Wednesday 5 October 2016

भीष्म साहनी : सादगी के सौन्दर्य का कहानीकार

भीष्म साहनी की कहानियों में चमक नहीं है  !
क्या यह कथन किसी कथाकार की छवि और विशिष्टता में बाधक  बनता है ?
प्रेमचंद,जैनेन्द्र,यशपाल आदि की कहानियों के पाठक को निर्मल वर्मा,मोहन राकेश,कमलेश्वर,कृष्णा सोबती आदि की कहानियों के  भाषागत,शिल्पगत और विषयगत जिस नएपन ने  चौंकाया था और एकबारगी कहानी की नई जमीन पर ला खड़ा किया था,उसकी कुछ कमी-सी भीष्म साहनी की कहानियों में लगती रही |
 लेकिन  इससे  उनकी लोकप्रियता प्रभावित नहीं हुई | नहीं हुई  तो  क्यों ?
 भीष्म साहनी की कहानियों पर सोचते हुए सबसे पहले ये बातें ध्यान में आईं | तभी उनकी समकालीन और महत्त्वपूर्ण कथाकार कृष्णा सोबती के एक लेख की याद आई|भीष्म जी पर  लिखते हुए उन्होंने कुछ ऐसा ही लिखा है,हालाँकि उन्होंने अपने कथन को दोस्तों के हवाले से कहा है :’’कुछ दोस्तों को भीष्म के साफ-सुथरे शिल्प और शैली में उस अतिरिक्त की कमी खटकती है जो खुद ही रचना को चमकाती-दमकाती है|’’
इस ‘अतिरिक्त की कमी’  उनके कथा-साहित्य में तो देखी ही गई,उनके जीवन में भी देखी गई|अपने उसी लेख में कृष्णा जी ने लिखा है :’’ भीष्म के रहन-सहन और सलीके में भी आप अंदाज देख सकते हैं|लेखक के व्यक्तित्व को रूमानी बनाने वाले चोंचले और किसी हद तक जरूरी साज-सामान भीष्म के यहाँ गैरहाजिर हैं|” उन्होंने आगे लिखा है : “
 मिसाल के तौर पर भीष्म की साफ़-सुथरी गृहस्थी में दूर-दूर तक भीष्म की किसी असली या काल्पनिक महबूबा का नाम हवा में नहीं लहराया|दरअसल भीष्म की बीवी ही इस सांझे आसन पर विराजमान है|दोस्तों का कहना है कि भीष्म को ‘एक में तीन ‘ जैसी बेनयाज बीवी मिली हुई है | बीवी,प्रेमिका और पाठिका-थ्री इन वन |”
    स्वाभाविक है कि जब न रचना में कुछ अतिरिक्त-सा चमक-दमक लाने वाला गुण हो और न  ‘रूमानी बनाने वाले चोंचले’  हों तो नयी कहानी के धमाकेदार जलसे में शामिल होकर भी वे  देर से आये पिछली पंक्ति के मेहमान मान लिए जाएँ |नयी कहानी दौर में भले ऐसा समझ लिया गया हो या समझाया गया हो,लेकिन ऐसा है नहीं|कृष्णा सोबती ने इस ‘अतिरिक्त की कमी’ के बावजूद उन्हें विशिष्ट कथाकार माना है |
      भीष्म साहनी नई कहानी के समय और उसके बाद भी सबसे अधिक पढे गए कहानीकार हैं| उनकी कहानियाँ शहर से लेकर गाँव तक और शिक्षित समाज से लेकर सामान्य कथा प्रेमियों के  बीच समान रूप से पसंद की गयीं-पढ़ी गयीं |उनके पास नई कहानी वालों  की तरह न तो भाषागत और न शिल्पगत सचेत रूप से  पैदा की गई चमक थी  और न व्यक्तित्व को  बनाने  और चमकाने वाले अपने इर्द- गिर्द मडराते कुछ सच -कुछ झूठ रोमानी  किस्सें थे जो नयी कहानी वालों ने अपने लिए चला रखें  थे| किस्सा कोताह यह कि बिना किसी अतिरिक्त चमक के  भीष्म सहनी ने नई कहानी और उसके बाद के दौर में वह मुकाम हासिल किया जो हिंदी कहानी में क्लासिकल मिजाज का दर्जा है,जो प्रेमचंद को बड़े पैमाने पर हासिल है|लिखने को उन्होंने उपन्यास भी लिखा, ‘तमस’ को पुरस्कार भी मिला और अपार लोकप्रियता भी मिली,पर मुझे लगता है कि उनकी बड़ी  देन कहानी के क्षेत्र में है| वे धीरे-धीरे स्थायी प्रभाव पैदा करने वाले कहानीकार बने |
