Monday 25 May 2015

कबीर और उनका रहस्यवाद



कबीर मध्यकालीन भारतीय साहित्य और समाज की सर्वाधिक जाग्रत मनीषा हैं. वे घोषित रूप से न तो समाज –सुधारक थे और न कवि, फिर भी उनकी ‘बानी’ में सच्चाई का वह तेज था कि धर्म, समाज और साहित्य की  परम्परागत मान्यताएं प्रश्नचिह्न के घेरे में आ गईं, उनकी व्यंजक, फक्कड और उदास कविता ने ऐसा चमत्कार किया कि सदियों से अधिकार वंचित, शोषित- उपेक्षित लोगों में ज्ञान, धर्म एवम् कविता की प्यास भड़क उठी और देखते ही देखते इन सभी क्षेत्रों में क्रांति हो गई. कबीर के साथ रैदास, नानक, दादू, हरिदास सेन आदि निचली जाति  के संतों ने अपनी आध्यात्मिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए गीत रचे. इस आध्यत्मिक आकांक्षा में उनके लौकिक जीवन के ही दुःख की परोक्ष घोषणा थी. कबीर आदि निर्गुण पंथी संतों का धर्म और साहित्य के ‘वर्जित प्रदेश’ में प्रवेश एक युगांतकारी घटना थी. इस घटना ने निचली श्रेणी के लोगों के युग-युग से संचित सपनों की उडान के लिए एक मुक्त आकाश दिया. यह आकाश  ‘अनुभव सत्य’ का था, जो सत्ता और शास्त्र पर काबिज वर्गों के सामने कठिन चुनौती बनकर उपस्थित हुआ.
                
उत्तर भारत में निर्गुण पंथ को निचली श्रेणी की जनता का धार्मिक पंथ  बनाने का श्रेय कबीर को है. ऐसा नहीं  कि निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा भारतीय धर्म- दर्शन में नहीं थी.एकेश्वरवादी  और अद्वैतवादी  निर्गुण ईश्वर के सम्बन्ध में कई तरह की दार्शनिक मीमांसा प्रस्तुत कर चुके थे. यह बहुत महीन- सी दार्शनिक बहस थी, जो सामान्य जन की पहुँच से बाहर थी. निर्गुण सम्बन्धी इस बहस में सामान्य जन की धार्मिक आकांक्षा और ईश्वर के लिए शायद ही कोई जगह थी. यही कारण है कि शंकराचार्य का अद्वैतवाद कबीर आदि निर्गुण पंथी संतों के समय तक सामान्य लोगों में लोकप्रिय नहीं हुआ था. यह पंडितों के बीच जारी अंतहीन बहस का  विषय था. कबीर ने वेदांत दर्शन से निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा ली या शंकर के अद्वैतवाद से, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण इतिहास में नहीं मिलता. अब तो कुछ इतिहासकार इस तरह के मत का पूरी तरह खंडन करते हैं.जो भी हो, कबीर के समय तक निर्गुण ब्रह्म एक ठोस वास्तविकता से अधिक दार्शनिक मीमांसा भर था. कबीर की ऐतिहासिक भूमिका यह है कि उन्होंने उस अमूर्त ईश्वर को मूर्त रूप दिया और उसे दार्शनिकों – आचार्यों के खाते से निकालकर ईश्वर विहीन निचली श्रेणी की जनता के हवाले किया. कबीर के निर्गुण का वेदांत और अद्वैत दर्शन के निर्गुण से मेल नाम मात्र का  है.यह निर्गुण ब्रह्म मध्यकालीन धर्म और साहित्य में नितांत नया और मौलिक सृजन है. अगर ऐसा नहीं होता तो यह निर्गुण ब्रह्म निचली श्रेणी की जनता के जरिए  भक्तिकालीन साहित्य और समाज में नई चेतना के आन्दोलन का संवाहक नहीं बनता. कोई तो बात थी कि वेदांत और अद्वैत दर्शन के निर्गुण ब्रह्म से सामान्य जन की आध्यात्मिक प्यास न बुझ सकी थी; न सामान्य जन उस निर्गुण ब्रह्म को अपनी जीवनी शक्ति बना सका था. वेदांत का निर्गुण ब्रह्म दार्शनिकों तक सीमित था, जबकि कबीर आदि संतों का निर्गुण आंदोलनधर्मी नई चेतना की ठोस आधारभूमि है. वेदांत के निर्गुण और कबीर के निर्गुण में अंतर को ध्यान में रखें बिना भक्तिकालीन साहित्य और समाज में कबीर के महत्व का ठीक-ठाक मूल्यांकन नहीं हो सकता.

इस निर्गुण ब्रह्म के जरिए  कबीर ने यह बताया कि ब्राहमण-शूद्र, हिन्दू- मुसलमान सबका ईश्वर एक है, इसके लिए जात-पात के  झगडे और धार्मिक फसाद व्यर्थ हैं. धार्मिक विभेद और वेद- कुरान की सत्ता को इस निर्गुण ब्रह्म ने ऐसी चुनौती दी, जिसकी कोई दूसरी  मिसाल उस काल के समाज और साहित्य में नहीं हैं. इस निर्गुण ब्रह्म के जरिए  सभी तरह के धार्मिक बाह्याचारों की व्यर्थता सिद्ध करते हुए कबीर ने सबके लिए एक सुगम धार्मिक राह निकाली. कबीर का यह क्रान्तदर्शी रूप था, जिसकी प्रंशसा उनके विरोधियों तक ने की. लेकिन उन्होंने जिस निर्गुण ब्रह्म को अपने धार्मिक- सामाजिक उद्देश्य का सबसे बड़ा संबल और पाथेय बनाया, उसकी लोक स्वीकृति आसान न थी, उसे लेकर तरह-तरह के विवाद खड़े किये गए और उसे सामान्य ‘लोकधर्म’ के विरुद्ध बताया गया. बहुदेवों की सगुण उपासना वाले इस देश में निर्गुण पंथ की आलोचना और निषेध के संगठित सांप्रदायिक प्रयास शुरू हुए. निर्गुण पंथ ईश्वर के सगुण  साकार अस्तित्व को नकारता है. इसका कारण यह है कि ईश्वर के सगुन साकार अवतारी रूप और उसकी उपासना विधि के मूल में वर्णाश्रम  धर्म की प्रतिष्ठा है सगुणवादियों  ने इसीलिए निम्न जन्मा लोगों के निर्गुण पंथ की आलोचना की. निर्गुण पंथ के विरोध का एक अन्य कारण  भी था. कबीर ने जिस निर्गुण ब्रह्म का निर्माण किया, उसे काया के भीतर ही खोजने की बात की. उन्होंने कहा की तेरा साईं तुम्हारे भीतर है. उसे काबा- काशी और मंदिर-मस्जिद में ढूढना व्यर्थ है. ईश्वर का बगीचा तुम्हारे शरीर में ही है. उसका सौन्दर्य देखने के लिए बाहर जाना व्यर्थ है – ‘ बागों न जा रे न जा, तेरी काया  में गुलजार’. लेकिन उस ईश्वर की छवि देखने के लिए काया के भीतर सहस्त्रार चक्र पर बैठकर समाधि  लगानी होगी. उस ईश्वर के दर्शन के लिए काया के भीतर इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, सहस्त्रदल कमल, अनहद नाद आदि अदृश्य उपासना साधनों की जरुरत है. इन साधनों के जरिए  अपनी काया  में ही उस ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सकता है और अनहद संगीत सुना जा सकता है. यह उपासना मार्ग बाह्याडम्बरों को अस्वीकार कर सिर्फ शुद्ध एवम् सच्चे तन-मन की जरुरत पर जोर देता है. यह हर लिहाज से भेदभाव रहित उपासना मार्ग है. इसके लिए मंदिर- मस्जिद, काशी-काबा, वेद-कुरान और पंडित- मुल्ला की जरुरत नहीं. भेद पैदा करनेवाले और खर्चीले बाह्याचारों की तुलना में यह आम लोगों के लिए सुलभ उपासना मार्ग था. इस मार्ग की खोज करके कबीर ने निम्न जन्मा लोगों की ‘जुगन- जुगन की त्रिसा’ बुझाई. यह ‘त्रिसा’ धर्म और ईश्वर की थी. सगुण ईश्वर और मंदिर निम्न जन्मा लोगों के लिए तब प्रवेश वर्जित क्षेत्र थे. उनका धर्म तो मालिकों की सेवा करना भर था. उनकी मुक्ति धर्म से नहीं, मालिक की सेवा में थी, उनका स्थान मंदिरों में नहीं, उनकी सीढियों पर था. कबीर ने ऐसे लोगों को निर्गुण पंथ के रूप में एक धर्म और ईश्वर देकर महान कार्य किया. भक्तिकाल में यह एक सामाजिक क्रांति थी.

