Sunday 8 November 2020

जैनेंद्र की जीवनी:'अनासक्त आस्तिक'

 


गोपेश्वर सिंह

1980 के अक्टूबर महीने की कोई तारीख थी. संभवतः 9-10 अक्टूबर की. पटना रेलवे जंक्शन के प्लेटफ़ॉर्म नम्बर-1 पर हिंदी के अमर कथा-शिल्पी जैनेन्द्र कुमार का मैं इंतजार कर रहा था. वे श्रमजीवी एक्सप्रेस से आने वाले थे. उनके उपन्यास, उनकी कहानियाँ और उनके चरित्र मन में घूम रहे थे. अजीब रोमांच था मेरे भीतर. इतने बड़े लेखक से मिलने का सौभाग्य जो मिल रहा था. श्रमजीवी एक्सप्रेस रुकी तो सामने कोच के दरवाजे पर हाथ में बैग लिए जैनेन्द्र कुमार दिखाई पड़े -किसी को खोजते हुए-से. मैंने नमस्कार किया. उनके हाथ का थैला लेते हुए मैंने कहा कि मैं आपको लेने आया हूँ. उन्होंने मेरा नाम और परिचय पूछा. तब मैं विश्वविद्यालय का शोध-छात्र था. यह जानकर वे आश्वस्त हो गए. उन्हें लेकर मुझे सदाक़त आश्रम जाना था, जहाँ पर जयप्रकाश जयंती के उपलक्ष्य में एक आयोजन होने वाला था और जिसके मुख्य अतिथि जैनेन्द्र जी थे. जैनेन्द्र जी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं नलिन विलोचन शर्मा का घर जानता हूँ? मैंने कहा कि हाँ, मैं कई बार वहाँ जा चुका हूँ. उन्होंने कहा कि सबसे पहले मैं नलिन के घर जाऊँगा. वहाँ उनकी पत्नी कुमुद शर्मा से मिलते हुए हम सदाक़त आश्रम चलेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि नलिन के न रहने पर मैं जब भी पटना आता हूँ, सबसे पहले उनके घर जाता हूँ. फिर वहाँ से कहीं और. यह मेरा नियम-सा है. वे मेरे गहरे मित्र थे. पटना आते ही उनकी याद मुझे परेशान करने लगती है.

          मैं उन्हें लेकर एग्जीबिशन रोड स्थित स्व. नलिन विलोचन शर्मा के घर गया. नलिन जी की पत्नी कुमुद शर्मा अचानक जैनेन्द्र को देखकर भाव-विह्वल हो गईं. बरामदे में दोनों बैठे-बैठे चाय पीते रहे और पुराने दिनों को उलटते-पलटते रहे. शाम को जैनेन्द्र जी ने जयप्रकाश जयंती समारोह में भाग लिया और उनके आदर्शों और उनके साथ अपने संबंधों की चर्चा की. दूसरे दिन शाम की ट्रेन से वे दिल्ली रवाना हुए. उनके ठहरने की व्यवस्था आश्रम में ही की गई थी. मैं वहीं रहता था और हिंदी साहित्य का छात्र था. इसलिए आयोजकों ने जैनेन्द्र जी की देखभाल का जिम्मा मुझे सौंप ही रखा था. उनसे मैंने जितनी बातें कीं, वे सब अब मुझे याद नहीं हैं. बस इतना याद है कि वे मझौले कद के और गोरे रंग के थे. बाल सफ़ेद थे और खादी का सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने हुए थे. धीरे-धीरे बोलते थे और गाँधी, जेपी आदि के बारे में बहुत ऊँची राय रखते थे. उस दौरान उनसे हुई बातचीत को यदि मैंने नोट कर लिया होता तो जैनेन्द्र से मुलाक़ात का एक जीवंत दस्तावेज मेरे पास होता. बहरहाल, हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण आलोचक और कला समीक्षक ज्योतिष जोशी लिखित जैनेन्द्र कुमार की जीवनी ‘अनासक्त आस्तिक’ पढ़ते हुए जैनेन्द्र कुमार से मिलने की वह घटना याद आई और याद आया उनका बहुत ही सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और उनका व्यवहार. यह जीवनी पढ़ते हुए जैनेन्द्र के साथ भारतीय समाज, राजनीति और साहित्य का एक पूरा युग हमारे सामने दृश्यमान हो गया. इसे मैंने  पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया. लगा कि किसी बहुत रोचक उपन्यास के भीतर से गुजर रहा हूँ.

