Sunday 25 December 2016

2016 की हिंदी आलोचना




समकालीन हिंदी आलोचना को लेकर रचनाकारों की शिकायत आम बात है |अक्सर सुनने को मिलता है कि हिंदी में आलोचना की दशा ठीक नहीं है |इंदिरा गांधी कला केंद्र की एक गोष्ठी में केन्द्रिय मंत्रियों के साथ आलोचक नामवर सिंह के मंच साझा करने पर तो विवाद हुआ ,लेकिन उन्हीं के संपादन में ‘रामचंद्र शुक्ल रचनावली’ और उसमें लिखी उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका की चर्चा न के बराबर हुई |हजारी प्रसाद द्विवेदी के समर्थक और शुक्ल विरोधी के रूप में नामवर सिंह को देखने की आदत जो हिंदी आलोचना में विकसित होती गई है,यह रचनावली उसका प्रत्याख्यान है |
 ‘नामवर के नोट्स’ (सं.-शैलेश कुमार,नीलम सिंह) इस वर्ष की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है| इसमें कक्षाओं में दिए गए नामवर सिंह के व्याख्यान हैं| भारतीय काव्यशास्त्र को आधुनिक दृष्टि से देखने वाली  यह अत्यंत जरुरी पुस्तक है|मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ‘मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता’ न सिर्फ हिंदी साहित्य बल्कि भारतीय समाज और राजनीति को नई दृष्टि देने वाली आलोचनात्मक पहल के रूप में इस वर्ष की उपलब्धि मानी जायेगी|वरिष्ठ आलोचक राजेन्द्र कुमार की  –‘कविता का समय-असमय’ तथा ‘कथार्थ और यथार्थ’ समकालीन हिंदी आलोचना को समृद्धि और विस्तार देने वाली किताबें हैं | अवधेश कुमार सिंह की पुस्तक ‘समकालीन आलोचना विमर्श’ गंभीर आलोचनात्मक पहल का श्रेष्ठ उदहारण है|  वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की ‘कहानी के साथ-साथ’ हिंदी कहानी की आलोचना का विकास करने वाली पुस्तक है | रोहिणी अग्रवाल की ‘हिंदी उपन्यास : समय से संवाद’, कथा आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तक भी  इस वर्ष के खाते में दर्ज है | इस वर्ष आलोचना के महत्वपूर्ण प्रकाशनों में वरिष्ठों की सक्रिय उपस्थिति आश्वस्ति कारक है | अशोक वाजपेयी की पुस्तक ‘कविता के तीन दरवाजे’ और नन्दकिशोर नवल की पुस्तक ‘कवि अज्ञेय’ तथा ‘नागार्जुन और उनकी कविता’ आलोचना के भिन्न मिजाज और आधार का पता देती हैं | रेवती रमण की इस वर्ष प्रकशित नई पुस्तक ‘परंपरा का पुनरीक्षण’ अपने गंभीर विवेचन-विश्लेषण के कारण हमारा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करती है | सुधीर रंजन सिंह की पुस्तक ‘कविता के  प्रस्थान’ भी यहाँ सहज स्मरणीय है | 
इस वर्ष दो वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह और मैनेजर पाण्डेय उम्र का पचहत्तरवां पड़ाव पार कर गए | भोपाल में वहां के साहित्यिक समाज द्वारा विजय बहादुर के आलोचनात्मक अवदान पर  ‘आलोचना का देशज विवेक’ (सं. – आनंद कुमार सिंह और महेंद्र गगन ) शीर्षक  पुस्तक  जारी हुई | पाण्डेय जी की आलोचना से सम्बंधित दो पुस्तकें ‘दूसरी परंपरा का शुक्ल पक्ष’ ( कमलेश वर्मा) तथा ‘आलोचना और समाज’ (संपादक- रविकांत)  हिंदी समाज की सक्रियता के रूप में याद की जाने वाली पहल है | बहुजन साहित्य की अवधारणा को लेकर पिछले कुछ वर्षों से सक्रियता बढ़ी है | ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ (संपादक- प्रमोद रंजन : आयवन कोस्का) तथा ‘हिंदी साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’ (संपादक- प्रमोद रंजन) पुस्तकों के जरिए बहुजन साहित्य के सैद्धांतिकी को ठोस रूप देने की कोशिश भी इस वर्ष के आलोचना खाते में दर्ज  है |  ‘बांग्ला दलित साहित्य : सम्यक अनुशीलन’ (संपादक- बजरंग बिहारी तिवारी) पुस्तक भी इसी  वर्ष आई जो हिंदी दलित साहित्य सम्बन्धी चिंतन को विस्तार देने वाली है | ‘बहुजन वैचारिकी’ (संपादक- धर्मवीर यादव ‘गगन’) का तुलसीराम विशेषांक दलित साहित्य की सैद्धांतिकी को मजबूत आधार देने वाला सार्थक आलोचनात्मक प्रयास कहा जायेगा | सार्थक रचनाशीलता के मूल्यांकन के लिए आलोचना पुस्तकें जहाँ नई दृष्टि और सोच का आधार बनती है वहीं रचनाकारों पर केन्द्रित पत्रिकाओं के विशेषांकों और शताब्दी वर्ष में होने वाली संगोष्ठियों के जरिए भी आलोचना का माहौल और आधार तैयार होता है | इस दृष्टि से देखें तो इस वर्ष जानकीवल्लभ शास्त्री, नलिन विलोचन शर्मा, अमृतलाल नागर, मुक्तिबोध और त्रिलोचन पर मुजफ्फरपुर, पटना, लखनऊ, बनारस, दिल्ली आदि शहरों में जो गभीर और बहस-तलब गोष्ठियाँ हुईं वे हिंदी में जीवंत आलोचनात्मक माहौल का उदाहरण है | ‘साखी’ (संपादक- सदानंद शाही), ‘सामयिक सरस्वती’ (अतिथि संपादक- दिनेश कुमार) और ‘आलोचना’ (संपादक- अपूर्वानंद) के मुक्तिबोध पर केन्द्रित अंक मुक्तिबोध सम्बन्धी आलोचना में बहुत कुछ जोड़ते हैं | ‘उत्तरप्रदेश’ (संपादक- कुमकुम शर्मा) पत्रिका का अमृतलाल नागर विशेषांक तथा ‘समकालीन भारतीय साहिय’ (संपादक- रणजीत साहा) के नगेन्द्र और भीष्म साहनी पर केन्द्रित अंकों के जरिए भी आलोचना की बदलती भंगिमा का पता चलता है | ‘बहुवचन’ (अतिथि संपादक- कृष्ण कुमार सिंह) का  नामवर सिंह पर केन्द्रित अंक चर्चित रहा | वह चर्चा नए ढंग से नामवर के मूल्यांकन का परिणाम थी | इस वर्ष के अन्य उल्लेखनीय आलोचना पुस्तकों में ‘कविता का संघर्ष’ (कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह ),’नई सदी की कविता’ (गणेश पाण्डेय),’शताब्दी का प्रतिपक्ष’ (वैभव सिंह),आदि सहज ही स्मरणीय है |
सीमित स्थान और समय में स्मृति के आधार पर की गई यह टिप्पणी 2016 में हिंदी आलोचना साहित्य का विहगावलोकन भर है, जिसमे कुछ छूट जाने की भी संभावना है | बावजूद इसके यह कहने की जरूरत है कि हिंदी आलोचना सक्रिय है और नया आकार ग्रहण कर चुकी है | वह व्यंग्य, विडम्बना, तनाव, यथार्थवाद आदि आलोचनात्मक प्रतिमानों से आगे बढ़ते हुए अपने समय-समाज के यथार्थ को देखने की नई दृष्टि से अपने को युक्त कर चुकी है | जो लोग हिंदी में आलोचना के अभाव का रोना रोते हैं वे आलोचना को समकालीनता तक या अपने तक सीमित कर देना चाहते हैं | आलोचना समकालीन रचनाशीलता का मूल्यांकन तो करती ही है, उसके साथ वह पुराने साहित्य का मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन भी करती है और साहित्य की नई समझ पैदा करती है | इस दृष्टि से 2016 की आलोचनात्मक सक्रियताएं – जो पुराने अधवयस और नए आलोचकों के कारण संभव हो पाई है – हिंदी आलोचना के विकास की गवाही देती प्रतीत होती हैं |