लेकिन यह निर्गुण पंथ जिस उपासना विधि-समाधि आदि -की बातें करता था, उसमें गुह्य साधना और रहस्य के लिए काफी गुंजाईश थी. जिस शरीर में सभी देवों तथा तीर्थों के दर्शन करने का दावा निर्गुणियों ने किया, वह एक अद्भुत रहस्य- लोक हो गया. ब्रह्माण्ड का सारा खेल इस पिंड में देखने की घोषणा कबीर ने की-
चंदा- झलकै यहि घट माहीं|ऊँची आंखन सूझै नाहीं||
यही घट चंदा यही घट सूर| यही घट गाजै अनहद तूर||
यहि घट बाजै तबल–निसान| बहिरा सबद सुने नही कान||
मृगा हास कस्तूरी बास | आपन खोजै खोजै घास ||
किन्तु घट में ही पूरे ब्रह्माण्ड के दर्शन की प्रक्रिया ने एक किस्म की एकांत और अलक्षित –सी साधना को जन्म दिया, जो रहस्यवाद का मूलाधार है. यह रहस्यवाद कबीर में भी है और दूसरे निर्गुण पंथी संतों में भी. कबीर आदि का यह रहस्यवाद बहुत हद तक आज भी रहस्य ही है, उनके विरोधियों के लिए भी और समर्थकों के लिए भी. कबीर जैसे क्रान्तदर्शी कवि का यह रहस्यवाद उनके आलोचकों का बहुत बड़ा हथियार है. कबीर के समर्थक भी उनके रहस्यवाद की कोई सार्थक संगति उनके क्रांतिचेता रूप से नहीं मिला पाते. आखिर यह घट के भीतर खेला जाने वाला रहस्यवादी धूपछांही खेल ही तो था, जो बाह्याचारों की धज्जियाँ उड़ाकर और ईश्वर विहीन लोगों को ईश्वर देकर ‘जुगन-जुगन की त्रिसा’ इसी संसार में बुझाने के कबीर के महान उपक्रम पर प्रश्नचिह्न  लगता हुआ यह घोषणा कर रहा था की यह संसार अपना नहीं, माया है; यथार्थ नहीं, भ्रम है, स्त्री इसी माया का सबसे विकारयुक्त रूप है; मनुष्य का असली धर्म इस मायालोक से मुक्त होने में है, इस संसार रूपी नैहर को छोड़कर बाबुल के घर जाने में है, आदि. कबीर की यह घोषणा उन्हें रहस्यमयी साधना का अनुगामी बनती प्रतीत होती है. आरोप है कि यह साधना संसार की वास्तविकता को नकार कर एक काल्पनिक और अवास्तविक दुनिया में जाने को उद्धत करती है. इस दुनिया को माया मानकर अदृश्य को सत्य मानना रहस्यवाद है. लोक की चिंता में हलकान हुए जा रहे संत कवि का यह लोक विमुख धर्म कुछ चकित करने वाला है. प्रश्न है कि यह रहस्यवाद लोक विमुखता का ही पर्याय है या इसकी कोई सामाजिक सार्थकता भी है?

निर्गुण ब्रह्म की जन्म कथा में ही रह्स्य्वाद का बीज मौजूद है.जो रूप –रेखा विहीन, निराकार और अव्यक्त चेतना पुंज है, उसके बारे में तरह- तरह की जिज्ञासा और कल्पना करना सहज स्वाभाविक है. जिज्ञासु मन उसके बारे में, उसकी दयालुता – महानता के बारे में तरह-तरह के अनुमान लगाएगा. यह एक अंतहीन जिज्ञासा है और यह जिज्ञासा रहस्य का घर है. दृश्य लोक से भिन्न अदृश्य जगत की किसी अलौकिक सत्ता की भाव और चेतना के स्तर पर प्रतीति  और फिर उस अनुभव की शब्दों में अभिव्यक्ति एक टेढ़ी एवम् जटिल प्रक्रिया है. चूँकि बहुत कुछ अप्रकट और अनुभव के स्तर पर है, इसलिए उसकी अभिव्यक्ति में धुंधलेपन, अस्पष्टता, दुर्बोधता, प्रतीकता आदि का होना लाजिमी है. निर्गुण भक्ति में रहस्यवाद के प्रवेश और उपस्थिति की वजह यही है. जिन धर्मों में ईश्वर के निर्गुण रूप की अवधारणा ग्रहण की गई, उन धर्मों में प्राय: रहस्यवाद भी है. सगुण भक्ति में रहस्यवाद का अभाव है. उसमे अदृश्य सत्ता की कोई गुंजाइश नहीं है, जो कुछ है खुला खेल फर्रुखाबादी है. राम, कृष्ण आदि भगवान जन्म लेते हैं, धर्म की रक्षा के लिए तरह-तरह की लीलाएं करते हैं, और सारी लीलाएं चूँकि दृश्यमान होती हैं,इसलिए वहां न किसी रहस्य की गुंजाईश है, न रहस्यवाद की. इस दृश्य जगत में धर्म हेतु जन्म लेने वाले इश्वर की सेवा करना, कीर्तन करना, उसका अनुग्रह प्राप्त करना आदि ही उसकी भक्ति के विधान हैं. इसके लिए शुद्ध आचरण  और शुद्ध मन का होना जरूरी है. यह सरल-सहज उपासना पद्धति है. यह अलग बात है कि इस  उपासना पद्धति में भी भव्यता और ताम झाम का महत्व बढ़ गया, किन्तु है यह सरल- सहज ही.सगुण  भक्ति में तो नाम जाप ही काफी है. लेकिन यह सगुण भक्ति जात-पांत की विभेदकारी भूमि पर आधारित है, इसके मूल में वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा है, इसलिए निम्न जन्मा लोगों के लिए यहाँ सम्मान जनक स्थान नहीं है. यही कारण है की भक्ति आन्दोलन के प्रथम खेवे के निम्न जन्मा संत कवियों ने उस निर्गुण ईश्वर की भक्ति स्वीकार की, जो जाति, वर्ण और धर्म से परे है. निर्गुण पंथ कबीर और उनके समानधर्मा संत कवियों द्वारा विवशता में अपनाएं गए धर्म का प्रतिफल है. इस विवशता के पीछे लाखों –करोड़ों निम्न जन्म लोगों की धार्मिक प्यास छुपी थी, जो सगुण  भक्ति से नहीं बुझने वाली थी.

निर्गुण पंथ में अधिकतर वे जातियां शामिल हुईं जो निम्न जन्मा थीं, साथ ही जो दस्तकारी, शिल्प, व्यापार आदि धंधों से जुडी थीं. नई सामाजिक- राजनीतिक स्थिति ने उनकी आर्थिक स्थिति कुछ बेहतर बना दी थी. थोड़ी आर्थिक निश्चिंतता आते ही उनके भीतर युगों की सोई सांस्कृतिक – धार्मिक चेतना जग गई. इस चेतना ने निर्गुण पंथ के रूप में अपना वैकल्पिक धार्मिक संसार रचा. निर्गुण पंथ मध्यकाल में उन नई सामाजिक शक्तियों की धार्मिक इच्छाओं- आकांक्षाओं की साकार अभिव्यक्ति है, जिनके लिए हिन्दू- धर्म और इस्लाम तथा वेद और कुरान दोनों ही अपर्याप्त थे. इन सामाजिक शक्तियों ने जिस ईश्वर की रचना की, उसका नाम निर्गुण था. जब ईश्वर आया तो उसकी प्राण प्रतिष्ठा के लिए मंदिर भी चाहिए. मंदिर बनाने की उन्हें छूट नहीं थी. यह नया वर्ग इतना शक्तिशाली नहीं था और शासक- पुजारी वर्ग इतना उदार नहीं था कि  मंदिर बनता. मंदिर की व्यर्थता भी इनके सामने थी. मंदिर भेदभाव के अड्डे थे. इसलिए इन्होने ऐसे मंदिर की रचना की जहाँ भेदभाव की गुंजाइश नहीं थी. इन्होंने अपने तन को ही मंदिर माना और हर किसी को अपने तन रूपी मंदिर में ही साधना करने की सलाह दी. तन मंदिर है; मंदिर को साफ और पवित्र होना चाहिए. इसके लिए जीवन में शुद्ध आचरण की आवश्कता बताई गई. मंदिर में पूजा – आराधना का विधि- विधान है, उसी तरह इस तन रूपी मंदिर में भी साधना का और ब्रह्म- साक्षात्कार की विधि- विधान विकसित हुआ. यह विधि- विधान ध्यान, योग- कुंडलिनी, समाधि आदि के जरिए  निर्मित हुआ. यह विधि- विधान ध्यान, योग- कुंडलिनी, समाधि आदि के जरिए  निर्मित हुआ. इन्हीं  के जरिए  इस मंदिर में प्रवेश संभव था, इन्हीं के जरिए  ब्रह्म- साक्षात्कार भी संभव था. यह वैकल्पिक धर्म था, वैकल्पिक धर्म और वैकल्पिक उपासना – मार्ग था. इस वैकल्पिक संसार  की रचना से उपेक्षित – उत्पीडित जनता की भौतिक और धार्मिक प्यास बुझती थी, जीने की नई राहें बनती थीं. इसे इस रूप में देखने पर उसकी प्रगतिशील भूमिका दिखाई देगी, वर्ना यही लगेगा कि  एक विधि- विधान की जगह उससे अधिक निकृष्ट विधि- विधान निर्गुण पंथ ने विकसित किया.

कबीर आदि निर्गुण पंथियों में जो रहस्य भावना है, उसका कारण तन को देवालय बनाकर उसी में अपने ईश्वर के साक्षत्कार का प्रयत्न है. इस रहस्य भावना के अपने प्रतीकार्थ हैं. किसी बाहरी कर्मकांड और दिखावे की जरुरत नहीं है. इन्द्रियों समेत इस पुरे तन का ही शोध करना है, क्योंकि तन के भीतर ही सब कुछ है. यह काया मंदिर और मनसा (मन) थंभ है. यह मंदिर विकट किले सा है, जिसे जीतना कठिन है, क्योंकि – ‘क्यूँ लीजै गढ़ बंका भाई, दोवर कोट अरु तेवर खाई.’इस तन रुपी बक्र गढ़ को कैसे जीता जाए? इसका परकोटा दुहरा  और खाई तिहरी है. इसमें काम के कपाट लगे हैं, सुख-दुःख इसमें द्वारपाल हैं, पाप-पुण्य द्वार हैं, क्रोध जहाँ प्रधान पद पर हैं, लोभ विकत योद्धा है. मन यहाँ का राजा है, आदि –आदि. कबीर के पास इस गढ़ को जीतने के लिए प्रेम का पलीता, सुरति की तोप और ज्ञान का गोला है. ब्रह्माग्नि, सत्य, संतोष, साधु –संगति और गुरु –कृपा आदि हथियारों के साथ कबीर ने चढ़ाई की. गढ़ को जीता और राजा को वश में कर लिया. जाहिर है कि ऐसे बीहड़ गढ़-से मंदिर में प्रवेश के लिए अपने कठोर नियम हैं. इन नियमो का पालन करके ही उस मंदिर में अभ्यर्थना की जा सकती है.

