Saturday 9 December 2017

आलोचक नलिन विलोचन शर्मा

नलिन विलोचन शर्मा(18 फ़रवरी 1916-12 सितम्बर 1961) बहु-उद्धृत आलोचक नहीं हैं, न प्रगतिशील खेमे में और न गैर-प्रगतिशील खेमे में. हिंदी आलोचकों की जो सूची अक्सर जारी होती है उसमें उनका नाम नहीं होता. वे बहुत कम उपलब्धियों के लिए याद किए जाते हैं. अधिक-से-अधिक तब के गुमनाम से उपन्यास ‘मैला आँचल’ को कालजयी उपन्यास के रूप में पहचान दिलाने वाले आलोचक के रूप में याद किए जाते हैं. हिंदी के इतिहास दर्शन की चर्चा जब न के बराबर थी तब ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ जैसी किताब लिखने वाले आलोचक के रूप में भी उनका नामोल्लेख होता है. और किसी प्रसंग में उन्हें याद करते या उन्हें उद्धृत करते प्राय:  नहीं देखा-सुना जाता . ऐसा क्यों है; जबकि वे हिंदी के ‘सिगनिफिकेंट’ आलोचक हैं?
        नलिन जी के आलोचनात्मक लेखन का समय 1940-1960 के बीच का है. यह  शीतयुद्ध की छाया का दौर  है. दुनिया सोवियत और अमेरिकी शिविर  में बंटी हुई थी. राजनीतिक  रूप से दो सिरों में विभाजित विचारधारा का प्रभाव दुनिया के साहित्य पर भी था. माना जाता था कि या तो आप प्रगतिशील हैं या गैर-प्रगतिशील. इस प्रभाव से हिंदी साहित्य भी अछूता नहीं था. हिंदी का समूचा वातावरण प्रगतिवाद बनाम आधुनिकतावाद का बना हुआ था. नलिन विलोचन शर्मा आलोचना का एक तीसरा पक्ष लेकर सामने आए. वे न प्रगतिवादी शिविर में शामिल हुए न गैर-प्रगतिवादी शिविर में. दोनों से उनकी दूरी समान बनी रही. उन्होंने आलोचना के इन दोनों धरातलों को अपर्याप्त माना और तीसरे धरातल के रूम में  नए मान निर्मित करने की कोशिश की. जैसे  शीतयुद्ध काल में दो शिविरों में बंटी हुई दुनिया में गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक तीसरा शिविर  बनकर उभरा, वैसी ही स्थिति लगभग नलिन विलोचन शर्मा की  आलोचना की भी है. दो महाशक्तियों के बीच गुटनिरपेक्ष आंदोलन जैसे उपेक्षित रहा वैसी ही स्थिति नलिन विलोचन शर्मा की भी रही. आज जबकि दुनिया शीतयुद्ध की छाया से मुक्त है, हिंदी में भी प्रगतिशीलता और गैर-प्रगतिशीलता की वैसी फौजदारी नहीं है, तब उनकी आलोचना का महत्त्व पहचानने की जरुरत है. आखिर वे कौन-से मान हैं जिनके जरिए नलिन जी हिंदी आलोचना के विकास में ज़रूरी हस्तक्षेप करते हैं?
        नलिन विलोचन शर्मा ऐसी आलोचना के पक्षधर थे जो रचना का पुनः निर्माण करे. वे ऐसी आलोचना को महत्त्व देते थे जो रचना की निर्माण प्रक्रिया और उसकी कला की भाश्वरता को रेखांकित करे. उनकी दृष्टि में आलोचना ‘सृजन’ है. लेकिन ऐसा ‘सृजन’ जो किसी ‘कृति का निर्माण’ करे. वे आलोचना को किसी कृति की व्याख्या न मानकर यह मानते थे कि ‘आलोचना कला का शेषांश ’ है. वे ‘कला के धरातल पर उन्नीत’ हो जाने वाली आलोचना के समर्थक थे. वे किसी कृति की विषय-वस्तु से अधिक उसकी भाषा, शिल्प, अभिव्यंजना शैली आदि को अधिक महत्त्व देते थे. उनके लिए साहित्य में ‘क्या है’ से अधिक ‘कैसे है’ पर जोर अधिक है. इस कारण कुछ लोग उन्हें रूपवादी आलोचक कहते हैं. लेकिन उनका रूपवाद समाज सापेक्ष आलोचना दृष्टि का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है. उन्होंने लिखा है: “कोयल और पपीहे की सुरीली तान पर भी भावुकतापूर्ण तथा थोथी कविता हो सकती है. फैक्ट्री की सिटी पर भी प्राणवंत पद्य लिखे गए हैं. साहित्य का विषय गाँधीवाद भी हो सकता है और समाजवाद भी, पर साहित्य उत्कृष्ट या निकृष्ट विषय के कारण नहीं, विषय के बावजूद होगा”. रचना में इस ‘बावजूद’ की खोज ही नलिन जी की आलोचना का उद्देश्य है.
        नलिन विलोचन शर्मा का प्रगतिशील आलोचना से द्वंद्वात्मक सबंध है. यद्यपि वे मार्क्सवादी नहीं हैं, वे गाँधीवादी भी नहीं हैं. विचारधारा की दृष्टि से देखना हो तो वे एम.एन. राय के ‘रेडिकल ह्युमिनिज्म’ से प्रभावित लगते हैं. उन पर टी.एस. इलियट का प्रभाव देखा गया है, लेकिन कई मुद्दों पर वे टी.एस. इलियट की कई मान्यताओं से असहमत हैं. टी.एस. इलियट राजतंत्र के समर्थक थे, जबकि नलिन जी लोकतंत्र को जरुरी मानते हैं; इलियट धर्म पर विश्वास करते थे, जबकि नलिन जी विज्ञान सम्मत आधुनिक दृष्टि के समर्थक थे. वे कविता को विज्ञान का पूरक मानते थे. वे परंपरा के मूल्यांकन में टी.एस. इलियट की धारणा के करीब हैं. इलियट की तरह नलिन जी साहित्य को सबसे पहले साहित्य की कसौटी पर रखकर देखते हैं और इस अर्थ में वे इलियट के करीब हैं. साहित्य संबंधी मान्यताओं के लिए उन्होंने मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की प्रशंसा की है. साथ ही परंपरा के सम्यक मूल्यांकन के लिए हिंदी की प्रगतिशील आलोचना की भी प्रशंसा की है,लेकिन उन्होंने प्रगतिवादी साहित्य चिंतन और आंदोलन में उभरती हुई संकीर्ण प्रवृत्तियों पर हमला भी किया है. इसलिए हिंदी में प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील दो तरह के शिविरों की जो अक्सर चर्चा होती है उसमें नलिन जी नहीं आते हैं. वे हिंदी आलोचना का तीसरा पक्ष निर्मित करते हैं.  
        बीसवीं सदी का चौथा-पाँचवाँ दशक भारत में प्रगतिशील आंदोलन के उत्कर्ष का काल है. इसी दौरान नलिन विलोचन शर्मा का महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक लेखन प्रकाशित होता है. यही समय है जब अज्ञेय और इलाहाबाद की संस्था ‘परिमल’ की ओर से साहित्य चिंतन और मूल्यांकन के भिन्न धरातल खोजे जाते हैं. यही समय है जब भारतीय राजनीति में राम मनोहर लोहिया का धमाकेदार प्रवेश होता है और उनके चिंतन का प्रभाव साहित्य पर लक्षित किया जाता है. निश्चित रूप से देश-विदेश से उठने वाले इन वैचारिक झंझावातों का प्रभाव नलिन जी पर भी पड़ा होगा. लेकिन वे किसी एक शिविर में जाना पसंद नहीं करते, वे असल में साहित्य में शिविरबद्धता के विरुद्ध थे. उन्हें साहित्यकार का किसी राजनीतिक दल का ‘पिछलग्गू’ होना पसंद नहीं था. वे भारतीय और पश्चिमी साहित्य के गंभीर अध्येता थे, उनके सामने भारतीय साहित्य की महान परम्पराएं भी थी और पश्चिम से आने वाले मार्क्सवादी और आधुनिक साहित्यिक मूल्य भी. नलिन जी संग्रह- त्याग के विवेक का विरल उदहारण प्रस्तुत करते हैं. वे न तो भारतीयता की आँधी में बहते हैं और न मार्क्सवाद -आधुनिकतावाद का कीर्तन करते हैं. मार्क्सवादी और आधुनिकतावादी दोनों प्रतिमानों को नकारते हुए वे साहित्य के मूल्यांकन के लिए ‘मुक्ति’ और ‘स्वच्छंता’ दो आधार निर्मित करते हैं. मुक्ति और स्वच्छंदता में भी वे ‘मुक्ति’ को नए और उत्कृष्ट साहित्य का आधार मानते हैं. वे मानते हैं कि साहित्यिक रुढियों से मुक्ति के बिना नए साहित्य का सृजन नहीं हो सकता. 
        नलिन जी के अनुसार मुक्ति दो तरह की होती है- विषयगत और रूपगत. लेखक जब नए विषय को लेकर आता है तब विषयगत मुक्ति संभव होती है जो वस्तुतः स्वच्छंदता है. नलिन जी के अनुसार अंग्रेजी के लेखक बर्नार्ड सॉ और हिंदी के पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ में यही विषयगत स्वच्छंदता है. उनके अनुसार ये दोनों लेखक अपने युग की अलस-ऊँघती हुई चेतना को विषयगत परिवर्तन के जरिए ठोकर मारकर जगाते हैं. लेकिन वे साहित्य के रूपगत ढाँचे में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं करते हैं. नलिन जी के अनुसार डी.एच. लारेंस मुक्त और स्वच्छंद रचनाकार हैं और इसी अर्थ में अधिक महत्त्वपूर्ण भी. लारेंस पर लिखते हुए उन्होंने लिखा है-  लारेंस ने “मनुष्य की यौन समस्यायों का मुक्त तथा स्वच्छंद विवेचन कुछ ऐसी गहराई और तलस्पर्शिता के साथ किया है कि वह अपनी पूर्णता में आश्चर्यजनक रूप से उदात्त हो गया है”. नलिन जी के कथन का तात्पर्य यह है कि बर्नार्ड सॉ ने अपने नाटकों के शिल्प  में वैसी कोई क्रांति नहीं की, इस क्षेत्र में उन्होंने परंपरागत नियमों का ही पालन किया. लारेंस उनकी दृष्टि में अधिक महत्त्वपूर्ण इसलिए हैं कि उनके उपन्यास न केवल विषय की दृष्टि से बल्कि भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी रूढी- मुक्त है. नलिन जी के अनुसार मुक्ति और स्वच्छंदता की कसौटी पर हिंदी में निराला और अंग्रेजी में वाल्ट व्हिटमैन विराट् व्यक्तित्व के कवि- रचनाकार हैं, क्योंकि वे दोनों अपनी रचनाओं में भीतर-बाहर दोनों जगह क्रान्ति उपस्थित करते हैं.
        हिंदी आलोचना में मुक्ति संबंधी नलिन विलोचन शर्मा की अवधारणा का नयापन समझने की जगह कुछ मार्क्सवादी आलोचकों ने उन्हें रूपवादी आलोचक माना है. नलिन जी आत्यंतिक रूप से नवीनता के आग्रही आलोचक थे. वे तात्कालिक यथार्थवाद और रुपवाद जैसे आलोचनात्मक प्रत्ययों से इत्तेफाक नहीं रखते. ‘मुक्तता’ और ‘स्वच्छंदता’ की अपनी कसौटी पर वे प्रगतिशीलों की भी आलोचना करते हैं तो इनकी कमी के कारण अज्ञेय और अज्ञेय पंथियों की भी.
        नलिन विलोचन शर्मा की आलोचना में ‘मुक्ति’ और ‘स्वच्छंदता’ संबंधी धारणा के कारण एक तरह का खुलापन है. वे प्रगतिवाद की आलोचना करते हैं तो मार्क्स और प्रमुख मार्क्सवादी सिद्धांतकारों की साहित्य संबंधी विचारों की प्रशंसा भी करते हैं. बर्नार्ड सॉ और डी.एच. लारेंस तथा प्रेमचंद और जैनेन्द्र जैसे सर्वथा विरोधी स्कूल के माने जाने वाले लेखकों को एक साथ पसंद करने वाले नलिन जी की आलोचना दृष्टि वैसी सरल नहीं है जैसी  आम तौर पर समझ लिया जाता है.
        नलिन जी आलोचना में रामचंद्र शुक्ल के प्रशंसक हैं  और उनकी परंपरा का विकास करते हैं. वे मानते हैं कि “शुक्ल जी वैसे आलोचक हैं, जिनके विवरण तो पुराने पड़ सकते हैं, किन्तु सिद्धांत और मीमांसा महार्घ बनी रहती है”. इसीलिए वे शुक्ल को शास्त्र का विद्वान आलोचक ही नहीं, बल्कि एक महान कलाकार कहने में संकोच नहीं करते.  प्रगतिवाद से असहमति के बावजूद वे प्रगतिशील आलोचक डॉक्टर रामविलास शर्मा द्वारा लिखित ‘हिंदी आलोचना और रामचंद्र शुक्ल’ नामक पुस्तक की वे प्रशंसा करते हैं. नलिन जी के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं था कि यह किताब किसी प्रगतिशील आलोचक ने लिखी है, उनके लिए  महत्त्वपूर्ण यह  था कि इससे शुक्ल जी की आलोचना -पद्दति का विकास होता है. आलोचना की यह पद्धति विवेकवादी समझ और दृष्टि से बनी थी. नलिन जी भी इसी विवेकवाद  के कायल थे. परंपरा के सातत्य में उनका विश्वास था और विज्ञान द्वारा प्राप्त निष्कर्षों का वे समर्थन करते थे. वे शुक्ल जी की ही तरह जीवन और साहित्य में रहस्यवाद के विरोधी थे. किसी अलौकिक सत्ता में उनका विश्वास नहीं था. वे अनीश्वरवादी और वैज्ञानिक चेतना के आलोचक थे. लेकिन वे मार्क्सवाद को विवेकवाद की एकमात्र राह नहीं मानते थे. बाहरी सत्य के साथ आतंरिक सच की वास्तविकता को भी वे स्वीकार करते थे. इसलिए सिगमन फ्रायड के वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर मानव चरित्र का विवेचन-विश्लेषण आवश्यक मानते थे.
        नलिन विलोचन शर्मा प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और निराला को आधुनिक हिंदी साहित्य का शिखर मानते थे. इनको शिखरासीन करने में रामविलास शर्मा के साथ सबसे पहले जो याद किए जाएँगे वे नलिन विलोचन शर्मा ही होंगे. यद्यपि नलिन विलोचन शर्मा की कसौटी रामविलास शर्मा से भिन्न है. उनके अनुसार प्रेमचंद, शुक्ल जी और निराला आधुनिक हिंदी साहित्य के महान लेखक ही नहीं, महान कलाकार भी थे.
        नलिन विलोचन शर्मा को लिखने के लिए पर्याप्त उम्र नहीं मिली. फिर भी उन्होंने हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत और अंग्रेजी के बड़े लेखकों पर प्रचूर मात्रा में लेखन -कार्य किया. उनकी आलोचनात्मक कसौटी का मुख्य आधार ‘स्वच्छंदता’ और ‘मुक्ति’ ही है. इसी आधार पर वे साहित्य का मूल्यांकन करते हैं और उस लेखक की कला का वह पक्ष उद्घाटित करते हैं जो बहुतों के लिए कठिन था. वे सच में  कृति का निर्माण करने वाले आलोचक थे.
        नलिन जी ने कई विषयों पर लिखा है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी देन कथा साहित्य की आलोचना को है. कथा साहित्य में भी प्रेमचंद की उपन्यास कला और कहानी कला के वे बड़े आलोचक हैं. रामविलास शर्मा ने आधुनिक हिंदी का महान लेखक प्रेमचंद को तो बना दिया था लेकिन यह कार्य उन्होंने उनकी सामाजिक चेतना के आधार पर किया था. इस कारण बहुतेरे कलावादी लोग प्रेमचंद को महान लेखक मानने को तैयार नहीं थे. नलिन विलोचन शर्मा ने हिंदी आलोचना की उस रिक्त स्थान की पूर्ति की जो प्रगतिशील आलोचना की अतिशय समाजशास्त्रीयता से पैदा हुई थी. कहा जा सकता है कि इस अर्थ में हिंदी आलोचना के विकास में उनका योगदान ऐतिहासिक महत्त्व का है. उन्होंने कला विहीन मानने वाले आलोचकों के आरोपों का उत्तर तो दिया ही, प्रेमचंद को कला की ऊँचाई पर भी प्रतिष्ठित किया. जितने विस्तार और जितने मनोयोग से उन्होंने प्रेमचंद की कला का विवेचन-विश्लेषण किया वह उनके पूर्व तो हुआ ही नहीं था, अब तक नहीं हो पाया  है.
        हिंदी उपन्यास की आलोचना के विकास में नलिन विलोचन शर्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान है. वे हिंदी के पहले आलोचक थे जिसने उपन्यास के शास्त्र के निर्माण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कोशिश की. वे उपन्यास को आधुनिक विधा मानते थे तो इसलिए नहीं कि उनका जन्म आधुनिक काल में हुआ, बल्कि इसलिए कि आधुनिकता एक सामाजिक और मानवीय मूल्य की तरह है जो उपन्यास नामक विधा में समग्रता में प्रकट हुई है. वे उपन्यास को साहित्य का ‘अंत्यज’ मानते थे. ‘अंत्यज’ भारतीय सन्दर्भ में दलित जातियों को कहा जाता था. कविता, नाटक, कथा साहित्य आदि विधाओं की तुलना में यह अंत में पैदा हुई साहित्यिक विधा भी थी. इसलिए नलिन जी का उपन्यास को ‘अंत्यज’ कहना बहुत ही अर्थ-व्यंजक है. यह काल सूचक तो है ही, इस विधा के समाज से जुड़ाव और वैशिष्ट्य को भी परिभाषित करता है. नलिन जी मानते थे कि आधुनिक युग की विषमता, जटिलता और जीवन संघर्ष ने उपन्यास नामक विधा को जन्म दिया. पाश्चिमी उपन्यासों की तुलना में हिंदी उपन्यास पिछड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है? नलिन जी के अनुसार इसका मुख्य कारण हमारी आज की सभ्यता का कम जटिल होना है. उन्होंने लिखा है “हिंदी उपन्यास का इतिहास किसी भी देश के इतिहास की तरह हिंदी भाषी क्षेत्र की सभ्यता और संस्कृति के नवीन रूप के विकास का साहित्यिक प्रतिफल है. समृद्धि और ऐश्वर्य की सभ्यता महाकाव्य में अभिव्यंजना पाती है, जटिलता, वैषम्य और संघर्ष की सभ्यता उपन्यास में..... हमारे उपन्यास यदि आज पश्चिमी उपन्यासों के समकक्ष सिद्ध नहीं होते तो मुख्यतः इसलिए कि हमारी वर्त्तमान सभ्यतया आज भी कम जटिल, कम उलझी हुई और कहीं ज्यादा सीधी-साधी है”. नलिन जी उपन्यास को जब ‘अंत्यज’ विधा कह रहे थे तब महाकाव्यों के समक्ष उसकी स्थिति अंत्यज जैसी ही थी. उन्होंने इस अंत्यज विधा द्वारा महाकाव्य के अपदस्त किए जाने का स्वागत किया. उन्होंने लिखा “शताब्दियों की प्रतीक्षा के बाद साहित्य का यह अंत्यज अपने छिपी संभावनाओं को लेकर अपनी सामर्थ्य का परिचय दे सका है. और अब तो अभिजात्य का भी दावा कर सकता है”.
        नलिन जी हिंदी में जिस तरह से उपन्यास का शास्त्र तैयार करने की कोशिश कर रहे थे उसी उन्होंने तरह प्रेमचंद की उपन्यास- कला के वैशिष्ट्य को भी रेखांकित करने की कोशिश की. वे कहते थे कि प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास के स्थापत्य को क्रन्तिकारी ढ़ंग से परिवर्तित कर दिया. वे यह भी मानते थे कि यह क्रांति अहिंसक किस्म की थी. ‘गोदान’ के बाद उन्होंने ‘मैला आँचल’ को मन से पसंद किया. ‘मैला आँचल’ को डिस्कवर करने का श्रेय नलिन विलोचन शर्मा को ही जाता है. जब ‘मैला आँचल’ पर किसी का ध्यान नहीं गया था, तब उन्होंने उसकी ओर हिंदी संसार का ध्यान दिलाते हुए लिखा कि “गोदान के बाद हिंदी उपन्यास में जो गत्यवरोध था वह ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन से दूर हुआ.” उनकी यह भविष्यवाणी सच हुई और हिंदी संसार ने रेणु को सिर माथे पर बिठा लिया. नलिन जी के उपन्यास संबंधी चिंतन परख लेख और टिप्पणियाँ उनकी पुस्तक ‘हिंदी उपन्यास: विशेषतः प्रेमचंद’ में संकलित है. इन पंक्तियों के लेखक द्वारा संपादित ‘नलिन विलोचन शर्मा: रचना संचयन’ में भी उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों को देखा जा सकता है.

