नलिन विलोचन शर्मा(18 फ़रवरी 1916-12 सितम्बर 1961) बहु-उद्धृत आलोचक नहीं हैं, न प्रगतिशील
खेमे में और न गैर-प्रगतिशील खेमे में. हिंदी आलोचकों की जो सूची अक्सर जारी होती
है उसमें उनका नाम नहीं होता. वे बहुत कम उपलब्धियों के लिए याद किए जाते हैं.
अधिक-से-अधिक तब के गुमनाम से उपन्यास ‘मैला आँचल’ को कालजयी उपन्यास के
रूप में पहचान दिलाने वाले आलोचक के रूप में याद किए जाते हैं. हिंदी के इतिहास
दर्शन की चर्चा जब न के बराबर थी तब ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ जैसी किताब लिखने
वाले आलोचक के रूप में भी उनका नामोल्लेख होता है. और किसी प्रसंग में उन्हें याद करते
या उन्हें उद्धृत करते प्राय: नहीं
देखा-सुना जाता . ऐसा क्यों है; जबकि वे हिंदी के ‘सिगनिफिकेंट’ आलोचक हैं?
नलिन
जी के आलोचनात्मक लेखन का समय 1940-1960 के
बीच का है. यह शीतयुद्ध की छाया का दौर है. दुनिया सोवियत और अमेरिकी शिविर में बंटी हुई थी. राजनीतिक रूप से दो सिरों में विभाजित विचारधारा का
प्रभाव दुनिया के साहित्य पर भी था. माना जाता था कि या तो आप प्रगतिशील हैं या
गैर-प्रगतिशील. इस प्रभाव से हिंदी साहित्य भी अछूता नहीं था. हिंदी का समूचा
वातावरण प्रगतिवाद बनाम आधुनिकतावाद का बना हुआ था. नलिन विलोचन शर्मा आलोचना का
एक तीसरा पक्ष लेकर सामने आए. वे न प्रगतिवादी शिविर में शामिल हुए न
गैर-प्रगतिवादी शिविर में. दोनों से उनकी दूरी समान बनी रही. उन्होंने आलोचना के
इन दोनों धरातलों को अपर्याप्त माना और तीसरे धरातल के रूम में नए मान निर्मित करने की कोशिश की. जैसे शीतयुद्ध काल में दो शिविरों में बंटी हुई
दुनिया में गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक तीसरा शिविर बनकर उभरा, वैसी ही स्थिति लगभग नलिन विलोचन
शर्मा की आलोचना की भी है. दो महाशक्तियों
के बीच गुटनिरपेक्ष आंदोलन जैसे उपेक्षित रहा वैसी ही स्थिति नलिन विलोचन शर्मा की
भी रही. आज जबकि दुनिया शीतयुद्ध की छाया से मुक्त है, हिंदी में भी प्रगतिशीलता
और गैर-प्रगतिशीलता की वैसी फौजदारी नहीं है, तब उनकी आलोचना का महत्त्व पहचानने
की जरुरत है. आखिर वे कौन-से मान हैं जिनके जरिए नलिन जी हिंदी आलोचना के विकास
में ज़रूरी हस्तक्षेप करते हैं?