लेकिन संसार ही जब माया है, तब किसी वैकल्पिक संसार का क्या मतलब? एक माया शंकराचार्य की थी, एक कबीर की. शंकराचार्य की माया ने दर्शन के क्षेत्र में पांडित्य की कैसी चुनौती उपस्थित की, इस इतिहास से सभी परिचित हैं. वह एक अतिसूक्ष्म बौद्धिक बहस है, जिसका कोई सम्बन्ध सामान्य जन से नहीं. इसलिए शंकर की माया को नामवर सिंह ‘पंडितों की संपत्ति’ कहते हैं. कबीर माया से टकराते हैं, उसे जीतते हैं और कभी- कभी उसी के वशीभूत होने को विवश हो जाते हैं. वह इसी लोक की माया है. यह माया एक ठोस वास्तविकता है, जिससे हमारा आपका हर रोज सामना होता है. जो संसार की माया यानी यहाँ बिखरे हुए विभिन्न आकर्षणों से दो- चार नहीं होगा, वह इसकी न्यारी गति को न तो समझ सकता है और न नया समाज रचने की सोच सकता है. यह माया कबीर को दुःख भी देती है. लेकिन यह दुःख दुनियावी भेद भाव से उपजता है. जैसे कबीर की माया ठोस वास्तविकता है वैसे ही उनके राम और निर्गुण भी. इस निर्गुण और राम की शक्ति के सहारे वे संसार की माया से टकराते हैं. जिस मन्त्र से माया रूपी संसार की ठोस सच्चाई का सामना किया जाये, वह निर्गुण और राम  ठोस सच्चाई के सिवा और कुछ नहीं. ठोस की काट ठोस. ठोस का सामना हवाई बातों से नहीं किया जा सकता. न तो कबीर के राम दर्शनशास्त्र की अमूर्त अवधारणा हैं, न उनकी माया, न उनका निर्गुण और न रहस्यवाद. नामवर सिंह के अनुसार “माया की तरह ही कबीर के निर्गुण राम काफी भौतिक हैं – ‘भौतिक’ और वास्तविक. सगुण से किसी भी माने में कम मूर्त नहीं. जिस निर्गुण से मंदिर और मस्जिद की नींव  हिल गई, ब्राह्मण और शेख विचलित हो गए, वेद- कुरान की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ गई, वह एकदम हवाई चीज नहीं हो सकती. निर्गुण ऐसा ‘ज्ञान’है जिसे कबीर कभी तीर कहते हैं और कभी तलवार.स्वयं  कबीर के ह्रदय में यह ज्ञान तीर की तरह चुभा था, लेकिन कबीर के विरोधियों की नज़र में वह चमचमाती हुई तलवार थी. जो ज्ञान न हिन्दू, न मुस्लमान हों, और जो ब्राह्मण-शूद्र के भेद को नकारता हो, उसका नाम निर्गुण के अलावा और हो ही क्या सकता है. सभी स्थापित मान्यताओं का निषेध ही निर्गुण है......निर्गुण को स्वीकार करके ही कबीर ने बाकी सबको अस्वीकार करने का साहस हासिल किया. कहना न होगा कि ‘निर्भय निरगुन’ गाने वाले कबीर के अन्दर कोई गहरा स्वीकार है. यह निर्गुण कोई रहस्य नहीं, बल्कि क्रांतदर्शी कवि की उदात्त कल्पना है, सभी वांछित मूल्यों और सपनों का संभाव्य मानचित्र.”

इसलिए कबीर के रहस्यवाद, अनहद, ध्यान- योग के मूल में निहित जो मूल आशय है उसे समझने की जरुरत है. इसके पीछे इसी लोक में भौतिक एवम् आध्यात्मिक अधिकारों से वंचित सामाजिक रूप से अपमानित- प्रताणित जनों के लिए वैकल्पिक संसार रचने का स्वप्न है. यह स्वप्न हकीकत बनता है या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं  है, जितना महत्वपूर्ण है  सामंती काल में उस स्वप्न का जन्म लेना. उस स्वप्न की  अंतर्वस्तु कैसी होगी, जिसकी चर्चा मात्र  वेद, कुरान के हिमायती पंडितों- काजियों के कान खड़े कर दिए. न किसी राजा का आश्रय, न बौध धर्म की तरह संगठित कोई संघ संप्रदाय, फिर भी कबीर के निर्गुण ने अपने विरोधियों के भीतर सगुण  भय पैदा कर दिया. सूर- तुलसी समेत प्रायः सभी सगुणवादी संतों के कान खड़े हो गए. यदि निर्गुण रहस्य है, अबूझ है तो आज भी अनपढ़ दलितों के बीच लोकप्रिय क्यों है? प्रेमचंद के धीसू – माधव तथा अत्यंत निचली श्रेणी के पात्र कबीर का निर्गुण क्यों गाते हैं? आधुनिक काल में निराला का ‘चतुरी चमार’ और उसके साथी भी निर्गुण गाते हैं. न सिर्फ गाते हैं, बल्कि उसका मतलब भी बताते हैं. अनपढ़ चतुरी का और कबीर पदावली का विशेषज्ञ है. जिस निर्गुण को समझने में पंडितों के छक्के छूटते हैं, उसका मतलब चतुरी और उसके साथी जानते हैं. निराला को आश्चर्य होता है- ‘वे लोग ऊँचे दर्जे के उन गीतों का मतलब समझते थे, उनकी नीचता पर एक आश्चर्य मेरे  साथ रहा. बहुत से गाने आलंकारिक थे. वे उनका मतलब भी समझते थे.’ विद्वानों को भले ही निर्गुण का अर्थ समझने में कठिनाई हो, उसमे परत-दर –परत रहस्य दिखाई देता हो,प्रेमचंद- निराला के धीसू-माधव और चतुरी जैसे लाखों दलितों की आध्यात्मिक प्यास कबीर आदि संतों के निर्गुण से बुझती रही है और इससे उन्हें जीने की उर्जा मिलती रही है. आधुनिक साहित्य में ब्राह्मणवाद के प्रखर आलोचक प्रेमचंद- निराला के दलित पात्रों का निर्गुण गाना यों ही नहीं है. इसके गहरे निहितार्थ हैं. यह कबीर की लोक चिंता की लोक में व्यापक स्वीकृति का सूचक है. कबीर आदि निर्गुण पंथी संत अपने नाम पर चलाये गए मठों –सम्प्रदायों में आज दफ़न कर दिए गए हैं, किन्तु वे जीवनी – शक्ति बनकर लोक में ही जीवित हैं.

कबीर की रहस्य-भावना की ही तरह उनकी उलटबांसियों की भी आलोचना हुई है और यह कहकर उनका मजाक उड़ाया गया है कि  ऐसा कहकर वे अनपढ़ जनता पर भाषित करना चाहते थे कि वे ज्ञानी एवम् पहुंचे हुए संत हैं. यह उलटबांसी भी  रहस्य-भावना का ही एक रूप मानी गई. ऐसा क्यों है कि ‘डायरेक्ट्नेस’ का हिमायती कबीर उलटबासियों की शरण में जाता है? कुछ प्रचलित और सपाट उलटबांसियों की शरण में जाता है? कुछ प्रचलित और सपाट उलटबासियों में ही नहीं गहन आध्यात्मिक पदों – साखियों में जहाँ कबीर का क्षोभ नहीं, शांत मन बोलता है, वहां भी रहस्य भाव और प्रतीक भरे पड़े हैं.

