Tuesday 9 October 2018

राजकिशोर :सबसे योग्य और नैतिक आवाज




मूल्य और विचार आधारित पत्रकारिता की जो परंपरा रही, उसके संभवतः अंतिम और बड़े नाम राजकिशोर थे. उनकी उपस्थिति मूल्य आधारित पत्रकारिता की याद दिलाती थी. उन्होंने मूल्यों और विचारों से कभी समझौता नहीं किया. हमारे समय में राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी और राजकिशोर हिंदी पत्रकारिता की ऐसी त्रयी थे जिनके होने मात्र से मूल्यों और विचारों के बचे रहने का भरोसा जगता था. तीनों की अलग-अलग शैलियाँ और अंदाज थे. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इनके लिखे में हिंदी पत्रकारिता की सबसे नैतिक और योग्य आवाज सुनाई देती थी. माथुर साहब और प्रभाष जोशी तो प्रतिष्ठित राष्ट्रीय दैनिकों के संपादक हुए और उन्हें वह सबकुछ मिला जो उन जैसे बड़े पत्रकारों को मिलना चाहिए. लेकिन इस मामले में राजकिशोर बड़भागी न रहे. वे किसी बड़े दैनिक के संपादक न बन सके. दैनिक पत्रों के वे संपादक मंडल में ही रहे. कुछ मासिक पत्रिकाओं का संपादन उन्होंने जरुर किया. वे जिस भी पत्र में होते, संपादक या उप-संपादक के रूप में, उनके होने मात्र से उसमें एक नयी चमक आ जाती थी.
            कलकत्ता में जन्मे (2 मार्च 1947), पले, बढ़े और शिक्षित हुए. राजकिशोर 1990 में राजेन्द्र माथुर के बुलावे पर दिल्ली आए और ‘नव भारत टाइम्स’ में सहायक संपादक के रूप में काम शुरू किया. उसके पहले कलकत्ता के ‘रविवार’ साप्ताहिक और ‘परिवर्तन’ का वे संपादन कर चुके थे. इन पत्रों के जरिए वे दृष्टि संपन्न और विचारशील पत्रकार के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे. लेकिन दिल्ली आए तो दिल्ली के होकर ही रहे. कलकत्ता के लिए कभी हाय-हाय नहीं किया, जैसा कि हम आमतौर पर अपनी छुटी हुई जगहों के लिए किया करते हैं. दिल्ली में अलग तरह का संघर्ष और चुनौतियाँ थीं, लेकिन यहाँ काम करने का अवसर भी था. ‘नव भारत टाइम्स’ से विद्यानिवास मिश्र के कार्यकाल में हटा दिए जाने के बाद उन्होंने संघर्ष भी खूब किया और लिखा भी खूब. ‘आज के प्रश्न’ श्रृंखला में लगभग दो दर्जन पुस्तकों का संपादन किया. साथ ही ‘सुनंदा की डायरी’ (उपन्यास), ‘एक अहिंदू का घोषणा-पत्र’, ‘एक भारतीय के दुःख’, गाँधी मेरे भीतर’, ‘स्त्रीत्व का दुःख’ आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की. अभी बड़ी संख्या में उनका लेखन बिखरा हुआ है. इसे संकलित और प्रकाशित करने से हिंदी की वैचारिक दुनिया समृद्ध होगी.
            राजकिशोर के वैचारिक मानस के निर्माण में भारत के समाजवादी आंदोलन, विशेषकर राममनोहर लोहिया के विचारों का गहरा प्रभाव था. लोहिया की मौलिकता और गद्य का जो खुरदुरापन था, उससे राजकिशोर का लेखकीय व्यक्तित्व बना था. वे दूसरे लोहियावादियों की तरह मार्क्स के विरोधी नहीं थे. वे मार्क्स से जरूरत पड़ने पर वैचारिक ऊर्जा लेते थे. लेकिन भारत के कठमुल्लावादी कम्युनिस्टों को उन्होंने कभी पसंद नहीं किया. इधर के वर्षों में डॉ. अम्बेडकर के विचारों से वे प्रभावित हुए थे और भारतीय समाज में दलित समस्या  के समाधान की दिशा में बोलने और लिखने लगे थे. लेकिन वहाँ भी वे किसी वैचारिक जड़ता को पसंद नहीं करते थे. ‘आज के प्रश्न’ श्रृंखला में ‘दलित राजनीति की समस्याएं’ नामक पुस्तक के जरिए उन्होंने दलित राजनीति को भी आलोचनात्मक ढंग से देखा. उन्होंने अपने संपादाकीय में लिखा कि- “दलित राजनीति को अक्सर दलित आन्दोलन का पर्याय मान लिया जाता है. इसमें क्या शक है कि दलित आन्दोलन न होता, तो दलित राजनीति कहाँ से आती. लेकिन इसमें शक है कि दलित राजनीति दलित आन्दोलन को आगे बढ़ा रही है. महाराष्ट्र में डॉ. अम्बेडकर की जुझारू राजनीतिक परंपरा तो ख़त्म-सी हो ही चली है, उत्तर भारत में बहुजन समाजवादी पार्टी पूरी तरह से नैतिक और वैचारिक क्षय की शिकार है. आत्म-सम्मान के लिए संघर्षरत दलित मध्यवर्ग के आन्दोलन से निकली बसपा की आकांक्षा यह थी कि पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को अपने भीतर समेटते हुए वह भारत के वंचित शोषित बहुजन का प्रतिनिधित्व करेगी. लेकिन आज न वह केवल दलितों की पार्टी बन गई है, बल्कि दलित राजनीति को किसी ऊंचाई पर ले जाने में असमर्थ दिखाई देती है”. राजकिशोर जी यह मानते थे कि दलित ही  अपनी समस्याओं को ठीक से समझ सकते हैं, वे दलित राजनीति का भी अच्छा विश्लेषण कर सकते हैं . लेकिन इसी के साथ वे यह भी मानते थे कि दलितों के संघर्ष में गैर-दलितों को भी सहकार करना चाहिए. उनका विश्वास था कि अन्य लोगों द्वारा की गई समीक्षा के प्रकाश में दलित समुदाय अपनी राजनीति का वस्तुपरक विश्लेषण कर सकता है. इसीलिए उन्होंने अपनी किताब में दलित विचारकों के साथ गैर-दलितों को भी शामिल किया.
            राजकिशोर जी धुंआधार लिखने वाले विचारक पत्रकार थे. ‘नवभारत टाइम्स’ से हटने के बाद उनके लेखन में और गति आई. वे हम जैसे मित्रों से भी निरंतर लिखने की अपेक्षा करते थे. वे जिस पत्रिका से जुड़े होते थे, उसमें लिखने के लिए हमसे भी आग्रह करते थे. उनके पास विषय और शीर्षक के नएपन की भरमार थी. वे कोई फड़कता  हुआ रचनात्मक शीर्षक सुझाते और लिखने का आग्रह करते. उनके आग्रह पर कभी-कभी लिखा भी मैंने. लेकिन कभी-कभी असमर्थता भी व्यक्त की कि लिखने के लिए सन्दर्भ पुस्तकों को देखना भी जरूरी है और उसके लिए अभी मेरे पास समय नहीं है तो वे हमें झकझोरते कि लिखना तो आनंद का काम है, टिप्पणियाँ स्मृतियों के सहारे लिखनी चाहिए, रेफरेंस की जरुरत अकादमिक लेखन में होनी चाहिए. लिखना उनके लिए आनंद का काम इसलिए था कि वे लिखने को सामाजिक और बौद्धिक एक्टिविजम समझते थे.
            राजकिशोर का लेखन साहित्यिक संवेदना और अस्मितामूलक विमर्शों की चेतना से लैश था. वे गरीबी, जाति, स्त्री, रंग आदि के प्रश्न की अनदेखी करके लिखने वाले लेखक नहीं थे. उनके लिखे में साहित्यिक सन्दर्भ भी बार-बार आते हैं जिसके कारण उनके लेखों का प्रभाव कई गुणा बढ़ जाता था. वे हिंदी के बहुपठित पत्रकार-लेखक थे. हिंदी समेत दुनिया के अनेक लेखकों-विचारकों के सन्दर्भ उनके लेख में आते जो उनकी व्यापक अध्ययनशीलता का प्रमाण देते थे. भाषा की शुद्धता और समझ को लेकर वे बहुत आग्रहशील थे. वे अपने नजदीकी मित्र के लेखन में भी भाषाई दोष को नजरंदाज नहीं करते थे. वे जिस किसी नए लेखक से लिखने का आग्रह करते, यह पहले जाँच लेते कि उसकी भाषाई क्षमता कैसी है. इस अर्थ में वे पुरानी परंपरा के बहुपठित और बहुभाषी पत्रकारों की जमात के आदमी थे. उनसे जैसी भी असहमति हो, ज्ञान और भाषा की उनकी समझ से असहमति किसी की नहीं होती थी.
            मित्रवत्सलता राजकिशोर के व्यक्तित्व का ऐसा गुण था जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. मेरी एक किताब का पुस्तक मेले में लोकार्पण होना था, मैंने कहा कि आप ही उसका लोकार्पण कर दें. वे आने की मनःस्थिति में नहीं थे, लेकिन मेरे आग्रह पर आए और खूब बोले भी. अगले सप्ताह एक अखबार में ‘मेले में गोपेश्वर’ नाम से टिप्पणी भी लिखी जो एक तरह से मेरी किताब की समीक्षा थी. समीक्षा का यह उनका अपना ढंग था. वह साहित्यिक कम सामाजिक महत्त्व पर अधिक जोर देने वाला था.
            इधर के दिनों में वे समाजवादी आन्दोलन के बिखर जाने से बहुत बेचैन थे. फोन पर या मिलने पर राजनीति और समाज संबंधी अपनी बेचैनी भी शेयर करते थे. इसी सिलसिले में वे कई बार मेरे घर भी आए. एक बार उनके साथ विमला भाभी भी थीं. वे चाहते थे कि दिल्ली में गाँधी, लोहिया, अम्बेडकर आदि की वैचारिकी से प्रभावित जो बुद्धिजीवी हैं, जो कठमुल्ले नहीं हैं, उनका एक मंच होना चाहिए. उन्हीं की पहल पर कुछ साथियों की मदद से ‘संवेदन’ नाम का एक वैचारिक मंच बना जिसके जरिए कुछ अच्छे आयोजन हमने दिल्ली में किये. राजकिशोर जी हर आयोजन में उत्साहपूर्वक शामिल हुए. इधर के दिनों में देश और समाज में जो राजनीतिक सामाजिक स्थितियां हो गई हैं उससे वे बहुत बेचैन थे. वे कहते थे कि इन हालातों से कोई पार्टी ईमानदारीपूर्वक नहीं लड़ रही है. वे अक्सर कहते कि हमलोगों को एक नए राजनीतिक दल का गठन करना चाहिए और सही परिवर्तन के लिए संघर्ष करना चाहिए. हम उन्हें बताते कि राजनीतिक दल का गठन हम आप जैसे बुद्धिजीवियों से संभव नहीं है, उसकी अनेक कठिनाइयां हैं तब भी वे राजनीतिक दल बनाने की अपनी बात पर अड़े रहते थे. उनके आग्रह पर जब मुझ जैसे साथियों ने ध्यान नहीं दिया, तब उनका जोर इस बात पर पड़ा कि हमें एक ऐसी वैचारिक पत्रिका निकालनी चाहिए जिसकी प्रसार संख्या ज्यादा हो. इसके जरिए वे जन सामान्य को वैचारिक रूप से समृद्ध करने का भाव रखते थे. पत्रिका का निकलना शायद संभव होता तबतक उनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा.
