आलोचक गोपेश्वर सिंह का 'समसामयिक सृजन' की सह-संपादक अंकिता
चौहान द्वारा लिया गया साक्षात्कार
Ø लोक
को परिभाषित किया जा सकता है?
आप ‘लोक’ शब्द को लोक बनाम शास्त्र के अर्थ में देखती
हैं. मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि लोक इसलिए लोक है क्योंकि वह शास्त्र नहीं बना है, तो उसकी कोई निश्चित परिभाषा भी नहीं है. लोक की जिस कला को, लोक की जिस बात को, लोक के जिस रहन-सहन को आप
नियमबद्ध करेंगे, व्याकरण का जामा पहनाएंगे, उसी दिन वह शास्त्र बन जाएगा. इसलिए मुझे लगता है कि लोक को परिभाषित
नहीं किया जा सकता . परिभाषित किया जा सकता है तो शास्त्र को. इस अर्थ में आप कह
सकती हैं कि लोक अपरिभाषित है और शास्त्र परिभाषित.
Ø साहित्य
के इतिहासकारों ने लिखित को ही साहित्य माना है, तो लोक साहित्य को क्या कहा जाए?
क्योंकि उसका बहुत हिस्सा तो मौखिक है?
लोक साहित्य को
संरक्षित करने का मतलब यह नहीं है कि हम उसे परिभाषा में बांध दें. लोक साहित्य को
संरक्षित करना जरूरी है, किया जाना चाहिए. लेकिन उसको
हम किसी परिभाषा में बांध देंगे यह जरूरी नहीं है. अब जो बहुत-सारे लोक-नाट्य रूप
हैं उन्हें किस परिभाषा में आप बांधेंगे? परिभाषा में लोक-नाट्य
का वह रूप अट नहीं रहा था, तभी तो भिखारी ठाकुर के नाटकों को ‘बिदेसिया’ नाम दे दिया गया. ‘बिदेसिया’ कोई शास्त्रीय नाम तो है नहीं. एक शैली है. फिर सवाल उठता है कि वह शैली
क्या है? वह ‘लवंडा नाच’ का एक रूप है जिसे भिखारी ठाकुर ने ही
ईजाद किया हो ऐसा नहीं है. इस इलाके में लवंडा नाच होता रहा है. भिखारी ठाकुर भी
इसी लवंडा नाच का संचालन करते थे और उनके नाटकों ने वह लोकप्रियता हासिल की. उसमें
सामाजिकता के कुछ तत्त्व ऐसे आए जिसके कारण उनका नाटक ‘बिदेसिया’ के रूप में प्रचलित हुआ. चूंकि बिदेसिया बहुत लोकप्रिय हो गया था और उसके गीत भोजपुरी
अंचल में गूंजने लगे थे, इसलिए भिखारी ठाकुर के अन्य नाटकों
की तुलना में उसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली और जनस्वीकृति भी. इसलिए हमने उसे
बिदेसिया नाम दे दिया. भिखारी ठाकुर ने अपनी शैली के लिए उसे बिदेसिया नाम दिया
नहीं था. यदि आप उसे परिभाषित करना चाहें तो एक परिभाषा में बांध सकते हैं कि वह बिदेसिया
शैली का नाटक है. स्वयं भिखारी ठाकुर ने उसे कोई नाम नहीं दिया है. शायद उन्हें
पता भी नहीं था कि मैं जिस तरह के नाटक करता हूँ उसे आगे चलकर लोग इस तरह की शैली
में पुकारेंगे. लोक जीवन की जो समस्याएँ थीं, लोक जीवन की जो
धुनें थीं, लोक जीवन की जो पीड़ाएँ थीं और लोक जीवन में घुली
हुई जो कहानियाँ थीं उसे भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में संवार दिया.
Ø आपने
भिखारी ठाकुर को कभी बोलते हुए देखा है?
भिखारी ठाकुर का नाच
मैंने देखा नहीं है. पहली बात तो आप यह जान लीजिए कि भिखारी ठाकुर का नाच, जिसे आज
बिदेसिया कहा जाता है, उन्हें नाटक नहीं कहा जाता था.
उन्हें नाच कहा जाता था. नाटक तो वह होता है जो स्टेज बनाकर किया जाता है. भिखारी
ठाकुर का नाच तो आमतौर से लोगों के बीच में डांस, गीत, संगीत और उसी में कथा, कहानी, संवाद आदि के साथ चलता था
जो नौटंकी से थोड़ा भिन्न था. नौटंकी तो
मंच पर करते थे. परंतु इसका मंच उस तरह का नहीं बनता था कि तख्त लगाकर थोड़ा ऊंचा
कर दिया जाए, पर्दे लगा दिए जाएँ . वह बिना पर्दे का नाच था.
