Saturday, 10 March 2018

महात्मा गाँधी और भक्ति काव्य


अच्छी कविता मनुष्य को संस्कारित करती है. इसके सर्वोत्तम उदाहरण मोहनदास करमचंद गाँधी हैं. उन्हें भक्ति साहित्य का संस्कार नहीं मिला होता तो वे और चाहे जो होते महात्मा गाँधी नहीं हुए होते. उनके निर्माण में देश-दुनिया के अनेक लोगों और पुस्तकों की भूमिका है, लेकिन बड़ी भूमिका भक्ति साहित्य की है. आदमी के निर्माण में दर्शन, विचारधारा आदि की भी भूमिका होती है. लेकिन उस पर सबसे गहरा और कोमल प्रभाव कविता का होता है. जैसे घनानंद को उनकी कविता ने निर्मित किया- ‘मोहिं कौ मेरो कवित्त बनावत’,  वैसे ही गाँधी को भक्ति साहित्य ने निर्मित किया.
गाँधी पर भक्त कवियों के प्रभाव की छानबीन के लिए उनके जीवन-प्रसंग और लेखन को देखना जरूरी है. अपनी ‘आत्मकथा’ के दसवें प्रसंग धर्म की झांकी में उन्होंने भक्ति काव्य के प्रभाव को स्वीकार किया है. गाँधी मानते हैं कि धर्म का अर्थ ‘आत्मबोध’ या ‘आत्मज्ञान’ है. वे वैष्णव परिवार में पैदा हुए थे. उन्हें उस तरह के मंदिरों में जाने का मौका मिलता था. लेकिन वे वहाँ चलने वाले वैभवशाली आयोजनों से प्रभावित नहीं हुए. उन्होंने अपनी नौकरानी रंभा की चर्चा की है जिसने उन्हें रामनाम जपना सिखाया. गाँधी लिखते हैं.. “बचपन में जो बीज बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ. आज राम नाम मेरे लिए अमोघ शक्ति है. मैं मानता हूँ कि उसके मूल में रंभाबाई का बोया हुआ बीज है.”1 रंभाबाई के बाद उन्होंने अपने चचेरे भाई द्वारा राम रक्षा पाठ में नियमित शामिल होने की बात की है. रामायण पाठ की चर्चा करते हुए गाँधी ने लिखा है... “जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा वह था रामायण का पारायण....उस समय मेरी उम्र 13 साल की रही होगी, पर याद पड़ता है कि उनके पाठ में मुझे खूब रस आता था. यह रामायण श्रमण, रामायण के प्रति मेरे आत्मिक प्रेम की बुनियाद है. आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूँ.”2 उस समय गाँधी के मन पर जो असर हुआ उसकी चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है... “एक चीज ने मन में जड़ जमा ली- यह संसार नीति पर टिका हुआ है. नीति मात्र का समावेश सत्य में है. सत्य को तो खोजना ही होगा. दिन पर दिन सत्यता की महिमा मेरे निकट बढ़ती गई. सत्य की व्याख्या विस्तृत होती गई, और अभी भी हो रही है.”3
          हम जानते हैं कि गाँधी जी की प्रार्थना सभा में बहुत-सी प्रार्थनाएँ गाई जाती थीं. उनमें ‘रामधुन’ के साथ गुजराती संत कवि नरसीं मेहता का यह प्रिय भजन भी होता था-
वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे
पर दुख्खे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे
सकल लोक माँ सहने वन्दे, निंदा न करे केनी रे
वाच काछ मन निश्छल राखे, धन धन तेनी रे......
