Thursday 16 April 2015

हर कोशिश है एक बगावत


राजेंद्र कुमार को आप जानते हैं| वो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर-अध्यक्ष रह चुके हैं| वे जितने अच्छे अध्यापक हैं उतने ही अच्छे मनुष्य| सादगी, सरलता और मित्र-वत्सलता उनके व्यक्तित्व के अभिन्न हिस्से हैं| वे चेतना से प्रगतिशील हैं, जन संस्कृति मंच से उनका जुड़ाव है, लेकिन उनमे वैचारिक कठमुल्लापन बिलकुल नहीं है| वैचारिक चेतना से अधिक उनके व्यक्तित्व में नैतिक चेतना की आभा है| वे जितने अच्छे आलोचक हैं, उतने ही अच्छे कवि भी| उन्होंने कुछ बेहतरीन कहानियां भी  लिखी हैं, लेकिन उनके कवि-कहानीकार पक्ष पर कम ध्यान दिया गया है| इसका कारण वे स्वयं हैं| अपने इस रचनात्मक पक्ष से वे स्वयं उदासीन रहते हैं| कविता- कहानी लिखना उनके लेखकीय जीवन का कभी-कभार है| उनकी बौद्धिक चेतना अक्सर आलोचना का ही पक्ष लेती रहती है और  इस क्षेत्र में उनकी बहुत ही साफ़ और समर्थ पहचान भी है.... लगभग तीन दशक पहले उनका पहला काव्य-संग्रह "ऋण-गुणा-ऋण" नाम से आया था| यह संग्रह मुझे पसंद आया था|  मैंने इसकी  समीक्षा पटना के "दैनिक-जनशक्ति" में "कविता में धनात्मक योगदान" शीर्षक से लिखी थी| लगभग तीन दशक बाद उनका दूसरा काव्य-संग्रह "हर कोशिश है एक बगावत" नाम से एक-डेढ़ साल पहले आया तो मुझे ख़ुशी हुई| कई अर्थों में यह एक बढ़िया काव्य-संग्रह है| इस संग्रह में कई अच्छी कविताएँ हैं जो कई नामी कवियों की कविताओं से बीस पड़ती हैं| इसमें कुछ गंभीर और जटिल कवितायेँ हैं तो कुछ सादगीपूर्ण लेकिन व्यंजकता से भरी हुई सुन्दर कवितायेँ भी, जिनने  मुझ जैसे पाठक का ध्यान आकृष्ट किया| इस संग्रह में "मनमोहनी अदा का दावतनामा" शीर्षक कविता है जो अपनी सादगी और व्यंजकता की बेजोड़ बानगी प्रस्तुत करती है| मेरा आग्रह है की इस संग्रह की ओर  हिंदी पाठक- समाज का ध्यान जाना चाहिए| फ़िलहाल इस संग्रह से उपर्युक्त कविता आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है-
आइए जहाँपनाह, मुल्क की तरक्की के

अपने ईजाद किये गुर हमे बताइए!
राज हमारा भी चले और आपका भी चले,
जुगत कोई अच्छी-सी ऐसी भिडाइए! 
खेल में हम आपके शरीक होंगे मोहरे बन
अपनी बिसात जैसी चाहिए, बिछाइए!
यह मनमोहनी अदा का दावतनामा है
करिए क़ुबूल, हमें अपना बनाइये!

वह जो हमारा ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन था,
उससे हम आज बहुत बढ़ आए हैं!
अब तो यह दौर है उदारता की वार्ता का,
‘असहयोग’ आदि तो इतिहास की बलाएं हैं!
मल्टीनेशनली विकास का तकाजा है- 
भारत को पकड़े जो भारत में आए हैं!
देश अब स्वदेश नहीं ऐसा बाज़ार बने-
जहाँ, जो भी अपने हैं वो भी पराएँ हैं!

जनता की फ़िक्र में जो दुबला है, हुआ करे
आपको क्या, आप अपनी सेहत बनाइए!
चुन लीजिये कुछ अच्छे-अच्छे-से व्याख्याकार
नीतियों की मनमाफिक व्याख्या कराइए!
यहाँ किसे फुर्सत हैं जाँच-परख करने की
परदा बन सबकी आँखों पर पड़ जाइए!
सारी आवाज़े गुम हों, जिसके बजने पर,
ढफली कुछ ऐसी चहुँ ओर बजवाइए!