उलटबांसी का कारण नामवर सिंह के अनुसार कबीर का दुःख है. कबीर का दुःख क्या है? एक दुःख तो समाज का भेदभाव है, जिसके लिए निर्गुण गाते हैं. दूसरा दुःख ‘सभी वांछित मूल्यों और सपनों का संभाव्य मानचित्र’ है, जब मानचित्र है तो दुःख कैसा? “ दुःख सिर्फ इस बात का है की दिमाग में नक्शा  तो है, लेकिन उसके मुताबिक एक नया  संसार बनाने के साधन नहीं हैं. यह असहायता और विवशता ही दुःख है. वह नक्शा आँखों में तो है, लेकिन आँखों के सामने नहीं है, मन में है; संसार में नहीं. कबीर की ही तरह यह दुःख भी निराला है: विरोधाभासों से भरा हुआ, विडम्बनाओं से युक्त. अनुभव के ये उत्कट क्षण इसलिए प्रायः उलटबांसियों में व्यक्त होते हैं.” बात सही है, जिस नए संसार का चित्र कबीर के पास है, उसे निर्मित न कर पाने की विवशता ने प्रतीकों, उलटबांसियों और विरोधाभासों को जन्म दिया है. यही बात मुक्तिबोध पर भी लागू होती है, जिनके ‘भविष्य का नक्शा’ की याद नामवर सिंह को कबीर के नए संसार के प्रसंग में आती है. लेकिन मुक्तिबोध के पास वर्तमान के  तीव्र बोध के साथ ‘भविष्य का नक्शा’ जितना सुस्पष्ट है, कबीर के पास नहीं. कबीर के पास जितना अपने समय और समाज का गहरा और तीखा बोध है, उसे तहस- नहस कर नया समाज बनाने का दृढ संकल्प है, उतना उस नए समाज का स्पष्ट चित्र नहीं है. कबीर धर्म का विकल्प धर्म में, ‘वेद कितेब’ का विकल्प ‘गुरुबानी’में सगुन का विकल्प निर्गुण में, बाहरी मंदिर का विकल्प काया  के भीतरी मंदिर में, बाह्याचार का विकल्प तन रूपी मंदिर में ‘सहज समाधि’ लगाने में ढूढ़ते हैं. ऐसे में रहस्य- भावना ही नहीं, उलटबासियों और विरोधाभासों का पैदा होना स्वाभाविक है. मुक्तिबोध के पास जिस तरह से पूंजीवाद का विकल्प समाजवाद है, उतना स्पष्ट नक्शा कबीर का नहीं है. बावजूद इसके मुक्तिबोध के यहाँ भी ‘साक्षात्- रहस्य’ के रूप में ‘रक्तालोक स्नात पुरुष’ मौजूद है. आखिर क्यों? इसलिए कि  जटिल यथार्थ को ठीक-ठीक व्यक्त करने में जब पुराने शब्द, बिम्ब, प्रतीकादि असमर्थ पड़ जाते हैं, तब नए बिम्बों – प्रतीकों की जरुरत पड़ती है. यथार्थ का जो जटिल रूप ठीक-ठीक समझ या पकड़  में नहीं आता,वहां ‘गहन एक संदेह’ पैदा होता है.जहाँ आँख और समझ असमर्थ हों. गहन संदेह हो, वहां रहस्य-भावना का पैदा होना स्वाभाविक है. प्रतीकों का बदल जाना भी स्वाभाविक है. जब कथन जटिल होगा तो कविता भी जटिल होगी. ऐसे में कविता ठीक –ठीक पकड में आने में वक्त लेती है. अगर ऐसा न होता तो उपेक्षित मुक्तिबोध का उनके जीवन काल में ही महत्व पहचानने वाले और आंकने वाले नामवर सिंह को अपनी  प्रिय कविता को समझने में भी तीन दशक का वक्त नहीं लगता. कभी ‘अँधेरे में’ को ‘व्यक्ति अस्मिता की खोज’ कहने वाले नामवर जी को वह कविता अब फासिज्म के खतरे के उदय से पैदा हुई लगती है.अभी यह गारंटी नहीं दी जा सकती है कि कोई तीसरी व्याख्या नहीं आ सकती. दी भी नहीं जानी चाहिए. बहरहाल, अगर ‘साक्षात् रहस्य’ और ‘गहन संदेह’ के बावजूद मुक्तिबोध प्रगतिशील हैं और यथार्थ वादी हैं तो कबीर भी हैं. जहाँ तक अंतर्विरोधों का सवाल है तो जटिल परिस्थिति के आकलन में इनका होना स्वाभाविक है. मुक्तिबोध के ही समानधर्मा कवि नागार्जुन में अंतर्विरोध तो है, लेकिन गहन-तो-गहन मामूली किस्म के भी संदेह’ का आभाव है. मुक्तिबोध में इसकी उपस्थिति और नागार्जुन में इसका आभाव, रामविलास शर्मा को भले नागार्जुन में प्रगतिशीलता और मुक्तिबोध में अस्तित्व वाद लगता हो, दूसरों के लिए यह उलटबांसी ही है. अंतर्विरोध का होना हमेशा अशुभ ही नहीं होता. वह प्रगति का भी सूचक होता है. जहाँ तक उलटबांसियों की दुरुहता का सवाल है, वह पंडितों और विरोधियों के लिए भले दुरूह हो कबीर प्रेमी जनता के लिए नहीं. इसके प्रमाण हैं प्रेमचन के धीसू- माधव और निराला के चतुरी चमार जैसे करोंड़ों दलित जो कबीर को गाते बजाते हैं और जीवनी शक्ति पाते हैं. इसका प्रमाण है यह लोक प्रचलित उक्ति –‘ कबीरदास की उलटी बानी, बरिसे कंबल भीजै पानी.’यह उक्ति वह चाभी है जो कबीर की जनता के पास है और जिससे वह उनकी उलटबांसियों के कठिन कपाट  को खोलकर भीतर तक धंसती रही है.

कबीर के यहाँ माया का एक रूप नारी भी है, जिसके बारे में उनके विचार अत्यंत कडवे हैं. कबीर के रहस्य का एक रूप यह भी है. कबीर साहित्य में कहीं माया और नारी एक हैं. कहीं दोनों ही आग हैं. जिससे  मनुष्य जलकर बर्बाद हो जाता है. कहीं नारी विष है,तो कहीं नरक का कुंड. नारी के स्नेह संपर्क से बुद्धि और विवेक नष्ट हो जाते हैं, किसी कार्य की सिद्धि नहीं होती. नारी आत्मज्ञान और मोक्ष की सबसे बड़ी बाधा है. नारी अपनी हो या पराई, उसके संपर्क से नरक में जाना पड़ता है, आदि-आदि. यहाँ लगता ही नहीं कि  ये उसी कबीर के विचार हैं जो सभी स्थापित मान्यताओं की चूलें हिलाकर रख देता है. नारी सम्बन्धी कबीर के ये विचार उसी सोच के तहत आए हैं जिसमें  उसके लिए कोई सम्मान जनक स्थान नहीं है. भारतीय धर्म-साधना में पुरुष के लिए स्त्री त्याज्य मानी गई है. ब्रह्मचर्य की महिमा बहुत पहले से गाई जाती रही है. महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य आदि महापुरुषों ने स्त्री का त्याग करके या ब्रह्मचर्य का पालन करके ही ऊँचा पद प्राप्त किया. यह सिलसिला भक्तिकाल में भी जारी रहा. आधुनिक काल में विवेकानंद, महात्मा गाँधी आदि ने भी ब्रह्मचर्य की महिमा का गान किया है. कबीर आदि निर्गुण पंथी संत भी इसी धारणा  के शिकार हैं. दलितों के लिए समय-समय पर आवाजें उठती रहीं, भक्तिकाल में जात- पांत के बंधन ढीले कर दिए गए, लेकिन स्त्री सम्बन्धी सोच में कोई बदलाव नहीं आया. कबीर जैसा तेजस्वी संत कवि नारी के बारे में ऐसा विचार क्यों रखता है?इसका कोई माकूल उत्तर कबीर के प्रशंसक हजारी प्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध, इरफ़ान हबीब, नामवर सिंह आदि के लेखन में नहीं है. भक्तिकाल में नारी की सामाजिक स्थिति सोचनीय थी. सभी भक्त कवियों ने स्त्री- विरह के अनूठे प्रसंग रचे हैं. समूचा भक्तिकाव्य  अनूठे नारी- विरह से भरा पड़ा है. खुद कबीर के काव्य में नारी- विरह का बड़ा ही मार्मिक चित्रण है. यह नारी-विरह उनका रहस्य भाव भी है और प्रचंड संवेदना शक्ति भी. यह कार्य संवेदना के स्तर पर हुआ. सोच के स्तर पर स्त्री माया ही है. उस काल में सामन्ती सोच के तहत सामाजिक स्तर पर स्त्री भोग्या  और लूट का माल है तो धार्मिक स्तर पर माया. कबीर कभी इस माया से बचने की गुहार लगातें हैं और कभी बताते हैं कि माया उनके हाथ बिक चुकी है. नारी सम्बन्धी कबीर के ये विचार उनकी सीमा तो हैं ही, यह सम्पूर्ण भक्ति आन्दोलन की भी सीमा है. अपनी आधी आबादी के प्रति भक्त कवियों का रवैया भक्ति आन्दोलन के लिए आत्मघाती सिद्ध होता है.

हिंदी आलोचना में यदि कबीर के रहस्यवाद को ‘अभारतीय’ और लोकधर्म विरोधी कहने वाले हैं तो ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने उनके रहस्यवाद समेत उनकी उलटबांसियों तक का सम्बन्ध- सूत्र उपनिषदों से जोड़ दिया है. पहला प्रयास कबीर के काव्य को लोक चिंता के दायरे से बहार धकेलकर ख़ारिज करने का है तो दूसरा उन्हें शास्त्र सम्मत बनाने का. कबीर के प्रति विरोध और प्रेम का यह ढंग अनोखा है :ये दोनों ही ढंग उनके वास्तविक महत्व पर पर्दा डालते हैं. यह छोटा- सा लेख कबीर के निर्गुण और उनके रहस्यवाद के सामाजिक आधार की प्रस्तावना प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास भर है. रहस्यवाद के शास्त्रीय और अकादमिक विवेचन के रूप में कबीर की संगति बिठाने से ज्यादा जरुरी है, उसके सामाजिक आशय की खोज और उसी खोज की प्रक्रिया को समझना प्रस्तुत लेख का मुख्य अभिप्रेत है.



