Sunday 11 June 2017

प्रगतिवाद और मुक्तिबोध

मुक्तिबोध  कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे या नहीं,यह तो नहीं मालूम,लेकिन उनका साहित्य और उन पर लिखे गए अधिकांश साहित्य को पढ़ने से पता चलता है कि मार्क्सवादी दर्शन में उनकी गहरी आस्था थी |वे शोषण युक्त व्यवस्था को समाप्त कर शोषण मुक्त समाज  व्यवस्था कायम करना चाहते थे|वे मानते थे कि यह पूंजीवादी समाज,जो जनता के शोषण पर कायम है,चल नहीं सकता,उसे बदलना ही होगा|बदलाव के लिए क्रांति जरूरी है|उनका विश्वास था कि शोषण की चक्की में पिसता हुआ सामान्य जन जगेगा और एक दिन अवश्य ही जनक्रांति होगी |उनकी प्रसिद्द कविता ‘अँधेरे में’ को जिन्होंने पढ़ा है,वे जानते हैं कि जनक्रांति का स्वप्न कैसे वहाँ सगुण-साकार होता हुआ दिखाई देता है|चूँकि ‘पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता’ इसलिए उसे बदलने के लिए ‘जन-क्रांति’ जरूरी है | ‘अँधेरे में’ कविता में मार्शल लॉ का  चित्रण है- वह  ‘किसी जन-क्रांति के दमन के  निमित्त’ है|उस कविता में प्रोसेशन का जो दृश्य है,उसमें कई ‘प्रतिष्ठित पत्रकार’ तो शामिल हैं ही, ‘कई प्रकांड आलोचक,विचारक,जगमगाते कवि गण’ भी हैं |साथ ही उस प्रोसेशन में मंत्री,उद्योगपति,विद्वान भी हैं|यहाँ तक कि ‘शहर का कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद’ भी शामिल है उसमें |मुक्तिबोध मानते हैं कि यह सब ‘जन-क्रांति’ के दमन के लिए लगाए गए मार्शल लॉ को लागू कराने के अभियान में लगे हुए  लोग हैं|उसी कविता में इस तरह के मार्शल लॉ का प्रतिकार करनेवाले ‘सांवले मुख के कुछ बलवान जन हैं’ जो ‘आत्मा के चक्के परसंकल्प शक्ति के लोहे का मजबूत ज्वलंत टायर’ चढ़ा रहे हैं |
मार्क्सवादी दर्शन में आस्था रखने वाले और ‘जनक्रांति’ का स्वप्न देखने वाले मुक्तिबोध की प्रगतिवाद के बारे में क्या धारणा थी,जानना जरुरी है|यह इसलिए जरुरी है कि रामविलास शर्मा मुक्तिबोध पर अस्तित्ववाद का प्रभाव मानते हैं|मुक्तिबोध,डॉ शर्मा के अनुसार,सिजोफ्रेनिक हैं और उनका व्यक्तित्व विभाजित है,वे कभी स्वप्न में जीतें हैं और कभी यथार्थ में|ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता के सम्बन्ध में मुक्तिबोध का चिंतन कैसा है |वे नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल आदि की तरह प्रगतिवादी कवि नहीं हैं|प्रगतिवाद की जैसी  सरल और भास्वर रेखाएं इन कवियों की कविताओं में दिखती है,वैसी रेखाएं मुक्तिबोध के यहाँ नहीं हैं |वे अंततः नई कविता के कवि-विचारक हैं|वे उस ‘तारसप्तक’ के कवि हैं जो अज्ञेय जैसे ‘प्रगतिवाद’ विरोधी करार दिए गये कवि के संपादन में निकला|वे श्रीकांत वर्मा,अशोक वाजपेयी जैसे युवतर कवियों के सघन संपर्क में थे|श्रीकांत और अशोक प्रगतिवादी साहित्यिक धारणा के प्रभाव में कभी नहीं रहे लेकिन मुक्तिबोध उनके लिए हमेशा महत्त्वपूर्ण बने रहे |मुक्तिबोध ने निराला पर नहीं लिखा|निराला. जो प्रगतिशील खेमे के लिए,रामविलास शर्मा के प्रयत्न से,आधुनिक कविता के शिखर कवि हो गए|आगे चलकर