Saturday, 17 June 2017

डिजिटल समय में वसंत

वसंत आ गया है और सम्पादक मित्र पीछे पड़ गए हैं कि वसंत पर निबंध लिखो। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जब लिखा था-वसंत आ गया है’, तब सम्पादक गण पीछे नहीं पड़े थे। शांति निकेतन के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुए, पेड़ों-वनस्पतियों के बीच रच-बसकर लिखा था। उन्हें न फ़ोन-मोबाइल का व्यवधान था और न वाट्सएप-फेसबुक की माया से दो-चार होना था। कहने को तो यहाँ भी, जहाँ मैं रहता हूँ-दिल्ली विश्वविद्यालयके परिसर में प्रकृति कम नहीं है। पेड़-पौधों और फूलों से पूरा परिसर भरा हुआ है, लेकिन कौन इसे निहारे! जो मज़ा व्हाट्स-एप्प और फेसबुक, यूटयूब की मायावी दुनिया में है, उसका आमंत्रण बाहर के वासंती आमंत्रण में कहाँ! वह सब तो व्हाट्स-एप्प और फेसबुक पर सुबह से दिखने लगता है। बाहर कौन जाए और कौन हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह पेड़-पौधों को निहारता फिरे। वे लोग फटीचर जमाने के लोग थे। गृहस्थी के झंझट से भागते थे तो पेड़-पौधों के पास जाते थे। हमलोग तो सोते-जागते व्हाट्स-एप्प, फेसबुक आदि के जरिए घर के भीतर हीवाह वसंत-आह वसंतके मैसेजिया फूल-गेंदे फेंक-फेंककर न सिर्फ़ दोस्तों-सम्बन्धियों का बल्कि घर के लोगों का भी दिल गुदगुदाते रहते हैं। सब अपने में मगन हैं, लेकिन दूसरे के मैसेज पर नज़र है। भेट-मुलाक़ात भले कम है पर आपसी संवाद जारी है। इन्हीं संवाद ने शोर मचाया कि वसंत आ गया है तो मैंने भी चौंककर आँख खोली। व्हाट्स-एप्प-फेसबुक के पेज़ खोले तो वसंत वहाँ रंग-बिरंगे परिधानों में धूमधाम से हाज़िर था। मुझे देखा तो बोला; आओ, आओ मास्टर! कहाँ थे? मैं तुम्हारे इंतज़ार में हजारों बधाइयाँ समेटे बैठा हूँ। मैंने कहा कि मैं तो तुम्हें बाहर खोज रहा था। बधाइयों के मैसेज और फूलों की तस्वीरें उसने मेरे ऊपर लाद दी। उनके बोझ से मैं हाफ़ने लगा तो उसने कहा कि यह सब हजारी परसादी हरक़त छोड़ों! बाहर कुछ नहीं रखा। मैं तो तुम्हारे डिजिटल आँगन में हाज़िर हूँ।
          सच ही कहा उसने। उसके आने का शोर मचा तो कल ही पार्क की ओर दौड़ा। अभी पेड़-पौधों को निहारना शुरू ही किया था कि एक अध्यापक साथी ने टोका कि भले आदमी गँवार की तरह वसंत को यूँ ढूढ़ते न फिरते। जब इच्छा हो मोबाइल ऑन करो और देखो, जितना देखना हो। यह कहने के साथ उन्होंने अपना मोबाइल मेरे सामने किया। तरह-तरह के नायाब दृश्य सामने थे। रंग-बिरंगे फूल, तितलियाँ, भौरे क्या नहीं था वहाँ। तस्वीर भी और विडियो भी। वहाँ कुछ कवि भी थे जो वसंत आने की ख़ुशी में चुटकुलेनुमा कविताएँ सुना रहे थे। उन कविताओं को सुननेवाले कुछ खुशनुमा लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। मित्र ने बताया कि इनकी तोंद में जो चर्बी है, वह वसंत के महीने में ऐसी कविताओं से हरक़त में आती है और साल भर इनका हाजमा ठीक रहता है जिससे ये पूरे साल देश की हरियाली चरते हैं।
