Thursday 11 August 2016

सरकार पोषित संस्थाएं और लेखक

सवाल है कि लेखकों को सरकारी या सरकार पोषित संस्थाओं में जाना चाहिए या नहीं ?उन्हें इन संस्थाओं से सम्मानित-पुरस्कृत होना चाहिए या नहीं ?इन प्रश्नों का कोई माकूल जवाब देना किसी के लिए भी कठिन है |इसलिए कि लोकतंत्र में जो भी मंच या संस्था है,वह अंततः जनता की और जनता के लिए है | किसी राजनीतिक दल की सरकार आएगी और जायेगी ,लेकिन संस्थाएं बरक़रार रहेंगी| फिर भी जब-तब संस्थाओं के बहिष्कार की ख़बरें आती रहती हैं | कभी भारत भवन,भोपाल के कार्यक्रमों के बहिष्कार का अभियान लेखकों के एक वामपंथी गुट की ओर से चला था | बावजूद इसके कुछ लेखकों को छोड़कर बाकी लेखक वहां जाते-आते रहें| महादेवी वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार मार्गरेट थैचर के हाथों लेने से इनकार करने की मांग भी कुछ लेखकों ने की थी | नागार्जुन से भी इंदिरा गाँधी के हाथों पुरस्कार न लेने के लिए कहा गया था | राजेंद्र यादव को बिहार सरकार का शिखर सम्मान जब मिला था तो वामपंथी लेखकों के धड़े ने विरोध किया था | किसी घटना विशेष को ध्यान में रखकर हिंदी अकादेमी और साहित्य अकादेमी का कुछ लेखकों ने विरोध/बहिष्कार किया लेकिन किसी लेखक ने इस तरह की मांगों के बावजूद पुरस्कार/सम्मान लेने से मना किया हो या लेखकों के बड़े समुदाय ने किसी संस्था का बहिष्कार किया हो,इसकी याद मुझे नहीं है|
            एक लोकतान्त्रिक देश में कोई संस्था न तो किसी दल विशेष की होती है और न किसी सरकार विशेष को इनके काम-धाम में अनावश्यक दखल देना चाहिए | इन संस्थाओं का गठन जब हुआ होगा तो आदर्श तो यही रहा होगा | लेकिन सरकारों के बदलने पर सम्मान/पुरस्कारों के चयन में कभी-कभार बाहरी दबाव न रहते होंगे,इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता | ऐसी स्थिति में फिर वही प्रश्न कि लेखकों को सरकार पोषित संस्थाओं के मंचों पर जाना चाहिए या नहीं?
             आज का लेखक कबीर,कुम्भनदास,तुलसीदास आदि की तरह न तो जीवन जीता है और न कोई उससे वैसी अपेक्षा करेगा| कबीर कह सकते थे कि जिसे कुछ नहीं चाहिए वही शाहंशाह है,कुम्भनदास भी तब की राजधानी सीकरी से दूर रहने की स्पष्ट सलाह दे सकते थे;तुलसीदास भी कह सकते थे कि मैंने राम की गुलामी स्वीकार कर ली है,अब किसी नर की मनसबदारी नहीं करूँगा | यही मानसिक रचना उस काल के सभी संत कवियों की थी| शायद यही कारण है कि उनका रचा साहित्य लगभग हजार वर्षों के हिंदी साहित्य का सबसे उज्ज्वल अध्याय है| ऐसा अध्याय जो ज़रा-से भी किसी राजकीय हस्तक्षेप से अपनी दूरी बनाए रहता है| यही कारण है कि भक्ति काव्य का अधिकांश हमें आज भी नैतिक लगता है| भक्त कवियों ने तो प्रभु की सत्ता स्वीकार कर ली थी,उन्हें किसी अन्य के अनुग्रह की ज़रूरत नहीं थी | लेकिन यही बात दूसरे काल के खासतौर से आज के साहित्यकारों के बारे में नहीं कही जा सकती| आज के साहित्यकार का घर-परिवार है;उसके लिए उसे कोई न कोई नौकरी या काम काम करना है| वह जो लिखता है,उसके प्रकाशन,प्रचार-प्रसार  के लिए किसी न किसी निजी या सरकार पोषित संस्था की दरकार है| यदि उसने जीवन भर लिखने-पढने का ही काम किया है ,तो उसकी सहज मानवीय कमजोरी हो सकती है कि वह साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी हो|लेखकों को पुरस्कृत-सम्मानित करने का काम सरकार पोषित संस्थाएँ करती भी रही हैं | अपनी राजनीतिक धारा के लेखकों का भी और अपनी विरोधी राजनीतिक धारा के लेखकों का भी | आज जब कुछ भी राजनीति से परे नहीं है,तब किसी लेखक का किसी सरकार पोषित संस्था द्वारा सम्मान राजनीति से परे तो नहीं ही माना जाएगा| भले ही वह फौरी नहीं,दूरगामी राजनीति हो | तब क्या लेखक को अपनी ही राजनीतिक धारा की सरकार के समय में सरकार पोषित संस्थाओं में जाना चाहिए और सम्मानित होना चाहिए ?
