Sunday 25 June 2017

‘साहित्य का अनुवाद नहीं है सिनेमा’

साहित्य और सिनेमा अभिव्यक्ति के दो माध्यम हैं. प्रभाव की दृष्टि से कौन अधिक ताकतवर और दीर्घजीवी है यह बताना बहुत मुश्किल नहीं है. साहित्य अभिव्यक्ति का आदिम माध्यम है जबकि सिनेमा तकनीक आधारित बिलकुल नया. साहित्य को सिनेमा की जरुरत है या नहीं,  कहना मुश्किल है लेकिन सिनेमा का काम साहित्य के बिना नहीं चल सकता.
          हिंदी लेखकों में सिनेमा को लेकर कभी सम्मान भाव नहीं रहा. उनके लिए सिनेमा की दुनिया हमेशा बदनाम गली की तरह रही है. वहां जाने का अर्थ साहित्य के ऊँचे और पवित्र आसन से नीचे उतरना माना जाता रहा है. साहित्य का उद्देश्य व्यवसाय नहीं है लेकिन सिनेमा का काम बिना व्यवसाय के चल नहीं सकता. इसलिए यह भी माना जाता है और कुछ हद तक ठीक माना जाता है कि सिनेमा में साहित्य को व्यवसायिक समझौता करना ही पड़ेगा. इसी के साथ हिंदी समाज की सिनेमा के प्रति मानसिकता को भी ध्यान में रखना जरुरी है. हिंदी समाज में नाच-नौटंकी और नृत्य-संगीत के लिए सम्मान भाव कभी नहीं रहा. नाचने और गाने वाले कलाकारों को समाज में ‘नचनिया’ और ‘गवैया’ कहकर हिकारत भाव से देखा जाता रहा है. खैर, ग्लैमर और पैसा जुड़ जाने के कारण सिनेमा के प्रति समाज का रवैया बदला है. लेकिन साहित्यकारों का सिनेमा के प्रति जो रवैया पहले था, उसमें कोई ख़ास फर्क नहीं आया है. एक माध्यम के रूप में सिनेमा की प्रतिष्ठा पूरी दुनिया समेत हिंदी में भी बढ़ी है, लेकिन साहित्यकारों में अपने माध्यम को लेकर जो श्रेष्ठता और पवित्रताबोध पहले था, वह कमोबेश अब भी बरकरार है. हर कथाकार यह तो चाहता है कि उसकी कहानी पर फिल्म बने, कवि की इच्छा रहती है कि उसकी कविता सिनेमा में गाई जाकर जन-जन तक पहुंचे, ऐसा होता है तो वह अपने परिचय में सगर्व उसका उल्लेख भी करता है, लेकिन सीधे तौर पर उससे जुड़ने में उसे परहेज अब भी है. कुल मिलाकर हिंदी समाज और साहित्य का रवैया गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज वाली कहावत की तरह है. इसलिए पहले यदि प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, गोपाल सिंह नेपाली आदि कथाकार-कवि सिनेमा में गए और फिर साहित्य की दुनिया में वापस लौट आए तो आज भी किसी कवि-लेखक में सिनेमा में जाने का उत्साहजनक उदहारण न के बराबर ही मिलता है. जावेद अख्तर, गुलजार, प्रसून जोशी आदि को स्टार की हैसियत तो प्राप्त है, लेकिन उनकी जगह साहित्य के ऊँचे और पवित्र आसन पर तो हरगिज नहीं है. इन सबका कारण क्या है? क्या साहित्य और सिनेमा का कोई सहज संवादधर्मी संबंध संभव नहीं? या इसमें मुख्य बाधा वह ‘व्यवसायिकता’ है जिसके बिना सिनेमा की दुनिया भले कायम न रह सके साहित्य के लिए उसमें फंसना अपने को नष्ट करना है?
          सिनेमा में गीत का आत्यंतिक महत्त्व न भी माना जाए तब भी एक कहानी की दरकार तो होती ही है. वह चाहे साहित्यिक हो या फिल्म को ही ध्यान में रखकर लिखी गई मसालेदार कहानी. कहानी के साथ संवाद, पटकथा, गीत-संगीत, अभिनय, निर्देशन, छायांकन आदि कला-रूपों के कुशल संयोजन का नाम सिनेमा है, जिसमें बड़ी टीम, बड़ी पूंजी और नए से नए तकनीकी ज्ञान की जरुरत है. सिनेमा निर्माण एक सामूहिक काम है. एक फिल्म के असफल होने का मतलब है बड़ी पूंजी का डूब जाना. साहित्य-सृजन का काम इससे भिन्न है. लेखक में प्रतिभा और जीवन-दृष्टि के साथ मेहनत करने की क्षमता है तो वह साहित्य-सृजन कर सकता है. कोई साहित्यिक कृति असफल होती है तो एक लेखक असफल होता है. लेखक सृजन के लिए जोखिम उठाता है तो उसके नफे-नुकसान का जिम्मेदार वह खुद होता है, लेकिन फिल्म निर्माण में कोई जोखिम उठाने के पहले सौ बार क्या, हजार बार सोचना पड़ता है. फिर भी कुछ ऐसे फ़िल्मकार हैं जो जोखिम उठाते रहते हैं. ऐसे लोगों में कुछ सफल भी हुए हैं और कुछ बर्बाद भी.
