृष्टि की ज़रूरत महसूस की जा रही है यह लेख उस दिशा मेँ महत्वपूर्ण प्रयास है। द्विवेदी जी जैसे रचनाकार बड़े इसलिए हैं कि उनकी चिंता के दायरे में सभी हैं स्त्रियाँ हों या अल्पसंख्यक। यह उस समय के विद्वानों की दूरदृष्टि थी जिसमे वे समन्वय के सूत्र तलाशते हैं। यह दुर्भाग्य है की हम इस विरासत को अनदेखा करते रहे हैं। द्विवेदी जी का पुण्यस्मरण उनके पुनर्मूल्यांकन से ही हो सकता है। इस पहल के लिए आपको बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छा आर्टिकल लिखा सर आपने भविष्य में यह हमें प्रेरित करता रहेगा।
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