          ‘अनासक्त आस्तिक’ बहुत सार्थक नाम है. आस्तिकता को आमतौर से वस्तुनिष्ठता और प्रगतिशीलता का विरोधी भाव मानने का प्रचलन हिंदी में है. रामविलास शर्मा और नामवर सिंह सरीखे प्रगतिशील आलोचकों ने जैनेन्द्र की आस्तिकता और उनकी रचनाशीलता को प्रति-क्रांतिकारीता  का पर्याय साबित करने की ख़ूब कोशिश की है. प्रेमचंद के विलोम के रूप में जैनेन्द्र को रखा जाता रहा है और प्रेमचंद बनाम जैनेन्द्र की बेकार-सी बहस भी चलती रही है. इस जीवनी से मालूम होता है कि प्रेमचंद के सबसे करीबी युवा लेखक थे जैनेंद्र और प्रेमचंद के एक तरह से मानस पुत्र थे. अंतिम समय में प्रेमचंद के पास शिवरानी देवी के साथ जैनेन्द्र भी थे. स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी, जेल यात्रा, सत्याग्रही जीवन और गाँधी से गहरा आत्मीय जुड़ाव जैनेन्द्र के साहित्य को गहरे सामाजिक सन्दर्भों से जोड़ता है. साहित्य में प्रेमचंद और राजनीति में गाँधी- इन दो महान व्यक्तियों के संपर्क-साथ में शिक्षित जैनेन्द्र को गैर-सामाजिक सिद्ध करने का जो अपराध आलोचना ने किया, उसका जवाब आलोचना की ओर से 1950-60 में नलिन विलोचन शर्मा ने दिया था. और हमारे समय में जैनेन्द्र पर लगातार लिखकर और उनके परिप्रेक्ष्य को सही सन्दर्भों से युक्त करके ज्योतिष जोशी कर रहे है. ‘जैनेंद्र और नैतिकता’ के बाद ‘अनासक्त आस्तिक’ ज्योतिष जोशी के जैनेन्द्र संबंधी चिंतन का सगुण-साकार रूप है.

          जैनेन्द्र ने सामाजिकता की जिस वैकल्पिक समझ को जिया और अपने चिंतन का अंग बनाया, वह गाँधीवादी सामाजिकता का बहुत ही नैतिक और उज्ज्वल पक्ष है. वे समाजनीति लोकनीति और राजनीति की वैकल्पिक सभ्यता को अपने जीवन, साहित्य और चिंतन से रचते रहे. उसे दुर्भाग्य से हिंदी समाज ने कम समझा और उसे समझने योग्य बनाने में प्रगतिशील आलोचना ने बड़ा अवरोध उपस्थित किया. ‘अनासक्त आस्तिक’ के जरिए जीवनीकार ने जैनेन्द्र संबंधी चलाई गई प्रगतिशील आलोचकों की बहसों की प्रायः अनदेखी की है और ऐसा करके अच्छा किया है. लेकिन जो इसका सबसे सकारात्मक पक्ष है वह यह कि उन्होंने व्यक्ति और लेखक जैनेन्द्र के नैतिक, सामाजिक और सृजनात्मक व्यक्तित्व को खड़ा किया है. ऐसा नैतिक व्यक्ति और लेखक जो सत्ता के भय से अपने पथ से डिगता नहीं और अपने आचरण की शुद्धता पर दाग भी नहीं लगने देता. इस जीवनी को पढ़ने के बाद जैनेन्द्र का एक नया सामाजिक और लेखकीय रूप पाठक के सामने होता है.

         अलीगढ जिला के कौडियागंज क़स्बे में अति साधारण वैश्य परिवार में पैदा होने वाला बालक आनंदीलाल आगे चलकर हिंदी का महान लेखक जैनेंद्र कुमार के नाम से जाना गया. घर- परिवार की ज़िम्मेवारी संभालते हुए जैनेंद्र ने स्वतंत्रता आंदोलन में हर तरह से हिस्सा लिया. गाँधी के निकट संपर्क में रहे. जवाहरलाल, जेपी आदि बड़े नेताओं से मित्रवत संबंध रहा, लेकिन आज़ादी के बाद इस स्वाभिमानी लेखक ने मसिजीवी लेखक के रूप में जीवन निर्वाह किया, कभी अपने राजनीतिक संबंधों का फ़ायदा नहीं उठाया. इंदिरा जी ने आदरपूर्वक मदद की पेशकश की, लेकिन स्वाभिमानी जैनेद्र ने पारिवारिक दबाव के बावजूद मदद स्वीकार नहीं की. यही कारण था कि जेपी आंदोलन में इंदिरा जी का विरोध करने और आंदोलन के पक्ष में खड़ा होने में उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ. अपनी कलम के बल पर गुजारा करने वाले इस स्वतंत्र चेता लेखक ने विकास की पूँजीवादी मॉडल का हमेशा विरोध किया और वैकल्पिक विकास नीति की बात की. गाँधी जिस वैकल्पिक सभ्यता की लड़ाई लड़ते हुए शहीद हुए , जैनेद्र अपने चिंतन से उसके पक्ष में जीवन भर खड़े रहे. इस जीवनी के जरिए जीवनीकार ने जैनेंद्र की सामाजिकता को बार- बार रेखांकित किया है. इस जीवनी को पढ़कर समाज सापेक्ष जैनेंद्र की जो छवि उभरती है, प्रगतिशील आलोचकों की बनाई छवि से सर्वथा भिन्न है.