 भीष्म सहनी और फणीश्वर नाथ रेणु वय में बड़े थे ,लेकिन कहानी-लेखन का उनका सिलसिला शुरू हुआ नई कहानीकारों के साथ|साथ का मतलब कदम ताल करते हुए- से नहीं,सामानांतर चलते हुए से है|एक की कथा भूमि गाँव है और दूसरे की शहरी मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय जीवन ,लेकिन दोनों में एक चीज समान है वह है कहानी को किस्सा बनाने की कला|’मैला आँचल’ के प्रकाश का तेज इतना प्रखर था कि रेणु का कहानीकार पक्ष उसके सामने दब-सा गया,साथ ही नई कहानी के शोर-शराबे से वे असम्पृक्त भी रहे|वे जब कहानी लेखन के क्षेत्र में आये तो वय में उनसे छोटे निर्मल वर्मा ,शिवप्रसाद सिंह ,अमर कान्त ,मार्कंडेय,शेखर जोशी आदि के साथ मोहन राकेश,कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव हिंदी कहानी में अपनी सक्रीय, साथ ही रचनात्मक उपस्थिति दर्ज करा चुके थे |उनके पास न निर्मल जैसी चमकदार भाषा थी,न शिल्प,न अन्यों की तरह यथार्थ को फैंटेसी बनाने का हुनर था और न लोक कथा के समान्तर नयी जीवन-स्थितियों  की कहानी बुनने की  कला|उनके पास प्रेमचंद और यशपाल जैसी सादगी से भरी भाषा थी और था  कहानी कहने का वही सादा ढंग|लेकिन इन सबके  ऊपर जो चीज उनके पास थी,वह था विशाल जीवन-अनुभव जो अनेक तरह के विस्थापनों और जीवन-स्थितियों से बना था|कहानीकार भीष्म साहनी की संवेदना का जो विस्तार है,उसकी तुलना में दूसरा नाम खोजना कठिन –सा  है|यही कारण है कि जो कहानीकार ‘चीफ की दावत’ और ‘समाधि भाई राम सिंह’ जैसी कहानी लिख सकता है,जो कहानीकार ‘अमृतसर आ गया है’ और ‘पाली’ जैसी कहानी लिख सकता है,वही ‘वांगचू’ भी लिख सकता है|इनसे एक कहानीकार के विस्तृत जीवन-बोध और वर्गों,सम्प्रदायों और देश-देशांतर की सीमाओं का अतिक्रमण करती उस कथा-संवेदना का पता चलता है जो हिंदी कहानी के क्षितिज का चुपचाप विस्तार करती है|
    कवि अरुण कमल ने भीष्म साहनी के सन्दर्भ में ‘धोखा देने वाली सादगी’ की चर्चा की है |इसका अर्थ यह है  कि भीष्म जी में जो सादगी है, वह अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह नहीं है| अरुण कमल के ही शब्दों में वह  ‘ भाषा के गहन संस्कार का फल है’|अपनी कहानी कला के लिए उन्होंने उस सादगी को सचेत रूप से अपनाया है|सादगी में भी सौन्दर्य होता है ,इसका सुन्दर उदाहरण भीष्म जी की कहानियाँ हैं| कोई नायाब प्लाट  खोज लेने की महत्त्वाकांक्षा और उसे नए शिल्प में प्रस्तुत करने के कथा-कौशल के लिए हलकान होने वाले कहानीकार नहीं है भीष्म सहनी|उनको पढ़ते हुए नई कहानी  के किसी कहानीकार को पढने का भाव मन में नहीं आता|आधुनिकता बोध को नई कहानी के कुछ लेखक  जीवन-मूल्य की तरह प्रचारित करते थे|भीष्म जी आधुनिकता-बोध की उस अवधारणा से सहमत नहीं थे|उन्होंने ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ की भूमिका में इस पर लिखा भी है|वे लिखते हैं :’’आधुनिकता-बोध की जिस कसौटी पर कहानी को परखा जाने लगा है उससे मैं सहमत नहीं हूँ|जहां कहानी जीवन का साक्षात्कार कराती है,उसके भीतर पाए जाने वाले अंतर्विरोधों से साक्षत्कार कराती है,वहाँ वह अपने आप ही समय और युग का बोध भी कराती है |पर आधुनिक –‘भाव बोध’ को साहित्य का विशिष्ट गुण मान लिया जाए तो हम दिग्भ्रमित ही होंगे |यदि कहानी में अवसाद है,मूल्यहीनता का भाव है,अनास्था है तो वह आधुनिक,और ...चूँकि आधुनिक है,इसलिए उत्कृष्ट है,इस प्रकार का तर्क मुझे प्रभावित नहीं करता|अपना भाग्य ढोते हुए इंसान का चित्र आधुनिक है,पर अपने भाग्य से जूझते हुए इंसान का चित्र असंगत है,अनास्था आधुनिक है,आस्था असंगत है,मृत्युबोध आधुनिक है और जीवन-बोध असंगत और निरर्थक है,इस प्रकार के तर्क के आधार पर साहित्य को परखना और उसके गुण-दोष  निकालना जिंदगी को भी और साहित्य को भी  टेढ़े शीशे में देखने की कोशिश है|’’