                 किसी लेखक या विपरीत धारा के लेखक का कहीं सम्मानित किया जाना किसी भी लोकतांत्रिक समाज के मुक्त मन का परिचायक है | अपनी आलोचना किये जाने का माहौल लोकतंत्र में विश्वास करने वाली सरकारें ही देती हैं| जो सरकारें विचारधारा की तानाशाही के आधार पर सत्ता में आती हैं वे लेखकों की अभिव्यक्ति पर पहरा बिठा  देती हैं | नात्सी जर्मनी में भी लेखकों-कलाकारों को यातनाएं झेलनी पड़ीं और स्तालिनकालीन सोवियत रूस में भी| ऐसी सरकारों द्वारा पोषित संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जाना कोई स्वतंत्रचेता लेखक कैसे पसंद करेगा ? करना भी नहीं चाहिए|इन देशों में भी लेखकों-कलाकारों ने तानाशाही का विरोध किया था और यातनाएं झेली थीं| अपने देश में भी आपात काल में जब अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबन्ध लगा तो लेखकों के व्यापक समुदाय ने उसका विरोध किया था|यद्यपि सीपीआई /प्रलेस से जुड़े लेखक तब या तो आपात्काल के समर्थन में थे या चतुराई पूर्वक चुप थे|
                 कोई लेखक जब किसी संस्था द्वारा सम्मानित होता है तो अंततः उसकी रचना सम्मानित होती है | रचना के पीछे लेखक की अपनी जीवन-दृष्टि होती है;रचना में निहित उसके मौन या मुखर विचार होते हैं| जेनुइन लेखक सम्मान से अधिक अपनी रचना के साथ होता है|संस्थाएं ऐसे लेखकों का सम्मान करके स्वयं सम्मानित होना चाहती हैं;अपना उदार चेहरा प्रस्तुत करना चाहती हैं| कई बार सत्ताधारी दल ऐसा करके लेखक से अपने अनुकूल बनने की अपेक्षा भी रखता  है| सरकार पोषित संस्थाओं के मंचों पर जब ऐसे लेखकों को बुलाया जाता है तो यह भी अपेक्षा होती है कि लेखक संस्था या सत्ता के लिए असुविधाजनक वक्तव्य न दे |अवसरवादी लेखक अनुकूलन के शिकार होते भी हैं,लेकिन जेनुइन लेखक वही बोलता है जो साहित्य का स्वाभाविक धर्म होता है|कहने की जरुरत नहीं कि एक लेखक का स्वाभाविक धर्म जनता की पीड़ा का सही चित्रण है,उस पीड़ा का पक्षधर होना है|इसलिए किसी लेखक का असली काम है सत्ता के विपक्ष में होना| सुना है कि राममनोहर लोहिया कहते  कहते थे कि उनके  दल की भी सरकार बनी तब भी  वे विपक्ष की भूमिका में रहना पसंद करेंगे;ताकि अपने दल की सरकार के प्रति आलोचनात्मक रूख रख सकें  | आज के दिन कौन –सा दल या कौन-सा नेता ऐसे आदर्श को जीना पसंद करेगा,कहना कठिन है,लेकिन एक लेखक को तो सतत विपक्ष में होना ही चाहिए|जो वह लिखता है उसमें उसका विपक्षी तेवर साहित्यिक  भाषा और सलीके के साथ साफ़-साफ़ दिखना चाहिए| जब वह किसी मंच पर बोलने के लिए निमंत्रित किया जाता है,तब उसे वही बोलना चाहिए जो उसका अपना पक्ष है |  यह सुविधा और वह माहौल वह मंच मुहैया कराता है तो उसे अपनी बात बेलाग-लपेट कहने से हिचकना नहीं चाहिए| यदि वह मंच उसे उसकी अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देता तो निश्चित रूप से उसे उसका बहिष्कार करना चाहिए|
           वाद-विवाद-संवाद की गुंजाइश जनतांत्रिक समाज में ही होती है |हम विचारधारा के लिहाज से अपने अनुकूल लोगों से संवाद तो करते ही हैं जो दूसरी विचारधारा के लोग हैं उनसे भी संवाद करें,ऐसा जनतंत्र का तकाजा है|यदि हम ऐसा नहीं करते तो अपने से असहमत व्यक्ति के सामने सोच-विचार के लिए कोई दूसरा वैचारिक प्लेटफार्म और दूसरी जीवन-दृष्टि प्रस्तुत करने के दायित्व से अपने को मुक्त कर लेते हैं |इतिहास गवाह है कि गांधी ने अपने विरोधियों के साथ  संवाद करने से परहेज नहीं किया|  इसलिए कि उनकी दृष्टि साफ़ थी | वे मानते थे कि पाप से घृणा करनी चाहिए पापियों से नहीं| किसी ने एक दिलचस्प बात बतायी थी|एक बार श्रीपाद अमृत डांगे को मुम्बई के एक धुर विरोधी दल के नेता  ने एक कार्यक्रम में बोलने के लिए आमंत्रित किया|डांगे गए और वही कहा जो उन्हें कहना था | कहा जाता है कि डांगे के वक्तव्य से प्रभावित होकर वहाँ बैठे बहुत से लोग उनके समर्थक हो गये थे | इस घटना से पता चलता है कि अपने पाँव अपनी जमीन टिकाए रखकर  विरोधी विचारधारा के मंच पर भी बोलने में हर्ज़ नहीं है | यह भी कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद जब अमेरिका में बोल रह थे तो उनके भाषण से प्रभावित होकर एक विदेशी उनका अनुयायी बन गया | वह शॉर्ट हैंड जानता था|बाद में उसी ने उनके बहुत-से भाषण नोट किए,जो आज हमारे लिए सुलभ है|इसका अर्थ यह है कि संवाद से वे डरते हैं,जिनके पास दूसरों को प्रभावित करने वाली न तो दृष्टि होती है और न ही चरित्र |

