Sunday, 7 January 2018

भोजपुरी के पहिलका सोप आपेरा -'लोहा सिंह'

भोजपुरी में- शायद हिंदी समेत दोसरो भारतीय भाषा में- नाटक के कवनों चरित्र से लेखक के जियत पहिचान बनि गइल होखे, एकर दोसर उदहारण रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’ के लिखल नाटक ‘लोहा सिंह’ के अलावा ना मिली. एक नाटक के लोकप्रियता अइसन भइल कि एकर लेखक के लोग असली नाम से कम, लोहा सिंह नाम से अधिक जाने लागल. रेडिओ नाटक के रूप में ‘लोहा सिंह’ नाटक के प्रसारण जब शुरू भइल त लोगबाग का अइसन पसंद आइल कि ओकर प्रसारण हफ्ता में एक बार नियमित रूप से आकाशवाणी पटना से होखे लागल. धारावाहिक रूप में ‘लोहा सिंह’ के प्रसारण बरिसन चलल. जेह दिन ‘लोहा सिंह’ के प्रसारण होखे, गाँव मोहल्ला के लोग रेडियो सेट के लगे बहुत पहिलिए से इकठ्ठा हो जात रहे आ दम साध के नाटक के एक-एक संवाद सुनत रहे. आगे चलिके दूरदर्शन से प्रसारित ‘रामायण’‘महाभारत’ धारावाहिक के जइसन लोकप्रियता मिलल, करीब-करीब ओइसने लोकप्रियता भोजपुरी क्षेत्र में ‘लोहा सिंह’ नाटक के मिलल रहे. ‘लोहा सिंह’ के हर कड़ी में समाज के कवनों-ना-कवनों समस्या रहत रहे, जवना के समाधान बड़ा आसानी से लोहा सिंह चरित्र के जरिए लेखक प्रस्तुत कर देत रहे. कवनों कड़ी में दहेज-समस्या होखे त कवनो में परिवार-नियोजन, कवनों कड़ी में देशभक्ति मुख्य होखे त कवनो में गाँव के सामूहिक भाईचारा. हास्य-व्यंग्य शैली में चले वाला ए नाटक के खूबी ई रहे कि बिना कवनो वैचारिक दबाव के श्रोता के चेतना बदले के काम ई करे. जेकरा ए नाटक के देखे आ सुने का मौका मिलल बा, ऊ सहजे ए बात के पुष्टि करी.
          हमार ई सौभाग्य बा कि हमरा ना सिर्फ ‘लोहा सिंह’ के रचयिता डॉ. रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’ से मिले आ समपर्क में रहे के मौका मिलल, बल्कि आकाशवाणी पटना से प्रसारित उहाँ के लिखल नाटक ‘लोहा सिंह’ सुने के भी मौका मिलल. हमार इहो सौभाग्य बा कि ‘लोहा सिंह’ नाटक के मंचन भी हम देखनी आ ‘लोहा सिंह’ फिलिम भी देखनी. ओ फिलिम के कश्यप जी पटकथा आ गीत त लिखलहीं रहीं, ओमें लोहा सिंह के चरित्र भी निभवले रहीं. ओ फिलिम के उहाँ के लिखल आ मन्ना डे के गावल- ‘अजब कइला लीला, गजब कइला मालिक, जनम दे के जग में दरद दे ल मालिक’- भोजपुरी समाज में अपना समय में बहुत लोकप्रिय भइल रहल. हम अपन आँख से देखले बानी कि ‘काश्यप’ जी कहीं जाई आ लोग के मालूम हो जाए कि ‘लोहा सिंह’ नाटक के लेखक, अभिनेता, निर्देशक काश्यप जी आइल बानीं त लोग ‘लोहा सिंह-लोहा सिंह’ कहत उहाँ के घेर लेत रहे. लोग उहाँ के काश्यप जी कम, लोहा सिंह जादे कहत रहे. ‘लोहा सिंह’ के लेखक काश्यप जी भोजपुरी भाषा के सेलिब्रिटी नाटककार रहलीं. ‘लोहा सिंह’ नाटक सामाजिक सन्देश जनता के पहुँचावे के अइसन माध्यम बनल, जवना के दोसर उदाहरण भोजपुरी में नइखे.
