Saturday 24 January 2015

कुआँ प्यासे के पास आया:- पृथ्वीराज कपूर

कुआँ प्यासे के पास आया
पृथ्वीराज कपूर
दरियागंज की एक छोटी –सी गली में, एक छोटे –से मकान की,एक छोटी सी बैठक के छोटे –से दरवाजे में घुसते ही, एक छोटी सी चारपाई पर एक विशाल मूर्ति को बैठे देख, मैं मंत्रमुग्ध कुछ झुका-झुका सा,बस, खड़ा – खड़ा सा ही रह गया. मूर्ति की पीठ मेरी ओर थी. शरद जो मुझे वहां लिवा ले गए थे लपक कर आगे बढ़े, मूर्ति के सामने की ओर जा प्रणाम कर बोले “पृथ्वीराज आए हैं” . मूर्ति ने एक उचटती हुई निगाह अपने विशाल  कंधो पर से मुझ पर डाली जैसे कौंदा पहाड़ पर से लपके और फिर गायब हो जाए – शरद की ओर देखते हुए, एक गंभीर आवाज ने कहा – “मैंने इन्हें पहले कहीं देखा है !” शारद मेरी ओर देखने लगे. उसकी ऑंखें कह रही थी कि आप तो कहते थे कि यह पहली ही मुलाकात होगी, क्या रहस्य है?मैं स्वं विचार मग्न हो गया कि वह वृषभ स्कंध तेजी से घुमे और दो बड़ी- बड़ी आँखे मेरे चेहरे पर रुक गई जैसे रात के अंधियारे में किसी पहाड़ी रस्ते पर चलते- चलते एक मोड़ पर अचानक  कोई मोटर गाड़ी नमूदार (प्रगट) हो और अपनी बड़ी बत्तियां आपके मुंह पर गाड़ दे – हाँ बस फर्क था तो इतना कि उस रौशनी की उष्णता जला दे,और चमक आँखों को चुंधिया दे, किन्तु इन आँखों के तेज में चन्द्रमा की शीतलता थी जिससे मेरी आँखे चुन्धियाई नहीं, वरन कमल की भांति खिल उठीं – मै मन्त्र मुग्ध बड़ी-बड़ी आँखों को निहारता रहा और उनके पास से ही आ रही गंभीर और मीठी आवाज का रसपान करता रहा, जो कह रही थी: ‘जी हाँ ! मै आपसे पहले ही मिल चुका हूँ, मुझे खूब याद है, अच्छी तरह याद है- सन १९३४- लखनऊ.’ सन १९३४ लखनऊ ? मैं तो पहली बार जब लखनऊ गया तो वह था अपने थियेटर के साथ सन ४८ में, यह ३४ कह रह हैं, इन्हें भ्रम हुआ है. मैं इधर यह सोच ही रहा था कि उधर वह आवाज बराबर कहे जा रही थी- हाँ हाँ!सन ३४, सन ३४, लखनऊ , मुझे कल की तरह याद है- सन ३४ –लखनऊ – सीता-राम, राम-राम कहते – कहते,वह भव्य मूर्ति लपकी, हवं कुंद की ज्वाला की भांति, यूँ लपलपाती हुई जैसे कसी पंजाबी कवि ने कहा है : -सुल्फे दी लात बरंगी.
और उस ज्योति ने मेरे अंधियारों को अपने आलिंगन में ले लिया और यूँ जान  पड़ा कि ऋषि वाल्मीकि राम- राम का मन्त्र उच्चारण कर रहे हों!
शरद और साथ गए हुए सब सज्जन चकित हो इस दृश्य को देख रहे थे. मैंने कहा- कवि सत्य कहते हैं, सन ३४ में श्री देवकी कुमार बोस कृत “सीता” फिल्म में मैंने राम की भूमिका की थी- कवि ने उसे लखनऊ में देखा था.
यही थी मेरे अंधियारों की उस ज्योति  से पहली भेंट, पहली मुलाकात, जिसमे से मुलाकातों का ताँता चल निकला. फिर तो जब-जब मैं इलाहाबाद थियेटर के साथ गया, साथियों को साथ ले, यह प्यासा अपनी प्यास प्यास बुझाने कुएं के पास जाता ही जाता. पर एक बार यूँ भी हुआ कि स्वंय कुआ प्यासे के पास आया. यह सन ५५ की बात है. मैं थियेटर के साथ गया और हम कृष्णा सिनेमा के हाल में थियेटर कर रहे थे – दीवार, पठान, आहुति, गद्दार, कलाकार और पैसा.
