कुआँ प्यासे के पास आया
पृथ्वीराज कपूर
दरियागंज की एक छोटी –सी गली में, एक छोटे –से मकान की,एक छोटी सी बैठक के
छोटे –से दरवाजे में घुसते ही, एक छोटी सी चारपाई पर एक विशाल मूर्ति को बैठे देख,
मैं मंत्रमुग्ध कुछ झुका-झुका सा,बस, खड़ा – खड़ा सा ही रह गया. मूर्ति की पीठ मेरी
ओर थी. शरद जो मुझे वहां लिवा ले गए थे लपक कर आगे बढ़े, मूर्ति के सामने की ओर जा
प्रणाम कर बोले “पृथ्वीराज आए हैं” . मूर्ति ने एक उचटती हुई निगाह अपने
विशाल कंधो पर से मुझ पर डाली जैसे कौंदा
पहाड़ पर से लपके और फिर गायब हो जाए – शरद की ओर देखते हुए, एक गंभीर आवाज ने कहा –
“मैंने इन्हें पहले कहीं देखा है !” शारद मेरी ओर देखने लगे. उसकी ऑंखें कह रही थी
कि आप तो कहते थे कि यह पहली ही मुलाकात होगी, क्या रहस्य है?मैं स्वं विचार मग्न
हो गया कि वह वृषभ स्कंध तेजी से घुमे और दो बड़ी- बड़ी आँखे मेरे चेहरे पर रुक गई
जैसे रात के अंधियारे में किसी पहाड़ी रस्ते पर चलते- चलते एक मोड़ पर अचानक कोई मोटर गाड़ी नमूदार (प्रगट) हो और अपनी बड़ी
बत्तियां आपके मुंह पर गाड़ दे – हाँ बस फर्क था तो इतना कि उस रौशनी की उष्णता जला
दे,और चमक आँखों को चुंधिया दे, किन्तु इन आँखों के तेज में चन्द्रमा की शीतलता थी
जिससे मेरी आँखे चुन्धियाई नहीं, वरन कमल की भांति खिल उठीं – मै मन्त्र मुग्ध
बड़ी-बड़ी आँखों को निहारता रहा और उनके पास से ही आ रही गंभीर और मीठी आवाज का
रसपान करता रहा, जो कह रही थी: ‘जी हाँ ! मै आपसे पहले ही मिल चुका हूँ, मुझे खूब
याद है, अच्छी तरह याद है- सन १९३४- लखनऊ.’ सन १९३४ लखनऊ ? मैं तो पहली बार जब
लखनऊ गया तो वह था अपने थियेटर के साथ सन ४८ में, यह ३४ कह रह हैं, इन्हें भ्रम
हुआ है. मैं इधर यह सोच ही रहा था कि उधर वह आवाज बराबर कहे जा रही थी- हाँ हाँ!सन
३४, सन ३४, लखनऊ , मुझे कल की तरह याद है- सन ३४ –लखनऊ – सीता-राम, राम-राम कहते –
कहते,वह भव्य मूर्ति लपकी, हवं कुंद की ज्वाला की भांति, यूँ लपलपाती हुई जैसे कसी
पंजाबी कवि ने कहा है : -सुल्फे दी लात बरंगी.
और उस ज्योति ने मेरे अंधियारों को अपने आलिंगन में ले लिया और यूँ जान पड़ा कि ऋषि वाल्मीकि राम- राम का मन्त्र
उच्चारण कर रहे हों!
शरद और साथ गए हुए सब सज्जन चकित हो इस दृश्य को देख रहे थे. मैंने कहा- कवि
सत्य कहते हैं, सन ३४ में श्री देवकी कुमार बोस कृत “सीता” फिल्म में मैंने राम की
भूमिका की थी- कवि ने उसे लखनऊ में देखा था.
यही थी मेरे अंधियारों की उस ज्योति
से पहली भेंट, पहली मुलाकात, जिसमे से मुलाकातों का ताँता चल निकला. फिर तो
जब-जब मैं इलाहाबाद थियेटर के साथ गया, साथियों को साथ ले, यह प्यासा अपनी प्यास
प्यास बुझाने कुएं के पास जाता ही जाता. पर एक बार यूँ भी हुआ कि स्वंय कुआ प्यासे
के पास आया. यह सन ५५ की बात है. मैं थियेटर के साथ गया और हम कृष्णा सिनेमा के
हाल में थियेटर कर रहे थे – दीवार, पठान, आहुति, गद्दार, कलाकार और पैसा.