यह भजन गाँधी को क्यों प्रिय था? इसलिए कि इसके जरिए उनके वैष्णव संस्कार का सामाजिकीकरण होता था कि वैष्णव वह है जो किसी दीन-दुखी का दर्द समझता है आदि-आदि. इस पर टिप्पणी करते हुए बिनोवा भावे ने लिखा है: “.....उस वक्त साबरमती आश्रम में था. उस वक्त वैष्णव जण तो तेणे कहिए भजन समय-समय पर गाया जाता था. उसमें भक्त के लक्षण बताए हैं.... मेरी नजर के सामने बापू का जीवन था. इस वास्ते उनके जीवन में ये लक्षण किस तरह और कहाँ दृष्टिगोचर होते हैं, इसका विचार भी मन में चलता है. तब मेरे मन में आता कि लगभग सभी लक्षण बापू पर लागू होते हैं.”4  इससे पता चलता है कि गाँधी की राजनीति यदि लोकनीति की ओर हमेशा झुकी रही तो उसकी एक बड़ी वजह भक्ति साहित्य के आदर्शों का उनके जीवन में समावेश था. शब्द और कर्म की एकता, अपरिग्रह, त्याग, सत्य, सादगी, लोभ-लाभ रहित जीवन का जो उनका आदर्श था वह नरसीं मेहता एवं अन्य भक्त कवियों के कितना करीब था! यह अकारण नहीं है कि उनकी प्रिय पुस्तकों की सूची में तुलसीदास की रामायण भी थी. और यह भी अकारण नहीं है कि गाँधी के कारण हमारे स्वतंत्रता सेनानियों में त्याग-बलिदान, सच्चाई, सादगी और सेवा का भाव कमोबेश बना रहा.
          दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति से संघर्ष करने वाले बीसवीं सदी के महानायक महात्मा गाँधी को जब हम याद करते हैं तो देखते हैं कि संघर्ष में उनके दोनों हाथों में जो लड़ाई के हथियार हैं वे भक्त कवियों से लिए गए हैं. उनके एक हाथ में कबीर का चरखा था तो दूसरे हाथ में तुलसीदास का रामचरित मानस. चरखा के जरिए उन्होंने गुलाम भारत को स्वाबलंबन और श्रम की शिक्षा दी तो मानस से उन्होंने रामराज्य की अवधारणा ली जो समतामूलक समाज-रचना का उनका सपना था. कबीर के लिए चरखा सिर्फ रोजी-रोटी का जरिया ही नहीं था, वह उनकी आध्यात्मिक साधना का आधार भी था. कबीर मानते थे, जैसे वे जुलाहा बनकर चरखा चला रहे हैं, वैसे ही ब्रह्म रूपी जुलाहा दुनिया रूपी चरखे को चला रहा है. इस प्रक्रिया में जो संगीत फूटता है वही अनहद नाद है, जिसे उन जैसे साधक ही सुन पाते हैं. यूरोपीय रहस्यवाद की विशेषज्ञ और अँग्रेजी की कवयित्री एवलिन अंडरहिल ने ‘पोयम्स ऑफ कबीर’ (रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद की पुस्तक) की भूमिका में लिखा है कि कबीर अध्यात्म और उद्योग का मेल करते हैं और एक नयी संस्कृति को जन्म देते हैं. गाँधी भी जब चरखा कातते हैं तो सिर्फ उसे स्वाबलंबन के औज़ार के रूप में ही नहीं देखते, वे उससे निकलता संगीत भी सुनते  हैं. उसके एक-एक धागे में उन्हें कबीर की तरह ईश्वर दिखाई देता है. 1926 में यंग इंडिया में लिखी अपनी टिप्पणी चरखे का संगीत में वे लिखते हैं: “मैं जितनी बार चरखे पर सूत निकालता हूँ उतनी ही बार भारत के गरीबों का विचार करता हूँ. भूख की पीड़ा से व्यक्ति और पेट भरने के सिवा और कोई इच्छा न रखने वाले मनुष्य के लिए उसका पेट ही ईश्वर है. उसे जो रोटी देता है वही उसका मालिक है. उसके द्वारा वह ईश्वर के भी दर्शन कर सकता है. ऐसे लोगों को, जिनके हाथ-पैर सही सलामत हैं, दान देना अपना और उनका दोनों का पतन करना है, उन्हें तो किसी न किसी तरह के धंधे की जरूरत है, और वह धंधा, जो करोड़ों को काम देगा, केवल हाथ कताई का ही हो सकता है....इसलिए चरखे पर जो मैं सूत निकालता हूँ उसके एक-एक धागे में मुझे ईश्वर दिखाई देता है.”5   गाँधी के इस कथन का मिलान कबीर के ‘उद्योग और अध्यात्म’ के मेल वाले उद्यम से करने पर भक्ति काव्य और गाँधी-दोनों के नए अर्थ खुलते हैं. ‘उद्योग और अध्यात्म’ का मेल करनेवाले कबीर ने श्रमशील और गार्हस्थ संन्यास की नींव रखी थी. यह नए समाज की रचना का सपना था जिसे उन्होंने अपने कर्म और वाणी से जमीन पर उतारने की कोशिश की. आधुनिक युग में ऐसी कोशिश गाँधी ने की. उनका जीवन भी कबीर की तरह श्रम, सन्यास और गार्हस्थ की अद्भुत त्रिवेणी है!
