Saturday 10 September 2016

सौंदर्य: दृष्टि और दृश्य का द्वन्द




सौंदर्य दृष्टि पर राम मनोहर लोहिया ने दिलचस्प सवाल उठाया है कि दुनिया में गोरा रंग ही सुन्दर  क्यों माना जाता है ?  उनका उत्तर है कि वह इसलिए कि दुनिया  पर गोरी चमड़ी वालों का शासन रहा  है ; यदि काले लोगों का रहा होता तो काला रंग सुन्दर माना जाता |इसलिए गोरी और  पतिव्रता सीता-सावित्री वाले भारतीय नारी आदर्श की जगह कृष्णा यानी द्रोपदी का आदर्श वे सामने रखते हैं| द्रोपदी साँवली थी, उसके पांच पति थे और वह तीखे सवाल उठाती थी| कुरु राज सभा में अपने सवालों से  उसने बड़े- बड़ों को निरुत्तर कर दिया था| उन्हें सवाल उठाने वाली द्रौपदी  ज्यादा पसन्द थी | रंगों के सौंदर्य के साथ आदर्शों का भी अपना सौंदर्य होता है| लोहिया समाज परिवर्तन के लिए सौंदर्य के इन प्रतिमानों को बदलने की बात करते हैं और सौन्दर्य को देखने की जो हमारी जड़ीभूत दृष्टि है उस पर जबर्दस्त हमला करते हैं और इस तरह से समाज परिवर्तन के लिए सौंदर्य –दृष्टि के परिवर्तन पर जोर देते हैं| इससे पता चलता है कि वास्तविक परिवर्तन सिर्फ सत्ता बदल जाने से ही नहीं, सुन्दरता सम्बन्धी सोच को भी बदलने से होगा| इससे यह भी पता चलता है कि सौन्दर्य दृष्टि के मूल में भी राजनीति होती है| सौंदर्य दृष्टि में परिवर्तन का अर्थ है राजनीतिक सोच में भी अंतर आना| सोच में परिवर्तन आने से न सिर्फ सामाजिक आदर्शो को देखने के नजरिए में फर्क आता है बल्कि साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमान भी  बदलते  हैं| सामाजिक सोच के बदलने से साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय सोच में कैसे फर्क आता है इसका दिलचस्प उदाहरण है कबीर का काव्य | कभी कबीर की कविता को अनगढ़ कहकर कमतर महत्व  दिया गया था, लेकिन प्रश्नाकुलता जैसे ही आधुनिकता की कसौटी बनी , प्रश्न उठानेवाले कबीर महत्वपूर्ण हो उठे| उनके अनगढ़पन के सौंदर्य के वैशिष्ट्य पर भी साहित्य चिंतकों का ध्यान गया| प्रपद्यवादी कवि केसरी कुमार ने, जिनपर लोहिया के विचारों का गहरा असर था, कबीर काव्य के अनगढ़ के सौन्दर्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया | कबीर चूँकि व्यंग्य के कवि हैं| व्यंग्य के जरिए कवि दूसरों पर चोट करता है| केसरी कुमार के अनुसार कबीर की कविता उस पत्थर की तरह है जिसकी मारक क्षमता उसके अनगढ़पन के कारण बहुत बढ़  जाती है | कबीर के अनगढ़पन के सौंदर्य को देखनेवाली यह साहित्य दृष्टि पिछली सभी दृष्टियों से भिन्न है |इस भिन्नता का मूल कारण साहित्य- सौन्दर्य के प्रतिमानों में निरन्तर हो रहा परिवर्तन है |                                                                                          
     यह दुनिया यदि परिवर्तनशील है और रोज बनती है तो साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमान कैसे स्थिर होंगे ? इसके उदाहरण हमारे साहित्य-इतिहास में भरे पड़े हैं | भरत मुनि से लेकर पंडितराज  जगन्नाथ तक भारतीय साहित्यशास्त्र का जो गहन विस्तार है, वह इस बात का प्रमाण है कि साहित्य-सौन्दर्य की हमारी दृष्टि गतिशील रही है और उसमें  जीवन की तरह वैविध्य के अनेक रंग हैं | भक्तिकाव्य को देखनेवाली परलोकवादी दृष्टि को रामचंद्र शुक्ल ने लोक के धरातल पर प्रतिष्ठित करके हिंदी आलोचना की दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित कर दिया | तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं, लोक-कल्याण हेतु वे विविध लीलाएं करते हैं, उनके अंगों की तुलना उन्होंने कमल से की है- हाथ, पैर, नेत्र आदि सभी कमलवत हैं| तुलसीदास के प्रशंसक शुक्लजी को राम इस कारण प्रिय