प्रयाग के कविजन, जब-जब मै प्रयाग गया, बड़े प्यार से अपने चरणों में जगह
देते,-पंत जी, महादेवी जी, डॉ. रामकुमार वर्मा, फ़िराक गोरखपुरी और बच्चन जी ने
बार-बार मेरी झोली रत्नों से भर-भर दी. थियेटर की छत पर बैठे हैं, खेल हो चुका है,
भोजन आदि से निवृत हो, सब कलाकार साथी जुटे हुए हैं- नींद जो खेल ख़त्म होते ही झपट
अपनी लपेट में ले लेती थी, आज कोसों दूर है – रोशनियाँ गुल हैं, तारों की छहों
में, मंद मंद स्वरों में, बच्चन कविता पर कविता सुनाए जा रहे हैं, कि वहीँ भोर हो
गई- और खेल से पहले फ़िराक जी के साथ वह वह महफिलें जमी हैं कि सुरूर अभी तक कायम
है. और त्रिवेणी –स्नान और निराला- दर्शन, यह तो एक लड़ी में गुथे हुए पुण्य कर्म मेरा
सौभाग्य ही बन गए थे.
उधर इन्फोर्मेशन विभाग के सज्जनों को ज्यों ही पता मिलता है कि निराला के
दर्शनों को जा रहा हूँ, अपना तामझाम लेकर उपस्थित हो जाते, शरद जी तो साथ ही होते,
डाक्टर रामकुमार जी वर्मा, और फ़िराक साहब का भी वहां साथ रहा- यह महानुभाव अपनी-
अपनी रचनाओं का पाठ करते और फिर निराला जी, बांध तोड़ती हुई नदी की भांति बह निकलते
और इन्फोर्मेशन विभाग के साथी उस उमड़ते ज्वार को टेप रिकार्डों में भर-भर लेते. यह
लोग कहा करते :, ‘तुम्हारे आने यह अवसर जुटता है, नहीं तो कवि माने नहीं मानते और
यूँ कविता पाठ नहीं करते.’ मै सोचता, कोई पुराने जन्म का ही सम्बन्ध होगा – नहीं
तो कहाँ रजा भोज, कहाँ गंगुवा तेली – इस जन्म का तो कवि- समाज से मेरा यही एक नाता
है कि: -
बंदऊँ कवि- पद पद्म –परागा !
और उस पराग को मस्तक पर लेने के लिए, वह पराग मैलो न हो जाए, मुझे अपने मस्तक को सौ –सौ बार पोंछ –पोंछ कर स्वच्छ करना
होगा !हाँ, उसी बार कि बात है कि कुआँ प्यासे के पास आया या यूँ कहो कि छलछलाती
भागीरथी, मेरे तन की गलियों का मल दूर करने को मचल उठी और घाट- बाट उलान्घती इधर
को उमड़ पड़ी.
कवि के यहाँ ही बैठे थे, किसी साहब ने कहा : “कवि ने आपका कोई नाटक भी देखा है
पृथ्वी जी ?’’ मैंने कहा “नहीं”. वह कहने लगे: “यह क्या बात है, इन्हें कहना
चाहिए’’ दूसरे एक साहब बोले: “आजकल कवि का मन स्थिर नहीं, कहीं नहीं जाते, पीछे
कहीं गए थे, आधे में उठ आये, जलसा भंग हुआ, नहीं, इन्हें ले चलने में आपत्ति होगी,
नाटक छिन्न- भिन्न न हो जाए!’’ कवि का ध्यान इन बातों की ओर आकर्षित हुआ, पूछने
लगे: ‘’क्या बात है ?” जब बताया तो कहने
लगे “मै जरूर चलूँगा. मैं अवश्य नाटक देखूंगा, आज नहीं, शायद कल आऊँ, आऊंगा सही,
जरूर आऊंगा .”