Saturday 16 May 2015

मध्यकालीन कविता का अध्ययन – अध्यापन : एक पुनर्विचार

मध्यकालीन कविता का अध्ययन – अध्यापन : एक पुनर्विचार

.....दुनिया के तमाम बड़े- बड़े विषयों पर, इतिहास पर, भूगोल पर, पुराण पर हम गोष्ठी करते रहते हैं लेकिन पाठ्यक्रम का चरित्र क्या हो और पाठ्यक्रम से हमारी अपेक्षाएँ क्या हों और वो हमारे समय की चुनौती को किस तरह से वहन कर सके, इसकी चिन्ता हमें कम होती है। हम अपने- अपने विश्वविद्यालयों में अपने- अपने ढंग से पाठ्यक्रम बना लेते हैं।
1922-25 के आस-पास हिन्दी विभाग खुलने शुरू हुए थे, बी.एच.यू. और इलाहाबाद में। अभी सौ वर्ष भी इसके पूरे नहीं हुए हैं, लेकिन ये लगने लगा है कि यह एक डाइंग डिसिप्लिन है। जिस विभाग का महत्व विश्वविद्यालय में सबसे नीचे पायदान पर  हो, जिस विषय को पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र, वे  होते हैं जिन्हें दूसरी जगह नौकरी नहीं मिलती है, ऐडमिशन नहीं होता है, जिनका  मार्केट में कोई मूल्य नहीं है। जो छात्र हिन्दी विभागों से निकल रहे हैं, उन्हें ले-देकर मास्टर ही बनना है। वे  विश्वविद्यालय के मास्टर बनें या प्राइमरी स्कूल के मास्टर। अपवाद स्वरूप कोई-कोई प्रतियोगी परीक्षाओं में चले जाएँ तो चले जाएँ। ऐसे छात्र अपवाद स्वरूप होते हैं, लेकिन अपवाद तो नियम नहीं होते। तो,  आज  हिन्दी एक डाइंग डिसिप्लिन के रूप में हमारे सामने है, इस  विषय का और इस  विषय के ज्ञान का मार्केट में कोई मूल्य नहीं है और यह  सरकारी संरक्षण में चलने वाला विषय है। ये सरकारी विश्वविद्यालय अगर नहीं रहेंगे तो कोई  प्राइवेट विश्विविद्यालय शायद ही हिन्दी विभाग खोले। तब हिन्दी के सारे तथाकथित विद्वान प्राध्यापक लोग  बेरोजगार हो जाएंगे। लेकिन यहीं आप यह भी जानते हैं कि दूसरे विषयों के जो प्रोफेसर हैं वे  रिटायरमेंट के बाद प्राइवेट विश्वविद्यालयों में आदर पूर्वक बुलाए जा रहे हैं. और यहाँ जितना पा रहे हैं उससे अधिक वहाँ पा रहे हैं।यह है हिंदी कि वास्तविक स्थिति! इससे हम अध्यापकों  और छात्रों को इस विषय का महत्व समझ लेना चाहिए। ऐसे समय में हिन्दी के पाठ्यक्रम पर पुनर्विचार की जरूरतक्यों न हो? .....
आज सबसे पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि क्या हम अपने जमाने से दो-दो हाथ करने के काबिल हैं? बाजार में खड़े हो सकने की कूवत है हममें? हममें यानी हिन्दी और हिन्दी विभाग से जुड़े हुए लोगों में? कब तक ये सरकारी अनुदान पर हिन्दी विभाग चलते रहेंगे? अनुदान बंद हुए और विश्वविद्यालय प्राइवेट हो गए तो?....
....आदिकालीन साहित्य और मध्यकालीन साहित्य का जो टेक्स्ट है, पाठ है, वह  आज के शिक्षको और छात्रों के लिए एक अनजाना  क्षेत्र है| भाषा की दृष्टि से,  हम पहले बहुभाषी हुआ करते थे, अब एकभाषी होते जा रहे हैं। अब हिंदी के छात्र और  शिक्षक ये भूलते जा रहे हैं कि ब्रजभाषा और अवधी में फर्क क्या है। अवधी की कविता ब्रज भाषा के नाम पर पढ़ा दें या ब्रजभाषा की कविता अवधी के नाम पर पढ़ा दें तो काम चल जाएगा। कोई नहीं कहेगा कि आप गलत पढ़ा रहे हैं। एक समस्या तो यह हुई है कि हिन्दी साहित्य, जिसका आधार आदिकालीन, भक्तिकालीन और रीतिकालीन साहित्य पर टिका हुआ है, के मूल टेक्स्ट को समझने वाले लोग कम होते जा रहे हैं।  गनीमत है  कि हमारे  पूर्वजों ने, सारे पुराने साहित्य को न सिर्फ घूम-घूमकर ढूँढा, बल्कि उसकी टीकाएँ भी लिखीं। अब  टीकाएँ पढ़कर कम से कम हम  उसका अर्थ लगा लेते हैं। अब सोचिए कि कबीर की पदावली को, मीरा की पदावली को ढूँढने में कितना समय लगा होगा! सोचिए कि पद्मावत की संजीवनी टीका लिखने में वासुदेवशरण अग्रवाल को कितना वक्त लगा! हिन्दी वालों को इसके लिए ऋणी होना चाहिए उन सब लोगों के प्रति, जिन्होंने हिन्दी के पुराने साहित्य का पाठ तैयार करने में अपनी हड्डी गला दी ।....
हिंदी के पाठ्यक्रम के साथ पहली  दिक्कत यह है कि हमारा संबंध हिन्दी क्षेत्र की जो बोलियाँ हैं उनसे कम होता जा रहा है।उन बोलियों से जब  हमारा परिचय कम होगा, तब उन बोलियों का जो साहित्य है, मतलब ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, भोजपुरी आदि बोलियों में रचा  गया जो  साहित्य है, उसका  न तो हम ठीक-ठीक पाठ कर सकते हैं, न ठीक-ठीक उच्चारण। फल यह  है कि शिक्षकों से लेकर छात्रों तक, हम लोगों को मध्यकालीन कवियों की बहुत कम कविताएँ याद हैं। शायद ही हम कभी उद्धृत करते हों पुराने कवियों को अपनी बातचीत में, अपने व्याख्यान में। मध्यकालीन कविता से हमारा एक अपरिचय-सा होता जा रहा  है। इसीलिए  मेरे लिए तो मध्यकालीन साहित्य के पाठ्यक्रम पर पुनर्विचार करते हुए सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके  पाठ से शिक्षकों और छात्रों का रागात्मक संबंध कैसे बने। मध्यकालीन साहित्य के  पाठ की एक विधि है।  सोरठा, सवैया, चौपाई, दोहा, कवित्त, कुंडलिया आदि को  पढ़ने का एक ढंग है। जो उसका ढंग है, उसमें पढ़ कर देखें। उस पाठ के साथ ही हमारे भीतर उस कविता के प्रति एक रागात्मक भाव पैदा होगा। ‘भये प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी। हर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप निहारी।’ इसके पाठ का जो ढंग है, बिहारी के दोहों, सूरदास और कबीरदास के पदों के पाठ का जो ढंग है, उस पाठ की विधि को हम नहीं जानते हैं।हम  क्लास में जाएँ और किसी तरह टीका देखकर अन्यमनस्क ढंग से कबीर का, पद्मावत का, नानक का या दूसरे किसी भी कवि का अर्थ बता दें, तो उससे बात नहीं बनेगी| जब हमारी ही रुचि नहीं है पाठ में और हमारी ही आत्मा में वह  कविता नहीं बसती है तो वह छात्र तक कैसे जाएगी! जाहिर है कि जब वह छात्र तक नहीं जाएगी तो उस साहित्य का और उस काल का भगवान ही मालिक है!
                तब  प्रश्न है कि  अध्यापक की पैठ कैसे हो मध्यकालीन साहित्य में? यह आधुनिक संयंत्रों का समय है। ये सारे पर्दे, प्रोजेक्टर, लैपटॉप, टैब, एल.सी.डी. आदि जो नई तकनीक है जिनका उपयोग दूसरे अनुशासनों में हो रहा है, लेकिन हिंदी का शिक्षक और छात्र इनका उपयोग अध्ययन- अध्यापन में कम करता है।... केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को पैसे और संसाधनों की कमी नहीं है। हम कबीर, नानक, रैदास, तुलसी आदि पढ़ाने से पहले सी.डी., प्रोजेक्टर आदि के माध्यम से इन कवियों के  पाठ को कुशल वाचक द्वारा सुना सकते हैं| हम  किसी व्यक्ति को ऐसा नहीं दिखा सकते  जो कबीर को गा रहा हो, जो तुलसीदास की कविताओं का पाठ कर रहा हो! ऐसा व्यक्ति जो कायदे से कर रहा हो। आप जरा एक बार  पाठ कराइए और तब देखिये कि छात्रों का मध्यकालीन कविता से  कैसे जुड़ाव होता है। मेरा सुझाव है कि  पाठ्यक्रम पर पुनर्विचार करते हुए हम इस बात को ध्यान में रखें|   आदिकालीन और मध्यकालीन साहित्य का अध्ययन-अध्यापन करते हुए हमारी रूचि  तभी जगेगी जब हम आधुनिक संयंत्रों से उसे जोड़ेंगे। हम इतने सक्षम नहीं हैं, हम अध्यापक, कि हम ठीक-ठीक उन कविताओं का पाठ करें। और हम अपने छात्रों में वो रागात्मक बोध उन कविताओं के प्रति जागृत करें। हम  कर सकते हैं अगर आधुनिक तकनीक का सहारा लें। आधुनिक तकनीक का सहारा लिया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम में यह जोड़ा जाना चाहिए, शामिल किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों से माँग की जानी चाहिए कि हिंदी के  क्लासरूम में भी  यह व्यवस्था हो।