          हिंदी सिनेमा और साहित्य का संबंध दो तरह से है. कुछ लेखक फिल्मों के लिए गीत-कहानी लिखने गए और फिल्मकारों की शर्त पर लिखते रहे और वहीं के होकर रह गए. मसलन नरेंद्र शर्मा, शैलेन्द्र, साहिर, प्रदीप, राही मासूम रजा आदि. सिनेमा में जाकर इनका साहित्य सृजन कितना प्रभावित हुआ, यह तो मूल्यांकनकर्ता बताएंगे, लेकिन इतना तय है कि इनके जरा से स्पर्श से सिनेमा सुन्दर जरुर हुआ. कुछ लेखकों की कहानी को फिल्मकारों ने चुना और लेखक को भागीदार बनाकर फिल्म-निर्माण हुआ. फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ पर इसी नाम पर शैलेन्द्र ने फिल्म बनाई, जिसकी पटकथा और संवाद खुद रेणु ने लिखे. फिल्म में एक खलनायकनुमा चरित्र ठाकुर विक्रम सिंह को जोड़ा गया जो फ़िल्मी सफलता के लिए जरुरी माना गया. रेणु को इसके लिए तैयार होना पड़ा. लेकिन अंत बदलने की जब बात रेणु के सामने आई तो वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. उन्होंने कहा कि लेखक के रूप में फिल्म से मेरा नाम हटा दिया जाए. फिल्म के अंत में हीरामन और हीराबाई का मिलन कराकर फिल्म की व्यवसायिक सफलता के लिए कहानी में परिवर्तन का प्रस्ताव था. रेणु की जिद के कारण निर्माता शैलेन्द्र जो स्वयं गीतकार थे, मान तो गए लेकिन फिल्म असफल हुई. कर्ज के बोझ तले दबकर उसकी इहलीला समाप्त हो गई. साहित्य की कसौटी पर किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने की कीमत शैलेन्द्र को अपनी जान गंवाकर देनी पड़ी.
          कमलेश्वर और राही मासूम रजा दोनों कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद फिल्मों में गए. ‘आंधी’ और ‘मौसम’ जैसी फ़िल्में कमलेश्वर के उपन्यासों पर बनीं जो याद की जाएंगी, लेकिन उनकी लिखी कोई फिल्म याद करने लायक नहीं याद आती. ‘राम बलराम’ या ‘ललकार’ जैसी व्यवसायिक दृष्टि से सफल उनकी लिखी फिल्में याद की जाएंगी क्या? ‘आधा गाँव’ के मसहूर लेखक राही मासूम रजा कोई ऐसी फिल्म नहीं लिख सके जो उनकी ऐतिहासिक देन मानी जाए! ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की’ व्यवसायिक दृष्टि से ही सफल थी, अन्य दृष्टि से नहीं. उनकी सबसे बड़ी देन ‘महाभारत’ धारावाहिक का संवाद और उसकी पटकथा ही मानी जाएगी.
          शरतचंद के ‘देवदास’ पर बहुतेरी फिल्में बनीं. विमल राय और संजयलीला भंसाली के ही ‘देवदास’ को लें. व्यवसायिक सफलता दोनों को मिली, लेकिन फिल्म में शरतचंद कितने थे और उसके निर्माता-निर्देशक कितने यह हम आप जानते हैं. ‘शतरंज के खिलाडी’ का अंत सत्यजीत राय ने भी बदला था. बहुत रचनात्मक अंत था. प्रेमचंद के अंत से अधिक अर्थगर्भित, लेकिन फिल्म व्यवसायिक दृष्टि से सफल नहीं हो सकी. ‘गोदान’, ‘चित्रलेखा’ से लेकर अनेक उपन्यासों-कहानियों पर फिल्में बनी हैं, जिसमें से अधिकतर असफल हुई हैं. व्यवसायिक दृष्टि से भी और कला की दृष्टि से भी. कला की दृष्टि से जो ठीक थीं भी वे व्यवसाय की दृष्टि से पिट गईं.
          सिनेमा जब शुरू हुआ तो कहानी के लिए उसने साहित्य का सहारा लिया. दुनिया की सभी भाषाओं में शुरू के दौर में साहित्यिक कृतियों को आधार बानकर फिल्में बनीं, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों के लिए ही कहानी लिखी जाने लगी. ‘शोले’ जैसी पटकथा या कथा अब लिखी ही जाती हैं सिनेमा को ध्यान में रखकर. उसमें कहानी से अधिक दृश्य, एक्शन, संवाद आदि पर जोर रहता है. लेकिन इसी के साथ ‘पिपली लाइव’, ‘चक दे इंडिया’ आदि फिल्में भी आती हैं जो अपनी यथार्थपरक कहानी के लिए ज्यादा याद की जाती हैं.
          इधर के वर्षों में तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, क्रोमा आदि की प्रमुखता ज्यादा हो गई है जिसमें रियलाइजेशन से अधिक विजुआलाइजेशन पर जोर अधिक होता है. उसमें यथार्थ या फैंटेसी को इतने भव्य ढंग से दिखाने का चलन है कि कहानी के सहारे धीरे-धीरे चलनेवाले स्लो सिनेमा का दौर लगता है कि गुजरे जमाने की चीज है. फिल्मों में आए इस बदलाव ने दर्शकों की रूचि पर जबर्दस्त प्रभाव डाला है. अब दिलीप कुमार-सुचित्रा सेन अभिनीत ‘देवदास’ की जगह शाहरुख़ खान और ऐश्वर्या राय अभिनीत ‘देवदास’ को पसंद करने वाली पीढ़ी आ चुकी है. क्लासिक की तरह हमारे मन-मिजाज में जगह बना चुकी देवदास-पारो की कथा का जो भंसाली संस्करण है वह नई पीढ़ी को अधिक पसंद है, लेकिन उसमें शरतचंद के ‘देवदास’ से बड़ा ‘डेविएशन’ है. कुँवर नारायण का कहना है कि सिनेमा साहित्य का अनुवाद नहीं होता, किन्तु किसी क्लासिक के साथ इस तरह का वर्ताव जो उसे क्लासिक ही न रहने दे, उचित नहीं.
          साहित्य और सिनेमा पर बात करते हुए गुलजार ने एक बार कहा था कि सिनेमा की तुलना में साहित्य का प्रभाव ज्यादा गहरा और स्थायी होता है, एक फिल्म के जरिए हम पर जो प्रभाव पड़ता है वह कई कलाओं का होता है. इसलिए साहित्य और फिल्म के प्रभाव में फर्क होता है. यूँ ‘टाइटेनिक’ जैसी कुछ फिल्में अपने प्रभाव में फिल्म होने के बावजूद कविता होती हैं. अच्छे फिल्मकारों ने सिनेमा को साहित्य के करीब लाकर उसमें साहित्य का प्रभाव पैदा करने की कोशिश की है. इसके लिए उन्होंने जीवन के अछूते प्रसंगों को बहुत गहराई से छूने की कोशिश की है. समकालीन हिंदी  कथा साहित्य और हिंदी सिनेमा पर इस दृष्टि से देखने पर मुझे कई बार सिनेमा आगे निकलता हुआ दिखाई देता है.