भिखारी ठाकुर जिस तरह का नाच करते थे वह पूरी तरह व्यावसायिक था. भोजपुरी में इसे
कहते थे- साटा पर जाना, या अनुबंध पर जाना. बाकायदा एक अनुबंध पत्र लिखा जाता था.
लोग शादी-ब्याह,
मुंडन और मनोरंजन के लिए इन्हें बुलाते थे. एक करारनामा होता था. दोनों पक्ष नाच पार्टी के मालि और जिनके यहाँ
जाना है उस घर के मुखिया मिलकर यह करारनामा लिखते थे कि अमुक तारीख को यह नाच
पार्टी आएगी, इसमें इतने कलाकार होंगे और ये रात में अपना
नाच दिखाएंगे. इसके बदले में इन्हें इतना पैसा दिया जाएगा. कई बार आने-जाने की
व्यवस्था भी की जाती थी. भिखारी ठाकुर का नाच ऐसा ही होता था जैसे दूसरे नाच होते
थे. भिखारी ठाकुर ने अपने नाच को, जो बिलकुल ही मनोरंजन का साधन माना जाता था,
शादी-विवाह में, तीज-त्यौहार में किसी खास अवसर पर, उसे मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक संदेश बना दिया.
Ø भिखारी
ठाकुर के समकक्ष कोई और भी ऐसा व्यक्तित्व रहा हो जो भिखारी ठाकुर से ज्यादा अच्छा
काम कर रहा हो, लेकिन भिखारी ठाकुर के नाम ने उसे दबा
दिया हो?
नहीं. पहले तो मैं
बता दूँ कि आपने इससे पहले प्रश्न किया था कि भिखारी ठाकुर को आपने देखा है? मैंने भिखारी ठाकुर को देखा नहीं है. जब मैं मैट्रिक में था तब हमारे
गाँव के आस-पास संभव है कि भिखारी ठाकुर की नाच पार्टी आई भी हो तो हमें मालूम न
हो. क्योंकि नाच पार्टी अपना प्रदर्शन अक्सर रात दस बजे से सुबह पाँच-छः बजे तक
करती थी और उसे देखने की हम बच्चों को
मनाही होती थी. यह माना जाता था कि यह आवारगी का काम है, इसलिए घर के अभिभावक जाने
नहीं देते थे. हमलोग चोरी-चोरी जाते थे. लेकिन ऐसा अवसर आया नहीं होगा. मैंने
दूसरी-दूसरी नाच पार्टियों को तो देखा, उनके प्रदर्शन देखें लेकिन भिखारी ठाकुर के
नाच का प्रदर्शन नहीं देखा. हाँ, मैं यह सुनता था कि एक
भिखरिया है जिसका नाच बहुत प्रसिद्ध है. मैंने उनका महत्त्व नहीं समझा, क्योंकि
मेरी नजर में वे एक नचनिया थे, नाचनेवाले थे. हमारा समाज
पिछड़ा था और सामंती समाज था. उसमें नाचने-गाने वालों की कोई प्रतिष्ठा नहीं थी.
नाचने वाले को भोजपुरी में नचनिया समझा जाता था जिसमें थोड़ा हिकारत का भाव है.
लेकिन भिखारी ठाकुर ने इस नचनिया शब्द को सम्मानजनक बना दिया और जो हिकारत के भाव से देखा जाने वाला शब्द था उसे ऊपर उठा दिया.
भिखारी ठाकुर का सम्मान उनके जीवन काल में ही बढ़ गया. लोग कहते थे कि भिखरिया की
नाच पार्टी आई है. भिखारी के लिए सम्मान था लोगों में और वह सभी वर्गों में था.
भिखारी ठाकुर बहुत सभ्य व्यवहार करने वाले व्यक्ति थे. जब मैं मैट्रिक में था या
मैट्रिक पास कर गया था तो भिखारी ठाकुर का निधन हुआ. अखबार में खबर छपी थी. मैंने
तो उनका नाच नहीं देखा था लेकिन आस-पास के लोगों ने देखा था जो उनके बारे में
बताते थे. लेकिन जब उनका निधन हुआ तो प्रसिद्ध नाटककार और उस जमाने के बड़े नौकरशाह
जगदीशचन्द्र माथुर ने उन पर एक लेख लिखा साप्ताहिक हिंदुस्तान या धर्मयुग में.
शीर्षक था ‘भरतमुनि की परंपरा में लोक नर्तक भिखारी ठाकुर’. जगदीशचन्द्र माथुर आई. सी. एस. थे और बिहार सरकार में सचिव के पद पर रह
चुके थे. उन्होने भिखारी ठाकुर को सम्मानित किया था और राज्य सरकार की तरफ से उनके
नाटकों के प्रदर्शन की व्यवस्था साल में एक बार करवाई. जगदीशचन्द्र माथुर साहित्य
से जुड़े होने के कारण भिखारी ठाकुर के महत्त्व को समझते थे और उनका सम्मान करते थे.