          गाँधी कबीर के चरखा के जरिए जिस स्वाबलंबी और स्वतंत्र भारत का सपना देखते हैं वह श्रम और अध्यात्म के संगीत से भरा हुआ भारत है. इसी के साथ वे कुटीर उद्योगों के जरिए एक ऐसी आर्थिक और रोजगार नीति भी प्रस्तावित करते हैं जो मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते का बहुत ही सुंदर और कोमल उदाहरण है. वे जानते हैं कि बड़े बाँधों, बड़े कारखानों और बड़ी पूंजी के खेल से संचालित जो विकास नीति है वह थोड़े लोगों को सम्पन्न बनाती है और अधिक से अधिक लोगों को उजाड़ती है. गांधी ने चरखे के रूप में विकास की जो रुपरेखा देश के नीति-निर्माताओं के सामने रखी उसको न मानने का परिणाम आज हमारे सामने है. गाँव उजड़ रहे हैं, लोग विस्थापित हो रहे हैं और बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है. विकास का जो पूंजीवादी मॉडल हमने अख़्तियार किया है वह भारत जैसे देश में सफल नहीं होगा. गाँधी के ही विचारों को आगे बढ़ाने वाले लोहिया, किशन पटनायक और सच्चिदानद सिंहा जैसे विचारकों ने बार-बार इस बात को रेखांकित किया है कि पूंजीवाद जिन देशों में आया वह उपनिवेशों की लूट से संभव हो सका. भारत किसे उपनिवेश बनाएगा कि यहाँ पूंजीवादी विकास संभव होगा? अगर पूंजीवादी विकास की यह नीति रही तो देश में ही आंतरिक उपनिवेश बनेंगे. नर्मदा घाटी में विशाल बाँधों के निर्माण, वहाँ से विस्थापन की भारी समस्या और मेधा पाटेकर के संघर्ष को आज याद करें तो पूंजीवादी विकास नीति की व्यर्थता सामने आएगी और गाँधी के कुटीर उद्योग का महत्त्व भी समझ में आएगा.