          ‘लोहा सिंह’ नाटक के मुख्य चरित्र गाँव के रहे वाला लोहा सिंह नाम के एगो रिटायर फौजी बा, जवन ब्रिटिश आर्मी में काबुल के मोर्चा पर काम कर चुकल बा. पढाई-लिखाई ओकर ना के बराबर, चाहे बहुत मामूली बा. फ़ौज में रहिके टूटल-फूटल हिंदी आ भोजपुरी फेंट-फांट के ओकरा बोले के आदत बा. बीच-बीच में कवनों-कवनों अंग्रेजी के शब्द के बिगड़ल भोजपुरिया के रूप में सामने बा- ‘जिद त हम धरबे करेगा. तुम देहाती बैकुफाना को बात करेगा त हम खूब जिद धरेगा, अ तुमको घामा में डबल मारच कराएगा. काबुल को मोरचा पर हम निमन-निमन जवान को धुरछक छोड़ा घाला, तुम कवना खेत के मुरई है जी’.  एही तरह के डायलग के कारण ‘लोहा सिंह’ नाटक के लोकप्रियता बढ़त गइल. कहल जाला कि आकाशावाणी के ई पहिलका धारावाहिक रहे, जवन एतना लोकप्रिय भइल. ‘लोहा सिंह’ नाटक के शुरूआती ड्राफ्ट के नाम रहे- ‘लोहा सिंह ने मुरब्बे खाए’. बाद में ई नाटक जब लोकप्रिय भइल त ओकर अगिला कड़ी ‘लोहा सिंह ने खेती की’, ‘लोहा सिंह ने डॉक्टरी की’ जइसन दर्जनन ओकर रूप देखे-सुने के मिलल. जब जइसन देश आ समाज के जरूरत पड़ल, काश्यप जी ‘लोहा सिंह’ के अगिला कड़ी लिख डालत रहीं. भारत-चीन युद्ध का समय ‘लोहा सिंह’ धारावाहिक के माध्यम से आकाशवाणी के जरिए काश्यप जी देशभक्ति के भावना जगावे के जवन काम कइनीं, ओकर सराहना चारु ओर भइल. ‘लोहा सिंह ने मुरब्बा खाए और अन्य करतूते’ नाम से एक या दो खंड में ऊ सगरी धारावाहिक के प्रकाशन भइल रहे. बाद में जनता भूल गइल कि ओ नाटक के का नाम रहे, लोहा सिंह चरित्र का लोकप्रियता के कारण ‘लोहा सिंह’ ही प्रसिद्ध हो गइल. लोहा सिंह के संवाद के भाषा त हिंदी मिश्रित भोजपुरी बा लेकिन अउरी पात्र, जइसे पाठक जी, खदेरन की माँ, खदेरन, बुलाकी, अछैबट आदि पात्रन के भाषा शुद्ध भोजपुरी बा.
          भोजपुरी के मस्ती के भाषा मानल जाला. लोहा सिंह खुद एगो मस्त टाइप के चरित्र बा. मस्ती में लोग सबदन के बिगाड़ के बोलेला. लोहा सिंह के मस्त स्वभाव में ई आदत कूट-कूट के भरल बा. लोहा सिंह पाठक जी के फाटक बाबा, खदेरन की माँ के खदेरन को मदर, मार्च के मारच, क्वालिटी के कलाउटी, मेम के मेमिन, घिरनी के घरनई आदि कहत रहलन. एक तरह से नाटक में हंसी-मजाक के अइसन वातावरण बने कि लोग के दिलचस्पी बढ़ जाव. खदेरन की माँ बात-बात में ‘आ मार बढ़नी रे’ बोलत रहलीं, इहो आकर्षण के बड़ा आधार रहे.
          भोजपुरी में अलिखित लोकनाटक के परंपरा त खूब पुरान बा, लेकिन लिखित नाटक के कवनो बड़ इतिहास नइखे. राहुल सांकृत्यायन, भिखारी ठाकुर जइसन कमे नाम ‘लोहा सिंह’ के पहिले देखे के मिलेला. लेकिन जवन लोकप्रियता ‘लोहा सिंह’ के मिलल, ओकर उदहारण दोसर नइखे. ‘लोहा सिंह’ के बाद भोजपुरी में ओइसन दोसर कवनो नाटक ना आइल. हास्य-व्यंग्य का शैली में चले वाला ए नाटक के जरिए सामाजिक-सांस्कृतिक आ राजनीतिक सन्देश बड़ा लोक-लुभावन शैली में जनता तक पहुँचावे के काम कई दशक में चलल. एही से हम ‘लोहा सिंह’ नाटक के भोजपुरी के पहिलका ‘सोप आपेरा’ कहत बानी.  
