मध्यकालीन कविता का अध्ययन – अध्यापन : एक पुनर्विचार
.....दुनिया
के तमाम बड़े- बड़े विषयों पर, इतिहास पर, भूगोल पर, पुराण पर हम गोष्ठी करते रहते
हैं लेकिन पाठ्यक्रम का चरित्र क्या हो और पाठ्यक्रम से हमारी अपेक्षाएँ क्या हों
और वो हमारे समय की चुनौती को किस तरह से वहन कर सके, इसकी चिन्ता हमें कम होती
है। हम अपने- अपने विश्वविद्यालयों में अपने- अपने ढंग से पाठ्यक्रम बना लेते हैं।
1922-25
के आस-पास हिन्दी विभाग खुलने शुरू हुए थे, बी.एच.यू. और इलाहाबाद में। अभी सौ
वर्ष भी इसके पूरे नहीं हुए हैं, लेकिन ये लगने लगा है कि यह एक डाइंग डिसिप्लिन
है। जिस विभाग का महत्व विश्वविद्यालय में सबसे नीचे पायदान पर हो, जिस विषय को पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र, वे होते हैं जिन्हें दूसरी जगह नौकरी नहीं मिलती
है, ऐडमिशन नहीं होता है, जिनका मार्केट
में कोई मूल्य नहीं है। जो छात्र हिन्दी विभागों से निकल रहे हैं, उन्हें ले-देकर
मास्टर ही बनना है। वे विश्वविद्यालय के
मास्टर बनें या प्राइमरी स्कूल के मास्टर। अपवाद स्वरूप कोई-कोई प्रतियोगी
परीक्षाओं में चले जाएँ तो चले जाएँ। ऐसे छात्र अपवाद स्वरूप होते हैं, लेकिन
अपवाद तो नियम नहीं होते। तो, आज हिन्दी एक डाइंग डिसिप्लिन के रूप में हमारे
सामने है, इस विषय का और इस विषय के ज्ञान का मार्केट में कोई मूल्य नहीं है
और यह सरकारी संरक्षण में चलने वाला विषय
है। ये सरकारी विश्वविद्यालय अगर नहीं रहेंगे तो कोई प्राइवेट विश्विविद्यालय शायद ही हिन्दी विभाग
खोले। तब हिन्दी के सारे तथाकथित विद्वान प्राध्यापक लोग बेरोजगार हो जाएंगे। लेकिन यहीं आप यह भी जानते
हैं कि दूसरे विषयों के जो प्रोफेसर हैं वे रिटायरमेंट के बाद प्राइवेट विश्वविद्यालयों में
आदर पूर्वक बुलाए जा रहे हैं. और यहाँ जितना पा रहे हैं उससे अधिक वहाँ पा रहे
हैं।यह है हिंदी कि वास्तविक स्थिति! इससे हम अध्यापकों और छात्रों को इस विषय का महत्व समझ लेना चाहिए।
ऐसे समय में हिन्दी के पाठ्यक्रम पर पुनर्विचार की जरूरतक्यों न हो? .....
आज
सबसे पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि क्या हम अपने जमाने से दो-दो हाथ करने के
काबिल हैं? बाजार में खड़े हो सकने की कूवत है हममें? हममें यानी हिन्दी और हिन्दी
विभाग से जुड़े हुए लोगों में? कब तक ये सरकारी अनुदान पर हिन्दी विभाग चलते
रहेंगे? अनुदान बंद हुए और विश्वविद्यालय प्राइवेट हो गए तो?....
....आदिकालीन
साहित्य और मध्यकालीन साहित्य का जो टेक्स्ट है, पाठ है, वह आज के शिक्षको और छात्रों के लिए एक अनजाना क्षेत्र है| भाषा की दृष्टि से, हम पहले बहुभाषी हुआ करते थे, अब एकभाषी होते
जा रहे हैं। अब हिंदी के छात्र और शिक्षक
ये भूलते जा रहे हैं कि ब्रजभाषा और अवधी में फर्क क्या है। अवधी की कविता ब्रज
भाषा के नाम पर पढ़ा दें या ब्रजभाषा की कविता अवधी के नाम पर पढ़ा दें तो काम चल
जाएगा। कोई नहीं कहेगा कि आप गलत पढ़ा रहे हैं। एक समस्या तो यह हुई है कि हिन्दी
साहित्य, जिसका आधार आदिकालीन, भक्तिकालीन और रीतिकालीन साहित्य पर टिका हुआ है,
के मूल टेक्स्ट को समझने वाले लोग कम होते जा रहे हैं। गनीमत है
कि हमारे पूर्वजों ने, सारे पुराने
साहित्य को न सिर्फ घूम-घूमकर ढूँढा, बल्कि उसकी टीकाएँ भी लिखीं। अब टीकाएँ पढ़कर कम से कम हम उसका अर्थ लगा लेते हैं। अब सोचिए कि कबीर की
पदावली को, मीरा की पदावली को ढूँढने में कितना समय लगा होगा! सोचिए कि पद्मावत की
संजीवनी टीका लिखने में वासुदेवशरण अग्रवाल को कितना वक्त लगा! हिन्दी वालों को
इसके लिए ऋणी होना चाहिए उन सब लोगों के प्रति, जिन्होंने हिन्दी के पुराने
साहित्य का पाठ तैयार करने में अपनी हड्डी गला दी ।....
