माघ शुक्ल द्वितीया (२२-१-२०१५, जन्मदिन पर)
१
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!
डालियों से फूल झर-झर झर रहे हैं,
तर रहे हैं, बिखर-बिखर निखर रहे हैं,
कौन अंचल दिग्वधू का भर दिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!
मंजरित वन, पिन्जरित तन, गुंजरित मन,
और सौरभ-भरित वातावरण उन्मन,
कूकती कोयल कि जैसे मधु पिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!
चकित हो चंचल चराचर देखता हूँ,
फिर स्वयं में लौट कर कुछ लेखता हूँ,
सर्ग को कि निसर्ग मुट्ठी में लिए है!!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!
विधि- निषेध स्वयं-रचित है जाल ही क्या?
सत्य यमुना-पुलिन-तरुण तमाल ही क्या?
नीति आहत, नियति शत जीवन जिए है!
कौन मेरे प्राण को पागल किए है!!
२
बाँसुरी
किसने बाँसुरी बजाई?
जनम-जनम की पहचानी-
वह तान कहाँ से आई?
अंग-अंग फूले कदम्ब-सम
साँस-झकोरे झूले,
सूखी आँखों में यमुना की-
लोल लहर लहराई!
किसने बाँसुरी बजाई?
जटिल कर्म-पथ पर थर-थर-थर
काँप लगे रुकने पग,
कूक सुना सोये-सोये-से
हिय में हूक जगाई!
किसने बाँसुरी बजाई?
मसक-मसक रहता मर्म-स्थल,
मर्मर करते प्राण,
कैसे इतनी कठिन रागिनी
कोमल सुर में गाई!
किसने बाँसुरी बजाई?
उतर गगन से एक बार-
फिर पीकर विष का प्याला,
निर्मोही मोहन से रूठी
मीराँ मृदु मुस्काई!
किसने बाँसुरी बजाई?
3
भारतीवसन्तगीति:
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।
मृदुं गाय गीतिं ललित-नीति-लीनाम्।।
मधुरमंजरीपिंजरीभूतमाला:, वसन्ते लसन्तीह सरसा रसाला:;
कलापा: सकलकोकिलाकाकलीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।
वहति मन्दमन्दं सनीरे समीरे, कलिन्दात्मजायास्सवानीरतीरे;
नतां पंक्तिमालोक्य मधुमाधवीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।
चलितपल्लवे पादपे पुष्पपुंजे, मलयमारुतोच्चुम्बिते मंजुकुंजे;
स्वनन्तीन्ततिम्प्रेक्ष्य मलिनामलीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।
लतानां नितान्तं सुमं शान्तिशीलम्, चलेदुच्छलेत्कान्तसलिलं सलीलम्-
तवाकर्ण्य वाणीमदीनां नदीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।
पृथवीराज कपूर के दो पत्र शास्त्रीजी के नाम
कवि,
तुम तुम ही हो! पद्य क्या और गद्य क्या, - तुम्हें दोनों पर उबूर हासिल है।
रात सोने से पहले ‘स्मृति के वातायन’ में रोज़ झाँकता ही हूँ, सोते में भी उन्हीं
खिडकियों में झाँकता फिरता हूँ।
अब कहीं जाकर यह रहस्य खुला है कि तुम्हारी रचनाओं में इतना रस, यह दर्द, यह सोज, यह कैफ, यह सुरूर, यह बुलंदियाँ, यह गहराइयाँ कहाँ से आती
हैं। मनुष्य तो एक तरफ, तुमने तो पशु-पक्षियों की पीड़ाओं का भी गरल पी रखा है, तभी तो तुम्हारी लेखनी से
अमृत चूता है।
पृथ्वीराज कपूर
2.
पृथ्वी झोंपड़ा
जानकी कुटीर
जुहू- बंबई 54
07.03.1971
कवि,
सस्नेह, सादर वन्दे !
आशा
है, आपकी यात्रा सुख-पूर्वक बीती होगी, और इस वक्त तक आप निराला निकेतन
में पहुँच कर बहू जी और उन सब आश्रम-वासियों के लिए सुख का बाइस बन रहे होंगे।
इधर
यह आलम है कि फारसी का वह शेर बार-बार दिलो-दिमाग में घूम-घूम जाता है:
‘हैफ दर चश्मे जदन सोहबते यार आखिर शुद
रूए
गुल सेर न दीदम के बहार आखिर शुद !’
आखिर
आँख झपकने में मित्र की मुलाकात समाप्त हो गई। अभी जी भर के फूल को देख भी न पाए
थे कि बहार खत्म हो गई।
रात
के साढ़े बारह बज रहे हैं, मैं
यह पत्र लिख रहा हूँ। आज शूटिंग न थी। कल भी छुट्टी रही, कि
यहाँ वोटिंग का दिन था। मैं सबेरे ही माटुंगा चला गया। रमा जी, कृपाराम जी और उनकी पत्नी प्रभाजी को साथ लेकर वोट डालने गए। वहाँ से
लौट कर माटुंगा में ही दोपहर का भोजन किया। वहीं सो गया। शाम को चाय पी। और साढ़े
सात बजे वहाँ से चल कर झोंपड़े में लौट आया।
कल सुबह आर.के. स्टूडियो में नागपंचमी की शूटिंग में काम करने जाऊँगा। मंगल और बुध को
भी। बृहस्पतिवार को एक पंजाबी तस्वीर की शूटिंग है। बारह को होली की छुट्टी
होगी। तेरह को डब्बू की ‘कल आज और कल’
की शूटिंग में शामिल रहूँगा। चौदह की छुट्टी, फिर पन्द्रह
से 22 तक डब्बू की शूटिंग और 23 को बंगलौर चला जाऊँगा। 31 को वहाँ से लौटूँगा।
4
और 5 को रमेश सेहगल की नई तस्वीर की शूटिंग थी। ईश्वर-कृपा से तबीयत अभी तक ठीक है – अब वह खुद ही तो देखरेख की बागडोर संभाले हुए हैं। बाकी आपके पत्र आने
पर। प्यार और प्यार-भरी दुआओं के साथ आप दोनों के लिए –
पृथ्वी
कविताएं पढ़ कर स्म्रितियां उमड़ आईं। अपने ब्लाग पर उन्हें नमन करूंगा। vibhutimurty.blogspot.com
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