उन्होने भरतमुनि की परंपरा में रखकर
भिखारी ठाकुर को देखा. जगदीशचन्द्र माथुर को मैं जानता था क्योंकि उनका एक संस्मरण
हमने हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ रखा था. उनसे हम प्रभावित थे और जानते थे कि
यह आदमी बिहार सरकार का बहुत बड़ा अधिकारी रहा है और उस समय वो दिल्ली में आकाशवाणी
के डाइरेक्टर जनरल थे जिस कारण काफी व्यस्त थे. उन्होने भिखारी ठाकुर पर देश की
सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका में लिखा. तब हमाऋ समझ में आया कि जिस पर इतना बड़ा अधिकारी लिख रहा
है और भरतमुनि की परंपरा में रख कर उसे देख रहा है वह कोई साधारण नचनिया नहीं रहा
होगा, जरूर असाधारण रहा होगा. इस तरह से पहली बार मैंने जगदीशचन्द्र माथुर के लेख से भिखारी ठाकुर के
साहित्यिक अवदान को जाना.
Ø पिछले
लोक साहित्य के अंक में हमें पता चला कि उनके पुत्र रघुनाथ जी उनकी परंपरा को
बढ़ाना चाहते हैं. सरकार से उन्हें सपोर्ट नहीं मिलता जबकि अन्य संस्थाएं भिखारी
ठाकुर के नाम पर बहुत कमा-धमा रही हैं. आपको क्या लगता है?
देखिए, जब आप भोजपुरी
अंचल में घूमेंगी तो बिदेसिया शैली में जो नाटक होते थे आज उस रूप में नहीं हो रहे
हैं. आज भिखारी ठाकुर रहते तो उनका प्रदर्शन लोकप्रिय नहीं होता. क्योंकि आज जनता
की आकांक्षा दूसरी हो गई है. मनोरंजन के कई साधन उपलब्ध हो गए हैं. भिखारी ठाकुर
की नाच पार्टी तब चलती थी जब मनोरंजन के इतने साधन नहीं थे. जब सिनेमा नहीं था,
टेलीविजन नहीं आया था, धारावाहिक नहीं आया था. लोगों के पास एकमात्र साधन था नाच
नौटंकी और नाटक देखना. कभी-कभी किसी इलाके में ये आयोजन होते थे, प्रदर्शन होते
थे. लोग टूटकर आते थे. तब उसमें भी कई तरह के मसाले होते थे. गीत-संगीत भी होता
था, अभिनय भी होता था, एक कथा भी होती थी, थोड़ा हास्य भी होता था, थोड़ी फूहड़ता भी
होती थी. क्योंकि इसके बिना जहाँ दस-दस हजार की भीड़ जमा होती थी उसको बांधे रखना
वो भी रात भर संभव नहीं था. जो प्रदर्शन रात दस बजे शुरू हुआ उसे सूर्योदय के साथ
ख़त्म होना है तभी लोग उठते थे. रात भर के मनोरंजन का इंतजाम ये नाच पार्टियाँ करती
थीं. अब अगर भिखारी ठाकुर के पोते ये उम्मीद कर रहे हों, वैसे मैं जानता नहीं हूँ
कि उन नाटकों को वो किस रूप में खेलते हैं
इसलिए वो करते भी हैं तो एक धरोहर के रूप में हम उन्हें देख सकते हैं. लेकिन कोई
जरुरी नहीं है कि भिखारी ठाकुर के नाटकों को जो रिस्पोंस मिला था या जिस तरह
जनभावना से उसका जुड़ाव हुआ था वो उनके पोते के साथ भी हो. और जहाँ सरकारी संरक्षण की बात रही, भिखारी ठाकुर को भी
बहुत कम सरकारी संरक्षण मिला. पर सरकारी संरक्षण उनके वंशजों को ही क्यों मिले? इस
तरह से नाटक करने वाली बहुतेरी टोलियाँ हैं. वैसे सरकार को चाहिए कि उनको संरक्षित
करे और जो टोलियाँ लोकनाट्य रूपों को जीवित रखे हुए हैं, उन्हें प्रदर्शन के जरिए
बचाते हैं, जनता से जोड़ते हैं, उनका संरक्षण करना तो सरकार का काम है और करना
चाहिए. लेकिन सिर्फ भिखारी ठाकुर के नाम पर हो जाएगा, ऐसा मुझे नहीं लगता. भिखारी
ठाकुर के जो साथी हैं उनके जो वंशज हैं, वे आज के समय को नहीं पहचान रहे हैं. आज
उस तरह के नाटकों की खपत शायद न हो. लोग उस तरह के नाटकों को आज नहीं देखना चाह
रहे हैं. लोग रात-रात भर नाच देखना नहीं चाहते हैं. अब तो दो तीन घंटे में ही लोग
उब जाएंगे. अब तो जो होगा दो तीन घंटे में ही आपको करना होगा. तो आपका नाटक, आपका
गीत-संगीत, आपका जो कुछ भी है तीन घंटे से अधिक होने लगेगा तो लोग झेल नहीं
पाएँगे. क्योंकि लोगों की मानसिकता बदल गई है. उनके सामने मनोरंजन के सैकड़ों,
दर्जनों विकल्प है. और वैसे मैं कहूँ कि आधुनिक तकनीक ने मनोरंजन के जितने साधन
हमारे सामने परोसे हैं, उससे जो पुराने लोकनाट्य हैं वो सब मर चुके हैं. मेरे
इलाके में जितनी नाच पार्टियाँ थीं वो ख़त्म हो गई और आर्केस्ट्रा में बदल गई हैं.