            राजकिशोर जी की मित्रवत्सलता भी बहुत रचनात्मक होती थी. तीन साल पहले मेरे जन्मदिन से एक दिन पूर्व उन्होंने फोन किया कि जन्मदिन पर मैं क्या कर रहा हूँ. मैंने जब उन्हें बताया कि मैं अपना जन्मदिन नहीं मनाता हूँ तब उन्होंने एक बहुत ही रचनात्मक सुझाव दिया. उन्होंने कहा कि कल के दिन मैं आपके साथ रहना चाहता हूँ. आप अपने किसी वैचारिक हीरो पर बोलिए. मैंने कहा कि यह संभव है लेकिन तब जब आप उपस्थित रहेंगे. मैंने कहा कि मैं राममनोहर लोहिया की संस्कृति चिंता पर बोलूँगा. वे सहर्ष आए और दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर छात्रावास में हमलोग मिले. दिल्ली विश्वविद्यालय के अनेक अध्यापकों और छात्रों के बीच लोहिया की संस्कृति चिंता पर बात करते हुए और चाय पीते हुए उनकी अध्यक्षता में मेरा 60वाँ जन्मदिन मनाया गया. उन्होंने उस दिन एक महत्त्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा कि यदि हमें अपना जन्मदिन मनाना ही है तो हमें उस दिन उस आदमी को याद करना चाहिए जिनका हमारे निर्माण में महत्त्व है. 
            खुरदुरापन राजकिशोर जी के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा था. रहन-सहन से लेकर बोली-बानी और लेखन सब में खुरदुरापन था. वैसा ही खुरदुरापन जैसा गाँधी युगीन खादी में हुआ करता था. अपने लेखन और व्यक्तित्व में इसी खुरदुरे सौंदर्य को उन्होंने जीवन भर बनाए रखा.  इसी कारण समाज का अंतिम जन उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा रहा. लिखा तो उन्होंने कई विधाओं में लेकिन सबसे अधिक याद किया जाएगा उनका वह वैचारिक लेखन जो गाँधी, लोहिया और अम्बेडकर के जादुई स्पर्श से नई चमक के साथ हिंदी समाज को प्रकाशित करता रहा.


Saturday 18 August 2018

कविता परोक्ष की विधा है


तात्कालिक किसी घटना या प्रसंग से कविता का क्या सम्बन्ध है? कविता क्या एक तरह राजनीतिक बयान है जिसकी दरकार किसी नेता से समाज को है? क्या हर समय घट रही किसी घटना पर कवि का कविता में बोलना उचित है? ये सारे प्रश्न इसलिए कि इधर सोशल मीडिया पर दिन-प्रतिदिन की घटनाओं पर आधारित कविताओं की भरमार है. सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का बड़ा मंच है जो हर किसी को उपलब्ध है. वहाँ कोई सम्पादक नहीं जो कविता के गुण-दोष बताए. यहाँ जगह की कमी नहीं; समय का बंधन नहीं. सो जब लिखें, जितना लिखें छपने की सुविधा है. यहाँ किसी संपादक की तथाकथित तानाशाही की जगह उड़ान के लिए खुला आकाश है. इस कारण ऐसी कविताएँ भी आती हैं जो किसी सामयिक घटना पर कवि की प्रतिक्रिया भर होती है. लोगों की शिकायत रहती है कि उस प्रतिक्रिया को कविता बन जाने लायक जिस समय और संवेदना की दरकार है वह उसे नहीं मिली है.
            कविता के इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि कविता ने तात्कालिकता से कभी मुंह नहीं मोड़ा लेकिन उससे उसकी दूरी हमेशा बनी रही है. भारत में वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ कहा जाता है. माना जाता है कि कविता की शुरुआत उन्हीं से हुई. एक घटना की चर्चा की जाती है कि मिथुनरत क्रौंच पक्षी का एक बहेलिया द्वारा वध देखकर महर्षि वाल्मीकि की करुणा उमड़ पड़ी और उनके मुंह से एक श्लोक फुट पड़ा. ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः...’ कहा गया कि यह छंदबद्ध कविता है और वाल्मीकि को महाकाव्य लिखना चाहिए. वाल्मीकि ने काव्य रचना के लिए नायक की खोज शुरू की. एक दिन उन्होंने महर्षि नारद के सामने नायक संबंधी जिज्ञासा प्रकट की- “को न्वस्मिन साम्प्रतं लोके..........” सम्प्रति इस लोक में नायक होने लायक कौन है? नारद द्वारा राम का नाम लेने के बाद उन्होंने ‘रामायण’ की रचना की  और वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ के विशेषण से विभूषित किया गया.
            वाल्मीकि वाले इस प्रसंग से पता चलता है कि तात्कालिक घटनाएँ कविता के लिए प्रेरक होती हैं. लेकिन कविता की संवेदना तक पहुँचने में उसे वक्त लगता है. प्रसाद, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन आदि आधुनिक कवियों ने भी  तात्कालिक घटनाओं पर आधारित कविताएँ लिखी हैं. वे बुरी भी नहीं हैं. उनका भी महत्त्व है. लेकिन इन कवियों की कीर्ति का मूलाधार वे कविताएँ हैं जिनमें प्रत्यक्ष किसी घटना का दवाब नहीं है. ‘सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’ या ‘काले-काले बादल आए, न आए वीर जवाहर लाल’ जैसी निराला की कविताएँ तत्कालीन घटनाओं से प्रभावित कविताएँ हैं.  ये अच्छी हैं लेकिन ‘तुलसीदास’, ‘सरोज स्मृति’, ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘बादल राग’ का जब हम स्मरण करते हैं तो ये कविताएँ हमें नहीं याद आती. भारत विभाजन पर अज्ञेय ने दर्जन भर कविताएँ लिखी हैं. उन कविताओं के जरिए अज्ञेय के सेक्युलर मिजाज और उनके कविकर्म के विस्तार का पता चलता है. पर अज्ञेय को विशिष्ट कवि बनाने में उनकी दूसरी कविताओं की भूमिका है. राजनीतिक घटनाओं पर सर्वाधिक कविताएँ नागार्जुन  ने लिखी हैं. उस कारण उनकी लोकप्रियता भी रही है. लेकिन उनके भी कविकर्म की सार्थकता के लिए उनकी दूसरी कविताएँ देखी जाती हैं. ‘बादल को घिरते देखा है’, ‘कालिदास सच सच बतलाना’, ‘अकाल और उसके बाद’, ‘बहुत दिनों के बाद’ आदि कविताओं की बात ही कुछ और है! बेलछी हत्याकांड पर नागार्जुन ने ‘हरिजन गाथा’ लिखी. ब्रिटेन की रानी के भारत आने की तैयारी में लगी नेहरु सरकार पर व्यंग्य करते हुए ‘आओ रानी हम ढोएंगे पालकी’ कविता लिखी. इन कविताओं के पीछे घटनाएँ हैं लेकिन यहाँ कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं हैं. तात्कालिक प्रतिक्रिया ‘जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतंत्र की’ जैसी कविताओं में है जो जाहिर है उनकी अच्छी कविताओं में नहीं गिनी जातीं.
            ‘प्रार्थना गुरु कबीरदास के लिए’ शीर्षक कविता में विजयदेव नारायण साही जिस ‘दहाड़ते आतंक के बीच फटकार कर सच’ बोलने की बात करते हैं उसके पीछे आपात्कालीन स्थितियों की मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता. यह कविता आज जो स्थिति है उसमें भी प्रासंगिक है. इससे पता चलता है कि किसी कविता का आधार कोई घटना हो सकती है पर वह दीर्घजीवी तभी होगी जब वह उस घटना के पार जाएगी. यानी उसकी गूंजें-अनुगूंजें अपने समय के साथ होने पर भी उसका अतिक्रमण करने में समर्थ होंगी.
            रघुवीर सहाय और धूमिल दोनों राजनीतिक कवि हैं. दोनों ने अपने समय को अपनी कविता में ढाला. दोनों में अपने समय का दवाब तो है लेकिन दोनों में कविता के जरिए तात्कालिकता के अतिक्रमण का कवि कौशल है. फिर भी धूमिल की तुलना में रघुवीर सहाय ज्यादा बड़ा प्रभाव पैदा करते हैं. उनकी कविता ‘रामदास’ को याद कीजिए- ‘रामदास उस दिन उदास था/अंत समय आ गया पास था/उसे बता यह दिया गया था/उसकी हत्या होगी’. यह कविता आँखों देखे रामदास सरीखे किसी गरीब आदमी के जीवन प्रसंग से प्रभावित हो सकती है, लेकिन यह तात्कालिकता का अतिक्रमण करती है और युग व्यापी प्रभाव पैदा करते हुए लोकतंत्र में निस्सहाय आम आदमी का प्रतीक बन जाती है जिसे एक हत्यारा बीच सड़क पर पर दिन दोपहर में मार सकता है. यह आज़ादी के बाद आम आदमी की हालत है. रघुवीर सहाय अपने समय के सच को अपने युग का सच बनाकर कविता में रूपांतरित करने में समर्थ होते हैं. इसलिए उनकी कविता समकालीन भी है और दीर्घजीवी भी. समय का सच हू-ब-हू कविता का सच नहीं होता. समय के सच को कविता का सच बना लेने का हुनर रघुवीर सहाय जैसे कवि के पास खूब है. 1960 के दशक का ‘रामदास’ हमारे समय में हत्यारे के चाक़ू से नहीं मारा जाता. व्यवस्था ने उसे मारने के बहुत ही सूक्ष्म हथियार विकसित कर लिए हैं. इस तरह की विषयवस्तु पर शोर मचाती हुई बहुतेरी कविताएँ मिलेंगी. लेकिन ऐसे भी कवि हैं जो उस समसामयिकता को युग के सच की तरह कविता में प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं. इधर के कवि चन्दन सिंह की एक कविता पर इस प्रसंग में ध्यान जाता है. कविता का शीर्षक है ‘उसकी हत्या में हथियार शामिल नहीं होंगे’. इस कविता में रघुवीर सहाय के काव्य सच का सही अर्थों में विकास दिखाई देता है. यह कविता भी रामदास सरीखे आम आदमी के मारे जाने की कविता है. कविता के प्रारंभिक अंश को देखें- ‘यह तय है कि वह मारा जाएगा/पर, उसकी हत्या में/हथियार शामिल नहीं होंगे/सब्जी काटने से भले ही गंदा हो जाए कोई चाक़ू/उसके खून से तो हरगिज नहीं...किसी दिन वह गाड़ी के नीचे/नहीं आएगा बचकर बगल से गुजरता/उसकी खूबसूरती से मारा जाएगा’. इस कविता में भी तात्कालिकता है लेकिन उसे अतिक्रमित करने का उपक्रम भी है. ‘रामदास’ या इस तरह की कविताएँ न तो कबीर के युग में लिखी जा सकती थीं, न तो निराला के युग में. लेकिन इन कविताओं में तात्कालिकता को अतिक्रमित कर युगव्यापी बनाने की जो तड़प है वही इन्हें समकालीन बनाती है और विशिष्ट भी.
            कविता प्रत्यक्ष की भी विधा है लेकिन वह प्रत्यक्ष से अधिक  परोक्ष की विधा है. वह सामने से जितना कहती है उससे अधिक ओट से कहती है. यूँ तो यह बात साहित्य मात्र पर लागू होती है लेकिन सबसे अधिक कविता पर ही लागू होती है. इसका ध्यान दुनिया के पुराने-नए सभी कवियों ने रखा है. फैज़ का शेर है- ‘वो बात फ़साने में जिसका जिक्र न था/वो बात उन्हें बहुत नागवार गुजरी है’. यह प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष को शायरी में महत्त्व देने की ओर संकेत है. प्रत्यक्ष को परोक्ष बनाने में कविता समय लेती है. इसलिए तात्कालिकता के दवाब में जो कविताएँ लिखी जाएँगी उनका अधिक जोर प्रत्यक्ष पर होगा. प्रत्यक्ष की कविता बयान होगी. यह अलग बात है कि कभी-कभी बयान भी कविता बन जाता है. ऐसी ही एक कविता राकेश रंजन की है- ‘क्या होऊँ’. हमारे समय की सांप्रदायिक समस्या पर एक बयानधर्मी बात कैसे कविता बनती है इसका सुन्दर उदाहरण है यह कविता- ‘हरा होता हूँ/तो हिन्दू मारते हैं/केसरिया होता हूँ तो मुसलमान/हत्यारे और दलाल मारते हैं/सफ़ेद होने पर/ तुम्हीं कहो मेरे देश/क्या होऊँ/जो बचा रहूँ शेष’.