दूसरी बात जो मैं कहना चाहता हूँ वह दृष्टि  से संबंधित है। दो-तीन साल पहले ‘आलोचना’ पत्रिका में मेरा एक लेख छपा था- श्रीमंत शंकरदेव पर | असमिया जाति के निर्माण  में उनकी बड़ी भूमिका है। भक्त कवि थे। उस लेख  मैने एक बात कही थी कि भक्ति को देखने की हिन्दी साहित्य के इतिहास में और हिन्दी आलोचना में जो दृष्टि है, वह काशीसेंट्रिक  है। वह चाहे रामचंद्र शुक्ल की हो या  हजारी प्रसाद द्विवेदी की  या फिर रामविलास शर्मा की ।अबतक  हम काशीसेंट्रिक दृष्टि से भक्ति को देखते रहे  हैं। हम बात तो करते हैं भक्ति के अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य की, लेकिन हमारी दृष्टि काशी की  पीठ पर बैठ कर जो बन सकती है, वही होती है। हमारी दृष्टि में वह व्यापकता और वह बहुलता नहीं आ पाती है जिसकी अपेक्षा भक्ति साहित्य का अध्ययन और अध्यापन करते हुए होनी चाहिए। मैं अपना वह लेख तैयार कर रहा था, उसी बीच मुझे ‘मानुषी’ पत्रिका में ए.के.रामानुजन का एक इंटरव्यू पढ़ने को मिला। ए.के.रामानुजन  अंग्रेजी के प्रोफेसर थे और कैंब्रिज से  रामायण के तरह –तरह के पाठ  पर पीएच.डी. की थी| दक्षिण भारत में भक्ति साहित्य के प्रचार -प्रसार में उनकी बड़ी भूमिका है। दक्षिण भारतीय भक्ति साहित्य का अंग्रेजी में उन्होंने अनुवाद करके विदेशों तक उसे पहुँचाया है। दक्षिण भारत के भक्ति साहित्य को थोड़ा बहुत मैं ए.के.रामानुजन के अनुवाद के जरिए ही जानता हूँ। ‘मानुषी’ पत्रिका के उस इंटरव्यू में ए.के.रामानुजन ने कहा था कि भक्ति को देखने की हमारी आदत ‘सिंगुलर’ में है। भक्ति को हमें ‘प्ल्यूरल’ में देखने की आदत डालनी चाहिए। यानी भक्ति को हमारी देखने की दृष्टि में जो एकवचनता है, उसमें बहुवचनता आनी चाहिए। जैसे ही उसमें बहुवचनता आएगी, उसका अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य सही अर्थों में उद्घाटित होगा।  तब काशी सेंट्रिक  दृष्टि से भक्ति को देखने की  जड़ता टूटेगी और एक नई दृष्टि हमारे सामने आएगी, भक्ति का एक नया संसार भी हमारे सामने आएगा। तब आप देखेंगे कि शंकरदेव भक्त होते हुए कैसे कुछ वह नया करते हैं जो कबीर, सूरदास या तुलसीदास नहीं करते । इसी तरह दूसरे प्रदेशों में वहां  के भक्ति साहित्य की अपनी कुछ खूबिया हैं, कुछ अपना वैशिष्ट्य है और उस के सहारे वह अपनी पहचान रखता है और वहाँ की क्षेत्रीय जातीयता के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करता है। इस तरह से मुझे लगता है कि भक्ति साहित्य को देखने की जो दृष्टि बन गई है हमारे विश्वविद्यालयों में, यानी शुक्लजी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा की जो  दृष्टि है,   भक्ति को देखने की, उससे मुक्त होकर, जैसी अपेक्षा रामानुजन करते हैं, भक्ति को प्ल्यूरल में देखना चाहिए।
भक्ति के कई रूप हैं और कई धाराएँ हैं। उसके विस्तार में और उसके बड़े आयाम में ही उसे देखा जाना चाहिए।  ...टेक्स्ट का, पाठ्यक्रम का निर्माण एक पॉलिटिकल ऐक्ट है।  अध्यापक होने के कारण देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम निर्माण कार्य में सहयोग देने के लिए मुझे भी  जाना पड़ता है| हम अपनी पसंद से जिसे श्रेष्ठ समझते हैं वह  निर्धारित करते हैं।लेकिन  हमसे विपरीत रूचि और विचारधारा के लोगों को वह श्रेष्ठ नहीं लगता | पाठ्यक्रम निर्माण पॉलिटिकल ऐक्ट तो है ही, यह एक तरह से छीना-झपटी का भी मामला है कि पाठ्यक्रम पर कौन कब्जा जमाता है।
प्रो.तुलसीराम ने विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान दिया। उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही कि इतिहास जैसा होता है, साहित्य वैसा होता है और इतिहास को हमने लिजेन्ड्री बना दिया है, रेशनलिटी से उसका संबंध कम किया है और इतिहास और मिथक में हम भेद करना भूल गए हैं। यह अच्छी बात है। हम रेशनल नहीं होंगे तो आधुनिक भी  नहीं होंगे, लेकिन मेरे सामने एक प्रश्न है कि जो रेशनलिटी, जो ऑब्जेक्टिविटी, जो तर्कशीलता इतिहास-लेखन में कारगर सिद्ध होती है, क्या साहित्य लेखन में हम उसे एप्लाई कर सकते हैं? यहाँ  मुझे एक कहानी याद आ रही है - मुक्तिबोध की कहानी है ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’। अब मुक्तिबोध क्या थे, यह बताने की जरूरत नहीं है। किसी अलौकिक चीज में उनका विश्वास नहीं था। नास्तिक थे। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में विश्वास करते थे। सगुण भक्तों की उन्होंने मरम्मत की और निर्गुणपंथियों के पक्ष में खड़े हुए। क्या है उनकी उस कहानी में ? दक्षिण का एक विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने काशी आता है। ज्ञान का भूखा है। कोई गुरू उसे पढ़ाने के लिए तैयार नहीं होता, क्योंकि दक्षिणा नहीं है। निराश होकर वह लौट रहा है। काशी के बाहर शाम के झुटपुटे में उसे एक खंडहर मिलता है, उसमें एक बूढ़ा आदमी मिलता है।वह  उस विद्यार्थी की व्यथा सुनता है और कहता है कि मैं तुझे पढ़ाऊँगा। तू मेरे पास रह। वह रह जाता है, क्योंकि वह ज्ञान का बहुत भूखा था। पढ़ाई चलने लगती है। वह उस बूढ़े की सेवा करने लगता है । बारह वर्ष बीत जाते हैं। जब वह बूढ़ा सारा ज्ञान दे देता है, तब वह  कहता है कि मेरे पास जो कुछ था, वह मैंने तुझे दिया। अब तू जा और इस ज्ञान का प्रचार कर दुनिया में और इससे दुनिया का कल्याण कर। वह अंतिम दिन है, जब शिष्य विदा होने वाला है। कुछ स्पेशल भोजन दोनों ने बनाया है। साथ बैठकर खा रहे हैं। यहाँ तक तो कहानी बहुत मजे से  चलती है| अचानक गुरू की थाली में दाल घट जाती है| शिष्य कहता है कि मैं हाथ धोकर दाल लाता हूँ गुरूजी। गुरू कहता है कि तू बैठ यहीं, मैं ले लेता हूँ। गुरू अचानक अपना एक हाथ बढ़ाता है।  उसका हाथ रसोई घर तक चला जाता है। और जो भी कढ़ाई या बटली हो उसमें से वह कलछुल से दाल निकालता है, फिर हाथ छोटा हो जाता है और वह दाल थाली में रख लेता है। शिष्य देखता है और उसकी घिग्घी बँध जाती है। उसे लगता है, अरे! मैं बारह वर्षों से प्रेत के साथ रह रहा हूँ। तो गुरू उसे बताता है कि तूझे डरने की जरूरत नहीं। मैं ब्रह्मराक्षस हूँ। मेरी अकाल मृत्यु हो गई थी। मेरी आत्मा भटक रही थी। मैंने जो ज्ञान प्राप्त किया था उसे मैं दुनिया को देना चाहता था। कोई योग्य शिष्य नहीं मिल रहा था| अब तू  मिल गया। तूझे मैंने अपना  ज्ञान दे दिया और मैं दुनिया के ऋण से मुक्त हुआ। मुझे लगता है तुलसीरामजी, कि साहित्य का काम बगैर फैंटेसी, बगैर मिथक का उपयोग किये चल नहीं सकता । अब सवाल यह है कि हम उस मिथक का उपयोग किस दृष्टि से कर रहे हैं? एक मिथक का उपयोग तो भगवान सिंह ने ‘अपने-अपने राम’ में किया है।  शंबूक वध की जो कथा है... वाल्मीकि रामायण में है कि राम ने तपस्यारत शंबूक का सिर काट दिया था। वह  प्रसंग ‘अपने-अपने राम’ में भी आता है ।‘ अपने-अपने राम’ के जो नायक हैं, यानी भगवान सिंह के जो राम हैं वे  उस ब्राह्मण की चिल्लाहट सुनते हैं जिसके पुत्र को सर्प ने  काटा है | राम भीतर जाते हैं, वैद्य भेजते हैं, और जिस बच्चे को साँप ने काट खाया था| उसका इलाज करता है वैद्य और बच्चा जीवित हो जाता है। सवाल यह है, हमें रेशनल दृष्टि चहिए किसलिए? रेशनलिटी जरूरी है। तर्कशीलता जरूरी है। हम अपने मिथक का -क्योंकि मिथक का अपना एक सौंदर्य होता है- मिथक के दायरे में कैसे  आधुनिक उपयोग करते हैं। साहित्य में अंधविश्वास का विरोध जरूरी है। ये जो मनगढ़ंत कथाएँ कि रैदास की छाती के नीचे जनेऊ था, ऐसी कथाओं से मुक्त होने की जरूरत है, लेकिन इसी के साथ-साथ जो हमारी माइथोलॉजिकल परंपरा है उसे हम उठा कर फेंक नहीं सकते हैं। किसी भी देश का साहित्य माइथोलॉजी से मुक्त नहीं है। इतिहास को तो हम मुक्त कर लेंगे। हमारा संघर्ष वहाँ है जहाँ पुराण को इतिहास मानने का दबाव है, जहाँ स्मृति को इतिहास मानने का दबाव है और इतिहास मान लेने की राजनीति है। हमारा विरोध है और संघर्ष है, लेकिन हम मिथक का साहित्य में बहुत ही सुन्दर विनियोग करते रहे हैं और आगे भी होगा। असुन्दर विनियोग भी हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन हिन्दी में जहाँ तक मुझे जानकारी है, मिथक का बहुत ही शानदार उपयोग हमारे लेखकों और कवियों ने किया है और आधुनिकता के संदर्भ में किया है।
