Friday, 16 March 2018

आलोचना के शुक्ल पक्ष पर प्रश्न

यह निरा संयोग है कि शुक्ल ‘सरनेम’ रामचन्द्र शुक्ल के साथ जुड़ा है. लेकिन वे हिंदी आलोचना के शुक्ल पक्ष हैं, यह संयोग नहीं है. यह उनका अर्जित किया हुआ आलोचनात्मक विवेक है, अंधे के हाथ लगी बटेर नहीं. किसी जाति, धर्म, कुल, क्षेत्र आदि के कारण महिमान्वित होने वालों में वे नहीं हैं. उनके मानस का निर्माण बीसवीं सदी की वैज्ञानिक उपलब्धियों की रोशनी में हुआ है. वे ज्ञान-विज्ञान के नए विचार का स्वागत करते हैं, चाहे वह पश्चिम से ही क्यों न आते हों. वे न अपना सर्वोत्तम छोड़ते हैं और न पश्चिम के सर्वोत्तम से मुँह  मोड़ते हैं. यही कारण है कि हिंदी की  परलोकवादी साहित्य-समझ को बदलकर लोक के धरातल पर प्रतिष्ठित करने में वे सफल होते हैं और आलोचना का शुक्ल पक्ष निर्मित करते हैं.
          लेकिन आलोचना के इस शुक्ल पक्ष को कृष्ण पक्ष मानने वालों की भी कमी नहीं है. शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि और आलोचना उनके जीवन काल में और उसके बाद के समय में भी  प्रश्नांकित होती रही है. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी इतिहास दृष्टि पर प्रश्न उठाया. मुसलमानी राज्य की स्थापना के प्रतिक्रियास्वरूप भक्ति आन्दोलन के उद्भव के शुक्ल जी के प्रस्ताव को खारिज करते हुए उन्होंने उसका संबंध दक्षिण की आलवार भक्ति से जोड़ा. जिन निर्गुणपंथी संतों को शुक्ल जी ने कोई ख़ास महत्त्व नहीं दिया था, उसे उन्होंने ‘भारतीय चिंता का स्वाभाविक विकास’ कहा. नामवर सिंह ने उनके द्वारा रेखांकित धारा को ‘दूसरी परंपरा की खोज’ की संज्ञा दी. इतिहास-दृष्टि और आलोचना संबंधी शुक्ल जी के महान प्रदेय को खारिज करने का यह एक बड़ा प्रयत्न था. इन दोनों ने उनके द्वारा तथाकथित शास्त्र समर्थन के समानांतर लोक धारा को प्रतिष्ठित करने का काम किया. नलिन विलोचन शर्मा ने ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में शुक्ल जी पर ‘विधेयवादी’ होने का आरोप लगाया, नंददुलारे वाजपेयी ने भी शुक्ल जी की आलोचनात्मक मान्यताओं का कई प्रसंगों में खंडन किया. शुक्ल जी की इतिहास-दृष्टि और आलोचना-दृष्टि पर प्रश्न उठानेवाले इन आलोचकों में से किसी ने उन्हें  ब्राह्मणवादी नहीं कहा. ‘मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का एक पहलू’ (1955) नामक अपने प्रसिद्ध और मध्यकाल संबंधी एकमात्र लेख में मुक्तिबोध ने सगुण धारा की तुलना में निर्गुण भक्ति और खासकर तुलसी की तुलना में कबीर को अधिक आधुनिक माना और सगुण एवं तुलसी को अधिक महत्त्व देने के कारण शुक्ल जी को ‘पुराणमतवादी’ कहा. ब्राह्मणवादी उन्होंने भी नहीं बताया. मार्क्सवादी लेखकों में से एक रांगेय राघव ने अवश्य ही तुलसी पर और तुलसी समर्थक होने के कारण शुक्लजी पर तीखे प्रहार किए पर सीधे ब्राह्मणवादी उन्होंने भी नहीं कहा. कहने का अर्थ यह कि शुक्ल जी की आलोचना होती रही, वैचारिक विकास का तकाजा है कि आलोचना होनी चाहिए, पर उनके चिंतन को जातिवादी विमर्श में घसीटने की घटना हाल-फिलहाल की है. इधर के वर्षों में कुछ उत्साही मार्क्सवादी और कुछ दलित लेखक उन्हें सीधे-सीधे ब्राह्मणवादी कहने लगे हैं.
          प्रश्न है कि ब्राह्मणवाद क्या है? कोई उसका समर्थक हो तो वह क्यों निंदनीय हैं? क्या रामचंद्र शुक्ल ब्राह्मणवादी हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ के चलते शुक्ल उपनामधारी रामचंद्र को ब्राह्मणवादी कहा जा रहा है? इधर के वर्षों में राजनीतिक दलों की चुनावी गठजोड़ की तर्ज पर साहित्य में भी जातीय गठजोड़ की कोशिशें तेज हुई हैं. जिस तरह चुनावी गठजोड़ का आधार कोई विचारधारा, आदर्श आदि न होकर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना होता है, उसी तरह कुछ लेखक अपने को 'बहुजन' और शेष जातियों को ‘ब्राह्मणवादी’ या ‘द्विजजाति’ कहने लगे हैं. वे अपने बीच या भीतर के ब्राह्मणवाद पर बात नहीं करते हैं और भारतीय समाज की जटिलता की प्रायः अनदेखी करते हैं. क्या साहित्य में ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवाद विरोध इतना स्याह-सफ़ेद होता है? जो भी हो, इसकी छान-बीन तो होनी ही चाहिए कि शुक्ल जी की इतिहास-दृष्टि और आलोचना-दृष्टि में ब्राह्मणवादी तत्त्व हैं भी या नहीं. ऐसा इसलिए जरुरी है, क्योंकि हिंदी साहित्य के इतिहास और आलोचना का जो मजबूत आधार है वह उन्हीं द्वारा निर्मित है. उन्हें ब्राह्मणवादी मानने का मतलब है उस आधार पर प्रहार और उसको कमजोर साबित करना.
