Sunday 25 June 2017

‘साहित्य का अनुवाद नहीं है सिनेमा’

साहित्य और सिनेमा अभिव्यक्ति के दो माध्यम हैं. प्रभाव की दृष्टि से कौन अधिक ताकतवर और दीर्घजीवी है यह बताना बहुत मुश्किल नहीं है. साहित्य अभिव्यक्ति का आदिम माध्यम है जबकि सिनेमा तकनीक आधारित बिलकुल नया. साहित्य को सिनेमा की जरुरत है या नहीं,  कहना मुश्किल है लेकिन सिनेमा का काम साहित्य के बिना नहीं चल सकता.
          हिंदी लेखकों में सिनेमा को लेकर कभी सम्मान भाव नहीं रहा. उनके लिए सिनेमा की दुनिया हमेशा बदनाम गली की तरह रही है. वहां जाने का अर्थ साहित्य के ऊँचे और पवित्र आसन से नीचे उतरना माना जाता रहा है. साहित्य का उद्देश्य व्यवसाय नहीं है लेकिन सिनेमा का काम बिना व्यवसाय के चल नहीं सकता. इसलिए यह भी माना जाता है और कुछ हद तक ठीक माना जाता है कि सिनेमा में साहित्य को व्यवसायिक समझौता करना ही पड़ेगा. इसी के साथ हिंदी समाज की सिनेमा के प्रति मानसिकता को भी ध्यान में रखना जरुरी है. हिंदी समाज में नाच-नौटंकी और नृत्य-संगीत के लिए सम्मान भाव कभी नहीं रहा. नाचने और गाने वाले कलाकारों को समाज में ‘नचनिया’ और ‘गवैया’ कहकर हिकारत भाव से देखा जाता रहा है. खैर, ग्लैमर और पैसा जुड़ जाने के कारण सिनेमा के प्रति समाज का रवैया बदला है. लेकिन साहित्यकारों का सिनेमा के प्रति जो रवैया पहले था, उसमें कोई ख़ास फर्क नहीं आया है. एक माध्यम के रूप में सिनेमा की प्रतिष्ठा पूरी दुनिया समेत हिंदी में भी बढ़ी है, लेकिन साहित्यकारों में अपने माध्यम को लेकर जो श्रेष्ठता और पवित्रताबोध पहले था, वह कमोबेश अब भी बरकरार है. हर कथाकार यह तो चाहता है कि उसकी कहानी पर फिल्म बने, कवि की इच्छा रहती है कि उसकी कविता सिनेमा में गाई जाकर जन-जन तक पहुंचे, ऐसा होता है तो वह अपने परिचय में सगर्व उसका उल्लेख भी करता है, लेकिन सीधे तौर पर उससे जुड़ने में उसे परहेज अब भी है. कुल मिलाकर हिंदी समाज और साहित्य का रवैया गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज वाली कहावत की तरह है. इसलिए पहले यदि प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, गोपाल सिंह नेपाली आदि कथाकार-कवि सिनेमा में गए और फिर साहित्य की दुनिया में वापस लौट आए तो आज भी किसी कवि-लेखक में सिनेमा में जाने का उत्साहजनक उदहारण न के बराबर ही मिलता है. जावेद अख्तर, गुलजार, प्रसून जोशी आदि को स्टार की हैसियत तो प्राप्त है, लेकिन उनकी जगह साहित्य के ऊँचे और पवित्र आसन पर तो हरगिज नहीं है. इन सबका कारण क्या है? क्या साहित्य और सिनेमा का कोई सहज संवादधर्मी संबंध संभव नहीं? या इसमें मुख्य बाधा वह ‘व्यवसायिकता’ है जिसके बिना सिनेमा की दुनिया भले कायम न रह सके साहित्य के लिए उसमें फंसना अपने को नष्ट करना है?
          सिनेमा में गीत का आत्यंतिक महत्त्व न भी माना जाए तब भी एक कहानी की दरकार तो होती ही है. वह चाहे साहित्यिक हो या फिल्म को ही ध्यान में रखकर लिखी गई मसालेदार कहानी. कहानी के साथ संवाद, पटकथा, गीत-संगीत, अभिनय, निर्देशन, छायांकन आदि कला-रूपों के कुशल संयोजन का नाम सिनेमा है, जिसमें बड़ी टीम, बड़ी पूंजी और नए से नए तकनीकी ज्ञान की जरुरत है. सिनेमा निर्माण एक सामूहिक काम है. एक फिल्म के असफल होने का मतलब है बड़ी पूंजी