जनवादी खेमे में निराला के बाद और उनके साथ मुक्तिबोध का नाम आग्रहपूर्वक लिया जाने लगा,जबकि  मुक्तिबोध ने प्रसाद पर लिखा और ‘कामायनी’ में उठने वाली समस्याओं से जूझते रहे|निष्कर्ष यह कि मुक्तिबोध की प्रगतिवादी राह वैसी नहीं है जैसी नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल या रामविलास शर्मा की है|कामरेड डांगे के नाम उनका जो पत्र है,उससे भी पता चलता है कि प्रगतिवाद की जैसी समझ हिंदी में विकसित हो रही थी,उससे मुक्तिबोध स्पष्ट मतभेद रखते थे |तब प्रगतिवाद या प्रगतिशीलता की उनकी अपनी समझ या धारणा क्या थी,इसे जानने के लिए सबसे अच्छे आधार उनकी वे टिप्पणियाँ हैं जो उन्होंने प्रगतिवाद के नाम पर लिखीं |
 मुक्तिबोध की प्रगतिवाद से सम्बंधित जो  टिप्पणियाँ और साहित्य-चिंतन से सम्बंधित जो निबंध है,उन्हें देखने से स्पष्ट होता है कि वे अपने अध्ययन-अनुभव को अधिक महत्त्व देते हैं,दूसरों के उद्धरणों के सहारे अपनी प्रगतिवादी समझ की दुनिया वे नहीं नहीं निर्मित करते|इसलिए उनके यहाँ ‘लाल सुबह’,’लाल सितारा’, ‘लाल पताका’ आदि प्रगतिवाद समर्थक प्रतीक नहीं दिखाई पड़ते|मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘प्रगतिवाद साहित्य-कला की अत्याधुनिक धारणा है|’यह क्यों ‘अत्याधुनिक धारणा’ है ?इसलिए कि अब तक की कला और साहित्य में ‘सामाजिक तत्व का आभाव’ है |इस सामाजिक तत्व के आभाव के कारण साहित्य और विश्व का विकास ठीक से नहीं हो सका|वे लिखते हैं : ‘मानवता के सब उच्च संस्कृति की ओर किये गये प्रयत्नों में  का मुख्य दोष सामाजिक तत्वों की अपेक्षाकृत उपेक्षा रही है,जिसके कारण विश्व-प्रगति  उतनी नहीं हो सकी जितनी कि होनी चाहिए,कला उतनी नहीं बढ़ सकी जितना कि बढ़ना चाहिए थी,विचार उतने ऊँचे और व्यापक नहीं हो सके जितने कि होने चाहिए थे |प्रगतिवाद उस मुख्य कारण को चीन्ह लेता है और कहता है कि जब तक सामजिक न्याय नहीं होगा तब तक व्यक्ति के चिंतन में हमेशा दोष उत्पन्न होते रहेंगे| (‘प्रगतिवाद :एक दृष्टि’ शीर्षक निबंध,मु. रचनावली,खंड-५ ,पृष्ठ. २८ )
 समाज वर्गों में विभाजित है |वर्गों में विभाजित समाज में जो कला विकसित हुईं वह शासक वर्ग की ‘इच्छाओं और आकांक्षाओं’ का प्रतिबिम्ब हैं|चूँकि वह समाज शोषण के बल पर टिका हुआ है,शोषक और शोषित का फर्क है,दोनों के मध्य जो विभाजक रेखा रही है उसने कलाकारों को दलित वर्ग की ओर देखने नहीं दिया|इसलिए पुरानी कला-रचनाएं मानवतापूर्ण होने के बावजूद सम्पूर्ण मानवजाति की इच्छाओं की प्रतिबिम्ब न बन सकीं|इस कारण कला-साहित्य की दुनिया में व्यक्तिवादी प्रवृतियाँ पैदा हुयीं |अब प्रगतिवाद पुरानी कला-रूचि को मिटाकर उसकी जगह उस कला-रूचि का विकास करना चाहता है,जिसमें सामाजिकता पर जोर अधिक हो,वह युग की आवश्यकताओं को लेकर चलना सीखे|युग की आवश्यकताओं को लेकर चलने का मतलब कला की  उपेक्षा नहीं है |मुक्तिबोध लिखते हैं : ‘प्रगतिवाद कला-मार्ग बनना चाहता है|कला-शरीर की नसों में नया रक्त और नवस्फूर्ति का संसार जनता के अथाह ह्रदय के संपर्क में आने