          कहानी को लेकर भीष्म साहनी की यह जो दृष्टि है,वह उन्हें अपने दौर के कहानीकारों से भिन्न और विशिष्ट बनाती है|यह भिन्नता और विशिष्टता ही उन्हें अपने दौर में अलग जगह भी दिलाती है,लेकिन ठीक से और सही जगह न रखे जाने का आधार भी बनती है|इसलिए यह अकारण नहीं है कि नई कहानी सम्बन्धी उस समय की चर्चा में भीष्म साहनी कहीं नहीं हैं या कम हैं | ऐसी दुर्घटना रेणु के साथ भी घटती है|
       सांप्रदायिक मानस की अचूक पहचान के लिए भीष्म जी की कहानियाँ हमेशा याद की जाती हैं और की जानी चाहिए|विभाजन  को लेकर हिंदी-उर्दू में दर्जनों कहानियाँ हैं|सबकी अपनी विशिष्टता है|लेकिन ‘अमृतसर आ गया है’ में साम्प्रदायिकता का बहुसंख्यक आबादी से क्या सम्बन्ध है,इसका जैसा सूक्ष्म रेखांकन इस कहानी में है वैसा अन्यत्र कम है|यह कहानी बोलती कम है पर प्रभाव ज्यादा पैदा करती है|अपनी जमात का संख्याबल किस तरह एक कायर-कमजोर को भी क्रूर चेहरे में बदल देता है,इसकी जबरदस्त पहचान यह कहानी करती है|’अमृतसर आ गया है’ भीष्म जी की और हिंदी की लोकप्रिय कहानियों में से एक है |इसकी चर्चा भी खूब हुई है|लेकिन सांप्रदायिक मानस की उनकी दूसरी  कहानी ‘पाली’ पर इस दृष्टि से कम ध्यान दिया जाता है|’अमृतसर आ गया है ‘ में जो कुछ है उसका प्रत्यक्ष चित्रण है,पर ‘पाली’ में  परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक मानसिकता के कारण एक बच्चे  की मन:स्थिति का बड़ा जो  सूक्ष्म और मार्मिक अंकन है, वह देखने लायक है |
   किसी पाठक को कोई कहानी क्यों अच्छी लगती है?इस ‘क्यों’ के अनेक कारण हो सकते हैं|लेकिन जो मुख्य कारण है वह पाठक के भरोसे को कहानी द्वारा जीत लिया जाना ही है |पाठक कहानी पर भरोसा तभी करता है जब उसमें सच्चाई का प्रमाणिक आधार मिलता है |यह प्रमाणिकता के कारण ही कोई कहानी  पाठक का भरोसा अर्जित करती है|भीष्म जी की कहानी-कला की सबसे बड़ी खूबी इस प्रमाणिकता की खोज है जो उनकी प्राय: हर  कहानी में मौजूद है|उन्होंने लिखा भी है : ‘’ कहानी का सबसे बड़ा गुण मेरी नजर में उसकी प्रमाणिकता ही है,उसके अन्दर छिपी सच्चाई जो हमें जिंदगी के किसी पहलू की सही पहचान कराती है|और यह प्रमाणिकता उसमें तभी आती है जब वह जीवन के अंतर्द्वंद्वो से जुडती है|तभी वह जीवन के यथार्थ को पकड़ पाती है|कहानी का रूप-सौष्ठव,उसकी संरचना,उसके सभी शैलीगत गुण,इस एक गुण के बिना निरर्थक हो जाते हैं|कहानी जिंदगी पर सही बैठे,यही सबसे बड़ी मांग हम कहानी से करते हैं|इसी कारण हम किसी प्रकार के बनावटीपन को स्वीकार नहीं करते- भले ही वह शब्दाडंबर के रूप में सामने आये,अथवा ऐसे निष्कर्षों के रूप में जो लेखक की मान्यताओं का तो संकेत करते हैं,पर जो कहानी में खपकर उसका स्वाभाविक अंग बनकर सामने नहीं आते|प्रमाणिकता कहानी का मूल गुण है|कहानी में यह गुण मौजूद है तो कहानी कला के अन्य गुण उसे अत्यधिक प्रभावशाली और कलात्मक बना पाएँगे|प्रमाणिकता कहानी की पहली शर्त है ” ( ‘मेरी प्रिय कहानियों की भूमिका से’)|भीष्म जी के इस कथन के आलोक में उनकी कहानियों का अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि यही चीज उनकी कहानियों में सर्वोपरि है |यह गुण उनकी सभी कहानियों में है –वह चाहे बहुप्रशंसित कहानी हो या कम चर्चित कहानी |यही कारण है कि उनकी कहानियां किसी वैचारिक सूत्र का कभी उदाहरण नहीं बनतीं ,हालांकि वे मार्क्सवादी थे और उस विचारधारा में उनका अटूट विश्वास भी था|एक कम्युनिस्ट होने के बावजूद भीष्म जी की कहानियों में विचारधारा का आग्रह या दबाव नहीं दिखाई देता तो इसका कारण उनकी कहानी सम्बन्धी धारणा में है|’दस प्रतिनिधि कहानियां’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है : ‘’.......