        नलिन विलोचन शर्मा हिंदी के ऐसे आलोचक हैं जो जाने तो गए पर माने नहीं गए. इसके मुख्य तीन कारण है. पहला कारण हिंदी साहित्य में शीतयुद्ध की छाया का प्रभाव और हिंदी संसार का दो शिविरों में बंटा होना है जिनसे नलिन जी की आलोचना समान दूरी बनाकर चल रही थी. दूसरा कारण है 46 वर्ष की अल्पायु में मृत्यु के कारण एक आलोचक के रूप में  फैलने और स्थापित होने का कम समय मिलना. और तीसरा कारण है उनकी रचनाओं का आज भी अनुपलब्ध होना. वे हिंदी में ‘सिग्निफिकेंट’ आलोचक तो थे ही,  नया आधार तैयार करने वाले हिंदी आलोचना के जरुरी अध्याय भी थे. 

Wednesday 29 November 2017

कवि मित्र वेणु गोपाल






यहाँ अँधेरे में हो
इसलिए
अकेले हो
रोशनी में आओगे
तो कम से कम
अपने साथ
एक परछाई
तो
जुड़ी पाओगे।
1980 के दशक में वेणु गोपाल की यह कविता हमारी जुबान पर होती थी। इस कविता के जरिए हमने उस कवि को जाना था। तब हमारे मन में वेणु की बड़ी ही प्यारी क्रांतिकारी छवि  थी। नक्सलबाड़ी आंदोलन का असर  कहीं न कहीं हमारी चेतना पर था। कुमारेन्द्र, कुमार विकल , वेणु गोपाल, आलोक धन्वा आदि के नाम का शोर तब हिंदी में खूब था। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने हिंदी कविता का मन-मिजाज बदलना शुरू किया था। वेणु और आलोक तो जैसे इस चेतना के हीरो कवि थे। कारण शायद यह हो या पटना में होने की भौगोलिक सुविधा, मैं कुमारेन्द्र और आलोक के बहुत करीब था। लगभग रोज का जीवंत संग-साथ और गपशप हमारी दिनचर्या के जरूरी हिस्सा थी । अकादमिक संसार से बाहर की साहित्यिक दुनिया के बड़े हिस्से से मेरा परिचय इनके जरिए ही संभव हो पाया। लेकिन वेणु हैदराबाद में रहते थे। चाहकर भी मैं तब के अपने प्रिय कवि से मिल न पाया। मिलना तभी हुआ जब मैं सेंट्रल यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में अध्यापक होकर गया। वहाँ मैं आधे मन से गया था। एक अहिंदी भाषी शहर में हिंदी अध्यापक होकर जाने का भीतर बहुत उत्साह नहीं था। लेकिन एक खुशी जरूर थी कि वहाँ कल्पना जैसी पत्रिका के संस्थापक-संपादक बदरी विशाल पित्ती हैं और मेरे प्रिय कवि वेणु गोपाल का भी वह गृह नगर है।
            3 अक्टूबर 2000 को मैंने सेंट्रल युनिवर्सिटी में योगदान किया। उसके अगले दिन हिंदी विभाग के अध्यापक प्रो. सुवास कुमार से मैंने कहा कि वेणु गोपाल से मिलने की इच्छा है। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि हम अभी आपकी इच्छा पूरी किए देते हैं। हम विभाग के बाहर खड़े थे और गपशप कर रहे थे। उन्होंने हाथ से सामने की दिशा में यह कहते हुए इशारा किया- ये रहे वेणु गोपाल! मैंने उधर देखा। मझोले कद का एक व्यक्ति कंधे से झोला लटकाए और दाहिने हाथ में कुछ किताबें छाती से दबाए धरती को दबाता सधे कदमों से हमारी ओर आ रहा है। अगल-बगल विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं की टोली। पास आने पर मैंने हाथ जोड़कर अपना परिचय देते हुए नमस्कार किया। वेणु ने अपना हाथ बढ़ाया और कहा- वेणु गोपाल। वे देर तक मेरा हाथ अपने हाथों में लिए रहे। मैंने ऊपर वाली कविता उन्हें सुनाई जो जुबानी याद थी। वे मुस्कुराते रहे।
            वे कक्षा लेकर निकले थे। बौद्धिक थकान मिटाने के लिए उन्हें कॉफ़ी- सिगरेट की जरूरत थी। वे हमें लिए हिंदी विभाग के पीछे की दुकान की ओर चल पड़े। दुकान के सामने एक पेड़ के नीचे पड़े पत्थरों पर हम बैठे तो  काफी देर तक बैठे ही रहे। साहित्य, संस्कृति और राजनीति पर हमने लंबी बातचीत की। कॉफी-चाय के कई दौर चले। उस दिन की हमारी कथाएँ समाप्त हो चुकी थीं । हम फुर्सत में थे। वेणु शाम को स्वतंत्र वार्ता हिंदी दैनिक पत्र में फीचर पेज संभालते थे। वहाँ वे पाँच-छह बजे जाते थे और दस साढ़े दस तक काम करते थे। सो वे भी इत्मीनान के मूड में थे। संभव है मेरे प्रति यह उनका शिष्टाचार हो। पहली मुलाक़ात थी। समय की कमी की शिकायत का कोई मौका वे मुझे नहीं देना चाह रहे हों । उस दिन ज़्यादातर वे ही बोले। मैं तो लगभग चुप ही था। सुनता रहा। सुवास जी यूँ  भी कम बोलते हैं। सो वेणु ही बोलते रहे। उनका अध्ययन क्षेत्र बड़ा व्यापक था। देश-विदेश के साहित्य का बहुत कुछ वेणु को याद था। उस दिन की वह बैठक मेरे लिए बड़ी सुखकारी थी। हैदराबाद जाने का बेमन का मेरा जो फैसला था वह बुरा नहीं लगा। मुझे लगा कि जिस नगर में वेणु गोपाल जैसा सुशिक्षित हिंदी का कवि रहता हो वह रहने लायक तो है ही।
            उसके बाद तो मिलने-बैठने का लगभग रोज का सिलसिला-सा हो गया। सोमवार से शुक्रवार तक सप्ताह में पाँच दिन कक्षाएँ चलती थीं। वेणु तब गेस्ट फ़ैकल्टी के रूप में अध्यापन कार्य कर रहे  थे; सो हमारी मुलाक़ात प्रायः होती और हमारी जीवंत रचनात्मक बातचीत जारी रहती। कमरों की कमी थी | इस कारण खाली समय में हम दोनों के बैठने की व्यवस्था एक ही कमरे में थी | यह व्यवस्था मेरे लिए बहुत ही सुखकारी साबित हुई  | इस कारण बिना किसी कोशिश के हमारी नियमित  मुलाकात अमूमन  होती ही थी | कभी कमरे में और कभी पेड़ के नीचे कॉफ़ी पीते हुए हम घंटों बतियाते | यह एक तरह की अड्डेबाजी थी, जो हमें  ख़ूब पसंद थी | विभाग के दूसरे अध्यापक प्राय: इस तरह की अड्डेबाजी में नहीं शामिल होते थे | हाँ , कुछ साहित्य प्रेमी छात्र  ज़रूर हमारी बैठक में शामिल रहते | मेरे द्वारा एक गेस्ट फैकल्टी को इतना महत्व दिया जाना बहुतों को शायद  पसंद नहीं था | हिंदी के बहुतेरे अध्यापक हीनता ग्रंथि के शिकार होते हैं | इसे वे अपनी अतिरिक्त अकड़ से छिपाते हैं | रचनाकारों के संग अड्डेबाजी मेरा प्रिय शौक है | न जाने जीवन का कितना बड़ा हिस्सा ऐसी अड्डेबाजियों में मैंने खर्च किए हैं , और यह अब भी मुझे दीवानगी की हद तक प्रिय है | सो मैं दूसरों की कुंठाओं से मुक्त इस बैठकी में शामिल रहता | वेणु का संग-साथ पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरक भी होता था और चुनौतीपूर्ण भी। कहना व्यर्थ है कि वह संग-साथ मेरे लिए मूल्यवान था। लेकिन सिलसिला ज्यादा दिन नहीं चला। दिसंबर में सत्रांत हुआ और वेणु की छुट्टी हो गई।
            नियमित फ़ैकल्टी के अभाव में वेणु गेस्ट फ़ैकल्टी के तौर पर पिछले दो-ढाई साल से पढ़ा रहे थे। पगार आठ हजार रुपये थी। बेरोजगार व्यक्ति के लिए आठ हजार की रकम ज्यादा नहीं थी, लेकिन यहाँ  उससे अधिक कुछ और भी था, जो वेणु को बहुत प्रिय था। वह था अध्यापन का सुख, जो  उनका पुराना सपना था। विश्वविद्यालय परिसर का बौद्धिक माहौल और छात्रों से नियमित संवाद उन्हें बहुत प्रिय था। इस सुख के लिए उन्होंने क्या नहीं किया! जिसका मुंह देखना भी उन्हें गंवारा नहीं था, उसके पीछे-पीछे हाथ बांधकर खड़े रहना पड़ा। कुछ की थीसिसें तक उन्होंने लिखीं, पर वेणु को हिंदी के आचार्यों ने, खासतौर से हैदराबादी आचार्यों ने एक तरह से धोखा दिया। सारी शैक्षणिक योग्यता और बौद्धिक काबिलियत होते हुए वे किसी कॉलेज-युनिवर्सिटी में एक अदद लेक्चरार तक नहीं हो सके। इसका कारण यह था कि अपने क्रांतिकारी भावावेश के दिनों में वे हिंदी- आचार्यों की बौद्धिक हैसियत की ऐसी-तैसी कर चुके थे। जब  इसका ज्ञान हुआ तब  देर हो चुकी थी। आचार्यों ने उनके एक-एक पाप (?) का बदला लिया। अपनी खुशामद कराते रहे,  उनका शोषण करते रहे, लेकिन नौकरी नहीं दी। एक आचार्या का वे वर्षों  तक भाषण लिखते रहे   | भाषण देने उस मोहतरमा को जाना होता और लाइब्रेरियों की खाक वेणु गोपाल छानते ! सुना कि उस ‘ विदुषी’ की डी. लिट्. की थीसिस भी उन्होंने ने ही लिखी थी ! प्रलोभन यह दिया गया था कि विश्वविद्यालय में नियुक्त हो जाओगे, लेकिन जब नियुक्ति हुई तो पैनल में वेणु कहीं नहीं थे |  आर्थिक मजबूरी में वे उन आचार्यों के पीछे-पीछे विनत भाव से चलने को मजबूर होते गए।  उस विनत भाव का ही फल था, हमारे विश्वविद्यालय में गेस्ट फ़ैकल्टी के रूप में उनका प्रवेश  जो अब छिनने जा रहा था।  
            आखिरी दिन का अंतिम क्लास लेने के बाद वेणु  कमरे में आए। चुप और उदास! थोड़ी देर बाद जैसे अपने आप बोले: पिछले दो-ढ़ाई वर्षों से आठ हजार की नियमित आमदनी की आदत हो गई थी। दस हजार के करीब स्वतंत्र वार्ता से मिलते हैं। जीवन जैसे-तैसे चल रहा था। अब आगे सिर्फ अंधेरा है। संघर्ष करने की भी एक उम्र होती है। साठ का होने जा रहा हूँ। अब कोई काम मिलने से रहा। लेकिन मित्रों की इतनी बड़ी जमात है! उस पर जब मैं नजर डालता हूँ तो भविष्य जगमग लगता है।” वेणु आशा – निराशा के बीच की मन:स्थिति में थे |  मुझे उनके दूसरे काव्य संग्रह हवाएँ चुप नहीं रहतीं की देखना और सुनना शीर्षक कविता याद आई और देर तक दिमाग में बजती रही:

देखने के नाम पर
मेरे पास सिर्फ वह अंधेरा है
जो बढ़ता ही चला जा रहा है
लेकिन सुनने के नाम पर
ढ़ेर सारी किलकारियाँ हैं
घुटनों के बल
खिसक-खिसक कर आते हुए बच्चे भी।
मैं
जो कुछ भी देख पा रहा हूँ
वह आज है
लेकिन जो सुन रहा हूँ
वह आने वाला कल है।  
            चलिए कॉफी पीते हैं! वेणु ने कहा और हम आखिरी बार अपने मयकदे में थे। मयकदा यानी हिंदी विभाग के पीछे वाली कॉफ़ी की  दुकान। हम साथ-साथ अंतिम बार पेड़ के नीचे पड़े पत्थरों पर बैठकर कॉफी पी रहे थे। वेणु बीच-बीच में सिगरेट जलाते रहते थे। उस दिन भी हम देर तक बैठे रहे। दुनिया जहान की बातें करते रहे। वेणु पिछला भूल चुके थे और फॉर्म में थे। हमारी यह बैठक भी पहली बैठक-सी थी। अधिकतर वे ही बोले।  विश्वविद्यालय परिसर में हमारी वैसी बैठकी फिर नहीं हो पाई। हमारे साथ और कौन था यह तो याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि उस दिन मैं वेणु को छोड़ने वार्ता कार्यालय तक गया। हमारे साथ एम. फिल और  पी. एच. डी. के कुछ छात्र भी थे | 
            विश्वविद्यालय से छुट्टी के बाद स्वतंत्र वार्ता की नौकरी वेणु की जीविका का अंतिम पड़ाव थी। वे शाम की शिफ्ट में वहाँ बैठते थे। उनके जिम्मे रविवार के विशेष पन्ने थे। उसके अलावा प्रतिदिन अखबार में आचार्य रजनीश से लेकर अन्य बाबाओं के प्रवचनों के अंश होते थे जो प्रायः वेणु द्वारा तैयार किए जाते थे। प्रति सप्ताह जो राशिफल प्रकाशित होते थे, वे भी प्रायः वेणु लिखते थे। यह वेणु के नाम से नहीं, गोपालाचार्य के नाम से छपता था। एक बार दोपहर में जब मैं वेणु के घर गया तो वे राशिफल से संबंधित उस स्तम्भ के लिए किसी को डिक्टेशन दे रहे थे। मेरे लिए उन्होंने चाय मंगाई। मैं बैठकर चुपचाप चाय पीता रहा और वे डिक्टेशन देते रहे। काम पूरा होने के बाद उन्होंने वेदना में डूबी आवाज में कहा कि “जीविका के लिए वह सब भी करना पड़ता है, जिसमें अपनी कोई आस्था नहीं होती।”
            स्वतंत्र वार्ता तेलुगु और हिंदी में निकलने वाला हैदराबाद का प्रसिद्ध दैनिक पत्र है। तेलुगु संस्करण अधिक प्रसिद्ध है। वहाँ की तेलुगु पत्रकारिता की मुख्य धारा के पत्रों के साथ उसकी प्रतियोगिता है। लेकिन हिंदी संस्करण की वैसी स्थिति नहीं है। इसका मुख्य कारण अहिंदी भाषी शहर में उसका होना है। उसका मुख्य पाठक व्यवसायी और हिंदी के अध्यापकों और अंग्रेजी कम जाननेवाले हिंदी भाषियों का एक वर्ग है। यह वह वर्ग है जो सोच में पिछड़ा और दकियानूस है | अध्यात्म और धर्म के पन्नों के कारण इस वर्ग में उसकी शायद बिक्री होती थी। उन पन्नों को संभालने का मुख्य दायित्त्व वेणु गोपाल पर था, जिसका निर्वाह वे मन या बेमन से प्रतिष्ठान के अनुरूप करते थे।
            वेणु गोपाल तो उनका साहित्यिक नाम था। असली नाम नन्द किशोर शर्मा था। वेणु के पूर्वज बहुत पहले राजस्थान से जीविका की खोज में हैदराबाद गए और वहीं के होकर रह गए। एक मंदिर में पुजारी का काम शर्मा परिवार करता था। वेणु को पैतृक रूप में पुजारी का काम जीविका के लिए मिली, लेकिन मार्क्सवाद और नक्सलबाड़ी आंदोलन के असर में वे पुजारी के काम से भागते रहे। तेलुगु के क्रांतिकारी काव्य आंदोलन का प्रभाव भी उनपर था। क्रांतिकारी कवि वरवर राव, ज्वालामुखी, निखिलेश्वर आदि से परिचय-मित्रता भी थी। उस आंदोलन का ऐसा असर था कि वे घर-परिवार छोड़कर नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित साथियों के साथ इधर-उधर घूमते रहे | उसी दौरान उनकी गिरफ्तारी हैदराबाद के पास के कस्बे कागज नगर में हुई। गिरफ्तारी की खबर से देश के साहित्यिक जगत में वे  एक चर्चित नाम हो गए। गिरफ्तारी के दौरान उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। उन्हें एक ऐसे कमरे में बंद रखा गया जिसमें जहरीले जीव-जन्तु थे। वहाँ से निकलने के बाद उनके जीवन को जैसे पंख लग गए । वे इस शहर से उस शहर घूमते रहे। कभी विदिशा- भोपाल, कभी पटना, कभी राँची, कभी कलकत्ता। यायावरी वेणु गोपाल का प्रिय शौक थी । इसी क्रम में उन्होंने विजय बहादुर सिंह के सहयोग से पीएचडी कर ली। उन्हें उम्मीद थी की इस डिग्री के आधार पर उन्हें किसी कॉलेज या  विश्वविद्यालय में नौकरी मिल जाएगी, लेकिन उन्हें यह नौकरी नहीं मिलनी थी, सो नहीं मिली !
            एक बार कवि कुमार अंबुज अपने बैंक के काम से हैदराबाद गए। उनके आग्रह पर मेरे यहाँ उनकी, सुवास कुमार और वेणु गोपाल की रात भर की बैठकी का प्रोग्राम बना। खाना खाने के बाद हम चारों  जमीन पर गोलाकार  बैठ गए और शुरू हुई देश-दुनिया और साहित्य-संस्कृति की बेशकीमती बातचीत। उसी बातचीत के क्रम में अंबुज ने वेणु के ऊपर थोड़े आक्षेप भी किए, थोड़ा दुःख भी प्रकट किया। कुमार अंबुज का कहना था - वेणु तो हमारे हीरो थे, उन्हें पूजा-पाठ और ज्योतिष वगैरह का, बेमन से ही सही, काम करते हुए देखकर दुःख होता है। वेणु देर तक अंबुज को सुनते रहे। जब अंबुज चुप हुए तो उन्होंने  इतना ही कहा - किसी भी विचारधारा के लिए शहीद होने की जगह अपने परिवार और जीवन की रक्षा  मेरे लिए अधिक जरूरी है। वे बीच-बीच में उस मंदिर में पूजा-पाठ भी संभालते थे जहाँ से वे पैतृक रूप से जुड़े थे और जहाँ उनकी पत्नी और बच्चे रहते थे। अंबुज का हमला शायद उनके इसी काम को लेकर था।
            मैं जब हैदराबाद में था, तभी पटना के हमारे दो कवि मित्र- मदन कश्यप और कुमार मुकुल नौकरी छूट जाने से बेरोजगार हो गए। वार्ता संपादक से मेरा परिचय था। मैंने उन दोनों के लिए उनसे बात की। वे तैयार हो गए। क्योंकि वार्ता को उन दिनों अनुभवी पत्रकारों की जरूरत थी। दोनों के वार्ता ज्वाइन करने के बाद एक दिन जब वेणु से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने एक वाक्य कहा, जिससे मैं कई दिनों तक परेशान रहा। उन्होंने कहा : ‘ गोपेश्वर जी ! ध्यान रखिएगा कि मेरी नौकरी पर किसी तरह का संकट न आए। मुझे लगा कि मदन कश्यप और कुमार मुकुल के आने से वे असुरक्षित महसूस कर रहे थे। उन्हें लगने  लगा था कि संपादक कहीं उन्हें हटाकर उन दोनों को फीचर पेज का जिम्मा दे सकता है ! हालांकि ऐसी कोई बात नहीं थी। वेणु की यह चिंता निर्मूल थी। लेकिन असुरक्षाबोध से घिरे मन में इस तरह के ख़यालों का उठाना स्वाभाविक था। उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटी, जिसके लिए मैं अपने को जीवन भर माफ नहीं करूंगा। एक दिन शाम को वेणु से मिलने वार्ता दफ्तर गया। मैं वेणु की ओर जा रहा था तभी संपादक मिल गए और मुझे लिए हुए अपने केबिन में चले गए। हम दोनों  चाय पी रहे थे और बात कर रहे थे कि वेणु गोपाल अगले दिन छपने वाले अखबार के एक पेज का ऑफ प्रिंट लेकर आए। उसमें तकनीकी त्रुटि थी जो शायद वेणु की  असावधानी से छूट गई थी। संपादक ने उन्हें बहुत ज़ोर से डांटा और अपने चेम्बर से निकल जाने को कहा। वेणु ‘सॉरी’ बोलकर चुपचाप बाहर चले गए। मैं थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा | मन ख़राब हो गया | उठकर चला आया। लेकिन मन  में वह घटना आती-जाती रही। मुझे अब भी लगता है कि वह ऐसी गलती नहीं थी कि वेणु को एक बाहरी व्यक्ति के सामने इस तरह डांटा जाए ! मुझे आज भी अफसोस है कि मैंने संपादक को मना क्यों नहीं किया कि मेरे सामने यह सब न करें !        
            वार्ता के संपादक  शायद वेणु को  बहुत पसंद नहीं करते थे। इसका कोई कारण तो नहीं था, कारण था तो यह कि वे वेणु के कारण हीनताबोध के शिकार थे। वेणु का साहित्यिक सम्मान तो था ही, उनसे देश भर के बड़े- छोटे लेखक जब कभी हैदराबाद आते तो मिलने आते। नगर में भी वेणु की साहित्यिक प्रतिष्ठा थी। संपादक को अपने मातहत किसी व्यक्ति का इतना सम्मानित होना शायद  अच्छा नहीं लगता था ! इस कारण बाद में वेणु ने  मिलने आये  मित्रों से कार्यालय के बाहर मिलना शुरू किया, मित्रों को कम समय देना शुरू किया। हर हाल में उन्हें नौकरी बचानी जो थी!
            कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि वेणु गोपाल को गैंग्रीन हो गया। यह शायद 2004 की जनवरी-फरवरी के महीने थे। हम अस्पताल गए। पैर काटने की बात चल रही थी। वेणु के किसी मित्र ने ‘रामवाण-सा असर करने वाली’ होम्योपैथिक दवा लाकर दी थी। वेणु को उस दवा पर भरोसा था, हम उन पर कोई दवाब देना नहीं चाहते थे। कुछ दिनों तक उस दवा का सेवन उन्होंने किया लेकिन उसका असर कुछ भी न हुआ। अंततः पैर काटना पड़ा और वेणु वैशाखी पर चलने लगे। आत्मविश्वास से भरा, जमीन को दबाते हुए चलने वाला एक कवि वैशाखी पर खड़ा था, लेकिन चेहरे पर कोई दैन्य भाव नहीं था। हमें लगा कि वार्ता की नौकरी अब छूट जाएगी। हमलोगों ने संपादक से उनको नौकरी में जारी रखने का आग्रह किया। हमारा आग्रह था कि वेणु के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। लेकिन प्रबंधन का रवैया ऐसा रहा कि वेणु ने एक दिन कहा- गोपेश्वर जी, आप मानवीय व्यवहार की उम्मीद कर रहे थे, मेरे साथ तो दानवीय व्यवहार भी नहीं किया गया। इसके आगे मैं क्या कहूँ| वे वैशाखी पर चलते हुए वार्ता कार्यालय जाते और देर रात तक अपना काम करते रहते।
            कवि के साथ वेणु अच्छे रंगकर्मी भी थे। उनकी एक छोटी-सी रंग मंडली थी। उसके जरिए वे कभी-कभार नाटकों का मंचन करते और जगह-जगह उसका प्रदर्शन करते। वे जितने अच्छे नाट्य निर्देशक थे, उतने ही अच्छे अभिनेता भी। उनके नाटक मैंने देखे थे और उनका यह रूप भी मुझे बहुत पसंद था। अपने नाटक की एक भूमिका में जब वे बहुत शानदार अभिनय कर रहे थे तो हैदराबाद के हिंदी के प्रोफेसर ने ईर्ष्या भाव से कहा न जाने इसके कितने रूप हैं ! सचमुच वेणु के कई रूप थे। वे वास्तव में जीनियस थे। जीवन की मुश्किलों ने उन्हें किसी भी रूप में पूरी तरह खिलने न दिया !
            जब वे भोपाल में ब. व. कारन्त के साथ नाटक करना सीख रहे थे तभी उनके जीवन में वीरां जी आई। दोस्ती प्रेम में और प्रेम शादी में बदलते देर नहीं लगी। वीरां जी से वेणु की एक प्यारी-सी बच्ची थी कोंपल, जो बहुत अच्छी नृत्यांगना थी। वीरां जी बाद में भोपाल आ गई थी और वहीं के जूनियर कॉलेज में पढ़ाने लगी थीं । वेणु गोपाल कभी वीरां जी के साथ होते, कभी मंदिर वाली अपनी पहली पत्नी के साथ। दो घरों में बंटा हुआ उनका जीवन कितना तनावपूर्ण रहा होगा, इसकी मैं सिर्फ कल्पना भर कर सकता हूँ। इसी बंटे हुए जीवन के कारण वे शायद बिखर गए !
            पहली पत्नी से, जहाँ तक याद है,  एक लड़की और एक लड़का था। लड़की की शादी उसी मंदिर वाले  घर में हुई थी। हैदराबाद का साहित्यिक समाज उस दिन एकत्रित था। वेणु ने पिता के सारे धार्मिक कर्मकांड पूरे किए। शादी में आने वाले खर्च की व्यवस्था उन्होंने कैसे की यह तो वही जानते थे । बेटे को जब इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के समय भी वेणु को भयंकर अर्थ संकट से जूझना पड़ा। दिल्ली के एक कथाकार ने, जो पहाड़ से आता है, जो ख़ुद बेरोजगार युवाओं का अपनी पत्रिका के लिए शोषण करता है , जो पम्फ़लेटनुमा एक मासिक  पत्रिका निकालता है और जो खुद को भारी क्रांतिकारी समझता है, वेणु की अपनी पत्रिका में ख़ूब लानत-   म लामत  की कि यह सेठों से अपने बेटे की पढ़ाई के लिए चंदे उगाहता है।
            जून 2004 में जब मैं हैदराबाद छोड़ रहा था तो वेणु से मिलने गया- वीरां जी के घर पर। उस दिन हमारी बातचीत न के बराबर हुई। हम चाय पीते रहे और लगभग चुप-चुप-सा रहे। दिल्ली आने के बाद हमने एक-दूसरे को चिट्ठियाँ लिखीं। दिल्ली से वेणु को अनेक शिकायतें थी। वे मुझे हिदायद दे रहे थे कि मैं दिल्ली की मानसिकता में आने से अपने को बचाऊँ !
कुछ समय बाद हम  वार्ता कार्यालय के बाहर मिले। मैं और अरुण कमल किसी सिलसिले में हैदराबाद में थे। फोन किया तो वेणु ने शाम को कार्यालय के बाहर बुलाया। हम सड़क किनारे खड़े थे। वेणु बैशाखी पर धीरे-धीरे आए। थोड़ी देर हमने बात की। यह  वेणु से मेरी आखिरी मुलाक़ात थी। कुछ समय बाद  मैं बरेली में वीरेन डंगवाल  के साथ बैठा हुआ था। वेणु की चर्चा चली। वीरेन ने फोन लगाया। उधर से वेणु ने कहा कि वे कैंसर से पीड़ित हैं। और ज्यादा दिन अब नहीं बचेंगे। वीरेन डबराल ने उन्हें प्यार भरी डांट लगाई और कहा कि हमसे यह नाटक मत करो। फिर फोन मेरी ओर बढ़ा दिया। हमने उस दिन यही समझा कि वेणु ने हमसे मज़ाक किया है। लेकिन वह सच था। गैंग्रीन के बाद वे  सचमुच कैंसर से जूझ रहे थे। कुछ ही दिनों बाद 2 सितंबर 2008 की सुबह खबर मिली कि कवि वेणु गोपाल का कल निधन हो गया। लीलाधार मंडलोई और मेरे प्रयास से दिल्ली में वेणु गोपाल की स्मृति में  सभा हुई, जिसमें बड़ी संख्या में लेखक-संस्कृतिकर्मी आए। अशोक वाजपेयी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, मैनेजर पाण्डेय आदि साहित्यकारों ने उन्हें बहुत शिद्दत  से याद किया। लीलाधार मंडलोई ने, जब मैं हैदराबाद में था, दूरदर्शन के लिए वेणु का एक इंटरव्यू कराया था। उसके बाद भी कुछ इंटरव्यू कराए। वेणु को जो लोग बेइंतहा प्यार करते थे उनमें  एक लीलाधार मंडलोई भी थे। वे वेणु की रचनाओं को एक जगह संपादित प्रकाशित करने में लगे थे। पता नहीं यह काम कहाँ तक पहुँचा!
            वेणु गोपाल के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित थे- वे हाथ होते हैं (1972), हवाएँ चुप नहीं रहती और चट्टानों का जलगीत (1980)। पत्र-पत्रिकाओं में अभी भी  कई संग्रहों लायक कविताएँ बिखरी पड़ी हैं। कुछ पूरी-अधूरी कविताएं अप्रकाशित भी होगी। अंतिम दिनों में वेणु ने बहुत अच्छी कहानियाँ भी लिखीं । कुछ संस्मरण भी लिखे। संभव है, नाटक भी लिखे हों! ये सारी रचनाएँ अप्रकाशित है। हवाएँ चुप नहीं रहती संग्रह में सपना मेरा ही है शीर्षक कविता है। यह कविता आपातकाल में लिखी गई थी। लेकिन आज जब मैं इसे पढ़ता हूँ तो लगता है जैसे वेणु गोपाल ने गैंग्रीन और कैंसर जैसे अंधेरे से संघर्ष करते हुए यह कविता अभी-अभी लिखी है और लिखते-लिखते हमसे सदा के लिए दूर चले गए हैं-
“पहली बार ऐसा लग रहा है कि
इस बार लौटना
नहीं हो सकेगा
मंजिल पर
उतर जाऊँगा तो बस उतर ही जाऊँगा,
इस भीड़ के साथ
और
वह स्टेशन कभी नहीं
देख पाऊँगा जहाँ से,
मेरे पिछले सारे सफर शुरू होते थे