कभी इस मुल्क में हुआ था कोई मोहनदास,
गाँधी था वह तो, उसे माला पहनाइए!
अब तो जो सामने है, आपका मनमोहन है
जैसे मन करे, इसे वैसे आजमाइए!
चाँदी रहे हम दोनों राजकाज वालों की, 
यही हम मानते हैं, आप भी मनाइए!
मछलियाँ किसी भी तालाब की हों, मनचाही- 
हम भी फंसायें और आप भी फंसाइए!
यह मनमोहनी अदा का दावतनामा है,
करिए क़ुबूल, हमें  ग्लोबल बनाइए!

Saturday 11 April 2015

रेणु और राजनीति

११ अप्रैल अमर कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की पुण्य तिथि है| उनकी याद आई तो अपना प्रिय नगर पटना भी याद आया| राजेंद्र नगर स्थित उनका फ्लैट, कॉफ़ी हाउस, मैगज़ीन सेंटर आदि वो सारी जगहें याद आयीं, जिनसे उनका जीवंत संपर्क था| कॉफ़ी हाउस का वो कोना याद आया, जहाँ वे नियमित तौर पर लेखकों से घिरे बैठते थे| साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता के तब के वे नौजवान चेहरे याद आए जिनके भीतर परिवर्तन का तूफानी जज्बा था और जो रेणु के आस-पास हमेशा दिखाई देते थे| रेणु उनके साहित्यिक ही नहीं राजनीतिक प्रेरणा पुरुष भी थे| वे सभी आज अपने-अपने क्षेत्र में उसी जज्बे से काम कर रहे हैं| किसी लेखक ने अपने इर्द-गिर्द के इतने लोगों को प्रेरित और प्रभावित किया हो, इसके उदाहरण बहुत कम मिलेंगे|
      रेणु ने साहित्य और राजनीति के संबंधों की परिभाषा बदल दी और उसे एक नयी दिशा दी| वे विचारों से समाजवादी थे और जे. पी.-लोहिया वाली सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य रह चुके थे| सुना है कि पटना में नया टोला स्थित जो पार्टी कार्यालय था उसमे वे नियमित बैठते थे और कार्यालय सचिव थे| जय प्रकाश नारायण उनके राजनीतिक गुरु-नेता थे जिनके विरुद्ध कुछ भी सुनना उन्हें पसंद नहीं था| जे. पी.- लोहिया के कारण नेपाली राजशाही के खिलाफ चले आन्दोलन में भी उनकी प्रमुख भूमिका थी| लेकिन जे. पी. जब समाजवाद को अलविदा कह कर सर्वोदय में चले गए तो रेणु भी सक्रिय राजनीति से लगभग निष्क्रिय हो गए| १९७२ में पता नहीं किस भरोसे उन्होंने बिहार विधान सभा का चुनाव अपने इलाके से निर्दलीय उमीदवार के तौर पर लड़ा, जिसमे उनकी जमानत ज़ब्त हो गयी थी| उस दौरान किसी साप्ताहिक पत्र में उनका एक इंटरव्यू छपा था| पत्रकार ने पूछा था कि आप लोगों से कैसे वोट मांगेंगे? उन्होंने बड़ा दिलचस्प जवाब दिया था| उन्होंने कहा था कि मैं उन्हें रामचरित मानस के दोहे- चौपाईयां और दिनकर की कविताएँ सुनाऊंगा| जाहिर है कविता से वोट नहीं मिलना था और नहीं मिला| वे हार गए| रेणु की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी १९७४ में जब छात्र आन्दोलन की कमान छात्र नेताओं के आग्रह पर जे. पी. ने संभाली| रेणु तन-मन-धन, तीनो के साथ जे. पी के पीछे खड़े हो गए| उस आन्दोलन में बड़ी संख्या में साहित्यकार और पत्रकार शामिल हुए जिसमे सबसे अग्रणी भूमिका फनीश्वर नाथ रेणु की थी| धरना-प्रदर्शन, जेल यात्रा, सबकुछ किया रेणु ने| उनके नेतृत्व में पटना समेत बिहार के अन्य नगरों में नुक्कड़ काव्यपाठ का सिलसिला शुरू हुआ जो अपनी तरह का साहित्य और राजनीति का जीवंत सम्बन्ध था| आन्दोलन के दौरान जे. पी पर जब लाठी-चार्ज हुआ तो विरोध-स्वरुप रेणु ने अपनी पद्मश्री के उपाधि तो लौटाई ही, बिहार सरकार से प्रति माह लेखकों को मिलने वाली आर्थिक मदद भी लौटा दी, जब की वे मसिजीवी लेखक थे|