प्रत्येक लेखक अंततः अपने संवेदन,अपनी दृष्टि,जीवन की अपनी समझ के अनुसार लिखता है|हाँ,इतना जरूर कहूँगा कि मात्र विचारों के बल पर लिखी रचना,जिसके पीछे जीवन का प्रमाणिक अनुभव न हो,अक्सर अधकचरी रह जाती है|” कृष्णा सोबती ने भी उनके राजनितिक विचार और कहानी रचना के संबंधों की पड़ताल की है और पाया है कि कहानी  की कीमत पर उन्होंने राजनीति को कभी भारी न पड़ने दिया| वे लिखती हैं :” ......भीष्म की राजनीति उसकी क्षमताओं को सिर्फ उकेरने वाली सहायक पूर्ति नहीं –वे मूल्य और आस्थाएं हैं जिनसे भीष्म का पूरा-का-पूरा दृष्टिकोण स्थिर हुआ है|.....’चीफ की दावत’ से लेकर ‘भगवान के आदमी’ तक की कहानियों में परिवेश के यथार्थ को भीष्म ने अपनी साहित्यिक मान्यताओं से परे नहीं जाने दिया|”
       मेरे मन में अक्सर एक सवाल उठता है कि कहानीकार भीष्म साहनी को पढ़ते हुए कभी  क्यों नहीं लगता कि हम एक कम्युनिस्ट कहानीकार को पढ़ रहे हैं ? यह गुण किसी लेखक में तब आता है जब वह विचारधारा का अतिक्रमण करने की रचनात्मक जीवन-दृष्टि अर्जित करता है|इसके सबसे सुन्दर उदाहरण नई कहानी दौर में भीष्म साहनी हैं| ‘चीफ की दावत’ की माँ  एक सनातन माँ है|एक प्रसिद्द पुरानी कहावत है –‘माई का दिल मलाई जैसा,पूत का दिल कसाई जैसा’|कोई नई बात नहीं है ‘चीफ की दावत’ में,लेकिन भीष्म जी नई बात पैदा कर देते हैं|कोई अतिरिक्त मुखरता नहीं है|रिश्तों के भीतर मनुष्यता की  गरिमा छीज रही है|लेकिन माँ की ममता में वह छीजन नहीं है|भीष्म जी  चुपचाप जिस तरह सनातन वात्सल्य  और उसकी निरंतरता को इस कहानी के जरिये रेखांकित करते हैं,वह हिन्दी पाठक की नजर से ओझल नहीं होता|सफलता के पीछे भागती आधुनिक पीढ़ी रिश्तों के महत्त्व को तो समझने में असमर्थ है ही,उसके अवचेतन में उसके प्रति घृणा भी है| ‘चीफ की दावत’ में रिश्तों की अहमियत से अनजान और सफलता के पीछे भागती पीढ़ी का जो चित्रण है, उसका आधार ख़ुदगर्ज और भरोसे की दुनिया की कशमकश है |यही गुण उनकी प्राय: सभी कहानियों में  है |इस कारण भीष्म साहनी की कहानियां हमारे अनुभव संसार की उपज लगती हैं,किसी विचारधारा या आईडिया की उपज नहीं |
      ‘वांगचू’ में संवेदना का अछोर विस्तार है|एक चीनी बौद्ध भिक्षु जो उपयोगिता की दृष्टि से दुनिया के किसी काम का नहीं है| एक अर्थहीन विश्वास में जीने वाला  ‘वांगचू’ कहानीकार के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है?लोगो को उसके होने में कोई अर्थ नहीं दिखाई देता,लेकिन कहानी में धीरे-धीरे उस व्यर्थ-से को अर्थ देता हुआ संगीत निरंतर बजता रहता है|वांगचू का जीवन जैसा शांत,स्थिरऔर आध्यात्मिक आभा लिए हुए है,इस कहानी के रचाव में भी कुछ-कुछ वैसा ही है |कहानी में ‘वांगचू’ के प्रवेश को बहुत ही खूबसूरत और नाटकीय अंदाज में कहानीकार प्रस्तुत करता है |’तभी दूर से वांगचू आता दिखाई दिया’- इस संक्षिप्त विवरण से कहानी की शुरुआत होती है|यह वाक्य एक पूरे अनुच्छेद की जगह है –कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कहता हुआ|दूसरे अनुच्छेद में जो कवित्वपूर्ण वर्णन है उसमें ऐसी पवित्र आभा है,जिसे किसी दूसरे शब्द के अभाव में आध्यात्मिक ही कहा जाएगा|वह यूँ है: ‘‘नदी के किनारे लालमंडी की सड़क पर धीरे-धीरे  डोलता-सा चला आ रहा है |धूसर रंग का चोगा पहने था और दूर से लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं की ही भांति  उसका सिर भी घुटा हुआ है|पीछे शंकराचार्य की ऊँची पहाड़ी थी और ऊपर स्वच्छ नीला आकाश |सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे सफेदे के पेड़ों की कतारें |क्षण-भर के लिए मुझे लगा,जैसे वांगचू इतिहास के पन्नों पर से उतरकर आ गया है|प्राचीन काल में इसी भांति देश-विदेश से आने वाले चीवरधारी भिक्षु पहाड़ों और घाटियों को लांघकर भारत में आया करते होंगे|अतीत के ऐसे ही रोमांचकारी धुंधलके में मुझे वांगचू भी चलता नजर आया|”
   ‘वांगचू’ में जो प्रसंग और चित्रण है,वह इसी तरह शांत,मंद गति से चलता हुआ और दिलचस्प किस्से की आभा से युक्त है |वह ऐसा चरित्र है जो न वह भारत के लिए उपयोगी है और न चीन के लिए |दोनों देशों में वह संदेह की दृष्टि से देखा जाता है |बौद्ध धर्म से सम्बंधित जो शोधकार्य वह कर रहा है,वह भी अर्थपूर्ण नहीं लगता और न साकार रूप ले पाता है|वह दुनियादारी के लिहाज से अनुपयोगी है |उसके न रहने से किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ता|कहानीकार भीष्म साहनी उस अनुपयोगी-से वांगचू को ऐसे रचते हैं जैसे वे उसे जी रहे हैं| रचते हुए कोई भावुकता ,रोमानीपन नहीं|कहानीकार निर्वैयक्तिक ढंग से वांगचू को इस रूप में हमारे सामने लाता है कि वह चुपचाप हमारे संवेदना का हिस्सा हो जाता है|उस कहानी में संवेदना का जो अछोर विस्तार,रोचक शैली और आध्यात्मिक-सी आभा है,वह कहानीकार भीष्म साहनी की बड़ी उपलब्धि है|अपनी इन विशिष्टताओं के चलते ‘वांगचू’ हिंदी कहानी के इतिहास का चुपचाप अमर चरित्र-बन जाता है|
      किसी विलक्षणता  या अनोखेपन के कहानीकार के नहीं हैं भीष्म साहनी|वे यदि ‘जीवन में सादगी पसंद सादामिजाज इनसान’ हैं तो कहानी में भी उनके यहाँ कथानक,भाषा और शिल्प सबमें सादगी का सौन्दर्य दिखाई देता है|इस सौन्दर्य की शोभा ही वह आकर्षण है जो उन्हें प्रेमचंद और यशपाल-सा लोकप्रिय भी बनाती है और पाठकों का विश्वास पात्र भी |जिन्हें उनकी सादगी में सपाटपन नजर आता है,उनको कृष्णा सोबती का यह कथन याद दिलाना जरूरी है : “भीष्म का पूरा व्यक्तित्व दाएँ-बाएँ का विस्तार नहीं|उसकी शख्सियत गहराई में बड़ी सादगी से अटी है |इसी से कई लोगों को भीष्म के लेखन की लकीर कुछ सपाट मालूम देती है|शायद इसलिए कि उनके समूचे लेखन में सहज साधारण पात्रों की बहुलता है,अनोखापन नहीं|”

       इसी के साथ यह भी कहने की जरूरत है कि इस सादगी के भीतर अदृश्य-सी तड़पती हुई जो लेखकीय ईमानदारी है,वह उनकी कहानियों की भीतरी शिराओं में आंदोलित वह रफ़्तार है जिसके बिना कहानीकार भीष्म साहनी को समझा नहीं जा सकता |

Saturday 1 October 2016

जनकवि और जनकविता

