Tuesday 9 October 2018

राजकिशोर :सबसे योग्य और नैतिक आवाज




मूल्य और विचार आधारित पत्रकारिता की जो परंपरा रही, उसके संभवतः अंतिम और बड़े नाम राजकिशोर थे. उनकी उपस्थिति मूल्य आधारित पत्रकारिता की याद दिलाती थी. उन्होंने मूल्यों और विचारों से कभी समझौता नहीं किया. हमारे समय में राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी और राजकिशोर हिंदी पत्रकारिता की ऐसी त्रयी थे जिनके होने मात्र से मूल्यों और विचारों के बचे रहने का भरोसा जगता था. तीनों की अलग-अलग शैलियाँ और अंदाज थे. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इनके लिखे में हिंदी पत्रकारिता की सबसे नैतिक और योग्य आवाज सुनाई देती थी. माथुर साहब और प्रभाष जोशी तो प्रतिष्ठित राष्ट्रीय दैनिकों के संपादक हुए और उन्हें वह सबकुछ मिला जो उन जैसे बड़े पत्रकारों को मिलना चाहिए. लेकिन इस मामले में राजकिशोर बड़भागी न रहे. वे किसी बड़े दैनिक के संपादक न बन सके. दैनिक पत्रों के वे संपादक मंडल में ही रहे. कुछ मासिक पत्रिकाओं का संपादन उन्होंने जरुर किया. वे जिस भी पत्र में होते, संपादक या उप-संपादक के रूप में, उनके होने मात्र से उसमें एक नयी चमक आ जाती थी.
            कलकत्ता में जन्मे (2 मार्च 1947), पले, बढ़े और शिक्षित हुए. राजकिशोर 1990 में राजेन्द्र माथुर के बुलावे पर दिल्ली आए और ‘नव भारत टाइम्स’ में सहायक संपादक के रूप में काम शुरू किया. उसके पहले कलकत्ता के ‘रविवार’ साप्ताहिक और ‘परिवर्तन’ का वे संपादन कर चुके थे. इन पत्रों के जरिए वे दृष्टि संपन्न और विचारशील पत्रकार के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे. लेकिन दिल्ली आए तो दिल्ली के होकर ही रहे. कलकत्ता के लिए कभी हाय-हाय नहीं किया, जैसा कि हम आमतौर पर अपनी छुटी हुई जगहों के लिए किया करते हैं. दिल्ली में अलग तरह का संघर्ष और चुनौतियाँ थीं, लेकिन यहाँ काम करने का अवसर भी था. ‘नव भारत टाइम्स’ से विद्यानिवास मिश्र के कार्यकाल में हटा दिए जाने के बाद उन्होंने संघर्ष भी खूब किया और लिखा भी खूब. ‘आज के प्रश्न’ श्रृंखला में लगभग दो दर्जन पुस्तकों का संपादन किया. साथ ही ‘सुनंदा की डायरी’ (उपन्यास), ‘एक अहिंदू का घोषणा-पत्र’, ‘एक भारतीय के दुःख’, गाँधी मेरे भीतर’, ‘स्त्रीत्व का दुःख’ आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की. अभी बड़ी संख्या में उनका लेखन बिखरा हुआ है. इसे संकलित और प्रकाशित करने से हिंदी की वैचारिक दुनिया समृद्ध होगी.