          गाँधी की आलोचना उनके जिन राजनीतिक मुहावरों के लिए हुई उनमें एक पद रामराज्य भी है. यह पद उन्होंने तुलसीदास के रामचरितमानस के उत्तर कांड से लिया है. इसके जरिए वे समतामूलक भारत का स्वप्न देखते हैं. जाति, धर्म, अमीरी-गरीबी आदि का जो भेदभाव है उसकी समाप्ति का स्वप्न वे रामराज्य के रूपक में देखते हैं. गाँधी जाति-व्यवस्था को अपने तरीके से कमजोर करना चाहते थे. वे जातिगत भेदभाव के विरुद्ध थे. वे सामंती भारतीय मानस को श्रमशील भारत में बदलना चाहते थे. उनके रामराज्य में किसी तरह के भेद के लिए स्थान नहीं था. ‘राम प्रताप विषमता खोई’- तुलसी के रामराज्य के इस आदर्श को जीवन और समाज में उतारना चाहते थे. वे अपने को सनातनी हिन्दू मानते थे और अपने को वर्णव्यवस्था का समर्थक कहते थे, लेकिन वर्णों में जो भेदभाव है, उसके वे खिलाफ थे. वे भेदभाव रहित वर्णव्यवस्था के समर्थक थे. इसलिए वे सबके लिए श्रम करना अनिवार्य मानते थे. श्रम भेद के कारण ही जाति -भेद है. श्रम-भेद समाप्त होगा तो जाति-भेद भी समाप्त होगा, यह गाँधी जानते थे. जाति-भेद समाप्त करने का यह उनका अहिंसक एवं गाँधीवादी तरीका था. जिन लोगों को तुलसी के रामराज्य में सिर्फ वर्णव्यवस्था का समर्थन और हिन्दू मन दिखाई देता है उन्हें ‘गाँधी की कहानी’ लिखने वाले लुई फिशर का यह कथन ध्यान में रखना चाहिए कि “धर्म विहीन जिन्ना एक धार्मिक राज्य बनाना चाहते थे. पूर्णतया धार्मिक गाँधी धर्म निरपेक्ष राज्य चाहते थे.”6   भारत विभाजन पर अड़े जिन्ना को लुई फिशर ने भी समझाने की कोशिश की और विभाजन से उत्पन्न खतरे का संकेत किया तो जिन्ना ने उन्हें आदर्शवादी कहा. लुई फिशर ने लिखा है: “...गाँधी जी राष्ट्रीयता की लेही से भारत को एक करना चाहते थे. जिन्ना धर्म की बारूद का उपयोग करके उसके दो टुकड़े करना चाहते थे.7  मेरा खयाल है कि जिन्ना ने यदि भक्ति काव्य या सूफी कविता पढ़ी होती तो शायद वे दूसरे जिन्ना होते, तब शायद भारत-विभाजन नहीं होता, ऐसी भीषण त्रासदी न घटित होती!
          भक्त कवियों ने निजी मोक्ष को सामाजिक मोक्ष में बदल दिया. ‘कबीरा सोई पीर है जो जानै पर पीर’ या ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई’ का भाव उसका सर्वोपरि सन्देश बन गया. गाँधी ने जिस राम को लिया वह मूर्तियों में बसने वाला दसरथ नन्दन राम नहीं हैं- ‘मेरा राम खुद भगवान ही है.’8  वे मूर्ति पूजा नहीं करते थे- “मैं खुद मूर्तियों को नहीं मानता, मगर मैं मूर्ति पूजकों की उतनी ही इज्जत करता हूँ....”9  जिस राम को वे जपते थे, वह उनकी आत्मशक्ति एवं राष्ट्र सेवा का ही दूसरा रूप था. गरीब की सेवा में ही गाँधी ने मोक्ष माना: “....रामनाम से मनुष्य में अनासक्ति और समता आती है....गरीब से गरीब लोगों की सेवा किए बिना या उनके हित में अपना हित माने बिना मोक्ष पाना मैं असंभव मानता हूँ.”10  इस सामाजिक मोक्ष का ही परिणाम था कि भक्ति आंदोलन में बड़ी संख्या में निम्न जातियाँ और स्त्रियाँ शामिल हुईं . और यही स्थिति गाँधी के आंदोलन की भी है.
          भारत का भक्ति साहित्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में रचनात्मक विस्फोट का सबसे उज्ज्वल अध्याय है. साहित्यिक रचनाधर्मिता का ऐसा भव्य उत्सव उसके पहले नहीं हुआ था और शायद बाद में भी नहीं हुआ. संस्कृत और फारसी जैसी भाषाओं से अलग भारत की दर्जनों भाषाओं की रचनात्मक पहचान इस काल में कायम हुई. हजारों की संख्या में देश के लगभग सभी प्रदेशों में भक्त कवियों की बाढ़ आ गई. भक्ति काव्य के रूप में भारतीय भाषाओं के जरिए भाषायी वैविध्य का जो सुंदर माहौल निर्मित हुआ था आज उस पर खतरा उपस्थित हो रहा है. भूमंडलीकरण ने न सिर्फ आर्थिक साम्राज्यवादी पकड़ भारत पर बनानी शुरू कर दी है, बल्कि उसकी गिरफ्त में भारत का भाषाई वैविध्य भी है. अनेक क्षेत्रिय भाषाएँ संकट के दौर से गुजर रही हैं, जो कभी हमारी साहित्यिक, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम थीं. भारत के भाषाई वैविध्य को बचाने का एक बड़ा आधार भारतीय भाषाओं में रचा गया भक्ति काव्य है जिसे सामाजिक और आध्यात्मिक मुक्ति के लिए बार-बार पढ़ा जाना चाहिए.