          ब्राह्मणवाद सुपरिभाषित पद नहीं है. इसका चलन हाल की घटना है. हिंदी रचना-आलोचना में इस पद का व्यवहार पहले से नहीं होता रहा है. जिस धार्मिक-सामाजिक प्रवृत्ति के आधार पर इसे ब्राह्मणवाद कहा जाता है उसे ही दलित नेता कांशीराम-मायावती ‘मनुवाद’ कहते रहे हैं. समाजवादी चिन्तक किशन पटनायक उस तरह की प्रवृत्ति के लिए ‘मनुवाद’ जैसे पद को ज्यादा उपयुक्त मानते हैं. कुछ लोगों का मानना है और मुझे भी इस तर्क में दम नजर आता है कि ब्राह्मणवाद कहने से जाने-अनजाने एक जाति विशेष को हम लक्षित करते हैं, जबकि उस तरह की प्रवृत्ति को माननेवाले गैर द्विज जातियों में भी हैं और बहुतेरे सवर्ण उस तरह की प्रवृत्ति के गहरे आलोचक रहे हैं और आज भी हैं. आखिर हम पूंजीवाद को ‘बनियावाद’ या ‘वैश्यवाद’ तो नहीं कहते ! इसलिए ‘मनुवाद’ ज्यादा उपयुक्त संज्ञा है. लेकिन समाज-विज्ञानियों के बीच ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द अधिक प्रचलित है और लगता है कि हिंदी में यह समाज-विज्ञान से ही आया है. बहरहाल, ‘मनुवाद’ को अधिक उपयुक्त मानते हुए भी यहाँ ‘ब्राह्मणवाद’ जैसे पद का बार-बार प्रयोग इसलिए किया गया है , क्योंकि इसी पद से शुक्ल जी पर प्रहार होते रहते हैं.
          जिसे ब्राह्मणवाद कहते हैं, उसे ठीक-ठीक कहीं परिभाषित किया गया हो, उसकी जानकारी इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है. लेकिन जिस तरह की प्रवृत्तियों को लेकर ब्राह्मणवाद संज्ञा चलती है उसे समझने की कोशिश की जा सकती है. ब्राह्मणवाद के मुख्य रूप से चार आधार कहे जा सकते हैं:
1.   वर्ण व्यवस्था
2.   अवतारवाद
3.   पुनर्जन्म
4.   कर्मकांड     
इन्हीं चार प्रवृत्तियों को जो माने और इनमें जिनका अटूट भरोसा हो, वह ब्राह्मणवादी कहा जाएगा. ऐसा व्यक्ति जाति से ब्राह्मण भी हो सकता है और गैर ब्राह्मण भी. वह ब्राह्मण के अलावा क्षत्रिय, वैश्य, पिछड़ा और दलित किसी भी जाति का हो सकता है. यूँ वर्ण व्यवस्था के अलावा बाकी तीन में कमोबेश भरोसा बौद्ध धर्म के अनुयायियों का भी है. बौद्ध धर्म को प्रगतिशील माननेवाले हिंदी के शुक्ल-विरोधी बहुतेरे लेखक सिर्फ वर्णव्यवस्था तथा मुसलमानी राज की स्थापना तक ही अपने को सीमित रखते हैं और अन्य आधारों पर बात नहीं करते.
जिसे ब्राह्मणवाद कहा जाता है वह इस देश की वर्चस्वशाली विचारधारा रही है और आज भी है. इसे भारत का प्रमुख ‘मोड ऑफ़ थिंकिंग’ कहा जा सकता है. इस ‘मोड ऑफ़ थिंकिंग’ से प्रभावित भारत की बहुसंख्यक आबादी का जिस भाववादी (Idealistic) जीवन-दर्शन में अटूट भरोसा है, उसका प्रकट रूप ब्राह्मणवाद ही है. हिन्दुओं में नास्तिक दर्शन भी लोकप्रिय रहा है. आस्तिक या भाववादी दार्शनिक परंपरा के समानांतर नास्तिक या पदार्थवादी दार्शनिक परंपरा भी भारत में हमेशा विद्यमान रही है. थोड़ी ही, पर नास्तिकों की भी आबादी हिन्दुओं में हमेशा से रही है. इसे ‘लोकायत’, ‘चार्वाक’ आदि नामों से जाना जाता है. भारतीय संस्कृति के निर्माण में इस दार्शनिक परंपरा की भी बड़ी भूमिका है. भाववादी दार्शनिक परंपरा के साथ नास्तिक परंपरा के संघर्ष और संवाद का लम्बा इतिहास है. चूँकि परिवर्तनशीलता का स्वीकार भारतीय संस्कृति का प्रधान गुण है, इसलिए दोनों दार्शनिक परम्पराएँ संघर्ष और संवाद के लम्बे इतिहास के साथ परिवर्तनशील बनी रही हैं.
भारतीय सामंतवाद को वैचारिक आधार देने में ब्राह्मणवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. कहा जा सकता है कि भारतीय सामंतवाद का इतिहास जितना लम्बा है उतना ही ब्राह्मणवाद का भी है. कहा यह भी जा सकता है कि यह यथास्थिति का समर्थक और सामाजिक प्रगति का विरोधी है. इस कारण समय-समय पर इसे चुनौतियाँ भी मिली हैं, कभी जैन धर्माचार्यों द्वारा तो कभी बौद्धों द्वारा, लेकिन ब्राह्मणवाद बना रहा. जैन और बौद्ध अपने धर्म का मार्ग इससे अलग बनाने में सफल हुए, लेकिन इसको अपदस्थ नहीं कर सके. भारतीय समाज की मुख्य धारा का ‘मोड ऑफ़ थिंकिंग’ ब्राह्मणवाद ही बना रहा. इसे वेद-शास्स्त्रों का समर्थन तो मिला ही, सत्ता का भी संरक्षण रहा- वह क्षत्रियों की सत्ता हो, मुसलमानों की हो या अंग्रेजों की. मुख्य धारा की इस वैचारिक-जीवन-पद्धति के समानांतर हाशिए के समाज के बीच अपनी-अपनी साधना-पद्धतियाँ अस्तित्व ग्रहण करती रही हैं और अपने लोगों के बीच लोकप्रिय भी होती रही हैं- जैसे, कबीरपंथ, रैदासीपंथ, दादूपंथ आदि. लेकिन ब्राह्मणवाद का स्थान लेने में असफल रही हैं. आखिर वह कौन-सी बात है जिसकी वजह से ब्राह्मणवाद बना हुआ है?