अगर वो पुराने ढ़र्रे पर चलेंगी तो कोई उन्हें साटा पर नहीं ले जाएगा. अब लोग ले
जाते हैं उसमें नाचने वाली नाचती हैं और फ़िल्मी गीतों का कैसेट बजा दिया जाता है
जिस पर वो नाच रही हैं पर उनका रूप वो नहीं रहा जो भिखारी ठाकुर के समय में था.
Ø हिन्दी
का कोई ऐसा साहित्यकार जिसने जितना हिन्दी में काम किया है उतना ही भोजपुरी
साहित्य में अपना योगदान दिया हो?
देखिए, एक तो सबसे पहले मैं राहुल सांकृत्यायन का नाम लूँगा. वे तो महापंडित ही
कहलाते हैं. भोजपुरी में भी उन्होने महत्त्वपूर्ण काम किया है, उनके नाटक भी हैं .वे ‘सोशल एंड पोलिटिकल
एक्टिविस्ट’ थे . आप कह सकती हैं कि वे पेशेवर नाटककार, रंग-निर्देशक नहीं थे. उन्होने हिन्दी में भी लिखा और भोजपुरी में भी. ‘मेहरारून
के दुर्दशा’ जैसा कालजयी नाटक भी लिखा.रामेश्वर सिंह काश्यप ने अपने ढंग का अनोखा नाटक लिखा-‘लोहा सिंह’ जो एक
तरह से वो भारत का पहला ऐसा नाटक था
जिसे वर्षों धारावाहिक रूप में सुनने के लिए रेडियो सेट के
पास लगभग सौ-दो सौ लोग इकट्ठे हो जाते थे. यह सप्ताह में एक बार प्रसारित होता था.
लेकिन वे भिखारी ठाकुर के शैली के नाटककार नहीं थे. और लोग भी हैं हमारे समय में, हिन्दी में लिखते हैं,
नाटक लिखते है जिसमें भोजपुरी का बहुत कुछ होता है.
Ø हमारे
लोक की मुक्ति का सबसे बड़ा सवाल क्या हो
सकता है?
मुक्ति तो कई तरह की
होती है. मुक्ति सिर्फ आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक
नहीं होती, मुक्ति तो संपूर्णता में होती है. यह कहेंगे कि
आप आर्थिक रूप से मुक्त हो गए, सामाजिक रूप से मुक्त हो गए.
मुक्ति और लोक का अर्थ व्यापक जनसमुदाय है. मुक्ति तब तक नहीं होगी जब तक विषमता मूलक
समाज है. जो आगे ले जानेवाली भविष्योन्मुखी विचारधाराएँ हैं वो तो इसी समता का
स्वप्न देख रहे हैं. समता आज के जमाने का नैतिक कर्म है. जैसे किसी जमाने में
ईश्वर को नैतिक कहां जाता था. हम कुछ भी गलत करते थे तो कहते थे कि ईश्वर देख रहा
है. दूसरे का धन चुराते थे तो हमारे भीतर भय व्याप्त हो जाता था कि वह आदमी तो
नहीं देख रहा है लेकिन ईश्वर देख रहा है. अब चूंकि स्वयं की दृष्टि विकसित हो चुकी
है तो नैतिकता का अभिप्राय क्या है? मुझे लगता है कि नैतिकता
का अर्थ समता है मानव-मानव के बीच, ब्राह्मण-शूद्र के बीच, हिन्दू-मुस्लिम के बीच, स्त्री-पुरुष के बीच, प्राणी मात्र के बीच बराबरी का भाव हो. ये है समता का भाव. इसका मतलब यह
नहीं कि प्रोफेसर और छात्र एक बराबर है. प्रोफेसर प्रोफेसर हैं, छात्र छात्र हैं. लेकिन यह भाव न आए कि ये प्रोफेसर हो गए तो ये देवता हो
गए और हम छात्र हैं तो हम दानव हो गए. बराबर ही हैं, एक समय
है, हम भी कल प्रोफेसर बन सकते हैं. बराबर हो सकते हैं. ये
जो समता का प्रश्न है आज समय में मानव मुक्ति इसी समता भाव से होगी. लोक का अर्थ
मैं इसी व्यापक जनसमुदाय को मानता हूँ. इसकी मुक्ति समता से होगी.