          तो मित्रों! वसंत को अब कहाँ खोजते फिरोगे! खोजने लायक रहोगे तब न खोजोगे! अपने एक मित्र को पिछले साल मैं वसंत दिखाने उद्यान ले गया। मैंने सोचा कि वहाँ वह फूलों के बीच खुश होगा, लेकिन देखता हूँ कि वह मोबाइल ऑन करके जॉब पोर्टल देख रहा है। मैंने पूछा तो बोला कि बेटे ने अब विज्ञापन देखना बंद कर दिया है। उसी के लिए वेकेंसी ढूँढ़ रहा हूँ। अब तुम्हीं कहो कि वह देखूँगा या वसंत? मैंने कुछ न कहा। चुपचाप उसका मुँह देखता रहा। वसंत को देखने का मूड न रहा! मतलब यह कि वसंत भी मूड-मूड की बात है।
कवि  धूमिल ने जब कहा था कि वसंत हमारे बिल भरने का समय है,तभी हम समझ गए थे कि वसंत के साथ कुछ गड़बड़ होने वाला है । इस क्रांतिकारी कवि की क्रांतिकारी घोषणा से अभी जूझ रहा था कि हमारे समय की एक कवयित्री रश्मि रेखा ने घोषणा कर दी : वसंत अब अफवाहों में आता है । अफवाह का ध्यान आया तो फेंकू की याद आई । वही फेंकू जिसके फेंके का कोई जवाब नहीं । लोग फेंकू की फेंकने की कला का आनंद उठाने लगे हैं । मुझ से मेरे मित्रों ने कहा कि क्या सरसों-तीसी-आम आदि को निहारने में हलकान हो रहे हो,फेंकू की फेंकने की कला टी.वी. व्हाट्स-एप्प ,फेसबुक आदि पर देखो !वसंत फीका लगने लगेगा। सो,कुछ दिनों तक फेंकने की कला का  मजा लेता रहा,लेकिन तुरंत बोर होने लगा । बोरियत दूर करने के लिए बाहर  निकलने की तैयारी करने लगा क्योंकिबागों में बहार हैके मैसेज आ रहे थे । अभी निकलने की सोच ही रहा था कि व्हाट्स-एप्प कीटुनकी आवाज आई । देखा तो गुलाब के लाल-लाल फूलों के बीच एक कवितानुमा सन्देश है; “किरन बोली मुझसे,उठकर बाहर देखो ,कितना हसीन नजारा है;मैंने कहा रुक,पहले उसे एस एम एस तो कर लूँ जो इस सुबह से भी प्यारा है।मुझे अचानक अपराध बोध-सा हुआ कि मैंने तो किसी को कोई मैसेज नहीं भेजा । मैं तुरत उसी को ताबड़तोड़ फारवर्ड करने लगा! भूल गया कि बाहरबागों में बहार है ।हुआ करे-बागों में बहार !बहार का मैसेज भेजने और उधर से आए मैसेजिया बहारों को देखने-पढ़ने का जो मजा है,वह बाहर के बागों में आये बहार को निहारने में कहाँ !पिछले साल वसंत के प्रेमी हमारे एक मित्र यूँ ही बागों के बहार में खोये थे कि एक नौजवान ने प्रणाम किया और बोला :अरे भाई देवदास;क्यों भए उदास। मेरे मित्र ने उसे नाराज होकर देखा,लेकिन तुरंत शांत हो गए । भलाई इसी में थी । मित्र के वसंत-प्रेम के कारण उस उद्यान में नौजवान जोड़ों को वसंतोत्सव मनाने में बाधा उपस्थित हो रही थी । वे चुपचाप घर लौट आये और डिजिटल संसार में आये वसंत-बहार का आनंद लेने लगे । उन्हें इतना आनंद आने लगा कि उसी में खो  गए । मुझे भी उस डिजिटल वसंत बहार में आने का आमंत्रण देते रहे । अब तो खैर मेरी चिंता नहीं उन्हें। उन्हीं की तरह अब उस वसंत-लीला में भारी भीड़ शामिल है। मैं भी कब उस लीला में शामिल हो जाऊँगा,कहना मुश्किल है।