Saturday 17 June 2017

डिजिटल समय में वसंत

वसंत आ गया है और सम्पादक मित्र पीछे पड़ गए हैं कि वसंत पर निबंध लिखो। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जब लिखा था-वसंत आ गया है’, तब सम्पादक गण पीछे नहीं पड़े थे। शांति निकेतन के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुए, पेड़ों-वनस्पतियों के बीच रच-बसकर लिखा था। उन्हें न फ़ोन-मोबाइल का व्यवधान था और न वाट्सएप-फेसबुक की माया से दो-चार होना था। कहने को तो यहाँ भी, जहाँ मैं रहता हूँ-दिल्ली विश्वविद्यालयके परिसर में प्रकृति कम नहीं है। पेड़-पौधों और फूलों से पूरा परिसर भरा हुआ है, लेकिन कौन इसे निहारे! जो मज़ा व्हाट्स-एप्प और फेसबुक, यूटयूब की मायावी दुनिया में है, उसका आमंत्रण बाहर के वासंती आमंत्रण में कहाँ! वह सब तो व्हाट्स-एप्प और फेसबुक पर सुबह से दिखने लगता है। बाहर कौन जाए और कौन हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह पेड़-पौधों को निहारता फिरे। वे लोग फटीचर जमाने के लोग थे। गृहस्थी के झंझट से भागते थे तो पेड़-पौधों के पास जाते थे। हमलोग तो सोते-जागते व्हाट्स-एप्प, फेसबुक आदि के जरिए घर के भीतर हीवाह वसंत-आह वसंतके मैसेजिया फूल-गेंदे फेंक-फेंककर न सिर्फ़ दोस्तों-सम्बन्धियों का बल्कि घर के लोगों का भी दिल गुदगुदाते रहते हैं। सब अपने में मगन हैं, लेकिन दूसरे के मैसेज पर नज़र है। भेट-मुलाक़ात भले कम है पर आपसी संवाद जारी है। इन्हीं संवाद ने शोर मचाया कि वसंत आ गया है तो मैंने भी चौंककर आँख खोली। व्हाट्स-एप्प-फेसबुक के पेज़ खोले तो वसंत वहाँ रंग-बिरंगे परिधानों में धूमधाम से हाज़िर था। मुझे देखा तो बोला; आओ, आओ मास्टर! कहाँ थे? मैं तुम्हारे इंतज़ार में हजारों बधाइयाँ समेटे बैठा हूँ। मैंने कहा कि मैं तो तुम्हें बाहर खोज रहा था। बधाइयों के मैसेज और फूलों की तस्वीरें उसने मेरे ऊपर लाद दी। उनके बोझ से मैं हाफ़ने लगा तो उसने कहा कि यह सब हजारी परसादी हरक़त छोड़ों! बाहर कुछ नहीं रखा। मैं तो तुम्हारे डिजिटल आँगन में हाज़िर हूँ।
          सच ही कहा उसने। उसके आने का शोर मचा तो कल ही पार्क की ओर दौड़ा। अभी पेड़-पौधों को निहारना शुरू ही किया था कि एक अध्यापक साथी ने टोका कि भले आदमी गँवार की तरह वसंत को यूँ ढूढ़ते न फिरते। जब इच्छा हो मोबाइल ऑन करो और देखो, जितना देखना हो। यह कहने के साथ उन्होंने अपना मोबाइल मेरे सामने किया। तरह-तरह के नायाब दृश्य सामने थे। रंग-बिरंगे फूल, तितलियाँ, भौरे क्या नहीं था वहाँ। तस्वीर भी और विडियो भी। वहाँ कुछ कवि भी थे जो वसंत आने की ख़ुशी में चुटकुलेनुमा कविताएँ सुना रहे थे। उन कविताओं को सुननेवाले कुछ खुशनुमा लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। मित्र ने बताया कि इनकी तोंद में जो चर्बी है, वह वसंत के महीने में ऐसी कविताओं से हरक़त में आती है और साल भर इनका हाजमा ठीक रहता है जिससे ये पूरे साल देश की हरियाली चरते हैं।
          तो मित्रों! वसंत को अब कहाँ खोजते फिरोगे! खोजने लायक रहोगे तब न खोजोगे! अपने एक मित्र को पिछले साल मैं वसंत दिखाने उद्यान ले गया। मैंने सोचा कि वहाँ वह फूलों के बीच खुश होगा, लेकिन देखता हूँ कि वह मोबाइल ऑन करके जॉब पोर्टल देख रहा है। मैंने पूछा तो बोला कि बेटे ने अब विज्ञापन देखना बंद कर दिया है। उसी के लिए वेकेंसी ढूँढ़ रहा हूँ। अब तुम्हीं कहो कि वह देखूँगा या वसंत? मैंने कुछ न कहा। चुपचाप उसका मुँह देखता रहा। वसंत को देखने का मूड न रहा! मतलब यह कि वसंत भी मूड-मूड की बात है।
