मुक्तिबोध रचनाकार के
लिए चरित्र और आलोचक के लिए ईमानदारी जरूरी मानते थे। चरित्र और ईमानदारी ही वह
चीज है जो रचना और आलोचना को विश्वसनीय बनाती है। रचनाकार से मुक्तिबोध का आशय
मुख्यतः कवि, कथाकार और नाटककार से है। लेकिन संस्मरण
और आत्मकथा ऐसी विधाएँ हैं जिनके लेखक की ईमानदारी पर ही इसकी विश्वसनीयता टिकी
है। ईमानदारी के कारण ही किसी संस्मरणात्मक या आत्मकथात्मक कृति में आग पैदा होती
है। इन विधाओं में लेखक की ईमानदारी साफ-साफ दिखाई देती है। संस्मरण जिन लोगों पर
लिखा जाता है, वे लोग उसकी विश्वसनीयता की पुष्टि करने के
लिए प्रायः जीवित नहीं होते। यूँ सही या गलत तथ्यों की प्रामाणिकता का पता सिर्फ
लेखक को होता है, फिर भी उसकी गलतबयानी पाठक की नजर में आ
जाती है और वह कृति बार-बार प्रश्नांकित होती रहती है।
यशपाल की संस्मरणात्मक कृति ‘सिंहावलोकन’ स्वतंत्रता के लिए जूझते और
आग से खेलते क्रांतिकारियों की घटनाओं से जुड़ा हुआ है। भगत सिंह और चन्द्रशेखर
आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों की शहादत का जीवित साक्ष्य होते-होते यह कृति रह गई तो
इस कारण कि भगवतीचरण बोहरा और आज़ाद के निधन के प्रसंग में यशपाल की ईमानदारी
बार-बार प्रश्नांकित होती रही। इसी तरह ‘क्या भूलूँ
क्या याद करूँ’ में कहा गया कि बच्चन ने
यशपाल और प्रकाशवती के साथ न्याय नहीं किया। कहने का आशय यह है कि संस्मरण या
आत्मकथा में लेखकीय ईमानदारी पहली आवश्यक शर्त है। इसके बिना न तो संस्मरण पठनीय भरोसा
अर्जित करेगा और न आत्मकथा।
ईमानदारी की दृष्टि से महात्मा गाँधी की
आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’
भारत में प्रथम कोटि की रचना कही जाएगी। इसे पढ़ते हुए पाठक को कहीं भी यह नहीं
लगता है कि इस पुस्तक का लेखक अपने को छुपा रहा है। गाँधी ने पूरी तरह अपने को
खोलकर रख दिया है। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ लेखकीय ईमानदारी की दृष्टि
से हिंदी की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा कही जाएगी। इसका कारण यह है कि ‘उग्र’ ने अपने
गोपन पक्ष को भी इस तरह प्रस्तुत किया है कि वह पाठकीय भरोसा अर्जित कर लेती है। ‘कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’
निराला की ऐसी संस्मरणात्मक या शब्दचित्रात्मक रचनाएँ हैं जिनमें विधाओं की सीमाएँ
टूटती हैं और लेखकीय ईमानदारी का जबर्दस्त प्रभाव पाठक महसूस करता है। ‘कुल्लीभाट’ में निराला की जो आत्म
स्वीकृति है वह इस रचना को अनुपम बना देती है। ‘कुल्लीभाट’
एक ऐसे चरित्र के रूप में हमारे सामने आते हैं जो निराला की ईमानदार कलम की देन हैं।
नेहरू ने अपनी आत्मकथा में अपने निजी जीवन को कम खोला है, पर सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की सच्चाइयों से इतना ईमानदार आत्म-साक्षात्कार
किया है कि वह सिर्फ उनकी कृति न रहकर स्वतंत्रता संग्राम के तूफानी दौर का एक
दस्तावेज बन जाती है। इसी तरह से पाब्लो नेरुदा की रचना ‘मेम्वायर्स’ भी नेरुदा के व्यक्तिगत संस्मरणों से ऊपर उठकर साहित्यिक सोच-विचार का
जीवित दस्तावेज बन जाती है। वह निजी प्रसंग हो या साहित्यिक प्रसंग, नेरुदा की साफगोई और ईमानदारी पाठक वर्ग को छू जाती है।
बहुत लोग संस्मरण को दूसरों की निंदा या
उनके चरित्र हनन का औज़ार बना देते हैं। संस्मरण में अपने युग का इतिहास भी छिपा
होता है और वह समकालीनों को बदनाम करने का
जरिया भी बनता है। रवीन्द्र कालिया लिखित ‘गालिब छुटी
शराब’ खिलंदड़ी भाषा और शानदार अंदाजे बयां के बावजूद एक बहुत
अच्छी कृति बनते-बनते इसलिए रह जाती है कि इसमें आए लोगों के प्रति लेखक जितना