Wednesday 5 October 2016

भीष्म साहनी : सादगी के सौन्दर्य का कहानीकार

भीष्म साहनी की कहानियों में चमक नहीं है  !
क्या यह कथन किसी कथाकार की छवि और विशिष्टता में बाधक  बनता है ?
प्रेमचंद,जैनेन्द्र,यशपाल आदि की कहानियों के पाठक को निर्मल वर्मा,मोहन राकेश,कमलेश्वर,कृष्णा सोबती आदि की कहानियों के  भाषागत,शिल्पगत और विषयगत जिस नएपन ने  चौंकाया था और एकबारगी कहानी की नई जमीन पर ला खड़ा किया था,उसकी कुछ कमी-सी भीष्म साहनी की कहानियों में लगती रही |
 लेकिन  इससे  उनकी लोकप्रियता प्रभावित नहीं हुई | नहीं हुई  तो  क्यों ?
 भीष्म साहनी की कहानियों पर सोचते हुए सबसे पहले ये बातें ध्यान में आईं | तभी उनकी समकालीन और महत्त्वपूर्ण कथाकार कृष्णा सोबती के एक लेख की याद आई|भीष्म जी पर  लिखते हुए उन्होंने कुछ ऐसा ही लिखा है,हालाँकि उन्होंने अपने कथन को दोस्तों के हवाले से कहा है :’’कुछ दोस्तों को भीष्म के साफ-सुथरे शिल्प और शैली में उस अतिरिक्त की कमी खटकती है जो खुद ही रचना को चमकाती-दमकाती है|’’
इस ‘अतिरिक्त की कमी’  उनके कथा-साहित्य में तो देखी ही गई,उनके जीवन में भी देखी गई|अपने उसी लेख में कृष्णा जी ने लिखा है :’’ भीष्म के रहन-सहन और सलीके में भी आप अंदाज देख सकते हैं|लेखक के व्यक्तित्व को रूमानी बनाने वाले चोंचले और किसी हद तक जरूरी साज-सामान भीष्म के यहाँ गैरहाजिर हैं|” उन्होंने आगे लिखा है : “
 मिसाल के तौर पर भीष्म की साफ़-सुथरी गृहस्थी में दूर-दूर तक भीष्म की किसी असली या काल्पनिक महबूबा का नाम हवा में नहीं लहराया|दरअसल भीष्म की बीवी ही इस सांझे आसन पर विराजमान है|दोस्तों का कहना है कि भीष्म को ‘एक में तीन ‘ जैसी बेनयाज बीवी मिली हुई है | बीवी,प्रेमिका और पाठिका-थ्री इन वन |”
    स्वाभाविक है कि जब न रचना में कुछ अतिरिक्त-सा चमक-दमक लाने वाला गुण हो और न  ‘रूमानी बनाने वाले चोंचले’  हों तो नयी कहानी के धमाकेदार जलसे में शामिल होकर भी वे  देर से आये पिछली पंक्ति के मेहमान मान लिए जाएँ |नयी कहानी दौर में भले ऐसा समझ लिया गया हो या समझाया गया हो,लेकिन ऐसा है नहीं|कृष्णा सोबती ने इस ‘अतिरिक्त की कमी’ के बावजूद उन्हें विशिष्ट कथाकार माना है |
      भीष्म साहनी नई कहानी के समय और उसके बाद भी सबसे अधिक पढे गए कहानीकार हैं| उनकी कहानियाँ शहर से लेकर गाँव तक और शिक्षित समाज से लेकर सामान्य कथा प्रेमियों के  बीच समान रूप से पसंद की गयीं-पढ़ी गयीं |उनके पास नई कहानी वालों  की तरह न तो भाषागत और न शिल्पगत सचेत रूप से  पैदा की गई चमक थी  और न व्यक्तित्व को  बनाने  और चमकाने वाले अपने इर्द- गिर्द मडराते कुछ सच -कुछ झूठ रोमानी  किस्सें थे जो नयी कहानी वालों ने अपने लिए चला रखें  थे| किस्सा कोताह यह कि बिना किसी अतिरिक्त चमक के  भीष्म सहनी ने नई कहानी और उसके बाद के दौर में वह मुकाम हासिल किया जो हिंदी कहानी में क्लासिकल मिजाज का दर्जा है,जो प्रेमचंद को बड़े पैमाने पर हासिल है|लिखने को उन्होंने उपन्यास भी लिखा, ‘तमस’ को पुरस्कार भी मिला और अपार लोकप्रियता भी मिली,पर मुझे लगता है कि उनकी बड़ी  देन कहानी के क्षेत्र में है| वे धीरे-धीरे स्थायी प्रभाव पैदा करने वाले कहानीकार बने |
 भीष्म सहनी और फणीश्वर नाथ रेणु वय में बड़े थे ,लेकिन कहानी-लेखन का उनका सिलसिला शुरू हुआ नई कहानीकारों के साथ|साथ का मतलब कदम ताल करते हुए- से नहीं,सामानांतर चलते हुए से है|एक की कथा भूमि गाँव है और दूसरे की शहरी मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय जीवन ,लेकिन दोनों में एक चीज समान है वह है कहानी को किस्सा बनाने की कला|’मैला आँचल’ के प्रकाश का तेज इतना प्रखर था कि रेणु का कहानीकार पक्ष उसके सामने दब-सा गया,साथ ही नई कहानी के शोर-शराबे से वे असम्पृक्त भी रहे|वे जब कहानी लेखन के क्षेत्र में आये तो वय में उनसे छोटे निर्मल वर्मा ,शिवप्रसाद सिंह ,अमर कान्त ,मार्कंडेय,शेखर जोशी आदि के साथ मोहन राकेश,कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव हिंदी कहानी में अपनी सक्रीय, साथ ही रचनात्मक उपस्थिति दर्ज करा चुके थे |उनके पास न निर्मल जैसी चमकदार भाषा थी,न शिल्प,न अन्यों की तरह यथार्थ को फैंटेसी बनाने का हुनर था और न लोक कथा के समान्तर नयी जीवन-स्थितियों  की कहानी बुनने की  कला|उनके पास प्रेमचंद और यशपाल जैसी सादगी से भरी भाषा थी और था  कहानी कहने का वही सादा ढंग|लेकिन इन सबके  ऊपर जो चीज उनके पास थी,वह था विशाल जीवन-अनुभव जो अनेक तरह के विस्थापनों और जीवन-स्थितियों से बना था|कहानीकार भीष्म साहनी की संवेदना का जो विस्तार है,उसकी तुलना में दूसरा नाम खोजना कठिन –सा  है|यही कारण है कि जो कहानीकार ‘चीफ की दावत’ और ‘समाधि भाई राम सिंह’ जैसी कहानी लिख सकता है,जो कहानीकार ‘अमृतसर आ गया है’ और ‘पाली’ जैसी कहानी लिख सकता है,वही ‘वांगचू’ भी लिख सकता है|इनसे एक कहानीकार के विस्तृत जीवन-बोध और वर्गों,सम्प्रदायों और देश-देशांतर की सीमाओं का अतिक्रमण करती उस कथा-संवेदना का पता चलता है जो हिंदी कहानी के क्षितिज का चुपचाप विस्तार करती है|
    कवि अरुण कमल ने भीष्म साहनी के सन्दर्भ में ‘धोखा देने वाली सादगी’ की चर्चा की है |इसका अर्थ यह है  कि भीष्म जी में जो सादगी है, वह अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह नहीं है| अरुण कमल के ही शब्दों में वह  ‘ भाषा के गहन संस्कार का फल है’|अपनी कहानी कला के लिए उन्होंने उस सादगी को सचेत रूप से अपनाया है|सादगी में भी सौन्दर्य होता है ,इसका सुन्दर उदाहरण भीष्म जी की कहानियाँ हैं| कोई नायाब प्लाट  खोज लेने की महत्त्वाकांक्षा और उसे नए शिल्प में प्रस्तुत करने के कथा-कौशल के लिए हलकान होने वाले कहानीकार नहीं है भीष्म सहनी|उनको पढ़ते हुए नई कहानी  के किसी कहानीकार को पढने का भाव मन में नहीं आता|आधुनिकता बोध को नई कहानी के कुछ लेखक  जीवन-मूल्य की तरह प्रचारित करते थे|भीष्म जी आधुनिकता-बोध की उस अवधारणा से सहमत नहीं थे|उन्होंने ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ की भूमिका में इस पर लिखा भी है|वे लिखते हैं :’’आधुनिकता-बोध की जिस कसौटी पर कहानी को परखा जाने लगा है उससे मैं सहमत नहीं हूँ|जहां कहानी जीवन का साक्षात्कार कराती है,उसके भीतर पाए जाने वाले अंतर्विरोधों से साक्षत्कार कराती है,वहाँ वह अपने आप ही समय और युग का बोध भी कराती है |पर आधुनिक –‘भाव बोध’ को साहित्य का विशिष्ट गुण मान लिया जाए तो हम दिग्भ्रमित ही होंगे |यदि कहानी में अवसाद है,मूल्यहीनता का भाव है,अनास्था है तो वह आधुनिक,और ...चूँकि आधुनिक है,इसलिए उत्कृष्ट है,इस प्रकार का तर्क मुझे प्रभावित नहीं करता|अपना भाग्य ढोते हुए इंसान का चित्र आधुनिक है,पर अपने भाग्य से जूझते हुए इंसान का चित्र असंगत है,अनास्था आधुनिक है,आस्था असंगत है,मृत्युबोध आधुनिक है और जीवन-बोध असंगत और निरर्थक है,इस प्रकार के तर्क के आधार पर साहित्य को परखना और उसके गुण-दोष  निकालना जिंदगी को भी और साहित्य को भी  टेढ़े शीशे में देखने की कोशिश है|’’
          कहानी को लेकर भीष्म साहनी की यह जो दृष्टि है,वह उन्हें अपने दौर के कहानीकारों से भिन्न और विशिष्ट बनाती है|यह भिन्नता और विशिष्टता ही उन्हें अपने दौर में अलग जगह भी दिलाती है,लेकिन ठीक से और सही जगह न रखे जाने का आधार भी बनती है|इसलिए यह अकारण नहीं है कि नई कहानी सम्बन्धी उस समय की चर्चा में भीष्म साहनी कहीं नहीं हैं या कम हैं | ऐसी दुर्घटना रेणु के साथ भी घटती है|
       सांप्रदायिक मानस की अचूक पहचान के लिए भीष्म जी की कहानियाँ हमेशा याद की जाती हैं और की जानी चाहिए|विभाजन  को लेकर हिंदी-उर्दू में दर्जनों कहानियाँ हैं|सबकी अपनी विशिष्टता है|लेकिन ‘अमृतसर आ गया है’ में साम्प्रदायिकता का बहुसंख्यक आबादी से क्या सम्बन्ध है,इसका जैसा सूक्ष्म रेखांकन इस कहानी में है वैसा अन्यत्र कम है|यह कहानी बोलती कम है पर प्रभाव ज्यादा पैदा करती है|अपनी जमात का संख्याबल किस तरह एक कायर-कमजोर को भी क्रूर चेहरे में बदल देता है,इसकी जबरदस्त पहचान यह कहानी करती है|’अमृतसर आ गया है’ भीष्म जी की और हिंदी की लोकप्रिय कहानियों में से एक है |इसकी चर्चा भी खूब हुई है|लेकिन सांप्रदायिक मानस की उनकी दूसरी  कहानी ‘पाली’ पर इस दृष्टि से कम ध्यान दिया जाता है|’अमृतसर आ गया है ‘ में जो कुछ है उसका प्रत्यक्ष चित्रण है,पर ‘पाली’ में  परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक मानसिकता के कारण एक बच्चे  की मन:स्थिति का बड़ा जो  सूक्ष्म और मार्मिक अंकन है, वह देखने लायक है |