कवि  धूमिल ने जब कहा था कि वसंत हमारे बिल भरने का समय है,तभी हम समझ गए थे कि वसंत के साथ कुछ गड़बड़ होने वाला है । इस क्रांतिकारी कवि की क्रांतिकारी घोषणा से अभी जूझ रहा था कि हमारे समय की एक कवयित्री रश्मि रेखा ने घोषणा कर दी : वसंत अब अफवाहों में आता है । अफवाह का ध्यान आया तो फेंकू की याद आई । वही फेंकू जिसके फेंके का कोई जवाब नहीं । लोग फेंकू की फेंकने की कला का आनंद उठाने लगे हैं । मुझ से मेरे मित्रों ने कहा कि क्या सरसों-तीसी-आम आदि को निहारने में हलकान हो रहे हो,फेंकू की फेंकने की कला टी.वी. व्हाट्स-एप्प ,फेसबुक आदि पर देखो !वसंत फीका लगने लगेगा। सो,कुछ दिनों तक फेंकने की कला का  मजा लेता रहा,लेकिन तुरंत बोर होने लगा । बोरियत दूर करने के लिए बाहर  निकलने की तैयारी करने लगा क्योंकिबागों में बहार हैके मैसेज आ रहे थे । अभी निकलने की सोच ही रहा था कि व्हाट्स-एप्प कीटुनकी आवाज आई । देखा तो गुलाब के लाल-लाल फूलों के बीच एक कवितानुमा सन्देश है; “किरन बोली मुझसे,उठकर बाहर देखो ,कितना हसीन नजारा है;मैंने कहा रुक,पहले उसे एस एम एस तो कर लूँ जो इस सुबह से भी प्यारा है।मुझे अचानक अपराध बोध-सा हुआ कि मैंने तो किसी को कोई मैसेज नहीं भेजा । मैं तुरत उसी को ताबड़तोड़ फारवर्ड करने लगा! भूल गया कि बाहरबागों में बहार है ।हुआ करे-बागों में बहार !बहार का मैसेज भेजने और उधर से आए मैसेजिया बहारों को देखने-पढ़ने का जो मजा है,वह बाहर के बागों में आये बहार को निहारने में कहाँ !पिछले साल वसंत के प्रेमी हमारे एक मित्र यूँ ही बागों के बहार में खोये थे कि एक नौजवान ने प्रणाम किया और बोला :अरे भाई देवदास;क्यों भए उदास। मेरे मित्र ने उसे नाराज होकर देखा,लेकिन तुरंत शांत हो गए । भलाई इसी में थी । मित्र के वसंत-प्रेम के कारण उस उद्यान में नौजवान जोड़ों को वसंतोत्सव मनाने में बाधा उपस्थित हो रही थी । वे चुपचाप घर लौट आये और डिजिटल संसार में आये वसंत-बहार का आनंद लेने लगे । उन्हें इतना आनंद आने लगा कि उसी में खो  गए । मुझे भी उस डिजिटल वसंत बहार में आने का आमंत्रण देते रहे । अब तो खैर मेरी चिंता नहीं उन्हें। उन्हीं की तरह अब उस वसंत-लीला में भारी भीड़ शामिल है। मैं भी कब उस लीला में शामिल हो जाऊँगा,कहना मुश्किल है।
वसंत पंचमी की अपनी याद कुछ दूसरी है। तब वेलेंनटाइन डे नहीं आया था । उस दिन घर की औरतें पुए पकवान बनाती थीं और हम जमकर खाते थे। हमारे लिए वसंत वैसे ही आता था । शाम को पुरुष लोग ढोलक-मजीरे बजाते हुए वसंत का स्वागत करते थे -आए वसंत कंत घर नाहिं  … वसंत के आने और कंत के घर में न होने यानी परदेश में होने का द्वन्द्व-तनाव वसंत आगमन के साथ व्याप जाता था। खैर,अब पुए खाकर प्रेम के पीर के गीत गाने का ज़माना नहीं है।वसंत प्रेम के दमामे बजाता हुआ बागों,पार्कों और गाड़ियों में झूम रहा है और डिजिटल दुनिया को भी झुमा रहा है ।
बचपन में एक कविता पढ़ी थी :पिकी पुकारती रही,पुकारते धरा गगन;मगर कहीं रुके नहीं,वसंत के चपल चरण। जब वसंत के चपल चरण कहीं रुकते नहीं ;तो मैं क्यों उसे अपने जमाने में बाँध लेना चाहता हूँ । मैं क्यों पुए और वसंत-गीतों की पुरानी धुनों की महक में वसंत के आने की राह देख रहा हूँ । जमाने को न उन पकवानों में रूचि है और न उन पुरानी धुनों में जिनमें लोक जीवन धड़कता था । इस ज़माने के पकवान और धुनों को समझने के लिए ही तो हमारे मित्र आभासी दुनिया के आभासी वसंतोत्सव में शामिल हो गए हैं और शामिल होने के लिए मुझे भी ललकार रहे हैं । और मैं हूँ कि बागों के बहार और डिजिटल दुनिया में आये बहार के बीच झूल रहा हूँ !
लेकिन झूलना ठीक नहीं । वसंत के स्वागत का पुराना तरीका हो या नया-मैं यह क्यों भूल रहा हूँ कि वसंतोत्सव से वर्जनाएं तब भी टूटती थी;अब भी टूटती हैं । वसंत आगमन के साथ तब बूढ़े भी जवान हो जाया करते थे -भर फागुन बुढ़उ देवर लागें’, यह कहावत यूँ थोड़े लोकप्रिय थी। नया देवर नहीं;तो पुराना देवर ही सही । भाभी के लिए वसंत  देवर को छेड़ने के रूप में  आता था और देवर भाभियों के बहाने होली गीत गा कर अपनी सारी कुंठाए निकाल लिया करते थे । लोग जोगीरा तब भी गाते थे अब भी गाते हैं। फर्क इतना ही है कि तब जिनको सुनाना होता था,उनके दरवाजे जाकर सुनाते थे और वे दरवाजे खुले भी रहते थें ,अब फेसबुक,व्हाट्स-एप्प के जरिये सुनाते हैं |  इसलिए हे मन ! पुराना ज़माना लौटने से रहा !
