Thursday, 11 August 2016

सरकार पोषित संस्थाएं और लेखक

सवाल है कि लेखकों को सरकारी या सरकार पोषित संस्थाओं में जाना चाहिए या नहीं ?उन्हें इन संस्थाओं से सम्मानित-पुरस्कृत होना चाहिए या नहीं ?इन प्रश्नों का कोई माकूल जवाब देना किसी के लिए भी कठिन है |इसलिए कि लोकतंत्र में जो भी मंच या संस्था है,वह अंततः जनता की और जनता के लिए है | किसी राजनीतिक दल की सरकार आएगी और जायेगी ,लेकिन संस्थाएं बरक़रार रहेंगी| फिर भी जब-तब संस्थाओं के बहिष्कार की ख़बरें आती रहती हैं | कभी भारत भवन,भोपाल के कार्यक्रमों के बहिष्कार का अभियान लेखकों के एक वामपंथी गुट की ओर से चला था | बावजूद इसके कुछ लेखकों को छोड़कर बाकी लेखक वहां जाते-आते रहें| महादेवी वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार मार्गरेट थैचर के हाथों लेने से इनकार करने की मांग भी कुछ लेखकों ने की थी | नागार्जुन से भी इंदिरा गाँधी के हाथों पुरस्कार न लेने के लिए कहा गया था | राजेंद्र यादव को बिहार सरकार का शिखर सम्मान जब मिला था तो वामपंथी लेखकों के धड़े ने विरोध किया था | किसी घटना विशेष को ध्यान में रखकर हिंदी अकादेमी और साहित्य अकादेमी का कुछ लेखकों ने विरोध/बहिष्कार किया लेकिन किसी लेखक ने इस तरह की मांगों के बावजूद पुरस्कार/सम्मान लेने से मना किया हो या लेखकों के बड़े समुदाय ने किसी संस्था का बहिष्कार किया हो,इसकी याद मुझे नहीं है|
            एक लोकतान्त्रिक देश में कोई संस्था न तो किसी दल विशेष की होती है और न किसी सरकार विशेष को इनके काम-धाम में अनावश्यक दखल देना चाहिए | इन संस्थाओं का गठन जब हुआ होगा तो आदर्श तो यही रहा होगा | लेकिन सरकारों के बदलने पर सम्मान/पुरस्कारों के चयन में कभी-कभार बाहरी दबाव न रहते होंगे,इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता | ऐसी स्थिति में फिर वही प्रश्न कि लेखकों को सरकार पोषित संस्थाओं के मंचों पर जाना चाहिए या नहीं?
             आज का लेखक कबीर,कुम्भनदास,तुलसीदास आदि की तरह न तो जीवन जीता है और न कोई उससे वैसी अपेक्षा करेगा| कबीर कह सकते थे कि जिसे कुछ नहीं चाहिए वही शाहंशाह है,कुम्भनदास भी तब की राजधानी सीकरी से दूर रहने की स्पष्ट सलाह दे सकते थे;तुलसीदास भी कह सकते थे कि मैंने राम की गुलामी स्वीकार कर ली है,अब किसी नर की मनसबदारी नहीं करूँगा | यही मानसिक रचना उस काल के सभी संत कवियों की थी| शायद यही कारण है कि उनका रचा साहित्य लगभग हजार वर्षों के हिंदी साहित्य का सबसे उज्ज्वल अध्याय है| ऐसा अध्याय जो ज़रा-से भी किसी राजकीय हस्तक्षेप से अपनी दूरी बनाए रहता है| यही कारण है कि भक्ति काव्य का अधिकांश हमें आज भी नैतिक लगता है| भक्त कवियों ने तो प्रभु की सत्ता स्वीकार कर ली थी,उन्हें किसी अन्य के अनुग्रह की ज़रूरत नहीं थी | लेकिन यही बात दूसरे काल के खासतौर से आज के साहित्यकारों के बारे में नहीं कही जा सकती| आज के साहित्यकार का घर-परिवार है;उसके लिए उसे कोई न कोई नौकरी या काम काम करना है| वह जो लिखता है,उसके प्रकाशन,प्रचार-प्रसार  के लिए किसी न किसी निजी या सरकार पोषित संस्था की दरकार है| यदि उसने जीवन भर लिखने-पढने का ही काम किया है ,तो उसकी सहज मानवीय कमजोरी हो सकती है कि वह साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी हो|लेखकों को पुरस्कृत-सम्मानित करने का काम सरकार पोषित संस्थाएँ करती भी रही हैं | अपनी राजनीतिक धारा के लेखकों का भी और अपनी विरोधी राजनीतिक धारा के लेखकों का भी | आज जब कुछ भी राजनीति से परे नहीं है,तब किसी लेखक का किसी सरकार पोषित संस्था द्वारा सम्मान राजनीति से परे तो नहीं ही माना जाएगा| भले ही वह फौरी नहीं,दूरगामी राजनीति हो | तब क्या लेखक को अपनी ही राजनीतिक धारा की सरकार के समय में सरकार पोषित संस्थाओं में जाना चाहिए और सम्मानित होना चाहिए ?