नलिन
विलोचन शर्मा ऐसी आलोचना के पक्षधर थे जो रचना का पुनः निर्माण करे. वे ऐसी आलोचना
को महत्त्व देते थे जो रचना की निर्माण प्रक्रिया और उसकी कला की भाश्वरता को
रेखांकित करे. उनकी दृष्टि में आलोचना ‘सृजन’ है. लेकिन ऐसा ‘सृजन’
जो किसी ‘कृति का निर्माण’ करे. वे आलोचना को किसी कृति की व्याख्या न
मानकर यह मानते थे कि ‘आलोचना कला का शेषांश ’ है. वे ‘कला के धरातल पर
उन्नीत’ हो जाने वाली आलोचना के समर्थक थे. वे किसी कृति की विषय-वस्तु से
अधिक उसकी भाषा, शिल्प, अभिव्यंजना शैली आदि को अधिक महत्त्व देते थे. उनके लिए
साहित्य में ‘क्या है’ से अधिक ‘कैसे है’ पर जोर अधिक है. इस कारण
कुछ लोग उन्हें रूपवादी आलोचक कहते हैं. लेकिन उनका रूपवाद समाज सापेक्ष आलोचना
दृष्टि का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है. उन्होंने लिखा है: “कोयल और पपीहे की
सुरीली तान पर भी भावुकतापूर्ण तथा थोथी कविता हो सकती है. फैक्ट्री की सिटी पर भी
प्राणवंत पद्य लिखे गए हैं. साहित्य का विषय गाँधीवाद भी हो सकता है और समाजवाद
भी, पर साहित्य उत्कृष्ट या निकृष्ट विषय के कारण नहीं, विषय के बावजूद होगा”.
रचना में इस ‘बावजूद’ की खोज ही नलिन जी की आलोचना का उद्देश्य है.
नलिन
विलोचन शर्मा का प्रगतिशील आलोचना से द्वंद्वात्मक सबंध है. यद्यपि वे मार्क्सवादी
नहीं हैं, वे गाँधीवादी भी नहीं हैं. विचारधारा की दृष्टि से देखना हो तो वे
एम.एन. राय के ‘रेडिकल ह्युमिनिज्म’ से प्रभावित लगते हैं. उन पर टी.एस.
इलियट का प्रभाव देखा गया है, लेकिन कई मुद्दों पर वे टी.एस. इलियट की कई
मान्यताओं से असहमत हैं. टी.एस. इलियट राजतंत्र के समर्थक थे, जबकि नलिन जी
लोकतंत्र को जरुरी मानते हैं; इलियट धर्म पर विश्वास करते थे, जबकि नलिन जी
विज्ञान सम्मत आधुनिक दृष्टि के समर्थक थे. वे कविता को विज्ञान का पूरक मानते
थे. वे परंपरा के मूल्यांकन में टी.एस. इलियट की धारणा के करीब हैं. इलियट की तरह
नलिन जी साहित्य को सबसे पहले साहित्य की कसौटी पर रखकर देखते हैं और इस अर्थ
में वे इलियट के करीब हैं. साहित्य संबंधी मान्यताओं के लिए उन्होंने मार्क्स,
एंगेल्स और लेनिन की प्रशंसा की है. साथ ही परंपरा के सम्यक मूल्यांकन के लिए
हिंदी की प्रगतिशील आलोचना की भी प्रशंसा की है,लेकिन उन्होंने प्रगतिवादी साहित्य
चिंतन और आंदोलन में उभरती हुई संकीर्ण प्रवृत्तियों पर हमला भी किया है. इसलिए
हिंदी में प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील दो तरह के शिविरों की जो अक्सर चर्चा होती
है उसमें नलिन जी नहीं आते हैं. वे हिंदी आलोचना का तीसरा पक्ष निर्मित करते हैं.