   किसी पाठक को कोई कहानी क्यों अच्छी लगती है?इस ‘क्यों’ के अनेक कारण हो सकते हैं|लेकिन जो मुख्य कारण है वह पाठक के भरोसे को कहानी द्वारा जीत लिया जाना ही है |पाठक कहानी पर भरोसा तभी करता है जब उसमें सच्चाई का प्रमाणिक आधार मिलता है |यह प्रमाणिकता के कारण ही कोई कहानी  पाठक का भरोसा अर्जित करती है|भीष्म जी की कहानी-कला की सबसे बड़ी खूबी इस प्रमाणिकता की खोज है जो उनकी प्राय: हर  कहानी में मौजूद है|उन्होंने लिखा भी है : ‘’ कहानी का सबसे बड़ा गुण मेरी नजर में उसकी प्रमाणिकता ही है,उसके अन्दर छिपी सच्चाई जो हमें जिंदगी के किसी पहलू की सही पहचान कराती है|और यह प्रमाणिकता उसमें तभी आती है जब वह जीवन के अंतर्द्वंद्वो से जुडती है|तभी वह जीवन के यथार्थ को पकड़ पाती है|कहानी का रूप-सौष्ठव,उसकी संरचना,उसके सभी शैलीगत गुण,इस एक गुण के बिना निरर्थक हो जाते हैं|कहानी जिंदगी पर सही बैठे,यही सबसे बड़ी मांग हम कहानी से करते हैं|इसी कारण हम किसी प्रकार के बनावटीपन को स्वीकार नहीं करते- भले ही वह शब्दाडंबर के रूप में सामने आये,अथवा ऐसे निष्कर्षों के रूप में जो लेखक की मान्यताओं का तो संकेत करते हैं,पर जो कहानी में खपकर उसका स्वाभाविक अंग बनकर सामने नहीं आते|प्रमाणिकता कहानी का मूल गुण है|कहानी में यह गुण मौजूद है तो कहानी कला के अन्य गुण उसे अत्यधिक प्रभावशाली और कलात्मक बना पाएँगे|प्रमाणिकता कहानी की पहली शर्त है ” ( ‘मेरी प्रिय कहानियों की भूमिका से’)|भीष्म जी के इस कथन के आलोक में उनकी कहानियों का अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि यही चीज उनकी कहानियों में सर्वोपरि है |यह गुण उनकी सभी कहानियों में है –वह चाहे बहुप्रशंसित कहानी हो या कम चर्चित कहानी |यही कारण है कि उनकी कहानियां किसी वैचारिक सूत्र का कभी उदाहरण नहीं बनतीं ,हालांकि वे मार्क्सवादी थे और उस विचारधारा में उनका अटूट विश्वास भी था|एक कम्युनिस्ट होने के बावजूद भीष्म जी की कहानियों में विचारधारा का आग्रह या दबाव नहीं दिखाई देता तो इसका कारण उनकी कहानी सम्बन्धी धारणा में है|’दस प्रतिनिधि कहानियां’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है : ‘’.......प्रत्येक लेखक अंततः अपने संवेदन,अपनी दृष्टि,जीवन की अपनी समझ के अनुसार लिखता है|हाँ,इतना जरूर कहूँगा कि मात्र विचारों के बल पर लिखी रचना,जिसके पीछे जीवन का प्रमाणिक अनुभव न हो,अक्सर अधकचरी रह जाती है|” कृष्णा सोबती ने भी उनके राजनितिक विचार और कहानी रचना के संबंधों की पड़ताल की है और पाया है कि कहानी  की कीमत पर उन्होंने राजनीति को कभी भारी न पड़ने दिया| वे लिखती हैं :” ......भीष्म की राजनीति उसकी क्षमताओं को सिर्फ उकेरने वाली सहायक पूर्ति नहीं –वे मूल्य और आस्थाएं हैं जिनसे भीष्म का पूरा-का-पूरा दृष्टिकोण स्थिर हुआ है|.....’चीफ की दावत’ से लेकर ‘भगवान के आदमी’ तक की कहानियों में परिवेश के यथार्थ को भीष्म ने अपनी साहित्यिक मान्यताओं से परे नहीं जाने दिया|”
       मेरे मन में अक्सर एक सवाल उठता है कि कहानीकार भीष्म साहनी को पढ़ते हुए कभी  क्यों नहीं लगता कि हम एक कम्युनिस्ट कहानीकार को पढ़ रहे हैं ? यह गुण किसी लेखक में तब आता है जब वह विचारधारा का अतिक्रमण करने की रचनात्मक जीवन-दृष्टि अर्जित करता है|इसके सबसे सुन्दर उदाहरण नई कहानी दौर में भीष्म साहनी हैं| ‘चीफ की दावत’ की माँ  एक सनातन माँ है|एक प्रसिद्द पुरानी कहावत है –‘माई का दिल मलाई जैसा,पूत का दिल कसाई जैसा’|कोई नई बात नहीं है ‘चीफ की दावत’ में,लेकिन भीष्म जी नई बात पैदा कर देते हैं|कोई अतिरिक्त मुखरता नहीं है|रिश्तों के भीतर मनुष्यता की  गरिमा छीज रही है|लेकिन माँ की ममता में वह छीजन नहीं है|भीष्म जी  चुपचाप जिस तरह सनातन वात्सल्य  और उसकी निरंतरता को इस कहानी के जरिये रेखांकित करते हैं,वह हिन्दी पाठक की नजर से ओझल नहीं होता|सफलता के पीछे भागती आधुनिक पीढ़ी रिश्तों के महत्त्व को तो समझने में असमर्थ है ही,उसके अवचेतन में उसके प्रति घृणा भी है| ‘चीफ की दावत’ में रिश्तों की अहमियत से अनजान और सफलता के पीछे भागती पीढ़ी का जो चित्रण है, उसका आधार ख़ुदगर्ज और भरोसे की दुनिया की कशमकश है |यही गुण उनकी प्राय: सभी कहानियों में  है |इस कारण भीष्म साहनी की कहानियां हमारे अनुभव संसार की उपज लगती हैं,किसी विचारधारा या आईडिया की उपज नहीं |
      ‘वांगचू’ में संवेदना का अछोर विस्तार है|एक चीनी बौद्ध भिक्षु जो उपयोगिता की दृष्टि से दुनिया के किसी काम का नहीं है| एक अर्थहीन विश्वास में जीने वाला  ‘वांगचू’ कहानीकार के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है?लोगो को उसके होने में कोई अर्थ नहीं दिखाई देता,लेकिन कहानी में धीरे-धीरे उस व्यर्थ-से को अर्थ देता हुआ संगीत निरंतर बजता रहता है|वांगचू का जीवन जैसा शांत,स्थिरऔर आध्यात्मिक आभा लिए हुए है,इस कहानी के रचाव में भी कुछ-कुछ वैसा ही है |कहानी में ‘वांगचू’ के प्रवेश को बहुत ही खूबसूरत और नाटकीय अंदाज में कहानीकार प्रस्तुत करता है |’तभी दूर से वांगचू आता दिखाई दिया’- इस संक्षिप्त विवरण से कहानी की शुरुआत होती है|यह वाक्य एक पूरे अनुच्छेद की जगह है –कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कहता हुआ|दूसरे अनुच्छेद में जो कवित्वपूर्ण वर्णन है उसमें ऐसी पवित्र आभा है,जिसे किसी दूसरे शब्द के अभाव में आध्यात्मिक ही कहा जाएगा|वह यूँ है: ‘‘नदी के किनारे लालमंडी की सड़क पर धीरे-धीरे  डोलता-सा चला आ रहा है |धूसर रंग का चोगा पहने था और दूर से लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं की ही भांति  उसका सिर भी घुटा हुआ है|पीछे शंकराचार्य की ऊँची पहाड़ी थी और ऊपर स्वच्छ नीला आकाश |सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे सफेदे के पेड़ों की कतारें |क्षण-भर के लिए मुझे लगा,जैसे वांगचू इतिहास के पन्नों पर से उतरकर आ गया है|प्राचीन काल में इसी भांति देश-विदेश से आने वाले चीवरधारी भिक्षु पहाड़ों और घाटियों को लांघकर भारत में आया करते होंगे|अतीत के ऐसे ही रोमांचकारी धुंधलके में मुझे वांगचू भी चलता नजर आया|”
   ‘वांगचू’ में जो प्रसंग और चित्रण है,वह इसी तरह शांत,मंद गति से चलता हुआ और दिलचस्प किस्से की आभा से युक्त है |वह ऐसा चरित्र है जो न वह भारत के लिए उपयोगी है और न चीन के लिए |दोनों देशों में वह संदेह की दृष्टि से देखा जाता है |बौद्ध धर्म से सम्बंधित जो शोधकार्य वह कर रहा है,वह भी अर्थपूर्ण नहीं लगता और न साकार रूप ले पाता है|वह दुनियादारी के लिहाज से अनुपयोगी है |उसके न रहने से किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ता|कहानीकार भीष्म साहनी उस अनुपयोगी-से वांगचू को ऐसे रचते हैं जैसे वे उसे जी रहे हैं| रचते हुए कोई भावुकता ,रोमानीपन नहीं|कहानीकार निर्वैयक्तिक ढंग से वांगचू को इस रूप में हमारे सामने लाता है कि वह चुपचाप हमारे संवेदना का हिस्सा हो जाता है|उस कहानी में संवेदना का जो अछोर विस्तार,रोचक शैली और आध्यात्मिक-सी आभा है,वह कहानीकार भीष्म साहनी की बड़ी उपलब्धि है|अपनी इन विशिष्टताओं के चलते ‘वांगचू’ हिंदी कहानी के इतिहास का चुपचाप अमर चरित्र-बन जाता है|
      किसी विलक्षणता  या अनोखेपन के कहानीकार के नहीं हैं भीष्म साहनी|वे यदि ‘जीवन में सादगी पसंद सादामिजाज इनसान’ हैं तो कहानी में भी उनके यहाँ कथानक,भाषा और शिल्प सबमें सादगी का सौन्दर्य दिखाई देता है|इस सौन्दर्य की शोभा ही वह आकर्षण है जो उन्हें प्रेमचंद और यशपाल-सा लोकप्रिय भी बनाती है और पाठकों का विश्वास पात्र भी |जिन्हें उनकी सादगी में सपाटपन नजर आता है,उनको कृष्णा सोबती का यह कथन याद दिलाना जरूरी है : “भीष्म का पूरा व्यक्तित्व दाएँ-बाएँ का विस्तार नहीं|उसकी शख्सियत गहराई में बड़ी सादगी से अटी है |इसी से कई लोगों को भीष्म के लेखन की लकीर कुछ सपाट मालूम देती है|शायद इसलिए कि उनके समूचे लेखन में सहज साधारण पात्रों की बहुलता है,अनोखापन नहीं|”