हिंदी
के पाठ्यक्रम के साथ पहली दिक्कत यह है कि
हमारा संबंध हिन्दी क्षेत्र की जो बोलियाँ हैं उनसे कम होता जा रहा है।उन बोलियों
से जब हमारा परिचय कम होगा, तब उन बोलियों
का जो साहित्य है, मतलब ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, भोजपुरी आदि बोलियों
में रचा गया जो साहित्य है, उसका न तो हम ठीक-ठीक पाठ कर सकते हैं, न ठीक-ठीक
उच्चारण। फल यह है कि शिक्षकों से लेकर
छात्रों तक, हम लोगों को मध्यकालीन कवियों की बहुत कम कविताएँ याद हैं। शायद ही हम
कभी उद्धृत करते हों पुराने कवियों को अपनी बातचीत में, अपने व्याख्यान में। मध्यकालीन
कविता से हमारा एक अपरिचय-सा होता जा रहा
है। इसीलिए मेरे लिए तो मध्यकालीन
साहित्य के पाठ्यक्रम पर पुनर्विचार करते हुए सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके पाठ से शिक्षकों और छात्रों का रागात्मक संबंध
कैसे बने। मध्यकालीन साहित्य के पाठ की एक
विधि है। सोरठा, सवैया, चौपाई, दोहा,
कवित्त, कुंडलिया आदि को पढ़ने का एक ढंग
है। जो उसका ढंग है, उसमें पढ़ कर देखें। उस पाठ के साथ ही हमारे भीतर उस कविता के
प्रति एक रागात्मक भाव पैदा होगा। ‘भये
प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी। हर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप
निहारी।’ इसके पाठ का जो ढंग है, बिहारी के दोहों, सूरदास और कबीरदास के पदों के
पाठ का जो ढंग है, उस पाठ की विधि को हम नहीं जानते हैं।हम क्लास में जाएँ और किसी तरह टीका देखकर
अन्यमनस्क ढंग से कबीर का, पद्मावत का, नानक का या दूसरे किसी भी कवि का अर्थ बता
दें, तो उससे बात नहीं बनेगी| जब हमारी ही रुचि नहीं है पाठ में और हमारी ही आत्मा
में वह कविता नहीं बसती है तो वह छात्र तक
कैसे जाएगी! जाहिर है कि जब वह छात्र तक नहीं जाएगी तो उस साहित्य का और उस काल का
भगवान ही मालिक है!
तब प्रश्न है कि अध्यापक की पैठ कैसे हो मध्यकालीन साहित्य में?
यह आधुनिक संयंत्रों का समय है। ये सारे पर्दे, प्रोजेक्टर, लैपटॉप, टैब, एल.सी.डी.
आदि जो नई तकनीक है जिनका उपयोग दूसरे अनुशासनों में हो रहा है, लेकिन हिंदी का
शिक्षक और छात्र इनका उपयोग अध्ययन- अध्यापन में कम करता है।... केन्द्रीय
विश्वविद्यालयों को पैसे और संसाधनों की कमी नहीं है। हम कबीर, नानक, रैदास, तुलसी आदि पढ़ाने से पहले सी.डी., प्रोजेक्टर आदि के माध्यम से
इन कवियों के पाठ को कुशल वाचक द्वारा
सुना सकते हैं| हम किसी व्यक्ति को ऐसा
नहीं दिखा सकते जो कबीर को गा रहा हो, जो
तुलसीदास की कविताओं का पाठ कर रहा हो! ऐसा व्यक्ति जो कायदे से कर रहा हो। आप जरा
एक बार पाठ कराइए और तब देखिये कि छात्रों
का मध्यकालीन कविता से कैसे जुड़ाव होता
है। मेरा सुझाव है कि पाठ्यक्रम पर
पुनर्विचार करते हुए हम इस बात को ध्यान में रखें| आदिकालीन और मध्यकालीन साहित्य का अध्ययन-अध्यापन
करते हुए हमारी रूचि तभी जगेगी जब हम
आधुनिक संयंत्रों से उसे जोड़ेंगे। हम इतने सक्षम नहीं हैं, हम अध्यापक, कि हम
ठीक-ठीक उन कविताओं का पाठ करें। और हम अपने छात्रों में वो रागात्मक बोध उन
कविताओं के प्रति जागृत करें। हम कर सकते
हैं अगर आधुनिक तकनीक का सहारा लें। आधुनिक तकनीक का सहारा लिया जाना चाहिए।
पाठ्यक्रम में यह जोड़ा जाना चाहिए, शामिल किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों से
माँग की जानी चाहिए कि हिंदी के क्लासरूम
में भी यह व्यवस्था हो।
दूसरी बात जो मैं कहना चाहता हूँ वह दृष्टि से संबंधित है। दो-तीन साल पहले ‘आलोचना’ पत्रिका
में मेरा एक लेख छपा था- श्रीमंत शंकरदेव पर | असमिया जाति के निर्माण में उनकी बड़ी भूमिका है। भक्त कवि थे। उस
लेख मैने एक बात कही थी कि भक्ति को देखने
की हिन्दी साहित्य के इतिहास में और हिन्दी आलोचना में जो दृष्टि है, वह
काशीसेंट्रिक है। वह चाहे रामचंद्र शुक्ल
की हो या हजारी प्रसाद द्विवेदी की या फिर रामविलास शर्मा की ।अबतक हम काशीसेंट्रिक दृष्टि से भक्ति को देखते
रहे हैं। हम बात तो करते हैं भक्ति के
अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य की, लेकिन हमारी दृष्टि काशी की पीठ पर बैठ कर जो बन सकती है, वही होती है। हमारी
दृष्टि में वह व्यापकता और वह बहुलता नहीं आ पाती है जिसकी अपेक्षा भक्ति साहित्य
का अध्ययन और अध्यापन करते हुए होनी चाहिए। मैं अपना वह लेख तैयार कर रहा था, उसी
बीच मुझे ‘मानुषी’ पत्रिका में ए.के.रामानुजन का एक इंटरव्यू पढ़ने को मिला।
ए.के.रामानुजन अंग्रेजी के प्रोफेसर थे और
कैंब्रिज से रामायण के तरह –तरह के पाठ पर पीएच.डी. की थी| दक्षिण भारत में भक्ति
साहित्य के प्रचार -प्रसार में उनकी बड़ी भूमिका है। दक्षिण भारतीय भक्ति साहित्य
का अंग्रेजी में उन्होंने अनुवाद करके विदेशों तक उसे पहुँचाया है। दक्षिण भारत के
भक्ति साहित्य को थोड़ा बहुत मैं ए.के.रामानुजन के अनुवाद के जरिए ही जानता हूँ। ‘मानुषी’
पत्रिका के उस इंटरव्यू में ए.के.रामानुजन ने कहा था कि भक्ति को देखने की हमारी
आदत ‘सिंगुलर’ में है। भक्ति को हमें ‘प्ल्यूरल’ में देखने की आदत डालनी चाहिए।
यानी भक्ति को हमारी देखने की दृष्टि में जो एकवचनता है, उसमें बहुवचनता आनी
चाहिए। जैसे ही उसमें बहुवचनता आएगी, उसका अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य सही अर्थों
में उद्घाटित होगा। तब काशी सेंट्रिक दृष्टि से भक्ति को देखने की जड़ता टूटेगी और एक नई दृष्टि हमारे सामने आएगी,
भक्ति का एक नया संसार भी हमारे सामने आएगा। तब आप देखेंगे कि शंकरदेव भक्त होते
हुए कैसे कुछ वह नया करते हैं जो कबीर, सूरदास या तुलसीदास नहीं करते । इसी तरह
दूसरे प्रदेशों में वहां के भक्ति साहित्य
की अपनी कुछ खूबिया हैं, कुछ अपना वैशिष्ट्य है और उस के सहारे वह अपनी पहचान रखता
है और वहाँ की क्षेत्रीय जातीयता के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करता है। इस तरह
से मुझे लगता है कि भक्ति साहित्य को देखने की जो दृष्टि बन गई है हमारे
विश्वविद्यालयों में, यानी शुक्लजी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा की
जो दृष्टि है, भक्ति
को देखने की, उससे मुक्त होकर, जैसी अपेक्षा रामानुजन करते हैं, भक्ति को प्ल्यूरल
में देखना चाहिए।
भक्ति के कई रूप हैं और कई धाराएँ हैं। उसके
विस्तार में और उसके बड़े आयाम में ही उसे देखा जाना चाहिए। ...टेक्स्ट का, पाठ्यक्रम का निर्माण एक
पॉलिटिकल ऐक्ट है। अध्यापक होने के कारण
देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम निर्माण कार्य में सहयोग देने के
लिए मुझे भी जाना पड़ता है| हम अपनी पसंद
से जिसे श्रेष्ठ समझते हैं वह निर्धारित
करते हैं।लेकिन हमसे विपरीत रूचि और
विचारधारा के लोगों को वह श्रेष्ठ नहीं लगता | पाठ्यक्रम निर्माण पॉलिटिकल ऐक्ट तो
है ही, यह एक तरह से छीना-झपटी का भी मामला है कि पाठ्यक्रम पर कौन कब्जा जमाता
है।
प्रो.तुलसीराम ने विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान दिया।
उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही कि इतिहास जैसा होता है, साहित्य वैसा होता
है और इतिहास को हमने लिजेन्ड्री बना दिया है, रेशनलिटी से उसका संबंध कम किया है
और इतिहास और मिथक में हम भेद करना भूल गए हैं। यह अच्छी बात है। हम रेशनल नहीं
होंगे तो आधुनिक भी नहीं होंगे, लेकिन
मेरे सामने एक प्रश्न है कि जो रेशनलिटी, जो ऑब्जेक्टिविटी, जो तर्कशीलता
इतिहास-लेखन में कारगर सिद्ध होती है, क्या साहित्य लेखन में हम उसे एप्लाई कर
सकते हैं? यहाँ मुझे एक कहानी याद आ रही
है - मुक्तिबोध की कहानी है ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’। अब मुक्तिबोध क्या थे, यह
बताने की जरूरत नहीं है। किसी अलौकिक चीज में उनका विश्वास नहीं था। नास्तिक थे।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में विश्वास करते थे। सगुण भक्तों की उन्होंने मरम्मत की और
निर्गुणपंथियों के पक्ष में खड़े हुए। क्या है उनकी उस कहानी में ? दक्षिण का एक
विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने काशी आता है। ज्ञान का भूखा है। कोई गुरू उसे
पढ़ाने के लिए तैयार नहीं होता, क्योंकि दक्षिणा नहीं है। निराश होकर वह लौट रहा