वसंत पंचमी की अपनी याद कुछ दूसरी है। तब वेलेंनटाइन डे नहीं आया था । उस दिन घर की औरतें पुए पकवान बनाती थीं और हम जमकर खाते थे। हमारे लिए वसंत वैसे ही आता था । शाम को पुरुष लोग ढोलक-मजीरे बजाते हुए वसंत का स्वागत करते थे -आए वसंत कंत घर नाहिं  … वसंत के आने और कंत के घर में न होने यानी परदेश में होने का द्वन्द्व-तनाव वसंत आगमन के साथ व्याप जाता था। खैर,अब पुए खाकर प्रेम के पीर के गीत गाने का ज़माना नहीं है।वसंत प्रेम के दमामे बजाता हुआ बागों,पार्कों और गाड़ियों में झूम रहा है और डिजिटल दुनिया को भी झुमा रहा है ।
बचपन में एक कविता पढ़ी थी :पिकी पुकारती रही,पुकारते धरा गगन;मगर कहीं रुके नहीं,वसंत के चपल चरण। जब वसंत के चपल चरण कहीं रुकते नहीं ;तो मैं क्यों उसे अपने जमाने में बाँध लेना चाहता हूँ । मैं क्यों पुए और वसंत-गीतों की पुरानी धुनों की महक में वसंत के आने की राह देख रहा हूँ । जमाने को न उन पकवानों में रूचि है और न उन पुरानी धुनों में जिनमें लोक जीवन धड़कता था । इस ज़माने के पकवान और धुनों को समझने के लिए ही तो हमारे मित्र आभासी दुनिया के आभासी वसंतोत्सव में शामिल हो गए हैं और शामिल होने के लिए मुझे भी ललकार रहे हैं । और मैं हूँ कि बागों के बहार और डिजिटल दुनिया में आये बहार के बीच झूल रहा हूँ !
लेकिन झूलना ठीक नहीं । वसंत के स्वागत का पुराना तरीका हो या नया-मैं यह क्यों भूल रहा हूँ कि वसंतोत्सव से वर्जनाएं तब भी टूटती थी;अब भी टूटती हैं । वसंत आगमन के साथ तब बूढ़े भी जवान हो जाया करते थे -भर फागुन बुढ़उ देवर लागें’, यह कहावत यूँ थोड़े लोकप्रिय थी। नया देवर नहीं;तो पुराना देवर ही सही । भाभी के लिए वसंत  देवर को छेड़ने के रूप में  आता था और देवर भाभियों के बहाने होली गीत गा कर अपनी सारी कुंठाए निकाल लिया करते थे । लोग जोगीरा तब भी गाते थे अब भी गाते हैं। फर्क इतना ही है कि तब जिनको सुनाना होता था,उनके दरवाजे जाकर सुनाते थे और वे दरवाजे खुले भी रहते थें ,अब फेसबुक,व्हाट्स-एप्प के जरिये सुनाते हैं |  इसलिए हे मन ! पुराना ज़माना लौटने से रहा !
नए जमाने के साथ चलो और व्हाट्स-एप्प के जरिए नए जमाने का नया जोगीरा मित्रों को भेज दो ,जो तुम्हें भी आभासी दुनिया से मिला है :
उत्तर पट्टी बिल्ली पाले,दक्खिन पाले मूस ,
देश भक्ति के ठेकेवाले पाल रहे जासूस
जोगीरा सा रा रा रा     

6 comments:

  1. अपनी तरह का एक नायाब लेख।अनूठा।अद्भुत।

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  2. बहुत अच्छा विश्लेषण है सर।

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  3. Basant k chapal Charan Kavita kis ki likhi hai? Krispy a Batayenge, dhanyawaad

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    1. रामदयाल पांडेय, वैसे मुझे पूरी कविता की खोज है अगर आपके पास हो तो मुझे भेजें।

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    2. I have found the full poem and updated it on myblogspot link below.

      https://sahchar.blogspot.com/2023/11/blog-post.html

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