Wednesday 30 May 2018

कथाकार ‘रेणु’: सार्वजनिक उपस्थिति का कलाकार



फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ (4 मार्च 1921-11 अप्रैल 1977) व्यक्ति और रचनाकार दोनों ही रूपों में कलाकार थे. उनसे मिलने पर एक कलाकार से मिलने का सुख मिलता था, उन्हें पढ़कर हम उनकी कला-दृष्टि के कायल थे ही. ऐसे कलाकार लेखक को हमने घनघोर राजनीतिक उथल-पुथल के बीच आन्दोलन करते देखा. हमने देखा 1974-75 के जेपी आन्दोलन में धरना-प्रदर्शन करते, लेखकों को संगठित कर सड़कों-चौराहों पर गोष्ठियां करते, जेल जाते और जेपी के साथ कंधा से कंधा मिलाकर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ते.
          हमें मालूम हुआ कि यह आदमी जैसे पैदायशी कलाकार और किस्सागो है, वैसे ही पैदायशी आंदोलनकारी भी है. स्वतंत्रता आन्दोलन और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में यह जेल जा चुका है, 1950 की नेपाली क्रांति में सशस्त्र विद्रोही के रूप में भाग ले चुका है, समाजवादी आन्दोलन का लड़ाकू सिपाही रह चुका है और अब सम्पूर्ण क्रांति के रूप में बुनियादी परिवर्तन का सपना लिए संघर्षरत है.
          किस्सा कोताह यह कि रेणु जुबानी जमाखर्च क्रांतिकारी कहनेवाले लेखक नहीं थे. वे सचमुच क्रांतिकारी लेखक थे. उन्होंने क्रान्ति-पथ की सारी मुश्किलें झेली थीं, लेकिन उनकी राजनीतिक कीमत कभी नहीं वसूलीं. वे देखने में हमेशा कलाकार जैसा दीखते थे. उन-सी राजनीतिक सक्रियता की तुलना के लिए राहुल सांकृत्यायन और रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे बहुत थोड़े नाम मिलेंगे. ऐसे लेखक ‘थोड़े-थोड़े होते हैं, कम-कम होते हैं’.
          साहित्यिक प्रतिष्ठा अर्जित करनेवाले बहुत लेखक हैं, लेकिन रेणु ने साहित्यिक प्रतिष्ठा के साथ भरपूर सामजिक प्रतिष्ठा भी अर्जित की. जो लोग पूर्णिया, फारबिसगंज और औराही हिंगना गए हैं, उन्हें मालूम है कि कैसे उस जनपद की आहो हवा में रेणु के नाम की गूंज है. जिन्होंने पटना में उन्हें देखा है और जो काफी हाउस की यादगार और जीवंत बैठकी में उनके इर्द-गिर्द रहे हैं, उन्हें उनकी साहित्यिक-सामाजिक हैसियत का पता है. साहित्यिक हलके से लेकर राजनीतिक हलके तक में उनकी जो सार्वजनिक उपस्थिति रही है, वह आज किसी लेखक के प्रसंग में अकल्पनीय लगती है.
          वे ट्रेंड सेंटर कथाकार थे. जिस तरह प्रेमचंद, जैनेन्द्र और अज्ञेय ने हिंदी कथा-साहित्य में युगांतर उपस्थित किया, उसी तरह रेणु के साथ हिंदी कथा साहित्य में नए युग का सूत्रपात हुआ. प्रेमचंद का जैसा व्यापक प्रभाव अपने और आगे के दशकों में दिखा, कुछ वैसा ही रेणु का कथा-प्रभाव आगे के समय को आंदोलित करता रहा और किसी न किसी रूप में अब भी करता है. इस रूप में वे जैनेन्द्र और अज्ञेय से भी आगे हैं. ‘मैला आँचल’ का पहली बार महत्त्व पहचाननेवाले आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने ठीक ही उसे ‘गोदान’ के बाद की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना था और कहा था कि कथा-साहित्य में ‘गोदान’ के बाद जो गत्यवरोध था, वह ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन से दूर हुआ.
          ग्रामांचल पर लिखने के बावजूद रेणु का कथा-साहित्य प्रेमचंद से भिन्न सामाजिक सच, भाषा-शैली और मिजाज का है. उनमें प्रेमचंद की सचाई, अज्ञेय की काव्यात्मकता, गाँव की लोक-लय और बांग्ला कथा-साहित्य खासकर शरतचंद और सतीनाथ भादुड़ी की रागात्मक अनुगूँज तथा परंपरा से प्राप्त किस्सागोई की ताकत भी है जिसके कारण वे हिंदी कथा साहित्य में अपार लोकप्रियता अर्जित करने और युगांतर उपस्थित करने में सक्षम बन सके.
          रेणु का कथा-साहित्य साहित्यिकता और सामाजिकता के सहज मेल का अनुपम उदहारण है. 1942 के भारत छोडो आन्दोलन, नेपाली क्रांति, समाजवादी आंदोलन और जेपी आन्दोलन से गहरे जुड़ाव और उसमें सघन भागीदारी के बावजूद उनका साहित्य राजनीतिक नारेबाजी और मुहावरेबजी से मुक्त है. रेणु हिंदी के ऐसे लेखक थे जिन्हें सही अर्थों में ‘पॉलिटिकल एक्टिविस्ट’ कहा जा सकता है. जेल जाने, धरना-प्रदर्शन में भाग लेने आदि राजनीतिक कार्यों के बावजूद साहित्य रचना को राजनीतिक मुहावरेबाजी से बचा लेने की कला रेणु के यहाँ सर्वोत्तम रूप में विद्यमान है. उनके कथा-साहित्य में ‘सामाजिक धरातल की परतों के भीतर छिपी वैयक्तिक स्वार्थों की टकराहट’ भी है, ‘राजनीतिक दलों की अवसरवादिता’ भी और साथ ही ‘उच्च आदर्शों के पीछे दबी क्षुद्र-ओछी लिप्साएं’ भी. लेकिन रेणु सिर्फ इन्हीं के कारण रेणु नहीं हैं. ये चीजें तो अन्यों के यहाँ भी मिल जाएँगी! इनके साथ रेणु जिस कारण विशिष्ट दर्जा के कथाकार बनते हैं, वह अन्यों के यहाँ नहीं है. उनकी इस विशिष्टता पर ‘परती परिकथा’ के प्रसंग में निर्मल वर्मा ने जो टिपण्णी की है, वह उनके सम्पूर्ण कथा-साहित्य पर लागू होती है. टिपण्णी का एक अंश है: “किन्तु इस कलह-क्लेश के बावजूद परानपुर में पूर्णिमा का चाँद उगता है. लाजमयी और मलारी का गीत-स्वर परती की सफ़ेद बालू पर पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ता है. पाँचों कुंडों में पांच चाँद रात भर झिलमिलाते हैं, शरद की चाँदनी में पहाड़ से उतरनेवाले पक्षियों की पहली पांत उतरती है...चांदनी की यह स्वप्निल संगीतमयता ‘परिकथा’ में आद्योपांत छाई रहती है. तनाव और उल्लास रेणु के कथा साहित्य के ये दो किनारे हैं. इस तनाव और उल्लास के बीच परानपुर के निवासियों की जीवन-धारा अविरल रूप से प्रवाहमान है”.
          उनके साहित्य में राजनीतिक आशय और संकेतों की भरमार है. लेकिन उस पर व्यक्तिगत राजनीति का ‘लाउड’ प्रभाव नहीं है. यह उनके कथा-साहित्य की बड़ी उपलब्धि है जो उन्हें जन और जन-साहित्य का आठों याम जाप करनेवाले कथाकारों से अलग करती है. वे साहित्य में राजनीतिज्ञों की तरह बोलनेवाले और राजनीति में साहित्यक भंगिमा का भ्रम पैदा करनेवाले लेखक नहीं हैं. वे साहित्य के लिए राजनीति से और राजनीति के लिए साहित्य से उर्जा लेते हैं, लेकिन  साहित्य की संवेदना पर राजनीति के शोर को हावी नहीं होने देते.
          समाज और राजनीति में जब निर्णायक क्षण आते हैं तो रेणु का ‘सोशल एक्टिविस्ट’ चुप नहीं रहता, लेकिन रोज-रोज की राजनितिक सक्रियताओं से उनका साहित्यकार मन दूरी  बनाए रहता है. जनता और जन संघर्षों से जुड़ाव के बावजूद उनके साहित्यिक तौर-तरीके, रहन-सहन और सलीके में साहित्यिकता और कलात्मकता बनी रहती है. उनके इस वैशिष्ट्य पर उनके मित्र और हिंदी के बड़े कवि नागार्जुन की एक टिप्पणी का उल्लेख जरूरी है, जो उन्होंने पटना के युवा साहित्यकारों से कही थी और जिससे रेणु के महत्त्व का पता चलता है. नागार्जुन को एक बार युवाओं ने एक फुटपाथी होटल में, जहाँ आमतौर से मजदूर वर्ग के लोग खाते थे, भोजन करते हुए देखकर पूछा कि क्या रेणु यहाँ रोटी खाते? नागार्जुन ने कुछ देर सोचने के बाद सधा हुआ जवाब दिया कि रेणु इन मजदूरों के बीच रोटी भले न खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए गोली जरुर खा लेते! नागार्जुन के इस उत्तर में साहित्यकार की सामाजिकता की एकरेखीय और सरलीकृत अवधारणा के विपरीत उसके व्यापक आशयों और सन्दर्भों पर जोर है. रेणु इसी व्यापक सामाजिक आशय की साहित्यिक अभिव्यक्ति का नाम है.
          रेणु समाजवादी आन्दोलन से जुड़े हुए थे. वे जयप्रकाश नारायण के बेहद करीब थे. इसके बावजूद उनका साहित्य किसी संकीर्ण राजनीतिक दृष्टिकोण का शिकार नहीं होता. साहित्य वहीं प्रमाणिक और विश्वसनीय होता है जिसमें उसका लेखक अपने राजनीतिक-सामाजिक सीमाओं का अतिक्रमण करता है. ‘मैला आँचल’ में सुराजी भी हैं, कांग्रेसी और सोशलिस्ट भी. रेणु जब राजनीतिक विसंगति पर चोट करते हैं तब उनकी पार्टी लाइन आड़े नहीं आती. रेणु आज़ादी के बाद राजनीतिक हलचलों के बीच उससे अलग सुनाई पड़नेवाली जन-ह्रदय की धड़कनों का अंकन करनेवाले बेजोड़ कलाकार लेखक थे. उनकी इस विशेषता की चर्चा करते हुए सुरेन्द्र चौधरी ने लिखा था: “देश की आज़ादी ने समूचे भारत को आंदोलित किया था. आज़ादी के झूठ-सच की पड़ताल करने वाले लोगों से अलग भी आज़ाद भारत की धड़कनें सुनाई पड़ती रही थीं. शहर और गाँव की दूरियाँ लाँघकर जन-जीवन में उत्साह आ गया था. अपने देश के लोग कुछ सोचने लगे थे, कुछ चाहने लगे थे. पहली बार शायद उन्हें अपने चाहने की सार्थकता का एहसास हो रहा था....यह साधारण घटना न थी. रेणु ने इस धड़कते हुए देश और जन को कलम बंद किया”.