है। काशी के बाहर शाम के झुटपुटे में उसे एक खंडहर मिलता है, उसमें एक बूढ़ा आदमी
मिलता है।वह उस विद्यार्थी की व्यथा सुनता
है और कहता है कि मैं तुझे पढ़ाऊँगा। तू मेरे पास रह। वह रह जाता है, क्योंकि वह ज्ञान
का बहुत भूखा था। पढ़ाई चलने लगती है। वह उस बूढ़े की सेवा करने लगता है । बारह
वर्ष बीत जाते हैं। जब वह बूढ़ा सारा ज्ञान दे देता है, तब वह कहता है कि मेरे पास जो कुछ था, वह मैंने तुझे
दिया। अब तू जा और इस ज्ञान का प्रचार कर दुनिया में और इससे दुनिया का कल्याण कर।
वह अंतिम दिन है, जब शिष्य विदा होने वाला है। कुछ स्पेशल भोजन दोनों ने बनाया है।
साथ बैठकर खा रहे हैं। यहाँ तक तो कहानी बहुत मजे से चलती है| अचानक गुरू की थाली में दाल घट जाती
है| शिष्य कहता है कि मैं हाथ धोकर दाल लाता हूँ गुरूजी। गुरू कहता है कि तू बैठ
यहीं, मैं ले लेता हूँ। गुरू अचानक अपना एक हाथ बढ़ाता है। उसका हाथ रसोई घर तक चला जाता है। और जो भी
कढ़ाई या बटली हो उसमें से वह कलछुल से दाल निकालता है, फिर हाथ छोटा हो जाता है
और वह दाल थाली में रख लेता है। शिष्य देखता है और उसकी घिग्घी बँध जाती है। उसे
लगता है, अरे! मैं बारह वर्षों से प्रेत के साथ रह रहा हूँ। तो गुरू उसे बताता है
कि तूझे डरने की जरूरत नहीं। मैं ब्रह्मराक्षस हूँ। मेरी अकाल मृत्यु हो गई थी।
मेरी आत्मा भटक रही थी। मैंने जो ज्ञान प्राप्त किया था उसे मैं दुनिया को देना
चाहता था। कोई योग्य शिष्य नहीं मिल रहा था| अब तू मिल गया। तूझे मैंने अपना ज्ञान दे दिया और मैं दुनिया के ऋण से मुक्त
हुआ। मुझे लगता है तुलसीरामजी, कि साहित्य का काम बगैर फैंटेसी, बगैर मिथक का
उपयोग किये चल नहीं सकता । अब सवाल यह है कि हम उस मिथक का उपयोग किस दृष्टि से कर
रहे हैं? एक मिथक का उपयोग तो भगवान सिंह ने ‘अपने-अपने राम’ में किया है। शंबूक वध की जो कथा है... वाल्मीकि रामायण में
है कि राम ने तपस्यारत शंबूक का सिर काट दिया था। वह प्रसंग ‘अपने-अपने राम’ में भी आता है ।‘ अपने-अपने राम’ के जो नायक हैं, यानी भगवान सिंह के
जो राम हैं वे उस ब्राह्मण की चिल्लाहट
सुनते हैं जिसके पुत्र को सर्प ने काटा है
| राम भीतर जाते हैं, वैद्य भेजते हैं, और जिस बच्चे को साँप ने काट खाया था| उसका
इलाज करता है वैद्य और बच्चा जीवित हो जाता है। सवाल यह है, हमें रेशनल दृष्टि
चहिए किसलिए? रेशनलिटी जरूरी है। तर्कशीलता जरूरी है। हम अपने मिथक का -क्योंकि
मिथक का अपना एक सौंदर्य होता है- मिथक के दायरे में कैसे आधुनिक उपयोग करते हैं। साहित्य में अंधविश्वास
का विरोध जरूरी है। ये जो मनगढ़ंत कथाएँ कि रैदास की छाती के नीचे जनेऊ था, ऐसी
कथाओं से मुक्त होने की जरूरत है, लेकिन इसी के साथ-साथ जो हमारी माइथोलॉजिकल
परंपरा है उसे हम उठा कर फेंक नहीं सकते हैं। किसी भी देश का साहित्य माइथोलॉजी से
मुक्त नहीं है। इतिहास को तो हम मुक्त कर लेंगे। हमारा संघर्ष वहाँ है जहाँ पुराण
को इतिहास मानने का दबाव है, जहाँ स्मृति को इतिहास मानने का दबाव है और इतिहास
मान लेने की राजनीति है। हमारा विरोध है और संघर्ष है, लेकिन हम मिथक का साहित्य
में बहुत ही सुन्दर विनियोग करते रहे हैं और आगे भी होगा। असुन्दर विनियोग भी हुआ
है। इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन हिन्दी में जहाँ तक मुझे जानकारी है, मिथक का
बहुत ही शानदार उपयोग हमारे लेखकों और कवियों ने किया है और आधुनिकता के संदर्भ
में किया है।
....जिसे हम आदिकाल कहते हैं, मध्यकाल कहते हैं,
वह भारतीय भाषाओं की दृष्टि से, उनके अभ्युदय का काल है। हमारा आधुनिक भारतीय भाषाओं का साहित्य इन्हीं भाषाओं में लिखा गया है। यह द्वंद्व है कि
इतिहास को हम कैसे देखें। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार मध्यकाल जबदी हुई मानसिकता का काल है। जबदना
यानी बैठ जाना। जैसे सर्दी जुकाम होने पर हमारा दिमाग बैठ जाता है। क्या मध्यकाल
सचमुच जबदी हुई मानसिकता का काल है। इतिहासकार बताते हैं कि व्यापार में कितनी
प्रगति थी। उद्योग धंधों में कितनी प्रगति थी। हमारा पर कैपिटा इनकम अकबर के टाइम