            राजकिशोर के वैचारिक मानस के निर्माण में भारत के समाजवादी आंदोलन, विशेषकर राममनोहर लोहिया के विचारों का गहरा प्रभाव था. लोहिया की मौलिकता और गद्य का जो खुरदुरापन था, उससे राजकिशोर का लेखकीय व्यक्तित्व बना था. वे दूसरे लोहियावादियों की तरह मार्क्स के विरोधी नहीं थे. वे मार्क्स से जरूरत पड़ने पर वैचारिक ऊर्जा लेते थे. लेकिन भारत के कठमुल्लावादी कम्युनिस्टों को उन्होंने कभी पसंद नहीं किया. इधर के वर्षों में डॉ. अम्बेडकर के विचारों से वे प्रभावित हुए थे और भारतीय समाज में दलित समस्या  के समाधान की दिशा में बोलने और लिखने लगे थे. लेकिन वहाँ भी वे किसी वैचारिक जड़ता को पसंद नहीं करते थे. ‘आज के प्रश्न’ श्रृंखला में ‘दलित राजनीति की समस्याएं’ नामक पुस्तक के जरिए उन्होंने दलित राजनीति को भी आलोचनात्मक ढंग से देखा. उन्होंने अपने संपादाकीय में लिखा कि- “दलित राजनीति को अक्सर दलित आन्दोलन का पर्याय मान लिया जाता है. इसमें क्या शक है कि दलित आन्दोलन न होता, तो दलित राजनीति कहाँ से आती. लेकिन इसमें शक है कि दलित राजनीति दलित आन्दोलन को आगे बढ़ा रही है. महाराष्ट्र में डॉ. अम्बेडकर की जुझारू राजनीतिक परंपरा तो ख़त्म-सी हो ही चली है, उत्तर भारत में बहुजन समाजवादी पार्टी पूरी तरह से नैतिक और वैचारिक क्षय की शिकार है. आत्म-सम्मान के लिए संघर्षरत दलित मध्यवर्ग के आन्दोलन से निकली बसपा की आकांक्षा यह थी कि पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को अपने भीतर समेटते हुए वह भारत के वंचित शोषित बहुजन का प्रतिनिधित्व करेगी. लेकिन आज न वह केवल दलितों की पार्टी बन गई है, बल्कि दलित राजनीति को किसी ऊंचाई पर ले जाने में असमर्थ दिखाई देती है”. राजकिशोर जी यह मानते थे कि दलित ही  अपनी समस्याओं को ठीक से समझ सकते हैं, वे दलित राजनीति का भी अच्छा विश्लेषण कर सकते हैं . लेकिन इसी के साथ वे यह भी मानते थे कि दलितों के संघर्ष में गैर-दलितों को भी सहकार करना चाहिए. उनका विश्वास था कि अन्य लोगों द्वारा की गई समीक्षा के प्रकाश में दलित समुदाय अपनी राजनीति का वस्तुपरक विश्लेषण कर सकता है. इसीलिए उन्होंने अपनी किताब में दलित विचारकों के साथ गैर-दलितों को भी शामिल किया.
            राजकिशोर जी धुंआधार लिखने वाले विचारक पत्रकार थे. ‘नवभारत टाइम्स’ से हटने के बाद उनके लेखन में और गति आई. वे हम जैसे मित्रों से भी निरंतर लिखने की अपेक्षा करते थे. वे जिस पत्रिका से जुड़े होते थे, उसमें लिखने के लिए हमसे भी आग्रह करते थे. उनके पास विषय और शीर्षक के नएपन की भरमार थी. वे कोई फड़कता  हुआ रचनात्मक शीर्षक सुझाते और लिखने का आग्रह करते. उनके आग्रह पर कभी-कभी लिखा भी मैंने. लेकिन कभी-कभी असमर्थता भी व्यक्त की कि लिखने के लिए सन्दर्भ पुस्तकों को देखना भी जरूरी है और उसके लिए अभी मेरे पास समय नहीं है तो वे हमें झकझोरते कि लिखना तो आनंद का काम है, टिप्पणियाँ स्मृतियों के सहारे लिखनी चाहिए, रेफरेंस की जरुरत अकादमिक लेखन में होनी चाहिए. लिखना उनके लिए आनंद का काम इसलिए था कि वे लिखने को सामाजिक और बौद्धिक एक्टिविजम समझते थे.
            राजकिशोर का लेखन साहित्यिक संवेदना और अस्मितामूलक विमर्शों की चेतना से लैश था. वे गरीबी, जाति, स्त्री, रंग आदि के प्रश्न की अनदेखी करके लिखने वाले लेखक नहीं थे. उनके लिखे में साहित्यिक सन्दर्भ भी बार-बार आते हैं जिसके कारण उनके लेखों का प्रभाव कई गुणा बढ़ जाता था. वे हिंदी के बहुपठित पत्रकार-लेखक थे. हिंदी समेत दुनिया के अनेक लेखकों-विचारकों के सन्दर्भ उनके लेख में आते जो उनकी व्यापक अध्ययनशीलता का प्रमाण देते थे. भाषा की शुद्धता और समझ को लेकर वे बहुत आग्रहशील थे. वे अपने नजदीकी मित्र के लेखन में भी भाषाई दोष को नजरंदाज नहीं करते थे. वे जिस किसी नए लेखक से लिखने का आग्रह करते, यह पहले जाँच लेते कि उसकी भाषाई क्षमता कैसी है. इस अर्थ में वे पुरानी परंपरा के बहुपठित और बहुभाषी पत्रकारों की जमात के आदमी थे. उनसे जैसी भी असहमति हो, ज्ञान और भाषा की उनकी समझ से असहमति किसी की नहीं होती थी.