                 किसी लेखक या विपरीत धारा के लेखक का कहीं सम्मानित किया जाना किसी भी लोकतांत्रिक समाज के मुक्त मन का परिचायक है | अपनी आलोचना किये जाने का माहौल लोकतंत्र में विश्वास करने वाली सरकारें ही देती हैं| जो सरकारें विचारधारा की तानाशाही के आधार पर सत्ता में आती हैं वे लेखकों की अभिव्यक्ति पर पहरा बिठा  देती हैं | नात्सी जर्मनी में भी लेखकों-कलाकारों को यातनाएं झेलनी पड़ीं और स्तालिनकालीन सोवियत रूस में भी| ऐसी सरकारों द्वारा पोषित संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जाना कोई स्वतंत्रचेता लेखक कैसे पसंद करेगा ? करना भी नहीं चाहिए|इन देशों में भी लेखकों-कलाकारों ने तानाशाही का विरोध किया था और यातनाएं झेली थीं| अपने देश में भी आपात काल में जब अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबन्ध लगा तो लेखकों के व्यापक समुदाय ने उसका विरोध किया था|यद्यपि सीपीआई /प्रलेस से जुड़े लेखक तब या तो आपात्काल के समर्थन में थे या चतुराई पूर्वक चुप थे|
                 कोई लेखक जब किसी संस्था द्वारा सम्मानित होता है तो अंततः उसकी रचना सम्मानित होती है | रचना के पीछे लेखक की अपनी जीवन-दृष्टि होती है;रचना में निहित उसके मौन या मुखर विचार होते हैं| जेनुइन लेखक सम्मान से अधिक अपनी रचना के साथ होता है|संस्थाएं ऐसे लेखकों का सम्मान करके स्वयं सम्मानित होना चाहती हैं;अपना उदार चेहरा प्रस्तुत करना चाहती हैं| कई बार सत्ताधारी दल ऐसा करके लेखक से अपने अनुकूल बनने की अपेक्षा भी रखता  है| सरकार पोषित संस्थाओं के मंचों पर जब ऐसे लेखकों को बुलाया जाता है तो यह भी अपेक्षा होती है कि लेखक संस्था या सत्ता के लिए असुविधाजनक वक्तव्य न दे |अवसरवादी लेखक अनुकूलन के शिकार होते भी हैं,लेकिन जेनुइन लेखक वही बोलता है जो साहित्य का स्वाभाविक धर्म होता है|कहने की जरुरत नहीं कि एक लेखक का स्वाभाविक धर्म जनता की पीड़ा का सही चित्रण है,उस पीड़ा का पक्षधर होना है|इसलिए किसी लेखक का असली काम है सत्ता के विपक्ष में होना| सुना है कि राममनोहर लोहिया कहते  कहते थे कि उनके  दल की भी सरकार बनी तब भी  वे विपक्ष की भूमिका में रहना पसंद करेंगे;ताकि अपने दल की सरकार के प्रति आलोचनात्मक रूख रख सकें  | आज के दिन कौन –सा दल या कौन-सा नेता ऐसे आदर्श को जीना पसंद करेगा,कहना कठिन है,लेकिन एक लेखक को तो सतत विपक्ष में होना ही चाहिए|जो वह लिखता है उसमें उसका विपक्षी तेवर साहित्यिक  भाषा और सलीके के साथ साफ़-साफ़ दिखना चाहिए| जब वह किसी मंच पर बोलने के लिए निमंत्रित किया जाता है,तब उसे वही बोलना चाहिए जो उसका अपना पक्ष है |  यह सुविधा और वह माहौल वह मंच मुहैया कराता है तो उसे अपनी बात बेलाग-लपेट कहने से हिचकना नहीं चाहिए| यदि वह मंच उसे उसकी अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देता तो निश्चित रूप से उसे उसका बहिष्कार करना चाहिए|