          रेणु के साहित्य में वर्ग-भेद के साथ जाति-भेद की पहचान की चेतना अन्तःसलिला की तरह प्रवाहित है. सामाजिक सचाई के चित्रण में पिछड़ी जाति का होने के बावजूद अगड़ावाद, पिछड़ावाद की जो संकीर्ण लाइन है उसका वे अतिक्रमण करते हैं और व्यापक रूप से शोषित- पीड़ित जनता के पक्ष में खड़े होते हैं. उनका साहित्य यदि पाठकों का भरोसा अर्जित करता है तो इसका कारण उनकी वह व्यापक कथा-दृष्टि है जो जातिभेद की संकीर्ण परिधि का अतिक्रमण करती है. ‘मैला आँचल’ में ‘मालिक टोला’ के कायस्थ विश्वनाथ प्रसाद, ‘सिपहिया टोला’ के राजपूत और ‘गुआर टोला’ के अहीर, एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं और एक-दूसरे के जानी दुश्मन हैं, लेकिन संथालों से जब उनके हित टकराते हैं तो ये तीनों ‘एक’ हो जाते हैं और सभी ‘विचार’ एकजुट हो जाते हैं. सब मिलकर संथालों के संहार का संयुक्त अभियान चलाते हैं. रेणु की कथा-दृष्टि इस पूरे प्रसंग में इतनी विश्वसनीय और मानवीय है कि पाठकीय सहानुभूति संथालों के साथ दिखाई पड़ती है. जाति विमर्श के अंतर्विरोधों को खोलनेवाली यह कथा-दृष्टि अत्यंत व्यापक और अधिक मानवीय है.  संथाल संहार के बाद ‘रेणु’ ने जो टिपण्णी की है, वह आज़ादी के बाद की सभी राजनीतिक पार्टियों के क्रिया-कलापों की असलियत उजागर कर देती है. संथाल-संहार के बाद अगड़ी-पिछड़ी जातियों की ख़ुशी किस रूप में दिखती है, वह एक पात्र के मुँह से सुनिए: “अब एक सुराजी कीर्तन होना चाहिए. हाँ, भाई! सब संतन की जै बोलो. गाँव के देवताओं के परताप से, काली माय की कृपा से, महात्माजी की दया से और किरांती इन किलास जिन्दाबाघ से, गाँव के लोग बाल-बाल बच गए. अब कीर्तन होना चाहिए”. गाँव के लोगों ने और नेताओं ने जाति और वर्ग के सारे भेद भुलाकर जो एकता ‘अर्जित’ की है, उसका भेद खोलनेवाली यह कथा-दृष्टि हिंदी में दुर्लभ है. ‘आज़ादी’ मिली और ‘सुराज’ आया. लेकिन इस ‘आज़ादी’ और ‘सुराज’ के अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने थे. संथाल-संहार के बाद पुलिस-कचहरी होती है, मुकदमा चलता है. संथालों का संहार करनेवालों को रेखांकित करते हुए रेणु लिखते हैं: “मुकदमा में भी सुराज मिल गया’’. और संथालों को क्या मिला? “सभी संथालों को दामुल हौज हो गया है. धूमधाम से सेसन केस चला. संथालों की ओर से भी पटना से बलिस्टर आया था. बलिस्टर का खर्चा संथालिनों ने गहना बेचकर दिया था”. फिर भी संथाल हार गए. यह हार गाँधी के ‘सुराज’ की हार थी. गाँधी की ‘अहिंसा’ की हार थी. समाजवादी सपने की हार थी.
आज़ाद भारत में दबे-कुचले जिन लोगों को आज़ादी का ‘फल’ मिला वे भी तरह-तरह की कलाबाजी दिखाने लगे. उनके लिए ‘सुराज’ और ‘अहिंसा’ ऐसी रामनामी हो गई जिसका कोई जवाब आम जन के पास नहीं था. अपनी एक कविता ‘मिनिस्टर मंगरू’ में रेणु एक ऐसे ही पात्र की कलाबाजी का आत्म स्वीकृति के अर्थ में जो चित्रण करते हैं वह देखने लायक है. अपने द्वारा किए गए घोटाले के बारे में लोगों के पूछने पर मिनिस्टर मंगरू का जवाब है:

“सुना है जाँच होगी मामले की?”- पूछते हैं सब,
जरा गंभीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!
मुझे मालूम है कुछ गुर निराले दाग धोने के,
‘अहिंसा लाउंड्री’ में रोज मैं कपड़े धुलाता हूँ.
साहित्यिक सच के लिए जो लेखक अपनी वैचारिक और संस्कारगत सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता, वह जनता का साहित्य क्या, साहित्य ही नहीं लिख सकता. समाजवादी आन्दोलन से जुड़े होने के बावजूद रेणु यदि अपने साहित्य में अपनी वैचारिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं तो इसलिए कि वे इसे लेकर काफी सचेत हैं. वे ऐसा साहित्य लिखना चाहते हैं जो किसी एक ख़ास दृष्टि का उदहारण न हो, किसी ख़ास दृष्टि का सन्देश वाहक न हो और किसी ख़ास दृष्टि से बंधा न हो. वे वास्तविक अर्थों में जनता का ऐसा साहित्य लिखना चाहते है जो अपनी विचारधारा और अपनी विचारधारा से अलग की जनता को भी आंदोलित करे. 3-11-1955 को मधुकर गंगाधर को लिखे अपने एक पत्र में वे अपनी यह मंशा भी व्यक्त करते हैं. ‘मैला आँचल’ का प्रकाशन हो चुका था और उसकी धूम मची हुई थी. उस समय के साहित्यिक केंद्र इलाहाबाद जब वे गए तो प्रगतिशील-गैर प्रगतिशील सभी साहित्यिक जमातों ने उन्हें सिर-माथे पर बिठा लिया. वहाँ से लौटने के बाद पटना से उन्होंने मधुकर को पत्र लिखा: “.....प्रयाग हिंदी साहित्यकारों का अखाड़ा समझा जाता है- नए तथा पुराने लेखकों का विशाल झूंड वास करता है यहाँ. इनकी अलग-अलग छोटी-बड़ी संस्थाएँ हैं- परिमल, साहित्यिकी, झंकार, पराग, मिलन- आदि-आदि. सबों को आश्चर्य हुआ कि बिना यह पूछे कि अमुक संस्था या व्यक्ति किस राजनीतिक दल का है, रेणु जी सबों के यहाँ मुक्त ह्रदय से गए, गोष्ठियों में भाग लिया....आने के दिन सरस्वती प्रेस (श्रीपत राय) के यहाँ जमावड़ा था- प्रोग्रेसिवों (कम्युनिस्ट पार्टी वाले) ने कहा- रेणुजी की कृति तथा उनके प्रयाग आगमन के बाद हम यह सोचने को मजबूर हो गए हैं कि ऐसे साहित्य की रचना संभव है, जिसे सभी दल वाले एक स्वर से स्वीकार करें....”
किसान परिवार से अनेक लेखक आए हैं. उन्होंने किसानों पर खूब लिखा भी है. लेकिन सचमुच किसानी करते हुए, खेती करते हुए, किसी ने लेखकीय जीवन जिया हो इसका उदाहरण हिंदी में रेणु के सिवा शायद ही मिले. ‘तीसरी कसम’ की पटकथा लिखने, साहित्यिक कार्यों से कभी-कभार मुंबई, इलाहबाद, कोलकाता, दिल्ली आदि शहरों में वे भले गए हों, लेकिन साहित्य और जीविका स्वरुप खेती के लिए पटना और औराही हिंगना के बीच वे निरंतर आवाजाही करते रहे. पटना और औराही हिंगना उनके राजनीतिक कर्म और साहित्यिक लेखन को आकार देनेवाले वे स्थान थे जहाँ उनका मन रमता था. पटना में उनके इर्द-गिर्द राजनीतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और पत्रकारों की जमात तो साथ में होती ही थी, जब वे औराही हिंगना जाते थे तब वहाँ भी ऐसी जमात उनके साथ होती थी. खेती, सामाजिक काम और लेखन साथ-साथ चलते थे. एक तस्वीर मिलती है जिसमें नागार्जुन और कुछ युवा लेखकों-पत्रकारों के साथ रेणु धान की रोपनी कर रहे हैं. खेती से उनका कितना गहरा लगाव और जुड़ाव था यह 4 मई 1966 को औराही हिंगना से नामवर सिंह को लिखे एक पत्र से पता चलता है. अपने पत्र में रेणु लिखते हैं: “स्वस्थ हूँ. प्रसन्न नहीं. खेती सूख रही है. कहीं एक बूंद पानी नहीं”.
रेणु के उपन्यासों, कहानियों और रिपोर्ताजों में इतना जो रस है, लोक-लय और जीवन की धड़कन है, वह किसान जीवन की देन है. उनके यहाँ जो टप्पर गाड़ी है, बैल हैं, लहलहाते खेत हैं और वहाँ से उठता हुआ जो लोक संगीत है वह उनके भीतर के किसान की ही धड़कन है. अपने गाँव-जवार में रेणु न सिर्फ बैलगाड़ी से यात्राएँ करते थे, बल्कि ‘तीसरी कसम’ का हीरामन जिस तरह बैलों से आत्मीय बातचीत करता है, वैसी बातचीत वे भी करते थे. खेती, साहित्य और राजनीति वह त्रिवेणी है जिनसे रेणु का जीवन संचालित था और जहाँ से उनके कथा पात्र पैदा हुए.
जयप्रकाश नारायण और औराही हिंगना उनकी राजनीतिक और साहित्यिक ऊर्जा के ध्रुव हैं. इनसे गहरे जुड़ाव के कारण उनकी राजनीतिक और साहित्यिक समझ-संवेदना की धार तेज होती है. जयप्रकाश को लिखे पत्रों में उनके प्रति जो सम्मान भाव है वह उनकी ताकत है. औराही हिंगना- फारबिस गंज से जो जुड़ाव है वह उनके साहित्य की धड़कन है. जयप्रकाश को लिखे पत्रों में वे उन्हें ‘पूजनीय’ और ‘श्रीचरणेषु’ विशेषण से संवोधित करते हैं. 1974 में आन्दोलन के दौरान जेपी को लिखे एक पत्र से पता चलता है कि वे बाढ़ पीड़ितों के जुलूस का, लाठी-गोली की परवाह किए बिना, धारा-144 तोड़ते हुए, नेतृत्व करते हैं. फरवरी 1977 में जेपी को लिखे एक पत्र से पता चलता है कि वे अपनी गंभीर बीमारी को भूलकर इमरजेंसी लगानेवाली पार्टी को हराने के लिए और लोकतंत्र की बहाली के लिए आसन्न चुनाव में प्रचार हेतु कूदने को तैयार हैं. इस तरह जयप्रकाश और कथा-भूमि औराही हिंगना उनके दो ऐसे ध्रुव हैं जहाँ उनकी निरंतर आवाजाही बनी रहती है.
रेणु की रचनात्मक ऊर्जा के इन दो ध्रुवांतों के बीच जो रचनात्मक रिश्ता है उस पर बहुतेरे रेणु विरोधी और समर्थक आलोचकों ने भी ध्यान नहीं दिया है. उस रिश्ते से जो कथा-दृष्टि बनती है उसकी पड़ताल कथाकार निर्मल वर्मा ने की है और उसे ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ की संज्ञा दी है. उस समग्र मानवीय दृष्टि और दोनों ध्रुवांतों पर टिप्पणी करते हुए निर्मल ने लिखा है: “....दोनों के भीतर एक रिश्ता है, जिसके एक छोर पर ‘मैला आँचल’ है, तो दूसरे छोर पर जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण क्रांति. दोनों अलग-अलग नहीं हैं- वे एक ही स्वप्न, एक लालसा, एक ‘विजन’ के दो पहलू हैं. एक-दूसरे पर टिके हैं. कलात्मक ‘विजन’ और क्रांति दोनों की पवित्रता उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, सम्पूर्णता की माँग करती है- एक ऐसी सम्पूर्णता जो समझौता नहीं करती, भटकती नहीं, सत्ता के टुकड़ों पर या कोरे सिद्धातों की आड़ में अपने को दूषित नहीं करती. वह एक ऐसा मूल्य है जो खुली हवा में साँस लेता है और इसलिए अंतिम रूप से पवित्र और सुन्दर और स्वतंत्र है”.
