Thursday, 16 April 2015

हर कोशिश है एक बगावत


राजेंद्र कुमार को आप जानते हैं| वो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर-अध्यक्ष रह चुके हैं| वे जितने अच्छे अध्यापक हैं उतने ही अच्छे मनुष्य| सादगी, सरलता और मित्र-वत्सलता उनके व्यक्तित्व के अभिन्न हिस्से हैं| वे चेतना से प्रगतिशील हैं, जन संस्कृति मंच से उनका जुड़ाव है, लेकिन उनमे वैचारिक कठमुल्लापन बिलकुल नहीं है| वैचारिक चेतना से अधिक उनके व्यक्तित्व में नैतिक चेतना की आभा है| वे जितने अच्छे आलोचक हैं, उतने ही अच्छे कवि भी| उन्होंने कुछ बेहतरीन कहानियां भी  लिखी हैं, लेकिन उनके कवि-कहानीकार पक्ष पर कम ध्यान दिया गया है| इसका कारण वे स्वयं हैं| अपने इस रचनात्मक पक्ष से वे स्वयं उदासीन रहते हैं| कविता- कहानी लिखना उनके लेखकीय जीवन का कभी-कभार है| उनकी बौद्धिक चेतना अक्सर आलोचना का ही पक्ष लेती रहती है और  इस क्षेत्र में उनकी बहुत ही साफ़ और समर्थ पहचान भी है.... लगभग तीन दशक पहले उनका पहला काव्य-संग्रह "ऋण-गुणा-ऋण" नाम से आया था| यह संग्रह मुझे पसंद आया था|  मैंने इसकी  समीक्षा पटना के "दैनिक-जनशक्ति" में "कविता में धनात्मक योगदान" शीर्षक से लिखी थी| लगभग तीन दशक बाद उनका दूसरा काव्य-संग्रह "हर कोशिश है एक बगावत" नाम से एक-डेढ़ साल पहले आया तो मुझे ख़ुशी हुई| कई अर्थों में यह एक बढ़िया काव्य-संग्रह है| इस संग्रह में कई अच्छी कविताएँ हैं जो कई नामी कवियों की कविताओं से बीस पड़ती हैं| इसमें कुछ गंभीर और जटिल कवितायेँ हैं तो कुछ सादगीपूर्ण लेकिन व्यंजकता से भरी हुई सुन्दर कवितायेँ भी, जिनने  मुझ जैसे पाठक का ध्यान आकृष्ट किया| इस संग्रह में "मनमोहनी अदा का दावतनामा" शीर्षक कविता है जो अपनी सादगी और व्यंजकता की बेजोड़ बानगी प्रस्तुत करती है| मेरा आग्रह है की इस संग्रह की ओर  हिंदी पाठक- समाज का ध्यान जाना चाहिए| फ़िलहाल इस संग्रह से उपर्युक्त कविता आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है-
आइए जहाँपनाह, मुल्क की तरक्की के

अपने ईजाद किये गुर हमे बताइए!
राज हमारा भी चले और आपका भी चले,
जुगत कोई अच्छी-सी ऐसी भिडाइए! 
खेल में हम आपके शरीक होंगे मोहरे बन
अपनी बिसात जैसी चाहिए, बिछाइए!
यह मनमोहनी अदा का दावतनामा है
करिए क़ुबूल, हमें अपना बनाइये!

वह जो हमारा ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन था,
उससे हम आज बहुत बढ़ आए हैं!
अब तो यह दौर है उदारता की वार्ता का,
‘असहयोग’ आदि तो इतिहास की बलाएं हैं!
मल्टीनेशनली विकास का तकाजा है- 
भारत को पकड़े जो भारत में आए हैं!
देश अब स्वदेश नहीं ऐसा बाज़ार बने-
जहाँ, जो भी अपने हैं वो भी पराएँ हैं!

जनता की फ़िक्र में जो दुबला है, हुआ करे
आपको क्या, आप अपनी सेहत बनाइए!
चुन लीजिये कुछ अच्छे-अच्छे-से व्याख्याकार
नीतियों की मनमाफिक व्याख्या कराइए!
यहाँ किसे फुर्सत हैं जाँच-परख करने की
परदा बन सबकी आँखों पर पड़ जाइए!
सारी आवाज़े गुम हों, जिसके बजने पर,
ढफली कुछ ऐसी चहुँ ओर बजवाइए!

कभी इस मुल्क में हुआ था कोई मोहनदास,
गाँधी था वह तो, उसे माला पहनाइए!
अब तो जो सामने है, आपका मनमोहन है
जैसे मन करे, इसे वैसे आजमाइए!
चाँदी रहे हम दोनों राजकाज वालों की, 
यही हम मानते हैं, आप भी मनाइए!
मछलियाँ किसी भी तालाब की हों, मनचाही- 
हम भी फंसायें और आप भी फंसाइए!
यह मनमोहनी अदा का दावतनामा है,
करिए क़ुबूल, हमें  ग्लोबल बनाइए!

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