Saturday 1 October 2016

जनकवि और जनकविता

कवि मुकुट विहारी सरोज के नाम से ग्वालियर में  एक साहित्यिक सम्मान  दिया जाता है- ‘जनकवि मुकुट विहारी सरोज सम्मान’| यहाँ ‘जनकवि’ विशेषण ने ध्यान आकृष्ट किया | मुकुट विहारी सरोज को क्या ‘जनकवि’ उपाधि से विभूषित करना उचित है ? वे तो एक गौण कवि थे | तभी देखा कि कवि त्रिलोचन के लिए भी  ‘जनकवि’ उपाधि किसी ने प्रयुक्त की  है |विजय बहादुर सिंह की पुस्तक ‘जनकवि’ पर भी  ध्यान गया, जिसमें केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, शमशेर,मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय कुल छह  कवि  शामिल हैं | कवि नागार्जुन ने ‘जनकवि’ का प्रयोग अपने लिए किया है | नागार्जुन के प्रशंसक अक्सर उनके नाम में ‘जनकवि’ विशेषण जोड़ते रहे हैं | वैसे स्वयं नागार्जुन ने भारतेंदु के लिए ‘जनकवि’ विशेषण का प्रयोग किया है | इन कुछ दृष्टान्तों के अतिरिक्त लोग आदर के लिए जनकवि विशेषण का प्रयोग इधर के वर्षों में अपने प्रिय कवियों के लिए करने लगे हैं | जहाँ तक अनुमान है कि ‘जनकवि’ विशेषण के प्रयोग की प्रवृत्ति का चलन छायावाद के बाद की घटना है | मुझे लगता है कि पहले लोग किसी कवि को जब खूब आदर देते थे तो उसके नाम के पहले ‘महाकवि’ शब्द जोड़ते थे | यूँ महाकवि उसे कहा जाता था जिसने कोई महाकाव्य लिखा है, जैसे- महाकवि तुलसीदास | सूरदास ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा था, तब भी उन्हें महाकवि कहा गया | नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक ही है- ‘महाकवि सूरदास’| कहा गया कि सूर ने भले ही कोई महाकाव्य न लिखा हो, लेकिन वे महाकाव्यात्मक प्रभाव पैदा करने वाले कवि हैं | कबीर को महाकवि किसी ने कहा हो, इसकी याद नहीं | पहले  वे समाज सुधारक या संत थे | कवि रूप में प्रतिष्ठा उन्हें बहुत बाद में मिली | जायसी, सूर और तुलसी की तरह वे भी अब  महाकवि हैं | आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला आदि के लिए भी महाकवि पद प्रयुक्त होता रहा है | अब यह विशेषण सुनने को नहीं मिलता | अब किसी कवि को महाकवि कहने पर – चाहे जनवादी हो या गैरजनवादी – वह नाराज हो जाएगा | ऐसा कहना उसे अपना उपहास-सा लगेगा | लगता है उसकी जगह ‘जनकवि’ ने ले ली है | यह भी लगता है कि जनकवि कहना-कहलाना कवि-प्रशंसकों और कवियों को ज्यादा अच्छा लगता है |
महाकवि एक सुपरिभाषित पद था | इसका प्रयोग उसी के लिए किया जाता था जो इसका अधिकारी हो |  जिसने महाकाव्य न लिखा, लेकिन जो महान कवि हो, जैसे- निराला | आधुनिक काल में इसका बड़ा दुरुपयोग हुआ | हर ऐरा-गैरा कवि अपने को महाकवि कहलाना पसंद करने लगा | कवि सम्मेलन का संचालक हर कवि को ‘महाकवि’ कहकर बुलाने लगा | अब उसकी जगह जनकवि प्रचलन में है, लेकिन ‘जनकवि’ वैसा सुपरिभाषित पद नहीं है जैसा महाकवि था | तब प्रश्न है कि जनकवि कौन ? भारतेंदु, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुकुट विहारी सरोज आदि  तो जनकवि घोषित किए जा चुके हैं | इसकी परिभाषा स्पष्ट हो तो और भी नाम जुड़ेंगे | क्या जनकवि उसे कहेंगे जो जनता का कवि हो | तब प्रश्न उठेगा कि जनता का कवि कौन ? जनता के लिए तो सबने लिखा है | प्रसाद, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, धूमिल आदि सभी कवियों ने जनता के लिए लिखा है | तब प्रश्न उठेगा कि किस जनता के लिए ? उच्च वर्ग के लोग हिंदी कविता पढ़ते होंगे, इसमें संदेह है | निम्न वर्ग से जो किसान मजदूर हैं वे भी शायद ही कविता पढ़ते हों | उनकी जीवन-स्थितियां कविता के पढ़ने के अनुकूल नहीं है | ले-देकर मध्यवर्ग ही हिंदी कविता का पाठक हो सकता है | वकील, पत्रकार, अध्यापक, छात्र, अधिकारी, क्लर्क आदि को ही हिंदी कविता का पाठक माना जा सकता है | क्या इनके बीच जो लोकप्रिय है उसे जनकवि कहा जाए ?
जनकवि शब्दकोश में नहीं है | इससे पता चलता है कि यह पुराना शब्द नहीं है | अनुमान किया जा सकता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में जिन कविताओं को जनता गाती होगी, उनके लिए जनकवि विशेषण चलता होगा | यूँ १९४० के दशक   में लिखी अपनी कविता ‘भारतेंदु’ में नागार्जुन  ने भारतेंदु हरिश्चंद्र को ‘जनकवि’ कहा है | क्यों कहा है ? उ न्हीं से सुनिए :
हिंदी की है असली रीढ़ गवारु  बोली,
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हममें घोली...
हे जनकवि सिरमौर, सहज भाषा लिखवइया
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे, बाबू- भइया  |
शिक्षित जन जिसे गवाँरु बोली समझते हैं, वही हिंदी की असली ताकत है | ऐसा उत्तम विचार भारतेंदु का था | उनकी जैसी सहज भाषा लिखने वाला व्यक्ति ही ‘जनकवि सिरमौर’ है | यही कारण है कि उन्हें बाबू भइया का यानी ऊँचे तबके का समर्थन नहीं मिला | नागार्जुन की नजर में ऐसा ही व्यक्ति जनकवि हो सकता है | बाद में उन्होंने खुद अपने को जनकवि घोषित करते हुए लिखा :