प्रयाग के कविजन, जब-जब मै प्रयाग गया, बड़े प्यार से अपने चरणों में जगह देते,-पंत जी, महादेवी जी, डॉ. रामकुमार वर्मा, फ़िराक गोरखपुरी और बच्चन जी ने बार-बार मेरी झोली रत्नों से भर-भर दी. थियेटर की छत पर बैठे हैं, खेल हो चुका है, भोजन आदि से निवृत हो, सब कलाकार साथी जुटे हुए हैं- नींद जो खेल ख़त्म होते ही झपट अपनी लपेट में ले लेती थी, आज कोसों दूर है – रोशनियाँ गुल हैं, तारों की छहों में, मंद मंद स्वरों में, बच्चन कविता पर कविता सुनाए जा रहे हैं, कि वहीँ भोर हो गई- और खेल से पहले फ़िराक जी के साथ वह वह महफिलें जमी हैं कि सुरूर अभी तक कायम है. और त्रिवेणी –स्नान और निराला- दर्शन, यह तो एक लड़ी में गुथे हुए पुण्य कर्म मेरा सौभाग्य ही बन गए थे.
उधर इन्फोर्मेशन विभाग के सज्जनों को ज्यों ही पता मिलता है कि निराला के दर्शनों को जा रहा हूँ, अपना तामझाम लेकर उपस्थित हो जाते, शरद जी तो साथ ही होते, डाक्टर रामकुमार जी वर्मा, और फ़िराक साहब का भी वहां साथ रहा- यह महानुभाव अपनी- अपनी रचनाओं का पाठ करते और फिर निराला जी, बांध तोड़ती हुई नदी की भांति बह निकलते और इन्फोर्मेशन विभाग के साथी उस उमड़ते ज्वार को टेप रिकार्डों में भर-भर लेते. यह लोग कहा करते :, ‘तुम्हारे आने यह अवसर जुटता है, नहीं तो कवि माने नहीं मानते और यूँ कविता पाठ नहीं करते.’ मै सोचता, कोई पुराने जन्म का ही सम्बन्ध होगा – नहीं तो कहाँ रजा भोज, कहाँ गंगुवा तेली – इस जन्म का तो कवि- समाज से मेरा यही एक नाता है कि: -
बंदऊँ  कवि- पद पद्म  –परागा !
और उस पराग को मस्तक पर लेने के लिए, वह पराग मैलो न हो जाए, मुझे अपने  मस्तक को सौ –सौ बार पोंछ –पोंछ कर स्वच्छ करना होगा !हाँ, उसी बार कि बात है कि कुआँ प्यासे के पास आया या यूँ कहो कि छलछलाती भागीरथी, मेरे तन की गलियों का मल दूर करने को मचल उठी और घाट- बाट उलान्घती इधर को उमड़ पड़ी.
कवि के यहाँ ही बैठे थे, किसी साहब ने कहा : “कवि ने आपका कोई नाटक भी देखा है पृथ्वी जी ?’’ मैंने कहा “नहीं”. वह कहने लगे: “यह क्या बात है, इन्हें कहना चाहिए’’ दूसरे एक साहब बोले: “आजकल कवि का मन स्थिर नहीं, कहीं नहीं जाते, पीछे कहीं गए थे, आधे में उठ आये, जलसा भंग हुआ, नहीं, इन्हें ले चलने में आपत्ति होगी, नाटक छिन्न- भिन्न न हो जाए!’’ कवि का ध्यान इन बातों की ओर आकर्षित हुआ, पूछने लगे: ‘’क्या  बात है ?” जब बताया तो कहने लगे “मै जरूर चलूँगा. मैं अवश्य नाटक देखूंगा, आज नहीं, शायद कल आऊँ, आऊंगा सही, जरूर आऊंगा .”
बात हो गई, हम चले आये. दूसरे ही दिन, नाटक के समय से, कुछ देर पहले, एक गोष्ठी से मै जो वापस लौट थियेटर पंहुचा तो क्या देखता हूँ, अपने साब साथियों की भीड़ लगी है, बीच में चारपाई पर चादर बिछी है और निराला जी बड़ी शांत मुद्रा में विराजमान हैं. मुझे देखते ही बोले: “ लो, मैं आ गया, बहुत देर से आया बैठा हूँ, आपके साथी बड़े अच्छें हैं, इन्होंने मेरी बड़ी ख़ातिर की. अब खेल कब शुरू होगा- हम थिएटर में बैठते हैं, तुम मेकअप करो”. उस दिन हम ‘’आहुति’ खेल रहे थे, खेल शुरू होने से पाँच मिनट पहले निराला जी और उनके साथी साब थिएटर हाल में पहुँचा दिए गए. कुछ भाइयों ने संदेह प्रगट किया कि अब भी टाल जाओ. नहीं तो शो बिगड़ेगा. मैंने कहा: “बने, भले बिगड़े, मेरे लिए तो उनका आना ही आशीर्वादस्वरुप है, घर आई गंगा को लौटा दूँ? वह कैसे हो सकता है- अरे देखते नहीं हो, कुआँ प्यासे के पास आया है, मैं कितना भाग्यशाली हूँ, यह तो निहारो, यह तो समझो.”