       इसी के साथ यह भी कहने की जरूरत है कि इस सादगी के भीतर अदृश्य-सी तड़पती हुई जो लेखकीय ईमानदारी है,वह उनकी कहानियों की भीतरी शिराओं में आंदोलित वह रफ़्तार है जिसके बिना कहानीकार भीष्म साहनी को समझा नहीं जा सकता |

Saturday 1 October 2016

जनकवि और जनकविता

कवि मुकुट विहारी सरोज के नाम से ग्वालियर में  एक साहित्यिक सम्मान  दिया जाता है- ‘जनकवि मुकुट विहारी सरोज सम्मान’| यहाँ ‘जनकवि’ विशेषण ने ध्यान आकृष्ट किया | मुकुट विहारी सरोज को क्या ‘जनकवि’ उपाधि से विभूषित करना उचित है ? वे तो एक गौण कवि थे | तभी देखा कि कवि त्रिलोचन के लिए भी  ‘जनकवि’ उपाधि किसी ने प्रयुक्त की  है |विजय बहादुर सिंह की पुस्तक ‘जनकवि’ पर भी  ध्यान गया, जिसमें केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, शमशेर,मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय कुल छह  कवि  शामिल हैं | कवि नागार्जुन ने ‘जनकवि’ का प्रयोग अपने लिए किया है | नागार्जुन के प्रशंसक अक्सर उनके नाम में ‘जनकवि’ विशेषण जोड़ते रहे हैं | वैसे स्वयं नागार्जुन ने भारतेंदु के लिए ‘जनकवि’ विशेषण का प्रयोग किया है | इन कुछ दृष्टान्तों के अतिरिक्त लोग आदर के लिए जनकवि विशेषण का प्रयोग इधर के वर्षों में अपने प्रिय कवियों के लिए करने लगे हैं | जहाँ तक अनुमान है कि ‘जनकवि’ विशेषण के प्रयोग की प्रवृत्ति का चलन छायावाद के बाद की घटना है | मुझे लगता है कि पहले लोग किसी कवि को जब खूब आदर देते थे तो उसके नाम के पहले ‘महाकवि’ शब्द जोड़ते थे | यूँ महाकवि उसे कहा जाता था जिसने कोई महाकाव्य लिखा है, जैसे- महाकवि तुलसीदास | सूरदास ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा था, तब भी उन्हें महाकवि कहा गया | नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक ही है- ‘महाकवि सूरदास’| कहा गया कि सूर ने भले ही कोई महाकाव्य न लिखा हो, लेकिन वे महाकाव्यात्मक प्रभाव पैदा करने वाले कवि हैं | कबीर को महाकवि किसी ने कहा हो, इसकी याद नहीं | पहले  वे समाज सुधारक या संत थे | कवि रूप में प्रतिष्ठा उन्हें बहुत बाद में मिली | जायसी, सूर और तुलसी की तरह वे भी अब  महाकवि हैं | आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला आदि के लिए भी महाकवि पद प्रयुक्त होता रहा है | अब यह विशेषण सुनने को नहीं मिलता | अब किसी कवि को महाकवि कहने पर – चाहे जनवादी हो या गैरजनवादी – वह नाराज हो जाएगा | ऐसा कहना उसे अपना उपहास-सा लगेगा | लगता है उसकी जगह ‘जनकवि’ ने ले ली है | यह भी लगता है कि जनकवि कहना-कहलाना कवि-प्रशंसकों और कवियों को ज्यादा अच्छा लगता है |
महाकवि एक सुपरिभाषित पद था | इसका प्रयोग उसी के लिए किया जाता था जो इसका अधिकारी हो |  जिसने महाकाव्य न लिखा, लेकिन जो महान कवि हो, जैसे- निराला | आधुनिक काल में इसका बड़ा दुरुपयोग हुआ | हर ऐरा-गैरा कवि अपने को महाकवि कहलाना पसंद करने लगा | कवि सम्मेलन का संचालक हर कवि को ‘महाकवि’ कहकर बुलाने लगा | अब उसकी जगह जनकवि प्रचलन में है, लेकिन ‘जनकवि’ वैसा सुपरिभाषित पद नहीं है जैसा महाकवि था | तब प्रश्न है कि जनकवि कौन ? भारतेंदु, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुकुट विहारी सरोज आदि  तो जनकवि घोषित किए जा चुके हैं | इसकी परिभाषा स्पष्ट हो तो और भी नाम जुड़ेंगे | क्या जनकवि उसे कहेंगे जो जनता का कवि हो | तब प्रश्न उठेगा कि जनता का कवि कौन ? जनता के लिए तो सबने लिखा है | प्रसाद, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, धूमिल आदि सभी कवियों ने जनता के लिए लिखा है | तब प्रश्न उठेगा कि किस जनता के लिए ? उच्च वर्ग के लोग हिंदी कविता पढ़ते होंगे, इसमें संदेह है | निम्न वर्ग से जो किसान मजदूर हैं वे भी शायद ही कविता पढ़ते हों | उनकी जीवन-स्थितियां कविता के पढ़ने के अनुकूल नहीं है | ले-देकर मध्यवर्ग ही हिंदी कविता का पाठक हो सकता है | वकील, पत्रकार, अध्यापक, छात्र, अधिकारी, क्लर्क आदि को ही हिंदी कविता का पाठक माना जा सकता है | क्या इनके बीच जो लोकप्रिय है उसे जनकवि कहा जाए ?
जनकवि शब्दकोश में नहीं है | इससे पता चलता है कि यह पुराना शब्द नहीं है | अनुमान किया जा सकता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में जिन कविताओं को जनता गाती होगी, उनके लिए जनकवि विशेषण चलता होगा | यूँ १९४० के दशक   में लिखी अपनी कविता ‘भारतेंदु’ में नागार्जुन  ने भारतेंदु हरिश्चंद्र को ‘जनकवि’ कहा है | क्यों कहा है ? उ न्हीं से सुनिए :
हिंदी की है असली रीढ़ गवारु  बोली,
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हममें घोली...
हे जनकवि सिरमौर, सहज भाषा लिखवइया
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे, बाबू- भइया  |
शिक्षित जन जिसे गवाँरु बोली समझते हैं, वही हिंदी की असली ताकत है | ऐसा उत्तम विचार भारतेंदु का था | उनकी जैसी सहज भाषा लिखने वाला व्यक्ति ही ‘जनकवि सिरमौर’ है | यही कारण है कि उन्हें बाबू भइया का यानी ऊँचे तबके का समर्थन नहीं मिला | नागार्जुन की नजर में ऐसा ही व्यक्ति जनकवि हो सकता है | बाद में उन्होंने खुद अपने को जनकवि घोषित करते हुए लिखा :
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं
जनकवि हूँ, सत्य कहूँगा, क्यों हकलाऊं ?
यहाँ नागार्जुन के अनुसार जनकवि वह है जो जनता के जीवन-मरण के सवालों से परिचित  हो, जो यथार्थ चित्रण करता हो और साफ़-साफ़ दो टूक कहता हो | नागार्जुन की परिभाषा के आधार पर भारतेंदु और नागार्जुन दोनों जनकवि हैं | यूँ नागार्जुन प्रेमी नागार्जुन को ही प्रायः जनकवि कहते रहे हैं | ऊपर उद्धृत पंक्तियों से पता चलता है कि नागार्जुन के लिए जनकविता और जनकवि का सवाल हमेशा सर्वोपरि रहा है |
जनप्रियता के आधार पर बात करें तो मैथिलीशरण गुप्त की काव्य पुस्तक ‘भारत- भारती’ (१९१२ ई.) की याद सहज रूप से आती है | स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान यह काव्य पुस्तक खूब पढ़ी गई | यह कृति इतनी लोकप्रिय हुई कि गुप्त जी को ‘राष्ट्रकवि’ की लोकोपाधि मिली | ‘भारत-भारती’ में जनता की आजादी का प्रश्न केंद्र में था | सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ शीर्षक कविता स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान तो खूब लोकप्रिय हुई ही, आज भी लोकप्रिय है | बच्चन की ‘मधुशाला’ (१९३५) की अपार लोकप्रियता को हम भूले नहीं हैं | जाति-धर्म निरपेक्ष समाज की रचना का सपना ‘मधुशाला’ की केंद्रीय भाव-भूमि है | दिनकर की कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि जन आंदोलनों का नारा बन गई | १९४० के दशक में यदि नेहरु राजनीति में युवा हृदय-सम्राट बन गए थे तो हिंदी कविता के युवा हृदय-सम्राट दिनकर थे | सहज भाषा, स्पष्ट कथन, जनता और समाज के व्यापक सवालों के आधार पर गुप्त, बच्चन और दिनकर भी सच्चे अर्थों में जनकवि हैं | और भी कवि हैं जिनकी कवितायेँ जनता के बीच खूब लोकप्रिय हुई | १९६० के दशक में बिहार के हमारे अंचल के स्कूलों में एक गीत खूब लोकप्रिय था : ‘देश हमारा, धरती अपनी, हम धरती के लाल, नया संसार बनायेंगे, नया इंसान बनायेंगे |’ यह किसकी कविता है, न हमें मालूम था, न शायद हमारे शिक्षकों को | बाद में पता चला कि प्रगतिशील कवि ‘शील’ का गीत है | दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल-पंक्तियाँ अक्सर साधारण लोगों द्वारा उद्धृत की जाती हैं  | इन ग़ज़लों में जनता के सवाल भी है और भाषा का सहज रूप भी है | धूमिल की काव्य पंक्तियाँ भी अक्सर लोग दुहराते हैं | सवाल है कि ये सभी कवि जनकवि क्यों नहीं हैं और उनकी कविताएँ  जन कविता क्यों नहीं हैं ? कोई पूछ सकता है कि जनकविता किसे कहा जाए ? जनकविता पद का प्रयोग किए बिना तुलसीदास ने वैसी कविता को मानस में इस रूप में परिभाषित किया है कि आदर पाने योग्य वही कविता है जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र वाले व्यक्ति का वर्णन हो और जिसकी प्रशंसा शत्रु भी करें :
सरल कबित कीरति बिमल सो आदरहिं सुजान |
सहज बयर बिसराह रिपु जो सुनि करहिं बखान ||
कविता के इस आदर्श को लेकर चलने के कारण ही तुलसीदास जन-जन के कवि बने | बड़ी से बड़ी बात को सहज ढंग से कह देने की कला तो  कोई तुलसीदास से सीखे | यही कारण है कि निराला ने उन्हें ‘अशेष छविधर’ कवि कहा तो त्रिलोचन ने उन्हें अपना आदर्श कवि घोषित किया – ‘तुलसी बाबा, कविता मैंने तुमसे सीखी, मेरी सजल चेतना में तुम रमे हुए हो |’ तुलसीदास की सरलता दिनकर को इतनी प्रिय थी कि उन्होंने एक बार कहा था कि हम रिल्के की बात तुलसीदास की सफाई से कहना चाहते हैं | कविता में यह सरलता बड़ी बात है | तभी तो प्रचंड पांडित्य के धनी और  रामकथा लिखने वाले केशवदास जनता के बीच ‘कठिन काव्य का प्रेत’ बनकर रह गए |
कविताएँ जनता की जुबान पर दो कारणों से चढ़ती हैं |एक तो पाठ्यक्रमों  में शामिल कवितायें प्रायः लोगों को याद हो जाती हैं|पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से शामिल होने के कारण प्रसाद ,निराला,अज्ञेय ,मुक्तिबोध आदि कवियों की कुछ एक पंक्तियाँ भी लोगों की जुबान पर हैं| लेकिन  भारतेंदु ,मैथलीशरण गुप्त ,सुभद्रा कुमारी चौहान ,बच्चन ,दिनकर नागार्जुन ,धूमिल आदि की कवितायें यदि लोगों की जुबान पर हैं तो इसका कारण इनके भीतर का वह काव्य-गुण है,जो उन्हें सहज ही स्मरणीय बना देता है| जनकवि वही है जिनकी काव्य-पंक्तियाँ सहज रूप में याद हों,जो जन आन्दोलनों का हिस्सा रही हों और जिन्हें समझने के लिए किसी आलोचक की जरुरत न हो |सच्चे अर्थ में तो  हिंदी भाषी क्षेत्र के जनकवि कबीर ,सूर,और तुलसीदास जैसे कवि ही माने जायेंगे |आधुनिक युग में साहित्यिकता के साथ लोकप्रियता की दृष्टि से मैथलीशरण गुप्त और बच्चन की मधुशाला का स्थान सबसे ऊपर है| बिना पाठ्यक्रम में शामिल हुए इन काव्यकृतियों का जादू पाठकों के ऊपर बना रहा |