से ही होगा|उससे अछूता रखने पर वह मर जाएगा |अतएव प्रत्येक सृजक कलाकार को जनता से चैतन्यमय सहानुभूति प्राप्त कर तेज प्राप्त करना होगा |कला या ईश्वर प्राप्त करने के लिए मंदिरों या पुरानी श्रद्धेयताओं  की ओरनहीं  जाना होगा,बल्कि उस सैनिक तत्व,उस संग्रामशील धैर्य के अथाह  आंतरिक तेज और संतुलन के पास पहुंचना होगा |उसका ईश्वर सैनिक रूप में आ रहा है |विकराल मूर्तिभंजक के रूप में प्रगट हो रहा है |”(वही पृष्ठ-२९)
 प्रगतिवाद का ईश्वर सैनिक रूप में आ रहा है और वह विकराल मूर्तिभंजक होगा!क्या जबर्दस्त रूपक है !कोई इसका पाठ करते हुए मध्यकाल के मूर्तिभंजक आक्रान्ता सैनिकों तक जा सकता है लेकिन मुक्तिबोध तो प्रगतिवाद के उस स्वप्न की बात कर रहे हैं जो ‘वर्गहीन’ और ‘भेदहीन’ समाज का स्वप्न है |मुक्तिबोध मनुष्य के मनोभावों को उसकी वैयक्तिक निधि मानते हैं |इससे ऊपर उठकर कल्पना के मनुष्य की जगह यथार्थ के मनुष्य,जो अधिक मूर्त है,की वकालत करते हैं|उनके अनुसार –“प्रगतिवाद का मानव कल्पना युग के (ऐब्सट्रैक्शन) पर आधारित नहीं है |वह मनुष्य को अधिक मूर्त रूप में ग्रहण कर रहा है |इसलिए उसमें रोमांस,प्रेम,संघर्ष,कल्पना सभी का महत्त्वपूर्ण स्थान है,क्योंकि प्रगतिवाद मानव के यथार्थ पर टिका हुआ है,इसलिए कला-व्यवस्था में उसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है |” (वही-पृष्ठ -३०)लेकिन मुक्तिबोध यहीं नहीं रुकते |वे जानते हैं की कार्य-कारण सम्बन्ध पर अधिक जोर देना यथार्थ चित्रण नहीं है|इसलिए वे विकासवाद का समर्थन तो करते हैं,पर उसमें कार्य-कारणवाद की जो यांत्रिकता है,उसका विरोध भी करते हैं |उनके अनुसार प्रगतिवाद ‘जीवन को अधिक मूर्त रूप में ग्रहण’ करने का आग्रही है,इसलिए ‘जीवन की दृष्टि से प्रगतिवाद आज तक की सबसे ऊँची मंजिल है...|”
 मुक्तिबोध साहित्य को राजनीति से अलग स्वायत्त संसार मानने के हिमायती नहीं है|वे मानते हैं की साहित्य को ‘वर्गहीन समाज-सत्ता का पुजारी’ होना चाहिए |इसलिए उनके अनुसार ‘राजनैतिक दृष्टि से प्रगतिवाद प्रसार का हिमायती  है|’प्रसार के द्वारा एक देश के दलित दूसरे देश के दलित के सम्पर्क में आयेंगे और वर्गहीन समाज-सत्ता के निर्माण के लिए क्रांति के वाहक बनेंगे |प्रगतिवाद कलाकारों से अपेक्षा रखता है कि ‘तुम अधिक से अधिक जन-ह्रदय के संपर्क में आओ और क्रांति को आगमनशील बनाओ|”क्रांति को आगमनशील बनाने की जरूरत पर जोर देने के साथ मुक्तिबोध कलाकार से उस द्वंद्व की अपेक्षा रखते हैं जो उसे सरलीकरण से बचाती है और यथार्थ को भीतर-बाहर दोनों ओर से देखने का आधार बनती है|वे कहते हैं : “प्रगतिवादी एक निश्चित दार्शनिक ऐटीट्यूड उत्पन्न करता है ,जो न ‘स्व’ से अधिक ‘बाह्य’को ,और न बाह्य’ से अधिक ‘स्व’ को महत्त्व देता है |वह कहता है कि इन दोनों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया से विकास होता है |’(वही)