हिन्दू जीवन –दर्शन हमेशा एक नहीं रहा. वह बाहर की चुनौतियों, मसलन जैन, बौद्ध, सिद्ध-नाथ, निर्गुण पंथ, इस्लाम, ईसाइयत आदि के कारण जितना परिवर्तित हुआ, उससे अधिक उसके भीतर की चुनौतियाँ उसे परिवर्तन की ओर ठेलती रही हैं. इसलिए शंकराचार्य से रामानुज, वल्लभ, रामानंद, विवेकानंद, गाँधी तक आते-आते सनातनपंथियों को नई-नई चुनौतियाँ मिलती रहीं. शंकराचार्य के समय में हिन्दू जीवन-दर्शन का जो रूप था, उसे रामानुज, वल्लभ, रामानंद आदि आचार्यों ने बहुत अर्थों में बदला. विवेकानंद और गाँधी तक आते-आते हिन्दू जीवन-दर्शन आधुनिक अर्थ ग्रहण करने लगा और सनातनपंथियों से उसका संघर्ष होता रहा. विवेकानंद जब कहते हैं भारत शूद्रों का है या भविष्य शूद्रों का है और जब गाँधी दरिद्रनारायण की सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म कहते हैं; तब हिन्दू जीवन-दर्शन  नए रूप और स्वर में परिभाषित होता हुआ दिखाई देता है.क्या इसे ब्राह्मणवाद  कहा जाएगा?. हिन्दू धर्म के भीतर ब्राह्मणवादी जड़ता को चुनौती देती हुई यह नयी चेतना है जो नवजागरण की देन है. विवेकानंद और गाँधी का पूरा जीवन-दर्शन हिन्दू धर्म-दर्शन के छाते के जितना भीतर है उतना बाहर भी. जिस वेदांत दर्शन की व्याख्या के जरिए शंकराचार्य अपने दर्शन का विकास करते हैं, उसी वेदांत की व्याख्या रामानुज, वल्लभ आदि भी करते हैं और उनके सामाजिक अर्थ भिन्न हो जाते हैं. विवेकानंद और गाँधी भी उसी वेदांत का सहारा लेते हैं, और उनकी व्याख्या में बीसवीं सदी का सामाजिक अर्थ ध्वनित होने लगता है. इसलिए हिन्दू धर्म-दर्शन कोई स्थूल इकाई नहीं है, उसकी कोई एक किताब और एक ही देवी-देवता या एक ही तरह की उपासना-पद्धति नहीं जिसे कुछ प्रतीकों तक सीमित किया जा सके. सैकड़ों किताबों, देवी-देवताओं और उपासना-पद्धतियों के कारण वह दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए भले कौतुहल आलोचना का विषय हो, उसके छाते के भीतर आने वाले जन समाज के लिए जीवन-पद्धति और उपासना-पद्धति का एक खूब लचीला एवं व्यापक स्पेस रहा है. उसका मुख्य अंतर्विरोध जाति-व्यवस्था का श्रेणी क्रम है. सभी प्राणियों को समान माननेवाली दार्शनिक अवधारणा व्यवहार में जब जमीन पर उतरती है तो जातिमूलक भेद भाव में बदल जाती है. इसलिए रामानुज से लेकर गाँधी तक सभी दार्शनिकों-समाज सुधारकों ने जाति-व्यवस्था को लचीला बनाया, उसे झकझोरा और उसकी आलोचना की, क्योंकि जाति व्यवस्था सामाजिक प्रगति में बड़ी बाधा थी और आज भी है. हालाँकि कहा यह भी जाता है कि लोकतांत्रिक समाज में जाति-व्यवस्था धीरे-धीरे शिथिल हुई है, खान-पान और शादी-संबंधों में जातिगत भेद-भाव कम हुआ है. जो लोग इन परिवर्तनों की अनदेखी करके जातिगत भेद-भाव की बात करते हैं वे दरअसल जाति की राजनीति करने वाले लोग हैं. वे यह मानकर चल रहे हैं कि ब्राह्मणवाद अपरिवर्तनीय विचारधारा बनकर आज भी ज्यों का त्यों बरकरार है. शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी ऐसे ही लोग कहते हैं. सवाल यह है कि इस आरोप में कुछ सचाई है या यह निराधार है?
रामचंद्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी माननेवालों का मुख्य आरोप उनका वर्ण-व्यवस्था समर्थन है. विज्ञान समर्थक माने जानेवाले शुक्ल जी को यह आरोप विज्ञान-विरोधी और प्रगति-विरोधी साबित करता है. ऐसा कहना कितना सही है? शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी कहनेवाले लोग अपने पक्ष में जो तर्क देते हैं, उनमें कुछ प्रमुख हैं-
1. वर्णव्यवस्था के पोषक तुलसीदास का समर्थन करना,
2. लेनिन की निंदा करना,
3. मुसलमानी राज्य की प्रतिक्रिया में भक्ति आन्दोलन को देखना;
‘गोस्वामी तुलसीदास’ नामक अपनी पुस्तक के ‘लोकनीति और मर्यादावाद’ शीर्षक अध्याय में शुक्ल जी का यह कथन है, “गोस्वामी जी का समाज का आदर्श वही है जिसका निरूपण वेद, पुराण, स्मृति आदि में है; अर्थात् वर्णाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा”1. जिस वर्णाश्रम की प्रतिष्ठा तुलसीदास करना चाहते थे, वह आधुनिक दृष्टि से भेदभावकारी है, यह शुक्ल जी जानते हैं. उसी अध्याय में वे लिखते हैं; “जिस वर्णाश्रम धर्म का पालन प्रजा करती थी, उसमें ऊँची-नीची श्रेणियाँ थीं, उसमें कुछ काम छोटे माने जाते थे, कुछ बड़े. फावड़ा लेकर मिट्टी खोदनेवाले और कलम लेकर वेदांत सूत्र लिखनेवाले के काम एक ही कोटि के नहीं माने जाते थे. ऐसे दो काम अब भी एक दृष्टि से नहीं देखे जाते. लोकदृष्टि उसमें भेद कर ही लेती है. इस भेद को किसी प्रकार की चिकनी-चुपड़ी भाषा या पाखंड नहीं मिटा सकता”2. ऐसा कहनेवाले शुक्ल जी को ‘भेद करने वाली लोक-दृष्टि’ का ज्ञान है और उनकी आधुनिक दृष्टि को यह बात खटकती है. इसलिए वे मानस के रामराज्य प्रसंग में वर्णित वर्ण-व्यवस्था के उदार होने की बात करते हैं. वर्णाश्रम धर्म की भेदकारी नीति से वे आँख नहीं चुराते, उसकी अपने ढंग से व्याख्या करते हैं. रामराज्य प्रसंग में तुलसीदास का प्रसिद्ध दोहा है:
बरनाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग.