      रेणु गहरे और व्यापक अर्थों में राजनीतिक लेखक थे| मैला आँचल भारत के गाँव की धड़कती तस्वीर पेश करने वाले गोदान के बाद हिंदी का दूसरा उपन्यास है| मैला आँचल में आजाद भारत की राजनीतिक दशा-दिशा जितने रचनात्मक ढंग से चित्रित हुई है उसकी मिसाल अन्यत्र शायद ही देखने को मिले| रेणु ने साहित्य को राजनीति का पिछलग्गू न बनने दिया| वे सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता  जरूर थे लेकिन अपने उपन्यास मैला आँचल में उन्होंने उसकी चीर-फाड़ में कोई कोताही नहीं बरती| वे महान लेखक इस लिए बन सके क्योंकि उन्होंने अपनी राजनैतिक लाइन का अतिक्रमण किया| कहा जाता है कि रेणु कबीर पंथी थे| पर इससे क्या? उन्होंने मैला आँचल में कबीर-पंथी मठ की जैसी आलोचना की वैसी आलोचना की उम्मीद किसी अनुयायी से तो नहीं ही की जाती| यही कारण है कि मैला आँचल का बावन दास आज़ादी के बाद के आए हिंदी उपन्यासों का सबसे कद्दावर चरित्र है| काला बाजारियों के हाथों बावन दास की मृत्यु दरअसल स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा देखे गए सपनों की मृत्यु है| स्वतंत्र भारत की राजनीति के व्यवहार और आदर्श के द्वंद्व की मैला आँचल जैसी त्रासद कथा हिंदी में दूसरी नहीं है| मार्क्सवादी लेखक राजनीति से अपने संबंधों को अक्सर महिमा मंडित करते रहते हैं और गैर मार्क्सवादियों को अराजनीतिक बताते रहते हैं| जे. पी.- लोहिया के नेतृत्व में चलने वाला समाजवादी आन्दोलन इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि इसने लेखकों की कितनी बड़ी जमात को प्रेरित-प्रभावित किया| रामवृक्ष बेनीपुरी, विजयदेव नारायण साही, फणीश्वर नाथ रेणु आदि लेखकों की सक्रिय राजनीतिक कार्यवाहियों से पता चलता है कि क्रांति-आन्दोलन आदि सिर्फ मार्क्सवादी लेखकों के ही हवाले नहीं है| जनता और जनसरोकारों की चिंता करने वाली एक दूसरी साहित्यिक धारा भी हिंदी में हैं, जिसकी अनदेखी प्रायः मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों ने की है|
      सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुई जनता-सरकार की विफलता और विभत्सता देखने के लिए अपने राजनीतिक गुरु जे. पी. की तरह रेणु भी जीवित न रहे| जनता-सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद पेप्टिक-अल्सर के ऑपरेशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी................ उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद हमारी मुलाकात कवि नागार्जुन से हुई| वे एक फूटपाथी दूकान में, जहाँ अक्सर मजदूर और रिक्शे वाले भोजन करते हैं, रोटी खा रहे थे| यह दृश्य हम नौजवानों के लिए आश्चर्यजनक था| हमारे एक साथी ने पूछा, “ बाबा, रेणु जी यहाँ बैठ कर रोटी खाते या नहीं?” नागार्जुन कुछ देर चुप रहे| फिर संजीदगी से बोले,’ रेणु यहाँ रोटी नहीं खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए गोली खा लेते|” जनता के एक लेखक द्वारा जनता के ही  दूसरे लेखक की यह नयी पहचान थी| जनता का लेखक सिर्फ वही नहीं होता जो उनके बीच उठता-बैठता है, वह भी होता है जो उनके लिए लड़ता है| यह कम्युनिस्ट नागार्जुन द्वारा सोशलिस्ट रेणु को दी गयी स्वीकृति थी| कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट लेखक आम तौर से आपस में लड़ा करते हैं| क्या वे इस उदहारण से कुछ सीखेंगे? रेणु जब अपने गाँव जाते थे तो कभी-कभी नागार्जुन भी वहाँ जाते थे| रेणु फक्कड़ कवि नागार्जुन का स्वयं बहुत ख्याल रखते थे|  
     
