लेखक और मनुष्य दोनों ही रूपों में डॉक्टर पी.एन. सिंह मेरे प्रिय हैं.
मुलाकात सिर्फ दो बार की है. लेकिन उनके वैचारिक लेखों ने मुझे हमेशा सोचने-समझने
का पर्याप्त खुराक दिया है. जितनी साफ़ उनकी दृष्टि और समझ है उतना ही पारदर्शी
उनका व्यक्तित्व है. उनके लेख जब मैं पढ़ता हूं, फोन पर जब भी हमारी बातचीत होती
है, मैं हमेशा बौद्धिक और आत्मिक ऊष्मा महसूस करता हूं. सच्चे अर्थों में वे हिंदी
के पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं.
इसलिए उनके वैचारिक लेखों की किताब
की भूमिका लिखने की जब बात आई तो अनेक व्यस्तताओं के बावजूद मैं इनकार नहीं कर सका
और मैंने सहर्ष हामी भर दी. मैंने इसे अपना सम्मान माना. यद्यपि मुझे लगता है कि
अब किसी अन्य लेखक की किताब की भूमिका लिखना लगभग पुराना फैशन हो चुका है. फिर भी
मैं भूमिका लिख रहा हूँ तो इसके पर्याप्त कारण हैं, जो समाज, राजनीति, साहित्य और
संस्कृति संबंधी पी.एन. सिंह की व्यापक चिंताओं की देन है.
पी.एन. सिंह ‘समकालीन सोच’
नाम से वर्षों तक एक पत्रिका निकालते रहे हैं. पत्रिका अपने सामाजिक, साहित्यिक
सरोकारों के कारण मेरे लिए हमेशा पठनीय रही. मेरे लिए उसका सम्पादकीय विशेष आकर्षण
का केंद्र था. इस सम्पादकीय में उनके व्यापक अध्ययन, अनुभव और सामाजिक सरोकारों से
उपजे हुए प्रश्न होते थे. ‘समकालीन सोच’ के सम्पादकीय को पढना हर दृष्टि से
अपने को समृद्ध करना था. व्यापक तैयारी के साथ लिखे हुए उनके अग्र लेखों में जितनी
वैचारिक ऊष्मा होती थी, उतनी ही अनुभव की ऊष्मा भी. अब जबकि पी.एन. सिंह बीमार
हैं, ‘समकालीन सोच’ का प्रकाशन मित्रों के सहयोग से रुक-रुक कर जारी है तब उनका महत्त्व समझ में आता है. मैं
चाहता था कि उन अग्र लेखों को एक जगह पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाए. मुझे ख़ुशी है
कि यह शुभकार्य संपन्न हो रहा है और पी.एन. सिंह के जीवनकाल में हो रहा है. ‘समकालीन
सोच’ और पी.एन. सिंह के प्रति मेरी राय हमेशा ही उंची रही. इसका प्रमाण है वह
टिपण्णी जो वर्षों पहले ‘जनसत्ता’ (23 मार्च 2009) में ‘हाशिए की सक्रिय
आवाजें’ शीर्षक से मैंने लिखी थी. वह टिपण्णी मुझे आज भी प्रासंगिक लगती है.
इसलिए पी.एन. सिंह के वैचारिक लेखों पर कुछ कहने के पहले मैं उसे पढ़ने का आग्रह
करूँगा.
‘समकालीन सोच’ का नया अंक (45 वां) सामने हैं. गाजीपुर (उ.प्र) से लगभग सत्रह वर्षों से
डॉक्टर पी.एन. सिंह के संपादन में निकलने वाली यह पत्रिका त्रैमासिक हैं. पंजीकृत
है, इसलिए कहने को त्रैमासिक है, वरना निकलती अनियतकालीन की तरह है. जब कागज़-प्रेस
के खर्चे का इंतजाम हुआ और रचनाएं जुट गईं, तब पत्रिका निकल गई. संपादक और उनके
साथियों की अनियतकालीन रचनात्मक मस्ती की तर्ज पर निकलने वाली इस पत्रिका के
संरक्षक एवं संपादक मंडल में कई लोग हैं. उनमें सबसे बड़ा नाम नामवर सिंह का है.