          अइसन काल्पनिक कहानी, जवना के धारावाहिक रूप में प्रस्तुत क इल जाला, ओकरा के ‘सोप आपेरा’ कहल जाला. साधारण भाषा में कहल जाव त सोप आपेरा अइसन काल्पनिक कहानियनके नाम ह, जवन बहुत दिन तक चलत रह सके. ए काल्पनिक कहानियन के खूबी ई होखेला कि ई अइसन नाटकीय मोड़ पर खतम होली सन, जवना से ओकरा अगिलका कड़ी के नाटकीयता के अंदाजा हो जाला. ए में पारिवारिक, निजी, लैंगिक, भावनात्मक और आदर्शात्मक द्वंद्व रहेला. एकर विषय सामजिक चेतना से भी जुड़ल रहेला. ए तरह के कहानी में भूत-पिशाच अउर अलौकिकता के भी आधार रहेला. शुरूआती काल में ए तरह के कहानियन के ‘ड्रामेटिक सीरियल’ कहल जाव आ रेडिओ पर एकर प्रसारण होखे. अइसन प्रसारण के साबुन कंपनी प्रायोजित करे, एही से एकर नाम ‘सोप आपेरा’ पड़ल. एकर शुरुआत अमेरिका-यूरोप में भइल. आगे चलके एही तरह के कंटेट के साथे धारावाहिक रूप में आवे वाला रेडिओ प्रोग्राम ‘सोप आपेरा’ कहाए लागल. भारत में ‘लोहा सिंह’ नाटक का रूप में भोजपुरी के ई सौभाग्य बा कि ना सिर्फ भोजपुरी के, बल्कि शायद सम्पूर्ण भारतीय भाषा के पहिलका ‘सोप आपेरा’ कहलावे के एकरा गौरव प्राप्त बा. एह रूप में ‘लोहा सिंह’ नाटक के ऐतिहासिक महत्त्व बा.
          जब लोकप्रियता के अभिजन समाज में बहुत इज्जत के निगाह से ना देखल जात रहे, ‘लोहा सिंह’ नाटक लोकप्रियता के उड़नखटोला पर सवार होक ग्रामीण समाज से लेके अभिजन समाज का बीच अइसन जगह बनवलस, जवना के दोसर उदाहरण भोजपुरी नाटक साहित्य में शायदे मिले. भिखारी ठाकुर आ ‘विदेसिया’ के सामजिक प्रतिष्ठा पावे में काफी समय लागल, लेकिन ‘लोहा सिंह’ नाटक अपना जनमे काल से लोकप्रियता आ सामाजिक प्रतिष्ठा दुनूं एक साथे अर्जित कइलस. एकर कारण का रहे? हमरा समझ में एकर दुगो प्रधान कारण रहे. पहिलका ई कि ‘लोहा सिंह’ मूल रूप में रेडिओ नाटक रहे. 1960 का दशक में रेडिओ नाटक नया संचार माध्यम रहे, जवना के जादू के परभाव नगर से लेके गाँव तक, पढ़ल-लिखल से लेके अनपढ़ तक एक समान रहे. रेडिओ से प्रसारित भइला के मतलबे रहे कि ओकरा सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त बा. तेजी से उभरत लोकप्रिय संचार माध्यम त ऊ रहबे कइल. ओकर पहुँच के दायरा एक साथे बहुत व्यापक रहे. ओकर पहुँच पुरुष-दालान में भी रहे आ जनानखाना में भी. नाच-नाटक भी लोकप्रिय संचार माध्यम रहे, लेकिन ओकर पहुँच एतना व्यापक ना रहे. दोसर बात ई कि नाच-नौटंकी करे वाला लोग के प्रति ओ जमाना में समाज के नजरिया भी अच्छा ना रहे. अइसने समय में नया संचार माध्यम के रूप में रेडिओ आइल. ऐसन लोकप्रिय आ समाज-समादृत संचार माध्यम पर सवार होक ‘लोहा सिंह’ नाटक प्रसारित भइल, जवना के लेखक कवनो नाच-नौटंकी वाला न रहे, ईगो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित प्रोफेसर रहे, जिनकर नाम रामेश्वरी सिंह ‘काश्यप’ रहे. जब लोग का ई मालूम होखे कि लोहा सिंह के कड़कत आवाज काश्यपे जी के ह, त एकर आकर्षण अउरी बढ़ जाव.