       

Saturday 4 April 2015

नलिन विलोचन शर्मा :एक 'सिग्नीफिकेंट' आलोचक


कहा जाता है कि हिंदी समाज कुछ अर्थों में स्मृतिहीन समाज है| हिंदी आलोचना में तो कमोबेस यही स्थिति है|रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा जैसे कुछ नामों को छोड़ दिया जाये तो हमें बहुत से ऐसे महत्वपूर्ण आलोचक मिलेंगे, जिनकी याद शायद ही कभी हिंदी समाज को कभी आए| हिंदी-आलोचना में इसके सर्वोत्तम उदहारण नलिन विलोचन शर्मा हैं
नलिन (जन्म :18-2-1916) ने अनेक विधाओं में लिखा है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी देन आलोचना के क्षेत्र में है |उन्होंने हिंदी आलोचना का नया मापदंड निर्मित किया|अपने प्रखर आलोचनात्मक लेखों,साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक समीक्षाओं के जरिये वे हिंदी-संसार को नये ढंग से आंदोलित करने में सफल हुए| नए-पुराने सभी लेखकों के बीच के आलोचक के रूप में समान रूप से प्रतिष्ठित थे| पुराने साहित्य के बारे में उनकी पसंद का जितना महत्व था, उतना ही नए साहित्य के बारे में भी| उनकी लिखित आलोचना पुस्तकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है| उनके जीवन-काल में "दृष्टिकोण" और "साहित्य का इतिहास दर्शन" नामक दो आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हुईं| मरणोपरांत उनकी तीन आलोचना पुस्तकें- 'मानदंड', 'हिंदी उपन्यास-विशेषतः प्रेमचंद', तथा 'साहित्य: तत्व और आलोचना' - अस्त-व्यस्त ढंग से प्रकाशित हुई| ये पुस्तकें भी बाज़ार में आज ठीक से उपलब्ध नहीं हैं|इधर मेरे संपादन में उनके चुने हुए आलोचनात्मक लेखों का एक चयन नलिन विलोचन शर्मा:संकलित निबंध शीर्षक से नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हुआ है,लेकिन अभी भी उनके सैकड़ों निबंध पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे पड़े हैं

मौलिक और नयी आलोचना दृष्टि और साहित्येतिहास विषयक चिंतन के अलावा नलिन जी अपने प्रयोगधर्मी रचनाशीलता के लिए भी जाने जाते रहे | 'प्रपद्यवाद' नाम से एक नए काव्य-आन्दोलन का प्रवर्तन करके उन्होंने हिंदी-संसार को एकबारगी झकझोर दिया था| विलक्षण शैली और सर्वथा भिन्न मन मिजाज़ की अपनी प्रपद्यवादी कविताओं के ज़रिये उन्होंने हिंदी कविता को आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न करने की कोशिश की| नए ढंग से तराशी गयी उनकी कहानियां भी प्रगति-प्रयोग और मनोविश्लेषण का समन्वित उदाहरण प्रस्तुत करती हैं|

नलिन जी के पिता महामहोपाध्याय पंडित रामावतार शर्मा संस्कृत के विद्वान् होने के साथ हिंदी नवजागरण के अग्रदूत थे| वे बहुभाषाविद थे| संस्कृत और दर्शन के वे अपने समय में विलक्षण और अप्रतिम आचार्य थे| संस्कृत के अलावा शर्मा जी का हिंदी,अंग्रेजी, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, आदि भाषाओँ पर भी अधिकार था| वे अनीश्वरवादी थे और आधुनिकता और वैज्ञानिकता के पक्षधर थे| पंडितों के बीच में उनकी ख्यति 'नव्य चार्वाक' के रूप में थी| नलिन जी को यह सारी चीजें विरासत में मिली थीं| हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पर उनका एक सा अधिकार था | काम चलाऊं ज्ञान फ्रेंच,जर्मन, लैटिन का भी था| बहुत कम उम्र में लोग इनके नाम से पहले आचार्य जोड़ने लगे