तल्ख और निर्मम हैं उतना अपने प्रति नहीं हैं। इसी तरह दूधनाथ सिंह की
संस्मरणात्मक कृति ‘लौट आओ धार’
में लेखक वर्णित लोगों के प्रति जितना आलोचनात्मक हैं उतना अपने प्रति नहीं हैं।
इसलिए बहुत रचनात्मक और काव्यात्मक भाषा के बावजूद वह कृति उम्दा किस्म का
साहित्यिक दस्तावेज नहीं बन पाती। उसकी तुलना में उनकी कृति ‘महादेवी’ ज्यादा उम्दा मानी जाएगी और
दूधनाथ सिंह की पुस्तकों में सबसे अच्छी भी। इसलिए कि लेखक ने इस संस्मरण को आलोचनात्मक
स्पर्श के साथ एक ऐसी भाषा में रचा है जो उसे दूधनाथ सिंह की सबसे अच्छी पुस्तक बनाती
है।
संस्मरण और आत्मकथा साहित्य की आधुनिक
विधा है। हिंदी में इस विधा का जन्म भारतेन्दु काल में हुआ। तब से यह विधा निरंतर
विकसित होती रही। लेकिन यह विधा हिंदी में उस ऊंचाई पर कभी नहीं पहुँची जहाँ कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और
नाटक पहुँचे। कहा जा सकता है कि संस्मरण हिंदी की गौण विधा है। इसका कारण यह है कि
संस्मरण या आत्मकथा लेखन के लिए जिस साहस और ईमानदारी की जरूरत है उसका हिंदी
लेखकों में अभाव है। हिंदी समाज बौद्धिक रूप से पिछड़ा हुआ है और नैतिकता के उसके
प्रतिमान अभी भी बहुत पुराने हैं। कथा सम्राट प्रेमचंद ने इसीलिए अपना जीवनवृत्त
बहुत संक्षेप में प्रस्तुत किया। उसमें प्रेमचंद की सामाजिक,
पारिवारिक, आर्थिक स्थितियाँ तो दर्ज हैं ही, उनका साहित्यिक संघर्ष भी सामने आता है। लेकिन उसमें प्रेमचंद का अलक्षित
जीवन खुलकर सामने नहीं आता। शिवरानी देवी की संस्मरणात्मक कृति ‘प्रेमचंद घर में’ के जरिए प्रेमचंद का वह अलक्षित पक्ष सामने आता है जिसे प्रेमचंद या
उनके आलोचकों ने जाने अनजाने ढँक रखा है। हिंदी लेखकों के पुत्र-पुत्री या
पत्नियाँ उनके संस्मरण लिखें और ईमानदारी से लिखें तो लेखकों का ‘देवत्व’ थोड़ा कम
होगा और उसका वास्तविक रूप हिंदी पाठक के सामने आएगा।
हिंदी के पेशेवर लेखकों से भिन्न समाज और
राजनीति में काम करनेवाले कुछ लोगों के संस्मरणों से भारतीय समाज का इतिहास बनता
हुआ दिखाई देता है। इन संस्मरणों को किसी भी पेशेवर लेखक के संस्मरण से कमतर नहीं
कहा जा सकता। चंपारण सत्याग्रह के संदर्भ में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा लिखित ‘बापू के
कदमों में’ या अन्य संस्मरणों को पढ़ें तो मालूम
पड़ता है कि चंपारण सत्याग्रह का इतिहास इसके बिना पूरा नहीं होता। इसलिए कि लेखक
ने बड़ी ही ईमानदारीपूर्वक अपनी सीमाओं और सत्याग्रह से जुड़े लोगों के कार्यों की
गहरी छानबीन की है। बिनोवा भावे की संस्मरणात्मक कृति ‘गाँधी जैसा मैंने देखा’ को पढ़कर गाँधी के
व्यक्तित्व की बारीकियाँ समझ में आती हैं। आमतौर से बिनोवा को गाँधी का आध्यात्मिक
उत्तराधिकारी माना जाता है। लेकिन इस पुस्तक से पता चलता है कि गाँधी के भरोसेमंद
होने पर भी बिनोवा कितनी ईमानदारी से गाँधी के जीवन और कार्यों पर आलोचनात्मक नजर
रखते थे।
हिंदी में संस्मरण लेखन जितना
रचनात्मक अर्ज के तहत लिखा जाता है उससे अधिक हिसाब चुकता करने के लिए लिखा जाता
है.कांतिकुमार जैन के लिखे संस्मरणों में
ये दोनों प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं.यही स्थिति राजेंद्र यादव की ‘मुड़-मुड़ के
देखता हूँ’ और मैत्रेयी पुष्पा की ‘वो सफ़र था कि मुकाम था’ की है.यह प्रवृत्ति
हिंदी के बहुत सारे संस्मरण लेखकों में है.संस्मरण लेखन एक विशिष्ट रचनात्मक कार्य
है इसका ध्यान बहुत कम लोग रखते हैं.संस्मरण एक व्यक्ति का छोटा इतिहास और उसका
मूल्याङ्कन भी होता है,इस बात का ध्यान कम रखा जाता है.दिनकर की ‘संस्मरण और