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहीं भय सोक न रोक..
संक्षेप में इस दोहे का सार यही है कि वर्ण व्यवस्था रामराज्य में मजबूती से कायम है और सभी अपने वर्ण के लिए निर्धारित काम ईमानदारी से करते हैं और सुखी हैं. रामचंद्र शुक्ल इसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं: “छोटे समझे जानेवाले काम करनेवाले बड़े काम करनेवालों को ईर्ष्या और द्वेष की दृष्टि से क्यों नहीं देखते थे? वे यह क्यों नहीं कहते थे कि ‘हम क्यों फावड़ा चलावें, क्यों दुकान पर बैठें?”3 यह प्रश्न उठाने के बाद वे यह व्याख्या करते हैं कि नीची श्रेणियों में समाज के प्रति कर्त्तव्य का भार कम था और ब्राह्मण-क्षत्रियों में लोकहित के लिए प्राणों को उत्सर्ग करने का भाव था. उनके शब्दों में: “उच्च वर्ग में अधिक मान या अधिक अधिकार के साथ कठिन कर्तव्यों की योजना और निम्न वर्गों में कम मान और कम सुख के साथ अधिक अवस्थाओं में आराम की योजना जीवन-निर्वाह की दृष्टि से सामंजस्य रखती थी”4. जीवन धारण करने के लिए जो कठिन काम हैं वे उच्च श्रेणी के और जो कम कठिन हैं वे निम्न श्रेणी के, यह सिद्धांत जब तक ठीक से काम करेंगे तब तक निम्न श्रेणी में ईर्ष्या भाव नहीं आएगा. यह बताने के बाद शुक्ल जी की टिप्पणी है: “वर्ण व्यवस्था की छोटाई बड़ाई का यह अभिप्राय नहीं था कि छोटी श्रेणी के लोग दुःख में ही समय काटें और जीवन निर्वाह के सारे सुभीते बड़ी श्रेणी के ही रहें”5.
ऊँची श्रेणियाँ जब अपने कर्त्तव्य यानी निजी सुख का त्याग और लोकहित के लिए तत्पर नहीं रहतीं, तभी नीची श्रेणियों में ईर्ष्या-असंतोष के भाव आते हैं. इस तरह की व्याख्या करने के बाद शुक्ल जी की वह विवादित टिप्पणी है जो उन्हें साम्यवाद विरोधी करार देती है. वह टिप्पणी है: “ऊँची श्रेणियों के कर्त्तव्य की पुष्ट व्यवस्था न होने से ही यूरोप में नीची श्रेणियों में ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार का प्राबल्य हुआ जिससे लाभ उठाकर लेनिन अपने समय में महात्मा बना रहा. समाज की ऐसी वृत्तियों पर स्थित ‘महात्म्य’ का स्वीकार घोर अमंगल का सूचक है”6. यह कथन बताता है कि शुक्ल जी लेनिन द्वारा संपन्न क्रांति के समर्थक नहीं हैं. अपने विवेचन के क्रम में वे इस तरह की बात करने वाली जनता को ‘मूर्ख’ और ‘जड़’ कहने से भी परहेज नहीं करते. वे तुलसीदास की लोक मर्यादा की व्याख्या उदारतापूर्वक करते हुए उच्च श्रेणी के लोगों द्वारा निम्न श्रेणी की जनता के सुख की सुरक्षा के लिए त्याग किए जाने की बात करते हैं पर स्पष्ट रूप से यह नहीं कहते कि वर्ण व्यवस्था सामाजिक भेद उत्पन्न करती है. वे आधुनिक काल में वर्ण व्यवस्था के विरोधी हैं लेकिन तुलसी प्रसंग में वर्ण व्यवस्था को लेकर उनका रवैया महात्मा गाँधी-सा है. यद्यपि वे गाँधी जी के समर्थक नहीं हैं. गाँधी जाति भेद नहीं मानते थे लेकिन वर्ण व्यवस्था के विरोध में भी नहीं बोलते थे. तुलसीदास प्रसंग में यह भी लगता है कि शुक्ल जी सामाजिक परिवर्तन के लिए बोल्शेविक क्रान्ति सरीखे अभियान को भी ठीक नहीं मानते क्योंकि उन्हें लगता है कि देर सबेर इसका परिणाम जनता को भुगतना पड़ता है.
शुक्ल जी पर दूसरा आरोप कबीर आदि निर्गुणपंथी कवियों की कविता को कला से हीन मानने का है. वे सिद्धों-नाथों की वाणी को ‘सांप्रदायिक शिक्षा मात्र’ मानते हैं, उसमें उन्हें कविता नहीं दिखाई देती. वे कबीर की ‘प्रतिभा’ की प्रशंसा करते हैं लेकिन साथ ही उन्हें ‘दर्पोक्तियाँ हाँकनेवाला’ भी कहते हैं. कुल मिलाकर वे निर्गुण भक्त कवियों द्वारा लिखे गए साहित्य को कला की दृष्टि से हीन समझते हैं. उनकी काव्य रूचि में तुलसी, सूर, जायसी तो ऊँचे आसन के हकदार हैं, लेकिन निर्गुणपंथी नहीं. वे कबीर को या दूसरे निर्गुणपंथियों को जाति के कारण कम महत्त्व देते हैं या अपनी कसौटी पर कवित्व की कमी के कारण? जाति-धर्म के कारण महत्त्व देना था तो जायसी को भी नहीं देते? प्रश्न है कि अपनी काव्य कसौटी पर किसी कवि को महत्त्व देना या न देना, चाहे वह जिस जाति-धर्म का हो, जातिवाद या ब्राह्मणवाद कैसे है?