में कितना बढ़ा हुआ था। आगरा बाजार दुनिया के बाजारों से कितना समृद्ध था। भारत का महान साहित्य सभी
भारतीय भाषाओं में इसी काल में लिखा गया और हमारी बोलियों के प्रति सम्मान का भाव,
अभिमान का भाव आया। हमारे बड़े-बड़े संतों ने अपनी बोलियों में रचना की। क्या इस
पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है? आधुनिकताबोध पर भी पुनर्विचार की जरूरत है और इस
जबदी हुई मानसिकता वाला जो कथन है, इस पर भी पुनर्विचार की जरूरत है। इतिहासकार
बताते हैं कि मध्यकाल महान परिवर्तनों का दौर था। अब एक तरफ तो आर्थिक क्षेत्र
में, सामाजिक क्षेत्र में, साहित्य में, संस्कृति में, महान परिवर्तन हो रहा था,
फिर हमारी मानसिकता जबदी हुई कहाँ थी? मुझे लगता है कि हिन्दी साहित्य के
पाठ्यक्रम में इन विचारों को रखना चाहिए
पृष्ठभूमि के तौर पर। हमने लगभग साठ-सत्तर साल पढ़ा लिए- शुक्लजी की दृष्टि से
इतिहास, द्विवेदीजी की दृष्टि से इतिहास। अब जरा देखें कि इतिहास की नई खिड़कियाँ
कौन- सी खुल रही हैं। हम देखें कि इस बीच इतिहासकारों ने क्या नया काम किया है| एक
इतिहासकार तो इसी ज.ने.वि. के रहे हैं सतीश चंद्र, उन्होंने कहा है कि भक्ति
आंदोलन के उद्भव का कारण चाहे जो भी रहा हो, इसका श्रेय रामानन्द को नहीं दिया जा
सकता। इसका श्रेय वे दूसरी चीजों को देते
हैं| क्षत्रिय राजतंत्र जब कमजोर पड़ा और
उसकी जगह पर तुर्क अफगान आये और ब्राह्मण -क्षत्रिय
समझौता जब कमजोर हुआ, एक ट्रांजीशन पीरियड
जब आया, उस ट्रांजिशन पीरियड में दबी - कुचली जो जातियाँ थीं, वे उभर आती हैं, ऊपर आती हैं। इरफान हबीब ने कहा कि
शिल्पी जातियों का विकास होता है। शिल्पों और उद्योग धंधों का विकास होता है और
उसकी वजह से शिल्पी जातियों की आर्थिक स्थिति सुधरती है और आर्थिक स्थिति सुधरने
से उनके भीतर सांस्कृतिक भूख जगती है। क्योंकि जब आदमी के पास पैसे होते हैं, पेट
जब भरता है तभी वह संस्कृति की चिंता करता है। जब हम अघाए रहते हैं तभी हम सोचते
हैं कि कपड़ा ठीक-ठाक होना चाहिए। जब हमारे पास घर होता है तभी हम सोचते हैं कि घर
की दीवारों पर एक पेंटिंग भी होनी चाहिए। भूखा आदमी पेंटिंग की चिन्ता नहीं करता
है। वह साहित्य की चिन्ता भी नहीं करता
है। यह तो भक्त कवि ही कह गए हैं कि ‘भूखे भजन न होंहि गोपाला। ले लो अपनी कंठी
माला।’ इरफान हबीब ने कहा कि ये जो दस्तकार जातियाँ ऊपर आईं, ये जो दर्जी थे,
जुलाहे थे, मोची थे, धुनिए थे, उन्होंने भक्ति आंदोलन का एक नया परिदृश्य तैयार
किया। उसकी अपनी सामाजिक और आर्थिक परिस्थिति थी उत्तर भारत की। ये नहीं कि रामानन्द
गए थे दक्षिण और झोले में भरकर लाए और काशी में खोल दिया। काशी नागरी प्रचारिणी
सभा से एक पुस्तक प्रकाशित हुई है ‘रामानन्द की हिन्दी रचनाएँ’। उसमें बताया गया है
कि रामानन्द दक्षिण गए ही नहीं थे। वो मथुरा कें पंडा थे और काशी में रहते थे। अब
अगर सच यही है कि वो मथुरा के थे और काशी
में रहते थे, तो ये जो सारा श्रेय हम देते हैं कि ‘भक्ति द्राविड़ उपजी, लाए
रामानन्द।...’, आप जानते हैं कि कहीं से विचार कोई लेकर आ तो जाएगा लेकिन वो विचार
तभी जमीन पकड़ते हैं जब वहाँ की आब-ओ-हवा उसके अनुकूल हो। सिर्फ कानून बना देने से
इतनी लड़कियाँ पढ़ने नहीं चली आई हैं ज.ने.वि. में। उन लड़कियों के माता-पिता की जेब में इतने पैसे थे और वो मानसिक रूप से तैयार
थे कि बिहार, असम और बुंदेलखंड से अपने
बच्चों को दिल्ली में भेज सकें। कोई भी घटना अगर घटित होती है तो उसके पीछे आर्थिक
और सामाजिक कारण होते हैं। भक्ति आंदोलन के पैदा होने के और कबीर, सूर, तुलसी के
पैदा होने के भी सामाजिक आर्थिक कारण थे। उनकी अवहेलना करके, उनको नजरअंदाज करके,
हम मध्यकाल के पाठ्यक्रम को ठीक-ठीक नहीं समझ सकते हैं। इसलिए मेरा निवेदन है कि
शुक्लजी और द्विवेदीजी के सहारे बहुत खंडन-मंडन हम लोगों ने कर लिया। मुसलमान आए
तो ये हो गया। दक्षिण से भक्ति आ गई। नाथ और सिद्ध हुए थे इसीलिए कबीर, दादू और
नानक पैदा हुए। ...धरा तभी हरी-भरी होती है, प्रवहमान होती है जब उस धारा को
