रमेशचंद्र शाह को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला तो हिंदी
की आभासी दुनिया में हंगामा हो गया | बधाइयाँ कम मिलीं, लानत-मलामत ज्यादा हुई | एक प्रलापी ने इसे ‘साहित्य
का अपमान’ घोषित कर दिया | फिर क्या था, उनके फेसबुक मित्र शाह के लिए गाली-गलौज
पर उतर आए | उन टिप्पणीकारों को पढ़कर लगा कि उनमें से शायद ही किसी ने शाह को पढ़ा
हो | शाह को तो भला-बुरा कहा ही गया, लपेटे में अशोक वाजपेयी और उनका ‘गिरोह’ भी
आया | आलोचक वीरेन्द्र यादव ने धर्म और साहित्य से सम्बंधित शाह का एक पुराना बयान उठाया और आभासी दुनिया के सामने
प्रश्न की तरह रख दिया- “अभी-अभी साहित्य अकादेमी से सम्मानित आदरणीय रमेशचंद्र
शाह जी का कहना है कि- ‘साहित्यिक कृति के कालजयित्व की कसौटी अंततः धार्मिक मूल्य-चेतना
ही होगी’ ......(बहुवचन-1, पृष्ठ- 272) ......क्या सचमुच ?” इस ‘अभी-अभी’ पर
ध्यान दें | ऐसा आभासित कराया जा रहा है कि जैसे यह बयान अभी-अभी का है | यह प्रश्ननुमा बयान इस तरह रखा गया है मानो इसी
वाक्य पर शाह को पुरस्कार मिला है | उसके बाद तो उनके फेसबुक मित्रों की ओर से उसी
एक वाक्य के आधार पर शाह पर दनादन हथगोले फेंके जाने लगे | लगा यह किसी लेखक पर
नहीं, आसाराम टाइप किसी तथाकथित धार्मिक व्यक्ति पर चर्चा हो रही है | उस चर्चा
में शाह की कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि का कहीं कोई सन्दर्भ नहीं था | सत्यमित्र
दुबे ने शाह के परिप्रेक्ष्य को सही करने की कोशिश की | उन्होंने कहा कि शाह के सोच पर गाँधी, अरविन्द, लोहिया, जयप्रकाश
आदि का असर है, साहित्य में वे अज्ञेय,
निर्मल आदि को महत्व देते हैं और आलोचना में विजयदेव नारायण साही को | पर दुबे का
यह प्रयास शाह को वीरेन्द्र यादव और उनके मित्रों की निगाह में सही परिप्रेक्ष्य
नहीं दिला सका | जब कोई किसी को अपने एजेंडे के अनुसार सिद्ध करने पर तुला हो तो उसका
कोई क्या कर लेगा ! चूँकि शाह को एक धार्मिक व्यक्ति सिद्ध करना था लेकिन उनका
सम्बन्ध लोहिया से जोड़ा जा रहा था, इसीलिए वीरेंद्र यादव को जरूरी लगा कि मूल
स्रोत यानी लोहिया की धार्मिकता को ही सांप्रदायिक सिद्ध कर दिया जाए | लोहिया में
जब उन्हें कुछ नहीं मिला, तो उन्होंने दूधनाथ सिंह के उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ के
नायक तत्सत पाण्डे के कथन को उद्धृत कर दिया-.... “लोहिया की दो नाड़ियां सदा से
हिंदुत्व की ओर जाती हैं | उनकी इड़ा-पिंगला में राम-कृष्ण-शिव तथा पौराणिक चिंतन
का जो कचरा बहता रहता है वह उन्हें सावरकर के अधिक निकट ले जाता है,नेहरु से कम | कांग्रेस-सोशलिज्म
की धार सिर्फ उनकी तीसरी नाड़ी में बहती है जब वे अगड़ों-पिछड़ों की बात करते हैं, जब
वे कहते हैं, ‘भारत में जातियां ही वर्ग हैं |’ लोहिया और जयप्रकाश दोनों ही गांधी
जी के धर्म-तत्व के उत्तराधिकारी हैं | महात्मा
जी के व्यक्तित्व का प्रसार तो सिर्फ नेहरु में दिखाई पड़ता है ....इसीलिए लोहिया
के अधिकांश अनुयायी एक-न-एक दिन धर्मतत्ववादियों के साथ चले जायेंगे,अंततः
‘हिन्दू’ हो जायेंगे |” यह कैसी तर्क-पद्धति है कि लोहिया को एक मार्क्सवादी लेखक के उपन्यास के जरिये जाना जाए
? क्या वीरेन्द्र यादव यह बताने की कृपा करेंगे कि लोहिया और जयप्रकाश अपने किस आचरण और किस लिखित
या अलिखित वक्तव्य के लिए सांप्रदायिक हैं ? यह कैसी समझ और रणनीतिक चतुराई है भाई
! दुनिया को बनाने चले थे दोस्त, अपने ही दोस्त दुश्मन बन बैठे !