             किसी दल की सरकार या किसी संस्था के किसी काम से विरोध हो तो उसका बहिष्कार उसके विरोध का एक तरीका हो सकता है | सामंती समाज में जब किसी व्यक्ति का आचरण अशोभनीय होता था तो जाति बहिष्कृत करके समाज उसे सजा देता था|लोकतांत्रिक समाज में बहिष्कार विरोध का अंतिम उपाय होना चाहिए| जब तक और जहां तक संभव हो संस्थागत मंच का उपयोग अपना पक्ष रखने में लेखकों को करना चाहिए| इसलिए कि लोकतांत्रिक समाज में सरकार पोषित कोई संस्था किसी एक व्यक्ति,दल या विचारधारा की जागीर नहीं होती| मुक्तिबोध के शब्दों में यह दुनिया यदि कचरे का ढेर नहीं है तो किसी कुक्कुट को उस पर बैठकर बांग देने और मसीहा बनने देने से रोकने का आखिर लेखकों के पास उपाय क्या है ?सरकार पोषित मंचों पर मौका मिलने पर तब तक बोलना चाहिए जब तक उसकी उदारता का छद्म बेपर्द न हो जाए |

Tuesday 2 August 2016

नलिन विलोचन शर्मा



आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का जन्म 18 फरवरी 1916 को पटना में हुआ था और मृत्यु मात्र साढ़े पैंतालीस साल की उम्र में 12 सितम्बर 1961 को पटना में ही हुई | वे दर्शन और संस्कृत के महान विद्वान महामहोपाध्याय पं. रामावतार शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र थे | कहावत है कि बरगद की छाया में उगा हुआ पौधा बड़ा वृक्ष नहीं बनता, लेकिन नलिन जी इसके अपवाद सिद्ध हुए | वे स्वनाम धन्य पिता के स्वनाम धन्य पुत्र थे | उनके व्यक्तित्व-निर्माण में पिता के पांडित्य और उनके प्रगतिशील दृष्टि की महत्वपूर्ण भूमिका थी | रामावतार शर्मा संस्कृत और दर्शन के ख्यातिप्राप्त विद्वान तो थे ही, संस्कृत, अंग्रेजी, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं पर भी अधिकार रखते थे | नलिन जी को पिता का भाषा-ज्ञान विरासत में मिला | संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी तीनों भाषाओं पर उनका एक-सा अधिकार था | कामचलाऊ ज्ञान जर्मन और फ्रेंच का भी था | लेकिन उनके व्यक्तित्व-निर्माण में पिता की पदार्थवादी दृष्टि की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी | यूँ तो रामावतार शर्मा संस्कृत वांग्मय के प्रकांड पंडित थे, लेकिन अन्य पंडितों की तरह वे दकियानूश और पोंगापंथी नहीं थे | वे पदार्थवादी थे और शास्त्र के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास का प्रचार करने वाले पंडितों से बराबर लोहा लिया करते थे | वे हिंदी नवजागरण के अग्रदूतों में से एक थे और 1916 में जबलपुर में संपन्न हिंदी साहित्य सम्मलेन के 16वें अधिवेशन की उन्होंने अध्यक्षता की थी | नलिन जी के व्यक्तित्व-निर्माण में उस विद्वान पिता की पदार्थवादी और प्रगतिशील दृष्टि की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता |  
नलिन जी ने पहले संस्कृत में एम. ए. किया और जैन कॉलेज, आरा में संस्कृत के प्राध्यापक हो गए | बाद में उन्होंने हिंदी से एम. ए. किया और उनकी नियुक्ति पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हो गई, जहाँ वे प्रोफेसर और अध्यक्ष हुए | आमतौर से हिंदी अध्यापकों की अंग्रेजी और संस्कृत में स्थिति अधिक मजबूत नहीं होती, लेकिन नलिन जी इसके अपवाद थे | हिंदी के साथ उनका समान अधिकार संस्कृत और अंग्रेजी भाषा पर भी था | यही कारण है कि युवा-काल में ही उनके नाम में आचार्य विशेषण लगाकर लोग संबोधित करने लगे |
संस्कृत भाषा पर अधिकार होने के कारण नलिन जी भारतीय वांग्मय की प्राणधारा का संधान करने में सहज ही सक्षम थे | इसलिए उनके चिंतन और लेखन में भारतीय वांग्मय की पदार्थवादी परंपरा का प्रवाह है | अंग्रेजी ज्ञान के कारण पश्चिम के साहित्य और वहाँ  साहित्य-दृष्टि में आ रहे बदलावों का उन्हें अच्छा ज्ञान था | इस कारण उनकी रचना और आलोचना में विलक्षण नवीनता और मौलिकता प्रकट हुई, जिसे न तब ठीक-ठीक समझा गया और अब भी कम ही समझा जाता है |
नलिन विलोचन शर्मा को बहुत कम उम्र मिली | मात्र साढ़े पैंतालीस साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन कम उम्र के बावजूद कविता, कहानी, आलोचना, निबंध, जीवनी आदि विधाओं में उन्होंने भरपूर लेखन किया | उनके जीवन-काल में ‘दृष्टिकोण’, ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ शीर्षक पुस्तकें आलोचना और इतिहास की प्रकाशित हुईं | ‘नकेन के प्रपद्य’ शीर्षक से प्रपद्यवादी कविताओं का समवेत संग्रह प्रकाशित हुआ | ‘विष के दांत’ तथा ‘सत्रह  अप्रकाशित पूर्व छोटी कहानियाँ’ नामक कहानी संकलन प्रकाशित हुए | अंग्रेजी में लिखी जगजीवन राम की जीवनी भी उनके जीवन-काल में प्रकाशित