‘रेणु’ का जनपद मिथिलांचल है. प्रेम और सौंदर्य के कवि विद्यापति का भी यही क्षेत्र है. ‘नित नित नूतन’ होने वाले ‘अपरूप’ रूप के खोजी कवि हैं विद्यापति. इस ‘अपरूप’ को खोज लाने का कथा-प्रयत्न रेणु के यहाँ भी है. लेकिन एक फर्क के साथ. रेणु निम्नवर्गीय जीवन और पात्रों में इस ‘अपूर्व’ को रेखांकित करते हैं. ‘रसप्रिया’ कहानी का एक वाक्य है: “चरवाहा मोहना छौड़ा को देखते ही पंचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा- अपरूप रूप!” यही बात इस कहानी में दूसरे ढंग से भी कही गई है; “धूल में पड़े पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई- अपरूप रूप!” उनका कथा साहित्य ‘अपरूप रूप’ के ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है. इस नए सौन्दर्यबोध के कारण ही रेणु प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा-साहित्य में वह मुकाम हासिल करते हैं जो दूसरे नहीं कर पाते !  



Friday 16 March 2018

आलोचना के शुक्ल पक्ष पर प्रश्न

यह निरा संयोग है कि शुक्ल ‘सरनेम’ रामचन्द्र शुक्ल के साथ जुड़ा है. लेकिन वे हिंदी आलोचना के शुक्ल पक्ष हैं, यह संयोग नहीं है. यह उनका अर्जित किया हुआ आलोचनात्मक विवेक है, अंधे के हाथ लगी बटेर नहीं. किसी जाति, धर्म, कुल, क्षेत्र आदि के कारण महिमान्वित होने वालों में वे नहीं हैं. उनके मानस का निर्माण बीसवीं सदी की वैज्ञानिक उपलब्धियों की रोशनी में हुआ है. वे ज्ञान-विज्ञान के नए विचार का स्वागत करते हैं, चाहे वह पश्चिम से ही क्यों न आते हों. वे न अपना सर्वोत्तम छोड़ते हैं और न पश्चिम के सर्वोत्तम से मुँह  मोड़ते हैं. यही कारण है कि हिंदी की  परलोकवादी साहित्य-समझ को बदलकर लोक के धरातल पर प्रतिष्ठित करने में वे सफल होते हैं और आलोचना का शुक्ल पक्ष निर्मित करते हैं.
          लेकिन आलोचना के इस शुक्ल पक्ष को कृष्ण पक्ष मानने वालों की भी कमी नहीं है. शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि और आलोचना उनके जीवन काल में और उसके बाद के समय में भी  प्रश्नांकित होती रही है. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी इतिहास दृष्टि पर प्रश्न उठाया. मुसलमानी राज्य की स्थापना के प्रतिक्रियास्वरूप भक्ति आन्दोलन के उद्भव के शुक्ल जी के प्रस्ताव को खारिज करते हुए उन्होंने उसका संबंध दक्षिण की आलवार भक्ति से जोड़ा. जिन निर्गुणपंथी संतों को शुक्ल जी ने कोई ख़ास महत्त्व नहीं दिया था, उसे उन्होंने ‘भारतीय चिंता का स्वाभाविक विकास’ कहा. नामवर सिंह ने उनके द्वारा रेखांकित धारा को ‘दूसरी परंपरा की खोज’ की संज्ञा दी. इतिहास-दृष्टि और आलोचना संबंधी शुक्ल जी के महान प्रदेय को खारिज करने का यह एक बड़ा प्रयत्न था. इन दोनों ने उनके द्वारा तथाकथित शास्त्र समर्थन के समानांतर लोक धारा को प्रतिष्ठित करने का काम किया. नलिन विलोचन शर्मा ने ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में शुक्ल जी पर ‘विधेयवादी’ होने का आरोप लगाया, नंददुलारे वाजपेयी ने भी शुक्ल जी की आलोचनात्मक मान्यताओं का कई प्रसंगों में खंडन किया. शुक्ल जी की इतिहास-दृष्टि और आलोचना-दृष्टि पर प्रश्न उठानेवाले इन आलोचकों में से किसी ने उन्हें  ब्राह्मणवादी नहीं कहा. ‘मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का एक पहलू’ (1955) नामक अपने प्रसिद्ध और मध्यकाल संबंधी एकमात्र लेख में मुक्तिबोध ने सगुण धारा की तुलना में निर्गुण भक्ति और खासकर तुलसी की तुलना में कबीर को अधिक आधुनिक माना और सगुण एवं तुलसी को अधिक महत्त्व देने के कारण शुक्ल जी को ‘पुराणमतवादी’ कहा. ब्राह्मणवादी उन्होंने भी नहीं बताया. मार्क्सवादी लेखकों में से एक रांगेय राघव ने अवश्य ही तुलसी पर और तुलसी समर्थक होने के कारण शुक्लजी पर तीखे प्रहार किए पर सीधे ब्राह्मणवादी उन्होंने भी नहीं कहा. कहने का अर्थ यह कि शुक्ल जी की आलोचना होती रही, वैचारिक विकास का तकाजा है कि आलोचना होनी चाहिए, पर उनके चिंतन को जातिवादी विमर्श में घसीटने की घटना हाल-फिलहाल की है. इधर के वर्षों में कुछ उत्साही मार्क्सवादी और कुछ दलित लेखक उन्हें सीधे-सीधे ब्राह्मणवादी कहने लगे हैं.
          प्रश्न है कि ब्राह्मणवाद क्या है? कोई उसका समर्थक हो तो वह क्यों निंदनीय हैं? क्या रामचंद्र शुक्ल ब्राह्मणवादी हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ के चलते शुक्ल उपनामधारी रामचंद्र को ब्राह्मणवादी कहा जा रहा है? इधर के वर्षों में राजनीतिक दलों की चुनावी गठजोड़ की तर्ज पर साहित्य में भी जातीय गठजोड़ की कोशिशें तेज हुई हैं. जिस तरह चुनावी गठजोड़ का आधार कोई विचारधारा, आदर्श आदि न होकर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना होता है, उसी तरह कुछ लेखक अपने को 'बहुजन' और शेष जातियों को ‘ब्राह्मणवादी’ या ‘द्विजजाति’ कहने लगे हैं. वे अपने बीच या भीतर के ब्राह्मणवाद पर बात नहीं करते हैं और भारतीय समाज की जटिलता की प्रायः अनदेखी करते हैं. क्या साहित्य में ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवाद विरोध इतना स्याह-सफ़ेद होता है? जो भी हो, इसकी छान-बीन तो होनी ही चाहिए कि शुक्ल जी की इतिहास-दृष्टि और आलोचना-दृष्टि में ब्राह्मणवादी तत्त्व हैं भी या नहीं. ऐसा इसलिए जरुरी है, क्योंकि हिंदी साहित्य के इतिहास और आलोचना का जो मजबूत आधार है वह उन्हीं द्वारा निर्मित है. उन्हें ब्राह्मणवादी मानने का मतलब है उस आधार पर प्रहार और उसको कमजोर साबित करना.
          ब्राह्मणवाद सुपरिभाषित पद नहीं है. इसका चलन हाल की घटना है. हिंदी रचना-आलोचना में इस पद का व्यवहार पहले से नहीं होता रहा है. जिस धार्मिक-सामाजिक प्रवृत्ति के आधार पर इसे ब्राह्मणवाद कहा जाता है उसे ही दलित नेता कांशीराम-मायावती ‘मनुवाद’ कहते रहे हैं. समाजवादी चिन्तक किशन पटनायक उस तरह की प्रवृत्ति के लिए ‘मनुवाद’ जैसे पद को ज्यादा उपयुक्त मानते हैं. कुछ लोगों का मानना है और मुझे भी इस तर्क में दम नजर आता है कि ब्राह्मणवाद कहने से जाने-अनजाने एक जाति विशेष को हम लक्षित करते हैं, जबकि उस तरह की प्रवृत्ति को माननेवाले गैर द्विज जातियों में भी हैं और बहुतेरे सवर्ण उस तरह की प्रवृत्ति के गहरे आलोचक रहे हैं और आज भी हैं. आखिर हम पूंजीवाद को ‘बनियावाद’ या ‘वैश्यवाद’ तो नहीं कहते ! इसलिए ‘मनुवाद’ ज्यादा उपयुक्त संज्ञा है. लेकिन समाज-विज्ञानियों के बीच ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द अधिक प्रचलित है और लगता है कि हिंदी में यह समाज-विज्ञान से ही आया है. बहरहाल, ‘मनुवाद’ को अधिक उपयुक्त मानते हुए भी यहाँ ‘ब्राह्मणवाद’ जैसे पद का बार-बार प्रयोग इसलिए किया गया है , क्योंकि इसी पद से शुक्ल जी पर प्रहार होते रहते हैं.
          जिसे ब्राह्मणवाद कहते हैं, उसे ठीक-ठीक कहीं परिभाषित किया गया हो, उसकी जानकारी इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है. लेकिन जिस तरह की प्रवृत्तियों को लेकर ब्राह्मणवाद संज्ञा चलती है उसे समझने की कोशिश की जा सकती है. ब्राह्मणवाद के मुख्य रूप से चार आधार कहे जा सकते हैं:
1.   वर्ण व्यवस्था
2.   अवतारवाद
3.   पुनर्जन्म
4.   कर्मकांड     
इन्हीं चार प्रवृत्तियों को जो माने और इनमें जिनका अटूट भरोसा हो, वह ब्राह्मणवादी कहा जाएगा. ऐसा व्यक्ति जाति से ब्राह्मण भी हो सकता है और गैर ब्राह्मण भी. वह ब्राह्मण के अलावा क्षत्रिय, वैश्य, पिछड़ा और दलित किसी भी जाति का हो सकता है. यूँ वर्ण व्यवस्था के अलावा बाकी तीन में कमोबेश भरोसा बौद्ध धर्म के अनुयायियों का भी है. बौद्ध धर्म को प्रगतिशील माननेवाले हिंदी के शुक्ल-विरोधी बहुतेरे लेखक सिर्फ वर्णव्यवस्था तथा मुसलमानी राज की स्थापना तक ही अपने को सीमित रखते हैं और अन्य आधारों पर बात नहीं करते.
जिसे ब्राह्मणवाद कहा जाता है वह इस देश की वर्चस्वशाली विचारधारा रही है और आज भी है. इसे भारत का प्रमुख ‘मोड ऑफ़ थिंकिंग’ कहा जा सकता है. इस ‘मोड ऑफ़ थिंकिंग’ से प्रभावित भारत की बहुसंख्यक आबादी का जिस भाववादी (Idealistic) जीवन-दर्शन में अटूट भरोसा है, उसका प्रकट रूप ब्राह्मणवाद ही है. हिन्दुओं में नास्तिक दर्शन भी लोकप्रिय रहा है. आस्तिक या भाववादी दार्शनिक परंपरा के समानांतर नास्तिक या पदार्थवादी दार्शनिक परंपरा भी भारत में हमेशा विद्यमान रही है. थोड़ी ही, पर नास्तिकों की भी आबादी हिन्दुओं में हमेशा से रही है. इसे ‘लोकायत’, ‘चार्वाक’ आदि नामों से जाना जाता है. भारतीय संस्कृति के निर्माण में इस दार्शनिक परंपरा की भी बड़ी भूमिका है. भाववादी दार्शनिक परंपरा के साथ नास्तिक परंपरा के संघर्ष और संवाद का लम्बा इतिहास है. चूँकि परिवर्तनशीलता का स्वीकार भारतीय संस्कृति का प्रधान गुण है, इसलिए दोनों दार्शनिक परम्पराएँ संघर्ष और संवाद के लम्बे इतिहास के साथ परिवर्तनशील बनी रही हैं.
भारतीय सामंतवाद को वैचारिक आधार देने में ब्राह्मणवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. कहा जा सकता है कि भारतीय सामंतवाद का इतिहास जितना लम्बा है उतना ही ब्राह्मणवाद का भी है. कहा यह भी जा सकता है कि यह यथास्थिति का समर्थक और सामाजिक प्रगति का विरोधी है. इस कारण समय-समय पर इसे चुनौतियाँ भी मिली हैं, कभी जैन धर्माचार्यों द्वारा तो कभी बौद्धों द्वारा, लेकिन ब्राह्मणवाद बना रहा. जैन और बौद्ध अपने धर्म का मार्ग इससे अलग बनाने में सफल हुए, लेकिन इसको अपदस्थ नहीं कर सके. भारतीय समाज की मुख्य धारा का ‘मोड ऑफ़ थिंकिंग’ ब्राह्मणवाद ही बना रहा. इसे वेद-शास्स्त्रों का समर्थन तो मिला ही, सत्ता का भी संरक्षण रहा- वह क्षत्रियों की सत्ता हो, मुसलमानों की हो या अंग्रेजों की. मुख्य धारा की इस वैचारिक-जीवन-पद्धति के समानांतर हाशिए के समाज के बीच अपनी-अपनी साधना-पद्धतियाँ अस्तित्व ग्रहण करती रही हैं और अपने लोगों के बीच लोकप्रिय भी होती रही हैं- जैसे, कबीरपंथ, रैदासीपंथ, दादूपंथ आदि. लेकिन ब्राह्मणवाद का स्थान लेने में असफल रही हैं. आखिर वह कौन-सी बात है जिसकी वजह से ब्राह्मणवाद बना हुआ है?