बीसवीं
सदी का चौथा-पाँचवाँ दशक भारत में प्रगतिशील आंदोलन के उत्कर्ष का काल है. इसी
दौरान नलिन विलोचन शर्मा का महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक लेखन प्रकाशित होता है. यही
समय है जब अज्ञेय और इलाहाबाद की संस्था ‘परिमल’ की ओर से साहित्य चिंतन और
मूल्यांकन के भिन्न धरातल खोजे जाते हैं. यही समय है जब भारतीय राजनीति में राम
मनोहर लोहिया का धमाकेदार प्रवेश होता है और उनके चिंतन का प्रभाव साहित्य पर लक्षित
किया जाता है. निश्चित रूप से देश-विदेश से उठने वाले इन वैचारिक झंझावातों का
प्रभाव नलिन जी पर भी पड़ा होगा. लेकिन वे किसी एक शिविर में जाना पसंद नहीं करते,
वे असल में साहित्य में शिविरबद्धता के विरुद्ध थे. उन्हें साहित्यकार का किसी
राजनीतिक दल का ‘पिछलग्गू’ होना पसंद नहीं था. वे भारतीय और पश्चिमी
साहित्य के गंभीर अध्येता थे, उनके सामने भारतीय साहित्य की महान परम्पराएं भी थी
और पश्चिम से आने वाले मार्क्सवादी और आधुनिक साहित्यिक मूल्य भी. नलिन जी संग्रह-
त्याग के विवेक का विरल उदहारण प्रस्तुत करते हैं. वे न तो भारतीयता की आँधी में
बहते हैं और न मार्क्सवाद -आधुनिकतावाद का कीर्तन करते हैं. मार्क्सवादी और
आधुनिकतावादी दोनों प्रतिमानों को नकारते हुए वे साहित्य के मूल्यांकन के लिए ‘मुक्ति’
और ‘स्वच्छंता’ दो आधार निर्मित करते हैं. मुक्ति और स्वच्छंदता में भी वे ‘मुक्ति’
को नए और उत्कृष्ट साहित्य का आधार मानते हैं. वे मानते हैं कि साहित्यिक रुढियों
से मुक्ति के बिना नए साहित्य का सृजन नहीं हो सकता.
नलिन
जी के अनुसार मुक्ति दो तरह की होती है- विषयगत और रूपगत. लेखक जब नए विषय को लेकर
आता है तब विषयगत मुक्ति संभव होती है जो वस्तुतः स्वच्छंदता है. नलिन जी के
अनुसार अंग्रेजी के लेखक बर्नार्ड सॉ और हिंदी के पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ में
यही विषयगत स्वच्छंदता है. उनके अनुसार ये दोनों लेखक अपने युग की अलस-ऊँघती हुई
चेतना को विषयगत परिवर्तन के जरिए ठोकर मारकर जगाते हैं. लेकिन वे साहित्य के
रूपगत ढाँचे में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं करते हैं. नलिन जी के अनुसार डी.एच.
लारेंस मुक्त और स्वच्छंद रचनाकार हैं और इसी अर्थ में अधिक महत्त्वपूर्ण भी.
लारेंस पर लिखते हुए उन्होंने लिखा है- लारेंस ने “मनुष्य की यौन समस्यायों का मुक्त
तथा स्वच्छंद विवेचन कुछ ऐसी गहराई और तलस्पर्शिता के साथ किया है कि वह अपनी
पूर्णता में आश्चर्यजनक रूप से उदात्त हो गया है”. नलिन जी के कथन का तात्पर्य
यह है कि बर्नार्ड सॉ ने अपने नाटकों के शिल्प में वैसी कोई क्रांति नहीं की, इस क्षेत्र में
उन्होंने परंपरागत नियमों का ही पालन किया. लारेंस उनकी दृष्टि में अधिक
महत्त्वपूर्ण इसलिए हैं कि उनके उपन्यास न केवल विषय की दृष्टि से बल्कि भाषा और
शिल्प की दृष्टि से भी रूढी- मुक्त है. नलिन जी के अनुसार मुक्ति और स्वच्छंदता की
कसौटी पर हिंदी में निराला और अंग्रेजी में वाल्ट व्हिटमैन विराट् व्यक्तित्व के कवि-
रचनाकार हैं, क्योंकि वे दोनों अपनी रचनाओं में भीतर-बाहर दोनों जगह क्रान्ति
उपस्थित करते हैं.