कवि मुकुट विहारी सरोज के नाम से ग्वालियर में  एक साहित्यिक सम्मान  दिया जाता है- ‘जनकवि मुकुट विहारी सरोज सम्मान’| यहाँ ‘जनकवि’ विशेषण ने ध्यान आकृष्ट किया | मुकुट विहारी सरोज को क्या ‘जनकवि’ उपाधि से विभूषित करना उचित है ? वे तो एक गौण कवि थे | तभी देखा कि कवि त्रिलोचन के लिए भी  ‘जनकवि’ उपाधि किसी ने प्रयुक्त की  है |विजय बहादुर सिंह की पुस्तक ‘जनकवि’ पर भी  ध्यान गया, जिसमें केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, शमशेर,मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय कुल छह  कवि  शामिल हैं | कवि नागार्जुन ने ‘जनकवि’ का प्रयोग अपने लिए किया है | नागार्जुन के प्रशंसक अक्सर उनके नाम में ‘जनकवि’ विशेषण जोड़ते रहे हैं | वैसे स्वयं नागार्जुन ने भारतेंदु के लिए ‘जनकवि’ विशेषण का प्रयोग किया है | इन कुछ दृष्टान्तों के अतिरिक्त लोग आदर के लिए जनकवि विशेषण का प्रयोग इधर के वर्षों में अपने प्रिय कवियों के लिए करने लगे हैं | जहाँ तक अनुमान है कि ‘जनकवि’ विशेषण के प्रयोग की प्रवृत्ति का चलन छायावाद के बाद की घटना है | मुझे लगता है कि पहले लोग किसी कवि को जब खूब आदर देते थे तो उसके नाम के पहले ‘महाकवि’ शब्द जोड़ते थे | यूँ महाकवि उसे कहा जाता था जिसने कोई महाकाव्य लिखा है, जैसे- महाकवि तुलसीदास | सूरदास ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा था, तब भी उन्हें महाकवि कहा गया | नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक ही है- ‘महाकवि सूरदास’| कहा गया कि सूर ने भले ही कोई महाकाव्य न लिखा हो, लेकिन वे महाकाव्यात्मक प्रभाव पैदा करने वाले कवि हैं | कबीर को महाकवि किसी ने कहा हो, इसकी याद नहीं | पहले  वे समाज सुधारक या संत थे | कवि रूप में प्रतिष्ठा उन्हें बहुत बाद में मिली | जायसी, सूर और तुलसी की तरह वे भी अब  महाकवि हैं | आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला आदि के लिए भी महाकवि पद प्रयुक्त होता रहा है | अब यह विशेषण सुनने को नहीं मिलता | अब किसी कवि को महाकवि कहने पर – चाहे जनवादी हो या गैरजनवादी – वह नाराज हो जाएगा | ऐसा कहना उसे अपना उपहास-सा लगेगा | लगता है उसकी जगह ‘जनकवि’ ने ले ली है | यह भी लगता है कि जनकवि कहना-कहलाना कवि-प्रशंसकों और कवियों को ज्यादा अच्छा लगता है |
महाकवि एक सुपरिभाषित पद था | इसका प्रयोग उसी के लिए किया जाता था जो इसका अधिकारी हो |  जिसने महाकाव्य न लिखा, लेकिन जो महान कवि हो, जैसे- निराला | आधुनिक काल में इसका बड़ा दुरुपयोग हुआ | हर ऐरा-गैरा कवि अपने को महाकवि कहलाना पसंद करने लगा | कवि सम्मेलन का संचालक हर कवि को ‘महाकवि’ कहकर बुलाने लगा | अब उसकी जगह जनकवि प्रचलन में है, लेकिन ‘जनकवि’ वैसा सुपरिभाषित पद नहीं है जैसा महाकवि था | तब प्रश्न है कि जनकवि कौन ? भारतेंदु, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुकुट विहारी सरोज आदि  तो जनकवि घोषित किए जा चुके हैं | इसकी परिभाषा स्पष्ट हो तो और भी नाम जुड़ेंगे | क्या जनकवि उसे कहेंगे जो जनता का कवि हो | तब प्रश्न उठेगा कि जनता का कवि कौन ? जनता के लिए तो सबने लिखा है | प्रसाद, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, धूमिल आदि सभी कवियों ने जनता के लिए लिखा है | तब प्रश्न उठेगा कि किस जनता के लिए ? उच्च वर्ग के लोग हिंदी कविता पढ़ते होंगे, इसमें संदेह है | निम्न वर्ग से जो किसान मजदूर हैं वे भी शायद ही कविता पढ़ते हों | उनकी जीवन-स्थितियां कविता के पढ़ने के अनुकूल नहीं है | ले-देकर मध्यवर्ग ही हिंदी कविता का पाठक हो सकता है | वकील, पत्रकार, अध्यापक, छात्र, अधिकारी, क्लर्क आदि को ही हिंदी कविता का पाठक माना जा सकता है | क्या इनके बीच जो लोकप्रिय है उसे जनकवि कहा जाए ?