शुक्ल जी को पता है कि वर्ण व्यवस्था पिछले जमाने की चीज है. आधुनिक समाज-व्यवस्था जाति के सहारे नहीं चल सकती. इसलिए अपने प्रिय कवि तुलसीदास की वर्ण व्यवस्था समर्थक बातों की वे उदारतापूर्वक यथासंभव आधुनिक व्याख्या करने की कोशिश करते हैं, लेकिन जहाँ उनके तर्क चूक जाते हैं, वहाँ वे मासूम-सा तर्क देते हैं: “जातीय पक्षपात से उस विरक्त महात्मा को क्या मतलब हो सकता है!”7 उसके बाद वे तुलसी की जाति-विरोधी दो पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं:
लोग कहे पोचु सो न सोचु न संकोचु मेरे,
व्याह न बरेखी जाति पाँति न चहत हौं..
अन्यत्र भी स्त्री प्रसंग में वे ऐसा ही मासूम-सा तर्क देते हैं: “वैरागी समझकर उनकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए”8. इससे पता चलता है कि तुलसी के वर्ण व्यवस्था समर्थन और नारी निंदा को वे ठीक नहीं मानते, पर उन्हें भक्तिकाल का सुमेरु  कवि भी मानते हैं. तुलसी के कवित्व की असाधारणता और उनके वर्ण व्यवस्था समर्थन के बीच चुनाव का वक्त आने पर अंततः वे उनकी काव्य-कला पर ही रीझते हैं, वर्ण-व्यवस्था वाले पक्ष की लीपापोती करके आगे बढ़ जाते हैं. तुलसी के यहाँ वर्ण व्यवस्था समर्थन है तो भक्ति के धरातल पर वर्ण व्यवस्था विरोध भी है. शुक्ल जी तुलसी के इस अंतर्विरोध के बावजूद उन्हें बड़ा कवि मानते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि अंतर्विरोध की अनदेखी न करने पर संसार का कोई भी महान कवि आलोचना से परे नहीं बचेगा. यह सही है कि जाति प्रथा पर शुक्ल जी अपने समय के और बाद के दूसरे नेताओं मसलन भगत सिंह, अम्बेडकर, लोहिया आदि की तरह या आज के जाति-प्रथा विरोधी लेखकों की तरह नहीं बोलते हैं. यूँ तुलसी प्रसंग में उनकी नरमी या अनदेखी या लीपापोती से अलग देखें तो जाति व्यवस्था विरोध के सवाल पर वे बहुत तीखे और स्पष्ट हैं.
          ‘गोस्वामी तुलसीदास’ (1923) पुस्तक के प्रकाशन के कुछ महीनों बाद उन्होंने ‘जाति व्यवस्था’ (1924) शीर्षक एक जबर्दस्त टिप्पणी लिखी, जिसमें उन्होंने जाति प्रथा पर जोरदार हमला किया था. वह टिप्पणी चूँकि अंग्रेजी में थी और उनकी किसी पुस्तक में नहीं थी, इसलिए उस ओर किसी का ध्यान नहीं गया था और शुक्ल विरोधियों को उन्हें वर्ण व्यवस्था समर्थक आलोचक कहने में सुविधा हुई. अपनी इस टिप्पणी में शुक्ल जी का मत है कि जाति व्यवस्था संसार में कहीं नहीं है, यह सभ्य समाज की चीज नहीं, यह भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल है, इसे हटाना जरुरी है नहीं तो देशभक्ति की मृत्यु निश्चित है. टिप्पणी का प्रारम्भ इस प्रकार होता है: जाति संस्था ने प्रजाति की शुद्धता को सुरक्षित रखने का असफल प्रयत्न किया है. इतिहास का हर छात्र जानता है कि भारतीय रक्त शक, यवन, यूची, हूण, मंगोल, आर्य  तथा  द्रविण रक्तों का मिश्रण है. जाति व्यवस्था के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसने मनुष्य का स्तरों और श्रेणियों में रूढ़ विभाजन कर दिया है...कुलीन और ऊपर से दैवीय कहे जाने वाले ब्राह्मण अन्य सबको हेय दृष्टि से देखते हैं. क्रमशः प्रत्येक जाति अपने से नीची जाति को तुच्छ समझती है. इस तरह हम हतभाग्य अस्पृश्यों और वर्गहीन जाति बहिष्कृतों के विशाल जन समूह तक नीचे उतरते हैं. इस प्रकार जाति व्यवस्था हार्दिक सहयोग या प्रतिक्रिया,प्रेम ,विश्वास,पारस्परिक प्रभाव या आचरण की स्वतंत्रता के अवरोध का कारण बनती है9.
यहाँ ध्यान देने की बात है कि हमलोग जातिगत रक्त की शुद्धता के प्रश्न पर अक्सर हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘अशोक के फूल’ (1948) का हवाला देते हैं और उनका यह कथन दुहराते है: “रवीन्द्रनाथ ने इस भारतवर्ष को ‘महामानवसमुद्र’ कहा है. विचित्र देश है यह. असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्भ आए न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष बनाने में अपना हाथ लगा गईं. जिसे हम हिन्दू रीति नीति कहते हैं- वह अनेक आर्य और आर्येत्तर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है....हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है. देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है. सब कुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है. शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्छा) वह गंगा की अबाधित अनाहत धारा समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है”.  हजारी प्रसाद द्विवेदी के बहुत पहले यह बात शुक्ल जी कह चुके हैं. इस विषय पर यदि हमलोग द्विवेदीजी को उद्धृत करते हैं तो अवश्य करें, लेकिन इतना तो ध्यान रखें कि शुक्ल जी को गलत सन्दर्भ में उद्धृत न करें.