नहीं हैं, उन्हें राम इसलिए प्रिय हैं कि उनमें शुक्लजी को कर्म का सौन्दर्य नजर आता है| परलोकवादी साहित्य दृष्टि को लोकवादी बनाने में कर्म के सौंदर्य की प्रधान भूमिका है, जिसकी शुक्ल विरोधी प्रायः अनदेखी करते हैं| कर्म का सौन्दर्य ही साहित्य की आधुनिक दृष्टि का मूल आधार है| वैष्णव भावना से संचालित तुलसीदास, जिसे वे जगत जननी  मानते हैं, उस सीता के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि वे छवि-गृह में जलते हुए दीप की शिखा जैसी सुंदर हैं-  ‘ सुन्दरता कहुं सुंदर करइ  , छविगृह दीप सिखा जनु बरइ  |’ वैष्णव चेतना के साथ सौंदर्य चेतना में कैसे भारी परिवर्तन उपस्थित होता है, इसका दिलचस्प उदाहरण है मैथिलीशरण गुप्त का राम सम्बन्धी काव्य| तुलसीदास की सीता सुकुमारता की पराकाष्ठा हैं, ऐसी कि तुलसी के सामने यह समस्या है कि सुन्दरता की सारी उपमाएं कवियों ने जूठी कर दी हैं, सीता की उपमा किससे दी जाए- ‘ सब उपमा कवि रहे जुठारी| केहिं पटतरों विदेह कुमारी||’ लेकिन आधुनिक वैष्णव कवि गुप्तजी की सीता कैसी हैं? माता तो वे गुप्तजी की भी हैं, पर दूसरे अर्थ में| पंचवटी का जो सुंदर दृश्य है, वह यह कि  ‘ सीता मइया थीं आज कछोटा बांधें’| कछोटा बांधकर श्रम करती हुई सीता आधुनिक युग की श्रमशील स्त्री हैं| तुलसीदास के युग से गुप्तजी के समय तक सीता का रूप  बदला है तो इसका कारण यह है  कि सौंदर्य को देखने की हमारी दृष्टि  बदल गई है|
     प्रेमचंद ने जब साहित्य के सौन्दर्य के प्रतिमान बदलने की बात की, सुलानेवाले साहित्य की जगह जगानेवाले साहित्य की मांग की तो इसका कारण यह था कि नवयुग की हवाएं उसपर बदलाव के लिए दबाव डाल रही थीं| बदलाव हुआ तभी तो महाकाव्य के धीरोदात्त नायकों और पद्मिनी नायिकाओं का युग समाप्त हो गया, होरी और धनिया जैसे नायक-नायिकाओं का युग आ गया| रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ की व्याख्या करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने हिंदी कथा -साहित्य में रेणु के  एक ऐसे मौलिक योगदान की चर्चा की है, जिस पर कम लोगों का ध्यान गया है| वे कहते हैं कि रेणु ने ‘तीसरी कसम’ जैसी प्रेम कहानी का नायक हीरामन जैसे काले कलूटे व्यक्ति को बना कर प्रेम कहानियों के नायकों की अवधारणा ही बदल दी | ‘तीसरी कसम ‘ की यह एकदम नई व्याख्या है| हीरामन के साथ प्रेम कहानी का नायक ही नहीं बदलता है प्रेम कहानी सम्बन्धी हमारी सौंदर्य-दृष्टि भी  बदलती है | हिंदी कहानी में यह युगांतकारी बदलाव है | यह संभव होता है सौन्दर्य सम्बन्धी हमारी धारणा में परिवर्तन से | इस परिवर्तन में जोर आन्तरिक सौंदर्य पर है | हीराबाई ने बाहरी सौंदर्य बहुत देखा था, उसके भीतर की अमानवीयता और भोगवादी दृष्टि भी देखी थी, लेकिन कालेकलूटे हीरामन जैसे आंतरिक सौन्दर्य का धनी पुरुष उसने पहली बार देखा था | लोहिया ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘सुन्दरता और त्वचा का रंग ‘ में सौंदर्य के प्रचलित प्रतिमानों को बदलकर , जो आमतौर से ऊपरी हैं , आंतरिक सौन्दर्य पर जोर देने की मांग की है | यह दूर की कौड़ी लाना है , लेकिन यह अद्भुत संयोग है कि एक ही समय में लोहिया और रेणु समाज और साहित्य में प्रचलित सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को बदल कर उसे आंतरिक सौंदर्य से जोड़ने पर बल देते हुए दिखाई देते हैं |