हिन्दू जीवन –दर्शन हमेशा एक नहीं रहा. वह बाहर की चुनौतियों, मसलन जैन, बौद्ध, सिद्ध-नाथ, निर्गुण पंथ, इस्लाम, ईसाइयत आदि के कारण जितना परिवर्तित हुआ, उससे अधिक उसके भीतर की चुनौतियाँ उसे परिवर्तन की ओर ठेलती रही हैं. इसलिए शंकराचार्य से रामानुज, वल्लभ, रामानंद, विवेकानंद, गाँधी तक आते-आते सनातनपंथियों को नई-नई चुनौतियाँ मिलती रहीं. शंकराचार्य के समय में हिन्दू जीवन-दर्शन का जो रूप था, उसे रामानुज, वल्लभ, रामानंद आदि आचार्यों ने बहुत अर्थों में बदला. विवेकानंद और गाँधी तक आते-आते हिन्दू जीवन-दर्शन आधुनिक अर्थ ग्रहण करने लगा और सनातनपंथियों से उसका संघर्ष होता रहा. विवेकानंद जब कहते हैं भारत शूद्रों का है या भविष्य शूद्रों का है और जब गाँधी दरिद्रनारायण की सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म कहते हैं; तब हिन्दू जीवन-दर्शन  नए रूप और स्वर में परिभाषित होता हुआ दिखाई देता है.क्या इसे ब्राह्मणवाद  कहा जाएगा?. हिन्दू धर्म के भीतर ब्राह्मणवादी जड़ता को चुनौती देती हुई यह नयी चेतना है जो नवजागरण की देन है. विवेकानंद और गाँधी का पूरा जीवन-दर्शन हिन्दू धर्म-दर्शन के छाते के जितना भीतर है उतना बाहर भी. जिस वेदांत दर्शन की व्याख्या के जरिए शंकराचार्य अपने दर्शन का विकास करते हैं, उसी वेदांत की व्याख्या रामानुज, वल्लभ आदि भी करते हैं और उनके सामाजिक अर्थ भिन्न हो जाते हैं. विवेकानंद और गाँधी भी उसी वेदांत का सहारा लेते हैं, और उनकी व्याख्या में बीसवीं सदी का सामाजिक अर्थ ध्वनित होने लगता है. इसलिए हिन्दू धर्म-दर्शन कोई स्थूल इकाई नहीं है, उसकी कोई एक किताब और एक ही देवी-देवता या एक ही तरह की उपासना-पद्धति नहीं जिसे कुछ प्रतीकों तक सीमित किया जा सके. सैकड़ों किताबों, देवी-देवताओं और उपासना-पद्धतियों के कारण वह दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए भले कौतुहल आलोचना का विषय हो, उसके छाते के भीतर आने वाले जन समाज के लिए जीवन-पद्धति और उपासना-पद्धति का एक खूब लचीला एवं व्यापक स्पेस रहा है. उसका मुख्य अंतर्विरोध जाति-व्यवस्था का श्रेणी क्रम है. सभी प्राणियों को समान माननेवाली दार्शनिक अवधारणा व्यवहार में जब जमीन पर उतरती है तो जातिमूलक भेद भाव में बदल जाती है. इसलिए रामानुज से लेकर गाँधी तक सभी दार्शनिकों-समाज सुधारकों ने जाति-व्यवस्था को लचीला बनाया, उसे झकझोरा और उसकी आलोचना की, क्योंकि जाति व्यवस्था सामाजिक प्रगति में बड़ी बाधा थी और आज भी है. हालाँकि कहा यह भी जाता है कि लोकतांत्रिक समाज में जाति-व्यवस्था धीरे-धीरे शिथिल हुई है, खान-पान और शादी-संबंधों में जातिगत भेद-भाव कम हुआ है. जो लोग इन परिवर्तनों की अनदेखी करके जातिगत भेद-भाव की बात करते हैं वे दरअसल जाति की राजनीति करने वाले लोग हैं. वे यह मानकर चल रहे हैं कि ब्राह्मणवाद अपरिवर्तनीय विचारधारा बनकर आज भी ज्यों का त्यों बरकरार है. शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी ऐसे ही लोग कहते हैं. सवाल यह है कि इस आरोप में कुछ सचाई है या यह निराधार है?
रामचंद्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी माननेवालों का मुख्य आरोप उनका वर्ण-व्यवस्था समर्थन है. विज्ञान समर्थक माने जानेवाले शुक्ल जी को यह आरोप विज्ञान-विरोधी और प्रगति-विरोधी साबित करता है. ऐसा कहना कितना सही है? शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी कहनेवाले लोग अपने पक्ष में जो तर्क देते हैं, उनमें कुछ प्रमुख हैं-
1. वर्णव्यवस्था के पोषक तुलसीदास का समर्थन करना,
2. लेनिन की निंदा करना,
3. मुसलमानी राज्य की प्रतिक्रिया में भक्ति आन्दोलन को देखना;
‘गोस्वामी तुलसीदास’ नामक अपनी पुस्तक के ‘लोकनीति और मर्यादावाद’ शीर्षक अध्याय में शुक्ल जी का यह कथन है, “गोस्वामी जी का समाज का आदर्श वही है जिसका निरूपण वेद, पुराण, स्मृति आदि में है; अर्थात् वर्णाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा”1. जिस वर्णाश्रम की प्रतिष्ठा तुलसीदास करना चाहते थे, वह आधुनिक दृष्टि से भेदभावकारी है, यह शुक्ल जी जानते हैं. उसी अध्याय में वे लिखते हैं; “जिस वर्णाश्रम धर्म का पालन प्रजा करती थी, उसमें ऊँची-नीची श्रेणियाँ थीं, उसमें कुछ काम छोटे माने जाते थे, कुछ बड़े. फावड़ा लेकर मिट्टी खोदनेवाले और कलम लेकर वेदांत सूत्र लिखनेवाले के काम एक ही कोटि के नहीं माने जाते थे. ऐसे दो काम अब भी एक दृष्टि से नहीं देखे जाते. लोकदृष्टि उसमें भेद कर ही लेती है. इस भेद को किसी प्रकार की चिकनी-चुपड़ी भाषा या पाखंड नहीं मिटा सकता”2. ऐसा कहनेवाले शुक्ल जी को ‘भेद करने वाली लोक-दृष्टि’ का ज्ञान है और उनकी आधुनिक दृष्टि को यह बात खटकती है. इसलिए वे मानस के रामराज्य प्रसंग में वर्णित वर्ण-व्यवस्था के उदार होने की बात करते हैं. वर्णाश्रम धर्म की भेदकारी नीति से वे आँख नहीं चुराते, उसकी अपने ढंग से व्याख्या करते हैं. रामराज्य प्रसंग में तुलसीदास का प्रसिद्ध दोहा है:
बरनाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग.
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहीं भय सोक न रोक..
संक्षेप में इस दोहे का सार यही है कि वर्ण व्यवस्था रामराज्य में मजबूती से कायम है और सभी अपने वर्ण के लिए निर्धारित काम ईमानदारी से करते हैं और सुखी हैं. रामचंद्र शुक्ल इसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं: “छोटे समझे जानेवाले काम करनेवाले बड़े काम करनेवालों को ईर्ष्या और द्वेष की दृष्टि से क्यों नहीं देखते थे? वे यह क्यों नहीं कहते थे कि ‘हम क्यों फावड़ा चलावें, क्यों दुकान पर बैठें?”3 यह प्रश्न उठाने के बाद वे यह व्याख्या करते हैं कि नीची श्रेणियों में समाज के प्रति कर्त्तव्य का भार कम था और ब्राह्मण-क्षत्रियों में लोकहित के लिए प्राणों को उत्सर्ग करने का भाव था. उनके शब्दों में: “उच्च वर्ग में अधिक मान या अधिक अधिकार के साथ कठिन कर्तव्यों की योजना और निम्न वर्गों में कम मान और कम सुख के साथ अधिक अवस्थाओं में आराम की योजना जीवन-निर्वाह की दृष्टि से सामंजस्य रखती थी”4. जीवन धारण करने के लिए जो कठिन काम हैं वे उच्च श्रेणी के और जो कम कठिन हैं वे निम्न श्रेणी के, यह सिद्धांत जब तक ठीक से काम करेंगे तब तक निम्न श्रेणी में ईर्ष्या भाव नहीं आएगा. यह बताने के बाद शुक्ल जी की टिप्पणी है: “वर्ण व्यवस्था की छोटाई बड़ाई का यह अभिप्राय नहीं था कि छोटी श्रेणी के लोग दुःख में ही समय काटें और जीवन निर्वाह के सारे सुभीते बड़ी श्रेणी के ही रहें”5.
ऊँची श्रेणियाँ जब अपने कर्त्तव्य यानी निजी सुख का त्याग और लोकहित के लिए तत्पर नहीं रहतीं, तभी नीची श्रेणियों में ईर्ष्या-असंतोष के भाव आते हैं. इस तरह की व्याख्या करने के बाद शुक्ल जी की वह विवादित टिप्पणी है जो उन्हें साम्यवाद विरोधी करार देती है. वह टिप्पणी है: “ऊँची श्रेणियों के कर्त्तव्य की पुष्ट व्यवस्था न होने से ही यूरोप में नीची श्रेणियों में ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार का प्राबल्य हुआ जिससे लाभ उठाकर लेनिन अपने समय में महात्मा बना रहा. समाज की ऐसी वृत्तियों पर स्थित ‘महात्म्य’ का स्वीकार घोर अमंगल का सूचक है”6. यह कथन बताता है कि शुक्ल जी लेनिन द्वारा संपन्न क्रांति के समर्थक नहीं हैं. अपने विवेचन के क्रम में वे इस तरह की बात करने वाली जनता को ‘मूर्ख’ और ‘जड़’ कहने से भी परहेज नहीं करते. वे तुलसीदास की लोक मर्यादा की व्याख्या उदारतापूर्वक करते हुए उच्च श्रेणी के लोगों द्वारा निम्न श्रेणी की जनता के सुख की सुरक्षा के लिए त्याग किए जाने की बात करते हैं पर स्पष्ट रूप से यह नहीं कहते कि वर्ण व्यवस्था सामाजिक भेद उत्पन्न करती है. वे आधुनिक काल में वर्ण व्यवस्था के विरोधी हैं लेकिन तुलसी प्रसंग में वर्ण व्यवस्था को लेकर उनका रवैया महात्मा गाँधी-सा है. यद्यपि वे गाँधी जी के समर्थक नहीं हैं. गाँधी जाति भेद नहीं मानते थे लेकिन वर्ण व्यवस्था के विरोध में भी नहीं बोलते थे. तुलसीदास प्रसंग में यह भी लगता है कि शुक्ल जी सामाजिक परिवर्तन के लिए बोल्शेविक क्रान्ति सरीखे अभियान को भी ठीक नहीं मानते क्योंकि उन्हें लगता है कि देर सबेर इसका परिणाम जनता को भुगतना पड़ता है.