और खत्म भी वहीं।”

Wednesday 22 November 2017

अब तो सारा मुल्क ही चंपारण है|

चंपारण सत्याग्रह का यह सौवाँ साल है!
बोल्शेविक क्रांति का भी यह सौवाँ साल है!
दोनों को एक साथ क्यों याद किया जाए? कहाँ बोल्शेविक क्रांति और कहाँ चंपारण सत्याग्रह! दोनों में तुलना लायक क्या है?
 बोल्शेविक क्रांति ने न सिर्फ रूस को बदला था, बल्कि पूरी दुनिया में समाजवादी बदलाव की आँधी ला दी थी. देखते-ही-देखते दर्जनों देशों में समाजवादी क्रांति हुई और पूँजीवादी देशों के शिविर के समानांतर समाजवादी शिविर अस्तित्व में आया जो पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती देने का मंच बना. समाजवादी शिविर का नेतृत्व यू.एस.एस.आर. कर रहा था, जो रूस और उसके अनेक गणराज्यों के जबरन मेल का परिणाम था. गैर समाजवादी शिविर वाले देशों में भी मार्क्सवाद और समाजवादी व्यवस्था के दीवाने लोगों की बड़ी संख्या थी. मार्क्सवाद से प्रेरित कम्युनिस्ट पार्टी या दूसरे नामों से पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष करने वाले समूहों की छोटी-बड़ी हलचलें तब आम बात थीं. संक्षेप में यह कि बोल्शेविक क्रांति के कारण जहाँ समतामूलक समाज बनाने के स्वप्न का सगुण-साकार होना संभव हुआ. वहीं पूरी दुनिया में उसकी धमक सुनाई पड़ने लगी.
          लेकिन सत्तर साल बाद ही यू.एस.एस.आर. ताश के पत्तों की तरह बिखर गया. वहाँ पूँजीवादी व्यवस्था कायम हो गई. गणराज्य स्वतंत्र होते गए और यह बात भी कही जाने लगी कि वे सोवियत साम्राज्य के अधीन थे. यू.एस.एस.आर. के बिखरने के साथ ही दूसरे समाजवादी देशों में भी जनता ने समाजवादी व्यवस्था उखाड़ फेंकी और पूँजीवादी व्यवस्था स्वीकार कर ली. चीन जैसे देश ने पूँजीवादी बाज़ार नीति अपनाकर किसी तरह अपनी प्राण की रक्षा की. अब वह कितना समाजवादी है, यह वही जाने! आज के दिन क्यूबा जैसे कुछ छोटे देशों में समाजवादी व्यवस्था टिमटिमाते दीये की तरह है!
          चंपारण सत्याग्रह वैसी परिघटना न थी. उसकी गूंज दुनिया में वैसी न सुनाई पड़ी, जैसी बोल्शेविक क्रांति की थी.  ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध जो भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन था, उसकी दिशा उसने ज़रूर तय कर दी. भारत में गाँधी के प्रयोग की यह प्रथम प्रयोगशाला है, जिसने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की शब्दावली और उसके तौर-तरीके बदलकर रख दिए. चंपारण सत्याग्रह को गाँधी ने अपनी तरह से परिभाषित किया और गाँधी को भी वहाँ के अनुभवों ने भविष्य के मुक्ति-संघर्ष की राह दिखाई. इस आन्दोलन के दौरान संघर्ष के जो हथियार विकसित हुए, वे आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं; न सिर्फ भारत के लिए बल्कि सारी दुनिया के लिए. साउथ अफ्रीका के मुक्ति संग्राम में नेलसन मंडेला के लिए गाँधी और उनके सत्याग्रह का जो महत्त्व था, वह उसके धीरे-धीरे, पर दूरगामी असर का प्रमाण था.
          गाँधी 10 अप्रैल 1917  को कलकत्ता से सुवह 10 बजे पटना पहुंचे. यह उनकी पहली बिहार यात्रा थी. वे 1 फरवरी 1918 तक बिहार में रहे. 15 अप्रैल को वे चंपारण मुख्यालय मोतीहारी पहुँचे और 30 जनवरी 1918 को वे चंपारण से सत्याग्रह का संचालन करने के पश्चात् विदा हुए. दो दिन पटना में रहने के बाद बम्बई के लिए निकल पड़े, जहाँ से उन्हें अहमदावाद जाना था. नौ महीने बीस-बाईस दिन के करीब वे बिहार में रहे, जिसका मुख्य केंद्र चंपारण था. इस दौरान उन्होंने जिस ढंग से काम किया, जो जन-जागृति पैदा की, सामाजिक-राजनीतिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक जो आदर्श गढ़े, जितने समर्पित नेता-कार्यकर्ता तैयार किए तथा सत्याग्रह की सफलता की जो सघन तैयारी की, उसने स्वतंत्रता आन्दोलन की दशा और दिशा दोनों बदल दी. चंपारण सत्याग्रह के पहले कांग्रेस, गाँधी के ही अनुसार सिर्फ प्रस्ताव पास करने तथा जलसे करने वाली संस्था भर थी, वह चंपारण के बाद व्यापक आन्दोलन में बदलने लगी. चंपारण आने पर जो गाँधी मि. एम.के. गाँधी या मि. गाँधी थे, वे ‘गान्ही महात्मा’ या ‘महातमा जी’ कहलाने लगे. ‘बापू’ संबोधन भी यहीं प्रचलित हुआ. जो गाँधी चंपारण के एक अनपढ़ किसान राजकुमार शुक्ल के साथ बिहार की धरती पर अकेले गए थे, जहाँ वे किसी को जानते न थे, जहाँ की बोली-बानी से परिचित न थे, वही गाँधी लाखों लोगों के ‘बापू’ और ‘महात्मा’ बनकर चंपारण और बिहार से विदा हुए. व्यापक जन भागीदारी से सफल हुए सत्याग्रह के बाद गाँधी जब चंपारण से विदा हुए तो वे नए गाँधी थे. नई वेश-भूषा, नए संबोधन और नए संकल्प से युक्त. इन नौ-दस महीनों में गाँधी ने चंपारण को बदल दिया था और चंपारण ने गाँधी को.
          बिहार का उत्तरी-पश्चिमी इलाका, जिसके उत्तर में नेपाल और पश्चिम में उत्तर प्रदेश है, चंपारण कहलाता है. अब यह पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण नाम से दो जिलों में बंट चुका है. पूर्वी चंपारण का मुख्यालय मोतीहारी और पश्चिमी चंपारण का बेतिया है. जब चंपारण एक था, तब उसका मुख्यालय मोतीहारी था. 15 अप्रैल 1917 को इसी मोतीहारी के छोटे-से स्टेशन पर गाँधी उतरे थे, जहाँ राजकुमार शुक्ल समेत उनका स्वागत करने के लिए बहुत से लोग  उपस्थित थे. वहाँ उमड़े जन-समूह  को देखकर गाँधी को चंपारण की पीड़ा और अपने से लोगों की जो उम्मीदें थीं, उसका अहसास हुआ. पटना में जब वे राजकुमार शुक्ल के साथ पाँच दिन पहले उतरे थे, तब स्टेशन पर उनके स्वागत में कोई नहीं था. शुक्ल उन्हें लेकर राजेन्द्र प्रसाद के घर गए, लेकिन उन दोनों के दुर्भाग्य से वे घर पर नहीं मिले. नौकरों ने उन्हें वहाँ टिकने न दिया. शुक्ल की कोई दूसरी  जान-पहचान नहीं थी. तब गाँधी को संकट काल में इंग्लैंड के अपने सहपाठी मित्र मजहरुल हक़ की याद आई. मजहरुल हक़ तब पटना के मशहूर बैरिस्टर थे. खबर मिलते ही वे अपने घर ले गए. गाँधी का दिल खोलकर स्वागत किया, लेकिन चंपारण मामले में उदासीनता बरती, बल्कि गाँधी को हतोत्साहित ही किया. पटना के बाद गाँधी का पड़ाव मुजफ्फरपुर में था. वहाँ स्थिति थोड़ी बेहतर थी. एल.एस. कॉलेज में पढाने वाले जे.बी. कृपलानी और उनके कुछ छात्र स्टेशन पर आगवानी करने आए थे. वहाँ कुछ वकीलों का गाँधी को साथ मिला. मुजफ्फरपुर तिरहुत कमिश्नरी का मुख्यालय था, जिसका एक जिला चंपारण था. मुजफ्फरपुर के कमिश्नर ने गाँधी को चंपारण जाने से मना कर दिया. बावजूद गाँधी वहाँ गए, क्योंकि उनका तर्क था कि मुझे अपने देश में कहीं जाने से कैसे रोका जा सकता है! वही गाँधी पटना और मुजफ्फरपुर की परेशानियों-रुकावटों को पार कर जब मोतीहारी पहुँचे तो वहाँ दूसरा नजारा था. उनके भीतर अपने चंपारण आने का संकल्प मजबूत होता गया.
          मोतीहारी में राजेन्द्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, गोरख प्रसाद, धरणीधर प्रसाद आदि नामी वकीलों का भी उन्हें भरपूर सहयोग मिला. भोजपुरी न जानने वाले गाँधी को नील की खेती के साथ जनता के दुःख-दर्द और चंपारण की परेशानियों को समझना  इन वकील साथियों के बिना कठिन होता.तब बिहार में कांग्रेस नाम मात्र को सक्रिय थी. उसका कोई ख़ास संगठन भी नहीं था कि गाँधी को कोई सहयोग मिलता. वे वकील ही आगे चलकर प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बनें. इसमें कई राष्ट्रीय स्तर के नेता बनें. राजेन्द्र प्रसाद ने बाद में वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. जे.पी. कृपलानी ने भी प्रोफेसरी छोड़ दी. इन दोनों की पहचान स्वतंत्रता के पूर्व तो राष्ट्रीय स्तर पर थी ही, स्वतंत्र भारत में भी दोनों बड़े नेता के रूप में समादृत हुए. राजेन्द्र प्रसाद को स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ‘देश रत्न’ कहा जाता था. वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा के अध्यक्ष और 1952 से 1962 तक भारत के राष्ट्रपति बने. जे.बी. कृपलानी ने आज़ादी के बाद ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ बनाई और भारत के लोकतंत्र को जनोन्मुख बनाने में अपनी भूमिका निभाई. ब्रजकिशोर प्रसाद के बिना बिहार में कांग्रेस के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती. उन्हीं के प्रयास से लखनऊ कांग्रेस में चंपारण संबंधी प्रस्ताव पेश हुआ था. ब्रजकिशोर बाबू की ही बड़ी बेटी से जय प्रकाश नारायण की बाद में शादी हुई. जय प्रकाश नारायण जो बाद में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी आन्दोलन के शिखर नेता बने. मजहरुल हक़ बाद के वर्षों में गाँधी प्रभाव में सब कुछ छोड़-छाड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. वे एक सफल बैरिस्टर थे. बैरिस्टरी से उन्होंने खूब पैसे कमाए थे. गाँधी जब पटना से मोतीहारी जाने के क्रम में उनसे मिले थे तो उनके मन में गाँधी की मोतीहारी यात्रा और उसके प्रयोजन को लेकर किंचित व्यंग्य भाव ही था. बाद के दिनों में वे ऐसे बदले कि मौलाना मजहरुल हक़ कहलाने लगे. अमीर का जीवन छोड़कर फकीर की तरह रहने लगे. उन्होंने पटना के बगल में दीघा गाँव की अपनी पैंतालिस एकड़ जमीन कांग्रेस को दान कर दी. गांधीवादी आदर्शों के अनुरूप वहाँ एक आश्रम बना जो ‘सदाकत आश्रम’ कहलाया. यही बिहार में स्वतंत्रता आन्दोलन का केंद्र बना. मजहरुल हक़ यहीं रहते थे. आश्रम का काम अगल -बगल के गाँवों से ‘मुठिया’ वसूलकर चलता था. राजेन्द्र प्रसाद भी बाद में इसी सदाकत आश्रम में रहने लगे. आज़ादी प्राप्ति के बाद वहीं से वे राष्ट्रपति भवन गए और वहाँ का कार्यकाल पूरा होने पर पुनः वहीं लौटे और मृत्युपर्यंत वहीं रहे. वह खपड़ैल मकान अब भी उसी रूप में है. सदाकत आश्रम में ही गाँधी की प्रेरणा से राष्ट्रीय विश्वविद्यालय ‘बिहार विद्यापीठ’ की स्थापना हुई. चरखा केंद्र समेत दूसरे गांधीवादी रचनात्मक कार्यों का केंद्र ‘सदाकत आश्रम’ बना. मौलाना मजहरुल हक़, राजेन्द्र प्रसाद और जय प्रकाश नारायण आज़ादी के दौरान बने लोकगीतों में गाँधी के साथ शामिल किए गए. यह उन नेताओं की लोक स्वीकृति का प्रमाण था. कहने दीजिए कि यह गाँधी के चंपारण सत्याग्रह का ‘बाइ प्रोडक्ट’ था.
          गाँधी को चंपारण ले जाने का एकमात्र श्रेय जिस व्यक्ति को है, वह राजकुमार शुक्ल थे. वे धोती मिरजई पहनने वाले सीधे-सादे अनपढ़ किसान थे, लेकिन उनकी जन चेतना और सामजिक सक्रियता ग़जब की थी. पत्राचार के जरिए वे चंपारण के निलहे गोरों के अत्याचार से तथा गरीब जनता की दुर्दशा से गाँधी को अवगत करा चुके थे.लखनऊ कांग्रेस के दौरान वे बड़ी मिहनत से गाँधी से मिले. उन्हें वहाँ की स्थिति की जानकारी दी और वहाँ चलने का आग्रह किया. गाँधी ने उन्हें आश्वस्त किया. बाद में गाँधी के बुलाने पर वे कलकत्ता गए और गाँधी को लेकर चंपारण लौटे. उनकी ही सक्रियता का परिणाम था कि मुजफ्फरपुर, मोतीहारी और चंपारण के दूसरे इलाकों में गाँधी गए और व्यापक जन आन्दोलन और जागरण की शुरुआत हुई. वे कोई साधन संपन्न व्यक्ति नहीं थे. उस जमाने में यातायात और संचार के साधन भी कम थे. फ़िर भी उस अनपढ़ किसान ने गाँधी के जरिए चंपारण की धरती पर वह करिश्मा कर दिया जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नया प्रस्थान बिंदु बना.
          चंपारण उपजाऊ भूमि का इलाका है. दूसरी फसलें भी होती हैं, लेकिन धान की खेती के लिए वह विख्यात है. धान की न जाने कितने किस्में वहाँ मिलती रही हैं. चंपारण के बासमती चावल का जोड़ पूरी दुनिया में मिलना कठिन है. स्वाद में तो वह बेजोड़ है ही, उसकी सुगंध का कोई जवाब नहीं! जब तक धान और दूसरी फसलों की खेती होती रही, तब तक कोई समस्या नहीं आई. समस्या तब आई जब परंपरागत खेती की जगह नकदी फसलों की खेती कराई जाने लगी. ऐसी नकदी फसलों में गन्ना के अलावा नील की फसल थी जिसकी खेती के लिए किसान विवश किए गए. नील की कंपनियों के मालिक अंग्रेज थे. ये ज्यादातर फ़ौज या प्रशासन के रिटायर्ड ऑफिसर्स थे. नील कंपनी के मालिक को स्थानीय जन ‘निलहा’ कहते थे. चंपारण नील के कारोबारी ये ‘निलहे’ तब सौ के ऊपर थे. सरकार से इन्हें नील के कारोबार का अधिकार मिला हुआ था. उन्होंने नील की फसल इकठ्ठा करने, उन्हें उबालने और नील की टिकिया बनाने के लिए बड़ी-बड़ी कोठियाँ कायम कर रखी थीं ; जिन्हें लोग ‘निलहा कोठी’ कहते थे. निलहा कोठी के अलावा इन कंपनी मालिकों के बड़े-बड़े फॉर्म हाउस थे जिनमें ये रहते थे. उसकी सेवा में हर कोठी में दर्जनों देसी  नौकर-चाकर  लगे  होते थे. इनके नील के कारोबार के लिए नील की खेती का काम किसान करते थे. प्रति बीघा तीन कट्ठे में नील लगाना चंपारण के किसानों के लिए बाध्यकारी था. इसे ही ‘तीन कठिया’ कहा गया. नील की खेती का काम हाड़-तोड़ मिहनत मांगता था. खेत की बहुत ही महीन जुताई करनी पड़ती थी. धान, गेंहूँ, मकई आदि की तुलना में नील के खेतों को बीज डालने के पूर्व तैयार करना, किसानों के लिए ऐसा काम था, जैसा इन्होंने कभी किया नहीं था. खेतों की जांच में कमी पाने पर निलहे या उसके मैनेजर और कारिंदे कड़ी सजा देते थे. नील के बीज विदेश से आते थे, जिसे किसान खरीदते या उधार लेते थे. नील के पौधे बहुत नाजुक होते थे और उसके रख रखाव में बहुत मिहनत और सावधानी बरतनी होती थी. इनकी सिंचाई के लिए पानी की बहुत जरूरत थी. फसल कटने पर जरा-सा पानी पड़ने पर फसल बर्बाद हो जाती थी. कार्तिक में नील के बीज डाले जाते थे और भादो तक इसकी अंतिम कटाई होती थी. जिस अनुपात में मिहनत थी उस अनुपात में किसानों को आमदनी नहीं होती थी. नील की खेती से किसान तबाह हो रहे थे. निलहों  के खिलाफ किसानों में असंतोष बढ़ रहा था. कुछ हिंसक झड़पें भी हुईं. इन हिंसक झड़पों में किसानों पर खूब मार पड़ी. पुलिस और प्रशासन प्रायः निलहों का साथ देता था. निलहों का अत्याचार जब सीमा पार करने लगा तो किसान जगने लगे और प्रतिरोध की आवाजें उठने लगीं. ऐसे ही किसानों के प्रतिनिधि के तौर पर राजकुमार शुक्ल उभरे.