हिंदी
आलोचना में मुक्ति संबंधी नलिन विलोचन शर्मा की अवधारणा का नयापन समझने की जगह कुछ
मार्क्सवादी आलोचकों ने उन्हें रूपवादी आलोचक माना है. नलिन जी आत्यंतिक रूप से
नवीनता के आग्रही आलोचक थे. वे तात्कालिक यथार्थवाद और रुपवाद जैसे आलोचनात्मक
प्रत्ययों से इत्तेफाक नहीं रखते. ‘मुक्तता’ और ‘स्वच्छंदता’ की
अपनी कसौटी पर वे प्रगतिशीलों की भी आलोचना करते हैं तो इनकी कमी के कारण अज्ञेय
और अज्ञेय पंथियों की भी.
नलिन
विलोचन शर्मा की आलोचना में ‘मुक्ति’ और ‘स्वच्छंदता’ संबंधी धारणा
के कारण एक तरह का खुलापन है. वे प्रगतिवाद की आलोचना करते हैं तो मार्क्स और
प्रमुख मार्क्सवादी सिद्धांतकारों की साहित्य संबंधी विचारों की प्रशंसा भी करते
हैं. बर्नार्ड सॉ और डी.एच. लारेंस तथा प्रेमचंद और जैनेन्द्र जैसे सर्वथा विरोधी
स्कूल के माने जाने वाले लेखकों को एक साथ पसंद करने वाले नलिन जी की आलोचना
दृष्टि वैसी सरल नहीं है जैसी आम तौर पर
समझ लिया जाता है.
नलिन
जी आलोचना में रामचंद्र शुक्ल के प्रशंसक हैं और उनकी परंपरा का विकास करते हैं. वे मानते हैं
कि “शुक्ल जी वैसे आलोचक हैं, जिनके विवरण तो पुराने पड़ सकते हैं, किन्तु
सिद्धांत और मीमांसा महार्घ बनी रहती है”. इसीलिए वे शुक्ल को शास्त्र का
विद्वान आलोचक ही नहीं, बल्कि एक महान कलाकार कहने में संकोच नहीं करते. प्रगतिवाद से असहमति के बावजूद वे प्रगतिशील
आलोचक डॉक्टर रामविलास शर्मा द्वारा लिखित ‘हिंदी आलोचना और रामचंद्र शुक्ल’
नामक पुस्तक की वे प्रशंसा करते हैं. नलिन जी के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं था कि
यह किताब किसी प्रगतिशील आलोचक ने लिखी है, उनके लिए महत्त्वपूर्ण यह था कि इससे शुक्ल जी की आलोचना -पद्दति का विकास
होता है. आलोचना की यह पद्धति विवेकवादी समझ और दृष्टि से बनी थी. नलिन जी भी इसी
विवेकवाद के कायल थे. परंपरा के सातत्य
में उनका विश्वास था और विज्ञान द्वारा प्राप्त निष्कर्षों का वे समर्थन करते थे.
वे शुक्ल जी की ही तरह जीवन और साहित्य में रहस्यवाद के विरोधी थे. किसी अलौकिक
सत्ता में उनका विश्वास नहीं था. वे अनीश्वरवादी और वैज्ञानिक चेतना के आलोचक थे. लेकिन
वे मार्क्सवाद को विवेकवाद की एकमात्र राह नहीं मानते थे. बाहरी सत्य के साथ
आतंरिक सच की वास्तविकता को भी वे स्वीकार करते थे. इसलिए सिगमन फ्रायड के
वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर मानव चरित्र का विवेचन-विश्लेषण आवश्यक मानते थे.
नलिन
विलोचन शर्मा प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और निराला को आधुनिक हिंदी साहित्य का शिखर
मानते थे. इनको शिखरासीन करने में रामविलास शर्मा के साथ सबसे पहले जो याद किए जाएँगे
वे नलिन विलोचन शर्मा ही होंगे. यद्यपि नलिन विलोचन शर्मा की कसौटी रामविलास शर्मा
से भिन्न है. उनके अनुसार प्रेमचंद, शुक्ल जी और निराला आधुनिक हिंदी साहित्य के
महान लेखक ही नहीं, महान कलाकार भी थे.