लोहिया को मैंने भी पढ़ा है |
राम, कृष्ण, शिव आदि पर लिखने के बावजूद कहीं भी वे सांप्रदायिक नहीं
हैं | लोहिया तो मनुष्य-मात्र की एकता के और विश्व नागरिकता के
समर्थक हैं | यह सही है कि गैर कांग्रेसवाद के नारे के साथ उन्होंने जो
कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाया था, उसमें जनसंघ भी था |
1967 में नौ राज्यों में पहली बार जो गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं,
उनमें भी जनसंघ शामिल था | लेकिन बिहार में उस सरकार में जनसंघ के साथ कम्युनिस्ट
पार्टी भी थी | मेरा खयाल है कि
यही स्थिति उत्तर प्रदेश में भी थी | जे.पी. आन्दोलन में भी जनसंघ शामिल था |
लेकिन जे.पी. के सम्पूर्ण जीवन और लेखन में साम्प्रदायिकता के तत्व नहीं हैं |
वीरेन्द्र यादव द्वारा उन्हें गलत ढंग से चतुराई पूर्वक सांप्रदायिक कटघरे में
खड़ा किया जाना यह बतलाता है कि अपने को मार्क्सवादी मानने वालों के भीतर
लोहिया-जे.पी. के प्रति कितनी घृणा भरी है |
मैं जे.पी. आदोलन में सक्रिय रहा हूँ | गाँधीवाद के साथ
मैंने जे.पी., लोहिया, मार्क्स को भी थोड़ा पढ़ा है | मैं अनीश्वरवादी हूँ |
कर्मकांड, ज्योतिष आदि में मेरा विश्वास नहीं हैं, लेकिन मेरी पत्नी धार्मिक हैं |
वे पूजा-पाठ करती हैं और मानती हैं कि हमारे घर में जो सुख-शांति है, वह ईश्वर की
कृपा से है | मेरे भौतिकवादी सोच का उनके ऊपर कोई असर नहीं है | लेकिन वे
मुसलमानों, दलितों आदि से छुआछूत नहीं मानतीं | मेरे मुसलमान-दलित दोस्तों-छात्रों
के साथ वे वही व्यवहार करती हैं जो किसी अपनी जाति के व्यक्ति से करती हैं | उनकी
आस्तिकता मेरे सामाजिक सरोकारों में बाधक नहीं है | यदि उनकी आस्तिकता-धार्मिकता
मेरी सामाजिक परेशानी का सबब नहीं बनती तो मैं ये कैसे मान लूं कि धार्मिक होने
मात्र से कोई लेखक अछूत हो गया | नास्तिकता और आस्तिकता किसी लेखक के जेनुइन होने
का प्रमाण नहीं हो सकतीं | हाँ, किसी लेखक की धार्मिकता दूसरे सम्प्रदाय के प्रति
घृणा फैलाती है, तब वह चिंतनीय और निंदनीय दोनों है | धार्मिकता और धार्मिकता में
भी फर्क होता है | गांधी की धार्मिकता और सावरकर की धार्मिकता एक नहीं थी | एक
मनुष्य को जोड़ती है, दूसरी भेद करती है | जहाँ
तक मैं जानता हूँ, शाह जोड़ने वाली
धार्मिकता के पक्षधर हैं |
शाह को पुरस्कार मिला तो मुझे प्रसन्नता हुई | उनसे मेरी
दो-चार बार की मुलाकात है- एक बार हैदराबाद में और दो-तीन बार भोपाल में | कभी-कभार
फोनाफानी भी हो जाती है | पाठक के रूप में उन्हें
थोड़ा-बहुत पढ़ा है मैंने | व्यक्तिगत जीवन में उनसे कुछ लेना-देना नहीं है |