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं
जनकवि हूँ, सत्य कहूँगा, क्यों हकलाऊं ?
यहाँ नागार्जुन के अनुसार जनकवि वह है जो जनता के जीवन-मरण के सवालों से परिचित  हो, जो यथार्थ चित्रण करता हो और साफ़-साफ़ दो टूक कहता हो | नागार्जुन की परिभाषा के आधार पर भारतेंदु और नागार्जुन दोनों जनकवि हैं | यूँ नागार्जुन प्रेमी नागार्जुन को ही प्रायः जनकवि कहते रहे हैं | ऊपर उद्धृत पंक्तियों से पता चलता है कि नागार्जुन के लिए जनकविता और जनकवि का सवाल हमेशा सर्वोपरि रहा है |
जनप्रियता के आधार पर बात करें तो मैथिलीशरण गुप्त की काव्य पुस्तक ‘भारत- भारती’ (१९१२ ई.) की याद सहज रूप से आती है | स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान यह काव्य पुस्तक खूब पढ़ी गई | यह कृति इतनी लोकप्रिय हुई कि गुप्त जी को ‘राष्ट्रकवि’ की लोकोपाधि मिली | ‘भारत-भारती’ में जनता की आजादी का प्रश्न केंद्र में था | सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ शीर्षक कविता स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान तो खूब लोकप्रिय हुई ही, आज भी लोकप्रिय है | बच्चन की ‘मधुशाला’ (१९३५) की अपार लोकप्रियता को हम भूले नहीं हैं | जाति-धर्म निरपेक्ष समाज की रचना का सपना ‘मधुशाला’ की केंद्रीय भाव-भूमि है | दिनकर की कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि जन आंदोलनों का नारा बन गई | १९४० के दशक में यदि नेहरु राजनीति में युवा हृदय-सम्राट बन गए थे तो हिंदी कविता के युवा हृदय-सम्राट दिनकर थे | सहज भाषा, स्पष्ट कथन, जनता और समाज के व्यापक सवालों के आधार पर गुप्त, बच्चन और दिनकर भी सच्चे अर्थों में जनकवि हैं | और भी कवि हैं जिनकी कवितायेँ जनता के बीच खूब लोकप्रिय हुई | १९६० के दशक में बिहार के हमारे अंचल के स्कूलों में एक गीत खूब लोकप्रिय था : ‘देश हमारा, धरती अपनी, हम धरती के लाल, नया संसार बनायेंगे, नया इंसान बनायेंगे |’ यह किसकी कविता है, न हमें मालूम था, न शायद हमारे शिक्षकों को | बाद में पता चला कि प्रगतिशील कवि ‘शील’ का गीत है | दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल-पंक्तियाँ अक्सर साधारण लोगों द्वारा उद्धृत की जाती हैं  | इन ग़ज़लों में जनता के सवाल भी है और भाषा का सहज रूप भी है | धूमिल की काव्य पंक्तियाँ भी अक्सर लोग दुहराते हैं | सवाल है कि ये सभी कवि जनकवि क्यों नहीं हैं और उनकी कविताएँ  जन कविता क्यों नहीं हैं ? कोई पूछ सकता है कि जनकविता किसे कहा जाए ? जनकविता पद का प्रयोग किए बिना तुलसीदास ने वैसी कविता को मानस में इस रूप में परिभाषित किया है कि आदर पाने योग्य वही कविता है जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र वाले व्यक्ति का वर्णन हो और जिसकी प्रशंसा शत्रु भी करें :
सरल कबित कीरति बिमल सो आदरहिं सुजान |
सहज बयर बिसराह रिपु जो सुनि करहिं बखान ||
कविता के इस आदर्श को लेकर चलने के कारण ही तुलसीदास जन-जन के कवि बने | बड़ी से बड़ी बात को सहज ढंग से कह देने की कला तो  कोई तुलसीदास से सीखे | यही कारण है कि निराला ने उन्हें ‘अशेष छविधर’ कवि कहा तो त्रिलोचन ने उन्हें अपना आदर्श कवि घोषित किया – ‘तुलसी बाबा, कविता मैंने तुमसे सीखी, मेरी सजल चेतना में तुम रमे हुए हो |’ तुलसीदास की सरलता दिनकर को इतनी प्रिय थी कि उन्होंने एक बार कहा था कि हम रिल्के की बात तुलसीदास की सफाई से कहना चाहते हैं | कविता में यह सरलता बड़ी बात है | तभी तो प्रचंड पांडित्य के धनी और  रामकथा लिखने वाले केशवदास जनता के बीच ‘कठिन काव्य का प्रेत’ बनकर रह गए |
कविताएँ जनता की जुबान पर दो कारणों से चढ़ती हैं |एक तो पाठ्यक्रमों  में शामिल कवितायें प्रायः लोगों को याद हो जाती हैं|पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से शामिल होने के कारण प्रसाद ,निराला,अज्ञेय ,मुक्तिबोध आदि कवियों की कुछ एक पंक्तियाँ भी लोगों की जुबान पर हैं| लेकिन  भारतेंदु ,मैथलीशरण गुप्त ,सुभद्रा कुमारी चौहान ,बच्चन ,दिनकर नागार्जुन ,धूमिल आदि की कवितायें यदि लोगों की जुबान पर हैं तो इसका कारण इनके भीतर का वह काव्य-गुण है,जो उन्हें सहज ही स्मरणीय बना देता है| जनकवि वही है जिनकी काव्य-पंक्तियाँ सहज रूप में याद हों,जो जन आन्दोलनों का हिस्सा रही हों और जिन्हें समझने के लिए किसी आलोचक की जरुरत न हो |सच्चे अर्थ में तो  हिंदी भाषी क्षेत्र के जनकवि कबीर ,सूर,और तुलसीदास जैसे कवि ही माने जायेंगे |आधुनिक युग में साहित्यिकता के साथ लोकप्रियता की दृष्टि से मैथलीशरण गुप्त और बच्चन की मधुशाला का स्थान सबसे ऊपर है| बिना पाठ्यक्रम में शामिल हुए इन काव्यकृतियों का जादू पाठकों के ऊपर बना रहा |