Ø लोक
और शास्त्र के द्वंद्व को आप कैसे देखते हैं?
लोक और शस्त्र में
द्वंद्व तो हमेश रहा है. आप कह सकती हैं कि हम जो बहुत ही अस्त-व्यस्त ढंग से बोल
रहे होते हैं, व्याकरण के नियमों की परवाह किए बिना, लोक कुछ इस तरह से होता है. लेकिन जब हम मंच पर बोल रहे होते हैं, हम लिख रहे होते हैं तो हम स्वतंत्र होते हैं कि हमारी या आपकी रचना
व्याकरण के नियमों के अनुसार ही हो. शास्त्र व्याकरण के नियम हैं. समाज को संचालित
करने में सहायक है. आपने संविधान बनाया वो शास्त्र है. आपने व्याकरण बनाया तो वो
ग्रामर हैं जैसे हिन्दी में कामता प्रसाद गुरु का व्याकरण,
किशोरीदास वाजपेयी का व्याकरण. अगर व्याकरण ही नहीं होगा तो सब अपने ढंग से
बोलेंगे. उसकी कोई उपयोगिता नहीं होगी और वह भाषा सम्प्रेषण का माध्यम नहीं बन
सकती. इसलिए हमेशा लोक को ज्यादा प्रश्रय देना और शास्त्र को पीटना, यह ठीक नहीं है. मेडिकल साइंस ने जो अचीव किया है वो मेडिकल शास्त्र है
इसीलिए तो उसे चिकित्सा शास्त्र कहते हैं. संगीत में जो विकास हुआ है, संगीत का एक क्रम बना है, वह शास्त्र है. शास्त्र निंदनीय
नहीं है. जितना आमतौर पर लोग लोक-लोक चिल्लाते हैं. लोक हमारी हमारी सहज
अभिव्यक्ति है तो शास्त्र हमारी सचेत अभिव्यक्ति है. हम क्या चौबीस घंटे सहज ही
रहना चाहेंगे या सचेत भी होंगे? सभ्यता के विकास में लोक की
भूमिका होती है लेकिन शास्त्र की भी है.
Ø हमारी
लोककथाओं और लोकगीत में प्रतिरोध की संस्कृति शुरू से रही है. स्त्री मुक्ति का
स्वर भी उसमें रहा है. तो इसको आप किस तरह से देखेंगे?
देखिए लोकगीतों में
प्रतिरोध रहा होगा मैं इससे इंकार नहीं करता हूँ. लेकिन आधुनिक दृष्टि से उस पर
लादना ठीक नहीं जैसे स्त्रियों के प्रेमभाव के गीत हैं या उसी तरह उनसे जुड़े और
गीत हैं. एक गीत मैं आपके सामने सुनाना चाहूँगा जो बचपन में मैंने अपनी माँ से
सुना था और इसमें जो स्त्री जीवन की पीड़ा है वो बड़ी से बड़ी कविता से भी बड़ी है.
इसमें एक स्त्री गा रही है कि-
“गोड़ तोहे लागीले
सइयाँ ए गोसइयाँ ए अजोधावासी,
तिरिया जनमवा मत हो देहूँ,
ए अजोधावासी”
मैं तुम्हारे पाँव
पड़ती हूँ कि हे अयोध्यावासी राम! स्त्री का जन्म मुझे मत देना.
“तीरीय जनमवा जब देहले
ए गोसइयाँ ए अजोधावासी,
अधिकों सुरतिया मत हो
देहूँ, ए अजोधावासी”
अगर स्त्री का जन्म
दे ही दिया तो कोई बात नहीं. फिर भी मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ कि मुझे अधिक
सुंदर मत बनाना.
“अधिकौ सुरतिया जब
दिहनीं ए गोसइयाँ ए अजोधावासी,
मुरुख पुरुखवा मत देहूँ,
ए अजोधावासी”
अगर अधिक सुंदरता भी
दे दी तो मूर्ख पुरुष मुझे मत देना. सामर्थ्यशाली पुरुष देना, पति देना. जो मेरी रक्षा कर सकें. फिर कहती हैं कि-
“मुरुख
पुरुखवां जब दिहनीं ए गोसइयाँ ए अजोधावासी,
गोदी में बालकवां जलदी
देब, ए अजोधावासी”
अब आप देखें कि इसमें
पहले तो उसकी प्रार्थना है कि अयोध्यावासी राम, मैं
तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, स्त्री का जन्म फिर मत देना, स्त्री
का जन्म दे भी दिया तो मुझे अधिक सुंदर मत बनाना. अयोध्यावासी राम! अगर अधिक सुंदर
बना भी दिया तो मूर्ख पति मत देना और अगर कमजोर पति दे भी दिया तो गोदी में बच्चा
जल्दी देना ताकि मैं बाल-बच्चेदार हो जाऊँ. मेरा सौन्दर्य जल्दी बिगड़ जाए. तो
इसमें पूरी पीड़ा जो है वो एक स्त्री की है. ये सारी जो स्त्री जीवन की विडंबनाएं
हैं, इस लोकगीत में ध्वनित हुई हैं . धुन भी इतनी कारुणिक है
और इसके भाव भी इतने करुण हैं कि मुझे लगता है कि स्त्री जीवन पर लिखी हुई सौ कविताओं
को इस एक गीत पर कुर्बान किया जा सकता है.