नए जमाने के साथ चलो और व्हाट्स-एप्प के जरिए नए जमाने का नया जोगीरा मित्रों को भेज दो ,जो तुम्हें भी आभासी दुनिया से मिला है :
उत्तर पट्टी बिल्ली पाले,दक्खिन पाले मूस ,
देश भक्ति के ठेकेवाले पाल रहे जासूस
जोगीरा सा रा रा रा     

Sunday 11 June 2017

प्रगतिवाद और मुक्तिबोध

मुक्तिबोध  कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे या नहीं,यह तो नहीं मालूम,लेकिन उनका साहित्य और उन पर लिखे गए अधिकांश साहित्य को पढ़ने से पता चलता है कि मार्क्सवादी दर्शन में उनकी गहरी आस्था थी |वे शोषण युक्त व्यवस्था को समाप्त कर शोषण मुक्त समाज  व्यवस्था कायम करना चाहते थे|वे मानते थे कि यह पूंजीवादी समाज,जो जनता के शोषण पर कायम है,चल नहीं सकता,उसे बदलना ही होगा|बदलाव के लिए क्रांति जरूरी है|उनका विश्वास था कि शोषण की चक्की में पिसता हुआ सामान्य जन जगेगा और एक दिन अवश्य ही जनक्रांति होगी |उनकी प्रसिद्द कविता ‘अँधेरे में’ को जिन्होंने पढ़ा है,वे जानते हैं कि जनक्रांति का स्वप्न कैसे वहाँ सगुण-साकार होता हुआ दिखाई देता है|चूँकि ‘पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता’ इसलिए उसे बदलने के लिए ‘जन-क्रांति’ जरूरी है | ‘अँधेरे में’ कविता में मार्शल लॉ का  चित्रण है- वह  ‘किसी जन-क्रांति के दमन के  निमित्त’ है|उस कविता में प्रोसेशन का जो दृश्य है,उसमें कई ‘प्रतिष्ठित पत्रकार’ तो शामिल हैं ही, ‘कई प्रकांड आलोचक,विचारक,जगमगाते कवि गण’ भी हैं |साथ ही उस प्रोसेशन में मंत्री,उद्योगपति,विद्वान भी हैं|यहाँ तक कि ‘शहर का कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद’ भी शामिल है उसमें |मुक्तिबोध मानते हैं कि यह सब ‘जन-क्रांति’ के दमन के लिए लगाए गए मार्शल लॉ को लागू कराने के अभियान में लगे हुए  लोग हैं|उसी कविता में इस तरह के मार्शल लॉ का प्रतिकार करनेवाले ‘सांवले मुख के कुछ बलवान जन हैं’ जो ‘आत्मा के चक्के परसंकल्प शक्ति के लोहे का मजबूत ज्वलंत टायर’ चढ़ा रहे हैं |
मार्क्सवादी दर्शन में आस्था रखने वाले और ‘जनक्रांति’ का स्वप्न देखने वाले मुक्तिबोध की प्रगतिवाद के बारे में क्या धारणा थी,जानना जरुरी है|यह इसलिए जरुरी है कि रामविलास शर्मा मुक्तिबोध पर अस्तित्ववाद का प्रभाव मानते हैं|मुक्तिबोध,डॉ शर्मा के अनुसार,सिजोफ्रेनिक हैं और उनका व्यक्तित्व विभाजित है,वे कभी स्वप्न में जीतें हैं और कभी यथार्थ में|ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता के सम्बन्ध में मुक्तिबोध का चिंतन कैसा है |वे नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल आदि की तरह प्रगतिवादी कवि नहीं हैं|प्रगतिवाद की जैसी  सरल और भास्वर रेखाएं इन कवियों की कविताओं में दिखती है,वैसी रेखाएं मुक्तिबोध के यहाँ नहीं हैं |वे अंततः नई कविता के कवि-विचारक हैं|वे उस ‘तारसप्तक’ के कवि हैं जो अज्ञेय जैसे ‘प्रगतिवाद’ विरोधी करार दिए गये कवि के संपादन में निकला|वे श्रीकांत वर्मा,अशोक वाजपेयी जैसे युवतर कवियों के सघन संपर्क में थे|श्रीकांत और अशोक प्रगतिवादी साहित्यिक धारणा के प्रभाव में कभी नहीं रहे लेकिन मुक्तिबोध उनके लिए हमेशा महत्त्वपूर्ण बने रहे |मुक्तिबोध ने निराला पर नहीं लिखा|निराला. जो प्रगतिशील खेमे के लिए,रामविलास शर्मा के प्रयत्न से,आधुनिक कविता के शिखर कवि हो गए|आगे चलकर जनवादी खेमे में निराला के बाद और उनके साथ मुक्तिबोध का नाम आग्रहपूर्वक लिया जाने लगा,जबकि  मुक्तिबोध ने प्रसाद पर लिखा और ‘कामायनी’ में उठने वाली समस्याओं से जूझते रहे|निष्कर्ष यह कि मुक्तिबोध की प्रगतिवादी राह वैसी नहीं है जैसी नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल या रामविलास शर्मा की है|कामरेड डांगे के नाम उनका जो पत्र है,उससे भी पता चलता है कि प्रगतिवाद की जैसी समझ हिंदी में विकसित हो रही थी,उससे मुक्तिबोध स्पष्ट मतभेद रखते थे |तब प्रगतिवाद या प्रगतिशीलता की उनकी अपनी समझ या धारणा क्या थी,इसे जानने के लिए सबसे अच्छे आधार उनकी वे टिप्पणियाँ हैं जो उन्होंने प्रगतिवाद के नाम पर लिखीं |