           वाद-विवाद-संवाद की गुंजाइश जनतांत्रिक समाज में ही होती है |हम विचारधारा के लिहाज से अपने अनुकूल लोगों से संवाद तो करते ही हैं जो दूसरी विचारधारा के लोग हैं उनसे भी संवाद करें,ऐसा जनतंत्र का तकाजा है|यदि हम ऐसा नहीं करते तो अपने से असहमत व्यक्ति के सामने सोच-विचार के लिए कोई दूसरा वैचारिक प्लेटफार्म और दूसरी जीवन-दृष्टि प्रस्तुत करने के दायित्व से अपने को मुक्त कर लेते हैं |इतिहास गवाह है कि गांधी ने अपने विरोधियों के साथ  संवाद करने से परहेज नहीं किया|  इसलिए कि उनकी दृष्टि साफ़ थी | वे मानते थे कि पाप से घृणा करनी चाहिए पापियों से नहीं| किसी ने एक दिलचस्प बात बतायी थी|एक बार श्रीपाद अमृत डांगे को मुम्बई के एक धुर विरोधी दल के नेता  ने एक कार्यक्रम में बोलने के लिए आमंत्रित किया|डांगे गए और वही कहा जो उन्हें कहना था | कहा जाता है कि डांगे के वक्तव्य से प्रभावित होकर वहाँ बैठे बहुत से लोग उनके समर्थक हो गये थे | इस घटना से पता चलता है कि अपने पाँव अपनी जमीन टिकाए रखकर  विरोधी विचारधारा के मंच पर भी बोलने में हर्ज़ नहीं है | यह भी कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद जब अमेरिका में बोल रह थे तो उनके भाषण से प्रभावित होकर एक विदेशी उनका अनुयायी बन गया | वह शॉर्ट हैंड जानता था|बाद में उसी ने उनके बहुत-से भाषण नोट किए,जो आज हमारे लिए सुलभ है|इसका अर्थ यह है कि संवाद से वे डरते हैं,जिनके पास दूसरों को प्रभावित करने वाली न तो दृष्टि होती है और न ही चरित्र |

             किसी दल की सरकार या किसी संस्था के किसी काम से विरोध हो तो उसका बहिष्कार उसके विरोध का एक तरीका हो सकता है | सामंती समाज में जब किसी व्यक्ति का आचरण अशोभनीय होता था तो जाति बहिष्कृत करके समाज उसे सजा देता था|लोकतांत्रिक समाज में बहिष्कार विरोध का अंतिम उपाय होना चाहिए| जब तक और जहां तक संभव हो संस्थागत मंच का उपयोग अपना पक्ष रखने में लेखकों को करना चाहिए| इसलिए कि लोकतांत्रिक समाज में सरकार पोषित कोई संस्था किसी एक व्यक्ति,दल या विचारधारा की जागीर नहीं होती| मुक्तिबोध के शब्दों में यह दुनिया यदि कचरे का ढेर नहीं है तो किसी कुक्कुट को उस पर बैठकर बांग देने और मसीहा बनने देने से रोकने का आखिर लेखकों के पास उपाय क्या है ?सरकार पोषित मंचों पर मौका मिलने पर तब तक बोलना चाहिए जब तक उसकी उदारता का छद्म बेपर्द न हो जाए |

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