नलिन विलोचन शर्मा रूपवादी आलोचक थे| हिंदी में आमतौर से रूपवाद को निंदनीय माना जाता है और इसके आधार पर अज्ञेय, अशोक वाजपेयी आदि की आलोचना की जाती है| यह नासमझ-सी समझदारी बनी हुई है कि जो प्रगतिशील नहीं है, वह रूपवादी है और अंततः वह जन विरोधी है| नलिन जी घोषित तौर पर रूप को साहित्य का उद्देश्य मानते थे| वे मानते थे कि साहित्य में 'व्हाट' की जगह 'व्हाई' प्रमुख होना चाहिए| साहित्य में रूप पर जोर देने के काम को जन-विरोधी कहने वालों से उनकी घनघोर असहमति थी| उन्होंने लिखा : 'कलाकार को पूरा अधिकार है, अगर वह ऐसा चाहता है कि अपने समय की सामजिक या राजनैतिक क्रांतियो की उपेक्षा करे और अगर वह महान कलाकार है तो वह ऐसा करके अपने अमर बन जाने की संभावनाओ में वृद्धि कर सकता है|'
इसलिए वे कहते थे कि कविता का विषय कुछ भी हो, वह उतना महतवपूर्ण नहीं है| महतवपूर्ण यह है कि वह कैसे लिखी गयी है | वे कविता को मनुष्यता के दो-चार दुर्लभ पर्यायों  में से एक मानते थे| इसलिए कविता के रूप की चर्चा का अर्थ उनकी दृष्टि में जन-विरोधी होना नहीं, बल्कि मनुष्य-समर्थक होता था| लेकिन उनके और अज्ञेय आदि के रूपवाद में एक बुनयादी फर्क है| नलिन रूपवादी होते हुए भी रहस्यवाद के विरोधी थे| अज्ञेय आदि के यहाँ रहस्यानुभूति का भरपूर समावेश था| नलिन जी कवि के लिए 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' और विज्ञान सम्मत दर्शन की आवश्यकता पर बल देते हैं| वे मानते हैं कि कविता का उद्देश्य 'सत्य का संधान' है और कविता के ज़रिये इस काम में विज्ञान बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है| कविता के लिए भावना नहीं, बुद्धि आवश्यक है, यह बताने के लिए उन्होंने ने विनोद भाव से दो पंक्तियों की कविता लिखी थी-
                         
                          दिल हुआ बेकार है, जो कुछ है सो ब्रेन
                           गाय हुई बकेन है, कविता हुई नकेन

यहाँ नकेन से तात्पर्य नलिन, केसरी कुमार और नरेश की प्रपद्यवादी कविताओं से है जिसे आम तौर से इन तीन नामों के प्रथमाक्षरों से भी पुकारा जाने लगा था| नलिन जी आलोचना में टी.एस. एलियट के समर्थक थे, लेकिन एलियट की तरह वे न तो धर्म के समर्थक थे, न ही राजतन्त्र के| उनकी आस्था विज्ञान के साथ जनता और समाजवाद में थी|लेकिन मार्क्सवादी आलोचकों की रूढ़िवादिता और मूर्तिपूजा से उन्हें बेहद चिढ़ थी |वे साहित्य के मूल्यांकन के लिए किसी साहित्येतर आधार को महत्तव नहीं देते थे|वे भारतीय और पाश्चात्य साहित्य शास्त्र के निष्णात आलोचक थे |अकादमिक,प्रगतिवादी और अज्ञेयवादी आलोचना रुढियों से वे निरंतर संघर्ष करते रहे और हिंदी आलोचना में उन्होंने नए मानदंड निर्मित किये |साहित्य के लिए 'मुक्ति' और 'स्वच्छंदता' को आवश्यक कसौटी  मानते थे| इनमें भी 'मुक्ति' को वे नए और उत्कृष्ट साहित्य का जरुरी आधार मानते थे|उनके अनुसार मुक्ति भी दो तरह की होती है-रूपगत और विषयगत |वे बर्नाड शॉ और पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' को 'विषयगत स्वच्छंदता' का लेखक मानते हैं| वे डी.एच.लॉरेंस को मुक्त और स्वच्छंद रचनाकार के रूप में चिन्हित करते हैं|हिंदी में निराला,उनके अनुसार,ऐसे विराट व्यक्तित्व के रचनाकार हैं जो सभी तरह की रुढियों को तोड़कर नया साहित्य रचते हैं | उनके अनुसार प्रेमचंद भी ऐसे ही रचनाकार हैं जिनके यहाँ मुक्ति और स्वच्छंदता दोनों है