          एगो बात अउरी बा. जवना समय में हास्य के मात्र जोकर के काम मानल जात रहे, वोह टाइम में ‘लोहा सिंह’ नाटक हास्य के अइसन तत्त्व लेके आइल, जवन शुरू से आखिर तक हास्य रस से सराबोर रहे, लेकिन हास्य का जरिए सामाजिक चेतना के भी बदले के काम हो सकेला, ई बात एक नाटक से साबित भइल. कवनो वैचारिक सन्देश वाला नाटक के लोग बहुत मन से ना पसंद करेला, लेकिन उहे विचार हास्य का ठहाका के साथ जनता के बीच जाब आइल त लोग ओकरा से सहजे जुड़ गइल.
          एक साथे ‘लोहा सिंह’ नाटक के एगो अउरी विशेषता बा. हर पात्र के आपन-आपन खूबी रहे. लोहा सिंह जवना ढंग के रहलन, पाठक जी ओकरा से अलग रहले, ओही तरह से खदेरन के माई, बुलाकी आ खदेरन के भी आपन-आपन स्टाइल रहे. हर पात्र अपना-अपना खूबी के साथे जनता के दिल दिमाग में बइठ गइल रहे. लोग ए पात्रन के अपना-अपना भीतर जिए लागल आ हर पात्र के डायलग बोले के ढंग अपनावे लागल. भोजपुरिया क्षेत्र के कई गो नेता लोग का बेजोड़ लोकप्रियता के पीछे ‘लोहा सिंह’ के डायलग के परभाव बा. उनकर भाषा में भोजपुरी, हिंदी आ अंग्रेजी के मिक्सचर बा. उदहारण के रूप में लोहा सिंह के ई डायलग देखल जा सकेला- “काबुल के मोरचा पर जब हम हुकुम देते थे त संउसे पलटन का जवान बनूक उठा के एक टंगरी पर ठड़ा हो जावता था. जब हम गर्जन करता था त लफ्टन को में आ करनइल को मेमिन बादहोस हो जाता था, अउर हमारी रोबलाइ सूरतको  खाबसूरती देखकर को जरनइल का कुक्कुर भूँकने लगता था....अउर एगो तुम हो जे हमारा हुकुम का नरेटी काट के बीग घालता है, बिलाई लेख मेऊँ-मेऊँ करता है”. दोसर उदहारण खदेरन की मदर के डायलग में देखल जा सकेला- “आ मार बढ़नी रे, इनका खातिर हम जतने जीव दिहीला, ओतने ई छान्ही पर चढ़ल जालन”. एही तरह के पाठक जी के भी बोले के आपण स्टाइल रहे. जइसे पाठक जी के एगो डायलग देखल जा सकेला- “जजमान! तू चल्हांकी के चीलम ह व, हिम्मत के हाथी ह व. केकर हिमायूं बा जे तोहरा मोकाबला करी? जावर भर में तोहरा नांव के डंका डगडगात बा. कहल बा जेबासे का बीच के बगल में कि- को नहीं जानत है जग में, कपि संकट मोचन नाम तिहारे”.  
          ‘लोहा सिंह के लोकप्रियता के एगो बड़ा कारण रहे, काश्यप जी के ऊ नजर, जवन दुनिया भर के नाटक-रंगमंच का क्षेत्र में होत बदलाव के पारखी रहे. काश्यप जी बड़ा आ कुशल नाटककार त रहले रहीं, उहाँ का हिंदी-भोजपुरी समेत विश्व-साहित्य के धाकड़ पढ़वइया भी रहनीं. 1930 ई. का दशक में रेडिओ के जरिए लोकप्रिय भइल सोप आपेरा का बारे में उहाँ का जरुर अध्ययन कइले होखब. ई सही बा कि विदेश सोप आपेरा के रेडिओ पर प्रायोजित करे में प्राक्टर एंड गेम्बल, कोलगेट, पामोलिव आ लेवल ब्रदर्स जइसन कंपनी के भूमिका रहे. अइसन कवनो भूमिका आकाशवाणी पटना से प्रसारित ‘लोह सिंह’ नाटक का पीछे कवनो कंपनी के ना रहे. लेकिन आपन लोकप्रिय सामाजिक सन्देश का कारण परोक्ष रूप में सरकारी प्रायोजन त ई रहबे कइल. सोप आपेरा के स्टाइल के अपना माटी-बानी के अनुसार काश्यप जी लेहनीं आ ‘लोहा सिंह’ जइसन धाकड़ चरित्र के जनमानस में बइठा दिया.