हुई | उनके निधन के बाद ‘मानदंड’, ‘हिंदी उपन्यास- विशेषतः प्रेमचंद’, ‘साहित्य तत्व और आलोचना’ तथा ‘नलिन विलोचन शर्मा : संकलित निबंध’ नामक आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हुईं | ‘नकेन- २’ शीर्षक से प्रपद्यवादी कविताओं का संग्रह भी छपा, लेकिन ये सारी किताबें भी आज ठीक से पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हैं | उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं जिन्हें संग्रहित करना एक बड़ा काम है | उनकी पत्नी कुमुद शर्मा ने छः खण्डों में उनकी रचनावली तैयार की थी और एक प्रकाशक को प्रकाशनार्थ सौंपा भी था, लेकिन उस प्रकाशक की लापरवाही और एक विश्वविद्यालय की कृपा से वह पांडुलिपि गायब हो गई | इस तरह हिंदी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण आलोचक और रचनाकार अपनी सम्पूर्णता में हिंदी जगत के सामने नहीं आ सका | नलिन विलोचन शर्मा के मूल्यांकन में उनके साहित्य की अनुपलब्धता एक बड़ी चुनौती है |
नलिन विलोचन शर्मा ने अनेक विधाओं में लिखा है, लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य को उनकी सबसे बड़ी देन उनकी आलोचना के क्षेत्र में है | मौलिक दृष्टि, दुर्लभ वैदुष्य और चिंतनपूर्ण लेखन के द्वारा उन्होंने आलोचना का नया मानदंड निर्मित किया | अपने चिंतनपूर्ण और बहसतलब आलोचनात्मक लेखों, साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक समीक्षाओं के द्वारा वे हिंदी संसार को नए ढंग से आंदोलित करते रहे | वे नए-पुराने सभी लेखकों के बीच आलोचक-रूप में समान रूप से प्रतिष्ठित थे | पुराने साहित्य पर यदि उनकी राय सुनी जाती थी तो नए साहित्य पर भी | उनकी दूसरी देन कहानीकार के रूप में है | नलिन विलोचन शर्मा हिंदी के विलक्षण कहानीकार थे | उनका रचनाकार व्यक्तित्व कविता के साथ कहानी लेखन के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्रिय था | उनकी साहित्यिक देन का तीसरा क्षेत्र कविता है, जिसमें उन्हें ज्यादा प्रसिद्धि मिली | प्रपद्यवाद के प्रवर्तकों में से पहला नाम उन्हीं का आता है | नलिन विलोचन शर्मा की चौथी देन निबंधों के क्षेत्र में है | जहाँ उनकी आधुनिक दृष्टि के दर्शन होते हैं | लेकिन आइए सबसे पहले प्रपद्यवादी कवि के रूप में उनका परिचय प्राप्त करें |
प्रपद्यवाद को नकेनवाद भी कहा जाता है | प्रपद्यवादी कविताओं का पहला संकलन ‘नकेन के प्रपद्य’ शीर्षक से १९५६ में प्रकाशित हुआ | जिसमें नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश की कविताएँ संकलित थीं | नकेन इन तीनों कवियों के नामों के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना था | इसलिए इनकी कविताएँ प्रपद्यवाद और नकेनवाद दोनों नामों से पुकारी जाती हैं | पद्य में ‘प्र’ उपसर्ग लगाने से प्रपद्य बना है जिसका अर्थ किया गया है- प्रयोगवादी पद्य | प्रपद्यवादी अपने को वास्तविक प्रयोगवादी और अज्ञेय आदि को प्रयोगशील कवि मानते थे | प्रपद्यवादियों के अनुसार प्रयोग उनका साध्य है, जबकि अज्ञेय आदि के लिए साधन | प्रपद्यवाद छायावाद की तरह कोई स्वतःस्फूर्त आन्दोलन नहीं था | यह एक संगठित और सुविचारित काव्यान्दोलन था | यह संगठन मात्र तीन कवियों का था और ये तीनों कवि एक ही नगर पटना में रहते थे | तीनों सुशिक्षित थे और देश-विदेश के काव्यान्दोलनों के गहरे अध्येता थे | उन्होंने प्रपद्यवाद नाम से जिस काव्यान्दोलन का सूत्रपात किया उसका एक-एक शब्द और सिद्धांत सुविचारित था | वे सचेत ढंग से हिंदी कविता को अपनी प्रपद्यवादी कविताओं के जरिए विश्व कविता के बौद्धिक धरातल तक ले जाना चाहते थे | वे कविता में भावुकता के विरोधी थे और उसमें बौद्धिकता तथा वैज्ञानिकता के योग से नयापन पैदा करने के पक्षधर थे | नलिन विलोचन शर्मा ने विनोद-भाव से एक द्विपदी लिखी थी जो प्रपद्यवादी कविता के नए मिजाज की सूचना देती थी-
दिल तो अब बेकार हुआ जो कुछ है सो ब्रेन,                                                           गाय हुई बकेन है, कविता हुई नकेन |
तात्पर्य यह कि कविता बौद्धिक रूप से सघन और गाढ़ी होनी चाहिए, उसमें भावुकता की मिलावट बिलकुल नहीं होनी चाहिए |
प्रपद्यवाद या नकेनवाद आलोचकों की दी हुई संज्ञा नहीं है | ये दोनों नाम तीनों कवियों द्वारा अपने लिए अपनाए गए नाम हैं | ‘नकेन के प्रपद्य’ नामक काव्य संकलन में प्रपद्यवाद के सिद्धांत-सूत्रों की घोषणा ‘प्रपद्य द्वादश सूत्री’ शीर्षक से की गई है | यह ‘प्रपद्य द्वादश सूत्री’ उन कवियों के अनुसार ‘प्रपद्यवाद के घोषणापत्र का प्रारूप’ है | प्रपद्यवादी कविताओं को समझने के लिए इन सिद्धांत-सूत्रों को समझना आवश्यक है | ये सिद्धांत-सूत्र हैं-