शुक्ल जी को वर्ण व्यवस्था समर्थन के साथ सांप्रदायिक चेतना संपन्न इतिहासकार कहने का भी उत्साह इधर के वर्षों में दिखाई देने लगा है. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो इतिहास के सन्दर्भ में मुसलमानी राज्य की स्थापना से पैदा हुई निराशा के फलस्वरूप भक्ति के जन्म लेने वाली शुक्ल जी की स्थापना को तथ्य से परे बताया था और उसे सिद्धों-नाथों की परंपरा का विकास कहा था, लेकिन आगे चलकर शुक्ल विरोधियों ने उन्हें सांप्रदायिकता के घेरे में ला दिया. ऐसा कहते हुए यह भुला दिया जाता है कि जायसी को ‘डिसकवर’ करने का काम शुक्ल जी ने किया था और उन्हें सूर और तुलसी के बराबर रखा था. वे यदि मुसलमान विरोधी थे तो यह सब क्यों कर रहे थे? शुक्ल जी आत्यंतिक रूप से नास्तिक थे या नहीं यह तो नहीं मालूम, लेकिन यह तय है कि साहित्य के मूल्यांकन में धर्म और ईश्वर का आधार वे जरा-सा भी नहीं लेते. धर्म के बारे में उनके विचार क्या थे, यह जानने की फुर्सत विरोधियों को नहीं है. शुक्ल जी का 1924 में ही अंग्रेजी में लिखा हुआ एक निबंध है- ‘सभ्य संसार का भावी धर्म’. अपने इस निबंध में वे विज्ञान सम्मत नए धर्म की वकालत करते हैं. जो भी धर्म दुनिया में हैं, वे सब अपर्याप्त हैं. वे कहते हैं कि पुराने धर्मों के युग का अंत हो रहा है और विज्ञान सम्मत नए धर्म का युग प्रारंभ होने वाला है. उनका कथन है:जिनका विश्वास है कि मानव-स्वभाव में मानवीय दुर्बलताओं के साथ साथ मानवोचित उन्नतिशीलता भी मौजूद है और तमाम कठिनाइयों के होते हुए भी कभी न कभी मनुष्य उन पर विजय प्राप्त करेगा ही. ऐसे लोगों में इस समय इस बात की खास तलाश है कि इस वर्तमान अस्त-व्यस्त अवस्था का अंत कैसे होगा. इन तमाम घटनाओं का रुख किस ओर है. इन्हीं लोगों का एक दल यह समझता है कि इस व्यापक विप्लव का प्रभाव संसार के धार्मिक जीवन पर भी पड़ेगा और उसमें एक गहरा परिवर्तन होगा. उनका ख्याल है कि जहां संसार में,लोगों में विरोधी दलों के प्रति अविश्वास बढ़ता जाता है, वहाँ साथ ही संसार की वर्तमान अवस्था का एक लक्षण यह भी है कि संसार भर के सभी देशों की दलित जातियों में एक प्रकार की पारस्परिक सहानुभूति भी है. मजदूर, अराजकतावादी, स्त्रियाँ, स्काउट्स, काली जातियां-सभी अपने संगठनों का अन्तर्जातीय रूप देना चाहती हैं भौगोलिक हद्दों की अवहेलना करके पारस्परिक सहयोग करने के लिए तैय्यार हैं. ‘संघे शक्ति कलियुगेके सिद्धांत को लोग चरितार्थ करके दिखा रहे हैं. रेल, तार, छापेखाने और अख़बारों ने दुनिया को इतना तंग और सन्निकट कर दिया है कि एक दूसरे के आदर्शों को अब थोड़ी-सी चेष्टा करने पर सहज ही समझ सकते हैं10. नए संसार का सपना देखनेवालों को शुक्ल जी ने आशावादी कहा है. उन्होंने आशावादियों का जोरदार पक्ष लिया है और लिखा है, इन सभी बातों को वे आशावादी निरीक्षक संसार के धार्मिक जीवन के लिए शुभ लक्षण समझते हैं. यद्यपि वे इस बात से भी अपरिचित नहीं हैं कि इन सब बातों के होते हुए भी संसार के वर्त्तमान संगठित धर्म के अधिकारी,चाहे वे ईसाई पादरी हों अथवा हिन्दू पंडित,मुसलमान मुल्ला या बौद्ध भिक्षु, अपने पुराने ढंग पर ही चले जाते हैं, नई आकांक्षाओं और नए उत्साह से लाभ नहीं उठाते और उन्नतशील उदार व्यक्तियों को उच्छृंखल कहकर अपने-अपने मंडल से निकालने पर उद्यत हो जाते हैं. पुरोहितों, पुजारियों और पंडितों की इस अदूरदर्शिता पर खेद प्रकट करते हुए भी आशावादी घबराते नहीं, बल्कि इसे भी परिवर्तन का एक प्रामाणिक लक्षण ही समझते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि धार्मिक संस्थाओं की यह कट्टरता भी इस बात की सूचना देती है कि एक धार्मिक युग का अंत हो रहा है और दूसरे का आरम्भ11.
रामचंद्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी कहते हुए यह विचार नहीं किया जाता कि वे विज्ञान के समर्थक और रहस्यवाद के विरोधी थे. विज्ञान और वैज्ञानिक चिंतन के समर्थन में उन्होंने भरपूर लेखन किया. वे साहित्य को अध्यात्म से जोड़े जाने के भी विरोधी थे. किसी भी धार्मिक कसौटी को साहित्य के मूल्यांकन का आधार बनाए जाने के वे विरुद्ध थे. वे यदि सिद्धों, नाथों और निर्गुण पंथियों के योग कुण्डलिनी, रहस्यवाद के विरोधी थे तो छायावादियों के रहस्यवाद के भी. रहस्यवाद की तरह साहित्य में कलागत चमत्कार को भी वे नापसंद करते थे. उन्हें केशव और बिहारी दोनों की कविताओं में जो शिल्पगत चमत्कार है, पसंद नहीं था. उन्हें ब्राह्मणवादी कहकर जब लांछित किया जाता है तब जानबूझकर इस बात की अनदेखी की जाती है. इस बात की भी अनदेखी की जाती है कि जर्मन दार्शनिक-वैज्ञानिक हैकल की प्रसिद्ध पुस्तक ‘रिडल्स ऑफ़ यूनिवर्स’ का ‘विश्व प्रपंच’ (1920) नाम से उन्होंने अनुवाद किया था और उसकी लम्बी भूमिका लिखी थी. हैकल की इस पुस्तक के कारण यूरोप में तहलका तो मचा ही,पादरियों के बीच हड़कंप मच गया. इस किताब की खूब बिक्री हुई और इसके अनुवाद भी खूब हुए. शुक्ल जी के शब्दों में: ‘अकेले जर्मनी में दो महीने के भीतर इसकी नौ हजार प्रतियाँ खप गईं. यूरप की सब भाषाओं में इसके अनुवाद निकले. अंगरेजी की तो लाखों कॉपियां पृथ्वी के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक पहुँच गईं. इस पुस्तक ने सबसे अधिक खलबली पादरियों के बीच डाली जिनकी गालियों से भरी हुई सैकड़ों पुस्तकें इसके प्रतिवाद में निकली’12.