Ø यह
मान लें कि समय के परिवर्तन के साथ यह होना ही था या फिर इसे चिंता के रूप में
लिया जाए? मतलब जो हमारा लोक था उस पर बाज़ार का इतना प्रभाव आ गया कि चीजें विकृत
हो गईं. जहाँ लवंडा नाच जिसमें जो लोग नाचते थे जिनकी उम्र 20-22 वर्ष थी वो जब आज
60-70 वर्ष के हो गए हैं तो वे बताते हैं कि हम मजबूरी में नाचते थे. पेट की खातिर.
लेकिन हमारे साथ जबर्दस्ती भी होती थी. रात में हमें उठा लिया जाता था और हमें
मजबूरन उनकी बात माननी पड़ती थी. इसको आप आप किस तरह देखते हैं?
आपने सही सवाल पूछा
है और मैं इस पर आना चाहता था. लवंडा नाच क्यों होता था? स्वेच्छा से अभिनेता या अभिनेत्री बनना एक अलग बात है. आज नाटकों में, फिल्मों में या सीरियल में जो अभिनय करने लोग जाते हैं वे स्वेच्छा से
जाते हैं. उन्हें अभिनय करना प्रिय है. उसमें कहानी लिखना,
गीत-संगीत लिखने में योगदान करना उन्हें प्रिय है, इसके वे दीवाने हैं. लेकिन
आमतौर पर जो नाच पार्टियां थीं उसमें समाज के निचले तबके के लोग ही थे. अपवाद
स्वरूप ऊँचे तबके के लोग भी आ जाते थे. नाच गाने का शौक है तो कोई पंडित भी आ गया, कोई ठाकुर भी आ गया. लेकिन ज़्यादातर लोग निम्न जाति के होते थे. वे
स्वेच्छा से नहीं जाते थे, वो जीविका के लिए जाते थे क्योंकि
उनके पास खेती-बाड़ी बहुत कम थी. वे जीविका के लिए खेतों में मजदूरी करते थे और
खेतों में मजदूरी बारह महीने चलती थी. किसानों के पास जो खेत थे वह मौसम पर निर्भर
थे. इसलिए उनके पास सालों भर काम नहीं होता था. वो करें क्या? इसलिए वे नाच पार्टी बना लेते थे. इसमें वे नाचना-गाना सीख लेते थे. कुछ
गीत-संगीत सीखते थे. इसमें बहुत सारे अनपढ़ लोग थे. मेरे गाँव में ही एक बिसराम भगत
की नाच पार्टी थी जिसमें हमारे गाँव के अनुसूचित जाति या गौण वर्ण के लोग या अति
पिछड़ी जाति के लोग काम करते थे. कभी-कभी हमलोग देखते थे कि वे लोग खेतों में कटाई
कर रहे हैं, मजदूरी कर रहे हैं तो हमलोग हँसते थे कि अरे!