1. प्रपद्यवाद भाव और व्यंजना का स्थापत्य है |                                                         २. प्रपद्यवाद सर्वतंत्र- स्वतंत्र है, उसके लिए शास्त्र या दल निर्धारित अनुपयुक्त है |             ३. प्रपद्यवाद महान पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को भी निष्प्राण मानता है |                  ४. प्रपद्यवाद दूसरों के अनुकरण की तरह अपना अनुकरण वर्जित मानता है |                 ५. प्रपद्यवाद को मुक्त काव्य नहीं, स्वच्छंद काव्य की स्थिति अभीष्ट है |                       ६. प्रयोगशील प्रयोग को साधन मानता है, प्रपद्यवादी साध्य |                                       ७. प्रपद्यवाद की दृक्वाक्यपदीय प्रणाली है |                                                                 ८. प्रपद्यवाद के लिए जीवन और कोष कच्चे माल की खान हैं |                                         ९. प्रपद्यवादी प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छंद का स्वयं निर्माता है |                                   १०. प्रपद्यवाद दृष्टिकोण का अनुसन्धान है |                                                                    ११. प्रपद्यवाद मानता है कि पद्य में उत्कृष्ट केन्द्रण होता है और यही गद्य और पद्य में अंतर है |                                                                                                            १२. प्रपद्यवाद मानता है कि चीजों का एकमात्र सही नाम होता है |
          बाद में ‘नकेन- २’ का जब प्रकाशन हुआ तो द्वादश सूत्रों के साथ छः और सूत्र जोड़कर ‘प्रपद्य अष्टादश सूत्री’ की घोषणा की गई | बाद में जोड़े गए सूत्र थे-
१३. प्रपद्यवाद आयाम की खोज है और अभिनिष्क्रमण भी, ठीक वैसे, जैसे वह भाव और व्यंजना का स्थापत्य है और उससे अभिनिष्क्रमण भी |                                                 १४. प्रपद्यवाद चित्रेतना है |                                                                                       १५. प्रपद्यवाद मिथक का संयोजक नहीं, स्रष्टा है |                                                 १६. प्रपद्यवाद बिम्ब का काव्य नहीं, काव्य का बिम्ब है |                                         १७. प्रपद्यवाद सम्पूर्ण अनुभव है |                                                                         १८. प्रपद्यवाद अविभक्त काव्य-रुचि है |
इन अठारह सूत्रों के अलावा ‘नकेन के प्रपद्य’ में ‘पसपशा’ शीर्षक से केसरी कुमार ने प्रपद्यवाद की व्याख्या की | उन्होंने लिखा है- “प्रपद्यवाद प्रयोग का दर्शन है .......प्रयोग के वाद से तात्पर्य यह है कि वह भाव और भाषा, विचार और अभिव्यक्ति, आवेश और आत्मप्रेषण, तत्व और रूप, इनमें से कई में या सभी में प्रयोग को अपेक्षित मानता है |” इस कथन के साथ केसरी कुमार ने यह भी दुहराया है कि सतत प्रयोग करना ही प्रपद्यवाद है | प्रपद्यवादियों का मानना था कि कविता भाव, विचार या दर्शन से नहीं लिखी जाती ....वह नए विचारों या नए शब्दों से भी नहीं लिखी जाती | उनके अनुसार कविता नए विचारों, नए शब्दों के केन्द्रण से बनती है | दैनंदिन की भाषा की व्यवस्था को व्यतिरेकित करके ही इसे प्राप्त किया जा सकता है | हमारे दैनंदिन जीवन की भाषा और अनुभव के आगे की भाषा तथा अनुभव को कविता प्रकट करती है | प्रपद्यवादी मानते हैं कि कविता के लिए जीवन की प्रतिष्ठित व्यवस्था आवश्यक नहीं है, बल्कि जीवन की जागृति आवश्यक है |
          प्रपद्यवादियों के लिए साधारणीकरण कोई समस्या नहीं है | साधारणीकरण की प्रक्रिया में रचनाकार और पाठक का एक ही भाव-सत्ता में होना आवश्यक है | लेकिन प्रपद्यवादी न तो भाव-सत्ता को स्वीकारते हैं, न रसानुभूति को | उनके लिए कविता वैयक्तिक चीज है, सार्वजनिक नहीं | प्रपद्यवादी कविता में जिस वैयक्तिक अनुभूति, शब्द और अर्थ पर जोर देते हैं, उसमें साधारणीकरण के लिए कोई जगह नहीं है | वे साधारणीकरण के स्थान पर विशिष्टीकरण को महत्वपूर्ण मानते हैं | विशिष्टीकरण का आधार विज्ञान है | जिस तरह से ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विशिष्टीकरण आवश्यक है, उसी तरह से कविता में भी | नलिन विलोचन शर्मा कवि के लिए ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ तथा ‘विज्ञान-सम्मत दर्शन’ की जरुरत पर बल देते हैं | वे मानते हैं कि कविता का उद्देश्य सत्य का संधान है |