....जिसे हम आदिकाल कहते हैं, मध्यकाल कहते हैं, वह भारतीय भाषाओं की दृष्टि से, उनके अभ्युदय का काल है। हमारा  आधुनिक भारतीय भाषाओं का साहित्य इन्हीं  भाषाओं में लिखा गया है। यह द्वंद्व है कि इतिहास को हम कैसे देखें।  हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार  मध्यकाल जबदी हुई मानसिकता का काल है। जबदना यानी बैठ जाना। जैसे सर्दी जुकाम होने पर हमारा दिमाग बैठ जाता है। क्या मध्यकाल सचमुच जबदी हुई मानसिकता का काल है। इतिहासकार बताते हैं कि व्यापार में कितनी प्रगति थी। उद्योग धंधों में कितनी प्रगति थी। हमारा पर कैपिटा इनकम अकबर के टाइम में कितना बढ़ा हुआ था। आगरा बाजार दुनिया के बाजारों से  कितना समृद्ध था। भारत का महान साहित्य सभी भारतीय भाषाओं में इसी काल में लिखा गया और हमारी बोलियों के प्रति सम्मान का भाव, अभिमान का भाव आया। हमारे बड़े-बड़े संतों ने अपनी बोलियों में रचना की। क्या इस पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है? आधुनिकताबोध पर भी पुनर्विचार की जरूरत है और इस जबदी हुई मानसिकता वाला जो कथन है, इस पर भी पुनर्विचार की जरूरत है। इतिहासकार बताते हैं कि मध्यकाल महान परिवर्तनों का दौर था। अब एक तरफ तो आर्थिक क्षेत्र में, सामाजिक क्षेत्र में, साहित्य में, संस्कृति में, महान परिवर्तन हो रहा था, फिर हमारी मानसिकता जबदी हुई कहाँ थी? मुझे लगता है कि हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में  इन विचारों को रखना चाहिए पृष्ठभूमि के तौर पर। हमने लगभग साठ-सत्तर साल पढ़ा लिए- शुक्लजी की दृष्टि से इतिहास, द्विवेदीजी की दृष्टि से इतिहास। अब जरा देखें कि इतिहास की नई खिड़कियाँ कौन- सी खुल रही हैं। हम देखें कि इस बीच इतिहासकारों ने क्या नया काम किया है| एक इतिहासकार तो इसी ज.ने.वि. के रहे हैं सतीश चंद्र, उन्होंने कहा है कि भक्ति आंदोलन के उद्भव का कारण चाहे जो भी रहा हो, इसका श्रेय रामानन्द को नहीं दिया जा सकता। इसका श्रेय वे दूसरी चीजों को  देते हैं| क्षत्रिय राजतंत्र जब कमजोर पड़ा  और उसकी जगह पर तुर्क अफगान आये  और ब्राह्मण -क्षत्रिय समझौता जब कमजोर हुआ,  एक ट्रांजीशन पीरियड जब आया,  उस ट्रांजिशन पीरियड में  दबी - कुचली जो जातियाँ थीं, वे  उभर आती हैं, ऊपर आती हैं। इरफान हबीब ने कहा कि शिल्पी जातियों का विकास होता है। शिल्पों और उद्योग धंधों का विकास होता है और उसकी वजह से शिल्पी जातियों की आर्थिक स्थिति सुधरती है और आर्थिक स्थिति सुधरने से उनके भीतर सांस्कृतिक भूख जगती है। क्योंकि जब आदमी के पास पैसे होते हैं, पेट जब भरता है तभी वह संस्कृति की चिंता करता है। जब हम अघाए रहते हैं तभी हम सोचते हैं कि कपड़ा ठीक-ठाक होना चाहिए। जब हमारे पास घर होता है तभी हम सोचते हैं कि घर की दीवारों पर एक पेंटिंग भी होनी चाहिए। भूखा आदमी पेंटिंग की चिन्ता नहीं करता है। वह  साहित्य की चिन्ता भी नहीं करता है। यह तो भक्त कवि ही कह गए हैं कि ‘भूखे भजन न होंहि गोपाला। ले लो अपनी कंठी माला।’ इरफान हबीब ने कहा कि ये जो दस्तकार जातियाँ ऊपर आईं, ये जो दर्जी थे, जुलाहे थे, मोची थे, धुनिए थे, उन्होंने भक्ति आंदोलन का एक नया परिदृश्य तैयार किया। उसकी अपनी सामाजिक और आर्थिक परिस्थिति थी उत्तर भारत की। ये नहीं कि रामानन्द गए थे दक्षिण और झोले में भरकर लाए और काशी में खोल दिया। काशी नागरी प्रचारिणी सभा से एक पुस्तक प्रकाशित हुई है ‘रामानन्द की हिन्दी रचनाएँ’। उसमें बताया गया है कि रामानन्द दक्षिण गए ही नहीं थे। वो मथुरा कें पंडा थे और काशी में रहते थे। अब अगर सच  यही है कि वो मथुरा के थे और काशी में रहते थे, तो ये जो सारा श्रेय हम देते हैं कि ‘भक्ति द्राविड़ उपजी, लाए रामानन्द।...’, आप जानते हैं कि कहीं से विचार कोई लेकर आ तो जाएगा लेकिन वो विचार तभी जमीन पकड़ते हैं जब वहाँ की आब-ओ-हवा उसके अनुकूल हो। सिर्फ कानून बना देने से इतनी लड़कियाँ पढ़ने नहीं चली आई हैं ज.ने.वि. में। उन लड़कियों के माता-पिता की  जेब में इतने पैसे थे और वो मानसिक रूप से तैयार थे कि  बिहार, असम और बुंदेलखंड से अपने बच्चों को दिल्ली में भेज सकें। कोई भी घटना अगर घटित होती है तो उसके पीछे आर्थिक और सामाजिक कारण होते हैं। भक्ति आंदोलन के पैदा होने के और कबीर, सूर, तुलसी के पैदा होने के भी सामाजिक आर्थिक कारण थे। उनकी अवहेलना करके, उनको नजरअंदाज करके, हम मध्यकाल के पाठ्यक्रम को ठीक-ठीक नहीं समझ सकते हैं। इसलिए मेरा निवेदन है कि शुक्लजी और द्विवेदीजी के सहारे बहुत खंडन-मंडन हम लोगों ने कर लिया। मुसलमान आए तो ये हो गया। दक्षिण से भक्ति आ गई। नाथ और सिद्ध हुए थे इसीलिए कबीर, दादू और नानक पैदा हुए। ...धरा तभी हरी-भरी होती है, प्रवहमान होती है जब उस धारा को प्रवाहित करने वाली जो गतिमान शक्तियाँ हैं वो उस समय में मौजूद होती हैं। कबीर सिर्फ इसलिए पैदा नहीं हुए थे कि उस समय सिद्ध और नाथ हुए थे। ठीक है वो परंपरा थी। बारहवीं शताब्दी है गोरखनाथ का समय। पंद्रहवीं शताब्दी में कबीर पैदा होते हैं। ये तीन सौ वर्षों का गैप क्यों है नाथपंथ में और संत साहित्य में? कबीर, नानक, दादू या रैदास के पैदा होने की... पंद्रहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में वो सामाजिक परिस्थितियाँ थी जो इनको जन्म दे रही थीं और इन्हें गतिशील कर रही थीं।
मित्रों, इसलिए मध्यकाल के इतिहास को हम जरा नए परिप्रेक्ष्य में देखें। इतिहास को इतिहास की तरह उसको फालतू की किंवदन्तियों से हटाकर। अंधविश्वास वाली किंवदन्तियों को हटाकर। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखें। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें। तब हमें मध्यकाल का इतिहास एक नए परिप्रेक्ष्य में उभरता हुआ दिखाई देगा और हम हिन्दी के अध्यापक, छात्र जो शुक्लजी और द्विवेदीजी के दो किनारों पर दौड़ते हुए अपनी वैतरणी पार कर रहे हैं, उससे मुक्ति मिलेगी और भक्ति साहित्य को देखने की नई दृष्टि मिलेगी।