शुक्ल जी पर दूसरा आरोप कबीर आदि निर्गुणपंथी कवियों की कविता को कला से हीन मानने का है. वे सिद्धों-नाथों की वाणी को ‘सांप्रदायिक शिक्षा मात्र’ मानते हैं, उसमें उन्हें कविता नहीं दिखाई देती. वे कबीर की ‘प्रतिभा’ की प्रशंसा करते हैं लेकिन साथ ही उन्हें ‘दर्पोक्तियाँ हाँकनेवाला’ भी कहते हैं. कुल मिलाकर वे निर्गुण भक्त कवियों द्वारा लिखे गए साहित्य को कला की दृष्टि से हीन समझते हैं. उनकी काव्य रूचि में तुलसी, सूर, जायसी तो ऊँचे आसन के हकदार हैं, लेकिन निर्गुणपंथी नहीं. वे कबीर को या दूसरे निर्गुणपंथियों को जाति के कारण कम महत्त्व देते हैं या अपनी कसौटी पर कवित्व की कमी के कारण? जाति-धर्म के कारण महत्त्व देना था तो जायसी को भी नहीं देते? प्रश्न है कि अपनी काव्य कसौटी पर किसी कवि को महत्त्व देना या न देना, चाहे वह जिस जाति-धर्म का हो, जातिवाद या ब्राह्मणवाद कैसे है?
शुक्ल जी को पता है कि वर्ण व्यवस्था पिछले जमाने की चीज है. आधुनिक समाज-व्यवस्था जाति के सहारे नहीं चल सकती. इसलिए अपने प्रिय कवि तुलसीदास की वर्ण व्यवस्था समर्थक बातों की वे उदारतापूर्वक यथासंभव आधुनिक व्याख्या करने की कोशिश करते हैं, लेकिन जहाँ उनके तर्क चूक जाते हैं, वहाँ वे मासूम-सा तर्क देते हैं: “जातीय पक्षपात से उस विरक्त महात्मा को क्या मतलब हो सकता है!”7 उसके बाद वे तुलसी की जाति-विरोधी दो पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं:
लोग कहे पोचु सो न सोचु न संकोचु मेरे,
व्याह न बरेखी जाति पाँति न चहत हौं..
अन्यत्र भी स्त्री प्रसंग में वे ऐसा ही मासूम-सा तर्क देते हैं: “वैरागी समझकर उनकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए”8. इससे पता चलता है कि तुलसी के वर्ण व्यवस्था समर्थन और नारी निंदा को वे ठीक नहीं मानते, पर उन्हें भक्तिकाल का सुमेरु  कवि भी मानते हैं. तुलसी के कवित्व की असाधारणता और उनके वर्ण व्यवस्था समर्थन के बीच चुनाव का वक्त आने पर अंततः वे उनकी काव्य-कला पर ही रीझते हैं, वर्ण-व्यवस्था वाले पक्ष की लीपापोती करके आगे बढ़ जाते हैं. तुलसी के यहाँ वर्ण व्यवस्था समर्थन है तो भक्ति के धरातल पर वर्ण व्यवस्था विरोध भी है. शुक्ल जी तुलसी के इस अंतर्विरोध के बावजूद उन्हें बड़ा कवि मानते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि अंतर्विरोध की अनदेखी न करने पर संसार का कोई भी महान कवि आलोचना से परे नहीं बचेगा. यह सही है कि जाति प्रथा पर शुक्ल जी अपने समय के और बाद के दूसरे नेताओं मसलन भगत सिंह, अम्बेडकर, लोहिया आदि की तरह या आज के जाति-प्रथा विरोधी लेखकों की तरह नहीं बोलते हैं. यूँ तुलसी प्रसंग में उनकी नरमी या अनदेखी या लीपापोती से अलग देखें तो जाति व्यवस्था विरोध के सवाल पर वे बहुत तीखे और स्पष्ट हैं.
          ‘गोस्वामी तुलसीदास’ (1923) पुस्तक के प्रकाशन के कुछ महीनों बाद उन्होंने ‘जाति व्यवस्था’ (1924) शीर्षक एक जबर्दस्त टिप्पणी लिखी, जिसमें उन्होंने जाति प्रथा पर जोरदार हमला किया था. वह टिप्पणी चूँकि अंग्रेजी में थी और उनकी किसी पुस्तक में नहीं थी, इसलिए उस ओर किसी का ध्यान नहीं गया था और शुक्ल विरोधियों को उन्हें वर्ण व्यवस्था समर्थक आलोचक कहने में सुविधा हुई. अपनी इस टिप्पणी में शुक्ल जी का मत है कि जाति व्यवस्था संसार में कहीं नहीं है, यह सभ्य समाज की चीज नहीं, यह भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल है, इसे हटाना जरुरी है नहीं तो देशभक्ति की मृत्यु निश्चित है. टिप्पणी का प्रारम्भ इस प्रकार होता है: जाति संस्था ने प्रजाति की शुद्धता को सुरक्षित रखने का असफल प्रयत्न किया है. इतिहास का हर छात्र जानता है कि भारतीय रक्त शक, यवन, यूची, हूण, मंगोल, आर्य  तथा  द्रविण रक्तों का मिश्रण है. जाति व्यवस्था के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसने मनुष्य का स्तरों और श्रेणियों में रूढ़ विभाजन कर दिया है...कुलीन और ऊपर से दैवीय कहे जाने वाले ब्राह्मण अन्य सबको हेय दृष्टि से देखते हैं. क्रमशः प्रत्येक जाति अपने से नीची जाति को तुच्छ समझती है. इस तरह हम हतभाग्य अस्पृश्यों और वर्गहीन जाति बहिष्कृतों के विशाल जन समूह तक नीचे उतरते हैं. इस प्रकार जाति व्यवस्था हार्दिक सहयोग या प्रतिक्रिया,प्रेम ,विश्वास,पारस्परिक प्रभाव या आचरण की स्वतंत्रता के अवरोध का कारण बनती है9.
यहाँ ध्यान देने की बात है कि हमलोग जातिगत रक्त की शुद्धता के प्रश्न पर अक्सर हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘अशोक के फूल’ (1948) का हवाला देते हैं और उनका यह कथन दुहराते है: “रवीन्द्रनाथ ने इस भारतवर्ष को ‘महामानवसमुद्र’ कहा है. विचित्र देश है यह. असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्भ आए न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष बनाने में अपना हाथ लगा गईं. जिसे हम हिन्दू रीति नीति कहते हैं- वह अनेक आर्य और आर्येत्तर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है....हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है. देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है. सब कुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है. शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्छा) वह गंगा की अबाधित अनाहत धारा समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है”.  हजारी प्रसाद द्विवेदी के बहुत पहले यह बात शुक्ल जी कह चुके हैं. इस विषय पर यदि हमलोग द्विवेदीजी को उद्धृत करते हैं तो अवश्य करें, लेकिन इतना तो ध्यान रखें कि शुक्ल जी को गलत सन्दर्भ में उद्धृत न करें.
शुक्ल जी को वर्ण व्यवस्था समर्थन के साथ सांप्रदायिक चेतना संपन्न इतिहासकार कहने का भी उत्साह इधर के वर्षों में दिखाई देने लगा है. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो इतिहास के सन्दर्भ में मुसलमानी राज्य की स्थापना से पैदा हुई निराशा के फलस्वरूप भक्ति के जन्म लेने वाली शुक्ल जी की स्थापना को तथ्य से परे बताया था और उसे सिद्धों-नाथों की परंपरा का विकास कहा था, लेकिन आगे चलकर शुक्ल विरोधियों ने उन्हें सांप्रदायिकता के घेरे में ला दिया. ऐसा कहते हुए यह भुला दिया जाता है कि जायसी को ‘डिसकवर’ करने का काम शुक्ल जी ने किया था और उन्हें सूर और तुलसी के बराबर रखा था. वे यदि मुसलमान विरोधी थे तो यह सब क्यों कर रहे थे? शुक्ल जी आत्यंतिक रूप से नास्तिक थे या नहीं यह तो नहीं मालूम, लेकिन यह तय है कि साहित्य के मूल्यांकन में धर्म और ईश्वर का आधार वे जरा-सा भी नहीं लेते. धर्म के बारे में उनके विचार क्या थे, यह जानने की फुर्सत विरोधियों को नहीं है. शुक्ल जी का 1924 में ही अंग्रेजी में लिखा हुआ एक निबंध है- ‘सभ्य संसार का भावी धर्म’. अपने इस निबंध में वे विज्ञान सम्मत नए धर्म की वकालत करते हैं. जो भी धर्म दुनिया में हैं, वे सब अपर्याप्त हैं. वे कहते हैं कि पुराने धर्मों के युग का अंत हो रहा है और विज्ञान सम्मत नए धर्म का युग प्रारंभ होने वाला है. उनका कथन है:जिनका विश्वास है कि मानव-स्वभाव में मानवीय दुर्बलताओं के साथ साथ मानवोचित उन्नतिशीलता भी मौजूद है और तमाम कठिनाइयों के होते हुए भी कभी न कभी मनुष्य उन पर विजय प्राप्त करेगा ही. ऐसे लोगों में इस समय इस बात की खास तलाश है कि इस वर्तमान अस्त-व्यस्त अवस्था का अंत कैसे होगा. इन तमाम घटनाओं का रुख किस ओर है. इन्हीं लोगों का एक दल यह समझता है कि इस व्यापक विप्लव का प्रभाव संसार के धार्मिक जीवन पर भी पड़ेगा और उसमें एक गहरा परिवर्तन होगा. उनका ख्याल है कि जहां संसार में,लोगों में विरोधी दलों के प्रति अविश्वास बढ़ता जाता है, वहाँ साथ ही संसार की वर्तमान अवस्था का एक लक्षण यह भी है कि संसार भर के सभी देशों की दलित जातियों में एक प्रकार की पारस्परिक सहानुभूति भी है. मजदूर, अराजकतावादी, स्त्रियाँ, स्काउट्स, काली जातियां-सभी अपने संगठनों का अन्तर्जातीय रूप देना चाहती हैं भौगोलिक हद्दों की अवहेलना करके पारस्परिक सहयोग करने के लिए तैय्यार हैं. ‘संघे शक्ति कलियुगेके सिद्धांत को लोग चरितार्थ करके दिखा रहे हैं. रेल, तार, छापेखाने और अख़बारों ने दुनिया को इतना तंग और सन्निकट कर दिया है कि एक दूसरे के आदर्शों को अब थोड़ी-सी चेष्टा करने पर सहज ही समझ सकते हैं10. नए संसार का सपना देखनेवालों को शुक्ल जी ने आशावादी कहा है. उन्होंने आशावादियों का जोरदार पक्ष लिया है और लिखा है, इन सभी बातों को वे आशावादी निरीक्षक संसार के धार्मिक जीवन के लिए शुभ लक्षण समझते हैं. यद्यपि वे इस बात से भी अपरिचित नहीं हैं कि इन सब बातों के होते हुए भी संसार के वर्त्तमान संगठित धर्म के अधिकारी,चाहे वे ईसाई पादरी हों अथवा हिन्दू पंडित,मुसलमान मुल्ला या बौद्ध भिक्षु, अपने पुराने ढंग पर ही चले जाते हैं, नई आकांक्षाओं और नए उत्साह से लाभ नहीं उठाते और उन्नतशील उदार व्यक्तियों को उच्छृंखल कहकर अपने-अपने मंडल से निकालने पर उद्यत हो जाते हैं. पुरोहितों, पुजारियों और पंडितों की इस अदूरदर्शिता पर खेद प्रकट करते हुए भी आशावादी घबराते नहीं, बल्कि इसे भी परिवर्तन का एक प्रामाणिक लक्षण ही समझते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि धार्मिक संस्थाओं की यह कट्टरता भी इस बात की सूचना देती है कि एक धार्मिक युग का अंत हो रहा है और दूसरे का आरम्भ11.