  बहुत-से कवि अपने मनोभावों को ही अपनी कविता का विषय बनाते हैं,उन कविताओं में ऊपरी तौर पर उस सामाजिकता का अभाव दीखता है जिसकी अपेक्षा प्रायः प्रगतिवादी लोग करते हैं|समाज के बीच स्वाभाविक रूप से विकसित किसी व्यक्ति के मनोभाव को मुक्तिबोध जनविरोधी नहीं मानते |उनके अनुसार ‘जन-मन की सर्व-साधारण मनःस्थिति व्यक्ति की मनोदशाओं द्वारा प्रगट’ होती है |ऐसे ‘मनोभाव तो उत्पीडित वर्गों की साधारण मनःस्थिति के ही द्योतक हैं |” ऐसे मनोभावों से सृजित साहित्य में महान ‘मनुष्य सत्य’ होता है |लेकिन कई प्रगतिशील आलोचक /लेखक मनोभावों के आधार पर लिखे गए साहित्य की आलोचना करते हैं और उसे प्रगतिशील रचना नहीं मानते |ऐसे प्रगतिशीलों की मुक्तिबोध ने कड़ी आलोचना की है और अपनी एक टिप्पणी “प्रगतिशीलता’ और मानव सत्य” में उन्होंने लिखा है कि ये लोग हैं “...जो मात्र क्रांतिकारी शब्दों का शोर खडा करने वालों के हिमायती के रूप में अपने सिद्धांतों की यांत्रिक चौखट तैयार रखते हैं-जो उसमें फिट हो जाए वह प्रगतिशील,और जो उसमें कसा न जा सके वह प्रगति-विरोधी |यह उनका प्रत्यक्ष,परोक्ष,प्रस्तुत और अप्रस्तुत ,मुखर और गोपनीय निर्णय होता है |ये लोग उत्पीडित मध्यवर्ग के जीवन के तत्वों से दूर अलग-अलग होते हैं|भले ही ये लोग शाब्दिक रूप से गरीबों के कितने ही हिमायती क्यों न हो,इनका व्यक्तित्व स्वयं आत्मबद्ध,अहंग्रस्त महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार और राग-द्वेष की प्रवृतियों से निपीडित होता है|बोधहीन बौद्धिकता का शिकार,यह वर्ग जिस संवेदनमय कविता की आलोचना करता है,उसकी संवेदनाओं की मूल आधार-भूमि को वह हृदयंगम नहीं कर सकता|”(रचनावली,खंड-५ ,पृष्ठ -७९)ऐसे ‘बोधहीन बौद्धिकों’ के  प्रगतिशील समाज को मुक्तिबोध प्रश्नांकित करते हैं और ‘राजनैतिक शब्दोंवाली परिभाषाओं की कविता’ को कविता मानने की प्रगतिवादी जिद की भर्त्सना करते हैं |ऐसे प्रगतिवादियों को वे ‘अहंवादी’ और ‘आस्थाहीन’ कहते हैं |प्रगतिशील कविता एक तरह की नहीं कई तरह की हो सकती है |प्रगतिशीलता के अनेक आयाम और रूप हैं |इसकी अनदेखी करके सीधी-सरल और सपाट लगनेवाली प्रगतिशील कविताओं को ही ‘प्रगतिवादी’ ढांचे में फिट करने वाले आलोचकों –बौद्धिकों पर प्रहार करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं : ‘...हमारे ये साहित्यिक नेता ह्रदय और बुद्धि के क्षेत्र में कठोर अहंवादी हैं,कष्ट्ग्रस्त मनुष्य जीवन के मर्मग्य होने के पहले वे आलोचक और मसीहा हैं |मनुष्य जीवन के भव्य संवेदना-सत्यों के प्रति उनमें आवश्यक नम्रता भी नहीं है |न इतनी आस्था है कि वे ये माने कि युग-सत्य विभिन्न रूपों और विविध आलोकों में विविध विचारों और भावनाओं में वलयित होकर आज की कष्टग्रस्त मानवता के ह्रदय में अधिष्ठित है |इस आस्थाहीनता के  कारण  ही,उनके द्वारा समर्थित कविता में सम्पूर्ण मनुष्य की गौरवपूर्ण नीतिमत्ता,सर्वांगीण मानवीय पक्षों का भव्य दृश्य,सुकुमार भावनाओं की मनुष्योंचित गरिमा दिखाई नहीं देती,वरन पिटी-पिटायी क्रांतिकारिता का सभामंची आत्म-प्रदर्शन दिखाई देता है|”(वही पृष्ठ -८०)