        कथाकार प्रेमचंद के बेहद क़रीब थे जैनेंद्र, लेकिन कथा- लेखन की उन्होंने अलग राह पकड़ी. यह उनकी मौलिकता थी. इसे उनकी विशेषता बताने की जगह आलोचकों ने उन्हें मनोवैज्ञानिक कथा- लेखक के रूप में प्रचारित किया. 1960 के दशक में ऐसे आलोचकों को जवाब देते हुए नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा: “पश्चिम के मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों की किम्वदंती सुन रखनेवाले हिंदी के आलोचकों ने जैनेंद्र के उपन्यासों पर फ्रायड का प्रभाव घोषित करके अपनी अहंमन्यता को संतुष्ट किया, स्वयं जैनेंद्र ने ईमानदारी का परिचय देते हुए सदैव इस आरोपित प्रभाव को अस्वीकार किया. सत्य भी यही है कि व्यक्ति- केंद्रित होने पर भी जैनेंद्र के उपन्यासों में मनोविश्लेषण की प्रणाली की छाया भी नहीं है. जैनेंद्र में, वस्तुतः हिंदी ने एक शरच्चंद के अभाव की पूर्ति पा ली थी. नलिन विलोचन शर्मा के अनुसार ‘परख’ और ‘त्यागपत्र’ में जैनेन्द्र शरच्चंद की छाया मात्र हैं. किन्तु ‘सुनीता’ के लेखक के रूप में वे शरच्चंद की छाया से मुक्त अधिक महत्त्व के अधिकारी हैं. ज्योतिष जोशी ने शरच्चंद के इस कथाकार रूप के महत्त्व को पहचाना है और उन्हें वे स्त्री जीवन का विशिष्ट कथाकार सिद्ध करते हैं.

          स्वतंत्रता सेनानी होने, नेहरु-जेपी समेत देश के तमाम बड़े नेताओं से परिचित होने के बावजूद जैनेन्द्र ने कभी कोई पद या राजाश्रय नहीं लिया. वे लेखक को स्वतंत्र रूप में देखना चाहते थे. वे लेखक के लिए ऐसी स्वतंत्रता चाहते थे कि जब कभी ज़रूरत हो, सत्ता के खिलाफ़ लेखक आवाज उठा सके. यही कारण था कि निरंकुश होती जा रही इंदिरा गाँधी की शासन व्यवस्था के खिलाफ़ वे जेपी के साथ आंदोलन में कूद पड़े; जबकि इंदिरा जी जैनेन्द्र का बहुत सम्मान करती थीं. राजाश्रय के संबंध में जैनेन्द्र जी का विचार था: “लेखक को किसी भी आश्रय की आवश्यकता नहीं है. हमें किसी की सहायता, किसी की अनुकम्पा, किसी की दया नहीं चाहिए.” (पृष्ठ सं. 264) इस तरह लेखक का सम्मान जीने वाले और सत्ता तंत्र से हमेशा दूरी बनाए रखने वाले स्वाभिमानी जैनेन्द्र की बचपन से लेकर अंत तक की संघर्ष से भरी जीवन-कथा ‘अनासक्त आस्तिक’ के रूप में प्रस्तुत कर हिंदी के श्रेष्ठ जीवनीकारों में ज्योतिष जोशी ने विनम्रता पूर्वक अपना भी नाम शामिल कर लिया है.

          हिंदी में लेखकों का जीवन चरित बहुत कम मिलता है. हिंदी में लेखकों ने अपनी आत्मकथाएँ भी कम लिखी हैं. ‘रज़ा न्यास’, नई दिल्ली ने लेखकों की जीवनी लिखाने की एक अच्छी शुरुआत की है. उस योजना के अंतर्गत रघुवीर सहाय की जीवनी विष्णु नागर ने ‘असहति में उठा हुआ एक हाथ’ शीर्षक से लिखी हैं और दूसरी जीवनी ज्योतिष जोशी लिखित ‘अनासक्त आस्तिक’ है. सुना है कि भारत यायावर फणीश्वरनाथ रेणु की जीवनी लिख रहे हैं. इस पहल के लिए ‘रज़ा न्यास’ और जीवनी लेखकों का हार्दिक अभिनंदन.

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