          इस भाषाई वैविध्य को बचाने की सबसे बड़ी लड़ाई गाँधी ने लड़ी. वे मातृभाषा में शिक्षा और लिखा-पढ़ी के समर्थक थे. भक्तिकाल में जिस तरह मातृभाषाओं में रचनात्मक विस्फोट हुआ उसी तरह गाँधी युगीन भारत में भी भाषाई रचनात्मक विस्फोट हुआ. अंग्रेजी पढ़े-लिखे गाँधी की मातृभाषा गुजराती थी और वे गुजराती में ही लिखते थे. वे गुजराती के अच्छे लेखक थे. उनके जमाने के बहुत-से नेताओं ने अंग्रेजी में लिखा-पढ़ी की. लेकिन गाँधी गुजराती में ही लिखते रहें. उनके प्रिय लेखक रवीन्द्रनाथ ठाकुर थे जो अपनी मातृभाषा बांग्ला में लिखते थे और दूसरों को भी अपनी मातृभाषा में लिखने के लिए प्रेरित करते थे. मातृभाषा में रचनात्मक लेखन की शक्ति का पता गाँधी को भी था और रवीन्द्र को भी.
          भारत के भक्ति काव्य के जरिए सुंदर संसार का स्वप्न हमारे कवियों ने देखा. हर बड़े कवि के पास अपना एक स्वप्न लोक है- कबीर का अमरपुर, जायसी का सिंघलद्वीप, सूर का वृंदावन, तुलसी का रामराज्य. भक्त कवियों द्वारा देखे गए सुंदर संसार के सपनों के कुछ उदाहरण हैं. रैदास के सपने का तो कहना ही क्या! बेगमपुरा शहर को नाउ- जब वे कहते हैं तो एक ऐसे संसार की प्रस्तावना रखते हैं जो दुख रहित तो है ही, इतना अनुशासित है कि वहाँ किसी थानेदार, किसी बादशाह की जरूरत नहीं है. ऐसा स्वप्न 19वीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने देखा था जब उन्होंने वर्ग विहीन और राज्य विहीन समाज का प्रस्ताव दिया दिया था. ऐसा स्वप्न 20वीं सदी में महात्मा गाँधी ने रामराज्य के जरिए देखा था जो किसी भी तरह के भेद भाव से रहित था.