प्रवाहित करने वाली जो गतिमान शक्तियाँ हैं वो उस समय में मौजूद होती हैं। कबीर
सिर्फ इसलिए पैदा नहीं हुए थे कि उस समय सिद्ध और नाथ हुए थे। ठीक है वो परंपरा
थी। बारहवीं शताब्दी है गोरखनाथ का समय। पंद्रहवीं शताब्दी में कबीर पैदा होते
हैं। ये तीन सौ वर्षों का गैप क्यों है नाथपंथ में और संत साहित्य में? कबीर,
नानक, दादू या रैदास के पैदा होने की... पंद्रहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में वो
सामाजिक परिस्थितियाँ थी जो इनको जन्म दे रही थीं और इन्हें गतिशील कर रही थीं।
मित्रों, इसलिए मध्यकाल के इतिहास को हम जरा नए
परिप्रेक्ष्य में देखें। इतिहास को इतिहास की तरह उसको फालतू की किंवदन्तियों से
हटाकर। अंधविश्वास वाली किंवदन्तियों को हटाकर। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखें।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें। तब हमें मध्यकाल का इतिहास एक नए परिप्रेक्ष्य में
उभरता हुआ दिखाई देगा और हम हिन्दी के अध्यापक, छात्र जो शुक्लजी और द्विवेदीजी के
दो किनारों पर दौड़ते हुए अपनी वैतरणी पार कर रहे हैं, उससे मुक्ति मिलेगी और
भक्ति साहित्य को देखने की नई दृष्टि मिलेगी।
अब मैं फिर एक फैंटेसी का सहारा लेकर एक कहानी
सुनाऊंगा और अपनी बात समाप्त करूंगा। यह कहानी बचपन में हम लोगों ने पढ़ी थी।
हमारी प्राइमरी की जो किताब थी उसमें थी। गुरु नानक टहलते घूमते हुए एक गाँव में
पहुँचे। पहले शाम के समय जो गाँव पड़ जाता था, जो घर पड़ जाता
था उसी के यहाँ यात्री रुक जाते थे, ठहर जाते थे। यातायात के साधन नहीं थे। उस
जमाने के संत बाबा रामदेव या आसाराम की तरह पंच सितारा संत भी नहीं हुए थे, पैदल
घूमते थे। वो गाँव के किनारे पहुँचे तो एक बढ़ई का घर था। उन्होंने कहा कि बच्चा
आज रात मैं तुम्हारे यहाँ गुजारुंगा। वह बहुत खुश हुआ। उसने खाट वाट बिछाई और उनकी
सेवा में लग गया। भोजन पानी की व्यवस्था में लग गया। इसी बीच गाँव के जमींदार को
मालूम हुआ कि गुरु नानक आए हैं और बढ़ई के घर रुके हुए हैं। उसे लगा कि मैं गाँव
का जमींदार, और जब नानक आए हैं तो उन्हें हमारे घर होना चाहिए। इस गरीब बढ़ई के घर
क्यों ठहर गए। अपना आदमी भेजा उसने। आदमी ने जाकर कहा कि ‘महाराज आप चले वहाँ,
आपके स्वागत सत्कार में कोई कमी नहीं रखी जाएगी। ये गरीब बढ़ई आपका क्या स्वागत
करेगा। आप चलिए जमींदार साहब ने बुलाया है।’ नानक ने कहा कि ‘अब संत का चिमटा जहाँ
गड़ गया, गड़ गया। मैं तो अब यहीं रात गुजारुंगा। तुम जाओ जमींदार साहब से कह दो
कि वो जो भी मुझे खिलाना पिलाना चाहते हैं ,वह यहीं भेज दें।’ बढ़ई भी अपने घर
खाना बना रहा था । बढ़ई जब अपना खाना लेकर आया, थाली में सूखी रोटी, उसी बीच
जमींदार का नौकर भी चाँदी के बर्तन में मालपुए वगैरह लेकर आया। नानक के सामने
दोनों थालियाँ रख दी गईं। एक थाली से नानक ने रोटी उठाई और दूसरे से मालपुआ उठाया
और दबाया। रोटी से दूध की और मालपुआ से खून की धारा निकली| नानक कहते हैं जमींदार
के नौकर से, बढ़ई से और वहाँ इकट्ठे गाँव के लोगों से कि ये मेहनत की रोटी है।
मेहनत की रोटी में दूध होता है और ये दूसरों के शोषण का मालपुआ है, इसमें दूसरों
का खून होता है। क्या सचमुच ऐसा हुआ होगा नानक के जीवन में? मेरा तर्कशील मन कहता
है कि हर्गिज नहीं हुआ होगा। लेकिन साहित्य में जब हम इस कहानी को पढ़ते हैं, मैं
बताऊँ कि पाँचवीं कक्षा का छात्र मैं, मुझे भक्ति काव्य को पढ़ने की समझने की,
पहली दृष्टि, सही दृष्टि वहीं मिली। कौन कहानीकार था आज मुझे मालूम भी नहीं है।
लेकिन यह बोधात्मक कहानी कैसे एक बालक के मन में नई दृष्टि का वपन कर जाती है, उस
कहानीकार को पता भी नहीं होगा। फैंटेसियों का कैसे हम उपयोग करते हैं साहित्य में,
मिथकों का कैसे उपयोग करते हैं, यह लेखक की दृष्टि पर निर्भर करता है कि उसकी दृष्टि आगे ले जाने वाली है कि पीछे ले
जाने वाली| उसकी दृष्टि यथास्थितिवाद को बनाए रखने वाली है कि उसकी दृष्टि
गतिशीलता को पसंद करती है। उस दृष्टि में मानव धर्म श्रेष्ठ है कि विभेदकारी धर्म।
यह साहित्यकार की अपनी व्याख्या होगी और अपनी दृष्टि ....