          नील की खेती करने वाले किसान तो निलहों के शोषण के शिकार थे ही, उनसे अधिक शोषण के शिकार वे मजदूर थे जो नील के पौधों से नील की टिकिया बनाने का काम करते थे. नील के पौधे को बड़े-बड़े हौंदों में कमर तक पानी में डूबकर मड़ाई करना, फ़िर पौधों के डंठल  को अलग करना, उस पानी को कडाहों में उबालना और टिकिया बनाना इन मजदूरों का काम होता था. नील की टिकिया को बक्सों में पैक किया जाता था फ़िर उसे नदी के रास्ते पटना, कलकत्ता ले जाया जाता था, जहाँ से उसे विदेश भेजा जाता था. विदेश में वह कई गुना ऊँची कीमत पर बिकता था. एक तो इन मजदूरों का पूरा शरीर नीला पड़ जाता था, हाथ-पाँव सड़ जाते थे, दूसरे उन्हें सामजिक रूप से हिकारत के भाव से देखा जाता था. यह काम ज्यादातर पिछड़ी-दलित जातियों के मजदूर करते थे. ऐसे मजदूरों में झारखंड से आए आदिवासी मजदूर भी होते थे. किसानों से भी ज्यादातर इन मजदूरों का भयंकर शोषण था. कुल मिलाकर चंपारण के किसान और मजदूर दोनों नील की खेती से बर्बाद हो रहे थे और वे निलहे साहबों के अत्याचार सहने को अभिशप्त थे.
गाँधी ने अपने वकील साथियों के साथ बैठकें कीं और सारे तथ्य जुटाए. इसके अतिरिक्त उन्होंने वकील साथियों और राजकुमार शुक्ल सहित अन्य किसानों के साथ बेतिया और सुदूर ग्रामीण इलाकों की यात्राएँ कीं. कभी हाथी पर चढ़कर, कभी पैदल चलकर ये यात्राएँ पूरी हुई. गाँधी ने सीधे किसानों की बातें सुनीं; उनकी दुर्दशा देखी और अपने आन्दोलन यानी सत्याग्रह की रुपरेखा बनाई. वे आए तो थे पाँच-दस दिनों के लिए लेकिन रुक गए लगभग दस महीने. इसका कारण यह था कि सत्याग्रह के रास्ते ‘निलहा राज’ से मुक्ति के अतिरिक्त चंपारण सत्याग्रह के जो एजेंडे उन्होंने तय किए वे बिना वहाँ जमकर बैठे पूरे  नहीं होते. उन्होंने जैसे तय कर लिया था कि निलहा राज से मुक्ति के बहुत आगे भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की दिशा तय कर देनी है, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को प्रस्ताव पास करने वाली पार्टी से आगे व्यापक जन भागीदारी और जन आन्दोलन की पार्टी बनाना है. इसके लिए कांग्रेस का एक करोड़ ‘चवनिया मेंबर’ और पच्चीस लाख चरखा चलाने वाले सत्याग्रहियों का जत्था तैयार करने का विचार उनके मन में वहीं आया. हिन्दू-मुस्लिम एकता, छुआछूत का खात्मा, बुनियादी शिक्षा पर जोर, ग्राम स्वराज आदि अपनी बुनियादी धारणाओं का बीज- वपन गाँधी ने चंपारण में ही किया. इसके लिए उन्होंने संगठन बनाए, लोगों को जागरुक किया, पाठशालाएँ खोलीं, आश्रम बनाया, सत्याग्रहियों को नए आचार-विचार में ढाला और संघर्ष की सत्य-अहिंसा आधारित नई जमीन तैयार की. इस तरह चंपारण सत्याग्रह के रूप में उन्होंने भारत के भावी स्वतंत्रता संग्राम की खूबसूरत प्रस्तावना लिखीं. और अब कौन नहीं जानता कि हमारा स्वातंत्र्य-संग्राम उसी दिशा में चला जिस दिशा में गाँधी उसे ले गए.
          सत्याग्रह प्रतिरोध और संघर्ष के औजार के रूप में चंपारण में ही सगुण-साकार हुआ. एक प्रयोग वे दक्षिण अफ्रीका में कर चुके थे, लेकिन वहाँ उनके संघर्ष के लक्ष्य सीमित थे. चंपारण में सत्याग्रह को परिभाषित भी किया और आजमाया भी. अपने उस प्रयोग में वे सफल हुए और उनका सिक्का चल गया. उन्होंने सबसे पहले अपनी प्रतिरोधी राजनीति को सत्य और अहिंसा का आधार दिया. उस आधार को सादगी, श्रम, सफाई, निर्भयता, स्वावलंबन आदि स्वदेशी जीवन मूल्यों से मजबूत किया और सत्याग्रह को मुक्ति और प्रतिरोध के पवित्र हथियार के रूप में देश-दुनिया के सामने रखा.
          चंपारण सत्याग्रह का एक सीमित उद्देश्य था- निलहा राज से मुक्ति. यह लड़ाई गाँधी ने कानून के दायरे में लड़ी. उनका वकील होना और अंग्रेजी भाषा का जानकार होना इस कानूनी लड़ाई में बहुत काम का साबित हुआ. कलक्टर, कमिश्नर, मजिस्ट्रेट आदि अंग्रेज अधिकारियों से बात करते हुए गाँधी ने उन्हीं के अखाड़े में उन्हें चित्त कर दिया और उन्हें निरुत्तर कर दिया. चंपारण प्रवेश पर रोक लगाने वाले और चंपारण से निकल जाने की बात करने वाले अंग्रेज अधिकारियों को कुछ सूझ नहीं पाया कि यह आदमी जब असत्य नहीं कहता और अपनी बात के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेता तो किस बिना पर इसे गिरफ्तार किया जाए या चंपारण से निकल जाने को कहा जाए ! इसलिए बहुत-से ईमानदार अंग्रेज गाँधी के प्रशंसक हो गए. लेकिन इसी के साथ यह तथ्य भी ध्यान में रखने का है कि व्यापक जन समर्थन और गाँधी के लिए लोगों में जो जज्बा था, उसकी अनदेखी ब्रिटिश सरकार नहीं कर सकती थी. निलहों का जुल्मी राज ख़त्म हुआ और चंपारण की जनता ने गीत गाया- ‘गईल निलहवा के राज...’.
          चंपारण में नील की खेती लगभग तीन दशक तक चली. 1890 के बाद और 1917 के आसपास तक. पहले बंगाल में इसकी खेती हो चुकी थी- लगभग पचास वर्षों तक. वहाँ भी लम्बा संघर्ष चला. तब निलहे भागे और उनमें बहुत-से चंपारण की ओर गए. 1917 में भी नील की खेती भले चंपारण में होती रही हो, लेकिन कृत्रिम नील का विकास यूँ भी नील की परम्परागत खेती को अप्रासंगिक बना रहा था. चंपारण आन्दोलन न होता तो भी देर-सबेर नील की खेती को बंद होना ही था. लेकिन समय से पूर्व ‘निलहा राज’ की समाप्ति से जो राष्ट्रीय और वैश्विक सन्देश गया उसका असर बहुत दूरगामी साबित हुआ. ‘निलहा राज’ की समाप्ति के साथ गाँधी ने सत्याग्रह और अपने रचनात्मक कार्यों की जो अतिरिक्त जमीन तैयार की, वहीं से भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के इतिहास में गाँधी युग का प्रारम्भ हुआ. वह ‘अतिरिक्त’ क्या था?
          उस ‘अतिरिक्त’ में बहुत कुछ है. बुनियादी शिक्षा, सांप्रदायिक सौहार्द, स्वावलंबन, सफाई, खान-पान में छुआछूत की समाप्ति आदि. लेकिन उनका सबसे बड़ा काम   सत्याग्रह के लिए जनता को ‘अभय’ करना था. अभय वही होगा जो लोभ-लाभ रहित जीवन-पथ का अनुयायी होगा, जिसके न्याय का आधार सत्य होगा और अहिंसा प्रेम के जरिए उसे वह हासिल करेगा. इन्हीं के सहारे गाँधी ने चंपारण की जनता को अन्याय के प्रतिकार के लिए अभय होकर सत्याग्रही होना सिखलाया. गाँधी चंपारण गए थे तो उनके विदेशी साथी चार्ली और एंड्रूज भी बाद में वहाँ पहुँचे. उन गोरी चमड़ी वालों को अपने बीच पाकर वहाँ के लोगों को मानसिक राहत महसूस होती थी. जब वे अपने काम से जाने की तैयारी करने लगे तो लोग नहीं चाहते थे कि वे जाएँ. लोगों को लगता था कि ये रहेंगे तो निलहे हम पर अत्याचार नहीं करेंगे. गाँधी ने लोगों की यह कमजोरी महसूस की और अपने मित्र चार्ली और एंड्रूज को जाने दिया. शासन और निलहों का जो भय लोगों के दिलों में था, उसे वे दूर करना चाहते थे.
सत्याग्रही के लिए, गाँधी ने कहा कि, गरीबी का जीवन जीना अनिवार्य होगा. कम से कम में अपनी जरूरतें पूरी करना और सादा जीवन जीना उनका यह सन्देश सभी सत्याग्रहियों के लिए था. इसका व्यापक असर पड़ा. चंपारण में उनके साथ काम करने वालों पर उनके गरीबी वाले इस दर्शन का तो असर पड़ा ही, इसका व्यापक असर भारतीय राजनीति पर भी पड़ा. सादगी भारतीय राजनीति का आदर्श हो गई. सुभाष, पटेल, नेहरू  आदि नेताओं पर भी इसका असर पड़ा. चंपारण में अपने साथ काम करने वाले राजेन्द्र प्रसाद के वे प्रशंसक हो गए. इसकी पहली वजह थी उनकी विलक्षण स्मृति और लिखने-पढ़ने की विलक्षण प्रतिभा, लेकिन जिस चीज ने गाँधी को प्रभावित किया वह थी राजेन्द्र बाबू की सादगी. गाँधी से मुलाक़ात के पूर्व ही वे स्वदेशी के प्रेमी थे, यह बात गाँधीजी को बहुत अच्छी लगी. हालाँकि मि. जिन्ना और डॉ. अम्बेडकर ने गाँधी के सत्याग्रहियों के लिए इस गरीबी वाले दर्शन को कभी स्वीकार नहीं किया.
          गाँधी जब चंपारण गए तो काठियाबाड़ी वेश-भूषा में थे. नंगे पाँव रहते थे. अपने राजनीति गुरू गोपाल कृष्ण गोखले के शोक में उन्होंने तत्काल जूते-चप्पल पहनना छोड़ रखा था. उन दिनों खाने में सूखे मेवे, मूंगफली और शहद का वे प्रयोग कर रहे थे. चंपारण में रहते हुए इसे उन्होंने बदला और वहाँ के चावल खाने लगे. शुरू में उन्होंने देखा कि उनके साथ के जितने वकील साहबान और अन्य लोग हैं, सबके रसोइए अलग-अलग हैं. यह खान-पान में शुद्धता के आग्रह का और भेद-भाव का लक्षण था. गाँधी ने इसे बदला और सत्याग्रहियों के लिए सामूहिक खान-पान की आदत डाली. जन संपर्क के दौरान उन्हें चंपारण की जनता की भयावह आर्थिक-सामाजिक दुर्दशा का तो पता चला ही, गरीबी के एक ऐसे सच से उनका साक्षात्कार हुआ जिसने उन्हें हिलाकर रख दिया.इसी दौरान उन्हें एक ऐसी औरत मिली जिसके तन पर केवल एक साड़ी थी उसके अतिरिक्त कोई वस्त्र उसके पास नहीं था. इस कारण उसका नहाना-धोना बहुत मुश्किल था. यह देखने के बाद गाँधी को अपनी काठियाबाड़ी पगड़ी, लम्बी धोती और कुर्ता व्यर्थ लगने लगा.
          गाँधी की सक्रियता, श्रम करने की आदत, सादगी और पारदर्शी जीवन का चंपारण और वहाँ के साथियों पर गहरा असर पड़ा. वहीं वे ‘महात्मा जी’ कहलाने लगे. राजकुमार शुक्ल और उनके साथी इसी संबोधन से उन्हें संबोधित करते थे. बाद में कानपुर के ‘प्रताप’ अखबार ने भी  महात्मा जी लिखना शुरू किया.यह ठीक है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बाद में विधिवत उन्हें ‘महात्मा’ कहना शुरू किया और वे मि. गाँधी से ‘महात्मा गाँधी’ हो गए, लेकिन शुरुआत चंपारण की जनता ने और कानपुर के अखबार ‘प्रताप’ ने की. यहीं रहते हुए हिंदी के राष्ट्रभाषा का ख्याल उनके मन में आया और रवीन्द्रनाथ से इस सम्बन्ध में उनका पत्राचार भी हुआ. गाँधी जब चंपारण गए थे, तब साबरमती आश्रम बन रहा था. बीच-बीच में वे न सिर्फ साबरमती की बल्कि दक्षिण अफ्रीका के अपने आश्रमों की भी चिंता करते रहे. कस्तूरबा और देवदास के चंपारण आने के बाद गाँधी के संबोधन में एक और परिवर्तन आया. देवदास माता-पिता को चूँकि ‘बा’ और ‘बापू’ कहते थे, इसलिए उनकी देखा-देखी दूसरे लोग भी ‘बा’ और ‘बापू’ कहने लगे. बाद के वर्षों में ये संबोधन दोनों के लिए चल निकले. इस तरह देखें तो निलहा समस्या समेत चंपारण सत्याग्रह के जरिए गाँधी ने कई अर्थों में परिवर्तनकारी भूमिकाएँ निर्मित कीं, साथ ही चंपारण में वे भी कई अर्थों में निर्मित हुए. गाँधी को देश की जमीनी हक़ीकत को सही अर्थों में समझने का अवसर चंपारण सत्याग्रह के दौरान ही मिला. चंपारण भारत में गाँधी की प्रथम प्रयोगशाला है जहाँ से तपकर और सिद्ध होकर वे निकले. इस तरह ठीक ही वह उनकी ‘सिद्धशाला’ भी है.
          1916 में राजकुमार शुक्ल को पीर मोहम्मद मुनीस का लिखा हुआ परचा जो ‘एक दुखी आत्मा’ की ओर से लिखा गया था और जो ‘प्रताप’ में छपा था, से पता चलता है कि निलहा राज की समाप्ति के लिए वे सभी कुछ वर्षों से संघर्षरत थे, लेकिन सरकार उनकी सुन नहीं रही थी. उन लोगों को एक सच्चे और कुशल नेतृत्व की जरूरत थी. लखनऊ में गाँधी से मुलाक़ात के बाद 27/02/1917 को राजकुमार शुक्ल का एक पत्र जो अनुमानतः पीर मोहम्मद मुनीस का लिखा हुआ था, गाँधी को मिला, जिसमें ‘मान्यवर महात्मा’ कहकर उन्हें संबोधित किया गया है. उसमें कहा गया था कि जिस तरह राम के चरण स्पर्श से अहिल्या तर गई, उसी तरह चंपारण में पैर रखते ही वहाँ की प्रजा का उद्धार हो जाएगा. वह पत्र बड़ा ही मार्मिक था. गाँधी अपने को रोक नहीं पाए. वे चंपारण गए. लेकिन सवाल यह है कि शुक्ल और उनके साथियों ने गाँधी को ही क्यों याद किया? उसका कारण उस पत्र के अनुसार साउथ अफ्रीका का उनका वह प्रयोग था, जो सफल साबित हुआ था और जिसकी गूंज चंपारण तक पहुँच चुकी थी. लेकिन सबसे बड़ा कारण गाँधी में उन सबका अटूट भरोसा भी था.
30 जनवरी 1918  को गाँधी चंपारण से विदा हुए. 15 अप्रैल 1917 को जब उन्होंने  चंपारण की धरती पर कदम रखा था, तब वे सर्वमान्य नेता नहीं थे, जब लौटे तो चंपारण ने उन्हें भारत के सबसे चमत्कारी व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था और देश-दुनिया ने उन्हें उसी रूप में मान भी लिया. गाँधी के हाथ सामान्य से अधिक लम्बे थे. ऐसे ‘आजानुबाहु’ को जनता ‘विशिष्ट’ का दर्जा देती रही है. कहा जाता है कि भगवान राम भी ‘आजानुबाहु’ थे. अजानबाहु होने के कारण जो जन भरोसा गाँधी के प्रति था उसका आभास उन्हें था. हालाँकि इस तरह के चमत्कारों में उनका भरोसा नहीं था. लेकिन इसे एक संयोग ही माना जाएगा कि गाँधी एक चमत्कारी व्यक्तित्व बनकर  चंपारण से विदा हुए.
चंपारण प्रयोग के जरिए स्वाधीन भारत का जो सपना गाँधी ने देखा था और जिस सपने के साथ वे वहाँ से विदा हुए थे, वह था मशीनी और पूँजीवादी पश्चिमी सभ्यता का वैकल्पिक सपना- समता, श्रम और सौहार्द की ऐसी सभ्यता का सपना जिसका आधार प्रेम था, जिसमें मानव-जाति के साथ सभी जीवों और पर्यावरण के लिए सुरक्षा का बोध था. जिस पूँजीवादी पश्चिमी सभ्यता को वे ‘शैतानी सभ्यता’ कहते थे और जिसे भारतीय सभ्यता के विरुद्ध मानते थे, वही सौ साल बाद दुनिया को तो छोड़िए, ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में पूजे जाने वाले गाँधी के भारत का भी आज डरावना सच है!अंग्रेज निलहों का राज 1917 में भले समाप्त हो गया था लेकिन इसे हम अपना विकास कहें या विनाश, अब ‘नए निलहे’ फ़िर से चंपारण की धरती पर उग आए हैं .चंपारण ही क्यों, अब तो पूरा भारत ही चंपारण है जिस पर नए निलहे फैलते जा रहे हैं !
2017 में यानी सौ वर्षों बाद भारत विषमता के जिस मुहाने पर खड़ा है,वहाँ  से 1917 के चंपारण को याद करने का अर्थ एक शोक गीत को याद करने –सा  है.  