का डूब जाना. साहित्य-सृजन का काम इससे भिन्न है. लेखक में प्रतिभा और जीवन-दृष्टि के साथ मेहनत करने की क्षमता है तो वह साहित्य-सृजन कर सकता है. कोई साहित्यिक कृति असफल होती है तो एक लेखक असफल होता है. लेखक सृजन के लिए जोखिम उठाता है तो उसके नफे-नुकसान का जिम्मेदार वह खुद होता है, लेकिन फिल्म निर्माण में कोई जोखिम उठाने के पहले सौ बार क्या, हजार बार सोचना पड़ता है. फिर भी कुछ ऐसे फ़िल्मकार हैं जो जोखिम उठाते रहते हैं. ऐसे लोगों में कुछ सफल भी हुए हैं और कुछ बर्बाद भी.
          हिंदी सिनेमा और साहित्य का संबंध दो तरह से है. कुछ लेखक फिल्मों के लिए गीत-कहानी लिखने गए और फिल्मकारों की शर्त पर लिखते रहे और वहीं के होकर रह गए. मसलन नरेंद्र शर्मा, शैलेन्द्र, साहिर, प्रदीप, राही मासूम रजा आदि. सिनेमा में जाकर इनका साहित्य सृजन कितना प्रभावित हुआ, यह तो मूल्यांकनकर्ता बताएंगे, लेकिन इतना तय है कि इनके जरा से स्पर्श से सिनेमा सुन्दर जरुर हुआ. कुछ लेखकों की कहानी को फिल्मकारों ने चुना और लेखक को भागीदार बनाकर फिल्म-निर्माण हुआ. फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ पर इसी नाम पर शैलेन्द्र ने फिल्म बनाई, जिसकी पटकथा और संवाद खुद रेणु ने लिखे. फिल्म में एक खलनायकनुमा चरित्र ठाकुर विक्रम सिंह को जोड़ा गया जो फ़िल्मी सफलता के लिए जरुरी माना गया. रेणु को इसके लिए तैयार होना पड़ा. लेकिन अंत बदलने की जब बात रेणु के सामने आई तो वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. उन्होंने कहा कि लेखक के रूप में फिल्म से मेरा नाम हटा दिया जाए. फिल्म के अंत में हीरामन और हीराबाई का मिलन कराकर फिल्म की व्यवसायिक सफलता के लिए कहानी में परिवर्तन का प्रस्ताव था. रेणु की जिद के कारण निर्माता शैलेन्द्र जो स्वयं गीतकार थे, मान तो गए लेकिन फिल्म असफल हुई. कर्ज के बोझ तले दबकर उसकी इहलीला समाप्त हो गई. साहित्य की कसौटी पर किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने की कीमत शैलेन्द्र को अपनी जान गंवाकर देनी पड़ी.
          कमलेश्वर और राही मासूम रजा दोनों कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद फिल्मों में गए. ‘आंधी’ और ‘मौसम’ जैसी फ़िल्में कमलेश्वर के उपन्यासों पर बनीं जो याद की जाएंगी, लेकिन उनकी लिखी कोई फिल्म याद करने लायक नहीं याद आती. ‘राम बलराम’ या ‘ललकार’ जैसी व्यवसायिक दृष्टि से सफल उनकी लिखी फिल्में याद की जाएंगी क्या? ‘आधा गाँव’ के मसहूर लेखक राही मासूम रजा कोई ऐसी फिल्म नहीं लिख सके जो उनकी ऐतिहासिक देन मानी जाए! ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की’ व्यवसायिक दृष्टि से ही सफल थी, अन्य दृष्टि से नहीं. उनकी सबसे बड़ी देन ‘महाभारत’ धारावाहिक का संवाद और उसकी पटकथा ही मानी जाएगी.
          शरतचंद के ‘देवदास’ पर बहुतेरी फिल्में बनीं. विमल राय और संजयलीला भंसाली के ही ‘देवदास’ को लें. व्यवसायिक सफलता दोनों को मिली, लेकिन फिल्म में शरतचंद कितने थे और उसके निर्माता-निर्देशक कितने यह हम आप जानते हैं. ‘शतरंज के खिलाडी’ का अंत सत्यजीत राय ने भी बदला था. बहुत रचनात्मक अंत था. प्रेमचंद के अंत से अधिक अर्थगर्भित, लेकिन फिल्म व्यवसायिक दृष्टि से सफल नहीं हो सकी. ‘गोदान’, ‘चित्रलेखा’ से लेकर अनेक उपन्यासों-कहानियों पर फिल्में बनी हैं, जिसमें से अधिकतर असफल हुई हैं. व्यवसायिक दृष्टि से भी और कला की दृष्टि से भी. कला की दृष्टि से जो ठीक थीं भी वे व्यवसाय की दृष्टि से पिट गईं.