          ‘लोहा सिंह’ भोजपुरी समेत सगरो भारतीय नाटक साहित्य में अलबेला चरित्र रहे. लोहा सिंह के संवाद त मुर्दा आदमी के धड़कत जवान बनावे वाला रहबे कइल, ओकर देशभक्ति, समाजसुधारक, हंसोड़ आ गंवई मन-मिजाज के मेल से बनल व्यक्तित्व में जवन जादू रहे, ऊ जादू दोसरा नाटक के कवनो चरित्र में आज ले न लउकल. ‘लोहा सिंह’ के देखा-देखी अउर कई गो नाटक रेडिओ पर आइल, लेकिन लोहा सिंह का सामने कवनो नाटक ना टिक सकल. ‘लोहा सिंह’ भोजपुरी नाटक के लोकप्रिय, साथहीं अमर चरित्र बा.
          ‘लोहा सिंह’ का जइसन बेजोड़ सफलता रेडिओ पर मिलल, ओइसन ना त मंच पर मिलल, ना फिलिम का परदा पर. एकर कारण का बा? एकर एगो बड़ कारण ई बा कि ‘लोहा सिंह’ संवाद प्रधान नाटक रहे, अभिनय प्रधान ना. एकर सब जादू संवादे में बा. रेडिओ स्टेशन के वातानुकूलित साउंडप्रूफ कमरा में माइक्रोफोन के सामने बइठ के संवाद बोलल आ आवाज के अभिनय कइल एगो बात बा, जन-समूह का सामने देह-भंगिमा आ आवाज के अभिनय दोसर बात बा. काश्यप जी के ‘लोहा सिंह’ नाटक के सगरो परिकल्पना रेडिओ नाटक के सीमा में बा- अइसन हमार विचार बा. हो सकेला कि बढ़िया निर्देशक के हाथ में पड़ के ‘लोहा सिंह’ के मंच वाला रूप भी शानदार हो जाव. आखिर प्रसाद जी के ‘स्कंदगुप’ नाटक के ब.व. कारंत जइसन निर्देशक मंचित करिके ई साबित कर देहलें कि ना, कि नाटक जेतना नाटकार के विधा ह, ओतने निर्देशकों के भी.

          जइसे ‘मधुशाला’ से बच्चन जी के पीछा न छूटल, ओसहीं ‘लोहा सिंह’ से रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’ के पीछा ना छूटल. उहाँ का लिखनीं त बहुत कुछ, लेकिन ‘लोहा सिंह’ के लोकप्रियता उहाँ के अइसन पीछा करे लागल कि बाकी सब पर लोग के नजर पड़ के भी ना पड़ल. ‘लोहा सिंह’ उहाँ के पहिचान भी बनल आ कैदखाना भी. अइसन लोकप्रिय आ अमर चरित्र काश्यप जी के जदि भोजपुरी नाटक के देन बा त ई एह बात के प्रमाण भी बा कि कइसे एगो जीनियस नाटककार के ई सीमा भी बन गइल. लेकिल एकरा साथे ‘लोहा सिंह’ के ई श्रेय त दिहले जाई कि भोजपुरी में पहिलका बार सोप आपेरा शैली में एगो नाटक लोकप्रियता के नया आ ऐतिहासिक कीर्तिमान बनवलस अउर भिखारी ठाकुर के नाटकन का समानांतर आ ओह से बड़ एगो नया नाटक-प्रेमी वर्ग पैदा कइलस. भोजपुरी नाटक के लोकप्रिय बनावे में जइसन भूमिका रामेश्वर सिंह ‘काश्यप’ आ ‘लोहा सिंह’ के बा. एगो में लोक नाटक शैली के प्रधानता बा, त दोसरा में लोक-शैली के साथे नया माध्यम के उपज सोप आपेरा शैली के विशेषता. एगो में भोजपुरी समाज के दुःख-दर्द बा त दोसरका में ओ समाज के मस्ती आ जागरुक मन-मिजाज. ‘लोहा सिंह’ का जरिए भोजपुरी नाटक में युगांतर उपस्थित हो गइल. ‘लोहा सिंह’ भोजपुरी नाटक के ऊ खिड़की रहे जवना से होके आधुनिक नाटक के झोंका भोजपुरी के आँगन में आइल.          

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