(यह शोध और अकादमिक लेख नहीं है. स्मृति में कहीं अटके चंपारण सत्याग्रह पर एक ‘रनिंग कमेंट्री’ भर है. इन पंक्तियों के लेखक का गाँव चंपारण के बगल के जिला  में है. सहज रूप से चंपारण और उसका इतिहास कभी सच्चाई तो कभी किवदंती के रूप में उसके बोध के हिस्से रहे  हैं. उसे पटना के ‘सदाकत आश्रम’ में लगभग एक दशक तक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में रहने का भी मौका मिला है, जो मौलाना मजहरुल हक़, राजेन्द्र प्रसाद और ब्रजकिशोर प्रसाद जैसे चंपारण सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तपस्या भूमि रही है. इस कारण इन पंक्तियों के लेखक को, चंपारण सत्याग्रह से सीधे जुड़े लोगों से तो नहीं, उनके परिजनों-साथियों से उस दौर की स्मृतियों को साझा करने का मौका मिला है. यूँ ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह आदि स्वतंत्रता सेनानियों के चंपारण सत्याग्रह पर लिखे हुए के साथ पत्रकार अरविंद मोहन और युवा आलोचक आशुतोष पार्थेश्वर और अन्य लोगों के शोधकार्यों का भी उसके बोध निर्माण  में महत्वपूर्ण योग है- लेखक)