यही रात में मुकुट-वुकुट लगा के शाहजहाँ बना था- अमर सिंह राठौर नाटक में. उन्हें
अच्छी हिन्दी बोलनी नहीं आती थी. ऊटपटाँग हिंदी बोलते थे. यानी वे कोई प्रशिक्षित
लोग नहीं थे. उन्हें बढ़िया अभिनय भी नहीं आता था. वे अपनी संवाद की अदायगी भी नहीं
कर पाते थे. और नाटक तो वे स्वयं लिखते थे. इस तरह से मजबूरी में संचालित होनेवाला
नाटक करते थे. और ये आपने सही कहा कि ये लौंडे माने जाते थे. लौंडा मतलब होता था
कि जो कमसिन उम्र के लड़के होते थे. जो चिकने-चुपड़े होते थे,
नाजुक और पतले होते थे. उन्हें नाचने की कला सिखाई जाति थी और वे नाचते थे. फिर
उनके साथ ज्यादातियाँ भी होती थी. कमाल यह था कि दूसरी जातियों के लोग, दबंग लोग तो करते ही थे, नाच पार्टी वाले भी करते थे. इसका अनुभव हमलोगों
को है कि जो शोषण था उसमें नाचने वालों का भी था. यह ‘लौंडाबाजी’ शब्द वहीं से चला है. लौंडों की वजह से. यह कहा जाता था कि जो नाच पार्टी
का मालिक है वह तो स्वयं बड़ा लौंडाबाज होता है. भिखारी ठाकुर के बारे में प्रसिद्ध
है कि वे बड़े भक्त किस्म के आदमी थे. रामचरितमानस उनका प्रिय ग्रंथ है. चौपाई
उन्हें बहुत याद थी. वे भक्ति भाव से अपने नाटक करते थे और अपने नाटकों में तो वे
चौपाई भी गाते थे. कुछ चौपाइयाँ उन्होने बना रखी थीं. आपका यह कहना सही है और जिन
कलाकारों से आपने बात की है उनका जो अनुभव है वही मेरा भी अनुभव है कि उनका नाटक
खेलना खुशी की बात नहीं थी. वो भीतर की उमंग के साथ नहीं खेलते थे. जीविका का एक
साधन था. सामंती समाज था. नाचने वालों के प्रति, गानेवालों
के प्रति यहाँ तक कि कोई अगर ब्राह्मण भी कुछ गा लेता था,
उसके प्रति भी लोगों की धारणा अच्छी नहीं थी. लोग कहते थे कि गवईय्या है, तबलची है मतलब यह कि सामंती मानसिकता में नाच और गाने के प्रति सम्मान का
भाव बहुत नहीं था. सामंत संरक्षण देते थे-
बड़े गायकों को, बड़े कलाकारों को, लेकिन नाच वालों को सम्मान
नहीं देते थे.
Ø भोजपुरी
सिनेमा की भाषा और संवेदना पर क्या कहना चाहेंगे?
इधर की किसी भोजपुरी
फिल्म को मैंने पूरा-पूरा नहीं देखा है. लेकिन थोड़ी-थोड़ी झलक जो मैंने देखी है वो बड़ा फूहड़ है. भोजपुरी फिल्मों की शुरुआत
जब हुई थी- ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबौ’ या ‘लागी नाहीं छूटे राम’ इस
तरह की फिल्मों से. वहाँ भोजपुरी संस्कृति
को व्यक्त करने की और भोजपुरी संस्कृति को समझने की एक बेचैनी थी और उन लोगों ने
वो फिल्में बनाई थीं जो भोजपुरी संस्कृति से प्यार करते थे. जो चाहते थे कि हमारी
लोक संपदा बाहर भी देखी जाए जैसे नाजीर हुसैन, लक्ष्मण
शाहबादी ने ऐसा ही किया. चित्रगुप्त ने संगीत दिया था भोजपुरी फिल्मों के लिए. वे
हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार थे. लेकिन थे वे भोजपुरी माटी के. हमारे गाँव
के पास ही उनका घर था. लेकिन वो समझते थे भोजपुरी संगीत. अब जो नए लोग आ रहे हैं
वो भोजपुरी को एक बाज़ार समझ कर आ रहे हैं. वो फिल्मों में पैसा लगा रहे हैं तो कोई
खतरा भी मोल नहीं ले सकते. इसलिए इसका खतरा भी वो नहीं समझ पा रहे हैं. फिल्म
चलाने के जितने मसाले हो सकते हैं सब डालते हैं. फिल्म के साथ दिक्कत यह है कि
मानिए मैं कोई किताब लिख रहा हूँ प्रयोग कर रहा हूँ. किताब नहीं बिकेगी तो सिर्फ
मेरा श्रम व्यर्थ जाएगा लेकिन फिल्म बनाने में तो करोड़ों-करोड़ों की लागत है. इसके
डूबने का मतलब है करोड़ों की पूंजी का डूब
जाना. इसमें दो बाते हैं. एक तो भोजपुरी संस्कृति को न समझने वाले ये फिल्में बना
रहे हैं. दूसरा, जो भोजपुरी के लोग काम कर रहे हैं उनके पास
दृष्टि नहीं है.
Ø भोजपुरी
एक मजबूत भाषा होकर भी उपेक्षित क्यों है? जबकि
भोजपुरी गीतों में अभिव्यक्ति की क्षमता हिंदी से अधिक है. आप क्या कहेंगे?
कोई एक भाषा मजबूत भाषा है और दूसरी कमजोर- मैं
इसमें नहीं पड़ूँगा. मेरी मातृभाषा भोजपुरी है इसका मतलब यह थोड़े ही है कि हरियाणवी
कमजोर है, अवधी कमजोर भाषा है या मैथिली
कमजोर भाषा है. सारी भाषाओं की अपनी खूबियाँ और अभिव्यक्ति का अपना सौन्दर्य है.