श्रद्धांजलियां’,जगदीश चन्द्र माथुर की संस्मरणात्मक कृति ‘दस तसवीरें’,अज्ञेय की
‘स्मृति लेखा’,शिवपूजन सहाय की ‘वे दिन वे लोग’,केसरी कुमार की ‘हिंदी का तडपता राजहंस’,काशीनाथ सिंह की ‘याद
हो कि न याद हो’ आदि को जिन लोगों ने पढ़ा है वे स्वीकार करेंगे कि संस्मरण लेखन
कितना गंभीर रचनात्मक कार्य है.इन संस्मरणात्मक कृतियों के जरिये वर्णित विषय या
व्यक्ति नए रूप में सृजित होता हुआ दिखाई देता है.संस्मरण के भीतर ही यात्रा-संस्मरण
को गिना जाना चाहिए.यात्रा-संस्मरणों के जरिये लेखक अपनी भाषा के बौद्धिक क्षितिज
का विस्तार करता है,साथ ही जीवन और प्रकृति के विस्तार का पाठक के लिए झरोखा भी
बनता है.ऐसी कृतियों को याद करना हो तो बेनीपुरी की पुस्तक ‘पैरों में पंख
बांधकर’,ब्रजकिशोर नारायण का ‘यूरोप कुछ ऐसे कुछ वैसे’,प्रभाकर माचवे का ‘गोरी
नज़रों में हम’ हिंदी के कुछ ऐसे यात्रा-संस्मरण हैं जो अपने रचनात्मकता के लिए सहज
ही याद आते हैं.ऊपर जिन कृतियों का उल्लेख हुआ है उनके लेखकों का उद्देश्य न तो पर
निंदा है और न ही आत्म प्रदर्शन,उद्देश्य सिर्फ एक ही है इनके जरिये हिंदी में कुछ
नया निर्मित करना .
अज्ञेय ने कहा है कि आत्मकथा लेखन एक तरह
का आत्म प्रदर्शन है.वे यह भी मानते हैं कि इसके मूल में यह भाव निहित है कि हम
कुछ ऐसा मूल्यवान जानते हैं जिसे दुनिया को बताया जाना चाहिए.इसके ठीक उलट इधर के
वर्षों में दलितों और स्त्रियों ने जो आत्मकथा लेखन किया है वह आत्म प्रदर्शन की
जगह उनकी अथाह पीड़ा का दस्तावेज अधिक है.निश्चित रूप से मुख्यधारा के लेखकों से
भिन्न दलितों और स्त्रियों का अपने जीवन को अपनी ही आँखों से देखना साहित्य में नए
युग की शुरुआत है.आत्मकथा चाहे जिस धारा की हो उसके केंद्र में लेखक का अपना जीवन
होता है लेकिन संस्मरण के केंद्र में दूसरा व्यक्ति या दूसरा प्रसंग होता है.इस
भिन्नता के बावजूद दोनों ही विधाओं में ईमानदारी आवश्यक है.ईमानदारी के अभाव में
कोई आत्मकथात्मक या संस्मरणात्मक कृति कुछ
दिन तक शोर-शराबे पैदा कर ले उसका स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता.इधर आने वाली बहुत-सी
संस्मरणात्मक कृतियों में पाठक को उस ईमानदारी की कमी नजर आती है जो किसी रचना को
औसत से ऊपर उठाकर विशिष्ट बनाती है.अपने आग्रहों-दुराग्रहों और संस्कारों की सीमा
में बंधा हुआ व्यक्ति जब तक इनका अतिक्रमण नहीं करेगा अच्छा संस्मरण नहीं लिख
सकता.यहाँ यह कहना चाहिए कि अपनी सीमाओं का अतिक्रमण वही व्यक्ति करता है जो भीतर
से ईमानदार होता है.अच्छे संस्मरण लेखन में कई दफा विचारधारा भी बाधक होती
है.भिन्न विचारधारा के व्यक्ति पर संस्मरण लिखते हुए संस्मरण लेखक प्रायः अनुदार
होते हैं.इस अनुदारता के दृश्य हिंदी में आम हैं.इसलिए मुक्तिबोध ने किसी भी लेखक
के लिए विचारधारा के साथ अंतःकरण की आवाज सुनने पर जोर दिया है.यह अंतःकरण और कुछ
नहीं लेखक की ईमानदारी का पर्याय है.
हार्दिक बधाई सर ! आपने सही कहा संस्मरण और आत्मकथा ऐसी विधाएँ हैं जिनके लेखक की ईमानदारी पर ही इसकी विश्वसनीयता टिकी है। ईमानदारी के कारण ही किसी संस्मरणात्मक या आत्मकथात्मक कृति में आग पैदा होती है।... लेखक की ईमानदारी के सम्बन्ध में मुक्तिबोध जी " एक साहित्यिक की डायरी " का एक कथन याद आ रहा है - " व्यक्तिगत ईमानदारी का सम्बन्ध साहित्य - सम्बन्धी मनोभूमिका से अधिक है |यदि यह मनोभूमिका आत्मपरक और वस्तुपरक अर्थात् उन दोनों से समन्वित जीवनपरक दृष्टि से तैयार की गयी हो तो उस साहित्कार का क्या कहना ! "
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद गुरुजी....
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