‘मानो, न मानो, जानेजहाँ, अख्तियार है.
हम नेकोबाद हुज़ूर को समझाए जाते हैं.’
      यह कहके वह लोग अलग हो गए और मैं मेकअप में जुट गया.
      पहला अंक, दूसरा अंक, तीसरा अंक पूरा खेल हो गया, कवि टस से मस न हुए. दो-दो विश्राम भी हो गये. कवि उठे नहीं, हिले नहीं, जल तक नहीं पिया. पूछने पर कहला भेजा ‘मैं मज़े में हूँ, मेरी चिंता न करो,- नाटक समाप्ति पर रोज़ कि तरह मैंने दो शब्द कहे, उपस्थित दर्शकजनों से आशीर्वाद माँगा, अपने लिए, अपने कलाकार साथियों के लिए, कि देखा कवि अपनी स्थान पर से उठ रहे हैं; समझा , बाहर जा रहे हैं- कि कवि खड़े हो गये और अपनी गरजती हुई आवाज़ में बोले “मुझे कुछ कहना है”. मैं स्टेज पर हाथ जोड़े खड़ा रहा, पर्दा जो बंद होने जा रहा था, रोक दिया गया कि कवि घुमे और दर्शक गणों को संबोधित कर बोले- “यह पुण्यभूमि, यह तपोभूमि, प्रयाग: इलाहाबाद- किसके लिये मशहूर है.” वह अंग्रेजी में बोल रहे थे. उन दिनों यही देखा कि जब-जब कवि उत्तेजित हुए- अंग्रेजी में बोलते, क्यों? यह नहीं समझ पाया. हो सकता है, किसी समय उन्हें एहसास दिलाया गया हो कि इस देश में जो अंग्रेजी की महत्ता है, वह दूसरी किसी भाषा की नहीं, और यह बात उनके मस्तिष्क में बैठ गयी हो कि यहाँ का माना गया, पढ़ा-लिखा वर्ग अंग्रेजी को हिंदी से अधिक समझता है, या कोई और वजह हो, कह नहीं सकता. हाँ! तो वह अंग्रेजी में बोल रहे थे. वह कह रहे थे: प्रयाग, इलाहाबाद यह ऋषि भूमि है, यह तपोभूमि, यह पुण्यभूमि पूज्य है, मान्य है त्रिवेणी के कारण. त्रिवेणी: गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम; गंगा, यमुना सरस्वती; गंगा. हाँ गंगा है. यमुना! हाँ यमुना भी है, हम देख पा सकते हैं, गंगा भी, यमुना भी, पर सरस्वती? किस ने देखा है सरस्वती को? कहाँ है सरस्वती? कहाँ है?” कवि जोर से कह  रहे थे : कहाँ है, कहाँ है?- सन्नाटा? कुछ देर स्तब्ध रहे- रहे , साथ ही यूँ जान पड़ा कि हाल में बैठे सब लोगों ने अपनी सासें रोक रखी हों- और फिर जो कवि घुमे- तो वही कम सम बड़े-बड़े नेत्र मोटर गाडी की हेड लाइट्स की भान्ति मुझ पर गड़े थे- और बाईं को पूरा फैला मेरी ओर संकेत कर कवि कह रहे थे ‘‘वह है; वह है; वह है’’ साथ साथ आवाज़ उठती जा रही थी- वह है! वह है!! वह है!!!
      मैं काँप उठा- दोनों हाथ आपसे आप जुड़गये, नतमस्तक हो मैंने प्रणाम किया- हाल तालियों से गूँज उठा- और वह आवाज़- वह सिंह-गर्जन-आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है- वह है, वह है!काव्य और साहित्य की गंगा-यमुना के बीच नाट्यकला की सरस्वती का संगम हो, तब त्रिवेणी बनती है- वह उस दिन जाना!
      कुआँ  प्यासे के पास आया- प्यास बुझा गया कि अधिक भड़का गया, यह राम जाने. मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जब-जब सरस्वती के प्रवाह में बहा जा रहा होता हूँ, तो कवि की गर्जना सुनाई पड़ती है- वह है- वह है- वह है- वह है- वह है- वह-!!!

