कहा जाता है कि
हिंदी समाज कुछ अर्थों में स्मृतिहीन समाज है| हिंदी
आलोचना में तो कमोबेस यही स्थिति है|रामचंद्र शुक्ल,
हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा जैसे
कुछ नामों को छोड़ दिया जाये तो हमें बहुत से ऐसे महत्वपूर्ण आलोचक मिलेंगे,
जिनकी याद शायद ही कभी हिंदी समाज को कभी आए| हिंदी-आलोचना
में इसके सर्वोत्तम उदहारण नलिन विलोचन शर्मा हैं|
नलिन (जन्म :18-2-1916) ने अनेक
विधाओं में लिखा है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी देन आलोचना के क्षेत्र में है |उन्होंने
हिंदी आलोचना का नया मापदंड निर्मित किया|अपने
प्रखर आलोचनात्मक लेखों,साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक समीक्षाओं के
जरिये वे हिंदी-संसार को नये ढंग से आंदोलित करने में सफल हुए| नए-पुराने
सभी लेखकों के बीच के आलोचक के रूप में समान रूप से प्रतिष्ठित थे| पुराने
साहित्य के बारे में उनकी पसंद का जितना महत्व था, उतना ही नए साहित्य के बारे में
भी| उनकी लिखित आलोचना पुस्तकों की संख्या बहुत अधिक
नहीं है| उनके जीवन-काल में "दृष्टिकोण" और
"साहित्य का इतिहास दर्शन" नामक दो आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हुईं|
मरणोपरांत उनकी तीन आलोचना पुस्तकें- 'मानदंड',
'हिंदी उपन्यास-विशेषतः प्रेमचंद', तथा 'साहित्य:
तत्व और आलोचना' - अस्त-व्यस्त ढंग से प्रकाशित हुई| ये
पुस्तकें भी बाज़ार में आज ठीक से उपलब्ध नहीं हैं|इधर
मेरे संपादन में उनके चुने हुए आलोचनात्मक लेखों का एक चयन ‘नलिन विलोचन शर्मा:संकलित निबंध’ शीर्षक से नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हुआ
है,लेकिन अभी भी उनके सैकड़ों
निबंध पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे पड़े हैं|
मौलिक और नयी आलोचना
दृष्टि और साहित्येतिहास विषयक चिंतन के अलावा नलिन जी अपने प्रयोगधर्मी रचनाशीलता
के लिए भी जाने जाते रहे | 'प्रपद्यवाद' नाम से
एक नए काव्य-आन्दोलन का प्रवर्तन करके उन्होंने हिंदी-संसार को एकबारगी झकझोर दिया
था| विलक्षण शैली और सर्वथा भिन्न मन मिजाज़ की अपनी प्रपद्यवादी
कविताओं के ज़रिये उन्होंने हिंदी कविता को आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न
करने की कोशिश की| नए ढंग से तराशी गयी उनकी कहानियां भी
प्रगति-प्रयोग और मनोविश्लेषण का समन्वित उदाहरण प्रस्तुत करती हैं|
नलिन जी के पिता
महामहोपाध्याय पंडित रामावतार शर्मा संस्कृत के विद्वान् होने के साथ हिंदी
नवजागरण के अग्रदूत थे| वे बहुभाषाविद थे| संस्कृत
और दर्शन के वे अपने समय में विलक्षण और अप्रतिम आचार्य थे| संस्कृत
के अलावा शर्मा जी का हिंदी,अंग्रेजी, लैटिन,
फ्रेंच, जर्मन, आदि
भाषाओँ पर भी अधिकार था| वे अनीश्वरवादी थे और आधुनिकता और वैज्ञानिकता के
पक्षधर थे| पंडितों के बीच में उनकी ख्यति 'नव्य
चार्वाक' के रूप में थी| नलिन जी
को यह सारी चीजें विरासत में मिली थीं| हिंदी,
अंग्रेजी और संस्कृत पर उनका एक सा अधिकार था | काम
चलाऊं ज्ञान फ्रेंच,जर्मन, लैटिन
का भी था| बहुत कम उम्र में लोग इनके नाम से पहले आचार्य
जोड़ने लगे|
नलिन विलोचन शर्मा