  जनकवि जैसा कोई प्रत्यय अंग्रेजी कविता में नहीं है |वहाँ शेक्सपियर के लिए भी  इस तरह का कोई शब्द नहीं चलता | उर्दू में भी ‘शायरे-इन्कलाब’ तो है पर ‘शायरे अवाम’ नहीं | हाँ , मीर और नजीर अकराबादी जैसे शायरों को कुछ लोग अवामी शायर कहते हैं |  हिंदी में भी यह कोई पद नहीं है|नागार्जुन ने जब अपने को जनकवि कहा तो भाव यह था कि वे जनता से प्रतिबद्ध कवि हैं| उनके भीतर अपनी कविता के जरिये जनता तक पहुचने की बलवती चाह भी थी| इसलिए विषयवस्तु के साथ शिल्प शैली के प्रयोग में उन्होंने जन रूचि का ध्यान रखा |आज जो कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं उनमें जनता के प्रति प्रतिबद्धता तो दिखती है ,लेकिन संप्रेषणीयता के उस गुण का अभाव है ,जो उसे जन प्रिय भी बनाता है | इसलिए हिंदी कविता के सन्दर्भ में जन कविता का प्रश्न विचारणीय विषय  होना चाहिए |

Saturday 10 September 2016

सौंदर्य: दृष्टि और दृश्य का द्वन्द




सौंदर्य दृष्टि पर राम मनोहर लोहिया ने दिलचस्प सवाल उठाया है कि दुनिया में गोरा रंग ही सुन्दर  क्यों माना जाता है ?  उनका उत्तर है कि वह इसलिए कि दुनिया  पर गोरी चमड़ी वालों का शासन रहा  है ; यदि काले लोगों का रहा होता तो काला रंग सुन्दर माना जाता |इसलिए गोरी और  पतिव्रता सीता-सावित्री वाले भारतीय नारी आदर्श की जगह कृष्णा यानी द्रोपदी का आदर्श वे सामने रखते हैं| द्रोपदी साँवली थी, उसके पांच पति थे और वह तीखे सवाल उठाती थी| कुरु राज सभा में अपने सवालों से  उसने बड़े- बड़ों को निरुत्तर कर दिया था| उन्हें सवाल उठाने वाली द्रौपदी  ज्यादा पसन्द थी | रंगों के सौंदर्य के साथ आदर्शों का भी अपना सौंदर्य होता है| लोहिया समाज परिवर्तन के लिए सौंदर्य के इन प्रतिमानों को बदलने की बात करते हैं और सौन्दर्य को देखने की जो हमारी जड़ीभूत दृष्टि है उस पर जबर्दस्त हमला करते हैं और इस तरह से समाज परिवर्तन के लिए सौंदर्य –दृष्टि के परिवर्तन पर जोर देते हैं| इससे पता चलता है कि वास्तविक परिवर्तन सिर्फ सत्ता बदल जाने से ही नहीं, सुन्दरता सम्बन्धी सोच को भी बदलने से होगा| इससे यह भी पता चलता है कि सौन्दर्य दृष्टि के मूल में भी राजनीति होती है| सौंदर्य दृष्टि में परिवर्तन का अर्थ है राजनीतिक सोच में भी अंतर आना| सोच में परिवर्तन आने से न सिर्फ सामाजिक आदर्शो को देखने के नजरिए में फर्क आता है बल्कि साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमान भी  बदलते  हैं| सामाजिक सोच के बदलने से साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय सोच में कैसे फर्क आता है इसका दिलचस्प उदाहरण है कबीर का काव्य | कभी कबीर की कविता को अनगढ़ कहकर कमतर महत्व  दिया गया था, लेकिन प्रश्नाकुलता जैसे ही आधुनिकता की कसौटी बनी , प्रश्न उठानेवाले कबीर महत्वपूर्ण हो उठे| उनके अनगढ़पन के सौंदर्य के वैशिष्ट्य पर भी साहित्य चिंतकों का ध्यान गया| प्रपद्यवादी कवि केसरी कुमार ने, जिनपर लोहिया के विचारों का गहरा असर था, कबीर काव्य के अनगढ़ के सौन्दर्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया | कबीर चूँकि व्यंग्य के कवि हैं| व्यंग्य के जरिए कवि दूसरों पर चोट करता है| केसरी कुमार के अनुसार कबीर की कविता उस पत्थर की तरह है जिसकी मारक क्षमता उसके अनगढ़पन के कारण बहुत बढ़  जाती है | कबीर के अनगढ़पन के सौंदर्य को देखनेवाली यह साहित्य दृष्टि पिछली सभी दृष्टियों से भिन्न है |इस भिन्नता का मूल कारण साहित्य- सौन्दर्य के प्रतिमानों में निरन्तर हो रहा परिवर्तन है |                                                                                          
     यह दुनिया यदि परिवर्तनशील है और रोज बनती है तो साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमान कैसे स्थिर होंगे ? इसके उदाहरण हमारे साहित्य-इतिहास में भरे पड़े हैं | भरत मुनि से लेकर पंडितराज  जगन्नाथ तक भारतीय साहित्यशास्त्र का जो गहन विस्तार है, वह इस बात का प्रमाण है कि साहित्य-सौन्दर्य की हमारी दृष्टि गतिशील रही है और उसमें  जीवन की तरह वैविध्य के अनेक रंग हैं | भक्तिकाव्य को देखनेवाली परलोकवादी दृष्टि को रामचंद्र शुक्ल ने लोक के धरातल पर प्रतिष्ठित करके हिंदी आलोचना की दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित कर दिया | तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं, लोक-कल्याण हेतु वे विविध लीलाएं करते हैं, उनके अंगों की तुलना उन्होंने कमल से की है- हाथ, पैर, नेत्र आदि सभी कमलवत हैं| तुलसीदास के प्रशंसक शुक्लजी को राम इस कारण प्रिय नहीं हैं, उन्हें राम इसलिए प्रिय हैं कि उनमें शुक्लजी को कर्म का सौन्दर्य नजर आता है| परलोकवादी साहित्य दृष्टि को लोकवादी बनाने में कर्म के सौंदर्य की प्रधान भूमिका है, जिसकी शुक्ल विरोधी प्रायः अनदेखी करते हैं| कर्म का सौन्दर्य ही साहित्य की आधुनिक दृष्टि का मूल आधार है| वैष्णव भावना से संचालित तुलसीदास, जिसे वे जगत जननी  मानते हैं, उस सीता के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि वे छवि-गृह में जलते हुए दीप की शिखा जैसी सुंदर हैं-  ‘ सुन्दरता कहुं सुंदर करइ  , छविगृह दीप सिखा जनु बरइ  |’ वैष्णव चेतना के साथ सौंदर्य चेतना में कैसे भारी परिवर्तन उपस्थित होता है, इसका दिलचस्प उदाहरण है मैथिलीशरण गुप्त का राम सम्बन्धी काव्य| तुलसीदास की सीता सुकुमारता की पराकाष्ठा हैं, ऐसी कि तुलसी के सामने यह समस्या है कि सुन्दरता की सारी उपमाएं कवियों ने जूठी कर दी हैं, सीता की उपमा किससे दी जाए- ‘ सब उपमा कवि रहे जुठारी| केहिं पटतरों विदेह कुमारी||’ लेकिन आधुनिक वैष्णव कवि गुप्तजी की सीता कैसी हैं? माता तो वे गुप्तजी की भी हैं, पर दूसरे अर्थ में| पंचवटी का जो सुंदर दृश्य है, वह यह कि  ‘ सीता मइया थीं आज कछोटा बांधें’| कछोटा बांधकर श्रम करती हुई सीता आधुनिक युग की श्रमशील स्त्री हैं| तुलसीदास के युग से गुप्तजी के समय तक सीता का रूप  बदला है तो इसका कारण यह है  कि सौंदर्य को देखने की हमारी दृष्टि  बदल गई है|
     प्रेमचंद ने जब साहित्य के सौन्दर्य के प्रतिमान बदलने की बात की, सुलानेवाले साहित्य की जगह जगानेवाले साहित्य की मांग की तो इसका कारण यह था कि नवयुग की हवाएं उसपर बदलाव के लिए दबाव डाल रही थीं| बदलाव हुआ तभी तो महाकाव्य के धीरोदात्त नायकों और पद्मिनी नायिकाओं का युग समाप्त हो गया, होरी और धनिया जैसे नायक-नायिकाओं का युग आ गया| रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ की व्याख्या करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने हिंदी कथा -साहित्य में रेणु के  एक ऐसे मौलिक योगदान की चर्चा की है, जिस पर कम लोगों का ध्यान गया है| वे कहते हैं कि रेणु ने ‘तीसरी कसम’ जैसी प्रेम कहानी का नायक हीरामन जैसे काले कलूटे व्यक्ति को बना कर प्रेम कहानियों के नायकों की अवधारणा ही बदल दी | ‘तीसरी कसम ‘ की यह एकदम नई व्याख्या है| हीरामन के साथ प्रेम कहानी का नायक ही नहीं बदलता है प्रेम कहानी सम्बन्धी हमारी सौंदर्य-दृष्टि भी  बदलती है | हिंदी कहानी में यह युगांतकारी बदलाव है | यह संभव होता है सौन्दर्य सम्बन्धी हमारी धारणा में परिवर्तन से | इस परिवर्तन में जोर आन्तरिक सौंदर्य पर है | हीराबाई ने बाहरी सौंदर्य बहुत देखा था, उसके भीतर की अमानवीयता और भोगवादी दृष्टि भी देखी थी, लेकिन कालेकलूटे हीरामन जैसे आंतरिक सौन्दर्य का धनी पुरुष उसने पहली बार देखा था | लोहिया ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘सुन्दरता और त्वचा का रंग ‘ में सौंदर्य के प्रचलित प्रतिमानों को बदलकर , जो आमतौर से ऊपरी हैं , आंतरिक सौन्दर्य पर जोर देने की मांग की है | यह दूर की कौड़ी लाना है , लेकिन यह अद्भुत संयोग है कि एक ही समय में लोहिया और रेणु समाज और साहित्य में प्रचलित सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को बदल कर उसे आंतरिक सौंदर्य से जोड़ने पर बल देते हुए दिखाई देते हैं |
   बच्चन ने सौंदर्य के बारे में बात करते हुए लिखा है कि हमारे लिए सफाई ही सौन्दर्य है | तात्पर्य यह  कि घर को सजावटी सामानों से सजाने की जगह उसे साफ- सुथरा रखना ही सौन्दर्य है . जो साफ -सुथरेपन को ही सौन्दर्य मानता हो , उसके साहित्य पर भी उसका असर होगा ही |दिनकर का भी जोर कहने की सफाई पर बहुत था| उन्होंने कहा है कि हम रिल्के की बात तुलसीदास की सफाई से कहना चाहतें हैं | इसलिए यह अकारण  नहीं है  कि बच्चन और दिनकर दोनों का गद्य बहुत ही साफ सुथरा और सुन्दर है | उनके गद्य  में हिंदी के जातीय गद्य का सौंदर्य है| बच्चन की आत्मकथा और ‘संस्कृति के चार अध्याय ‘ की लोकप्रियता के मूल में अन्य कारण भी हैं लेकिन एक बड़ा कारण हिंदी के जातीय गद्य का सौंदर्य भी है , जो हिंदी वाक्य रचना के अनुसार  यानी कर्त्ता ,कर्म और क्रिया के क्रम में लिखे जानेवाले  गद्य का  है |तीनों की भाषा में सफाई का जो सौंदर्य है , उसपर गाँधीयुगीन आदर्शों के प्रभाव भी हो सकते हैं |१९१५ से लेकर १९४१  तक गाँधी और टैगोर के बीच जो पत्र –व्यवहार और विचार –विमर्श हुए उसे देखने पर पता चलता है कि चरखा को लेकर दोनों में तीव्र मतभेद थे | टैगोर चरखे  की अर्थनीति से सहमत नहीं थे | गाँधी ने जवाब में लिखा कि कवि तो कल्पना के भव्य लोक में रहते हैं , जब कि मैं दूसरे के बनाये चरखे का गुलाम हूँ | अपने काम से कवि-कर्म को श्रेष्ठ मानते हुए गाँधी ने टैगौर को सलाह दी :” यदि कवि....रोजाना आधा घंटा कातें ( चरखे  पर सूत )तो उनकी कविता और भी निखरेगी | कारण, तब उनकी कविता में गरीबों के दुःख –दर्दों का आज की अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त चित्रण होगा| “ इस तरह गाँधी का जोर गरीबों के दुःख –दर्द, श्रम,स्वावलंबन और सरल जीवन पर है | गाँधी के लिए जीवन-सौन्दर्य के स्रोत यही हैं, बेशक साहित्य सौन्दर्य के भी|
    रामविलास शर्मा ने कहा है कि यह जीवन और जगत भले ही क्षणभंगुर हो,संसार में रहे बिना सौन्दर्य-बोध संभव नहीं है और सौन्दर्य-बोध के बिना कलात्मक सृजन भी संभव नहीं है |अब यदि सौन्दर्य-बोध का आधार संसार है तो प्रश्न उठेगा कि संसार तो वर्ग-जाति स्त्री-पुरुष और काले-गोरे में  बंटा है|अलग-अलग श्रेणियों से आने वाले रचनाकारों का सौन्दर्यबोध क्या  एक होगा ? रामविलासजी  यथार्थवादी साहित्य दृष्टि को इसका मुख्य आधार मानते हैं| लेकिन उनके यथार्थवाद की सीमाएं तो कविता सम्बन्धी उनके मूल्याङ्कन में ही स्पष्ट हो जाती हैं |इसलिए दलित साहित्यकार अलग कसौटी और सौन्दर्यशास्त्र की बात करते हैं | शरण कुमार लिम्बाले ‘रूढ़ साहित्यिक कसौटी’ पर ‘नई साहित्यिक धारा’ का मूल्याङ्कन उचित नहीं मानते| वे ‘स्थिर कसौटी’ या ‘निश्चित कसौटी’ के आग्रह को भी नकारते हैं|वे पुराने सौन्दर्य शास्त्र को आनंद पर आधारित मानते हैं,जब कि दलित साहित्य का आधार  व्यथा और वेदना है | स्त्री लेखन में सौन्दर्य के प्रतिमान, पितृसत्ता से उपजी भाषा,मुहावरे ,प्रतीक,बिम्ब आदि को बार-बार प्रश्नांकित किया जाता है|
भक्ति दर्शन के प्रकाश में लिखा गया साहित्य हो  या आधुनिकता से प्रभावित साहित्य ; उसके  सौन्दर्य बोध का आधार कोई न कोई वैचारिक दर्शन रहा है|आज जबकि बाजार और बाजारवाद के  प्रभाव में वैचारिक आदर्शों की चूलें हिल गई हैं,स्वाभाविक रूप से एक प्रश्न पैदा होता है कि नई पीढ़ी  के रचनाकारों का सौन्दर्यबोध क्या है?वैसे प्लेटो ने कहा है कि सौन्दर्य तो देखने वाले की दृष्टि में होता है|कहा जाता है कि यह पूर्ण कथन नहीं है- दृष्टि तो महत्त्वपूर्ण है ही दृश्य भी महत्त्वपूर्ण है|लोहिया का जोर भी दृष्टि पर है,दृश्य पर नहीं | प्रश्न है कि दृष्टि और दृश्य के द्वंद्व को ध्यान में रखे बिना क्या साहित्य के सौन्दर्य पर बात हो सकती है?चरखा सम्बन्धी टैगोर के साथ विवाद में गाँधी का ध्यान इस द्वंद्व पर था | टैगोर की कविता और अपने चरखा को गाँधी ने एक दूसरे का ‘पूरक’ कहा है |
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Thursday 11 August 2016