दोष न तो फैंटेसी का होगा, न मिथक का, उपयोग करने
वाले का होगा। मित्रों, भक्ति काव्य को पढ़ते हुए हम यह तो पढ़ते हैं कि सगुण और
निर्गुण का झगड़ा था। फिर निर्गुण में भी अलग-अलग नानक पंथ, दादू पंथ, कबीर पंथ या
रैदासी पंथ। और सगुण पंथियों में भी। लेकिन एक चीज जिसकी जरूरत है और दिखाए जाने
की जरूरत है, हमारा जोर भक्ति काव्य के भीतर और भक्ति आँदोलन के भीतर जो
अंतर्विरोध हैं उन पर तो खूब है, लेकिन मानव जाति को जोड़ने वाले जो एकता के सूत्र
हैं, संपूर्ण भारत को जो एकता के सूत्र में, असम से लेकर केरल तक, जो एकता के
सूत्र हैं, उस पर कम है। हम असम के शंकरदेव को पढ़ें, हम कर्नाटक के अलम्मा प्रभु,
बसवन्ना और अक्क महादेवी को पढ़ें, हम तेलुगु
के त्यागराजु को पढ़ें और हिन्दी
के कबीर, तुलसी और सूरदास को पढ़ें, जो एसेंस है इनके साहित्य का, अपने- अपने निजी
विश्वासों के बावजूद...। आप कमियाँ ढूँढने चलेंगे तो मध्यकाल के कवि हैं ये, उस
काल की सीमाएँ इनके साथ हैं। कबीर के साथ है इंगला- पिंगला। कबीर ने सबसे अधिक
स्त्रियों के बारे में चुनिंदा शब्दों का प्रयोग किया है, तुलसी ने वर्ण व्यवस्था
का समर्थन किया है। हम ढूँढे कि इनमें एकता के सूत्र क्या हैं जो मानव धर्म को
जोड़ने वाले हैं। कबीरा सोई पीर है जो जाने
पर पीर- वो संत है जो दूसरे की पीड़ा जानता है। जब गुजराती के नरसी मेहता कहते हैं
कि वैष्णव जन तो तैने कहिए, पीर पराई जाने रे, यानी वही वैष्णव है जो दूसरे के दुख
जानता है। तुलसीदास जब कहते हैं कि परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीरा सम नहिं
अधमाई, यानी दूसरे को दुख देने के समान कोई पाप नहीं है और दूसरे को सुख पहुँचाने
के समान कोई पुण्य नहीं है। ये मध्यकालीन संत कवि धर्म की एक नई व्याख्या कर रहे
हैं। एक नए मानव धर्म की प्रस्तावना लिख रहे हैं जिसमें दुखी जन की पीड़ा को जानना
मुख्य काम है। यह केंद्रीय दृष्टि होनी
चाहिए संपूर्ण भक्ति साहित्य को देखने के क्रम में। वो चाहे असम के शंकरदेव को देख
रहे हों या नरसी मेहता को या अक्क महादेवी
को|
इधर हमारी दृष्टि विभेदों पर ज्यादा केंद्रित है।
जो मानव की एकता के सूत्र हैं उस पर कम केंद्रित है। मैं चाहता हूँ कि नए
पाठ्यक्रम में एकता के सूत्रों पर जोर हो। मैं यह भी चाहता हूँ कि ये सारे जो भक्त
कवि हैं, ये दुनिया के पहले कवि हैं, दुनिया के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि
कविता को धर्म ग्रंथ के बराबर दर्जा मिल गया है; कालिदास बड़े कवि हैं, शेक्सपीयर
बड़े कवि या नाटककार हैं, टॉलस्टॉय बड़े उपन्यासकार हैं, लेकिन इनकी वाणी को भगवान
की वाणी मानने वाली जनता नहीं है। लोग कहते हैं कि वे बड़े महान साहित्यकार हैं।
हमारे ही यहाँ कालिदास की कविता को कविता ही मानते हैं, लेकिन कबीर, नानक,
शंकरदेव, तुलसी, सूर की वाणी को हमारा देश मंत्र मानता है। मंत्र यानी अगर हम उसको
कह दें तो सामने वाला बदल जाएगा।...आखिर ये कौन सी कविता है जिसका जबर्दस्त प्रभाव
है हमारे जीवन पर। वो इसलिए है कि वह कविता जीवन की घनघोर आस्था से निकली हुई
कविता है और वह हृदय के धरातल से निकली हुई है। वह जो आचरण में है उसी से निकली
हुई । यह नहीं है कि हम स्त्री विमर्श पर बड़े अच्छे- अच्छे लेख लिख रहे हैं और घर
में कुछ दूसरा स्त्री विमर्श कर रहे हैं।‘हंस’ में स्त्री विमर्श एक ढंग का चला
रहे हैं और निजी जीवन में दूसरे ढंग का। इसलिए हमारे लिखने का, हमारी कहानियों,
कविताओं, लेखों और व्याख्यानों का असर भी नहीं होता है पाठक - श्रोताओं पर, लेकिन
ये भक्त कवि जब उनको हम पढ़ते हैं, हमें
बदलने लगते हैं। उन कविताओं में हृदय की
अतल गहराइयों से निकले हुए शब्द हैं। जो महसूस किया, जीवन में वो काम किया...।
वर्णव्यवस्था में विश्वास है तो तुलसीदास ने कहा कि वर्ण व्यवस्था सही है। अरे
क्या लगता था कि कह देते कि वर्ण व्यवस्था ठीक नहीं है! कबीर को लगा कि नारी माया
है तो कहा कि नारी की झाईं परत...। हमें कोई द्वैत नहीं दिखाई देता है उन कवियों