लेकिन लगता नहीं कि उनका संरक्षण कभी इस पत्रिका को मिला होगा. नाम शोभा के लिए
हैं. शेष लोगों से कितनी मदद मिलती है, यह तो पी.एन.सिंह जानें! लेकिन कुल मिलाकर
वे ही इसके पीर-बावर्ची-भिस्ती-खर हैं. बीमार हैं, पर पत्रिका निकाले जा रहे हैं.
पत्रिका का नया अंक सामने है और
पी.एन. सिंह का चेहरा आंखों के सामने घूम रहा है. दो बार की मुलाकात है. दिल्ली
में और बलिया में. सेमिनार के दौरान. अंग्रेजी के रिटायर्ड अध्यापक. खूब पढ़े-लिखे
और बेहद शरीफ. आधुनिक और प्रगतिशील सोच के व्यक्ति. अंग्रेजी में भी लिखते हैं,
लेकिन मन रमता है हिंदी में. कई पुस्तकें हिंदी-अंग्रेजी में प्रकाशित है. लघु
पत्रिकाओं में उनके लेख कभी-कभार पढ़ने को मिल जाते हैं. अच्छा लिखते हैं और साफ
लिखते हैं. मित्रवत्सलता के मारे हैं, सो परिचितों-मित्रों को फोन कर हालचाल पूछते रहते हैं. अब वे बीमार हैं. स्मृति साथ नहीं दे
रही है. कभी-कभी कुछ याद नहीं रहता. फिर भी पत्रिका निकल रही है. समानधर्मा
साथियों की एक बड़ी जमात जो है उनके साथ.
‘समकालीन सोच’ जैसी
पत्रिका न भी निकले तो क्या फर्क पड़ेगा? आज तक इस पत्रिका ने ऐसा कोई विवाद न खड़ा
किया, जिसके कारण कोई इसे याद रखे या इसकी भूमिका रेखांकित करे. कोई नवीनता का
आग्रही और विवादधर्मी या विवादप्रेमी व्यक्ति पी.एन. सिंह को सलाह दे सकता है कि
आराम कीजिए. क्यों हलकान हुए जा रहे हैं! बहुत-सी पत्रिकाएं निकल रही हैं. आप
जिन्हें छाप रहे हैं, उन्हें वे छाप देंगी. लेकिन सवाल सिर्फ ‘समकालीन सोच’
जैसी पत्रिकाओं का नहीं है. ऐसी दर्जनों पत्रिकाएं छोटे-बड़े शहरों से निकल रही
हैं. गाजीपुर से हैदराबाद तक, कलकत्ता से जम्मू तक. हिंदी में निकलने वाली लघु
साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या, एक अनुमान के आधार पर, चार-पांच सौ तो होगी ही.
ज्यादातर पत्रिकाओं के पास संपादक और उसके साथी रचनाकार साथियों की घर-फूंक मस्ती
और कुछ कर गुजरने की रचनात्मक बेचैनी के अलावा कोई दूसरा संसाधन नहीं. खुद ही
लिखते हैं और खुद ही जेबें ढीली करते हैं. दिल्ली में बैठे ज्यादातर लेखक उन
पत्रिकाओं में नहीं लिखते. ये पत्रिकाएं लिखने वालों को कुछ दे नहीं पातीं, इनकी
प्रसार संख्या हजार-दो हजार से अधिक नहीं होती. इनके प्रोडक्शन का स्तर भी ठीक
नहीं होता. सो ज्यादातर सफल और तथाकथित बड़े लेखक इसमें नहीं लिखते. इन लघु
पत्रिकाओं का काम घरेलू कुटीर उद्योग की तर्ज पर चलता है. इनके पीछे न तो कोई
संस्था या बड़ा घराना होता है और न विज्ञापन बटोरने की कला में माहिर दिमाग. बस, ये
निकलती जाती हैं. हांफती, सुस्ताती और आगे बढ़ती. बिना कोई हंगामा बरपा किए. प्रश्न
है कि ‘समकालीन सोच’ जैसी छोटी जगहों और छोटे संसाधनों से निकलने वाली
पत्रिकाओं की भूमिका क्या है? दिल्ली में या बड़ी जगहों में बैठे मुझ जैसे पाठक को
कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसी पत्रिकाएं निकले तब भी, न निकलें तब भी.