सरकार पोषित संस्थाएं और लेखक

सवाल है कि लेखकों को सरकारी या सरकार पोषित संस्थाओं में जाना चाहिए या नहीं ?उन्हें इन संस्थाओं से सम्मानित-पुरस्कृत होना चाहिए या नहीं ?इन प्रश्नों का कोई माकूल जवाब देना किसी के लिए भी कठिन है |इसलिए कि लोकतंत्र में जो भी मंच या संस्था है,वह अंततः जनता की और जनता के लिए है | किसी राजनीतिक दल की सरकार आएगी और जायेगी ,लेकिन संस्थाएं बरक़रार रहेंगी| फिर भी जब-तब संस्थाओं के बहिष्कार की ख़बरें आती रहती हैं | कभी भारत भवन,भोपाल के कार्यक्रमों के बहिष्कार का अभियान लेखकों के एक वामपंथी गुट की ओर से चला था | बावजूद इसके कुछ लेखकों को छोड़कर बाकी लेखक वहां जाते-आते रहें| महादेवी वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार मार्गरेट थैचर के हाथों लेने से इनकार करने की मांग भी कुछ लेखकों ने की थी | नागार्जुन से भी इंदिरा गाँधी के हाथों पुरस्कार न लेने के लिए कहा गया था | राजेंद्र यादव को बिहार सरकार का शिखर सम्मान जब मिला था तो वामपंथी लेखकों के धड़े ने विरोध किया था | किसी घटना विशेष को ध्यान में रखकर हिंदी अकादेमी और साहित्य अकादेमी का कुछ लेखकों ने विरोध/बहिष्कार किया लेकिन किसी लेखक ने इस तरह की मांगों के बावजूद पुरस्कार/सम्मान लेने से मना किया हो या लेखकों के बड़े समुदाय ने किसी संस्था का बहिष्कार किया हो,इसकी याद मुझे नहीं है|
            एक लोकतान्त्रिक देश में कोई संस्था न तो किसी दल विशेष की होती है और न किसी सरकार विशेष को इनके काम-धाम में अनावश्यक दखल देना चाहिए | इन संस्थाओं का गठन जब हुआ होगा तो आदर्श तो यही रहा होगा | लेकिन सरकारों के बदलने पर सम्मान/पुरस्कारों के चयन में कभी-कभार बाहरी दबाव न रहते होंगे,इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता | ऐसी स्थिति में फिर वही प्रश्न कि लेखकों को सरकार पोषित संस्थाओं के मंचों पर जाना चाहिए या नहीं?
             आज का लेखक कबीर,कुम्भनदास,तुलसीदास आदि की तरह न तो जीवन जीता है और न कोई उससे वैसी अपेक्षा करेगा| कबीर कह सकते थे कि जिसे कुछ नहीं चाहिए वही शाहंशाह है,कुम्भनदास भी तब की राजधानी सीकरी से दूर रहने की स्पष्ट सलाह दे सकते थे;तुलसीदास भी कह सकते थे कि मैंने राम की गुलामी स्वीकार कर ली है,अब किसी नर की मनसबदारी नहीं करूँगा | यही मानसिक रचना उस काल के सभी संत कवियों की थी| शायद यही कारण है कि उनका रचा साहित्य लगभग हजार वर्षों के हिंदी साहित्य का सबसे उज्ज्वल अध्याय है| ऐसा अध्याय जो ज़रा-से भी किसी राजकीय हस्तक्षेप से अपनी दूरी बनाए रहता है| यही कारण है कि भक्ति काव्य का अधिकांश हमें आज भी नैतिक लगता है| भक्त कवियों ने तो प्रभु की सत्ता स्वीकार कर ली थी,उन्हें किसी अन्य के अनुग्रह की ज़रूरत नहीं थी | लेकिन यही बात दूसरे काल के खासतौर से आज के साहित्यकारों के बारे में नहीं कही जा सकती| आज के साहित्यकार का घर-परिवार है;उसके लिए उसे कोई न कोई नौकरी या काम काम करना है| वह जो लिखता है,उसके प्रकाशन,प्रचार-प्रसार  के लिए किसी न किसी निजी या सरकार पोषित संस्था की दरकार है| यदि उसने जीवन भर लिखने-पढने का ही काम किया है ,तो उसकी सहज मानवीय कमजोरी हो सकती है कि वह साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी हो|लेखकों को पुरस्कृत-सम्मानित करने का काम सरकार पोषित संस्थाएँ करती भी रही हैं | अपनी राजनीतिक धारा के लेखकों का भी और अपनी विरोधी राजनीतिक धारा के लेखकों का भी | आज जब कुछ भी राजनीति से परे नहीं है,तब किसी लेखक का किसी सरकार पोषित संस्था द्वारा सम्मान राजनीति से परे तो नहीं ही माना जाएगा| भले ही वह फौरी नहीं,दूरगामी राजनीति हो | तब क्या लेखक को अपनी ही राजनीतिक धारा की सरकार के समय में सरकार पोषित संस्थाओं में जाना चाहिए और सम्मानित होना चाहिए ?
                 किसी लेखक या विपरीत धारा के लेखक का कहीं सम्मानित किया जाना किसी भी लोकतांत्रिक समाज के मुक्त मन का परिचायक है | अपनी आलोचना किये जाने का माहौल लोकतंत्र में विश्वास करने वाली सरकारें ही देती हैं| जो सरकारें विचारधारा की तानाशाही के आधार पर सत्ता में आती हैं वे लेखकों की अभिव्यक्ति पर पहरा बिठा  देती हैं | नात्सी जर्मनी में भी लेखकों-कलाकारों को यातनाएं झेलनी पड़ीं और स्तालिनकालीन सोवियत रूस में भी| ऐसी सरकारों द्वारा पोषित संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जाना कोई स्वतंत्रचेता लेखक कैसे पसंद करेगा ? करना भी नहीं चाहिए|इन देशों में भी लेखकों-कलाकारों ने तानाशाही का विरोध किया था और यातनाएं झेली थीं| अपने देश में भी आपात काल में जब अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबन्ध लगा तो लेखकों के व्यापक समुदाय ने उसका विरोध किया था|यद्यपि सीपीआई /प्रलेस से जुड़े लेखक तब या तो आपात्काल के समर्थन में थे या चतुराई पूर्वक चुप थे|
                 कोई लेखक जब किसी संस्था द्वारा सम्मानित होता है तो अंततः उसकी रचना सम्मानित होती है | रचना के पीछे लेखक की अपनी जीवन-दृष्टि होती है;रचना में निहित उसके मौन या मुखर विचार होते हैं| जेनुइन लेखक सम्मान से अधिक अपनी रचना के साथ होता है|संस्थाएं ऐसे लेखकों का सम्मान करके स्वयं सम्मानित होना चाहती हैं;अपना उदार चेहरा प्रस्तुत करना चाहती हैं| कई बार सत्ताधारी दल ऐसा करके लेखक से अपने अनुकूल बनने की अपेक्षा भी रखता  है| सरकार पोषित संस्थाओं के मंचों पर जब ऐसे लेखकों को बुलाया जाता है तो यह भी अपेक्षा होती है कि लेखक संस्था या सत्ता के लिए असुविधाजनक वक्तव्य न दे |अवसरवादी लेखक अनुकूलन के शिकार होते भी हैं,लेकिन जेनुइन लेखक वही बोलता है जो साहित्य का स्वाभाविक धर्म होता है|कहने की जरुरत नहीं कि एक लेखक का स्वाभाविक धर्म जनता की पीड़ा का सही चित्रण है,उस पीड़ा का पक्षधर होना है|इसलिए किसी लेखक का असली काम है सत्ता के विपक्ष में होना| सुना है कि राममनोहर लोहिया कहते  कहते थे कि उनके  दल की भी सरकार बनी तब भी  वे विपक्ष की भूमिका में रहना पसंद करेंगे;ताकि अपने दल की सरकार के प्रति आलोचनात्मक रूख रख सकें  | आज के दिन कौन –सा दल या कौन-सा नेता ऐसे आदर्श को जीना पसंद करेगा,कहना कठिन है,लेकिन एक लेखक को तो सतत विपक्ष में होना ही चाहिए|जो वह लिखता है उसमें उसका विपक्षी तेवर साहित्यिक  भाषा और सलीके के साथ साफ़-साफ़ दिखना चाहिए| जब वह किसी मंच पर बोलने के लिए निमंत्रित किया जाता है,तब उसे वही बोलना चाहिए जो उसका अपना पक्ष है |  यह सुविधा और वह माहौल वह मंच मुहैया कराता है तो उसे अपनी बात बेलाग-लपेट कहने से हिचकना नहीं चाहिए| यदि वह मंच उसे उसकी अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देता तो निश्चित रूप से उसे उसका बहिष्कार करना चाहिए|
           वाद-विवाद-संवाद की गुंजाइश जनतांत्रिक समाज में ही होती है |हम विचारधारा के लिहाज से अपने अनुकूल लोगों से संवाद तो करते ही हैं जो दूसरी विचारधारा के लोग हैं उनसे भी संवाद करें,ऐसा जनतंत्र का तकाजा है|यदि हम ऐसा नहीं करते तो अपने से असहमत व्यक्ति के सामने सोच-विचार के लिए कोई दूसरा वैचारिक प्लेटफार्म और दूसरी जीवन-दृष्टि प्रस्तुत करने के दायित्व से अपने को मुक्त कर लेते हैं |इतिहास गवाह है कि गांधी ने अपने विरोधियों के साथ  संवाद करने से परहेज नहीं किया|  इसलिए कि उनकी दृष्टि साफ़ थी | वे मानते थे कि पाप से घृणा करनी चाहिए पापियों से नहीं| किसी ने एक दिलचस्प बात बतायी थी|एक बार श्रीपाद अमृत डांगे को मुम्बई के एक धुर विरोधी दल के नेता  ने एक कार्यक्रम में बोलने के लिए आमंत्रित किया|डांगे गए और वही कहा जो उन्हें कहना था | कहा जाता है कि डांगे के वक्तव्य से प्रभावित होकर वहाँ बैठे बहुत से लोग उनके समर्थक हो गये थे | इस घटना से पता चलता है कि अपने पाँव अपनी जमीन टिकाए रखकर  विरोधी विचारधारा के मंच पर भी बोलने में हर्ज़ नहीं है | यह भी कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद जब अमेरिका में बोल रह थे तो उनके भाषण से प्रभावित होकर एक विदेशी उनका अनुयायी बन गया | वह शॉर्ट हैंड जानता था|बाद में उसी ने उनके बहुत-से भाषण नोट किए,जो आज हमारे लिए सुलभ है|इसका अर्थ यह है कि संवाद से वे डरते हैं,जिनके पास दूसरों को प्रभावित करने वाली न तो दृष्टि होती है और न ही चरित्र |

             किसी दल की सरकार या किसी संस्था के किसी काम से विरोध हो तो उसका बहिष्कार उसके विरोध का एक तरीका हो सकता है | सामंती समाज में जब किसी व्यक्ति का आचरण अशोभनीय होता था तो जाति बहिष्कृत करके समाज उसे सजा देता था|लोकतांत्रिक समाज में बहिष्कार विरोध का अंतिम उपाय होना चाहिए| जब तक और जहां तक संभव हो संस्थागत मंच का उपयोग अपना पक्ष रखने में लेखकों को करना चाहिए| इसलिए कि लोकतांत्रिक समाज में सरकार पोषित कोई संस्था किसी एक व्यक्ति,दल या विचारधारा की जागीर नहीं होती| मुक्तिबोध के शब्दों में यह दुनिया यदि कचरे का ढेर नहीं है तो किसी कुक्कुट को उस पर बैठकर बांग देने और मसीहा बनने देने से रोकने का आखिर लेखकों के पास उपाय क्या है ?सरकार पोषित मंचों पर मौका मिलने पर तब तक बोलना चाहिए जब तक उसकी उदारता का छद्म बेपर्द न हो जाए |