जनकवि शब्दकोश में नहीं है | इससे पता चलता है कि यह पुराना शब्द नहीं है | अनुमान किया जा सकता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में जिन कविताओं को जनता गाती होगी, उनके लिए जनकवि विशेषण चलता होगा | यूँ १९४० के दशक   में लिखी अपनी कविता ‘भारतेंदु’ में नागार्जुन  ने भारतेंदु हरिश्चंद्र को ‘जनकवि’ कहा है | क्यों कहा है ? उ न्हीं से सुनिए :
हिंदी की है असली रीढ़ गवारु  बोली,
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हममें घोली...
हे जनकवि सिरमौर, सहज भाषा लिखवइया
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे, बाबू- भइया  |
शिक्षित जन जिसे गवाँरु बोली समझते हैं, वही हिंदी की असली ताकत है | ऐसा उत्तम विचार भारतेंदु का था | उनकी जैसी सहज भाषा लिखने वाला व्यक्ति ही ‘जनकवि सिरमौर’ है | यही कारण है कि उन्हें बाबू भइया का यानी ऊँचे तबके का समर्थन नहीं मिला | नागार्जुन की नजर में ऐसा ही व्यक्ति जनकवि हो सकता है | बाद में उन्होंने खुद अपने को जनकवि घोषित करते हुए लिखा :
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं
जनकवि हूँ, सत्य कहूँगा, क्यों हकलाऊं ?
यहाँ नागार्जुन के अनुसार जनकवि वह है जो जनता के जीवन-मरण के सवालों से परिचित  हो, जो यथार्थ चित्रण करता हो और साफ़-साफ़ दो टूक कहता हो | नागार्जुन की परिभाषा के आधार पर भारतेंदु और नागार्जुन दोनों जनकवि हैं | यूँ नागार्जुन प्रेमी नागार्जुन को ही प्रायः जनकवि कहते रहे हैं | ऊपर उद्धृत पंक्तियों से पता चलता है कि नागार्जुन के लिए जनकविता और जनकवि का सवाल हमेशा सर्वोपरि रहा है |
जनप्रियता के आधार पर बात करें तो मैथिलीशरण गुप्त की काव्य पुस्तक ‘भारत- भारती’ (१९१२ ई.) की याद सहज रूप से आती है | स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान यह काव्य पुस्तक खूब पढ़ी गई | यह कृति इतनी लोकप्रिय हुई कि गुप्त जी को ‘राष्ट्रकवि’ की लोकोपाधि मिली | ‘भारत-भारती’ में जनता की आजादी का प्रश्न केंद्र में था | सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ शीर्षक कविता स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान तो खूब लोकप्रिय हुई ही, आज भी लोकप्रिय है | बच्चन की ‘मधुशाला’ (१९३५) की अपार लोकप्रियता को हम भूले नहीं हैं | जाति-धर्म निरपेक्ष समाज की रचना का सपना ‘मधुशाला’ की केंद्रीय भाव-भूमि है | दिनकर की कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि जन आंदोलनों का नारा बन गई | १९४० के दशक में यदि नेहरु राजनीति में युवा हृदय-सम्राट बन गए थे तो हिंदी कविता के युवा हृदय-सम्राट दिनकर थे | सहज भाषा, स्पष्ट कथन, जनता और समाज के व्यापक सवालों के आधार पर गुप्त, बच्चन और दिनकर भी सच्चे अर्थों में जनकवि हैं | और भी कवि हैं जिनकी कवितायेँ जनता के बीच खूब लोकप्रिय हुई | १९६० के दशक में बिहार के हमारे अंचल के स्कूलों में एक गीत खूब लोकप्रिय था : ‘देश हमारा, धरती अपनी, हम धरती के लाल, नया संसार बनायेंगे, नया इंसान बनायेंगे |’ यह किसकी कविता है, न हमें मालूम था, न शायद हमारे शिक्षकों को | बाद में पता चला कि प्रगतिशील कवि ‘शील’ का गीत है | दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल-पंक्तियाँ अक्सर साधारण लोगों द्वारा उद्धृत की जाती हैं  | इन ग़ज़लों