लेकिन तभी भीतर से एक आवाज आती
है. फर्क ऐसी ही पत्रिकाओं और उसके जुनूनी संपादकों तथा उसके लेखक साथियों की वजह
से पैदा होता रहा है. ‘उदंत मार्तंड’ से चलकर ‘समकालीन सोच’ तक
हिंदी पत्रकारिता की यात्रा अनेक कड़वे-मीठे अनुभवों और उतार-चढ़ावों का इतिहास है.
इस बिच हिंदी बाजार की और कमाने के साथ ही हैसियत बनाने की भाषा बन चुकी है. उसकी
दुनिया बड़ी पूंजी से संचालित है और बड़ी पूंजी के जो खेल होते हैं, वे सब उसके साथ
हैं. कुछ लघु पत्रिकाएं भी बहुत ही चमक-दमक के साथ निकल रही हैं और लेखकों को
पारिश्रमिक भी दे रही हैं. कहा जाता है कि इनके संपादक-प्रकाशक विज्ञापन के जरिए
इतना जुटा लेते हैं कि न सिर्फ पत्रिका की चमक बनी रहती है, बल्कि बिना नौकरी किए
उनके जीवन की भी चमक बनी रहती है. बहरहाल, पूंजी की चमक से चमकती-दमकती पत्रिकाओं
से अलग ‘समकालीन सोच’ जैसी साधारण ढंग से लगभग चुपचाप-सी निकलने वाली पत्रिकाओं
की भूमिका पर विचार करें तो हम पाएंगे कि नई रचनाशीलता और सोच के प्रकाशन में इनकी
कितनी बड़ी भूमिका है.
भूमंडलीकरण के दौर में पूंजी की
माया ने बहुत कुछ बदला है. न तो बुनियादी परिवर्तन के आदर्शों से संचालित राजनीतिक
दल हैं और न भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना वाले अखबार और मीडिया के दूसरे रूप.
चेतना संपन्न मध्यवर्ग की जगह लालची और अवसरवादी मध्यवर्ग दाखिल हो चुका है.
तथाकथित मुख्यधारा के राजनीतिक दल और तुमुल कोलाहल पैदा करता मीडिया जब कुछ
भी सार्थक नहीं कर रहा है, तब परिधि से
उठती आवाजों की ओर ध्यान जाता है. छोटी-छोटी पत्रिकाओं, छोटे-छोटे ग्रुप और
छोटे-छोटे आंदोलनों के जरिए ‘हैव’ और ‘हैव नॉट’ के बीच के विकराल
अंतराल के विरुद्ध आंदोलनरत आवाजों की ओर महानगरों में कम ध्यान दिया जाता है.
लेकिन मुझे लगता है कि साहित्य, संस्कृति और राजनीति की बुनियादी और परिवर्तनकारी
लड़ाई की असल चमक इन्हीं आवाजों में है. परिधि से उठने वाली आवाजों में मार्क्स,
गांधी, अम्बेडकर आदि के नाम पर चलने वाला
सोच आगे का है मगर उनकी चेतना से संपन्न. ये छोटी-छोटी आवाजें और लड़ाइयां ही समता,
स्वतंत्रता और विश्व बंधुत्व के निर्माण की नई जमीन बनाएंगी.