अब मैं फिर एक फैंटेसी का सहारा लेकर एक कहानी सुनाऊंगा और अपनी बात समाप्त करूंगा। यह कहानी बचपन में हम लोगों ने पढ़ी थी। हमारी प्राइमरी की जो किताब थी उसमें थी। गुरु नानक टहलते घूमते हुए एक गाँव में पहुँचे।  पहले  शाम के समय जो गाँव पड़ जाता था, जो घर पड़ जाता था उसी के यहाँ यात्री रुक जाते थे, ठहर जाते थे। यातायात के साधन नहीं थे। उस जमाने के संत बाबा रामदेव या आसाराम की तरह पंच सितारा संत भी नहीं हुए थे, पैदल घूमते थे। वो गाँव के किनारे पहुँचे तो एक बढ़ई का घर था। उन्होंने कहा कि बच्चा आज रात मैं तुम्हारे यहाँ गुजारुंगा। वह बहुत खुश हुआ। उसने खाट वाट बिछाई और उनकी सेवा में लग गया। भोजन पानी की व्यवस्था में लग गया। इसी बीच गाँव के जमींदार को मालूम हुआ कि गुरु नानक आए हैं और बढ़ई के घर रुके हुए हैं। उसे लगा कि मैं गाँव का जमींदार, और जब नानक आए हैं तो उन्हें हमारे घर होना चाहिए। इस गरीब बढ़ई के घर क्यों ठहर गए। अपना आदमी भेजा उसने। आदमी ने जाकर कहा कि ‘महाराज आप चले वहाँ, आपके स्वागत सत्कार में कोई कमी नहीं रखी जाएगी। ये गरीब बढ़ई आपका क्या स्वागत करेगा। आप चलिए जमींदार साहब ने बुलाया है।’ नानक ने कहा कि ‘अब संत का चिमटा जहाँ गड़ गया, गड़ गया। मैं तो अब यहीं रात गुजारुंगा। तुम जाओ जमींदार साहब से कह दो कि वो जो भी मुझे खिलाना पिलाना चाहते हैं ,वह यहीं भेज दें।’ बढ़ई भी अपने घर खाना बना रहा था । बढ़ई जब अपना खाना लेकर आया, थाली में सूखी रोटी, उसी बीच जमींदार का नौकर भी चाँदी के बर्तन में मालपुए वगैरह लेकर आया। नानक के सामने दोनों थालियाँ रख दी गईं। एक थाली से नानक ने रोटी उठाई और दूसरे से मालपुआ उठाया और दबाया। रोटी से दूध की  और मालपुआ  से खून की धारा निकली| नानक कहते हैं जमींदार के नौकर से, बढ़ई से और वहाँ इकट्ठे गाँव के लोगों से कि ये मेहनत की रोटी है। मेहनत की रोटी में दूध होता है और ये दूसरों के शोषण का मालपुआ है, इसमें दूसरों का खून होता है। क्या सचमुच ऐसा हुआ होगा नानक के जीवन में? मेरा तर्कशील मन कहता है कि हर्गिज नहीं हुआ होगा। लेकिन साहित्य में जब हम इस कहानी को पढ़ते हैं, मैं बताऊँ कि पाँचवीं कक्षा का छात्र मैं, मुझे भक्ति काव्य को पढ़ने की समझने की, पहली दृष्टि, सही दृष्टि वहीं मिली। कौन कहानीकार था आज मुझे मालूम भी नहीं है। लेकिन यह बोधात्मक कहानी कैसे एक बालक के मन में नई दृष्टि का वपन कर जाती है, उस कहानीकार को पता भी नहीं होगा। फैंटेसियों का कैसे हम उपयोग करते हैं साहित्य में, मिथकों का कैसे उपयोग करते हैं, यह लेखक की दृष्टि पर निर्भर करता है कि  उसकी दृष्टि आगे ले जाने वाली है कि पीछे ले जाने वाली| उसकी दृष्टि यथास्थितिवाद को बनाए रखने वाली है कि उसकी दृष्टि गतिशीलता को पसंद करती है। उस दृष्टि में मानव धर्म श्रेष्ठ है कि विभेदकारी धर्म। यह साहित्यकार की अपनी व्याख्या होगी और अपनी दृष्टि ....
दोष न तो फैंटेसी का होगा, न मिथक का, उपयोग करने वाले का होगा। मित्रों, भक्ति काव्य को पढ़ते हुए हम यह तो पढ़ते हैं कि सगुण और निर्गुण का झगड़ा था। फिर निर्गुण में भी अलग-अलग नानक पंथ, दादू पंथ, कबीर पंथ या रैदासी पंथ। और सगुण पंथियों में भी। लेकिन एक चीज जिसकी जरूरत है और दिखाए जाने की जरूरत है, हमारा जोर भक्ति काव्य के भीतर और भक्ति आँदोलन के भीतर जो अंतर्विरोध हैं उन पर तो खूब है, लेकिन मानव जाति को जोड़ने वाले जो एकता के सूत्र हैं, संपूर्ण भारत को जो एकता के सूत्र में, असम से लेकर केरल तक, जो एकता के सूत्र हैं, उस पर कम है। हम असम के शंकरदेव को पढ़ें, हम कर्नाटक के अलम्मा प्रभु, बसवन्ना और अक्क महादेवी को पढ़ें, हम तेलुगु   के त्यागराजु  को पढ़ें और हिन्दी के कबीर, तुलसी और सूरदास को पढ़ें, जो एसेंस है इनके साहित्य का, अपने- अपने निजी विश्वासों के बावजूद...। आप कमियाँ ढूँढने चलेंगे तो मध्यकाल के कवि हैं ये, उस काल की सीमाएँ इनके साथ हैं। कबीर के साथ है इंगला- पिंगला। कबीर ने सबसे अधिक स्त्रियों के बारे में चुनिंदा शब्दों का प्रयोग किया है, तुलसी ने वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया है। हम ढूँढे कि इनमें एकता के सूत्र क्या हैं जो मानव धर्म को जोड़ने  वाले हैं। कबीरा सोई पीर है जो जाने पर पीर- वो संत है जो दूसरे की पीड़ा जानता है। जब गुजराती के नरसी मेहता कहते हैं कि वैष्णव जन तो तैने कहिए, पीर पराई जाने रे, यानी वही वैष्णव है जो दूसरे के दुख जानता है। तुलसीदास जब कहते हैं कि परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीरा सम नहिं अधमाई, यानी दूसरे को दुख देने के समान कोई पाप नहीं है और दूसरे को सुख पहुँचाने के समान कोई पुण्य नहीं है। ये मध्यकालीन संत कवि धर्म की एक नई व्याख्या कर रहे हैं। एक नए मानव धर्म की प्रस्तावना लिख रहे हैं जिसमें दुखी जन की पीड़ा को जानना मुख्य काम है। यह  केंद्रीय दृष्टि होनी चाहिए संपूर्ण भक्ति साहित्य को देखने के क्रम में। वो चाहे असम के शंकरदेव को देख रहे हों या नरसी मेहता को  या अक्क महादेवी को|
इधर हमारी दृष्टि विभेदों पर ज्यादा केंद्रित है। जो मानव की एकता के सूत्र हैं उस पर कम केंद्रित है। मैं चाहता हूँ कि नए पाठ्यक्रम में एकता के सूत्रों पर जोर हो। मैं यह भी चाहता हूँ कि ये सारे जो भक्त कवि हैं, ये दुनिया के पहले कवि हैं, दुनिया के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कविता को धर्म ग्रंथ के बराबर दर्जा मिल गया है; कालिदास बड़े कवि हैं, शेक्सपीयर बड़े कवि या नाटककार हैं, टॉलस्टॉय बड़े उपन्यासकार हैं, लेकिन इनकी वाणी को भगवान की वाणी मानने वाली जनता नहीं है। लोग कहते हैं कि वे बड़े महान साहित्यकार हैं। हमारे ही यहाँ कालिदास की कविता को कविता ही मानते हैं, लेकिन कबीर, नानक, शंकरदेव, तुलसी, सूर की वाणी को हमारा देश मंत्र मानता है। मंत्र यानी अगर हम उसको कह दें तो सामने वाला बदल जाएगा।...आखिर ये कौन सी कविता है जिसका जबर्दस्त प्रभाव है हमारे जीवन पर। वो इसलिए है कि वह कविता जीवन की घनघोर आस्था से निकली हुई कविता है और वह हृदय के धरातल से निकली हुई है। वह जो आचरण में है उसी से निकली हुई । यह नहीं है कि हम स्त्री विमर्श पर बड़े अच्छे- अच्छे लेख लिख रहे हैं और घर में कुछ दूसरा स्त्री विमर्श कर रहे हैं।‘हंस’ में स्त्री विमर्श एक ढंग का चला रहे हैं और निजी जीवन में दूसरे ढंग का। इसलिए हमारे लिखने का, हमारी कहानियों, कविताओं, लेखों और व्याख्यानों का असर भी नहीं होता है पाठक - श्रोताओं पर, लेकिन ये भक्त कवि जब उनको हम पढ़ते हैं,  हमें बदलने लगते हैं। उन कविताओं में  हृदय की अतल गहराइयों से निकले हुए शब्द हैं। जो महसूस किया, जीवन में वो काम किया...। वर्णव्यवस्था में विश्वास है तो तुलसीदास ने कहा कि वर्ण व्यवस्था सही है। अरे क्या लगता था कि कह देते कि वर्ण व्यवस्था ठीक नहीं है! कबीर को लगा कि नारी माया है तो कहा कि नारी की झाईं परत...। हमें कोई द्वैत नहीं दिखाई देता है उन कवियों के जीवन और कथन में। यह जीवन और कथन के अद्वैत का साहित्य है जो सिर्फ भारतवर्ष ने दुनिया को दिया है। किसी भाषा ने ऐसा साहित्य नहीं लिखा है। ऐसे साहित्य से हमारे हिन्दी साहित्य का संबंध है, परंतु दुर्भाग्य यह है कि हम शिक्षक ही ऐसे साहित्य को भूल रहे हैं और छात्र तो भूल ही गए हैं। ... मुझमें वो चीज नहीं होगी तो मैं अपने छात्रों को कैसे प्रभावित करूंगा! यही कारण है कि आधुनिक भारत का जो सबसे बड़ा या कह लें कि आधुनिक दुनिया का जो सबसे बड़ा संग्राम गाँधी ने लड़ा, साम्राज्यवाद के खिलाफ; उनका पाथेय भक्त कवि थे। नरसी मेहता का भजन तो वे  सुबह शाम गाते ही थे।  कबीर का चरखा, उत्पादन का औजार था उनके पास। वह  चरखा सिर्फ चरखा नहीं था। कबीर मानते थे कि मैं जुलाहा हूँ और ब्रह्म सबसे बड़ा जुलाहा है। मैं ये लकड़ी का चरखा चला रहा हूँ और कपड़े बना रहा हूँ, वो ब्रह्म दुनिया का चरखा चला रहा है। गाँधी ने श्रम का प्रतीक लिया चरखे से। उन्होंने तुलसी से, उन्होंने नरसी मेहता से, वही परिभाषा ली, जिस परिभाषा को मैं कह रहा था कि भक्ति साहित्य को पढ़ते वक्त हमें केंद्र में रखना चाहिए। वह है मानव धर्म को जोड़ने वाला एकता का  सूत्र।
(6-7 मार्च 2014 को ‘जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय’, नई दिल्ली द्वारा आयोजित हिंदी के विश्व विद्यालयी पाठ्यक्रम, पर केन्द्रित संगोष्ठी में मध्यकालीन साहित्य के अध्ययन- अध्यापन की  समस्या पर दिए गये वक्तव्य का लिखित-सम्पादित  रूप )


·       प्रस्तुति : डॉ. शीतांशु