 मुक्तिबोध की प्रगतिवाद से सम्बंधित जो  टिप्पणियाँ और साहित्य-चिंतन से सम्बंधित जो निबंध है,उन्हें देखने से स्पष्ट होता है कि वे अपने अध्ययन-अनुभव को अधिक महत्त्व देते हैं,दूसरों के उद्धरणों के सहारे अपनी प्रगतिवादी समझ की दुनिया वे नहीं नहीं निर्मित करते|इसलिए उनके यहाँ ‘लाल सुबह’,’लाल सितारा’, ‘लाल पताका’ आदि प्रगतिवाद समर्थक प्रतीक नहीं दिखाई पड़ते|मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘प्रगतिवाद साहित्य-कला की अत्याधुनिक धारणा है|’यह क्यों ‘अत्याधुनिक धारणा’ है ?इसलिए कि अब तक की कला और साहित्य में ‘सामाजिक तत्व का आभाव’ है |इस सामाजिक तत्व के आभाव के कारण साहित्य और विश्व का विकास ठीक से नहीं हो सका|वे लिखते हैं : ‘मानवता के सब उच्च संस्कृति की ओर किये गये प्रयत्नों में  का मुख्य दोष सामाजिक तत्वों की अपेक्षाकृत उपेक्षा रही है,जिसके कारण विश्व-प्रगति  उतनी नहीं हो सकी जितनी कि होनी चाहिए,कला उतनी नहीं बढ़ सकी जितना कि बढ़ना चाहिए थी,विचार उतने ऊँचे और व्यापक नहीं हो सके जितने कि होने चाहिए थे |प्रगतिवाद उस मुख्य कारण को चीन्ह लेता है और कहता है कि जब तक सामजिक न्याय नहीं होगा तब तक व्यक्ति के चिंतन में हमेशा दोष उत्पन्न होते रहेंगे| (‘प्रगतिवाद :एक दृष्टि’ शीर्षक निबंध,मु. रचनावली,खंड-५ ,पृष्ठ. २८ )
 समाज वर्गों में विभाजित है |वर्गों में विभाजित समाज में जो कला विकसित हुईं वह शासक वर्ग की ‘इच्छाओं और आकांक्षाओं’ का प्रतिबिम्ब हैं|चूँकि वह समाज शोषण के बल पर टिका हुआ है,शोषक और शोषित का फर्क है,दोनों के मध्य जो विभाजक रेखा रही है उसने कलाकारों को दलित वर्ग की ओर देखने नहीं दिया|इसलिए पुरानी कला-रचनाएं मानवतापूर्ण होने के बावजूद सम्पूर्ण मानवजाति की इच्छाओं की प्रतिबिम्ब न बन सकीं|इस कारण कला-साहित्य की दुनिया में व्यक्तिवादी प्रवृतियाँ पैदा हुयीं |अब प्रगतिवाद पुरानी कला-रूचि को मिटाकर उसकी जगह उस कला-रूचि का विकास करना चाहता है,जिसमें सामाजिकता पर जोर अधिक हो,वह युग की आवश्यकताओं को लेकर चलना सीखे|युग की आवश्यकताओं को लेकर चलने का मतलब कला की  उपेक्षा नहीं है |मुक्तिबोध लिखते हैं : ‘प्रगतिवाद कला-मार्ग बनना चाहता है|कला-शरीर की नसों में नया रक्त और नवस्फूर्ति का संसार जनता के अथाह ह्रदय के संपर्क में आने से ही होगा|उससे अछूता रखने पर वह मर जाएगा |अतएव प्रत्येक सृजक कलाकार को जनता से चैतन्यमय सहानुभूति प्राप्त कर तेज प्राप्त करना होगा |कला या ईश्वर प्राप्त करने के लिए मंदिरों या पुरानी श्रद्धेयताओं  की ओरनहीं  जाना होगा,बल्कि उस सैनिक तत्व,उस संग्रामशील धैर्य के अथाह  आंतरिक तेज और संतुलन के पास पहुंचना होगा |उसका ईश्वर सैनिक रूप में आ रहा है |विकराल मूर्तिभंजक के रूप में प्रगट हो रहा है |”(वही पृष्ठ-२९)
 प्रगतिवाद का ईश्वर सैनिक रूप में आ रहा है और वह विकराल मूर्तिभंजक होगा!क्या जबर्दस्त रूपक है !कोई इसका पाठ करते हुए मध्यकाल के मूर्तिभंजक आक्रान्ता सैनिकों तक जा सकता है लेकिन मुक्तिबोध तो प्रगतिवाद के उस स्वप्न की बात कर रहे हैं जो ‘वर्गहीन’ और ‘भेदहीन’ समाज का स्वप्न है |मुक्तिबोध मनुष्य के मनोभावों को उसकी वैयक्तिक निधि मानते हैं |इससे ऊपर उठकर कल्पना के मनुष्य की जगह यथार्थ के मनुष्य,जो अधिक मूर्त है,की वकालत करते हैं|उनके अनुसार –“प्रगतिवाद का मानव कल्पना युग के (ऐब्सट्रैक्शन) पर आधारित नहीं है |वह मनुष्य को अधिक मूर्त रूप में ग्रहण कर रहा है |इसलिए उसमें रोमांस,प्रेम,संघर्ष,कल्पना सभी का महत्त्वपूर्ण स्थान है,क्योंकि प्रगतिवाद मानव के यथार्थ पर टिका हुआ है,इसलिए कला-व्यवस्था में उसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है |” (वही-पृष्ठ -३०)लेकिन मुक्तिबोध यहीं नहीं रुकते |वे जानते हैं की कार्य-कारण सम्बन्ध पर अधिक जोर देना यथार्थ चित्रण नहीं है|इसलिए वे विकासवाद का समर्थन तो करते हैं,पर उसमें कार्य-कारणवाद की जो यांत्रिकता है,उसका विरोध भी करते हैं |उनके अनुसार प्रगतिवाद ‘जीवन को अधिक मूर्त रूप में ग्रहण’ करने का आग्रही है,इसलिए ‘जीवन की दृष्टि से प्रगतिवाद आज तक की सबसे ऊँची मंजिल है...|”
 मुक्तिबोध साहित्य को राजनीति से अलग स्वायत्त संसार मानने के हिमायती नहीं है|वे मानते हैं की साहित्य को ‘वर्गहीन समाज-सत्ता का पुजारी’ होना चाहिए |इसलिए उनके अनुसार ‘राजनैतिक दृष्टि से प्रगतिवाद प्रसार का हिमायती  है|’प्रसार के द्वारा एक देश के दलित दूसरे देश के दलित के सम्पर्क में आयेंगे और वर्गहीन समाज-सत्ता के निर्माण के लिए क्रांति के वाहक बनेंगे |प्रगतिवाद कलाकारों से अपेक्षा रखता है कि ‘तुम अधिक से अधिक जन-ह्रदय के संपर्क में आओ और क्रांति को आगमनशील बनाओ|”क्रांति को आगमनशील बनाने की जरूरत पर जोर देने के साथ मुक्तिबोध कलाकार से उस द्वंद्व की अपेक्षा रखते हैं जो उसे सरलीकरण से बचाती है और यथार्थ को भीतर-बाहर दोनों ओर से देखने का आधार बनती है|वे कहते हैं : “प्रगतिवादी एक निश्चित दार्शनिक ऐटीट्यूड उत्पन्न करता है ,जो न ‘स्व’ से अधिक ‘बाह्य’को ,और न बाह्य’ से अधिक ‘स्व’ को महत्त्व देता है |वह कहता है कि इन दोनों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया से विकास होता है |’(वही)