  जनकवि जैसा कोई प्रत्यय अंग्रेजी कविता में नहीं है |वहाँ शेक्सपियर के लिए भी  इस तरह का कोई शब्द नहीं चलता | उर्दू में भी ‘शायरे-इन्कलाब’ तो है पर ‘शायरे अवाम’ नहीं | हाँ , मीर और नजीर अकराबादी जैसे शायरों को कुछ लोग अवामी शायर कहते हैं |  हिंदी में भी यह कोई पद नहीं है|नागार्जुन ने जब अपने को जनकवि कहा तो भाव यह था कि वे जनता से प्रतिबद्ध कवि हैं| उनके भीतर अपनी कविता के जरिये जनता तक पहुचने की बलवती चाह भी थी| इसलिए विषयवस्तु के साथ शिल्प शैली के प्रयोग में उन्होंने जन रूचि का ध्यान रखा |आज जो कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं उनमें जनता के प्रति प्रतिबद्धता तो दिखती है ,लेकिन संप्रेषणीयता के उस गुण का अभाव है ,जो उसे जन प्रिय भी बनाता है | इसलिए हिंदी कविता के सन्दर्भ में जन कविता का प्रश्न विचारणीय विषय  होना चाहिए |

4 comments:

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  3. जन कवि हूँ क्यों हकलाऊँ ?

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  4. चारों ओर अनास्था,अविश्वास,निराशा और विघटन की प्रवृत्तियां

    सिर उठा रही हैं,अंधेरा है !

    लोकजीवन को प्रकाश और विश्वास दे सकने वाले

    वे कविर्मनीषी आज कितने हैं ?

    कौन कौन से हैं ?

    जिनकी वाणी में लोकजीवन की संवेदना है?

    जिनके शब्द लोकजीवन में जी रहे हैं ?

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