नलिन
विलोचन शर्मा को लिखने के लिए पर्याप्त उम्र नहीं मिली. फिर भी उन्होंने हिंदी के
अतिरिक्त संस्कृत और अंग्रेजी के बड़े लेखकों पर प्रचूर मात्रा में लेखन -कार्य
किया. उनकी आलोचनात्मक कसौटी का मुख्य आधार ‘स्वच्छंदता’ और ‘मुक्ति’
ही है. इसी आधार पर वे साहित्य का मूल्यांकन करते हैं और उस लेखक की कला का वह
पक्ष उद्घाटित करते हैं जो बहुतों के लिए कठिन था. वे सच में कृति का निर्माण करने वाले आलोचक थे.
नलिन
जी ने कई विषयों पर लिखा है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी देन कथा साहित्य की आलोचना को
है. कथा साहित्य में भी प्रेमचंद की उपन्यास कला और कहानी कला के वे बड़े आलोचक
हैं. रामविलास शर्मा ने आधुनिक हिंदी का महान लेखक प्रेमचंद को तो बना दिया था
लेकिन यह कार्य उन्होंने उनकी सामाजिक चेतना के आधार पर किया था. इस कारण बहुतेरे
कलावादी लोग प्रेमचंद को महान लेखक मानने को तैयार नहीं थे. नलिन विलोचन शर्मा ने
हिंदी आलोचना की उस रिक्त स्थान की पूर्ति की जो प्रगतिशील आलोचना की अतिशय
समाजशास्त्रीयता से पैदा हुई थी. कहा जा सकता है कि इस अर्थ में हिंदी आलोचना के
विकास में उनका योगदान ऐतिहासिक महत्त्व का है. उन्होंने कला विहीन मानने वाले
आलोचकों के आरोपों का उत्तर तो दिया ही, प्रेमचंद को कला की ऊँचाई पर भी
प्रतिष्ठित किया. जितने विस्तार और जितने मनोयोग से उन्होंने प्रेमचंद की कला का
विवेचन-विश्लेषण किया वह उनके पूर्व तो हुआ ही नहीं था, अब तक नहीं हो पाया है.
हिंदी
उपन्यास की आलोचना के विकास में नलिन विलोचन शर्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान है. वे हिंदी
के पहले आलोचक थे जिसने उपन्यास के शास्त्र के निर्माण की दिशा में महत्त्वपूर्ण
कोशिश की. वे उपन्यास को आधुनिक विधा मानते थे तो इसलिए नहीं कि उनका जन्म आधुनिक
काल में हुआ, बल्कि इसलिए कि आधुनिकता एक सामाजिक और मानवीय मूल्य की तरह है जो
उपन्यास नामक विधा में समग्रता में प्रकट हुई है. वे उपन्यास को साहित्य का ‘अंत्यज’
मानते थे. ‘अंत्यज’ भारतीय सन्दर्भ में दलित जातियों को कहा जाता था.