रामचंद्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी कहते हुए यह विचार नहीं किया जाता कि वे विज्ञान के समर्थक और रहस्यवाद के विरोधी थे. विज्ञान और वैज्ञानिक चिंतन के समर्थन में उन्होंने भरपूर लेखन किया. वे साहित्य को अध्यात्म से जोड़े जाने के भी विरोधी थे. किसी भी धार्मिक कसौटी को साहित्य के मूल्यांकन का आधार बनाए जाने के वे विरुद्ध थे. वे यदि सिद्धों, नाथों और निर्गुण पंथियों के योग कुण्डलिनी, रहस्यवाद के विरोधी थे तो छायावादियों के रहस्यवाद के भी. रहस्यवाद की तरह साहित्य में कलागत चमत्कार को भी वे नापसंद करते थे. उन्हें केशव और बिहारी दोनों की कविताओं में जो शिल्पगत चमत्कार है, पसंद नहीं था. उन्हें ब्राह्मणवादी कहकर जब लांछित किया जाता है तब जानबूझकर इस बात की अनदेखी की जाती है. इस बात की भी अनदेखी की जाती है कि जर्मन दार्शनिक-वैज्ञानिक हैकल की प्रसिद्ध पुस्तक ‘रिडल्स ऑफ़ यूनिवर्स’ का ‘विश्व प्रपंच’ (1920) नाम से उन्होंने अनुवाद किया था और उसकी लम्बी भूमिका लिखी थी. हैकल की इस पुस्तक के कारण यूरोप में तहलका तो मचा ही,पादरियों के बीच हड़कंप मच गया. इस किताब की खूब बिक्री हुई और इसके अनुवाद भी खूब हुए. शुक्ल जी के शब्दों में: ‘अकेले जर्मनी में दो महीने के भीतर इसकी नौ हजार प्रतियाँ खप गईं. यूरप की सब भाषाओं में इसके अनुवाद निकले. अंगरेजी की तो लाखों कॉपियां पृथ्वी के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक पहुँच गईं. इस पुस्तक ने सबसे अधिक खलबली पादरियों के बीच डाली जिनकी गालियों से भरी हुई सैकड़ों पुस्तकें इसके प्रतिवाद में निकली’12.
यह पुस्तक ईश्वरीय सत्ता, धर्म और धार्मिक पाखण्ड पर चोट करती है और जीवन और जगत की उत्पत्ति के तार्किक और वैज्ञानिक आधार का समर्थन करती है. शुक्ल जी चाहते थे कि हिंदी समाज में भी इस चेतना का विकास हो. इसलिए उन्होंने इसका अनुवाद किया और लम्बी भूमिका भी लिखी. अपनी भूमिका में उन्होंने जोरदार ढंग से वैज्ञानिक दृष्टि के विकास पर जोर दिया. एक जगह वे धर्मों के बीच लड़ाई-झगड़े की व्यर्थता बताते हुए और ईश्वर संबंधी विभिन्न मत-मतान्तर का खंडन करते हुए लिखते हैं: “अब तक जो कुछ लिखा गया उससे शिक्षित जगत के ज्ञान की वर्त्तमान स्थिति का कुछ आभास मिला होगा और यह स्पष्ट हो गया होगा कि नाना मतों और मजहबों की विशेष स्थूल बातों को लेकर झगड़ा टंटा करने का समय अब नहीं है. सब मतों और साम्प्रदायों में धर्म और ईश्वर की जो सामान्य भावना है उसी का पक्ष अब शिक्षित पक्ष के अंतर्गत आ सकता है. ईश्वर साकार है कि निराकार, लम्बी दाढ़ी वाला है कि चार हाथ वाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्तिं पूजने वालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठानेवालों से, इन बातों पर विवाद करने वाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे. इसी प्रकार सृष्टि के जिन रहस्यों को विज्ञान खोल चुका है उनके संबंध में जो प्राचीन पौराणिक कथाएँ और कल्पनाएँ (6 दिन में सृष्टि की उत्पत्ति, आदम हौवा का जोड़ा, चौरासी लाख योनि इत्यादि) हैं वे अब ढाल तलवार का काम नहीं दे सकतीं. अब जिन्हें मैदान में जाना हो वे नाना विज्ञानों से तथ्य संग्रह करके सीधे उस सीमा पर जाएँ जहाँ दो पक्ष अड़े हुए हैं- एक ओर आत्मवादी, दूसरी ओर अनात्मवादी, एक ओर जड़वादी, दूसरी ओर नित्य चैतन्यवादी. यदि चैतन्य की नित्य सत्ता सर्वमान हो गई तो फिर सब मतों की भावनाओं का समर्थन हुआ समझिए, क्योंकि चैतन्य सर्वस्वरुप है. नाना भेदों में अभेद दृष्टि ही सच्ची तत्त्व दृष्टि है. इसी के द्वारा सत्य का अनुभव और मतमतान्तर के राग द्वेष का परिहार हो सकता है”13. भूमिका के साथ ‘जाति व्यवस्था’ और ‘सभ्य संसार का भावी धर्म’ शीर्षक निबंध यदि कोई पढ़ ले तो उससे उनके वास्तविक रूप का पता चलेगा. मैनेजर पाण्डेय ने इस तरह की सामग्री का अध्ययन किए जाने पर जोर देते हुए यह ठीक ही लिखा है- “जो लोग रामचंद्र शुक्ल को रोज-रोज ब्राह्मणवादी घोषित करते रहते हैं वे अगर अपने पूर्वग्रहों से मुक्त होकर इस निबंध को पढ़े तो शुक्ल जी के बारे में उनकी राय बदल सकती है, लेकिन आज के समय में मुश्किल ही लगता है”14.
रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी के नए साहित्यशास्त्र की नींव रखी. यह नया साहित्यशास्त्र, धर्म, जाति, साम्प्रदायिकता आदि सामाजिक बुराइयों के विरोध और लोक के गहरे स्वीकार से तैयार हुआ. उन्होंने साहित्य की किसी भी परलोकवादी, चमत्कारवादी, रहस्यवादी आधार का विरोध किया और हिंदी साहित्य को लोक की ठोस धरती पर प्रतिष्ठित किया. उन जैसा पाठ का मास्टर हिंदी आलोचना में दूसरा न हुआ. उन्होंने यदि कहा कि ‘केशव को कवि ह्रदय नहीं मिला था’ तो कोई दूसरा आलोचक लाख मेहनत के बावजूद केशव को कवि ह्रदय नहीं दिला सका. उन्हें तुलसी के राम इसलिए प्रिय नहीं हैं कि वे वर्णाश्रम व्यवस्था कायम करनेवाले राजा हैं, वे इसलिए प्रिय हैं कि वे प्रजा रक्षक और प्रजा वत्सल हैं तथा उनमें कर्म का सौन्दर्य है. इस तरह  शुक्ल जी जिन साहित्यिक प्रतिमानों को प्रतिष्ठित करते हैं क्या वे ब्राह्मणवाद को मजबूत करनेवाले साहित्यिक प्रतिमान हैं?
ऊपर भाववादी हिन्दू दार्शनिक परंपरा के बदलते हुए स्वरुप की चर्चा की गई है. कहा गया है कि शंकराचार्य से लेकर विवेकानंद-गाँधी तक भाववादी धर्म-दर्शन परिवर्तनशील रहा है और युग के अनुरूप अपने को ढालता रहा है. भाववादी हिन्दू दार्शनिक परंपरा के भीतर परिवर्तनशीलता के जो तत्त्व हैं उनका जड़वादी लोग हमेशा विरोध करते रहे हैं. बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, जो रामचंद्र शुक्ल का रचनाकाल है, इस भाववादी हिन्दू समाज के छाते के भीतर भी दो तरह के लोग हैं-
(1)   वे जो लकीर के फ़क़ीर- जड़वादी  हैं और परिवर्तन को नकारते हैं.
(2) वे जो परिवर्तन के साथ है, जो ज्ञान-विज्ञान की नई उपलब्धियों से परिचित हैं और उससे प्रसूत नई चेतना से संचालित हैं और जड़ता के विरोधी हैं.
किसी को ब्राह्मणवादी कहते वक्त इस फर्क को ध्यान में रखना जरुरी है. इस फर्क को ध्यान में रखे बिना दोनों- परिवर्तन विरोधियों और परिवर्तन के समर्थकों- को ब्राह्मणवादी कह दिया जाता है. ब्राह्मणवादी या मनुवादी उपर्युक्त पहली श्रेणी के लोगों को ही कहा जाना चाहिए. दूसरी तरह के लोगों में विवेकानंद, गाँधी आदि को रखा जा सकता है और हिंदी लेखकों में महावीरप्रसाद द्विवेदी,प्रेमचंद ,रामचंद्र शुक्ल आदि को . यहाँ यह ध्यान रखने की जरुरत है कि शुक्ल जी आत्यंतिक रूप से नास्तिक नहीं हैं, पर पदार्थवादी जीवन-दर्शन  के बहुत करीब  हैं. उनका जन्म निश्चित रूप से हिन्दू परिवार में हुआ था लेकिन आधुनिकता और विज्ञान सम्मत दृष्टि उन्होंने अर्जित की थी. उनके कुछ अंतर्विरोध भी है, जैसे वे तुलसी की वर्ण व्यवस्था का खुलकर विरोध नहीं करते. लेकिन सिर्फ इस वजह से उन्हें ब्राह्मणवादी नहीं कहा जा सकता. अंतर्विरोध पिछड़ेपन के ही सूचक नहीं कई दफ़ा विकास के भी सूचक होते हैं. शुक्ल जी के प्रसंग में भी यही बात कही जा सकती है. वे हिंदी में आधुनिकता और विज्ञान सम्मत दृष्टि के अगुआ लेखक हैं.
 ‘विश्व प्रपंच’ और उसकी भूमिका तथा शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी कहने वालों को ध्यान में रखते हुए मैनेजर पाण्डेय ने एक मजेदार बात कही है. यह कथन शुक्ल जी के महत्त्व का आकलन तो है ही, शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी कहनेवालों पर व्यंजक टिप्पणी भी है. उनका कथन है: “विश्व प्रपंच से यह सिद्ध होता है कि हिंदी नवजागरण के विचारक और लेखक केवल वेदों और उपनिषदों का न सारांश लिखते रहे हैं और न समर्थन ही करते रहे हैं. उन्होंने ऐसे विचारों को भी हिंदी में लाने और फ़ैलाने की कोशिश की थी जो अध्यात्मवाद और धार्मिक मकड़जाल को छिन्न भिन्न करते थे. लेकिन उनके इन कामों पर ध्यान देनेवाले लोग आजकल बहुत कम हैं. यहाँ तो ऐसे लोग हैं जो यह कहते रहते हैं कि एक तो हिंदी नवजागरण जैसा कुछ कभी था ही नहीं, और अगर वह कुछ था भी तो हिन्दू नवजागरण था. शिक्षित समाज में अपने ज्ञान पर भी गर्व करना अच्छा नहीं समझा जाता, लेकिन आजकल हिंदी में ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो अपने अज्ञान पर गर्व करते दिखाई देते हैं”15.
इसलिए यह कहने की जरुरत है कि रामचंद्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी कहने का अर्थ अपनी विरासत को कमजोर करने के साथ वैज्ञानिक और वस्तुवादी दृष्टि से वर्तमान और भावी पीढ़ी को वंचित करना है. उन्हें ब्राह्मणवादी कहने का अर्थ हिंदी की आधुनिक और विवेकवादी परियोजना पर पाटा चलाने के समान है. और अंतिम बात यह कि ब्राह्मणवादी कहने का एक बड़ा अर्थ उन्हें हिन्दुत्ववादी राजनीति के हवाले करना भी है.
सन्दर्भ:                                                           
(1)   आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली; भाग-1, सं. ओमप्रकाश सिंह, पृष्ठ-372
(2)   वही, पृष्ठ- 374
(3)   वही, पृष्ठ- 374-375
(4)   वही, पृष्ठ- 375
(5)   वही,
(6)   वही,
(7)   वही, पृष्ठ- 377
(8)   वही, पृष्ठ- 380
(9)   वही, खंड-4, पृष्ठ- 203
(10)वही, पृष्ठ- 193
(11)वही, पृष्ठ- 194
(12)विश्व प्रपंच प्रथम संस्करण का वक्तव्य, ग्रंथावली खंड-6, सं- ओमप्रकाश सिंह; पृष्ठ- 5
(13)वही, पृष्ठ- 81-82
(14)आचार्य रामचंद्र शुक्ल; वैचारिक परिभूमि, सं- ओमप्रकाश सिंह, पृष्ठ- 294
वही, पृष्ठ- 298