के जीवन और कथन में। यह जीवन और कथन के अद्वैत का साहित्य है जो सिर्फ भारतवर्ष ने
दुनिया को दिया है। किसी भाषा ने ऐसा साहित्य नहीं लिखा है। ऐसे साहित्य से हमारे
हिन्दी साहित्य का संबंध है, परंतु दुर्भाग्य यह है कि हम शिक्षक ही ऐसे साहित्य
को भूल रहे हैं और छात्र तो भूल ही गए हैं। ... मुझमें वो चीज नहीं होगी तो मैं
अपने छात्रों को कैसे प्रभावित करूंगा! यही कारण है कि आधुनिक भारत का जो सबसे
बड़ा या कह लें कि आधुनिक दुनिया का जो सबसे बड़ा संग्राम गाँधी ने लड़ा,
साम्राज्यवाद के खिलाफ; उनका पाथेय भक्त कवि थे। नरसी मेहता का भजन तो वे सुबह शाम गाते ही थे। कबीर का चरखा, उत्पादन का औजार था उनके पास। वह
चरखा सिर्फ चरखा नहीं था। कबीर मानते थे
कि मैं जुलाहा हूँ और ब्रह्म सबसे बड़ा जुलाहा है। मैं ये लकड़ी का चरखा चला रहा
हूँ और कपड़े बना रहा हूँ, वो ब्रह्म दुनिया का चरखा चला रहा है। गाँधी ने श्रम का
प्रतीक लिया चरखे से। उन्होंने तुलसी से, उन्होंने नरसी मेहता से, वही परिभाषा ली,
जिस परिभाषा को मैं कह रहा था कि भक्ति साहित्य को पढ़ते वक्त हमें केंद्र में
रखना चाहिए। वह है मानव धर्म को जोड़ने वाला एकता का सूत्र।
(6-7 मार्च 2014 को ‘जवाहर लाल नेहरु
विश्वविद्यालय’, नई दिल्ली द्वारा आयोजित हिंदी के विश्व विद्यालयी पाठ्यक्रम, पर
केन्द्रित संगोष्ठी में मध्यकालीन साहित्य के अध्ययन- अध्यापन की समस्या पर दिए गये वक्तव्य का
लिखित-सम्पादित रूप )
·
प्रस्तुति : डॉ. शीतांशु
पाठ के साथ रागात्मक सम्बन्ध बनाने के लिए नई तकनीक निश्चय ही कारगर होगी, छात्रों में रूचि जगेगी और एक डाईंग डिसिप्लीन के पाठ्यक्रम में जान फूंकी जा सकेगी।
ReplyDeleteदेखना ये है कि काशी केन्द्रित दृष्टि के बगैर हिंदी आलोचना की नयी दिशा कैसे निर्धारित होगी?
मिथक और फैंटेसी की दोनों कहानियाँ भी अच्छी लगी। साथ ही इनसे मुक्त इतिहास में ही मध्यकालीन कवियों को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है, आपने बड़े सरल शब्दों में समझाया। विभेदों के बजाय एकसूत्रता की तलाश एक सही दृष्टि है।
इस सारगर्भित लेख को ब्लॉग पर देने के लिए आभार!
आप के व्याख्यान का लेख रूप पढ़ा । बडी जड़ की और सार की बातें कही हैं आप ने। लोग आज कल कहते हैं कि आदि काल और मध्यकाल का साहित्य अप्रासंगिक होगया है । उस के मर्म को आप ने उद्घाटित किया । मैं सिर्फ इतना जोड़ता हूँ कि उ प्र के तीन कालेजों में एम ए की कक्षाएँ पढ़ाते हुए मुझे अनेक विद्यार्थी कहते थे कि अज्ञेय , मुक्तिबोध शमशेर की कविता उन की समझ में नहीं आती , जबकि पुराने कवियों को वे समझ लेते थे । कारण यह कि पुरानी कविता छन्द ,लय और रागात्मक संवेदनाओं से निकट है । आज की कविता कितनी आधुनिक हो पर वह कितनी सम्प्रेषित होती है ।तो पाठ्यक्रम से पुराने कवियों को निकालने से पहले इस बात पर भी विचार करना होगा ।
ReplyDeleteMarvelous writing sir...original and argumentative thinking. Though there might be counter arguments also ..but the main essence of the article is positive... Highly readable.thanks sir.
ReplyDeleteमध्यकालीन कविता के अध्ययन और अध्यापन की बात करते वक़्त हम भक्तिकाल की बात ही क्यों करते रहते हैं? रीतिकाल कहाँ चला जाता है? लौकिकता और आधुनिक मूल्यबोध सामने रखने वाला रीतिकाल क्यों हमारे तमाम विद्वानों की नज़र से ओझल रहता है? 200 साल के महत्त्वपूर्ण साहित्य को परदे के पीछे डाल कर मध्यकाल पर मुक़म्मिल चर्चा कैसे मुमकिन है? चिंता की बात है कि नए विमर्श में भी हमारे विद्वान अभी आधे मध्यकाल की बात करते हैं। रीतिकाल के नए अध्ययन के बिना मध्यकालीन विमर्श सदा अधूरा और दोषपूर्ण बना रहेगा।
ReplyDelete- मुकेश गर्ग
ब्रजभाषा-विशेषज्ञ पद से सेवानिवृत्त एसोशिएट प्रोफ़ेसर,
हिन्दी विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय
इतनी बहुमूल्य जानकारी के लिए आभार।
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