(जानकीवल्लभ शास्त्री की पुस्तक—‘नाट्यसम्राट श्री पृथ्वीराज कपूर’ से)
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Thursday 22 January 2015

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की कविताएँ


माघ शुक्ल द्वितीया (२२-१-२०१५, जन्मदिन पर)
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!

डालियों से फूल झर-झर झर रहे हैं,
तर रहे हैं, बिखर-बिखर निखर रहे हैं,
कौन अंचल दिग्वधू का भर दिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!

मंजरित वन, पिन्जरित तन, गुंजरित मन,
और सौरभ-भरित वातावरण उन्मन,
कूकती कोयल कि जैसे मधु पिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!

चकित हो चंचल चराचर देखता हूँ,
फिर स्वयं में लौट कर कुछ लेखता हूँ,
सर्ग को कि निसर्ग मुट्ठी में लिए है!!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!

विधि- निषेध स्वयं-रचित है जाल ही क्या?
सत्य यमुना-पुलिन-तरुण तमाल ही क्या?
नीति आहत, नियति शत जीवन जिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!







बाँसुरी
किसने बाँसुरी बजाई?

जनम-जनम की पहचानी-
वह तान कहाँ से आई?
अंग-अंग फूले कदम्ब-सम
साँस-झकोरे झूले,
सूखी आँखों में यमुना की-
लोल लहर लहराई!

किसने बाँसुरी बजाई?
जटिल कर्म-पथ पर थर-थर-थर
काँप लगे रुकने पग,
कूक सुना सोये-सोये-से
हिय में हूक जगाई!

किसने बाँसुरी बजाई?
मसक-मसक रहता मर्म-स्थल,
मर्मर करते प्राण,
कैसे इतनी कठिन रागिनी
कोमल सुर में गाई!

किसने बाँसुरी बजाई?
उतर गगन से एक बार-
फिर पीकर विष का प्याला,
निर्मोही मोहन से रूठी
मीराँ मृदु मुस्काई!
किसने बाँसुरी बजाई?
 






3
भारतीवसन्‍तगीति:

निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।
मृदुं गाय गीतिं ललित-नीति-लीनाम्।।
मधुरमंजरीपिंजरीभूतमाला:, वसन्‍ते लसन्‍तीह सरसा रसाला:;

कलापा: सकलकोकिलाकाकलीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

वहति मन्‍दमन्‍दं सनीरे समीरे, कलिन्‍दात्‍मजायास्‍सवानीरतीरे;

नतां पंक्तिमालोक्‍य मधुमाधवीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

चलितपल्‍लवे पादपे पुष्‍पपुंजे, मलयमारुतोच्‍चुम्बिते मंजुकुंजे;

स्‍वनन्‍तीन्‍ततिम्‍प्रेक्ष्‍य मलिनामलीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

लतानां नितान्‍तं सुमं शान्तिशीलम्, चलेदुच्‍छलेत्‍कान्‍तसलिलं सलीलम्-

तवाकर्ण्‍य वाणीमदीनां नदीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।




पृथवीराज कपूर के दो पत्र शास्त्रीजी के नाम
कवि,
तुम तुम ही हो! पद्य क्या और गद्य क्या, - तुम्हें दोनों पर उबूर हासिल है। रात सोने से पहले ‘स्मृति के वातायन’ में रोज़ झाँकता ही हूँ, सोते में भी उन्हीं खिडकियों में झाँकता फिरता हूँ।

अब कहीं जाकर यह रहस्‍य खुला है कि तुम्‍हारी रचनाओं में इतना रस, यह दर्द, यह सोज, यह कैफ, यह सुरूर, यह बुलंदियाँ, यह गहराइयाँ कहाँ से आती हैं। मनुष्‍य तो एक तरफ, तुमने तो पशु-पक्षियों की पी‍ड़ाओं का भी गरल पी रखा है, तभी तो तुम्‍हारी लेखनी से अमृत चूता है।