          सिनेमा जब शुरू हुआ तो कहानी के लिए उसने साहित्य का सहारा लिया. दुनिया की सभी भाषाओं में शुरू के दौर में साहित्यिक कृतियों को आधार बानकर फिल्में बनीं, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों के लिए ही कहानी लिखी जाने लगी. ‘शोले’ जैसी पटकथा या कथा अब लिखी ही जाती हैं सिनेमा को ध्यान में रखकर. उसमें कहानी से अधिक दृश्य, एक्शन, संवाद आदि पर जोर रहता है. लेकिन इसी के साथ ‘पिपली लाइव’, ‘चक दे इंडिया’ आदि फिल्में भी आती हैं जो अपनी यथार्थपरक कहानी के लिए ज्यादा याद की जाती हैं.
          इधर के वर्षों में तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, क्रोमा आदि की प्रमुखता ज्यादा हो गई है जिसमें रियलाइजेशन से अधिक विजुआलाइजेशन पर जोर अधिक होता है. उसमें यथार्थ या फैंटेसी को इतने भव्य ढंग से दिखाने का चलन है कि कहानी के सहारे धीरे-धीरे चलनेवाले स्लो सिनेमा का दौर लगता है कि गुजरे जमाने की चीज है. फिल्मों में आए इस बदलाव ने दर्शकों की रूचि पर जबर्दस्त प्रभाव डाला है. अब दिलीप कुमार-सुचित्रा सेन अभिनीत ‘देवदास’ की जगह शाहरुख़ खान और ऐश्वर्या राय अभिनीत ‘देवदास’ को पसंद करने वाली पीढ़ी आ चुकी है. क्लासिक की तरह हमारे मन-मिजाज में जगह बना चुकी देवदास-पारो की कथा का जो भंसाली संस्करण है वह नई पीढ़ी को अधिक पसंद है, लेकिन उसमें शरतचंद के ‘देवदास’ से बड़ा ‘डेविएशन’ है. कुँवर नारायण का कहना है कि सिनेमा साहित्य का अनुवाद नहीं होता, किन्तु किसी क्लासिक के साथ इस तरह का वर्ताव जो उसे क्लासिक ही न रहने दे, उचित नहीं.
          साहित्य और सिनेमा पर बात करते हुए गुलजार ने एक बार कहा था कि सिनेमा की तुलना में साहित्य का प्रभाव ज्यादा गहरा और स्थायी होता है, एक फिल्म के जरिए हम पर जो प्रभाव पड़ता है वह कई कलाओं का होता है. इसलिए साहित्य और फिल्म के प्रभाव में फर्क होता है. यूँ ‘टाइटेनिक’ जैसी कुछ फिल्में अपने प्रभाव में फिल्म होने के बावजूद कविता होती हैं. अच्छे फिल्मकारों ने सिनेमा को साहित्य के करीब लाकर उसमें साहित्य का प्रभाव पैदा करने की कोशिश की है. इसके लिए उन्होंने जीवन के अछूते प्रसंगों को बहुत गहराई से छूने की कोशिश की है. समकालीन हिंदी  कथा साहित्य और हिंदी सिनेमा पर इस दृष्टि से देखने पर मुझे कई बार सिनेमा आगे निकलता हुआ दिखाई देता है.

1 comment:

  1. किसी भी व्यक्ति को साहित्य और सिनेमा के संदर्भ में अगर कुछ जानना है, कि साहित्य क्या है, और सिनेमा क्या है, साहित्य और सिनेमा में अंतर्संबंध क्या है, वर्तमान समय में सिनेमा को लेकर साहित्य जगत में क्या विचार है,और सिनेमा जगत में साहित्य को लेकर क्या विचार है। आदि प्रश्नों का सहज उत्तर इस लेख में मिल जाएगा । इतना ही नही जब इस लेख को एकांत में स्थिर मन से पढ़ पाएंगे तो सिनेमा के अर्थ नीति और साहित्य जगत में प्रतिष्ठा ....आदि जटिल विषयों को भी सहज ही समझ सकते हैं ,यह मेरा अपना अनुभव कह रहा है।

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