में जनता के सवाल भी है और भाषा का सहज रूप भी है | धूमिल की काव्य पंक्तियाँ भी अक्सर लोग दुहराते हैं | सवाल है कि ये सभी कवि जनकवि क्यों नहीं हैं और उनकी कविताएँ  जन कविता क्यों नहीं हैं ? कोई पूछ सकता है कि जनकविता किसे कहा जाए ? जनकविता पद का प्रयोग किए बिना तुलसीदास ने वैसी कविता को मानस में इस रूप में परिभाषित किया है कि आदर पाने योग्य वही कविता है जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र वाले व्यक्ति का वर्णन हो और जिसकी प्रशंसा शत्रु भी करें :
सरल कबित कीरति बिमल सो आदरहिं सुजान |
सहज बयर बिसराह रिपु जो सुनि करहिं बखान ||
कविता के इस आदर्श को लेकर चलने के कारण ही तुलसीदास जन-जन के कवि बने | बड़ी से बड़ी बात को सहज ढंग से कह देने की कला तो  कोई तुलसीदास से सीखे | यही कारण है कि निराला ने उन्हें ‘अशेष छविधर’ कवि कहा तो त्रिलोचन ने उन्हें अपना आदर्श कवि घोषित किया – ‘तुलसी बाबा, कविता मैंने तुमसे सीखी, मेरी सजल चेतना में तुम रमे हुए हो |’ तुलसीदास की सरलता दिनकर को इतनी प्रिय थी कि उन्होंने एक बार कहा था कि हम रिल्के की बात तुलसीदास की सफाई से कहना चाहते हैं | कविता में यह सरलता बड़ी बात है | तभी तो प्रचंड पांडित्य के धनी और  रामकथा लिखने वाले केशवदास जनता के बीच ‘कठिन काव्य का प्रेत’ बनकर रह गए |
कविताएँ जनता की जुबान पर दो कारणों से चढ़ती हैं |एक तो पाठ्यक्रमों  में शामिल कवितायें प्रायः लोगों को याद हो जाती हैं|पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से शामिल होने के कारण प्रसाद ,निराला,अज्ञेय ,मुक्तिबोध आदि कवियों की कुछ एक पंक्तियाँ भी लोगों की जुबान पर हैं| लेकिन  भारतेंदु ,मैथलीशरण गुप्त ,सुभद्रा कुमारी चौहान ,बच्चन ,दिनकर नागार्जुन ,धूमिल आदि की कवितायें यदि लोगों की जुबान पर हैं तो इसका कारण इनके भीतर का वह काव्य-गुण है,जो उन्हें सहज ही स्मरणीय बना देता है| जनकवि वही है जिनकी काव्य-पंक्तियाँ सहज रूप में याद हों,जो जन आन्दोलनों का हिस्सा रही हों और जिन्हें समझने के लिए किसी आलोचक की जरुरत न हो |सच्चे अर्थ में तो  हिंदी भाषी क्षेत्र के जनकवि कबीर ,सूर,और तुलसीदास जैसे कवि ही माने जायेंगे |आधुनिक युग में साहित्यिकता के साथ लोकप्रियता की दृष्टि से मैथलीशरण गुप्त और बच्चन की मधुशाला का स्थान सबसे ऊपर है| बिना पाठ्यक्रम में शामिल हुए इन काव्यकृतियों का जादू पाठकों के ऊपर बना रहा |

  जनकवि जैसा कोई प्रत्यय अंग्रेजी कविता में नहीं है |वहाँ शेक्सपियर के लिए भी  इस तरह का कोई शब्द नहीं चलता | उर्दू में भी ‘शायरे-इन्कलाब’ तो है पर ‘शायरे अवाम’ नहीं | हाँ , मीर और नजीर अकराबादी जैसे शायरों को कुछ लोग अवामी शायर कहते हैं |  हिंदी में भी यह कोई पद नहीं है|नागार्जुन ने जब अपने को जनकवि कहा तो भाव यह था कि वे जनता से प्रतिबद्ध कवि हैं| उनके भीतर अपनी कविता के जरिये जनता तक पहुचने की बलवती चाह भी थी| इसलिए विषयवस्तु के साथ शिल्प शैली के प्रयोग में उन्होंने जन रूचि का ध्यान रखा |आज जो कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं उनमें जनता के प्रति प्रतिबद्धता तो दिखती है ,लेकिन संप्रेषणीयता के उस गुण का अभाव है ,जो उसे जन प्रिय भी बनाता है | इसलिए हिंदी कविता के सन्दर्भ में जन कविता का प्रश्न विचारणीय विषय  होना चाहिए |