     
पृथ्‍वीराज कपूर
2.
पृथ्‍वी झोंपड़ा
जानकी कुटीर
जुहू- बंबई 54
07.03.1971
कवि,
      सस्‍नेह, सादर वन्‍दे !
      आशा है, आपकी यात्रा सुख-पूर्वक बीती होगी, और इस वक्‍त तक आप निराला निकेतन में पहुँच कर बहू जी और उन सब आश्रम-वासियों के लिए सुख का बाइस बन रहे होंगे।
      इधर यह आलम है कि फारसी का वह शेर बार-बार दिलो-दिमाग में घूम-घूम जाता है:
      हैफ दर चश्‍मे जदन सोहबते यार आखिर शुद
      रूए गुल सेर न दीदम के बहार आखिर शुद !’
      आखिर आँख झपकने में मित्र की मुलाकात समाप्‍त हो गई। अभी जी भर के फूल को देख भी न पाए थे कि बहार खत्‍म हो गई।
      रात के साढ़े बारह बज रहे हैं, मैं यह पत्र लिख रहा हूँ। आज शूटिंग न थी। कल भी छुट्टी रही, कि यहाँ वोटिंग का दिन था। मैं सबेरे ही माटुंगा चला गया। रमा जी, कृपाराम जी और उनकी पत्‍नी प्रभाजी को साथ लेकर वोट डालने गए। वहाँ से लौट कर माटुंगा में ही दोपहर का भोजन किया। वहीं सो गया। शाम को चाय पी। और साढ़े सात बजे वहाँ से चल कर झोंपड़े में लौट आया।
      कल सुबह आर.के. स्‍टूडियो में नागपंचमी की शूटिंग में काम करने जाऊँगा। मंगल और बुध को भी। बृहस्‍पतिवार को एक पंजाबी तस्‍वीर की शूटिंग है। बारह को होली की छुट्टी होगी। तेरह को डब्‍बू की कल आज और कल की शूटिंग में शामिल रहूँगा। चौदह की छुट्टी, फिर पन्‍द्रह से 22 तक डब्‍बू की शूटिंग और 23 को बंगलौर चला जाऊँगा। 31 को वहाँ से लौटूँगा।
      4 और 5 को रमेश सेहगल की नई तस्‍वीर की शूटिंग थी। ईश्‍वर-कृपा से तबीयत अभी तक ठीक है अब वह खुद ही तो देखरेख की बागडोर संभाले हुए हैं। बाकी आपके पत्र आने पर। प्‍यार और प्‍यार-भरी दुआओं के साथ आप दोनों के लिए –
                              पृथ्वी