रूपवादी आलोचक थे| हिंदी में आमतौर से रूपवाद को निंदनीय माना जाता
है और इसके आधार पर अज्ञेय, अशोक वाजपेयी आदि की आलोचना की जाती है| यह
नासमझ-सी समझदारी बनी हुई है कि जो प्रगतिशील नहीं है, वह रूपवादी है और अंततः वह
जन विरोधी है| नलिन जी घोषित तौर पर रूप को साहित्य का उद्देश्य
मानते थे| वे मानते थे कि साहित्य में 'व्हाट'
की जगह 'व्हाई' प्रमुख
होना चाहिए| साहित्य में रूप पर जोर देने के काम को जन-विरोधी
कहने वालों से उनकी घनघोर असहमति थी| उन्होंने
लिखा : 'कलाकार को पूरा अधिकार है, अगर वह
ऐसा चाहता है कि अपने समय की सामजिक या राजनैतिक क्रांतियो की उपेक्षा करे और अगर
वह महान कलाकार है तो वह ऐसा करके अपने अमर बन जाने की संभावनाओ में वृद्धि कर
सकता है|'
इसलिए वे कहते थे कि
कविता का विषय कुछ भी हो, वह उतना महतवपूर्ण नहीं है| महतवपूर्ण
यह है कि वह कैसे लिखी गयी है | वे कविता को मनुष्यता
के दो-चार दुर्लभ पर्यायों में से एक
मानते थे| इसलिए कविता के रूप की चर्चा का अर्थ उनकी दृष्टि
में जन-विरोधी होना नहीं, बल्कि मनुष्य-समर्थक होता था| लेकिन
उनके और अज्ञेय आदि के रूपवाद में एक बुनयादी फर्क है| नलिन
रूपवादी होते हुए भी रहस्यवाद के विरोधी थे| अज्ञेय
आदि के यहाँ रहस्यानुभूति का भरपूर समावेश था| नलिन जी
कवि के लिए 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' और
विज्ञान सम्मत दर्शन की आवश्यकता पर बल देते हैं| वे
मानते हैं कि कविता का उद्देश्य 'सत्य का संधान'
है और कविता के ज़रिये इस काम में विज्ञान बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है|
कविता के लिए भावना नहीं, बुद्धि
आवश्यक है, यह बताने के लिए उन्होंने ने विनोद भाव से दो
पंक्तियों की कविता लिखी थी-
दिल हुआ
बेकार है, जो कुछ है सो ब्रेन
गाय हुई
बकेन है, कविता हुई नकेन
यहाँ नकेन से
तात्पर्य नलिन, केसरी कुमार और नरेश की प्रपद्यवादी कविताओं से
है जिसे आम तौर से इन तीन नामों के प्रथमाक्षरों से भी पुकारा जाने लगा था|
नलिन जी आलोचना में टी.एस. एलियट के समर्थक थे, लेकिन एलियट की तरह वे
न तो धर्म के समर्थक थे, न ही राजतन्त्र के| उनकी
आस्था विज्ञान के साथ जनता और समाजवाद में थी|लेकिन
मार्क्सवादी आलोचकों की रूढ़िवादिता और मूर्तिपूजा से उन्हें बेहद चिढ़ थी |वे
साहित्य के मूल्यांकन के लिए किसी साहित्येतर आधार को महत्तव नहीं देते थे|वे
भारतीय और पाश्चात्य साहित्य शास्त्र के निष्णात आलोचक थे |अकादमिक,प्रगतिवादी
और अज्ञेयवादी आलोचना रुढियों से वे निरंतर संघर्ष करते रहे और हिंदी आलोचना में
उन्होंने नए मानदंड निर्मित किये |साहित्य के लिए 'मुक्ति'
और 'स्वच्छंदता' को
आवश्यक कसौटी मानते थे| इनमें भी 'मुक्ति'
को वे नए और उत्कृष्ट साहित्य का जरुरी आधार मानते थे|उनके
अनुसार मुक्ति भी दो तरह की होती है-रूपगत और विषयगत |वे
बर्नाड शॉ और पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' को 'विषयगत
स्वच्छंदता' का लेखक मानते हैं| वे
डी.एच.लॉरेंस को मुक्त और स्वच्छंद रचनाकार के रूप में चिन्हित करते हैं|हिंदी
में निराला,उनके अनुसार,ऐसे