          प्रपद्यवादी काव्य-सिद्धांत के अनुसार काव्य-रचना के लिए बुद्धि आवश्यक है | बौद्धिकता को कविता का आवश्यक गुण स्वीकार करते हुए केसरी कुमार ने लिखा है- “जब कविता अपने समय की बौद्धिकता से संपर्क-विच्छेद कर लेती है, तब भाव-प्रवण, जाग्रत-मति समाज की उसमें दिलचस्पी नहीं रह जाती | यह अत्यंत खेदजनक स्थिति है, क्योंकि यह समाज यद्यपि अल्पसंख्यकों का होता है, पर यही बड़े समाज को गति देने वाला सिद्ध होता है |”
          प्रपद्यवाद की काव्य-पूँजी थोड़ी है | नलिन विलोचन शर्मा की भी काव्य-पूँजी मात्रा रूप में कम ही है | प्रपद्यवादी काव्यधारा में दूसरे कवि शामिल नहीं हुए | वह इन्हीं तीन कवियों तक सीमित रही | कोई भी आन्दोलन तभी विस्तार और दीर्घ जीवन पाता है, जब उसमें अधिक से अधिक लोगों की समाही होती है | हिंदी कविता के इतिहास में जगह बनाने के लिए जिस मात्रा की आवश्यकता होती है, वह मात्रा न तो प्रपद्यवाद के पास है, न नलिन जी के पास | लेकिन अल्पमात्रा के बावजूद अपनी विशिष्ट भंगिमा के कारण प्रपद्यवादी कविताओं ने 1960 के दशक में हिंदी कविता को नई चमक से भर दिया था | यह कविता की नई भंगिमा थी और नई जमीन थी | अज्ञेय ने नलिन विलोचन शर्मा और केसरी कुमार की काव्य-नवीनता को रेखांकित करते हुए लिखा है- “वैसी कविताएँ जैसी केसरी कुमार की ‘साँझ’ अथवा नलिन विलोचन शर्मा की ‘सागर संध्या’ है, ऐसे बिम्ब उपस्थित करती हैं, जिनके लिए परंपरा ने हमें तैयार नहीं किया है और जो उस अनुभव के सत्य को उपस्थित करना चाहते हैं, जो उसी अर्थ में अनन्य है, जिस अर्थ में एक व्यक्ति अनन्य होता है |” नलिन जी की ‘सागर संध्या’ शीर्षक कविता को उनके काव्य-उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है-
बालू के ढूह हैं जैसे बिल्लियाँ सोई हुई,                                                                उनके पंजों से लहरें दौड़ भागतीं |                                                                          सूरज की खेती चर रहे मेघ-मेमने                                                                    विश्रब्ध, अचकित |                                                                                                 मैं महाशून्य में चल रहा....                                                                              पीली बालू पर जंगम बिंदु एक-                                                                            तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के                                                           काल-प्रत्न त्रयी-मध्य से होकर |                                                                               मेरी गति के अवशेष एकमात्र                                                                       लक्षित ये होते :                                                                                     सिगरेट का धुँआ वायु पर ;                                                                                        पैरों के अंक बालू पर                                                                                               टंकित, जिन्हें ज्वार भर देगा आकर |
          कविता के अलावा लगभग चार दर्जन कहानियाँ नलिन जी की लिखी हुई मिलती हैं | कविता के क्षेत्र में उन्होंने जिस तरह मौलिक और विशिष्ट प्रयोग किए, उसी तरह कहानी के क्षेत्र में भी किए | उनकी कहानियों में सामाजिकता और मनोवैज्ञानिकता का बड़ा ही सफल गुम्फन हुआ है | भाषा, भाव और शिल्प हर स्तर पर उनकी कहानियाँ उनकी कविताओं की ही तरह ठोस स्थापत्य की हैं | ‘विष के दांत तथा अन्य कहानियाँ’ और ‘सत्रह असंग्रहित पूर्व छोटी कहानियाँ’ नामक संग्रहों में लगभग तीस कहानियाँ मिलती हैं, जबकि शेष कहानियाँ अभी भी पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं | उन्होंने कुल ५५ कहानियाँ लिखी थीं | नलिन जी कहानी में सामाजिक सत्य को मनोवैज्ञानिक सत्य के साथ प्रतिष्ठित करना चाहते थे | केसरी कुमार ने लिखा है- “वे विज्ञान और दर्शन के मिलन-बिंदु के विरल कवि तथा दुर्लभ मनोवैज्ञानिक उपलब्धियों के कहानीकार थे |” विषय के आधार पर उनकी कहानियों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है- १. सामाजिक विषयों से सम्बंधित कहानियाँ, २. मनोग्रंथि से सम्बंधित कहानियाँ, ३. प्रेम कहानियाँ | वैसे यह विभाजन ऊपरी है | कहानियों के भीतर व्याप्त कथा-चेतना एक-सी है | वह चेतना है मानव-मनोविज्ञान के अध्ययन की | इसकी कमी नलिन जी हिंदी कहानी में महसूस करते हैं | विष के दांत, ये बीमार लोग, बरसाने की राधा और रोबोट जैसी अमर कहानियाँ लिखने का श्रेय नलिन विलोचन शर्मा को ही जाता है | मेरा अनुमान है कि इनको शामिल किए बिना हिंदी कहानी का इतिहास पूरा नहीं होगा |