मुक्तिबोध प्रगतिवाद के समर्थक हैं,लेकिन प्रगतिशीलता की यांत्रिक समझ के विरुद्ध भी हैं|जनता में जन-भावना में,उसकी मुक्ति में, मुक्ति के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में उनकी गहरी आस्था है |लेकिन प्रगतिवादी कवियों-आलोचकों की जो समझ बीसवीं सदी के चौथे-पांचवे दशक में थी,उससे वे प्रायः असहमत हैं|यही कारण है कि वे मानते हैं कि प्रगतिशील कविता का उतना विकास नहीं हो सका,जितना कि होना चाहिए|इसलिए मार्क्सवादी होने के बावजूद वे प्रगतिशील कवि कहलाने की आकांक्षा नहीं रखते|उनका सारा संघर्ष ‘नयी कविता’ को प्रगतिशील चेहरा देने का,साथ ही नयी कविता का कवि कहलाने का है |वे अपने आप को प्रगतिशील कवि नहीं ‘आधुनिकतावादी’ कवि मानते हैं | ‘दिग्विजय कॉलेज” राजनांद गाँव, के प्राचार्य को लेक्चरर  पद के लिए लिखे गये आवेदन में अपने साहित्यिक रुझान का परिचय देते हुए वे लिखते हैं : “मैं हिंदी कविता के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में प्रभावी आधुनिकातिवादी रुझान का अगुआ रहा हूँ |इस रुझान का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रथम ग्रन्थ ‘तारसप्तक’ में मेरी सोलह कवितायें शामिल हैं |”(छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध’,सं-राजेंद्र मिश्र,पृष्ठ-२९१ ) यहाँ यह स्पष्ट है कि मुक्तिबोध अपने को ‘तारसप्तक’ की परम्परा से जोड़कर देखते हैं |उनकी दृष्टि में ‘१९४३ में प्रकाशित यह ग्रन्थ समग्र हिंदी कविता को पूरी तरह नयी दिशा प्रदान करने में निर्णायक है |’ (वही)
  मार्क्सवादी मुक्तिबोध अपने को ‘आधुनिकतावादी’ कवि क्यों कहते हैं ?हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना में ‘आधुनिकतावाद” को पतनशील साहित्यिक प्रवृति माना गया है और आधुनिकतावाद के लक्षण अज्ञेय और उनके समर्थक कवियों की कविताओं में देखे गए हैं |मुझे लगता है कि मुक्तिबोध इस अर्थ में अपने को आधुनिकतावादी कवी नहीं कहते |आधुनिकतावाद का आशय यहाँ प्रगतिवाद से भिन्न उस नए साहित्यिक रुझान से है जो जटिल यथार्थ को समझने में ज्यादा सक्षम है|उनका सारा संघर्ष इस नए रुझान को प्रतिष्ठित करने है |वे स्वयं मानते हैं : ‘इस नयी साहित्यिक प्रवृति के संरक्षण की जरुरत ने मुझे समालोचना के क्षेत्र में ला खडा किया |’(वही )
    प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता से सम्बंधित मुक्तिबोध की टिप्पणियों से स्पष्ट है कि वे पुरानी साहित्यिक रुढियों और चेतना के विरुद्ध हैं ,वे नए साहित्य और समाज के निर्माण का स्वप्न देखते हैं |वे प्रगतिशीलता को एकरेखीय और सरलीकृत अवधारणा मानने के खिलाफ हैं और यथार्थ को जटिल तथा बहुस्तरीय मानते हैं |इसलिए वे बिना नाम लिए उन प्रगतिशील लोगों की आलोचना करते हैं जो प्रगतिशीलता को कुछ राजनीतिक सिद्धांतों तक सीमित कर देना चाहते हैं|इसके लिए वे दोतरफा संघर्ष करते हैं |नयी काव्य प्रवृति- जिसे आगे चलकर नयी कविता कहा गया- को प्रतिष्ठित करने का संघर्ष  तो वे करते ही हैं ; प्रगतिशील  आन्दोलन के भीतर जो यांत्रिक समझ विकसित हो गयी थी,उससे भी कडा संघर्ष करते हैं |इसलिए उनका संघर्ष भीतर-बाहर दोनों स्तरों