वे लेखन में और उम्र में मुझसे बड़े हैं | यह
शिष्टाचार मैं निभाता हूँ | इसीलिए पुरस्कार मिला तो मैंने फ़ोन करके उन्हें बधाई
दी | वे प्रसन्न हुए | प्रसन्न मैं भी हुआ | इसलिए नहीं कि शाह कोई महान लेखक हैं,
इसलिए कि एक आदमी जो लगभग पांच दशक से कलम घसीट रहा है, उसका भी सम्मान हुआ- देर
से सही | यह ठीक है कि वह अलग रंग का लेखक है, लेकिन है तो साहित्य की दुनिया का
ही आदमी | ऐसे अवसर पर जब कि वैचारिक मतभेदों को भुलाकर बधाई देने का शिष्टाचार
है, तब कुछ लोगों ने न सिर्फ इसे साहित्य का अपमान बताया बल्कि शाह को एक ‘घटिया’ और
‘वाहियात’ लेखक भी कहा | इतना ही नहीं अपने फेसबुक मित्रों द्वारा शाह को दी गयी गाली
को पसंद भी किया | उनकी कहानी,कविता,आलोचना,उपन्यास आदि पर बहस करने कि
जगह उनकी धार्मिकता पर चर्चा होती रही | यह कैसी हिंदी संस्कृति बन रही है ! यह नए
जमाने की तथाकथित क्रांतिकारी और मार्क्सवादी आलोचना का नमूना है या आभासी दुनिया
की तुरंता और अविचारित कार्रवाई ,समझ में
नहीं आता !
सिर्फ बयान देकर किसी लेखक को
घटिया या सांप्रदायिक बतलाना एक असाहित्यिक कदम है | जो ऐसा बयान देते हैं, उन्हें
लिखकर बताना चाहिए कि शाह क्योंकर घटिया और सांप्रदायिक लेखक हैं | उन्हें यह भी
बताना चाहिए कि वे कौन-सी चीजें हैं, जिनके कारण कोई लेखक घटिया या उम्दा होता है
| किसी को महान या घटिया कहना एक बयान भर कहलाएगा | बयान को तथ्य आधारित होना
चाहिए | एजरा पाउंड के अनुसार बयान एक चेक भर है, आप जब चेक काटते हैं तो आपके
खाते में उतना पैसा भी होना चाहिए | शाह
प्रथमतः और अंततः लेखक हैं, कोई धार्मिक प्रवक्ता नहीं | उनका अखाड़ा साहित्य है,
उनसे लड़ाई उस अखाड़े में ही हो सकती है | आलोचना यदि साहित्य का विवेक है, तो शाह
के आलोचकों से यह अपेक्षा है कि वे उस विवेक के तहत साहित्य के अखाड़े में ही उनका मूल्यांकन
करें |
शाह के उपन्यासों में ‘गोबर गणेश’ मुझे अच्छा लगता है | वह हिंदी
का महान तो नहीं, पर उल्लेखनीय उपन्यास है
| उसमें रचनात्मक ताज़गी है | शाह की कहानियों में अपने ढंग की सामाजिकता है, सांप्रदायिक
सदभाव भी है और वंचितों के लिए संवेदना भी | छायावाद और ‘प्रसाद’ पर लिखी उनकी
आलोचना महत्वपूर्ण है | शाह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न समर्पित लेखक हैं | उन्होंने
विपुल मात्रा में लिखा है | उसमें कुछ अच्छा भी है और कुछ सामान्य भी | मार्क्सवादियों
द्वारा उपहास और उपेक्षा का पात्र बनाए जाने के कारण उनके प्रति वे सहज नहीं हैं |
उनकी पसंद-नापसंद की अपनी दुनिया है | अज्ञेय, साही, निर्मल आदि को वे अधिक महत्व