  बहुत-से कवि अपने मनोभावों को ही अपनी कविता का विषय बनाते हैं,उन कविताओं में ऊपरी तौर पर उस सामाजिकता का अभाव दीखता है जिसकी अपेक्षा प्रायः प्रगतिवादी लोग करते हैं|समाज के बीच स्वाभाविक रूप से विकसित किसी व्यक्ति के मनोभाव को मुक्तिबोध जनविरोधी नहीं मानते |उनके अनुसार ‘जन-मन की सर्व-साधारण मनःस्थिति व्यक्ति की मनोदशाओं द्वारा प्रगट’ होती है |ऐसे ‘मनोभाव तो उत्पीडित वर्गों की साधारण मनःस्थिति के ही द्योतक हैं |” ऐसे मनोभावों से सृजित साहित्य में महान ‘मनुष्य सत्य’ होता है |लेकिन कई प्रगतिशील आलोचक /लेखक मनोभावों के आधार पर लिखे गए साहित्य की आलोचना करते हैं और उसे प्रगतिशील रचना नहीं मानते |ऐसे प्रगतिशीलों की मुक्तिबोध ने कड़ी आलोचना की है और अपनी एक टिप्पणी “प्रगतिशीलता’ और मानव सत्य” में उन्होंने लिखा है कि ये लोग हैं “...जो मात्र क्रांतिकारी शब्दों का शोर खडा करने वालों के हिमायती के रूप में अपने सिद्धांतों की यांत्रिक चौखट तैयार रखते हैं-जो उसमें फिट हो जाए वह प्रगतिशील,और जो उसमें कसा न जा सके वह प्रगति-विरोधी |यह उनका प्रत्यक्ष,परोक्ष,प्रस्तुत और अप्रस्तुत ,मुखर और गोपनीय निर्णय होता है |ये लोग उत्पीडित मध्यवर्ग के जीवन के तत्वों से दूर अलग-अलग होते हैं|भले ही ये लोग शाब्दिक रूप से गरीबों के कितने ही हिमायती क्यों न हो,इनका व्यक्तित्व स्वयं आत्मबद्ध,अहंग्रस्त महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार और राग-द्वेष की प्रवृतियों से निपीडित होता है|बोधहीन बौद्धिकता का शिकार,यह वर्ग जिस संवेदनमय कविता की आलोचना करता है,उसकी संवेदनाओं की मूल आधार-भूमि को वह हृदयंगम नहीं कर सकता|”(रचनावली,खंड-५ ,पृष्ठ -७९)ऐसे ‘बोधहीन बौद्धिकों’ के  प्रगतिशील समाज को मुक्तिबोध प्रश्नांकित करते हैं और ‘राजनैतिक शब्दोंवाली परिभाषाओं की कविता’ को कविता मानने की प्रगतिवादी जिद की भर्त्सना करते हैं |ऐसे प्रगतिवादियों को वे ‘अहंवादी’ और ‘आस्थाहीन’ कहते हैं |प्रगतिशील कविता एक तरह की नहीं कई तरह की हो सकती है |प्रगतिशीलता के अनेक आयाम और रूप हैं |इसकी अनदेखी करके सीधी-सरल और सपाट लगनेवाली प्रगतिशील कविताओं को ही ‘प्रगतिवादी’ ढांचे में फिट करने वाले आलोचकों –बौद्धिकों पर प्रहार करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं : ‘...हमारे ये साहित्यिक नेता ह्रदय और बुद्धि के क्षेत्र में कठोर अहंवादी हैं,कष्ट्ग्रस्त मनुष्य जीवन के मर्मग्य होने के पहले वे आलोचक और मसीहा हैं |मनुष्य जीवन के भव्य संवेदना-सत्यों के प्रति उनमें आवश्यक नम्रता भी नहीं है |न इतनी आस्था है कि वे ये माने कि युग-सत्य विभिन्न रूपों और विविध आलोकों में विविध विचारों और भावनाओं में वलयित होकर आज की कष्टग्रस्त मानवता के ह्रदय में अधिष्ठित है |इस आस्थाहीनता के  कारण  ही,उनके द्वारा समर्थित कविता में सम्पूर्ण मनुष्य की गौरवपूर्ण नीतिमत्ता,सर्वांगीण मानवीय पक्षों का भव्य दृश्य,सुकुमार भावनाओं की मनुष्योंचित गरिमा दिखाई नहीं देती,वरन पिटी-पिटायी क्रांतिकारिता का सभामंची आत्म-प्रदर्शन दिखाई देता है|”(वही पृष्ठ -८०)
मुक्तिबोध प्रगतिवाद के समर्थक हैं,लेकिन प्रगतिशीलता की यांत्रिक समझ के विरुद्ध भी हैं|जनता में जन-भावना में,उसकी मुक्ति में, मुक्ति के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में उनकी गहरी आस्था है |लेकिन प्रगतिवादी कवियों-आलोचकों की जो समझ बीसवीं सदी के चौथे-पांचवे दशक में थी,उससे वे प्रायः असहमत हैं|यही कारण है कि वे मानते हैं कि प्रगतिशील कविता का उतना विकास नहीं हो सका,जितना कि होना चाहिए|इसलिए मार्क्सवादी होने के बावजूद वे प्रगतिशील कवि कहलाने की आकांक्षा नहीं रखते|उनका सारा संघर्ष ‘नयी कविता’ को प्रगतिशील चेहरा देने का,साथ ही नयी कविता का कवि कहलाने का है |वे अपने आप को प्रगतिशील कवि नहीं ‘आधुनिकतावादी’ कवि मानते हैं | ‘दिग्विजय कॉलेज” राजनांद गाँव, के प्राचार्य को लेक्चरर  पद के लिए लिखे गये आवेदन में अपने साहित्यिक रुझान का परिचय देते हुए वे लिखते हैं : “मैं हिंदी कविता के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में प्रभावी आधुनिकातिवादी रुझान का अगुआ रहा हूँ |इस रुझान का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रथम ग्रन्थ ‘तारसप्तक’ में मेरी सोलह कवितायें शामिल हैं |”(छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध’,सं-राजेंद्र मिश्र,पृष्ठ-२९१ ) यहाँ यह स्पष्ट है कि मुक्तिबोध अपने को ‘तारसप्तक’ की परम्परा से जोड़कर देखते हैं |उनकी दृष्टि में ‘१९४३ में प्रकाशित यह ग्रन्थ समग्र हिंदी कविता को पूरी तरह नयी दिशा प्रदान करने में निर्णायक है |’ (वही)