वैसे तो नलिन जी ने अनेक विधाओं में  और अनेक  लेखकों पर लिखा है लेकिन मुझे सर्वाधिक मूल्यवान उनका उपन्यास और प्रेमचंद सम्बन्धी लेखन लगता है| प्रेमचंद और निराला को वे आधुनिक हिंदी साहित्य का शिखर मानते थे और इसके लिए उन्होंने निरंतर संघर्ष किया| हिंदी में पहली बार उन्होंने उपन्यास का शास्त्र निर्मित करने की कोशिश की| कला की दृष्टि से प्रेमचंद को प्रतिष्ठित करने वाले वे हिंदी के एकमात्र आलोचक थे| प्रेमचंद की कला का नलिन विलोचन शर्मा सरीखा पारखी आलोचक दूसरा नहीं हुआ| नलिन जी साहित्य में खेमेबाज़ी के विरोधी थे| इसलिए रूपवादी होते हुए भी उन्होंने अज्ञेय आदि की कड़ी आलोचना की और विज्ञान समर्थक होने पर भी प्रगतिवादियों की| प्रगतिवादियों के बारे में उन्होंने लिखा, 'उन्होंने पुरानी जंजीरें तोड़ फेकीं हैं, लेकिन उन्होंने जिसे गले का हार समझ कर प्रसन्नता पूर्वक पहना है वह हाथ-पैर का नहीं ह्रदय और मष्तिष्क का बंधन बन गया| उन्होंने गुरु पूजा का त्याग किया है पर वीर पूजा अपनाने के लिए, मूर्ति-पूजा से छुटकारा पाया है किन्तु जनपूजा  के लिए, कर्मकांड में फसने के लिए और शास्त्र की संकीर्णता के विरुद्ध सफल विद्रोह किया है, लेकिन सिद्धांत की चारदीवारी में कैद हो जाने के लिए|'

नलिन आलोचना को सृजन मानते थे किन्तु ऐसा सृजन जो किसी 'कृति  का निर्माण करे| वे यह भी मानते हैं की 'आलोचना कला का शेषांश है|' इसलिए उनकी आलोचना में भाषा, शिल्प आदि पर जितना बल है उतना साहित्य की विषयवस्तु पर नहीं|

नलिन को काल ने बहुत कम समय दिया| मात्र छियालीस साल में उनकी मृत्यु (१२ सितम्बर १९६१) हो गयी| इतनी कम उम्र पाकर भी उन्होंने विपुल साहित्य की रचना की| आलोचना, कविता, कहानी, संस्मरण आदि कई विधाओं में उन्होंने मौलिक रचनाशीलता का अद्वितीय उदहारण प्रस्तुत किया| हिंदी के प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को उन्होंने वह स्तरीयता  और प्रतिष्ठा दिलाई जिससे तुलना के लिए बहुत कम नाम मिलेंगे| अध्यापन, शोध-लेखन आदि क्षेत्रों में उन्होंने योग्य-शिष्यों की एक बड़ी फ़ौज बहुत कम समय में खड़ी कर दी| उनका परिवार अतिशिक्षित और साधन संपन्न था| फिर भी आज उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है
    
(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्,पटना की शोध-पत्रिका परिषद्-पत्रिकाजुलाई-सित.२०१३ में प्रकाशित)