जरा सोचिए कि जब तथाकथित मुख्य
धारा के राजनीतिक दल सिर्फ चुनावी धंधेबाजी में लगे हों, मीडिया फूहड़ मनोरंजन और
अंधविश्वास बेच रहा हो, धर्माचार्य तंत्र-मंत्र के साथ अफीमी अंधविश्वास का नशा
बेच रहे हों, सामाजिक कार्यकर्ता एन.जी.ओ. के जरिए कमाई करते हुए लड़ाई का भ्रम
पैदा कर रहे हों, तब उम्मीद किससे की जाए! अपनी निराश मनोदशा में हम जब-जब नजर
उठाते हैं, हमारी नजर परिधि की ऐसी ही ईमानदार कोशिशों पर टिकती हैं. पर्यावरण,
साहित्य, नाटक, राजनीति आदि क्षेत्रों में सक्रिय और प्राणप्रण से लगी इन कोशिशों
की अपनी सीमाएं होंगी और उनके अंतर्विरोध भी होंगे, किन्तु उसकी नीयत में खोट न
मिलेगी.
नलिन विलोचन शर्मा ने साहित्य के इतिहास दर्शन
पर बात करते हुए कहा है कि साहित्य का इतिहास वस्तुतः गौण लेखकों का इतिहास होता
है. आशय यह है कि बड़े और महान लेखक जिस वातावरण की उपज होते हैं, उसके निर्माण में
बुनियादी भूमिका गौण लेखकों की ही होती है. महानों की चमक से चौंधियाती हमारी आंखें
अकसर गौण लेखकों की भूमिका की अनदेखी करती हैं. हिंदी के जो महान लेखक आज इतिहास
के पन्नों पर दिखते हैं, उनका इतिहास लिखते हुए उनकी पृष्ठभूमि पर भी हमारी नजर
होनी चाहिए. हम जब अपने साहित्य और पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डालते हैं तो हैरत
होती है कि बड़े नगरों के साथ छोटे-छोटे शहरों और कस्बों की सक्रियताओं ने कितनी
बड़ी भूमिका निभाई है. लहेरियासराय, आरा, खंडवा, अजमेर, मिर्जापुर आदि कुछ छोटे शहर
इतिहास के पन्नों में अपनी चमक के साथ मौजूद हैं और मौजूद हैं वहां से निकलने वाली
पत्रिकाएं, जिन्होंने न सिर्फ नई रचनाशीलता की जमीन तैयार की, बल्कि इतिहास बनाने
की भी शुरुआत की.
‘समकालीन सोच’ तो एक
बहाना है. मैं इसके जरिए हिंदी की उन सैकड़ों पत्रिकाओं की ओर आपका ध्यान चाहता हूं
जो अपने-अपने शहरों-कस्बों में इस नाउम्मीद और मायावी पूंजी के दौर में नई पीढ़ी के
लिए ‘लाइट हाउस’ की तरह हैं. उनमें छपकर या उनके द्वारा आयोजित छोटी-छोटी
बैठकों में शामिल होकर नए लेखक वह तमीज और संस्कार पाते हैं, जो उन्हें आज न तो
कोई नेता दे रहा है, न धर्माचार्य, न मीडिया और न कोई समाजसेवी. सेकुलर सोच और
आधुनिक दृष्टि के निर्माण में जगह-जगह अलख जगाती इन दर्जनों पत्रिकाओं की भूमिका
बड़ी जगहों और बड़े घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं की तुलना में ज्यादा सक्रिय और
रचनात्मक है. क्या ही अच्छा हो कि हर कस्बे और हर मोहल्ले में पी.एन. सिंह जैसे
लोग हों और ‘समकालीन सोच’ जैसी पत्रिकाएं हों और उनके प्रकाश-वृत्त में नया
आकर ग्रहण करता, छोटा ही सही, लेखकों-पाठकों का वर्ग हो. दुनिया बड़े प्रयासों से
ही नहीं, छोटे प्रयासों से भी सुन्दर बनती है.
सर, आपने पीएन सिंह के बारे में बिल्कुल सही लिखा है। मैं पीएन सिंह को पढ़ता रहा हूं। उनसे एकाध बार बात भी की है। बनारस में उनका भाषण सुनकर मुग्ध हो गया। वह गाजीपुर में काफी सक्रिय रहे हैं। मुझे लगता है कि अगर वह गाजीपुर के बजाय किसी बड़े शहर में रहे होते तो उनकी गणना बड़े विचारकों में होती।
ReplyDelete