Tuesday 2 August 2016

नलिन विलोचन शर्मा



आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का जन्म 18 फरवरी 1916 को पटना में हुआ था और मृत्यु मात्र साढ़े पैंतालीस साल की उम्र में 12 सितम्बर 1961 को पटना में ही हुई | वे दर्शन और संस्कृत के महान विद्वान महामहोपाध्याय पं. रामावतार शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र थे | कहावत है कि बरगद की छाया में उगा हुआ पौधा बड़ा वृक्ष नहीं बनता, लेकिन नलिन जी इसके अपवाद सिद्ध हुए | वे स्वनाम धन्य पिता के स्वनाम धन्य पुत्र थे | उनके व्यक्तित्व-निर्माण में पिता के पांडित्य और उनके प्रगतिशील दृष्टि की महत्वपूर्ण भूमिका थी | रामावतार शर्मा संस्कृत और दर्शन के ख्यातिप्राप्त विद्वान तो थे ही, संस्कृत, अंग्रेजी, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं पर भी अधिकार रखते थे | नलिन जी को पिता का भाषा-ज्ञान विरासत में मिला | संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी तीनों भाषाओं पर उनका एक-सा अधिकार था | कामचलाऊ ज्ञान जर्मन और फ्रेंच का भी था | लेकिन उनके व्यक्तित्व-निर्माण में पिता की पदार्थवादी दृष्टि की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी | यूँ तो रामावतार शर्मा संस्कृत वांग्मय के प्रकांड पंडित थे, लेकिन अन्य पंडितों की तरह वे दकियानूश और पोंगापंथी नहीं थे | वे पदार्थवादी थे और शास्त्र के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास का प्रचार करने वाले पंडितों से बराबर लोहा लिया करते थे | वे हिंदी नवजागरण के अग्रदूतों में से एक थे और 1916 में जबलपुर में संपन्न हिंदी साहित्य सम्मलेन के 16वें अधिवेशन की उन्होंने अध्यक्षता की थी | नलिन जी के व्यक्तित्व-निर्माण में उस विद्वान पिता की पदार्थवादी और प्रगतिशील दृष्टि की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता |  
नलिन जी ने पहले संस्कृत में एम. ए. किया और जैन कॉलेज, आरा में संस्कृत के प्राध्यापक हो गए | बाद में उन्होंने हिंदी से एम. ए. किया और उनकी नियुक्ति पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हो गई, जहाँ वे प्रोफेसर और अध्यक्ष हुए | आमतौर से हिंदी अध्यापकों की अंग्रेजी और संस्कृत में स्थिति अधिक मजबूत नहीं होती, लेकिन नलिन जी इसके अपवाद थे | हिंदी के साथ उनका समान अधिकार संस्कृत और अंग्रेजी भाषा पर भी था | यही कारण है कि युवा-काल में ही उनके नाम में आचार्य विशेषण लगाकर लोग संबोधित करने लगे |
संस्कृत भाषा पर अधिकार होने के कारण नलिन जी भारतीय वांग्मय की प्राणधारा का संधान करने में सहज ही सक्षम थे | इसलिए उनके चिंतन और लेखन में भारतीय वांग्मय की पदार्थवादी परंपरा का प्रवाह है | अंग्रेजी ज्ञान के कारण पश्चिम के साहित्य और वहाँ  साहित्य-दृष्टि में आ रहे बदलावों का उन्हें अच्छा ज्ञान था | इस कारण उनकी रचना और आलोचना में विलक्षण नवीनता और मौलिकता प्रकट हुई, जिसे न तब ठीक-ठीक समझा गया और अब भी कम ही समझा जाता है |
नलिन विलोचन शर्मा को बहुत कम उम्र मिली | मात्र साढ़े पैंतालीस साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन कम उम्र के बावजूद कविता, कहानी, आलोचना, निबंध, जीवनी आदि विधाओं में उन्होंने भरपूर लेखन किया | उनके जीवन-काल में ‘दृष्टिकोण’, ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ शीर्षक पुस्तकें आलोचना और इतिहास की प्रकाशित हुईं | ‘नकेन के प्रपद्य’ शीर्षक से प्रपद्यवादी कविताओं का समवेत संग्रह प्रकाशित हुआ | ‘विष के दांत’ तथा ‘सत्रह  अप्रकाशित पूर्व छोटी कहानियाँ’ नामक कहानी संकलन प्रकाशित हुए | अंग्रेजी में लिखी जगजीवन राम की जीवनी भी उनके जीवन-काल में प्रकाशित हुई | उनके निधन के बाद ‘मानदंड’, ‘हिंदी उपन्यास- विशेषतः प्रेमचंद’, ‘साहित्य तत्व और आलोचना’ तथा ‘नलिन विलोचन शर्मा : संकलित निबंध’ नामक आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हुईं | ‘नकेन- २’ शीर्षक से प्रपद्यवादी कविताओं का संग्रह भी छपा, लेकिन ये सारी किताबें भी आज ठीक से पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हैं | उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं जिन्हें संग्रहित करना एक बड़ा काम है | उनकी पत्नी कुमुद शर्मा ने छः खण्डों में उनकी रचनावली तैयार की थी और एक प्रकाशक को प्रकाशनार्थ सौंपा भी था, लेकिन उस प्रकाशक की लापरवाही और एक विश्वविद्यालय की कृपा से वह पांडुलिपि गायब हो गई | इस तरह हिंदी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण आलोचक और रचनाकार अपनी सम्पूर्णता में हिंदी जगत के सामने नहीं आ सका | नलिन विलोचन शर्मा के मूल्यांकन में उनके साहित्य की अनुपलब्धता एक बड़ी चुनौती है |
नलिन विलोचन शर्मा ने अनेक विधाओं में लिखा है, लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य को उनकी सबसे बड़ी देन उनकी आलोचना के क्षेत्र में है | मौलिक दृष्टि, दुर्लभ वैदुष्य और चिंतनपूर्ण लेखन के द्वारा उन्होंने आलोचना का नया मानदंड निर्मित किया | अपने चिंतनपूर्ण और बहसतलब आलोचनात्मक लेखों, साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक समीक्षाओं के द्वारा वे हिंदी संसार को नए ढंग से आंदोलित करते रहे | वे नए-पुराने सभी लेखकों के बीच आलोचक-रूप में समान रूप से प्रतिष्ठित थे | पुराने साहित्य पर यदि उनकी राय सुनी जाती थी तो नए साहित्य पर भी | उनकी दूसरी देन कहानीकार के रूप में है | नलिन विलोचन शर्मा हिंदी के विलक्षण कहानीकार थे | उनका रचनाकार व्यक्तित्व कविता के साथ कहानी लेखन के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्रिय था | उनकी साहित्यिक देन का तीसरा क्षेत्र कविता है, जिसमें उन्हें ज्यादा प्रसिद्धि मिली | प्रपद्यवाद के प्रवर्तकों में से पहला नाम उन्हीं का आता है | नलिन विलोचन शर्मा की चौथी देन निबंधों के क्षेत्र में है | जहाँ उनकी आधुनिक दृष्टि के दर्शन होते हैं | लेकिन आइए सबसे पहले प्रपद्यवादी कवि के रूप में उनका परिचय प्राप्त करें |
प्रपद्यवाद को नकेनवाद भी कहा जाता है | प्रपद्यवादी कविताओं का पहला संकलन ‘नकेन के प्रपद्य’ शीर्षक से १९५६ में प्रकाशित हुआ | जिसमें नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश की कविताएँ संकलित थीं | नकेन इन तीनों कवियों के नामों के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना था | इसलिए इनकी कविताएँ प्रपद्यवाद और नकेनवाद दोनों नामों से पुकारी जाती हैं | पद्य में ‘प्र’ उपसर्ग लगाने से प्रपद्य बना है जिसका अर्थ किया गया है- प्रयोगवादी पद्य | प्रपद्यवादी अपने को वास्तविक प्रयोगवादी और अज्ञेय आदि को प्रयोगशील कवि मानते थे | प्रपद्यवादियों के अनुसार प्रयोग उनका साध्य है, जबकि अज्ञेय आदि के लिए साधन | प्रपद्यवाद छायावाद की तरह कोई स्वतःस्फूर्त आन्दोलन नहीं था | यह एक संगठित और सुविचारित काव्यान्दोलन था | यह संगठन मात्र तीन कवियों का था और ये तीनों कवि एक ही नगर पटना में रहते थे | तीनों सुशिक्षित थे और देश-विदेश के काव्यान्दोलनों के गहरे अध्येता थे | उन्होंने प्रपद्यवाद नाम से जिस काव्यान्दोलन का सूत्रपात किया उसका एक-एक शब्द और सिद्धांत सुविचारित था | वे सचेत ढंग से हिंदी कविता को अपनी प्रपद्यवादी कविताओं के जरिए विश्व कविता के बौद्धिक धरातल तक ले जाना चाहते थे | वे कविता में भावुकता के विरोधी थे और उसमें बौद्धिकता तथा वैज्ञानिकता के योग से नयापन पैदा करने के पक्षधर थे | नलिन विलोचन शर्मा ने विनोद-भाव से एक द्विपदी लिखी थी जो प्रपद्यवादी कविता के नए मिजाज की सूचना देती थी-
दिल तो अब बेकार हुआ जो कुछ है सो ब्रेन,                                                           गाय हुई बकेन है, कविता हुई नकेन |
तात्पर्य यह कि कविता बौद्धिक रूप से सघन और गाढ़ी होनी चाहिए, उसमें भावुकता की मिलावट बिलकुल नहीं होनी चाहिए |
प्रपद्यवाद या नकेनवाद आलोचकों की दी हुई संज्ञा नहीं है | ये दोनों नाम तीनों कवियों द्वारा अपने लिए अपनाए गए नाम हैं | ‘नकेन के प्रपद्य’ नामक काव्य संकलन में प्रपद्यवाद के सिद्धांत-सूत्रों की घोषणा ‘प्रपद्य द्वादश सूत्री’ शीर्षक से की गई है | यह ‘प्रपद्य द्वादश सूत्री’ उन कवियों के अनुसार ‘प्रपद्यवाद के घोषणापत्र का प्रारूप’ है | प्रपद्यवादी कविताओं को समझने के लिए इन सिद्धांत-सूत्रों को समझना आवश्यक है | ये सिद्धांत-सूत्र हैं-
1. प्रपद्यवाद भाव और व्यंजना का स्थापत्य है |                                                         २. प्रपद्यवाद सर्वतंत्र- स्वतंत्र है, उसके लिए शास्त्र या दल निर्धारित अनुपयुक्त है |             ३. प्रपद्यवाद महान पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को भी निष्प्राण मानता है |                  ४. प्रपद्यवाद दूसरों के अनुकरण की तरह अपना अनुकरण वर्जित मानता है |                 ५. प्रपद्यवाद को मुक्त काव्य नहीं, स्वच्छंद काव्य की स्थिति अभीष्ट है |                       ६. प्रयोगशील प्रयोग को साधन मानता है, प्रपद्यवादी साध्य |                                       ७. प्रपद्यवाद की दृक्वाक्यपदीय प्रणाली है |                                                                 ८. प्रपद्यवाद के लिए जीवन और कोष कच्चे माल की खान हैं |                                         ९. प्रपद्यवादी प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छंद का स्वयं निर्माता है |                                   १०. प्रपद्यवाद दृष्टिकोण का अनुसन्धान है |                                                                    ११. प्रपद्यवाद मानता है कि पद्य में उत्कृष्ट केन्द्रण होता है और यही गद्य और पद्य में अंतर है |                                                                                                            १२. प्रपद्यवाद मानता है कि चीजों का एकमात्र सही नाम होता है |
          बाद में ‘नकेन- २’ का जब प्रकाशन हुआ तो द्वादश सूत्रों के साथ छः और सूत्र जोड़कर ‘प्रपद्य अष्टादश सूत्री’ की घोषणा की गई | बाद में जोड़े गए सूत्र थे-
१३. प्रपद्यवाद आयाम की खोज है और अभिनिष्क्रमण भी, ठीक वैसे, जैसे वह भाव और व्यंजना का स्थापत्य है और उससे अभिनिष्क्रमण भी |                                                 १४. प्रपद्यवाद चित्रेतना है |                                                                                       १५. प्रपद्यवाद मिथक का संयोजक नहीं, स्रष्टा है |                                                 १६. प्रपद्यवाद बिम्ब का काव्य नहीं, काव्य का बिम्ब है |                                         १७. प्रपद्यवाद सम्पूर्ण अनुभव है |                                                                         १८. प्रपद्यवाद अविभक्त काव्य-रुचि है |
इन अठारह सूत्रों के अलावा ‘नकेन के प्रपद्य’ में ‘पसपशा’ शीर्षक से केसरी कुमार ने प्रपद्यवाद की व्याख्या की | उन्होंने लिखा है- “प्रपद्यवाद प्रयोग का दर्शन है .......प्रयोग के वाद से तात्पर्य यह है कि वह भाव और भाषा, विचार और अभिव्यक्ति, आवेश और आत्मप्रेषण, तत्व और रूप, इनमें से कई में या सभी में प्रयोग को अपेक्षित मानता है |” इस कथन के साथ केसरी कुमार ने यह भी दुहराया है कि सतत प्रयोग करना ही प्रपद्यवाद है | प्रपद्यवादियों का मानना था कि कविता भाव, विचार या दर्शन से नहीं लिखी जाती ....वह नए विचारों या नए शब्दों से भी नहीं लिखी जाती | उनके अनुसार कविता नए विचारों, नए शब्दों के केन्द्रण से बनती है | दैनंदिन की भाषा की व्यवस्था को व्यतिरेकित करके ही इसे प्राप्त किया जा सकता है | हमारे दैनंदिन जीवन की भाषा और अनुभव के आगे की भाषा तथा अनुभव को कविता प्रकट करती है | प्रपद्यवादी मानते हैं कि कविता के लिए जीवन की प्रतिष्ठित व्यवस्था आवश्यक नहीं है, बल्कि जीवन की जागृति आवश्यक है |
          प्रपद्यवादियों के लिए साधारणीकरण कोई समस्या नहीं है | साधारणीकरण की प्रक्रिया में रचनाकार और पाठक का एक ही भाव-सत्ता में होना आवश्यक है | लेकिन प्रपद्यवादी न तो भाव-सत्ता को स्वीकारते हैं, न रसानुभूति को | उनके लिए कविता वैयक्तिक चीज है, सार्वजनिक नहीं | प्रपद्यवादी कविता में जिस वैयक्तिक अनुभूति, शब्द और अर्थ पर जोर देते हैं, उसमें साधारणीकरण के लिए कोई जगह नहीं है | वे साधारणीकरण के स्थान पर विशिष्टीकरण को महत्वपूर्ण मानते हैं | विशिष्टीकरण का आधार विज्ञान है | जिस तरह से ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विशिष्टीकरण आवश्यक है, उसी तरह से कविता में भी | नलिन विलोचन शर्मा कवि के लिए ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ तथा ‘विज्ञान-सम्मत दर्शन’ की जरुरत पर बल देते हैं | वे मानते हैं कि कविता का उद्देश्य सत्य का संधान है |
          प्रपद्यवादी काव्य-सिद्धांत के अनुसार काव्य-रचना के लिए बुद्धि आवश्यक है | बौद्धिकता को कविता का आवश्यक गुण स्वीकार करते हुए केसरी कुमार ने लिखा है- “जब कविता अपने समय की बौद्धिकता से संपर्क-विच्छेद कर लेती है, तब भाव-प्रवण, जाग्रत-मति समाज की उसमें दिलचस्पी नहीं रह जाती | यह अत्यंत खेदजनक स्थिति है, क्योंकि यह समाज यद्यपि अल्पसंख्यकों का होता है, पर यही बड़े समाज को गति देने वाला सिद्ध होता है |”