Monday 5 January 2015

पुरस्कार विवाद : आभासी दुनिया की तुरंता और अविचारित कार्रवाई

रमेशचंद्र शाह को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला तो हिंदी की आभासी दुनिया में हंगामा हो गया | बधाइयाँ कम मिलीं, लानत-मलामत ज्यादा हुई | एक प्रलापी ने इसे ‘साहित्य का अपमान’ घोषित कर दिया | फिर क्या था, उनके फेसबुक मित्र शाह के लिए गाली-गलौज पर उतर आए | उन टिप्पणीकारों को पढ़कर लगा कि उनमें से शायद ही किसी ने शाह को पढ़ा हो | शाह को तो भला-बुरा कहा ही गया, लपेटे में अशोक वाजपेयी और उनका ‘गिरोह’ भी आया | आलोचक वीरेन्द्र यादव ने धर्म और साहित्य से सम्बंधित शाह का  एक पुराना बयान उठाया और आभासी दुनिया के सामने प्रश्न की तरह रख दिया- “अभी-अभी साहित्य अकादेमी से सम्मानित आदरणीय रमेशचंद्र शाह जी का कहना है कि- ‘साहित्यिक कृति के कालजयित्व की कसौटी अंततः धार्मिक मूल्य-चेतना ही होगी’ ......(बहुवचन-1, पृष्ठ- 272) ......क्या सचमुच ?” इस ‘अभी-अभी’ पर ध्यान दें | ऐसा आभासित कराया जा रहा है कि जैसे यह बयान अभी-अभी का है | यह  प्रश्ननुमा बयान इस तरह रखा गया है मानो इसी वाक्य पर शाह को पुरस्कार मिला है | उसके बाद तो उनके फेसबुक मित्रों की ओर से उसी एक वाक्य के आधार पर शाह पर दनादन हथगोले फेंके जाने लगे | लगा यह किसी लेखक पर नहीं, आसाराम टाइप किसी तथाकथित धार्मिक व्यक्ति पर चर्चा हो रही है | उस चर्चा में शाह की कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि का कहीं कोई सन्दर्भ नहीं था | सत्यमित्र दुबे ने शाह के परिप्रेक्ष्य को सही करने की कोशिश की | उन्होंने कहा कि  शाह के सोच पर गाँधी, अरविन्द, लोहिया, जयप्रकाश आदि का असर है, साहित्य में वे  अज्ञेय, निर्मल आदि को महत्व देते हैं और आलोचना में विजयदेव नारायण साही को | पर दुबे का यह प्रयास शाह को वीरेन्द्र यादव और उनके मित्रों की निगाह में सही परिप्रेक्ष्य नहीं दिला सका | जब कोई किसी को अपने एजेंडे के अनुसार सिद्ध करने पर तुला हो तो उसका कोई क्या कर लेगा ! चूँकि शाह को एक धार्मिक व्यक्ति सिद्ध करना था लेकिन उनका सम्बन्ध लोहिया से जोड़ा जा रहा था, इसीलिए वीरेंद्र यादव को जरूरी लगा कि मूल स्रोत यानी लोहिया की धार्मिकता को ही सांप्रदायिक सिद्ध कर दिया जाए | लोहिया में जब उन्हें कुछ नहीं मिला, तो उन्होंने दूधनाथ सिंह के उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ के नायक तत्सत पाण्डे के कथन को उद्धृत कर दिया-.... “लोहिया की दो नाड़ियां सदा से हिंदुत्व की ओर जाती हैं | उनकी इड़ा-पिंगला में राम-कृष्ण-शिव तथा पौराणिक चिंतन का जो कचरा बहता रहता है वह उन्हें सावरकर के अधिक निकट ले जाता है,नेहरु से कम | कांग्रेस-सोशलिज्म की धार सिर्फ उनकी तीसरी नाड़ी में बहती है जब वे अगड़ों-पिछड़ों की बात करते हैं, जब वे कहते हैं, ‘भारत में जातियां ही वर्ग हैं |’ लोहिया और जयप्रकाश दोनों ही गांधी जी के धर्म-तत्व के उत्तराधिकारी हैं |  महात्मा जी के व्यक्तित्व का प्रसार तो सिर्फ नेहरु में दिखाई पड़ता है ....इसीलिए लोहिया के अधिकांश अनुयायी एक-न-एक दिन धर्मतत्ववादियों के साथ चले जायेंगे,अंततः ‘हिन्दू’ हो जायेंगे |” यह कैसी तर्क-पद्धति है कि लोहिया को एक  मार्क्सवादी लेखक के उपन्यास के जरिये जाना जाए ? क्या वीरेन्द्र यादव यह बताने की कृपा करेंगे कि  लोहिया और जयप्रकाश अपने किस आचरण और किस लिखित या अलिखित वक्तव्य के लिए सांप्रदायिक हैं ? यह कैसी समझ और रणनीतिक चतुराई है भाई ! दुनिया को बनाने चले थे दोस्त, अपने ही दोस्त दुश्मन बन बैठे !