हाँ, भोजपुरी का क्षेत्र बहुत बड़ा है और उसकी लोक संपदा बहुत
बड़ी है. भोजपुरी से तो बहुत सारी चीजें हिंदी फिल्मों में आई हैं. उदाहरण के तौर
पर एक लोकगीत हमने सुना था. उसमें एक
प्रसंग था. हो सकता है कि यह ब्रिटिश के जमाने का हो. एक सिपाही हवलदार बन जाता है.
वह इतना खुश है कि हवलदार बन जाने पर वह उत्सव मनाता है,
फायर करता है. फायर कहाँ करता है? तो उसकी पत्नी नथिया पहनी
है उस पर वह गोली चलाता है, जिस पर वह गाती है- “जबसे सिपाही
से भइला हवलदार हो, नथुनिए पर गोली मारे सइयाँ हमार हो”. इसी तर्ज पर हिंदी फिल्म
में गीत आया- “ अँखियों से गोली मारे, लड़की कमाल हो”. बिलकुल
धुन वही, जमीन वही, बल्कि उससे भी खराब जमीन. वह गीत ज्यादा
रोमांटिक है और ज्यादा कल्पनाशील है. इस तरह से हिंदी फिल्मों ने बहुतेरी धुनों को
लिया है. चूंकि हमारी स्मृति कमजोर होती जा रही है. हम आधुनिक तकनीक के जमाने में
हैं. पहले सबके फोन नंबर याद रहते थे लेकिन आज जब किसी का नंबर लेना होता है तो
अपना फोन निकालते हैं. इसका कारण तकनीक पर हमारी निर्भरता है. एक फर्क ये भी समझना
चाहिए कि तकनीकी विकास जब होता है तब बहुत सारे संबंध बदलते हैं. आज तकनीक के कारण
ही कलाकारों की कीमत बढ़ गई है. तकनीक नहीं
होती तो मुकेश और मन्ना डे इतना थोड़े ही बिकते. भीम सिंह जोशी, कुमार गंधर्व की भी इतनी कीमत नहीं होती. अमिताभ बच्चन की कीमत बढ़ी है तो
तकनीक के कारण. तकनीक नहीं होती तो ये
अभिनेता होते और अपने-अपने क्षेत्र में नाचते. कलाकार का जो महत्त्व बढ़ा है उसमें
तकनीक का बहुत योगदान है. तकनीक ने बहुत सारी चीजों को संरक्षित किया है. उनकी
आर्थिक स्थिति, उनके प्रति हमारी जो सोच है वह बदली है. अब
सोचिए आज से साठ-सत्तर साल पहले हिंदी फिल्मों में एक भी अभिनेत्री नहीं मिलती थी.
लेकिन आज अच्छे घरों की लड़कियां आ रही हैं. आज अभिनय करना,
नचनिया बनना गलत बात नहीं है. कलाकारों का महत्त्व बढ़ा है. इसका कारण यही है कि
सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ी है, आर्थिक हैसियत बढ़ी है. तकनीक को
इस रूप में भी देखना चाहिए. समय के प्रवाह ने हमसे हमारी वर्णमाला छीन ली, शब्द छीन लिए. लेकिन ये तो पता है ना कि छापेखाने की मशीन ने हमारे सारे
ज्ञान को नष्ट होने से बचा लिया और ज्ञान का लोकतांत्रिकरण किया. तकनीक की भूमिका
को इस रूप में देखा जाना चाहिए.
Ø लिखित
ही साहित्य की श्रेणी में आता है तो वह लोक, जो गीत बनकर
लोगों के कंठ और कोहबरों में समाया है उसका इतिहास कैसे लिखा जाएगा?
देखिए लोकगीत है या लोक कला है वो कभी लिखित तो
रहा नहीं है, वह लोककंठ में ही रहा है. अब जबसे लिखने का प्रचलन बढ़ा है, तब से लोकगीतों की रचना भी बंद हुई. और लोकगीत को कोई एक व्यक्ति थोड़े ही
लिखता है, यह एक समूहिक रचना है. मुझे नहीं लगता है कि
लोकगीत, लोककथा उस रूप में फिर लौटने को है जिस रूप में उसने
जन्म लिया था या उसका चलन शुरू हुआ था. आदमी के पास सुकून के क्षण बहुत कम हैं.
शाम के समय हमारे गाँव में लोग बैठकर गप्प ही मारते थे. किसी से कहा जाता था कि
कुछ सुनाओ तो वह कुछ सुनाने लगता था. कोई कहानी सुना रहा है. अब गाँव में भी
टेलीविज़न आ गए तो सब बैठकर उसे देखते रहते हैं. ये सारी चीजें आप कह सकती हैं कि
हमारी अविकास के समय की चीजें हैं. उन्हें आप वापस नहीं ला सकते हैं. इतिहास अपने
आप को दोहराता नहीं है. ये अगर दोहराता है तो या तो त्रासदी होती है या कॉमेडी
होती है.
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