            मित्रवत्सलता राजकिशोर के व्यक्तित्व का ऐसा गुण था जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. मेरी एक किताब का पुस्तक मेले में लोकार्पण होना था, मैंने कहा कि आप ही उसका लोकार्पण कर दें. वे आने की मनःस्थिति में नहीं थे, लेकिन मेरे आग्रह पर आए और खूब बोले भी. अगले सप्ताह एक अखबार में ‘मेले में गोपेश्वर’ नाम से टिप्पणी भी लिखी जो एक तरह से मेरी किताब की समीक्षा थी. समीक्षा का यह उनका अपना ढंग था. वह साहित्यिक कम सामाजिक महत्त्व पर अधिक जोर देने वाला था.
            इधर के दिनों में वे समाजवादी आन्दोलन के बिखर जाने से बहुत बेचैन थे. फोन पर या मिलने पर राजनीति और समाज संबंधी अपनी बेचैनी भी शेयर करते थे. इसी सिलसिले में वे कई बार मेरे घर भी आए. एक बार उनके साथ विमला भाभी भी थीं. वे चाहते थे कि दिल्ली में गाँधी, लोहिया, अम्बेडकर आदि की वैचारिकी से प्रभावित जो बुद्धिजीवी हैं, जो कठमुल्ले नहीं हैं, उनका एक मंच होना चाहिए. उन्हीं की पहल पर कुछ साथियों की मदद से ‘संवेदन’ नाम का एक वैचारिक मंच बना जिसके जरिए कुछ अच्छे आयोजन हमने दिल्ली में किये. राजकिशोर जी हर आयोजन में उत्साहपूर्वक शामिल हुए. इधर के दिनों में देश और समाज में जो राजनीतिक सामाजिक स्थितियां हो गई हैं उससे वे बहुत बेचैन थे. वे कहते थे कि इन हालातों से कोई पार्टी ईमानदारीपूर्वक नहीं लड़ रही है. वे अक्सर कहते कि हमलोगों को एक नए राजनीतिक दल का गठन करना चाहिए और सही परिवर्तन के लिए संघर्ष करना चाहिए. हम उन्हें बताते कि राजनीतिक दल का गठन हम आप जैसे बुद्धिजीवियों से संभव नहीं है, उसकी अनेक कठिनाइयां हैं तब भी वे राजनीतिक दल बनाने की अपनी बात पर अड़े रहते थे. उनके आग्रह पर जब मुझ जैसे साथियों ने ध्यान नहीं दिया, तब उनका जोर इस बात पर पड़ा कि हमें एक ऐसी वैचारिक पत्रिका निकालनी चाहिए जिसकी प्रसार संख्या ज्यादा हो. इसके जरिए वे जन सामान्य को वैचारिक रूप से समृद्ध करने का भाव रखते थे. पत्रिका का निकलना शायद संभव होता तबतक उनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा.
            राजकिशोर जी की मित्रवत्सलता भी बहुत रचनात्मक होती थी. तीन साल पहले मेरे जन्मदिन से एक दिन पूर्व उन्होंने फोन किया कि जन्मदिन पर मैं क्या कर रहा हूँ. मैंने जब उन्हें बताया कि मैं अपना जन्मदिन नहीं मनाता हूँ तब उन्होंने एक बहुत ही रचनात्मक सुझाव दिया. उन्होंने कहा कि कल के दिन मैं आपके साथ रहना चाहता हूँ. आप अपने किसी वैचारिक हीरो पर बोलिए. मैंने कहा कि यह संभव है लेकिन तब जब आप उपस्थित रहेंगे. मैंने कहा कि मैं राममनोहर लोहिया की संस्कृति चिंता पर बोलूँगा. वे सहर्ष आए और दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर छात्रावास में हमलोग मिले. दिल्ली विश्वविद्यालय के अनेक अध्यापकों और छात्रों के बीच लोहिया की संस्कृति चिंता पर बात करते हुए और चाय पीते हुए उनकी अध्यक्षता में मेरा 60वाँ जन्मदिन मनाया गया. उन्होंने उस दिन एक महत्त्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा कि यदि हमें अपना जन्मदिन मनाना ही है तो हमें उस दिन उस आदमी को याद करना चाहिए जिनका हमारे निर्माण में महत्त्व है. 
            खुरदुरापन राजकिशोर जी के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा था. रहन-सहन से लेकर बोली-बानी और लेखन सब में खुरदुरापन था. वैसा ही खुरदुरापन जैसा गाँधी युगीन खादी में हुआ करता था. अपने लेखन और व्यक्तित्व में इसी खुरदुरे सौंदर्य को उन्होंने जीवन भर बनाए रखा.  इसी कारण समाज का अंतिम जन उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा रहा. लिखा तो उन्होंने कई विधाओं में लेकिन सबसे अधिक याद किया जाएगा उनका वह वैचारिक लेखन जो गाँधी, लोहिया और अम्बेडकर के जादुई स्पर्श से नई चमक के साथ हिंदी समाज को प्रकाशित करता रहा.