विराट व्यक्तित्व के रचनाकार हैं जो सभी तरह की रुढियों को तोड़कर नया साहित्य रचते
हैं | उनके अनुसार प्रेमचंद भी ऐसे ही रचनाकार हैं
जिनके यहाँ मुक्ति और स्वच्छंदता दोनों है|
वैसे तो नलिन जी ने
अनेक विधाओं में और अनेक लेखकों पर लिखा है लेकिन मुझे सर्वाधिक मूल्यवान
उनका उपन्यास और प्रेमचंद सम्बन्धी लेखन लगता है| प्रेमचंद
और निराला को वे आधुनिक हिंदी
साहित्य का शिखर मानते थे और इसके लिए उन्होंने निरंतर संघर्ष किया| हिंदी
में पहली बार उन्होंने उपन्यास का शास्त्र निर्मित करने की कोशिश की| कला की
दृष्टि से प्रेमचंद को प्रतिष्ठित करने वाले वे हिंदी के एकमात्र आलोचक थे|
प्रेमचंद की कला का नलिन विलोचन शर्मा सरीखा पारखी आलोचक दूसरा नहीं
हुआ| नलिन जी साहित्य में खेमेबाज़ी के विरोधी थे|
इसलिए रूपवादी होते हुए भी उन्होंने अज्ञेय आदि की कड़ी आलोचना की और
विज्ञान समर्थक होने पर भी प्रगतिवादियों की| प्रगतिवादियों
के बारे में उन्होंने लिखा, 'उन्होंने पुरानी
जंजीरें तोड़ फेकीं हैं, लेकिन उन्होंने जिसे गले का हार समझ कर प्रसन्नता
पूर्वक पहना है वह हाथ-पैर का नहीं ह्रदय और मष्तिष्क का बंधन बन गया| उन्होंने
गुरु पूजा का त्याग किया है पर वीर पूजा अपनाने के लिए, मूर्ति-पूजा से छुटकारा
पाया है किन्तु जनपूजा के लिए, कर्मकांड
में फसने के लिए और शास्त्र की संकीर्णता के विरुद्ध सफल विद्रोह किया है, लेकिन
सिद्धांत की चारदीवारी में कैद हो जाने के लिए|'
नलिन आलोचना को ‘सृजन’ मानते थे किन्तु ऐसा सृजन जो किसी 'कृति का
निर्माण’ करे|
वे यह भी मानते हैं की 'आलोचना कला का
शेषांश है|' इसलिए उनकी आलोचना में भाषा, शिल्प
आदि पर जितना बल है उतना साहित्य की विषयवस्तु पर नहीं|
नलिन को काल ने बहुत
कम समय दिया| मात्र छियालीस साल में उनकी मृत्यु (१२ सितम्बर
१९६१) हो गयी| इतनी कम उम्र पाकर भी उन्होंने विपुल साहित्य की
रचना की| आलोचना, कविता,
कहानी, संस्मरण आदि कई विधाओं में उन्होंने मौलिक
रचनाशीलता का अद्वितीय उदहारण प्रस्तुत किया| हिंदी
के प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को उन्होंने
वह स्तरीयता और प्रतिष्ठा दिलाई जिससे
तुलना के लिए बहुत कम नाम मिलेंगे| अध्यापन, शोध-लेखन
आदि क्षेत्रों में उन्होंने योग्य-शिष्यों की एक बड़ी फ़ौज बहुत कम समय में खड़ी कर
दी| उनका परिवार अतिशिक्षित और साधन संपन्न था|
फिर भी आज उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है|
(बिहार राष्ट्रभाषा
परिषद्,पटना की शोध-पत्रिका ‘परिषद्-पत्रिका’जुलाई-सित.२०१३ में प्रकाशित)
आदरणीय सर, आपकी पुस्तक (आलोचना का नया पाठ)में नलिन जी पर 'रूपवादी आलोचना की नई जमीन' शीर्षक से एक महत्त्वपूर्ण और विस्तृत लेख है। आज इसे पढ़ते हुए वह ज़ेहन में बार-बार आता रहा और इसे पढ़ने का आनंद नहीं मिला। सर, मुझे यह लेख उसी का संक्षिप्त संस्करण लगा।
ReplyDeleteसाहित्य में बहुधा पुनराविष्कार हुआ करते हैं। आज की अफरातफरी के बाद वह समय आ सकता है जब मानदंड बदलेंगे और साहित्येतिहास नये ढंग से लिखा जाएगा।हम अपनी उम्र के सीमांत तक ही देख पाने को बहुधा अभिशप्त होते हैं।
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