लोहिया को मैंने भी पढ़ा है | राम, कृष्ण, शिव आदि पर लिखने के बावजूद कहीं भी वे सांप्रदायिक नहीं हैं | लोहिया तो मनुष्य-मात्र की एकता के और विश्व नागरिकता के समर्थक हैं | यह सही है कि गैर कांग्रेसवाद के नारे के साथ उन्होंने जो कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाया था, उसमें जनसंघ भी था | 1967 में नौ राज्यों में पहली बार जो गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं, उनमें भी जनसंघ शामिल था | लेकिन बिहार में उस सरकार में जनसंघ के साथ कम्युनिस्ट पार्टी भी थी | मेरा  खयाल है कि यही स्थिति उत्तर प्रदेश में भी थी | जे.पी. आन्दोलन में भी जनसंघ शामिल था | लेकिन जे.पी. के सम्पूर्ण जीवन और लेखन में साम्प्रदायिकता के तत्व नहीं हैं | वीरेन्द्र यादव द्वारा उन्हें गलत ढंग से चतुराई पूर्वक सांप्रदायिक कटघरे में खड़ा किया जाना यह बतलाता है कि अपने को मार्क्सवादी मानने वालों के भीतर लोहिया-जे.पी. के प्रति कितनी घृणा भरी है | 
मैं जे.पी. आदोलन में सक्रिय रहा हूँ | गाँधीवाद के साथ मैंने जे.पी., लोहिया, मार्क्स को भी थोड़ा पढ़ा है | मैं अनीश्वरवादी हूँ | कर्मकांड, ज्योतिष आदि में मेरा विश्वास नहीं हैं, लेकिन मेरी पत्नी धार्मिक हैं | वे पूजा-पाठ करती हैं और मानती हैं कि हमारे घर में जो सुख-शांति है, वह ईश्वर की कृपा से है | मेरे भौतिकवादी सोच का उनके ऊपर कोई असर नहीं है | लेकिन वे मुसलमानों, दलितों आदि से छुआछूत नहीं मानतीं | मेरे मुसलमान-दलित दोस्तों-छात्रों के साथ वे वही व्यवहार करती हैं जो किसी अपनी जाति के व्यक्ति से करती हैं | उनकी आस्तिकता मेरे सामाजिक सरोकारों में बाधक नहीं है | यदि उनकी आस्तिकता-धार्मिकता मेरी सामाजिक परेशानी का सबब नहीं बनती तो मैं ये कैसे मान लूं कि धार्मिक होने मात्र से कोई लेखक अछूत हो गया | नास्तिकता और आस्तिकता किसी लेखक के जेनुइन होने का प्रमाण नहीं हो सकतीं | हाँ, किसी लेखक की धार्मिकता दूसरे सम्प्रदाय के प्रति घृणा फैलाती है, तब वह चिंतनीय और निंदनीय दोनों है | धार्मिकता और धार्मिकता में भी फर्क होता है | गांधी की धार्मिकता और सावरकर की धार्मिकता एक नहीं थी | एक मनुष्य को जोड़ती है, दूसरी भेद करती है | जहाँ  तक मैं जानता हूँ,  शाह जोड़ने वाली धार्मिकता के पक्षधर हैं |    
शाह को पुरस्कार मिला तो मुझे प्रसन्नता हुई | उनसे मेरी दो-चार बार की मुलाकात है- एक बार हैदराबाद में और दो-तीन बार भोपाल में | कभी-कभार फोनाफानी भी हो जाती है | पाठक के रूप में उन्हें  थोड़ा-बहुत पढ़ा है मैंने | व्यक्तिगत जीवन में उनसे कुछ लेना-देना नहीं है | वे लेखन में और उम्र में  मुझसे बड़े हैं | यह शिष्टाचार मैं निभाता हूँ | इसीलिए पुरस्कार मिला तो मैंने फ़ोन करके उन्हें बधाई दी | वे प्रसन्न हुए | प्रसन्न मैं भी हुआ | इसलिए नहीं कि शाह कोई महान लेखक हैं, इसलिए कि एक आदमी जो लगभग पांच दशक से कलम घसीट रहा है, उसका भी सम्मान हुआ- देर से सही | यह ठीक है कि वह अलग रंग का लेखक है, लेकिन है तो साहित्य की दुनिया का ही आदमी | ऐसे अवसर पर जब कि वैचारिक मतभेदों को भुलाकर बधाई देने का शिष्टाचार है, तब कुछ लोगों ने न सिर्फ इसे साहित्य का अपमान बताया बल्कि शाह को एक ‘घटिया’ और ‘वाहियात’ लेखक भी कहा | इतना ही नहीं अपने फेसबुक मित्रों द्वारा शाह को दी गयी गाली को पसंद भी किया | उनकी  कहानी,कविता,आलोचना,उपन्यास आदि पर बहस करने कि जगह उनकी धार्मिकता पर चर्चा होती रही | यह कैसी हिंदी संस्कृति बन रही है ! यह नए जमाने की तथाकथित क्रांतिकारी और मार्क्सवादी आलोचना का नमूना है या आभासी दुनिया की तुरंता और अविचारित  कार्रवाई ,समझ में नहीं आता !