   बच्चन ने सौंदर्य के बारे में बात करते हुए लिखा है कि हमारे लिए सफाई ही सौन्दर्य है | तात्पर्य यह  कि घर को सजावटी सामानों से सजाने की जगह उसे साफ- सुथरा रखना ही सौन्दर्य है . जो साफ -सुथरेपन को ही सौन्दर्य मानता हो , उसके साहित्य पर भी उसका असर होगा ही |दिनकर का भी जोर कहने की सफाई पर बहुत था| उन्होंने कहा है कि हम रिल्के की बात तुलसीदास की सफाई से कहना चाहतें हैं | इसलिए यह अकारण  नहीं है  कि बच्चन और दिनकर दोनों का गद्य बहुत ही साफ सुथरा और सुन्दर है | उनके गद्य  में हिंदी के जातीय गद्य का सौंदर्य है| बच्चन की आत्मकथा और ‘संस्कृति के चार अध्याय ‘ की लोकप्रियता के मूल में अन्य कारण भी हैं लेकिन एक बड़ा कारण हिंदी के जातीय गद्य का सौंदर्य भी है , जो हिंदी वाक्य रचना के अनुसार  यानी कर्त्ता ,कर्म और क्रिया के क्रम में लिखे जानेवाले  गद्य का  है |तीनों की भाषा में सफाई का जो सौंदर्य है , उसपर गाँधीयुगीन आदर्शों के प्रभाव भी हो सकते हैं |१९१५ से लेकर १९४१  तक गाँधी और टैगोर के बीच जो पत्र –व्यवहार और विचार –विमर्श हुए उसे देखने पर पता चलता है कि चरखा को लेकर दोनों में तीव्र मतभेद थे | टैगोर चरखे  की अर्थनीति से सहमत नहीं थे | गाँधी ने जवाब में लिखा कि कवि तो कल्पना के भव्य लोक में रहते हैं , जब कि मैं दूसरे के बनाये चरखे का गुलाम हूँ | अपने काम से कवि-कर्म को श्रेष्ठ मानते हुए गाँधी ने टैगौर को सलाह दी :” यदि कवि....रोजाना आधा घंटा कातें ( चरखे  पर सूत )तो उनकी कविता और भी निखरेगी | कारण, तब उनकी कविता में गरीबों के दुःख –दर्दों का आज की अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त चित्रण होगा| “ इस तरह गाँधी का जोर गरीबों के दुःख –दर्द, श्रम,स्वावलंबन और सरल जीवन पर है | गाँधी के लिए जीवन-सौन्दर्य के स्रोत यही हैं, बेशक साहित्य सौन्दर्य के भी|
    रामविलास शर्मा ने कहा है कि यह जीवन और जगत भले ही क्षणभंगुर हो,संसार में रहे बिना सौन्दर्य-बोध संभव नहीं है और सौन्दर्य-बोध के बिना कलात्मक सृजन भी संभव नहीं है |अब यदि सौन्दर्य-बोध का आधार संसार है तो प्रश्न उठेगा कि संसार तो वर्ग-जाति स्त्री-पुरुष और काले-गोरे में  बंटा है|अलग-अलग श्रेणियों से आने वाले रचनाकारों का सौन्दर्यबोध क्या  एक होगा ? रामविलासजी  यथार्थवादी साहित्य दृष्टि को इसका मुख्य आधार मानते हैं| लेकिन उनके यथार्थवाद की सीमाएं तो कविता सम्बन्धी उनके मूल्याङ्कन में ही स्पष्ट हो जाती हैं |इसलिए दलित साहित्यकार अलग कसौटी और सौन्दर्यशास्त्र की बात करते हैं | शरण कुमार लिम्बाले ‘रूढ़ साहित्यिक कसौटी’ पर ‘नई साहित्यिक धारा’ का मूल्याङ्कन उचित नहीं मानते| वे ‘स्थिर कसौटी’ या ‘निश्चित कसौटी’ के आग्रह को भी नकारते हैं|वे पुराने सौन्दर्य शास्त्र को आनंद पर आधारित मानते हैं,जब कि दलित साहित्य का आधार  व्यथा और वेदना है | स्त्री लेखन में सौन्दर्य के प्रतिमान, पितृसत्ता से उपजी भाषा,मुहावरे ,प्रतीक,बिम्ब आदि को बार-बार प्रश्नांकित किया जाता है|
भक्ति दर्शन के प्रकाश में लिखा गया साहित्य हो  या आधुनिकता से प्रभावित साहित्य ; उसके  सौन्दर्य बोध का आधार कोई न कोई वैचारिक दर्शन रहा है|आज जबकि बाजार और बाजारवाद के  प्रभाव में वैचारिक आदर्शों की चूलें हिल गई हैं,स्वाभाविक रूप से एक प्रश्न पैदा होता है कि नई पीढ़ी  के रचनाकारों का सौन्दर्यबोध क्या है?वैसे प्लेटो ने कहा है कि सौन्दर्य तो देखने वाले की दृष्टि में होता है|कहा जाता है कि यह पूर्ण कथन नहीं है- दृष्टि तो महत्त्वपूर्ण है ही दृश्य भी महत्त्वपूर्ण है|लोहिया का जोर भी दृष्टि पर है,दृश्य पर नहीं | प्रश्न है कि दृष्टि और दृश्य के द्वंद्व को ध्यान में रखे बिना क्या साहित्य के सौन्दर्य पर बात हो सकती है?चरखा सम्बन्धी टैगोर के साथ विवाद में गाँधी का ध्यान इस द्वंद्व पर था | टैगोर की कविता और अपने चरखा को गाँधी ने एक दूसरे का ‘पूरक’ कहा है |
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6 comments:

  1. महोदय,
    बेहतरीन लेख है। यह लेख उनको पढने में अधिक अच्छा लगेगा जिसे आपको सीधे सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
    आप जब भी किसी विषय को उठाते हैं तो उसका प्रभाव यह होता है कि पाठक/श्रोता कुछ समय के लिये प्रश्नहीन हो जाता है।
    मेरे अनुसार यही तो विद्वानों का गुण है। उन्हें पढकर या सुनकर हम भावनाओं के गगन में विचरने लगें।
    बहुत-बहुत आभार।
    आपका छात्र।

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  2. आपके द्वारा लिखे इस लेख के सौंदर्यबोध की सहज सरल बोधगम्य भाषा का रचनात्मक और शोधात्मक प्रस्तुति की अपनी सुंदरता भी सबसे उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण है।
    आचार्य शुक्ल का कथन ,कर्म का सौंदर्य की साहित्य की आधुनिक दृष्टि का मूल आधार है' पर मेरा भी विश्वास है श्रम से जुड़े सभी दृश्य इसी परिधि में सुंदरता की परिभाषा को गढ़ते हैं।
    दूसरा आपके द्वारा उठाया गया प्रश्न 'दृश्य और दृष्टि को ध्यान में रखे बिना साहित्य के सौंदर्य पर बात हो सकती क्या? जितना महत्वपूर्ण है' उतना ही एक रेखीय नहीं है। इसी से जुड़ा एक और पहलु है क्या हम आंतरिक सुंदरता के साथ बाहरी सुंदरता की लालसा नहीं रखते ?। बाहरी सुंदरता हमे कहीं न कहीं आकर्षित करती तो जरूर है। चाहे वह काव्य और गद्य की बुनावट ही क्यों न हो।
    इन जिज्ञासाओं और प्रश्नों को भी आपके समक्ष उठा रही हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि इनका समाहार भी आपके द्वारा जरूर होगा। इस विश्वास के साथ आपका बहुत आभार और धन्यवाद सर।

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  3. सर जनसत्ता वाले लेख की अपेक्षा ज्यादा सुन्दर। लेकिन इस बात के लिए शिकायत है कि आपने वर्तमान में सौन्दर्य-बोध के संकटों पर कुछ नहीं कहा।

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  4. सर,साहित्य में सौंदर्य जनवादी मूल्यों से ही आ सकता है, राजनीति इतिहास के सौंदर्य से अलग नहीं हो सकता साहित्य का सौंदर्य, इस बात को व्यापकता और सहजता से कहता महत्वपूर्ण लेख.........

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  5. सर,साहित्य में सौंदर्य जनवादी मूल्यों से ही आ सकता है, राजनीति इतिहास के सौंदर्य से अलग नहीं हो सकता साहित्य का सौंदर्य, इस बात को व्यापकता और सहजता से कहता महत्वपूर्ण लेख.........

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  6. सौन्दर्य -दृष्टि विषयक आपकी टिप्पणी से गुजरते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी याद आए,जिन्हीने कहीं लिखा है कि 'समष्टिचित्त में अनुकूल भावान्दोलन पैदा करनेवाला वाला तत्व सौन्दर्य है.' इस दृष्टि से संकट के समय हमारी सत्यनिष्ठा और हमारा सदव्यवहार ही सुन्दरता के सन्दर्भ में निर्णायक माना जाएगा.काला होने के बावजूद जार्ज बुश या टोनी ब्लेयर से नेल्सन मंडेला इसी वजह से ज्यादा सुन्दर प्रतीत होते हैं. संभवत: मुक्तिबोध ने भी कहीं चांदनी के मुकाबले काले स्याह पहाड़ों में सौंदर्य देखने की बात की है.कालिदास के पंक्ति 'ज्ञातास्वादों विवृत जघनां को विहातुं समर्थ' को उन्होंने सीमित सौन्दर्य-दृष्टि का परिचायक माना है.कहने की जरुरत नहीं कि सुन्दरता के प्रतिमान के तौर पर गौर वर्ण को तरजीह देने के जो कारण लोहिया ने बताए हैं वे अपनी जगह सही हैं.पर इस मुद्दे पर कार्ल रोसेंक्रेंज़ द्वारा विस्तार से विवेचित 'कुरूपता का सौंदर्यशास्त्र' को नज़रंदाज करके कोई बात मुकम्मल नहीं हो सकती.

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