कविता, नाटक, कथा साहित्य आदि विधाओं की तुलना में यह अंत में पैदा हुई साहित्यिक
विधा भी थी. इसलिए नलिन जी का उपन्यास को ‘अंत्यज’ कहना बहुत ही अर्थ-व्यंजक
है. यह काल सूचक तो है ही, इस विधा के समाज से जुड़ाव और वैशिष्ट्य को भी परिभाषित
करता है. नलिन जी मानते थे कि आधुनिक युग की विषमता, जटिलता और जीवन संघर्ष ने
उपन्यास नामक विधा को जन्म दिया. पाश्चिमी उपन्यासों की तुलना में हिंदी उपन्यास
पिछड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है? नलिन जी के अनुसार इसका मुख्य कारण हमारी आज की
सभ्यता का कम जटिल होना है. उन्होंने लिखा है “हिंदी उपन्यास का इतिहास किसी भी
देश के इतिहास की तरह हिंदी भाषी क्षेत्र की सभ्यता और संस्कृति के नवीन रूप के
विकास का साहित्यिक प्रतिफल है. समृद्धि और ऐश्वर्य की सभ्यता महाकाव्य में
अभिव्यंजना पाती है, जटिलता, वैषम्य और संघर्ष की सभ्यता उपन्यास में..... हमारे
उपन्यास यदि आज पश्चिमी उपन्यासों के समकक्ष सिद्ध नहीं होते तो मुख्यतः इसलिए कि
हमारी वर्त्तमान सभ्यतया आज भी कम जटिल, कम उलझी हुई और कहीं ज्यादा सीधी-साधी
है”. नलिन जी उपन्यास को जब ‘अंत्यज’ विधा कह रहे थे तब महाकाव्यों के
समक्ष उसकी स्थिति अंत्यज जैसी ही थी. उन्होंने इस अंत्यज विधा द्वारा महाकाव्य के
अपदस्त किए जाने का स्वागत किया. उन्होंने लिखा “शताब्दियों की प्रतीक्षा के
बाद साहित्य का यह अंत्यज अपने छिपी संभावनाओं को लेकर अपनी सामर्थ्य का परिचय दे
सका है. और अब तो अभिजात्य का भी दावा कर सकता है”.
नलिन
जी हिंदी में जिस तरह से उपन्यास का शास्त्र तैयार करने की कोशिश कर रहे थे उसी
उन्होंने तरह प्रेमचंद की उपन्यास- कला के वैशिष्ट्य को भी रेखांकित करने की कोशिश
की. वे कहते थे कि प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास के स्थापत्य को क्रन्तिकारी ढ़ंग से
परिवर्तित कर दिया. वे यह भी मानते थे कि यह क्रांति अहिंसक किस्म की थी. ‘गोदान’
के बाद उन्होंने ‘मैला आँचल’ को मन से पसंद किया. ‘मैला आँचल’ को
डिस्कवर करने का श्रेय नलिन विलोचन शर्मा को ही जाता है. जब ‘मैला आँचल’ पर
किसी का ध्यान नहीं गया था, तब उन्होंने उसकी ओर हिंदी संसार का ध्यान दिलाते हुए लिखा
कि “गोदान के बाद हिंदी उपन्यास में जो गत्यवरोध था वह ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन
से दूर हुआ.” उनकी यह भविष्यवाणी सच हुई और हिंदी संसार ने रेणु को सिर माथे
पर बिठा लिया. नलिन जी के उपन्यास संबंधी चिंतन परख लेख और टिप्पणियाँ उनकी पुस्तक
‘हिंदी उपन्यास: विशेषतः प्रेमचंद’ में संकलित है. इन पंक्तियों के लेखक
द्वारा संपादित ‘नलिन विलोचन शर्मा: रचना संचयन’ में भी उनकी आलोचनात्मक
टिप्पणियों को देखा जा सकता है.
नलिन
विलोचन शर्मा हिंदी के ऐसे आलोचक हैं जो जाने तो गए पर माने नहीं गए. इसके मुख्य
तीन कारण है. पहला कारण हिंदी साहित्य में शीतयुद्ध की छाया का प्रभाव और हिंदी
संसार का दो शिविरों में बंटा होना है जिनसे नलिन जी की आलोचना समान दूरी बनाकर चल
रही थी. दूसरा कारण है 46 वर्ष की अल्पायु में मृत्यु के कारण एक आलोचक के रूप में
फैलने और स्थापित होने का कम समय मिलना.
और तीसरा कारण है उनकी रचनाओं का आज भी अनुपलब्ध होना. वे हिंदी में ‘सिग्निफिकेंट’
आलोचक तो थे ही, नया आधार तैयार करने वाले
हिंदी आलोचना के जरुरी अध्याय भी थे.
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