यह पुस्तक ईश्वरीय सत्ता, धर्म और धार्मिक पाखण्ड पर चोट करती है और जीवन और जगत की उत्पत्ति के तार्किक और वैज्ञानिक आधार का समर्थन करती है. शुक्ल जी चाहते थे कि हिंदी समाज में भी इस चेतना का विकास हो. इसलिए उन्होंने इसका अनुवाद किया और लम्बी भूमिका भी लिखी. अपनी भूमिका में उन्होंने जोरदार ढंग से वैज्ञानिक दृष्टि के विकास पर जोर दिया. एक जगह वे धर्मों के बीच लड़ाई-झगड़े की व्यर्थता बताते हुए और ईश्वर संबंधी विभिन्न मत-मतान्तर का खंडन करते हुए लिखते हैं: “अब तक जो कुछ लिखा गया उससे शिक्षित जगत के ज्ञान की वर्त्तमान स्थिति का कुछ आभास मिला होगा और यह स्पष्ट हो गया होगा कि नाना मतों और मजहबों की विशेष स्थूल बातों को लेकर झगड़ा टंटा करने का समय अब नहीं है. सब मतों और साम्प्रदायों में धर्म और ईश्वर की जो सामान्य भावना है उसी का पक्ष अब शिक्षित पक्ष के अंतर्गत आ सकता है. ईश्वर साकार है कि निराकार, लम्बी दाढ़ी वाला है कि चार हाथ वाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्तिं पूजने वालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठानेवालों से, इन बातों पर विवाद करने वाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे. इसी प्रकार सृष्टि के जिन रहस्यों को विज्ञान खोल चुका है उनके संबंध में जो प्राचीन पौराणिक कथाएँ और कल्पनाएँ (6 दिन में सृष्टि की उत्पत्ति, आदम हौवा का जोड़ा, चौरासी लाख योनि इत्यादि) हैं वे अब ढाल तलवार का काम नहीं दे सकतीं. अब जिन्हें मैदान में जाना हो वे नाना विज्ञानों से तथ्य संग्रह करके सीधे उस सीमा पर जाएँ जहाँ दो पक्ष अड़े हुए हैं- एक ओर आत्मवादी, दूसरी ओर अनात्मवादी, एक ओर जड़वादी, दूसरी ओर नित्य चैतन्यवादी. यदि चैतन्य की नित्य सत्ता सर्वमान हो गई तो फिर सब मतों की भावनाओं का समर्थन हुआ समझिए, क्योंकि चैतन्य सर्वस्वरुप है. नाना भेदों में अभेद दृष्टि ही सच्ची तत्त्व दृष्टि है. इसी के द्वारा सत्य का अनुभव और मतमतान्तर के राग द्वेष का परिहार हो सकता है”13. भूमिका के साथ ‘जाति व्यवस्था’ और ‘सभ्य संसार का भावी धर्म’ शीर्षक निबंध यदि कोई पढ़ ले तो उससे उनके वास्तविक रूप का पता चलेगा. मैनेजर पाण्डेय ने इस तरह की सामग्री का अध्ययन किए जाने पर जोर देते हुए यह ठीक ही लिखा है- “जो लोग रामचंद्र शुक्ल को रोज-रोज ब्राह्मणवादी घोषित करते रहते हैं वे अगर अपने पूर्वग्रहों से मुक्त होकर इस निबंध को पढ़े तो शुक्ल जी के बारे में उनकी राय बदल सकती है, लेकिन आज के समय में मुश्किल ही लगता है”14.
रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी के नए साहित्यशास्त्र की नींव रखी. यह नया साहित्यशास्त्र, धर्म, जाति, साम्प्रदायिकता आदि सामाजिक बुराइयों के विरोध और लोक के गहरे स्वीकार से तैयार हुआ. उन्होंने साहित्य की किसी भी परलोकवादी, चमत्कारवादी, रहस्यवादी आधार का विरोध किया और हिंदी साहित्य को लोक की ठोस धरती पर प्रतिष्ठित किया. उन जैसा पाठ का मास्टर हिंदी आलोचना में दूसरा न हुआ. उन्होंने यदि कहा कि ‘केशव को कवि ह्रदय नहीं मिला था’ तो कोई दूसरा आलोचक लाख मेहनत के बावजूद केशव को कवि ह्रदय नहीं दिला सका. उन्हें तुलसी के राम इसलिए प्रिय नहीं हैं कि वे वर्णाश्रम व्यवस्था कायम करनेवाले राजा हैं, वे इसलिए प्रिय हैं कि वे प्रजा रक्षक और प्रजा वत्सल हैं तथा उनमें कर्म का सौन्दर्य है. इस तरह  शुक्ल जी जिन साहित्यिक प्रतिमानों को प्रतिष्ठित करते हैं क्या वे ब्राह्मणवाद को मजबूत करनेवाले साहित्यिक प्रतिमान हैं?
ऊपर भाववादी हिन्दू दार्शनिक परंपरा के बदलते हुए स्वरुप की चर्चा की गई है. कहा गया है कि शंकराचार्य से लेकर विवेकानंद-गाँधी तक भाववादी धर्म-दर्शन परिवर्तनशील रहा है और युग के अनुरूप अपने को ढालता रहा है. भाववादी हिन्दू दार्शनिक परंपरा के भीतर परिवर्तनशीलता के जो तत्त्व हैं उनका जड़वादी लोग हमेशा विरोध करते रहे हैं. बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, जो रामचंद्र शुक्ल का रचनाकाल है, इस भाववादी हिन्दू समाज के छाते के भीतर भी दो तरह के लोग हैं-
(1)   वे जो लकीर के फ़क़ीर- जड़वादी  हैं और परिवर्तन को नकारते हैं.
(2) वे जो परिवर्तन के साथ है, जो ज्ञान-विज्ञान की नई उपलब्धियों से परिचित हैं और उससे प्रसूत नई चेतना से संचालित हैं और जड़ता के विरोधी हैं.