Tuesday 7 November 2017

मानवीय अंत:करण और मुक्तिबोध

नयी कविता के कवियों में मुक्तिबोध शीर्ष स्थान के अधिकारी अपनी कविताओं के कारण तो हैं ही, अपनी आलोचना के लिए भी हैं. उनका आलोचना साहित्य इतना विचारपूर्ण और समृद्ध है जितना उनके पहले नहीं था. इस अर्थ में उनकी महिमा से सहज तुलनीय एक ही नाम है- ‘अज्ञेय’ का. हालाँकि दोनों के साहित्य चिंतन की दिशाएँ अलग हैं. मुक्तिबोध ने हिंदी कविता और आलोचना को जितने नए पद और प्रत्यय दिए हैं वे उनके नए साहित्यिक सोच के प्रमाण हैं. ज्ञानात्मक संवेदना, संवेदनात्मक ज्ञान, फैंटेसी, सभ्यता-समीक्षा आदि नए प्रत्ययों ने आगे के साहित्य चिंतन को कितना प्रभावित किया है, यह कहने की जरुरत नहीं . इसी तरह का एक नया शब्द मुक्तिबोध के सन्दर्भ में है- ‘अन्तःकरण’.
                   मुक्तिबोध को ठीक-ठीक समझने के लिए इस ‘अन्तःकरण’ को भी समझना जरूरी है. एक मार्क्सवादी का अन्तःकरण की बात करना हमारा ध्यान भी खींचता है और हमें चकित भी करता है. यह ‘अन्तःकरण’ क्या है? मुक्तिबोध के पहले स्वतंत्रता आन्दोलन के महानायक महात्मा गाँधी के यहाँ ‘अंतरात्मा’ की चर्चा अक्सर मिलती है. वे कभी-कभी लोकप्रिय कार्यक्रमों और विचार-सरणियों से अलग ‘अंतरात्मा’ की पुकार पर अपना निर्णय लेते हुए और अपने समानधर्मा साथियों को असमंजस में डालते हुए पाए जाते हैं. गाँधी की अंतरात्मा की यह आवाज अपने साथियों को तो असमंजस में डालती ही थी, प्रेमचंद जैसे प्रशंसक लेखक को भी परेशान करती थी. अन्तःकरण की मौजूदगी के कारण मुक्तिबोध के भी समानधर्मा साथियों में असमंजस की स्थिति है. इस अन्तःकरण के कारण ही उनके यहाँ आत्मसंघर्ष का प्राचुर्य और प्राधान्य है. उनके इस आत्मसंघर्ष को उनके पूर्ववर्ती मार्क्सवादी कवि-आलोचक ठीक नहीं मानते और अवमूल्यित करते हुए उसे ‘मन-मंथन’ तक कह डालते हैं.
                     जिसे महात्मा गाँधी ‘अंतरात्मा’ कहते हैं, उसे ही मुक्तिबोध ‘अन्तःकरण’ कहते हैं. अंतरात्मा के साथ चूँकि आत्मा-परमात्मा का भी सन्दर्भ जुड़ा हुआ है इसलिए वे अंतरात्मा की जगह अन्तःकरण का प्रयोग करते हैं. यूँ तो अन्तःकरण संस्कृत का शब्द है और भारतीय सन्दर्भ में इसका प्रयोग होता रहा है. लेकिन मुक्तिबोध इसे आधुनिक और सेक्युलर सन्दर्भ प्रदान करते हैं. कहा जा सकता है कि उनका यह अन्तःकरण जो भले-बुरे का विवेक प्रदान करने वाली भीतरी इन्द्रिय शक्ति है, अंतरात्मा का ही अधिक आधुनिक और सेक्युलर रूप है. सच तो यह है कि अन्तःकरण किसी भी व्यक्ति की सांस्कृतिक उपलब्धियों का सार होता है. इसलिए मुक्तिबोध वैचारिक चेतना के साथ अन्तःकरण पर भी जोर देते हैं. यद्यपि उनका एक प्रसिद्ध निबंध है- “अंतरात्मा और पक्षधरता’ जिसमें वे अंतरात्मा का प्रयोग अन्तःकरण के अर्थ में ही कर रहे हैं. उन्हें आशंका थी कि उन्हीं के समानधर्मा लोगों को यह बात पसंद नहीं आएगी और वे लोग उन्हें धिक्कारेंगे भी. अपने उस निबंध में वे लिखते हैं: “हाँ, यह सही है कि मेरी जैसी अंतरात्मा वाले लोग मुझे धिक्कार भी सकते हैं. मेरे ही शिविर में मेरी ही हत्या हो सकती है, वास्तविक तिरस्कार हो सकता है, हुआ है, होता रहा है, होता रहेगा- संभवतः” मुक्तिबोध के यहाँ बौद्धिकता के आग्रह के साथ अन्तःकरण पर जोर का जो तनाव है, वह महत्त्वपूर्ण है और उसे समझने की जरूरत है.
                      मुक्तिबोध का साहित्य जितनी जगत-समीक्षा है, उतनी ही आत्म-समीक्षा भी. इन दोनों के सम्यक योग के कारण ही उनका साहित्य पाठकीय भरोसा अर्जित करता है और हमें उनकी कविता अपने अन्तःकरण की आवाज लगती है जिसमें नैतिक आवेश-सा है.जगत ज्ञान जब अन्तःकरण के इलाके से गुजरता है तभी वह महत्त्वपूर्ण और भरोसे का साहित्य बनता है. कई बार हमारी वैचारिक चेतना और भले-बुरे का विवेक करने वाले अन्तःकरण के बीच पटरी नहीं बैठती. जो लोग वैचारिक चेतना को प्रमुखता देते हैं, वे इन दोनों के सामंजस्य की चिंता नहीं करते. वे ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने के दबाव के तहत रचते हैं और अन्तःकरण की आवाज की अनसुनी करते हैं. मुक्तिबोध के यहाँ वैचारिक चेतना और अन्तःकरण में द्वंद्व है. उनका साहित्य उनके इसी संघर्ष का परिणाम है. इसलिए यह अकारण नहीं है कि उन्हें पहचानने में उनके समानधर्मा साथी प्रारम्भ में विफल रहे. तब उनको पहचानने वाले ज्यादातर वे लोग थे जो गैर-प्रगतिशील थे. प्रगतिशीलों में परसाई और नामवर सिंह जैसे लोग कम थे. ‘अन्तःकरण का आयतन’ शीर्षक कविता मुक्तिबोध ने जैसे अपनी ही मनःस्थिति को व्यक्त करने के लिए लिखी हो या अपने समय के मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समाज पर टिपण्णी करते हुए लिखी हो लेकिन यह तय है कि वे उस द्वंद्व को महत्त्व दे रहे हैं जो चेतना और अन्तःकरण के द्वंद्व का प्रतिफल है. उनकी अपेक्षा यह है कि मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के अन्तःकरण को विशाल होना चाहिए जिसमें शोषित-पीड़ित मनुष्यता का दुःख-दर्द समा जाए लेकिन वह संकीर्ण और छोटा है. कविता का प्रारम्भिक अंश उस दृष्टि से द्रष्टव्य है:
अन्तःकरण का आयतन संक्षिप्त है,
आत्मीयता के योग्य
             मैं सचमुच नहीं!
पर, क्या करूँ,
यह छाँह मेरी सर्वगामी है !
हवाओं में अकेली सांवली बेचैन उड़ती है
कि श्यामल-अंचला के हाथ में
              तब लाल कोमल फूल होता है
चमकता है अँधेरे में
प्रदीपित द्वंद्व-चेतस एक
               सत-चित-वेदना का फूल