  मार्क्सवादी मुक्तिबोध अपने को ‘आधुनिकतावादी’ कवि क्यों कहते हैं ?हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना में ‘आधुनिकतावाद” को पतनशील साहित्यिक प्रवृति माना गया है और आधुनिकतावाद के लक्षण अज्ञेय और उनके समर्थक कवियों की कविताओं में देखे गए हैं |मुझे लगता है कि मुक्तिबोध इस अर्थ में अपने को आधुनिकतावादी कवी नहीं कहते |आधुनिकतावाद का आशय यहाँ प्रगतिवाद से भिन्न उस नए साहित्यिक रुझान से है जो जटिल यथार्थ को समझने में ज्यादा सक्षम है|उनका सारा संघर्ष इस नए रुझान को प्रतिष्ठित करने है |वे स्वयं मानते हैं : ‘इस नयी साहित्यिक प्रवृति के संरक्षण की जरुरत ने मुझे समालोचना के क्षेत्र में ला खडा किया |’(वही )
    प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता से सम्बंधित मुक्तिबोध की टिप्पणियों से स्पष्ट है कि वे पुरानी साहित्यिक रुढियों और चेतना के विरुद्ध हैं ,वे नए साहित्य और समाज के निर्माण का स्वप्न देखते हैं |वे प्रगतिशीलता को एकरेखीय और सरलीकृत अवधारणा मानने के खिलाफ हैं और यथार्थ को जटिल तथा बहुस्तरीय मानते हैं |इसलिए वे बिना नाम लिए उन प्रगतिशील लोगों की आलोचना करते हैं जो प्रगतिशीलता को कुछ राजनीतिक सिद्धांतों तक सीमित कर देना चाहते हैं|इसके लिए वे दोतरफा संघर्ष करते हैं |नयी काव्य प्रवृति- जिसे आगे चलकर नयी कविता कहा गया- को प्रतिष्ठित करने का संघर्ष  तो वे करते ही हैं ; प्रगतिशील  आन्दोलन के भीतर जो यांत्रिक समझ विकसित हो गयी थी,उससे भी कडा संघर्ष करते हैं |इसलिए उनका संघर्ष भीतर-बाहर दोनों स्तरों पर है|उनके संघर्ष का तीसरा धरातल भी है |वह है प्रगतिशीलता के विरोधियों का ‘व्यक्ति-स्वातन्त्र्य’| ‘अंतर्मुखता’ और ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की चर्चा एक जमाने में प्रगतिवाद के विरोधी कवी लेखक करते थे |मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘कष्टग्रस्त जीवन’ के कारण कवि में ‘अंतर्मुखता’ विकसित होती है |मुक्तिबोध के अनुसार प्रगतिशीलता के विरोधी ‘अंतर्मुखता’ के मूल उद्वेगों के क्रांतिकारी अभिप्रायों को दबाकर ,उस अंतर्मुखता को इस प्रकार से प्रोत्साहन देते हैं कि वह अंतर्मुखता अपने प्रधान विद्रोहों से छूटकर अलग हट जाए |अंतर्मुखता में ‘व्यक्ति’ को ही प्रधान मानकर उस व्यक्ति को सामाजिक परिवर्तन के आग्रही शक्तियों से अलग हटाते हुए,वे ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की घोषणा करते हैं |”(रचनावली ,खंड-५ ,पृष्ठ-८० )

   प्रश्न है कि मार्क्सवाद और प्रगतिवाद को व्यापक-जनपक्षधर विचार-प्रवृति मानने वाले मुक्तिबोध प्रगतिशील कविता को नए यथार्थ के चित्रण के लिए क्यों अपर्याप्त मानते हैं ?और नयी कविता इस दायित्व के निर्वहन के लिए ज्यादा उपयुक्त क्यों?नागर्जुन,केदारनाथ अग्रवाल की कविता में क्या वह द्वंद्व और तनाव नहीं है जिसे मुक्तिबोध नए यथार्थ चित्रण के लिए जरुरी मानते हैं?प्रगतिशीलता सम्बन्धी मुक्तिबोध की और नागर्जुन-केदार की धारणाओं में जो फर्क है,वह वस्तुतः गाँव और किसान-मजदूर के नजरिये से समाज को देखने के आग्रह का परिणाम है|मुक्तिबोध के यहाँ प्रगतिशीलता का जो आग्रह है वह मार्क्सवाद के प्रभाव से निर्मित्त शिक्षित शहरी मध्यवर्गीय व्यक्ति का है|भारत जैसे विशाल देश में जीवन और जीवन-यथार्थ का जो वैविध्य  है,उसे कई  स्तरों पर देखे जाने की जरुरत क्या नहीं है? मुक्तिबोध जिस शिक्षित मध्यमवर्ग से आते हैं,उस नजरिये से प्रगतिवाद और प्रगतिशील आन्दोलन का किया गया उनका मूल्याङ्कन क्या निर्विवाद है ?जिस ‘तारसप्तक’ को वे ‘समग्र हिंदी कविता को पूरी तरह नयी दिशा प्रदान करने वाला निर्याणक’ ग्रन्थ मानते हैं,उसी  ‘तारसप्तक’ के कवि अज्ञेय उन्हें ‘आत्मान्वेषण’ का कवि घोषित करते हुए जो कहते हैं ,वह मुक्तिबोध के कवि-मन  और उनके समाज बोध का परिचय देता है : “मुक्तिबोध आत्मान्वेषण के कवि थे,पर यह एक आत्मान्वेषण ,अपनी किसी विशिष्टता की खोज नहीं थी,यह अपने उस रूप की खोज थी जो कवि को पूरे समाज से,मानव मात्र से, मिला दे|कोई सोच सकता है कि कवि को आत्मान्वेषी कहना उसकी अवमानना करना है ,पर मैं इसे कठिनतर यात्रा समझता हूँ ,और कवि मुक्तिबोध का विशेष सम्मान इसलिए करता हूँ कि वह आजीवन इस कृच्छ साधना में लगे रहे,अपने भीतर पैठना पर पैठ कर उसे बाहर लाना जो अपना नहीं,सबका है|यह किसी के लिए भी कठिन कार्य है,मुक्तिबोध की परस्थितियों में और भी कठिन था,पर वह निष्ठापूर्वक उसमें लगे रहे|”(आत्मान्वेषण का कवि ,तिमिर में झरता समय ,सं-राजेंद्र मिश्र ,पृष्ठ -९ )