देते हैं | वे गांधी, अरविन्द, लोहिया आदि के विचारों को अधिक पसंद करते हैं | एक
लेखक के रूप में मार्क्सवादी लाइन को नकारने और दूसरी लाइन को चुनने का अधिकार
उन्हें है | लोकतंत्र में उन्हें यह अधिकार मिलना ही चाहिए | साहित्य का यह कैसा
लोकतंत्र है कि जिसमें अपनी धारा से विपरीत लेखक के लिए जगह नहीं है ? मैं उस दिन की
कल्पना नहीं कर सकता जिस दिन हिंदी साहित्य में जैनेन्द्र, अज्ञेय, रेणु, साही,
निर्मल आदि नहीं होंगे | यह कैसी मार्क्सवादी समझ है जो हिंदी की विविधता से भरी
समृद्धि को ख़त्म करने पर उतारू है ? शाह से उम्र में छोटे और लेखन में भी कमतर लोगों
को पहले भी पुरस्कार मिल चुका है | कई वरिष्ठ और अच्छे लोग तब भी छूट गए थे | तब
उन वरिष्ठों के लिए हंगामा क्यों नहीं मचाया गया ? क्या इसलिए चुप्पी साध ली गई कि
जो पुरस्कृत हो रहे थे, वे अपनी ‘राजनीतिक धारा’ के मेल में थे ?
शाह अज्ञेय की तरह ‘ट्रेंड-सेटर’ लेखक नहीं हैं | ट्रेंड सेटर लेखक तो यशपाल भी नहीं थे | इससे न तो यशपाल का
महत्व कम होता है और न शाह का | यशपाल ने एक तरह की साहित्यिक धारा का विकास किया
तो शाह ने दूसरी साहित्यिक धारा का | शाह पर आरोप उनके धार्मिक-सांप्रदायिक रूझान
का है | मैंने जहाँ तक पढ़ा है, उन्हें वैसा नहीं पाया | उनकी एक कहानी है-
‘मुहल्ले का रावण’ | यह दशहरे में रावण का पुतला बनाने वाले और अपने मुहल्ले को
जीत दिलाने वाले कादिर मियाँ के अकेले पड़ जाने और मुहल्ला से कहीं अनजान शहर में
चले जाने की कहानी है | नौ मुहल्लों से रावण के नौ पुतलों का जुलूस निकलता था |
रात-रात भर जागकर कादिर मियाँ अपने मुहल्ले के रावण का पुतला बनाते थे | कादिर मियाँ
के जाने के बाद उस साल जो जुलूस निकला उसमें सिर्फ आठ रावण थे | कादिर मियाँ के
गुम होने के बारे में तरह-तरह कि अफवाहें थीं | लेखक ने कहानी ख़त्म करते हुए लिखा
है : “भगवान जाने सच्ची बात क्या थी | मुझे सिर्फ इतना याद है कि उस साल दशहरे में
हमारे मुहल्ले का रावण नहीं बना | नौ की जगह सिर्फ आठ रावणों का जुलूस निकला |” इससे
पता चलता है कि सांप्रदायिक सद्भाव सिर्फ मार्क्सवादी लेखकों का ही नहीं, शाह
सरीखे गैर मार्क्सवादी लेखकों का भी मुख्य एजेंडा है | शाह के पुरस्कृत होने पर नित्यानंद
तिवारी समेत अनेक वामपंथी रूझान के वरिष्ठ लेखकों से मेरी बातचीत हुई | उन सबने
अकादेमी के इस निर्णय का स्वागत किया | जिन्हें शाह के पुरस्कृत होने पर आपत्ति
है, उन्हें फ़तवा जारी करने के पहले इसपर अपने वैचारिक हलके में ही रायशुमारी करा
लेनी चाहिए |
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