          प्रपद्यवाद की काव्य-पूँजी थोड़ी है | नलिन विलोचन शर्मा की भी काव्य-पूँजी मात्रा रूप में कम ही है | प्रपद्यवादी काव्यधारा में दूसरे कवि शामिल नहीं हुए | वह इन्हीं तीन कवियों तक सीमित रही | कोई भी आन्दोलन तभी विस्तार और दीर्घ जीवन पाता है, जब उसमें अधिक से अधिक लोगों की समाही होती है | हिंदी कविता के इतिहास में जगह बनाने के लिए जिस मात्रा की आवश्यकता होती है, वह मात्रा न तो प्रपद्यवाद के पास है, न नलिन जी के पास | लेकिन अल्पमात्रा के बावजूद अपनी विशिष्ट भंगिमा के कारण प्रपद्यवादी कविताओं ने 1960 के दशक में हिंदी कविता को नई चमक से भर दिया था | यह कविता की नई भंगिमा थी और नई जमीन थी | अज्ञेय ने नलिन विलोचन शर्मा और केसरी कुमार की काव्य-नवीनता को रेखांकित करते हुए लिखा है- “वैसी कविताएँ जैसी केसरी कुमार की ‘साँझ’ अथवा नलिन विलोचन शर्मा की ‘सागर संध्या’ है, ऐसे बिम्ब उपस्थित करती हैं, जिनके लिए परंपरा ने हमें तैयार नहीं किया है और जो उस अनुभव के सत्य को उपस्थित करना चाहते हैं, जो उसी अर्थ में अनन्य है, जिस अर्थ में एक व्यक्ति अनन्य होता है |” नलिन जी की ‘सागर संध्या’ शीर्षक कविता को उनके काव्य-उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है-
बालू के ढूह हैं जैसे बिल्लियाँ सोई हुई,                                                                उनके पंजों से लहरें दौड़ भागतीं |                                                                          सूरज की खेती चर रहे मेघ-मेमने                                                                    विश्रब्ध, अचकित |                                                                                                 मैं महाशून्य में चल रहा....                                                                              पीली बालू पर जंगम बिंदु एक-                                                                            तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के                                                           काल-प्रत्न त्रयी-मध्य से होकर |                                                                               मेरी गति के अवशेष एकमात्र                                                                       लक्षित ये होते :                                                                                     सिगरेट का धुँआ वायु पर ;                                                                                        पैरों के अंक बालू पर                                                                                               टंकित, जिन्हें ज्वार भर देगा आकर |
          कविता के अलावा लगभग चार दर्जन कहानियाँ नलिन जी की लिखी हुई मिलती हैं | कविता के क्षेत्र में उन्होंने जिस तरह मौलिक और विशिष्ट प्रयोग किए, उसी तरह कहानी के क्षेत्र में भी किए | उनकी कहानियों में सामाजिकता और मनोवैज्ञानिकता का बड़ा ही सफल गुम्फन हुआ है | भाषा, भाव और शिल्प हर स्तर पर उनकी कहानियाँ उनकी कविताओं की ही तरह ठोस स्थापत्य की हैं | ‘विष के दांत तथा अन्य कहानियाँ’ और ‘सत्रह असंग्रहित पूर्व छोटी कहानियाँ’ नामक संग्रहों में लगभग तीस कहानियाँ मिलती हैं, जबकि शेष कहानियाँ अभी भी पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं | उन्होंने कुल ५५ कहानियाँ लिखी थीं | नलिन जी कहानी में सामाजिक सत्य को मनोवैज्ञानिक सत्य के साथ प्रतिष्ठित करना चाहते थे | केसरी कुमार ने लिखा है- “वे विज्ञान और दर्शन के मिलन-बिंदु के विरल कवि तथा दुर्लभ मनोवैज्ञानिक उपलब्धियों के कहानीकार थे |” विषय के आधार पर उनकी कहानियों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है- १. सामाजिक विषयों से सम्बंधित कहानियाँ, २. मनोग्रंथि से सम्बंधित कहानियाँ, ३. प्रेम कहानियाँ | वैसे यह विभाजन ऊपरी है | कहानियों के भीतर व्याप्त कथा-चेतना एक-सी है | वह चेतना है मानव-मनोविज्ञान के अध्ययन की | इसकी कमी नलिन जी हिंदी कहानी में महसूस करते हैं | विष के दांत, ये बीमार लोग, बरसाने की राधा और रोबोट जैसी अमर कहानियाँ लिखने का श्रेय नलिन विलोचन शर्मा को ही जाता है | मेरा अनुमान है कि इनको शामिल किए बिना हिंदी कहानी का इतिहास पूरा नहीं होगा |
          नलिन विलोचन शर्मा की वास्तविक देन आलोचना के क्षेत्र में है | उसी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप साहित्य के इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में भी किया | प्रगतिवादी और गैर-प्रगतिवादी आलोचना शिविर से अलग उन्होंने हिंदी आलोचना की नई जमीन तैयार की | शीतयुद्धकालीन राजनीतिक शब्दावली का इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं कि नलिन विलोचन शर्मा का हिंदी आलोचना में वही स्थान और महत्व है जो शीतयुद्ध काल में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का था | नलिन विलोचन शर्मा आलोचना लिखते समय भारतीय साहित्य की पाँच महान परम्पराओं की चर्चा करते हैं | उन्होंने भौतिकता को भारतीय साहित्य की पहली विशेषता घोषित किया | उनके अनुसार दूसरी परंपरा यथार्थता की है | मानवता यानी ह्यूमनिज्म, नलिन जी के अनुसार भारतीय साहित्य की तीसरी परंपरा है | मानववाद यानी ह्यूमेनिटेरियलिज्म को वे हिंदी साहित्य की चौथी महान परंपरा मानते हैं | धार्मिकता, नलिन जी के अनुसार भारतीय साहित्य की पाँचवी विशेषता है | भौतिकता को प्रथम और धार्मिकता को भारतीय साहित्य की अंतिम विशेषता मानने वाले नलिन विलोचन शर्मा की आलोचना-दृष्टि को अलग से समझने की जरुरत है | वे प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी आलोचनात्मक प्रत्ययों से भिन्न नए मानदंड का निर्माण करते हैं | नलिन जी की आलोचनात्मक कसौटी के मुख्य आधार हैं- मुक्ति और स्वच्छंदता | इन दोनों में भी मुक्ति को वे मुख्य आलोचनात्मक कसौटी मानते हैं | उनके अनुसार पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और बर्नाड शॉ में स्वच्छंदता के गुण हैं, जबकि निराला और वाल्ट व्हिटमैन में मुक्ति के | रचना में विषयगत नवीनता को नलिन जी स्वच्छंदता का गुण मानते हैं, जबकि विषयगत और रूपगत नवीनता को वे रचना की मुक्ति से जोड़कर देखते हैं | स्वच्छंदता और मुक्ति की अपनी आलोचनात्मक कसौटी पर वे निराला को आधुनिक युग का सबसे बड़ा कवि और प्रेमचंद को आधुनिक युग का सबसे बड़ा कथाकार घोषित करते हैं |
नलिन विलोचन शर्मा की वास्तविक देन उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में है | उन्होंने अपने चिंतनपरक आलोचनात्मक लेखों के जरिए हिंदी उपन्यास का शास्त्र विकसित करने की कोशिश की | वे मानते थे कि उपन्यास साहित्य की ‘अन्त्यज विधा’ है | अन्त्यज शब्द से ही उनकी साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि की नवीनता का पता चलता है | प्रेमचंद को उपन्यास के कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित करने का अथक संघर्ष नलिन विलोचन शर्मा ने हिंदी आलोचना में किया | वे मानते थे कि प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास की दुनिया में अहिंसक क्रांति के जरिए उसके पूरे स्थापत्य को बदल कर रख दिया | मुझे लगता है कि प्रेमचंद की कला का नलिन विलोचन शर्मा जैसा पारखी आलोचक हिंदी में दूसरा नहीं हुआ |
          उपन्यास का शास्त्र तैयार करते हुए नलिन जी ने कथा-भूमि की सभ्यता और संस्कृति से जोड़कर उसे देखा है | उन्होंने लिखा है- “हिंदी उपन्यास का इतिहास, किसी भी देश के इतिहास की तरह हिंदी-भाषी क्षेत्र की सभ्यता और संस्कृति के नवीन रूप के विकास का साहित्यिक प्रतिफलन है | समृद्धि और ऐश्वर्य की सभ्यता महाकाव्य में अभिव्यंजना पाती है, जटिलता, वैषम्य और संघर्ष की सभ्यता उपन्यास में .........हमारे उपन्यास यदि आज पश्चिमी उपन्यासों के समकक्ष सिद्ध नहीं होते तो मुख्यतः इसलिए कि हमारी वर्तमान सभ्यता अपेक्षतया आज भी कम जटिल, कम उलझी हुई और कहीं ज्यादा सीधी-सादी है |” नलिन जी उपन्यास को अन्त्यज कहते हैं | अन्त्यज का अर्थ सबसे अंत में पैदा हुआ तो होता ही है, उसका अर्थ यह भी है कि उसका गहरा सम्बन्ध हाशिए पर रहने वाले समाज से है |
          मुक्ति और स्वच्छंदता की कसौटी पर नलिन विलोचन शर्मा का सारा आलोचना- साहित्य टिका हुआ है | इसीलिए वे साहित्य में किसी भी तरह की विषयगत और रूपगत रूढ़ि को स्वीकार नहीं करते | वे नवीनता के आग्रही आलोचक थे | यही कारण है कि यदि उन्होंने अज्ञेय आदि के आधुनिकतावादी आग्रहों की आलोचना की तो प्रगतिवादी मान्यताओं पर भी प्रहार करने में वे पीछे नहीं रहे | उन्होंने साहित्य और समाज की रूढ़ियाँ तोड़ने के लिए और परंपरा का मूल्यांकन करने के लिए प्रगतिवादियों की प्रशंसा की तो उनकी निषेधकारी और एकांगी दृष्टि की कड़ी आलोचना भी की | ‘प्रगतिवाद की मान्यताएँ’ शीर्षक उनका एक प्रसिद्ध निबंध है, जिसमें उन्होंने प्रगतिवादियों की आलोचना करते हुए लिखा है- “उन्होंने पुरानी जंजीरें तोड़ फेंकी हैं, लेकिन उन्होंने जिसे गले का हार समझकर प्रसन्नतापूर्वक पहना है, वह हाथ-पैर का नहीं, हृदय और मस्तिष्क का बंधन बन गया है | उन्होंने गुरु-पूजा का त्याग किया है, पर वीर-पूजा अपनाने के लिए, मूर्ति-पूजा से छुटकारा पाया है, किन्तु जन-पूजा के कर्मकांड में फंसने के लिए, और शास्त्र की संकीर्णता के विरुद्ध सफल विद्रोह किया है, लेकिन सिद्धांत की चारदीवारी में कैद हो जाने के लिए |” इस टिप्पणी के साथ नलिन जी ने प्रगतिवादी लेखक पर चार आरोप लगाए- १. वह वीर-पूजा करता है, २. वह जन-पूजा में अन्धविश्वास रखता है, ३. वह कुछ सुचिन्तित सिद्धांतों में बंधा हुआ है और  ४. वह घृणा करता है | प्रगतिवाद के बारे में अपने इस निष्कर्ष के बाद उन्होंने सोवियत-व्यवस्था की आलोचना की, जहाँ नात्सी जर्मनी की तरह लेखकों को यातना दी जा रही थी |
          इस तरह नलिन विलोचन शर्मा हिंदी आलोचना में प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी कसौटियों से भिन्न आलोचना का नया मानदंड निर्मित करते हैं | इस कसौटी पर वे रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला को आलोचना, कथा-साहित्य और कविता का शिखर रचनाकार घोषित करते हैं | कहने की जरुरत नहीं कि रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला के बारे में यही निष्कर्ष प्रगतिवादी आलोचक रामविलास शर्मा के भी हैं | लेकिन उसमें मुक्ति के अभाव के कारण रामविलास जी जहाँ ‘मैला आँचल’ का महत्व पहचानने से चूक जाते हैं, वहीं नलिन जी उसे ‘गोदान’ के बाद हिंदी उपन्यास में आए गत्यवरोध को दूर करने वाला मानते हैं | लेकिन जब विषय और रूप का दुहराव वे उसी फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की ‘परती परिकथा’ में पाते हैं, तो उसकी कड़ी आलोचना भी करते हैं | ऐसा इसलिए कि नलिन जी आलोचना को ‘सृजन’ मानते थे, ऐसा सृजन जो किसी ‘कृति का निर्माण’ करे | आलोचना को परिभाषित करते हुए उन्होंने यह भी कहा है कि ‘आलोचना कला का शेषांश’ है | यही कारण है कि उनकी आलोचना में भाषा-शिल्प आदि पर जितना जोर है, उतना विषयवस्तु पर नहीं | वे ‘कला के धरातल पर उन्नीत’ हो जाने वाली आलोचना के समर्थक थे |
          नलिन जी की महत्वपूर्ण देन साहित्य के इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में भी है | जब हिंदी में इतिहास-दर्शन की चर्चा से प्रायः लोग अनजान थे, तब उन्होंने ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखकर इतिहास-लेखन की आधारभूमि को मजबूती दी थी | वे मानते हैं कि साहित्य का इतिहास वस्तुतः गौण लेखकों का इतिहास है | बड़े-बड़े लेखकों के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले इतिहास-दृष्टि से भिन्न यह नई इतिहास-दृष्टि थी | समाज या राष्ट्र का इतिहास राजाओं का इतिहास नहीं बल्कि जनता का इतिहास है, इस कथन से नलिन जी के कथन को मिलाकर देखना चाहिए, तब उनकी इतिहास-दृष्टि की सामाजिकता और व्यापकता दिखाई देगी | इतिहासकार के रूप में अपने प्रिय आलोचक आचार्य शुक्ल को नलिन जी वह महत्व नहीं देते जो हजारीप्रसाद द्विवेदी को देते हैं | इसका कारण यह है कि नलिन जी शुक्ल जी में विधेयवाद और पश्चिमी इतिहास-दृष्टि का आभास पाते हैं | जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी की दृष्टि उन्हें ज्यादा भारतीय लगती है, क्योंकि उसमें मिथकों, पुराकथाओं, किम्वदंतियों का आधार है, जो नलिन जी के अनुसार साहित्य के इतिहास-लेखन की जरुरी सामग्री है |
          कोई कह सकता है कि नलिन जी रूपवादी थे, हालाँकि ऐसा कहना उनके साथ किंचित ज्यादती होगी | रूपवादी लेखक जहाँ भाववादी और प्रायः अवैज्ञानिक तर्कों के कायल होते हैं, वहीं नलिन विलोचन शर्मा विज्ञान के समर्थक और किसी भी अलौकिक शक्ति में न विश्वास करने वाले अनीश्वरवादी थे | उनका विश्वास समाजवाद में था और वे एम.एन.राय के रेडिकल ह्यूमनिस्ट आन्दोलन को पसंद करते थे |