          12 मार्च 1930 को गाँधी ने साबरमती आश्रम से दांडी के लिए अपने 78 साथियों के साथ प्रस्थान किया. उद्देश्य था- नमक कानून को तोड़ना. इसीलिए इसे ‘नमक सत्याग्रह’ या ‘दांडी मार्च’ भी कहा जाता है. इस सत्याग्रह की सफलता को लेकर बहुतों में संदेह का भाव था. लेकिन कहा जाता है कि टैगोर को कोई संदेह नहीं था. कहा यह भी जाता है कि 1905 में लिखे उनके प्रसिद्ध गीत ‘एकला चलो रे....’ का पोस्टर प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बोस ने बनाया. और रात में चुपके-चुपके दांडी मार्च में गाँधी के चित्र बना-बनाकर जगह-जगह भेजे. यह साहित्य-कला की ओर से गाँधी के दांडी मार्च को नैतिक समर्थन था. आगे का इतिहास हम जानते हैं कि 78 लोगों की उस यात्रा में दिनों-दिन लोग जुड़ते गए और कारवाँ बनता गया. एक शायर की भविष्यवाणी सच हुई. रवीन्द्र का यह गीत गाँधी के ‘अभय मंत्र’ का ही दूसरा नाम है. साहित्य और समाज में ‘अभय’ की यह विरासत टैगोर और गाँधी को भक्ति काव्य परंपरा से मिली थी! यू. आर. अनंतमूर्ति ने ‘एकला चलो रे...’ गीत में अकेले व्यक्ति का जो बिम्ब रचा गया है उसकी तुलना गाँधी के दांडी मार्च से की है और कहा है कि साहित्य में जब बड़े बिम्ब आते हैं तो समाज में भी देर-सवेर उसकी परिणति दिखाई पड़ती है. दांडी के समुद्र में गाँधी ने एक मुट्ठी नमक उठाकर दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य को चुनौती दी थी. सामने समुद्र और क्षितिज का अनंत विस्तार था और आकाश की ओर तनी हुई गाँधी की मुट्ठी थी. साहित्य और समाज के इन बड़े बिम्बों को याद कीजिए, ये भारत और भारतीय जन के मुक्ति के बिम्ब हैं.       
भारत विभाजन के आगे-पीछे सांप्रदायिक दंगों में देश जब जलने लगा तब उस दौर के नेताओं में अकेले गाँधी थे जो घायल हो रही मनुष्यता को बचाने में लगे रहे. जब भारत और पाकिस्तान के सभी बड़े नेता ‘जश्न-ए-आज़ादी’  में मशगूल थे, अपने थोड़े-से साथियों के साथ अकेले गाँधी नोआखाली में जान हथेली पर लेकर दंगे की आग में जल रहे लोगों के बीच घूमते रहे. उनकी टोली पर हमले हो रहे थे, सबको जान का खतरा था, लेकिन गाँधी अभय होकर लोगों की प्राण रक्षा में जुटे रहे. वैसे माहौल में गाँव-गाँव घूमते हुए गाँधी और उनके साथी ‘रामधुन’ और ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए.....’ के साथ टैगोर का गीत ‘एकला चलो रे...’ भी गाते थे. इन गीतों के जरिए वे भय से ग्रस्त समाज में अभय का संचार कर रहे थे. गाँधी के यहाँ अभय और सत्याग्रह का जो भाव है, उस विरासत की कड़ी भक्ति काव्य से जुड़ी हुई है.
          गाँधी के अंतिम वर्षों में लगातार उनके साथ रहनेवाली उनकी प्रपौत्री मनुबेन गाँधी ने नोआखाली में ‘रामधुन’, ‘वैष्णव जन तो....’ और ‘एकला चलो रे...’ के साथ उनके उस अभियान का बड़ा ही जीवंत चित्र उपस्थित किया है. मनुबेन लिखती हैं: “बापू की नोआखाली की सच्ची यात्रा चंडीपुर से शुरू हुई. उस दिन चलने के पहले कई बहनों ने बापू को तिलक किया और सबने प्रार्थना की. बापू की सूचना थी कि उस दिन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ भजन गाया जाए. (यह भजन कभी प्रसंग से ही गाया जाता था, हमेशा नहीं.) लेकिन उसमें इतना फर्क कर दिया जाए कि हर कड़ी पर सिलसिले से ‘वैष्णव जन’ की जगह एक-एक बार ‘मुस्लिम जन’, ‘ख्रिस्ति जन’, ‘शीख जन’, ‘पारसी जन’, ‘हरिना जन’ रखा जाए. उन्होंने खुद भी गाने में सूर मिलाया था.”11   नोआखाली की ओर गाँधी की यात्रा के प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए मनुबेन आगे लिखती हैं: “चंडीपुर से ठीक सुबह 7:30 बजे एक हाथ मेरे कंधे पर रखे और दूसरे हाथ में डंडा लिए नारियल और सुपारी के वन में सबसे पहले कविवर टैगोर का ‘एकला चलो रे’ गीत गाते हुए बापू ने अपनी यात्रा शुरू की-
जदि तोर डाक शुने केओ ना आसे
तबे एकला चलो रे!