पर है|उनके संघर्ष का तीसरा धरातल भी है |वह है प्रगतिशीलता के विरोधियों का ‘व्यक्ति-स्वातन्त्र्य’| ‘अंतर्मुखता’ और ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की चर्चा एक जमाने में प्रगतिवाद के विरोधी कवी लेखक करते थे |मुक्तिबोध मानते हैं कि ‘कष्टग्रस्त जीवन’ के कारण कवि में ‘अंतर्मुखता’ विकसित होती है |मुक्तिबोध के अनुसार प्रगतिशीलता के विरोधी ‘अंतर्मुखता’ के मूल उद्वेगों के क्रांतिकारी अभिप्रायों को दबाकर ,उस अंतर्मुखता को इस प्रकार से प्रोत्साहन देते हैं कि वह अंतर्मुखता अपने प्रधान विद्रोहों से छूटकर अलग हट जाए |अंतर्मुखता में ‘व्यक्ति’ को ही प्रधान मानकर उस व्यक्ति को सामाजिक परिवर्तन के आग्रही शक्तियों से अलग हटाते हुए,वे ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की घोषणा करते हैं |”(रचनावली ,खंड-५ ,पृष्ठ-८० )

   प्रश्न है कि मार्क्सवाद और प्रगतिवाद को व्यापक-जनपक्षधर विचार-प्रवृति मानने वाले मुक्तिबोध प्रगतिशील कविता को नए यथार्थ के चित्रण के लिए क्यों अपर्याप्त मानते हैं ?और नयी कविता इस दायित्व के निर्वहन के लिए ज्यादा उपयुक्त क्यों?नागर्जुन,केदारनाथ अग्रवाल की कविता में क्या वह द्वंद्व और तनाव नहीं है जिसे मुक्तिबोध नए यथार्थ चित्रण के लिए जरुरी मानते हैं?प्रगतिशीलता सम्बन्धी मुक्तिबोध की और नागर्जुन-केदार की धारणाओं में जो फर्क है,वह वस्तुतः गाँव और किसान-मजदूर के नजरिये से समाज को देखने के आग्रह का परिणाम है|मुक्तिबोध के यहाँ प्रगतिशीलता का जो आग्रह है वह मार्क्सवाद के प्रभाव से निर्मित्त शिक्षित शहरी मध्यवर्गीय व्यक्ति का है|भारत जैसे विशाल देश में जीवन और जीवन-यथार्थ का जो वैविध्य  है,उसे कई  स्तरों पर देखे जाने की जरुरत क्या नहीं है? मुक्तिबोध जिस शिक्षित मध्यमवर्ग से आते हैं,उस नजरिये से प्रगतिवाद और प्रगतिशील आन्दोलन का किया गया उनका मूल्याङ्कन क्या निर्विवाद है ?जिस ‘तारसप्तक’ को वे ‘समग्र हिंदी कविता को पूरी तरह नयी दिशा प्रदान करने वाला निर्याणक’ ग्रन्थ मानते हैं,उसी  ‘तारसप्तक’ के कवि अज्ञेय उन्हें ‘आत्मान्वेषण’ का कवि घोषित करते हुए जो कहते हैं ,वह मुक्तिबोध के कवि-मन  और उनके समाज बोध का परिचय देता है : “मुक्तिबोध आत्मान्वेषण के कवि थे,पर यह एक आत्मान्वेषण ,अपनी किसी विशिष्टता की खोज नहीं थी,यह अपने उस रूप की खोज थी जो कवि को पूरे समाज से,मानव मात्र से, मिला दे|कोई सोच सकता है कि कवि को आत्मान्वेषी कहना उसकी अवमानना करना है ,पर मैं इसे कठिनतर यात्रा समझता हूँ ,और कवि मुक्तिबोध का विशेष सम्मान इसलिए करता हूँ कि वह आजीवन इस कृच्छ साधना में लगे रहे,अपने भीतर पैठना पर पैठ कर उसे बाहर लाना जो अपना नहीं,सबका है|यह किसी के लिए भी कठिन कार्य है,मुक्तिबोध की परस्थितियों में और भी कठिन था,पर वह निष्ठापूर्वक उसमें लगे रहे|”(आत्मान्वेषण का कवि ,तिमिर में झरता समय ,सं-राजेंद्र मिश्र ,पृष्ठ -९ )

1 comment:

  1. pranam Sir! aapne bahut sargrbhit aur chintanparak aalekh likha hai..

    ReplyDelete