                        न सिर्फ मुक्तिबोध बल्कि सम्पूर्ण नयी कविता का अधिकांश मध्यवर्गीय बोध की कविता है. मुक्तिबोध इस अर्थ में विशिष्ट हैं कि वे मध्यवर्ग में निम्नवर्गीय बुद्धिजीवी जमात के आत्मसंघर्ष को प्रमुखता देते हैं. इसे ही आलोचक उनका आत्मसंघर्ष कहते हैं जिसकी चर्चा मुक्तिबोध के  साहित्य चिंतन में तो है ही, उनकी कविताओं में भी है. इस आत्मसंघर्ष के साथ जगत-संघर्ष की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. जगत-संघर्ष की दृष्टि या विचारधारा मनुष्य विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करता है और चेतना संपन्न बनता है, लेकिन उसका अन्तःकरण तो उसके संस्कार, उसके अनुभव, पारिवारिक-सामाजिक परिवेश आदि से निर्मित होता है. एक लम्बी प्रक्रिया के दौरान भले-बुरे का विवेक करने वाला भीतरी इन्द्रिय बोध ही अन्तःकरण का रूप ग्रहण करता है. मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष उनके अन्तःकरण और बाह्य संघर्ष के द्वंद्व का प्रतिफल है जिसके कारण वे हिंदी कविता का विशिष्ट स्वर बनकर उभरते हैं. अपने उसी निबंध में वे कहते हैं: “मेरी अंतरात्मा ने जीवन यात्रा में जिन लक्ष्यों और भाव-दृश्यों को प्राप्त किया है, जिस भावधारा का विकास किया है, उसमें महत्त्वपूर्ण सचाईयाँ भी हैं. उस अंतरात्मा ने जिन विशेष आग्रहों का विकास किया है, वे उनके लक्ष्यों से प्रसूत आग्रह हैं. वे प्रयोजन हैं. वे अंतरात्मा के संवेदनात्मक उद्देश्य हैं, वे कर्म-प्रक्रिया के लक्ष्य हैं- चाहे वह कर्म-प्रक्रिया कलाकार का कर्म ही क्यों न हो. उन उद्देश्यों और प्रयोजनों, उनसे प्रसूत आग्रहों और अनुरोधों से, मैं तटस्थ नहीं हूँ. मैं अपनी आत्मा का पक्षधर हूँ. इसलिए आप ही आप मेरे अनजाने मेरा अपना एक शिविर बन जाता है, चाहे उसे मैं शिविर कहूँ या न कहूँ, भले ही मैं उस शिविर के सदस्यों के भौतिक अस्तित्त्व से अपरिचित रहूँ.” इस तरह मुक्तिबोध की अंतरात्मा का अर्थ पक्षधरता है. पक्षधरता अपनी तरह से सोचने-समझने वाले लोगों की, जिनसे उनका शिविर है.
                             अंतःकरण या अंतरात्मा मुक्तिबोध के लिए बहुत भरोसे की है. वे उसकी आवाज सुनते हैं, वे उसके निर्णय को मानने के पक्ष में हैं. अंतरात्मा के निर्णय का अर्थ सिर्फ अपना निर्णय नहीं, बल्कि वह सामूहिक सत्य है जो देश-दुनिया में फैले उन जैसे लोग सोचते हैं. इसलिए उस सत्य के खोज की प्रक्रिया सपाट नहीं, द्वंद्वात्मक है और वे द्वंद्व के बिना अन्तःकरण की भी कल्पना नहीं करते. वे मानते हैं कि संसार का सत्य सबके लिए खुला है. वे लिखते हैं: “अगर मैं पहचान जाऊं कि उसने यह सही-सही, ये सच्ची-सच्ची बातें कही हैं, तो मैं उन्हें उठा लूँगा. जिस प्रकार यथार्थ का एक अंश मेरे सम्मुख खुला हुआ है, उसी प्रकार यथार्थ का एक अंश उसके सम्मुख भी खुला हुआ है.” विरोधी शिविर से सीखने की इस प्रक्रिया को वे द्वंद्व मानते हैं, लेकिन वे इस बात के लिए सावधान करते हैं कि द्वंद्व कहीं झूठे न हों. वे मानते हैं कि बौद्धिक अहंकार से ग्रस्त लोग झूठे द्वंद्व का सृजन कर लेते हैं. वे लिखते हैं: “अहंकार अपना एक इंद्रजाल खड़ा करता है. तर्क और युक्ति, सही और आधी सही बातों का एक अस्त्रागार उनके पास है. लेखक अपनी लेखनी से भी अपने अहंकार की तुष्टि करता है. वह खुद ही अपनी आँखों के सामने कैसा-कैसा अभिनय करता है, तन्मय होकर.” इस बौद्धिक अहंकार से, चाहे वह जिस शिविर के व्यक्ति का हो, वे बचना चाहते हैं. वे मानते हैं कि साहित्य या कला का सृजन युक्तियों का कोई संग्राम नहीं है. वह अपनी ही तरह के लोगों के अन्तःकरण की सृजनात्मक शक्ति है.जहाँ वह नहीं है और जहाँ तर्कों से भरा बौद्धिक अहंकार है उससे वे अपने को पराजित होने की हद तक बचाना चाहते हैं. उसी निबंध में उनके शब्द हैं: “मैं इससे बचना चाहता हूँ, और पराजित हो जाने में ही अपना कल्याण समझता हूँ. क्योंकि पराजित हो जाने से ही कोई विजित नहीं हो सकता.” बौद्धिक अंहकार के सामने पराजित हो जाने की जो यह स्वीकारोक्ति है वह उसी व्यक्ति की हो सकती है जिसके पास ज्ञान के साथ अन्तःकरण के आयतन का विस्तार भी हो. इसलिए जिनके अंतःकरण का आयतन विस्तृत नहीं, संक्षिप्त है या जो अंतःकरण की नहीं सुनते, जो सिर्फ तर्कों का वकीली कारोबार करते हैं और लकीर के फ़क़ीर हैं, ऐसे लोगों को वे जड़वादी कहते हैं और लिखते हैं: “जड़वाद कई तरह से प्रकट होता है. वह अध्यात्म का जामा पहनकर आता है, और भौतिकवाद का भी.” इस तरह जड़वाद को व्यक्तित्व और ज्ञान के विकास में बाधक मानते हुए वे अंतरात्मा के प्रश्न पर आते हैं और मानते हैं कि आत्मचेतना का अर्थ विश्वचेतना है. उनके शब्द हैं: “अंतरात्मा का प्रश्न, अपनी जीवन यात्रा में विकसित तथा अर्जित उस मूलभूत यथार्थ-बोध तथा मानव मूल्यों की तत्पर क्रियाशीलता से लगा हुआ है कि जिस मूलभूत यथार्थ-बोध के बिना, और उन मानव मूल्यों के बिना अपने आप को एक ही साथ विश्वचेतन और आत्मचेतन नहीं कह सकते.”
          अन्तःकरण के रूप में मुक्तिबोध सृजन के लिए ज्ञान के साथ एक ऐसे स्पेस की ओर इशारा करते हैं जो भारत की विकसनशील चिन्ताधारा के मूल में है. उनका यह अन्तःकरण ही है जिसके कारण उनकी हर रचना में एक तड़पती हुई ऐसी बेचैनी है जो दूसरों को अपनी लगने लगती है. उनका यह अन्तःकरण कभी अंतरात्मा के रूप में तो कभी आत्मालोचन के रूप में और कभी अंतर्द्वंद्व के रूप में उनके सृजन में शुरू से आखिर तक मौजूद है. इस कारण वे नयी कविता के दौर में प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील शिविरों में समान आकर्षण के केंद्र बनते हैं. इस अन्तःकरण के कारण वे अपने पूर्ववर्ती प्रगतिशीलों से संघर्ष करते हुए अपने को अलग करते हैं और नयी साहित्य-दृष्टि के साथ सामने आते हैं. श्रीपाद अमृत डांगे के नाम अंग्रेजी में जो उनका पत्र है  उसका सार यही है कि नयी रचनाशीलता को समझने-सराहने में पुरानी प्रगतिशील अवधारणा अपना अर्थ खो चुकी है. उनका यह अन्तःकरण उन कलाप्रेमियों से भी उन्हें पृथक करता है जो अपनी अंतरात्मा की आवाज तो सुनते हैं लेकिन समाज की पुकार उन्हें नहीं सुनाई पड़ती. वे उनकी समाज विमुखता की आलोचना करते हैं लेकिन उनकी कला-चेतना की तारीफ भी करते हैं : “प्रगतिवादियों की तुलना में निःसंदेह ये नए लोग अधिक कला-मर्मज्ञ थे.”  इसलिए मुक्तिबोध का अन्तःकरण नयी कविता के दौर में उन्हें वह विशिष्ट दर्जा देता है, उनके साहित्य को वह नयी चमक देता है, जो दूसरों के पास नहीं है.
          लेखक के चरित्र और ईमानदारी का सवाल मुक्तिबोध के यहाँ प्रमुख है, जिसकी चर्चा प्रगतिवादी जमात में प्रायः नहीं होती. असल में यह सवाल वही उठा सकता है जिसके पास विकासोन्मुख विश्व-दृष्टि और विशाल आयतन वाला निष्कलुष, साथ ही निजी लाभ-लोभ रहित, अंतःकरण हो.यह सवाल भी वही उठा सकता है जो संगठन और विचारधारा के अतिक्रमण का साहस करता है और अन्तःकरण की आवाज सुनता है. कहना न होगा कि संसार में ऐसे ही लोगों ने महान रचना और कला को जन्म दिया है. अंतःकरण के कारण लेखक आत्मालोचन के लिए हमेशा सजग और तत्पर रहता है. लेकिन विशाल आयतन वाले अंतःकरण के अभाव में किसी महान विचारधारा के साथ होने के बावजूद अपने चरित्र और विचारधारा प्रेरित कार्यक्रमों की आलोचना का जोखिम बहुतेरे लेखक नहीं उठाते. इस कारण उनके चरित्र  या विचारधारा में गहरे अंतर्विरोध का पैदा होना स्वभाविक है. तब लेखक अंतर्विरोधों की अनदेखी करता है और महान विचारधारा के साथ होने के अहंकार में जीने लगता है. उसे पता भी नहीं होता कि वह एक ऐसी ‘हिपोक्रेसी’ का शिकार है जिसके कारण उसकी महान विचारधारा भी जनता के बीच प्रश्नांकित हो रही है. ऐसा बाहर भी हुआ है, भारत में भी और हिंदी में भी.इसलिए मुक्तिबोध जोर-शोर से लेखकों के चरित्र और ईमानदारी का सवाल उठाते हैं. उनके शब्द हैं - “समीक्षक को भी चरित्र की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि लेखक को ईमानदारी की.” ध्यान में रखने लायक बात यह है कि चरित्र और ईमानदारी- इन दोनों जीवन मूल्यों के प्रति वे स्वयं भी बहुत आग्रहशील थे.यहाँ यह कहना जरुरी नहीं कि चरित्र और ईमानदारी की अंतःकरण के निर्माण में क्या भूमिका है. विचारधारा की भूमिका यदि मनुष्य को सामाजिक रूप से नैतिक बनाने में है तो अंतःकरण की निजी रूप से नैतिक बनाने में. यूँ दोनों भूमिकाएं एक दूसरे के यहाँ आवाजाही भी करती हैं. इसलिए वे लेखक के लिए सही विश्वदृष्टि से जुड़ी विचारधारा और विस्तृत आयतन वाले अंतःकरण दोनों को आवश्यक मानते हैं. ऐसा नहीं होता तो ‘अँधेरे में’ समेत मुक्तिबोध की उन महत्त्वपूर्ण कविताओं का सृजन संभव नहीं था जिनमें ज्ञान और अन्तःकरण का भरपूर द्वंद्व है. ‘अँधेरे में’ कविता का पागल द्वारा गाया हुआ जो गीत है वह आदर्श और यथार्थ के गहन टकराव का ही परिणाम है.
                        मुक्तिबोध ने जब लेखक के चरित्र और ईमानदारी का सवाल उठाया था तब उनके सामने भारत का उभरता हुआ विशाल मध्यवर्ग था, उस मध्यवर्ग का बुद्धिजीवी वर्ग था, जिसकी कथनी और करनी में गहरी फाँक थी. उनके अनुसार लाभ-लोभ के आकर्षण में फँसा हुआ बुद्धिजीवी साहित्य की जनवादी आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता. मुक्तिबोध इस मध्यवर्ग पर बार-बार लिखते हैं, उसकी कमजोरियों को रेखांकित करते हैं और अंततः उसी से उम्मीद भी करते हैं कि एक दिन वह वास्तविकता को समझेगा और सर्वहारा के पक्ष में खड़ा होगा. उनके सामने स्वतंत्रता आन्दोलन और भारतीय नवजागरण के गर्भ से पैदा हुआ मध्यवर्ग था, जिसके भीतर परिवर्तन की चेतना थी. वह जाति और संप्रदाय से मुक्त भारत का सपना देखता था. उसके एजेंडे में कहीं न कहीं समतावादी-समाजवादी सपना भी था. आज के मध्यवर्ग से वह हर तरह से भिन्न था. आज नए वेतनमानों से अघाया मध्यवर्ग है जिसके सपने में दूर-दूर तक वे पुराने एजेंडे नहीं हैं. यह उपभोक्तावादी समय का मध्यवर्ग है जिसका पहला और अंतिम सपना अतिशय भोग है. उपभोक्ता समाज में बदल चुके आज के मध्यवर्गीय व्यक्ति-बुद्धिजीवी के लिए जातिवाद-सम्प्रदायवाद कोई मुद्दा नहीं है. तेजी से पैर पसारते धार्मिक फांसीवाद को वह कोई खतरा नहीं मानता, उसे अपने भोग से मतलब है. मुक्तिबोध को अपने ज़माने के मध्यवर्गीय व्यक्ति के अंतःकरण का आयतन ‘संक्षिप्त’ लगा था. आज उसके पास शायद अंतःकरण है ही नहीं. एक तरफ यह मध्यवर्ग है और दूसरी तरफ वह विशाल वंचित समाज है जिसके दुखों का कोई अंत नहीं है. मुक्तिबोध जब रचनाकार के चरित्र-ईमानदारी की बात करते हैं तब समाज में बढ़ती असमानता की खाई पर उनकी नजर है और रचनाकार से उनकी अपेक्षा है कि इसके चित्रण में वह किसी भटकाव का शिकार नहीं हो. आज लेखक के चरित्र और ईमानदारी पर उनके समय से अधिक संकट और संदेह है. तब प्रश्न है कि मुक्तिबोध को कैसे याद करें ? उनकी एक कविता है, ‘गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे’, जिसमें ‘विचारों की वेदना’ में अपने सरीखे जन से जुड़ने का हृदयग्राही चिंतन है. कविता का एक अंश देखा जा सकता है :
वेदना में हम विचारों की
गुंथे तुमसे,
बिंधे तुमसे,          
...कोई नहीं थे हम तुम्हारे किन्तु
सहचर हो गए
चाहे जलधि, पर्वत, हजारों मील की दूरी
हमारे बीच में आ जाए,
फ़िर भी मानसिक अदृश्य सूत्रों से
हमारी आत्माएँ परस्पर बात करती हैं.. 
यहाँ ध्यान की बात है कि विचारों का संबंध भले मस्तिष्क से हो वेदना का संबंध तो आत्मा से ही है. इस आत्मा को नजरअंदाज करके विचारों की वेदना को नहीं समझा जा सकता.
           मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे, लेकिन उनकी कविताएँ प्रगतिशील शैली की न थीं. उनकी काव्य-भाषा, प्रतीक, बिम्ब, अभिव्यंजना प्रणाली आदि प्रगतिशील धारा के मेल में न थीं. उनमें निजता, आत्मसंघर्ष, अन्तःकरण आदि पर भी जोर था. इस कारण उनकी कविताओं की प्रायः उपेक्षा होती थी और उनमें अनेक कमियाँ भी देखी जाती थीं. ऐसी स्थिति में उनकी जो मनः स्थिति थी उसका बड़ा ही व्यंजक चित्र उन्होंने अपनी एक कविता में खींचा है:
कहते हैं लोग-बाग़ बेकार है मेहनत तुम्हारी सब
कविताएँ रद्दी हैं.
बेडौल हैं उपमाएँ, विविध है कल्पना की तस्वीरें
उपयोग मुहावरों का शब्दों का अजीब है
सुरों की लकीरों की रफ्तार टूटती ही रहती है.
शब्दों की खड़-खड़ में खयालों की भड़-भड़
अजीब समां बाँधे हैं!!
गड्ढों भरे उखड़े हुए जैसे रास्ते पर किसी
पत्थरों को ढोती हुई बैलगाड़ी जाती हो.
माधुर्य का नाम नहीं; लय-भाव-सुरों का तो काम नहीं
कौन तुम्हारी कविताएँ पढ़ेगा..
अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तार सप्तक’(१९४३) में तो वे थे ही, फ़िर उनकी यह मनोरंजक शिकायत 1950 के दशक में किनसे है? प्रगतिवादियों से? या किसी और से? वे जो भी हों, इतना तय है कि उनकी कविताओं को लेकर तब बहुत से किन्तु-परन्तु थे. संभव है उस किन्तु-परन्तु में यह अंतःकरण भी हो जो तब लोगों को गुजरे ज़माने का लगता हो. आज भी मुक्तिबोध के कीर्तनिये उनके सन्दर्भ में अंतःकरण की कितनी चर्चा करते हैं ! 
                        मुक्तिबोध के लिए विचारधारा जितने महत्व की है उससे कम अंतःकरण नहीं. क्या रचना और क्या आलोचना हर जगह वे अंतःकरण के धरातल पर विचारधारा को रचना में रखकर देखते  हैं. ‘समीक्षा की समस्याएँ’ शीर्षक अपने प्रदीर्घ निबंध में वे विचारधारा के साथ अंतःकरण की जरुरत पर भी बल देते हुए दिखाई देते हैं. हमारा जितना निर्माण बाहरी समाज में होता है उतना ही परिवार में भी. मुक्तिबोध का मानना है : “हमलोग परिवार और पारिवारिक जीवन को साहित्य के अध्ययन में विशेष महत्व ही नहीं देते हैं. आज भी व्यक्ति का विकास बाह्य समाज में तो होता ही है,वह परिवार में भी होता है.परिवार व्यक्ति के अंतःकरण के संस्कार में प्रवृत्ति विकास में पर्याप्त योग देता है.” वे यह भी मानते हैं कि परिवार के भीतर नए और पुराने तथा उदार व अनुदार दृष्टियों के बीच टकराहट चलती रहती है. उस टकराव में अंततः नई और उदार दृष्टियाँ विजयी होती हैं जिनका हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है. इस तरह से हमारे भीतरी जगत के निर्माण में बाहर के साथ परिवार के भीतर की भी भूमिका है. बाहर और भीतर के द्वंद्व के स्वरुप हमारा जो अंतःकरण निर्मित होता है, रचना में उसकी भूमिका से कैसे इंकार किया जा सकता है ! इसलिए मुक्तिबोध काव्य रचना के प्रसंग में कहते हैं, “....कविता एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है. इस अर्थ में वह सांस्कृतिक प्रक्रिया है कि लेखक अपने जाने-अनजाने अपने अंतःकरण में संचित भावावेगों के साथ जीवन-मूल्य भी प्रकट कर रहा है – गूँज की एक अनुगूँज के रूप में.”
                  अंतःकरण की भूमिका वैचारिक रूढ़ियों से लेखक को मुक्त करने में है. ऐसा करके वह रचना की नई भावभूमि में प्रवेश करता है. रूढ़ियों के अतिक्रमण का साहस लेखक तभी कर पाता है जब वह अंतःकरण की सचाई को सुनता है. किसी ज़माने में प्रगतिवादियों ने प्रयोगवाद को खूब लांक्षित किया. अब भी यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है. लेकिन मुक्तिबोध इस प्रवृत्ति को ठीक नहीं मानते. वे लिखते है : “किसी ज़माने में प्रयोगवादी कविता प्रगतिवाद के अधिक निकट थी. किन्तु प्रगतिवादियों ने उसकी खूब उपेक्षा की.” जो उन से भिन्न है उसे प्रगतिवादी अपना विरोधी मानते हैं. इस प्रवृत्ति पर भी मुक्तिबोध ने टिप्पणी करते हुए लिखा : “जो अपने से भिन्न है, वह अपना विरोधी भी है. जो काव्य के अपने माने हुए ढांचे में जमा हुआ नहीं है, वह ग़लत भी है, असुंदर भी है, प्रतिक्रियावादी है. इस प्रकार का सोच-विचार समीक्षकों की मानव यथार्थ से दूरी-लम्बे चौड़े फ़ासले- सूचित करती है.” मुक्तिबोध आगे प्रगतिवादियों के व्यवहार पर टिपण्णी करते हुए यह भी कहते हैं- “....वे मुक्ति-संघर्ष,राष्ट्र-प्रेम,प्राकृतिक-सौन्दर्य,नारी-सौन्दर्य,यथार्थ-आलोचन-भावना,आशा,उत्साह तथा तत्समान अन्य भावों को प्रगतिशील समझते हैं किन्तु शेष सब भावनाएँ,जैसे,भयानक-ग्लानि,आशा-अनाशा,वैफल्य तथा इसी श्रेणी की अन्य भावनाएँ,प्रतिक्रियावादी हैं.” इसलिए मुक्तिबोध मानते हैं कि सिद्धांतों को साहित्य पर लागू करते वक्त जीवन-तथ्यों की वास्तविकता को दृष्टि से ओझल नहीं करना चाहिए. उनके अनुसार जिन प्रगतिवादियों ने ऐसा किया, वे ‘सिद्धांत-व्यवस्था के भीतर अटक गए थे.’
                       मार्क्सवादी मुक्तिबोध यदि प्रगतिवादियों की इस तरह कड़ी आलोचना कर रहे हैं तो इसलिए कि वे खुद ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ के भीतर अटके हुए नहीं हैं. उनकी दृष्टि ‘जीवन-तथ्यों की वास्तविकता’ पर भी है. जीवन और रचना में यह काम वही करेगा जो जरुरत पड़ने पर ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ का अतिक्रमण करेगा. इस अतिक्रमण का साहस वही कर सकता है जिसे अपने अंतःकरण पर भरोसा हो. इस कारण मुक्तिबोध में जो आत्मसंघर्ष है उसे व्यक्तिवाद समझने की भूल न करना चाहिए. वे स्वयं अपनी एक कविता में आत्मसंघर्ष को व्यक्तिवाद कहने वालों को ‘आत्मग्रस्त मूर्ख’ कहते हैं| जो मुक्तिबोध यह मानते हैं कि ‘कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती / यदि वह है तो सबके ही साथ है’ उस मुक्तिबोध पर व्यक्तिवाद का आरोप कैसे लग सकता है! ‘चम्बल की घाटी’ में एक अंश है जिसमें आत्मा की आवाज़ को दबा कर सिद्धांतों के सहारे अपने को सही बतलाने वालों पर कड़ी टिपण्णी की गयी है-
ऐसी जो अँधेरे में पड़ी हुई
किरनों की भीतरी गुत्थी
चिलकती- लौंकती,
कहती है-
‘हमने तो पहले भी कहा था|
पर, तुम
अनसुनी करते हो आदतन!’
किन्तु, वे जड़ता के पंजे
अपनी ही स्तिथियों का औचित्य
करते हैं स्थापित;
विशेष दृष्टि से चरित्र-विश्लेश
निज-इतिहासिक-विवरण
प्रस्तुत करते हैं,
न्यायोचित वे बताते हैं निज को,
(अनसुनी करते हैं आत्मा की आवाज)
       
                   मुक्तिबोध का अध्ययन अब तक अधिकांशतः उनकी विश्वदृष्टि, विचारधारा, फेंटेसी, आदि आधारों पर होता रहा है. उनके प्रसंग में अंतःकरण का भी कोई महत्व है, इस पर हमारा ध्यान न के बराबर है.  अंतःकरण का अर्थ है मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के अन्तःकरण को प्रश्नांकित करना जो तब की तुलना में अब और अधिक ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध’ हो चुका है. ‘भूतों की शादी में कनात से तन’ जाने वाले इस वर्ग की ‘उदरम्भरि’ प्रवृत्ति खतरनाक रूप ले चुकी है. ‘स्वार्थों के टेरियर कुत्ते’ पालने वाले इस वर्ग के भीतर का ‘राक्षसी-स्वार्थ’ अट्टाहास कर रहा है. मुक्तिबोध की कविताएँ उस वर्ग को ‘बौद्धिक जुगाली’ से मुक्त होकर अपने अंतःकरण में झांकने और उसके आयतन को विस्तृत करने का आह्वान करती हैं. ‘ मुझे कदम-कदम पर’ शीर्षक अपनी कविता में उन्हें दूसरों के अनुभव और अपने सपने दोनों ही सच्चे लगते हैं तथा उन्हें संभावना की अनेक राहें फूटती हुई लगती हैं :

मुझे कदम-कदम पर
                 चौराहे मिलते हैं
                  बाहें    फैलाये !!

एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ;
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने.....
                 सब सच्चे लगते हैं;
उन्हें जनता में अटूट भरोसा है और हर आदमी की भीतरी शक्ति एवं सौंदर्य की सम्भावना को वे सराहते हैं तथा भावावेग में उसे गाते भी हैं. अंतःकरण की गीतात्मक लय और जनता से रागात्मक सम्बन्ध का श्रेष्ठ उदाहरण इसी कविता की अगली पंक्तियों में दिखाई पड़ता है :
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकव्य-पीड़ा है,
पलभर मैं सबसे गुजरना चाहता हूँ
प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ...

जनता की इस भीतरी शक्ति – सम्भावना को वही कवि लक्षित करता है जिसके ‘अंतःकरण का आयतन’ विस्तृत होता है. मुक्तिबोध का अंतःकरण  विस्तृत था इसमें क्या दो राय !