एकला चलो, एकला चलो,
एकला चलो रे......!”12  
 अपने जीवन के उस कठिन दौर में नरसीं मेहता जैसे भक्त कवि के साथ टैगोर को शामिल कर गाँधी ने दो समयों की कविताओं की न सिर्फ दूरी पाट दी बल्कि उन्हें नए अर्थ-संकेतों से भर दिया.
 हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने प्रसिद्ध निबंध मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है में लिखते हैं: “इस देश में हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, ब्राह्मण हैं, चांडाल हैं, धनी हैं, गरीब हैं- विरुद्ध संस्कारों और विरोधी स्वार्थों की विराट् वाहिनी हैं....इन समस्त विरोधों और संघर्षों से बड़ा और सबको छापकर विराज रहा है मनुष्य. इस मनुष्य की भलाई के लिए आप अपने आप को निःशेष भाव से देकर ही सार्थक हो सकते हैं. सारा देश आपका है, भेद और विरोध ऊपरी है, भीतर मनुष्य एक हैं.” इसके बाद वे कबीर को याद करते हैं-
कबीर इस संसार को समझाऊँ कै बार |
पूंछ जु पकड़े भेद का, उतरा चाहे पार ||
भेदभाव रखकर इस भव सागर से मुक्ति संभव नहीं है. यही सम्पूर्ण भक्ति काव्य का निष्कर्ष है और यही गाँधी के कर्म एवं जीवन का भी निष्कर्ष है. उनकी भक्ति निर्गुण-सगुण के मेल से बनी ऐसी भक्ति थी जिसमें सभी वर्गों और धर्मों की समाही थी. वे निर्गुण भक्ति के सगुण रूप थे.
          हिंदी में निर्गुण-सगुण विवाद और कबीर-तुलसी विवाद को जरूरत से अधिक महत्त्व खींचा गया. निर्गुण-सगुण का अंतर तो है लेकिन वह भक्ति काव्य का केंद्रीय भाव नहीं है और न उसके जरिए अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन का सही पता-ठिकाना मिलता है. असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, उड़ीसा के पंचसखा, महाराष्ट्र के वारकरी आंदोलन और दक्षिण के भक्ति काव्य के जरिए जिस  अभेदमूलक मानवीय संसार की रचना होती है उसे बार-बार समझने की जरूरत है. भक्ति काव्य का प्रभाव उस समय से लेकर आधुनिक काल तक हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर है और उसे बनाए रखने की जरूरत है. मराठी के लेखक भालचंद नेमाड़े ने वारकरी आंदोलन पर लिखते हुए जो लिखा है वह सम्पूर्ण भक्ति आंदोलन पर लागू होता है. वे लिखते हैं: “साहित्यिक संस्कृति का कोई भी अध्येता वारकरी आंदोलन में विकसित हुई असाधारण अभिव्यक्त शैली की उपेक्षा कर ही नहीं सकता. भारतीय मन की सर्जनशीलता का पिछले एक हजार वर्ष में सर्वाधिक अर्थपूर्ण उद्रेक ही भक्ति मार्ग का आंदोलन है. 17वीं सदी की शिवाजी की राजनीति से लेकर 20वीं सदी के महात्मा गाँधी तक के- भारतीय उप-महाद्वीप के विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक विद्रोही आंदोलनों पर इन संप्रदायों का सर्जनशील प्रभाव कम अधिक मात्रा में हुआ ही है......”13   
          दिनकर ने अपनी पुस्तक शुद्ध कविता की खोज की भूमिका में लिखा है कि क्रांति, कविता और ईश्वर को जीवन के समुच्चय में प्रवेश किए बिना नहीं समझा जा सकता. भक्तिकाल की कविता ईश्वर से संबंधित तो है ही, वह क्रांति भी है और कविता भी, जिसके लिए जीवन के विस्तार और गहराई में उतरने की जरूरत है. भक्ति सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है. उसके संस्कार से निर्मित गाँधी का जीवन और जीवन-संदेश भी एक सम्पूर्ण दृष्टि है. भक्ति को भक्त कवियों ने चार वर्णों से ऊपर पांचवां वर्ण माना और नए समाज का स्वप्न देखा. भक्ति काव्य से प्रभावित गाँधी भी अपने ‘सुराज’ में ऐसे ही समाज का सपना देखते हैं. 