किसी को ब्राह्मणवादी कहते वक्त इस फर्क को ध्यान में रखना जरुरी है. इस फर्क को ध्यान में रखे बिना दोनों- परिवर्तन विरोधियों और परिवर्तन के समर्थकों- को ब्राह्मणवादी कह दिया जाता है. ब्राह्मणवादी या मनुवादी उपर्युक्त पहली श्रेणी के लोगों को ही कहा जाना चाहिए. दूसरी तरह के लोगों में विवेकानंद, गाँधी आदि को रखा जा सकता है और हिंदी लेखकों में महावीरप्रसाद द्विवेदी,प्रेमचंद ,रामचंद्र शुक्ल आदि को . यहाँ यह ध्यान रखने की जरुरत है कि शुक्ल जी आत्यंतिक रूप से नास्तिक नहीं हैं, पर पदार्थवादी जीवन-दर्शन  के बहुत करीब  हैं. उनका जन्म निश्चित रूप से हिन्दू परिवार में हुआ था लेकिन आधुनिकता और विज्ञान सम्मत दृष्टि उन्होंने अर्जित की थी. उनके कुछ अंतर्विरोध भी है, जैसे वे तुलसी की वर्ण व्यवस्था का खुलकर विरोध नहीं करते. लेकिन सिर्फ इस वजह से उन्हें ब्राह्मणवादी नहीं कहा जा सकता. अंतर्विरोध पिछड़ेपन के ही सूचक नहीं कई दफ़ा विकास के भी सूचक होते हैं. शुक्ल जी के प्रसंग में भी यही बात कही जा सकती है. वे हिंदी में आधुनिकता और विज्ञान सम्मत दृष्टि के अगुआ लेखक हैं.
 ‘विश्व प्रपंच’ और उसकी भूमिका तथा शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी कहने वालों को ध्यान में रखते हुए मैनेजर पाण्डेय ने एक मजेदार बात कही है. यह कथन शुक्ल जी के महत्त्व का आकलन तो है ही, शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी कहनेवालों पर व्यंजक टिप्पणी भी है. उनका कथन है: “विश्व प्रपंच से यह सिद्ध होता है कि हिंदी नवजागरण के विचारक और लेखक केवल वेदों और उपनिषदों का न सारांश लिखते रहे हैं और न समर्थन ही करते रहे हैं. उन्होंने ऐसे विचारों को भी हिंदी में लाने और फ़ैलाने की कोशिश की थी जो अध्यात्मवाद और धार्मिक मकड़जाल को छिन्न भिन्न करते थे. लेकिन उनके इन कामों पर ध्यान देनेवाले लोग आजकल बहुत कम हैं. यहाँ तो ऐसे लोग हैं जो यह कहते रहते हैं कि एक तो हिंदी नवजागरण जैसा कुछ कभी था ही नहीं, और अगर वह कुछ था भी तो हिन्दू नवजागरण था. शिक्षित समाज में अपने ज्ञान पर भी गर्व करना अच्छा नहीं समझा जाता, लेकिन आजकल हिंदी में ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो अपने अज्ञान पर गर्व करते दिखाई देते हैं”15.
इसलिए यह कहने की जरुरत है कि रामचंद्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी कहने का अर्थ अपनी विरासत को कमजोर करने के साथ वैज्ञानिक और वस्तुवादी दृष्टि से वर्तमान और भावी पीढ़ी को वंचित करना है. उन्हें ब्राह्मणवादी कहने का अर्थ हिंदी की आधुनिक और विवेकवादी परियोजना पर पाटा चलाने के समान है. और अंतिम बात यह कि ब्राह्मणवादी कहने का एक बड़ा अर्थ उन्हें हिन्दुत्ववादी राजनीति के हवाले करना भी है.
सन्दर्भ:                                                           
(1)   आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली; भाग-1, सं. ओमप्रकाश सिंह, पृष्ठ-372
(2)   वही, पृष्ठ- 374
(3)   वही, पृष्ठ- 374-375
(4)   वही, पृष्ठ- 375
(5)   वही,
(6)   वही,
(7)   वही, पृष्ठ- 377
(8)   वही, पृष्ठ- 380
(9)   वही, खंड-4, पृष्ठ- 203
(10)वही, पृष्ठ- 193
(11)वही, पृष्ठ- 194
(12)विश्व प्रपंच प्रथम संस्करण का वक्तव्य, ग्रंथावली खंड-6, सं- ओमप्रकाश सिंह; पृष्ठ- 5
(13)वही, पृष्ठ- 81-82
(14)आचार्य रामचंद्र शुक्ल; वैचारिक परिभूमि, सं- ओमप्रकाश सिंह, पृष्ठ- 294
वही, पृष्ठ- 298   

6 comments:

  1. इधर के वर्षों में राजनीतिक दलों की चुनावी गठजोड़ की तर्ज पर साहित्य में भी जातीय गठजोड़ की कोशिशें तेज हुई हैं. जिस तरह चुनावी गठजोड़ का आधार कोई विचारधारा, आदर्श आदि न होकर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना होता है, उसी तरह कुछ लेखक अपने को 'बहुजन' और शेष जातियों को ‘ब्राह्मणवादी’ या ‘द्विजजाति’ कहने लगे हैं...

    Brilliant Perspective..

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  2. जितनी तार्किकता और सुबोध स्पष्टता से आप लिखते हैं, पढ़कर बड़ा संतोष और गर्व होता है कि बिहार का झंडा आप ऊंचा रखते हैं। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं!

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  3. साहित्य को जाति-भेद के स्तर तक नीचे गिराना उसकी हत्या करना ही है। साहित्य शब्द को ही निरर्थक करना है।

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  4. बेहतरीन लेख,यह लेख ऐसे लोगों को एक बार पुनः सोचने पर मजबूर कर देगा जो लोग आचार्य शुक्ल को ब्राह्मणवादी या कम्यूनल कहतें हैं

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  5. बहुत सारगर्भित और तार्किक लेख।जो लोग जातिवादी कुंठा से ग्रस्त होकर साहित्य में आते हैं उन्हें अपने को अपडेट करना चाहिए। जाति परिवार और धर्म का चयन कोई व्यक्ति जन्म के लिए नहीं करता ।व्यक्ति का आकलन उसके कृतित्व से ही संभव है।

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  6. बहुत ही सारगर्भित,ज्ञानवर्धक और जरूरी लेख... ��

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