          नलिन विलोचन शर्मा की वास्तविक देन आलोचना के क्षेत्र में है | उसी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप साहित्य के इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में भी किया | प्रगतिवादी और गैर-प्रगतिवादी आलोचना शिविर से अलग उन्होंने हिंदी आलोचना की नई जमीन तैयार की | शीतयुद्धकालीन राजनीतिक शब्दावली का इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं कि नलिन विलोचन शर्मा का हिंदी आलोचना में वही स्थान और महत्व है जो शीतयुद्ध काल में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का था | नलिन विलोचन शर्मा आलोचना लिखते समय भारतीय साहित्य की पाँच महान परम्पराओं की चर्चा करते हैं | उन्होंने भौतिकता को भारतीय साहित्य की पहली विशेषता घोषित किया | उनके अनुसार दूसरी परंपरा यथार्थता की है | मानवता यानी ह्यूमनिज्म, नलिन जी के अनुसार भारतीय साहित्य की तीसरी परंपरा है | मानववाद यानी ह्यूमेनिटेरियलिज्म को वे हिंदी साहित्य की चौथी महान परंपरा मानते हैं | धार्मिकता, नलिन जी के अनुसार भारतीय साहित्य की पाँचवी विशेषता है | भौतिकता को प्रथम और धार्मिकता को भारतीय साहित्य की अंतिम विशेषता मानने वाले नलिन विलोचन शर्मा की आलोचना-दृष्टि को अलग से समझने की जरुरत है | वे प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी आलोचनात्मक प्रत्ययों से भिन्न नए मानदंड का निर्माण करते हैं | नलिन जी की आलोचनात्मक कसौटी के मुख्य आधार हैं- मुक्ति और स्वच्छंदता | इन दोनों में भी मुक्ति को वे मुख्य आलोचनात्मक कसौटी मानते हैं | उनके अनुसार पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और बर्नाड शॉ में स्वच्छंदता के गुण हैं, जबकि निराला और वाल्ट व्हिटमैन में मुक्ति के | रचना में विषयगत नवीनता को नलिन जी स्वच्छंदता का गुण मानते हैं, जबकि विषयगत और रूपगत नवीनता को वे रचना की मुक्ति से जोड़कर देखते हैं | स्वच्छंदता और मुक्ति की अपनी आलोचनात्मक कसौटी पर वे निराला को आधुनिक युग का सबसे बड़ा कवि और प्रेमचंद को आधुनिक युग का सबसे बड़ा कथाकार घोषित करते हैं |
नलिन विलोचन शर्मा की वास्तविक देन उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में है | उन्होंने अपने चिंतनपरक आलोचनात्मक लेखों के जरिए हिंदी उपन्यास का शास्त्र विकसित करने की कोशिश की | वे मानते थे कि उपन्यास साहित्य की ‘अन्त्यज विधा’ है | अन्त्यज शब्द से ही उनकी साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि की नवीनता का पता चलता है | प्रेमचंद को उपन्यास के कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित करने का अथक संघर्ष नलिन विलोचन शर्मा ने हिंदी आलोचना में किया | वे मानते थे कि प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास की दुनिया में अहिंसक क्रांति के जरिए उसके पूरे स्थापत्य को बदल कर रख दिया | मुझे लगता है कि प्रेमचंद की कला का नलिन विलोचन शर्मा जैसा पारखी आलोचक हिंदी में दूसरा नहीं हुआ |
          उपन्यास का शास्त्र तैयार करते हुए नलिन जी ने कथा-भूमि की सभ्यता और संस्कृति से जोड़कर उसे देखा है | उन्होंने लिखा है- “हिंदी उपन्यास का इतिहास, किसी भी देश के इतिहास की तरह हिंदी-भाषी क्षेत्र की सभ्यता और संस्कृति के नवीन रूप के विकास का साहित्यिक प्रतिफलन है | समृद्धि और ऐश्वर्य की सभ्यता महाकाव्य में अभिव्यंजना पाती है, जटिलता, वैषम्य और संघर्ष की सभ्यता उपन्यास में .........हमारे उपन्यास यदि आज पश्चिमी उपन्यासों के समकक्ष सिद्ध नहीं होते तो मुख्यतः इसलिए कि हमारी वर्तमान सभ्यता अपेक्षतया आज भी कम जटिल, कम उलझी हुई और कहीं ज्यादा सीधी-सादी है |” नलिन जी उपन्यास को अन्त्यज कहते हैं | अन्त्यज का अर्थ सबसे अंत में पैदा हुआ तो होता ही है, उसका अर्थ यह भी है कि उसका गहरा सम्बन्ध हाशिए पर रहने वाले समाज से है |