     सिर्फ बयान देकर किसी लेखक को घटिया या सांप्रदायिक बतलाना एक असाहित्यिक कदम है | जो ऐसा बयान देते हैं, उन्हें लिखकर बताना चाहिए कि शाह क्योंकर घटिया और सांप्रदायिक लेखक हैं | उन्हें यह भी बताना चाहिए कि वे कौन-सी चीजें हैं, जिनके कारण कोई लेखक घटिया या उम्दा होता है | किसी को महान या घटिया कहना एक बयान भर कहलाएगा | बयान को तथ्य आधारित होना चाहिए | एजरा पाउंड के अनुसार बयान एक चेक भर है, आप जब चेक काटते हैं तो आपके खाते में उतना पैसा भी  होना चाहिए | शाह प्रथमतः और अंततः लेखक हैं, कोई धार्मिक प्रवक्ता नहीं | उनका अखाड़ा साहित्य है, उनसे लड़ाई उस अखाड़े में ही हो सकती है | आलोचना यदि साहित्य का विवेक है, तो शाह के आलोचकों से यह अपेक्षा है कि वे उस विवेक के तहत साहित्य के अखाड़े में ही उनका मूल्यांकन करें |
शाह के उपन्यासों में ‘गोबर गणेश’ मुझे अच्छा लगता है | वह हिंदी का महान तो नहीं, पर  उल्लेखनीय उपन्यास है | उसमें रचनात्मक ताज़गी है | शाह की कहानियों में अपने ढंग की सामाजिकता है, सांप्रदायिक सदभाव भी है और वंचितों के लिए संवेदना भी | छायावाद और ‘प्रसाद’ पर लिखी उनकी आलोचना महत्वपूर्ण है | शाह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न समर्पित लेखक हैं | उन्होंने विपुल मात्रा में लिखा है | उसमें कुछ अच्छा भी है और कुछ सामान्य भी | मार्क्सवादियों द्वारा उपहास और उपेक्षा का पात्र बनाए जाने के कारण उनके प्रति वे सहज नहीं हैं | उनकी पसंद-नापसंद की अपनी दुनिया है | अज्ञेय, साही, निर्मल आदि को वे अधिक महत्व देते हैं | वे गांधी, अरविन्द, लोहिया आदि के विचारों को अधिक पसंद करते हैं | एक लेखक के रूप में मार्क्सवादी लाइन को नकारने और दूसरी लाइन को चुनने का अधिकार उन्हें है | लोकतंत्र में उन्हें यह अधिकार मिलना ही चाहिए | साहित्य का यह कैसा लोकतंत्र है कि जिसमें अपनी धारा से विपरीत लेखक के लिए जगह नहीं है ? मैं उस दिन की कल्पना नहीं कर सकता जिस दिन हिंदी साहित्य में जैनेन्द्र, अज्ञेय, रेणु, साही, निर्मल आदि नहीं होंगे | यह कैसी मार्क्सवादी समझ है जो हिंदी की विविधता से भरी समृद्धि को ख़त्म करने पर उतारू है ? शाह से उम्र में छोटे और लेखन में भी कमतर लोगों को पहले भी पुरस्कार मिल चुका है | कई वरिष्ठ और अच्छे लोग तब भी छूट गए थे | तब उन वरिष्ठों के लिए हंगामा क्यों नहीं मचाया गया ? क्या इसलिए चुप्पी साध ली गई कि जो पुरस्कृत हो रहे थे, वे अपनी ‘राजनीतिक धारा’ के मेल में थे ?
शाह अज्ञेय की तरह ‘ट्रेंड-सेटर’ लेखक नहीं हैं | ट्रेंड सेटर  लेखक तो यशपाल भी नहीं थे | इससे न तो यशपाल का महत्व कम होता है और न शाह का | यशपाल ने एक तरह की साहित्यिक धारा का विकास किया तो शाह ने दूसरी साहित्यिक धारा का | शाह पर आरोप उनके धार्मिक-सांप्रदायिक रूझान का है | मैंने जहाँ तक पढ़ा है, उन्हें वैसा नहीं पाया | उनकी एक कहानी है- ‘मुहल्ले का रावण’ | यह दशहरे में रावण का पुतला बनाने वाले और अपने मुहल्ले को जीत दिलाने वाले कादिर मियाँ के अकेले पड़ जाने और मुहल्ला से कहीं अनजान शहर में चले जाने की कहानी है | नौ मुहल्लों से रावण के नौ पुतलों का जुलूस निकलता था | रात-रात भर जागकर कादिर मियाँ अपने मुहल्ले के रावण का पुतला बनाते थे | कादिर मियाँ के जाने के बाद उस साल जो जुलूस निकला उसमें सिर्फ आठ रावण थे | कादिर मियाँ के गुम होने के बारे में तरह-तरह कि अफवाहें थीं | लेखक ने कहानी ख़त्म करते हुए लिखा है : “भगवान जाने सच्ची बात क्या थी | मुझे सिर्फ इतना याद है कि उस साल दशहरे में हमारे मुहल्ले का रावण नहीं बना | नौ की जगह सिर्फ आठ रावणों का जुलूस निकला |” इससे पता चलता है कि सांप्रदायिक सद्भाव सिर्फ मार्क्सवादी लेखकों का ही नहीं, शाह सरीखे गैर मार्क्सवादी लेखकों का भी मुख्य एजेंडा है | शाह के पुरस्कृत होने पर नित्यानंद तिवारी समेत अनेक वामपंथी रूझान के वरिष्ठ लेखकों से मेरी बातचीत हुई | उन सबने अकादेमी के इस निर्णय का स्वागत किया | जिन्हें शाह के पुरस्कृत होने पर आपत्ति है, उन्हें फ़तवा जारी करने के पहले इसपर अपने वैचारिक हलके में ही रायशुमारी करा लेनी चाहिए |