रेमंड विलियम्स ने भविष्यवाणी की है कि समाजवादी व्यवस्था में कला की अलग से जरुरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि लोग स्वयं ही कला हो जाएँगे.14 मालूम नहीं कि उनकी यह भविष्यवाणी सच साबित होगी या नहीं, पर इतना तय है कि भारतवर्ष में जो भक्ति साहित्य रचा गया उसका साक्षात्कार जिसने भी किया वह स्वयं कविता हो गया. गाँधी हमारे समय में भक्ति कविता के चलते-फिरते उदहारण थे. वे बीसवीं शताब्दी में भक्ति काव्य के आधुनिक भाष्य थे.



संदर्भ सूची:                                                                                                              
1.   आत्मकथा; नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद-14, पुनर्मुद्रण - 2005, पृष्ठ सं. 27
2.   वही, पृष्ठ- 28
3.   वही, पृष्ठ- 30
4.   गाँधी: जैसा देखा-समझा विनोबा ने, सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी- 221001, वर्ष फरवरी, 1883, दूसरा संस्करण, पृष्ठ सं. 133-34  
5.   मेरे सपनों का भारत, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद-14, सातवाँ पुनर्मुद्रण- अप्रैल- 2004 पृष्ठ सं. 121
6.   गाँधी की कहानी, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन,  नई दिल्ली- 110001,  संस्करण 2013,पृष्ठ सं. 157
7.   वही,
8.   रामनाम, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद- 380014, पृष्ठ- 8-9
9. वही,
10. वही, पृष्ठ सं. 8-9
11. बापू- मेरी माँ, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद- 14, छठा पुनर्मुद्रण, मई 2013, पृष्ठ- 40
12. वही, पृष्ठ- 41  
13. टीका स्वयंवर, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली- 110001,  प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ- 51
14. Post-Theory: New Direction in Criticism, Edited by Martin McQuillan and others, Edinburgh University Press, Edinburgh, Page-63


2 comments:

  1. बड़ा अंतरंग
    और
    उतना प्रभावशाली निबंध।
    भक्ति कविता न्याय का स्वर बुलंद करने वाली कविता है।
    गाँधी जी का संघर्ष न्याय के लिए था।
    तब, यह स्वाभाविक था कि वे भक्ति काव्य से जुड़ें।
    जितने भक्त कवियों ने अपना यूटोपिया रचा है वह वास्तव में न्यायपूर्ण व्यवस्था का ब्लूप्रिंट है।
    गाँधी की इसी न्याय चेतना के कारण अन्याय के शिकार व्यक्ति और समुदाय उनसे जुड़े।
    गाँधी हत्या असल में न्यायांत की चेष्टा थी।
    रागदरबारी उपन्यास का कबीरपंथी पात्र लंगड़ 'न्याव' के लिए किस तरह विफल और त्रासद संघर्ष करता है!
    लंगड़ आखिरी पायदान पर खड़ा हुआ गाँधी जी का अंतिम आदमी है जिसके स्मरण से अहं का विसर्जन होता है।

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  2. आज आपका सुन्दर लेख पढ़ा | इसमें सर्व-सहमति के भाव हैं | गाँधी के 'रामराज्य' वाली समाज-रचना पर आप अलग से भी लिखें | गाँधी की भक्ति साधन थी जिसका साध्य सम्पूर्ण मानवता का लोकहित था | 'भक्ति-काव्य' पर आपकी पुस्तक भी पढ़ना चाहता हूँ |

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