          मुक्ति और स्वच्छंदता की कसौटी पर नलिन विलोचन शर्मा का सारा आलोचना- साहित्य टिका हुआ है | इसीलिए वे साहित्य में किसी भी तरह की विषयगत और रूपगत रूढ़ि को स्वीकार नहीं करते | वे नवीनता के आग्रही आलोचक थे | यही कारण है कि यदि उन्होंने अज्ञेय आदि के आधुनिकतावादी आग्रहों की आलोचना की तो प्रगतिवादी मान्यताओं पर भी प्रहार करने में वे पीछे नहीं रहे | उन्होंने साहित्य और समाज की रूढ़ियाँ तोड़ने के लिए और परंपरा का मूल्यांकन करने के लिए प्रगतिवादियों की प्रशंसा की तो उनकी निषेधकारी और एकांगी दृष्टि की कड़ी आलोचना भी की | ‘प्रगतिवाद की मान्यताएँ’ शीर्षक उनका एक प्रसिद्ध निबंध है, जिसमें उन्होंने प्रगतिवादियों की आलोचना करते हुए लिखा है- “उन्होंने पुरानी जंजीरें तोड़ फेंकी हैं, लेकिन उन्होंने जिसे गले का हार समझकर प्रसन्नतापूर्वक पहना है, वह हाथ-पैर का नहीं, हृदय और मस्तिष्क का बंधन बन गया है | उन्होंने गुरु-पूजा का त्याग किया है, पर वीर-पूजा अपनाने के लिए, मूर्ति-पूजा से छुटकारा पाया है, किन्तु जन-पूजा के कर्मकांड में फंसने के लिए, और शास्त्र की संकीर्णता के विरुद्ध सफल विद्रोह किया है, लेकिन सिद्धांत की चारदीवारी में कैद हो जाने के लिए |” इस टिप्पणी के साथ नलिन जी ने प्रगतिवादी लेखक पर चार आरोप लगाए- १. वह वीर-पूजा करता है, २. वह जन-पूजा में अन्धविश्वास रखता है, ३. वह कुछ सुचिन्तित सिद्धांतों में बंधा हुआ है और  ४. वह घृणा करता है | प्रगतिवाद के बारे में अपने इस निष्कर्ष के बाद उन्होंने सोवियत-व्यवस्था की आलोचना की, जहाँ नात्सी जर्मनी की तरह लेखकों को यातना दी जा रही थी |
          इस तरह नलिन विलोचन शर्मा हिंदी आलोचना में प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी कसौटियों से भिन्न आलोचना का नया मानदंड निर्मित करते हैं | इस कसौटी पर वे रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला को आलोचना, कथा-साहित्य और कविता का शिखर रचनाकार घोषित करते हैं | कहने की जरुरत नहीं कि रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला के बारे में यही निष्कर्ष प्रगतिवादी आलोचक रामविलास शर्मा के भी हैं | लेकिन उसमें मुक्ति के अभाव के कारण रामविलास जी जहाँ ‘मैला आँचल’ का महत्व पहचानने से चूक जाते हैं, वहीं नलिन जी उसे ‘गोदान’ के बाद हिंदी उपन्यास में आए गत्यवरोध को दूर करने वाला मानते हैं | लेकिन जब विषय और रूप का दुहराव वे उसी फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की ‘परती परिकथा’ में पाते हैं, तो उसकी कड़ी आलोचना भी करते हैं | ऐसा इसलिए कि नलिन जी आलोचना को ‘सृजन’ मानते थे, ऐसा सृजन जो किसी ‘कृति का निर्माण’ करे | आलोचना को परिभाषित करते हुए उन्होंने यह भी कहा है कि ‘आलोचना कला का शेषांश’ है | यही कारण है कि उनकी आलोचना में भाषा-शिल्प आदि पर जितना जोर है, उतना विषयवस्तु पर नहीं | वे ‘कला के धरातल पर उन्नीत’ हो जाने वाली आलोचना के समर्थक थे |
          नलिन जी की महत्वपूर्ण देन साहित्य के इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में भी है | जब हिंदी में इतिहास-दर्शन की चर्चा से प्रायः लोग अनजान थे, तब उन्होंने ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखकर इतिहास-लेखन की आधारभूमि को मजबूती दी थी | वे मानते हैं कि साहित्य का इतिहास वस्तुतः गौण लेखकों का इतिहास है | बड़े-बड़े लेखकों के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले इतिहास-दृष्टि से भिन्न यह नई इतिहास-दृष्टि थी | समाज या राष्ट्र का इतिहास राजाओं का इतिहास नहीं बल्कि जनता का इतिहास है, इस कथन से नलिन जी के कथन को मिलाकर देखना चाहिए, तब उनकी इतिहास-दृष्टि की सामाजिकता और व्यापकता दिखाई देगी | इतिहासकार के रूप में अपने प्रिय आलोचक आचार्य शुक्ल को नलिन जी वह महत्व नहीं देते जो हजारीप्रसाद द्विवेदी को देते हैं | इसका कारण यह है कि नलिन जी शुक्ल जी में विधेयवाद और पश्चिमी इतिहास-दृष्टि का आभास पाते हैं | जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी की दृष्टि उन्हें ज्यादा भारतीय लगती है, क्योंकि उसमें मिथकों, पुराकथाओं, किम्वदंतियों का आधार है, जो नलिन जी के अनुसार साहित्य के इतिहास-लेखन की जरुरी सामग्री है |
          कोई कह सकता है कि नलिन जी रूपवादी थे, हालाँकि ऐसा कहना उनके साथ किंचित ज्यादती होगी | रूपवादी लेखक जहाँ भाववादी और प्रायः अवैज्ञानिक तर्कों के कायल होते हैं, वहीं नलिन विलोचन शर्मा विज्ञान के समर्थक और किसी भी अलौकिक शक्ति में न विश्वास करने वाले अनीश्वरवादी थे | उनका विश्वास समाजवाद में था और वे एम.एन.राय के रेडिकल ह्यूमनिस्ट आन्दोलन को पसंद करते थे |