बात हो गई, हम चले आये. दूसरे ही दिन, नाटक के समय से, कुछ देर पहले, एक
गोष्ठी से मै जो वापस लौट थियेटर पंहुचा तो क्या देखता हूँ, अपने साब साथियों की
भीड़ लगी है, बीच में चारपाई पर चादर बिछी है और निराला जी बड़ी शांत मुद्रा में
विराजमान हैं. मुझे देखते ही बोले: “ लो, मैं आ गया, बहुत देर से आया बैठा हूँ, आपके
साथी बड़े अच्छें हैं, इन्होंने मेरी बड़ी ख़ातिर की. अब खेल कब शुरू होगा- हम थिएटर
में बैठते हैं, तुम मेकअप करो”. उस दिन हम ‘’आहुति’ खेल रहे थे, खेल शुरू होने से
पाँच मिनट पहले निराला जी और उनके साथी साब थिएटर हाल में पहुँचा दिए गए. कुछ भाइयों
ने संदेह प्रगट किया कि अब भी टाल जाओ. नहीं तो शो बिगड़ेगा. मैंने कहा: “बने, भले
बिगड़े, मेरे लिए तो उनका आना ही आशीर्वादस्वरुप है, घर आई गंगा को लौटा दूँ? वह
कैसे हो सकता है- अरे देखते नहीं हो, कुआँ प्यासे के पास आया है, मैं कितना
भाग्यशाली हूँ, यह तो निहारो, यह तो समझो.”
‘मानो, न मानो, जानेजहाँ, अख्तियार है.
हम नेकोबाद हुज़ूर को समझाए जाते हैं.’
यह कहके वह लोग अलग हो गए और मैं
मेकअप में जुट गया.
पहला अंक, दूसरा अंक, तीसरा अंक
पूरा खेल हो गया, कवि टस से मस न हुए. दो-दो विश्राम भी हो गये. कवि उठे नहीं,
हिले नहीं, जल तक नहीं पिया. पूछने पर कहला भेजा ‘मैं मज़े में हूँ, मेरी चिंता न
करो,- नाटक समाप्ति पर रोज़ कि तरह मैंने दो शब्द कहे, उपस्थित दर्शकजनों से आशीर्वाद माँगा, अपने
लिए, अपने कलाकार साथियों के लिए, कि देखा कवि अपनी स्थान पर से उठ रहे हैं; समझा
, बाहर जा रहे हैं- कि कवि खड़े हो गये और अपनी गरजती हुई आवाज़ में बोले “मुझे कुछ
कहना है”. मैं स्टेज पर हाथ जोड़े खड़ा रहा, पर्दा जो बंद होने जा रहा था, रोक दिया
गया कि कवि घुमे और दर्शक गणों को संबोधित कर बोले- “यह पुण्यभूमि, यह तपोभूमि,
प्रयाग: इलाहाबाद- किसके लिये मशहूर है.” वह अंग्रेजी में बोल रहे थे. उन दिनों
यही देखा कि जब-जब कवि उत्तेजित हुए- अंग्रेजी में बोलते, क्यों? यह नहीं समझ
पाया. हो सकता है, किसी समय उन्हें एहसास दिलाया गया हो कि इस देश में जो अंग्रेजी
की महत्ता है, वह दूसरी किसी भाषा की नहीं, और यह बात उनके मस्तिष्क में बैठ गयी
हो कि यहाँ का माना गया, पढ़ा-लिखा वर्ग अंग्रेजी को हिंदी से अधिक समझता है, या
कोई और वजह हो, कह नहीं सकता. हाँ! तो वह अंग्रेजी में बोल रहे थे. वह कह रहे थे:
प्रयाग, इलाहाबाद यह ऋषि भूमि है, यह तपोभूमि, यह पुण्यभूमि पूज्य है, मान्य है
त्रिवेणी के कारण. त्रिवेणी: गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम; गंगा, यमुना सरस्वती;
गंगा. हाँ गंगा है. यमुना! हाँ यमुना भी है, हम देख पा सकते हैं, गंगा भी, यमुना
भी, पर सरस्वती? किस ने देखा है सरस्वती को? कहाँ है सरस्वती? कहाँ है?” कवि जोर
से कह रहे थे : कहाँ है, कहाँ है?-
सन्नाटा? कुछ देर स्तब्ध रहे- रहे , साथ ही यूँ जान पड़ा कि हाल में बैठे सब लोगों
ने अपनी सासें रोक रखी हों- और फिर जो कवि घुमे- तो वही कम सम बड़े-बड़े नेत्र मोटर
गाडी की हेड लाइट्स की भान्ति मुझ पर गड़े थे- और बाईं को पूरा फैला मेरी ओर संकेत
कर कवि कह रहे थे ‘‘वह है; वह है; वह है’’ साथ साथ आवाज़ उठती जा रही थी- वह है! वह
है!! वह है!!!
मैं काँप उठा- दोनों हाथ आपसे आप
जुड़गये, नतमस्तक हो मैंने प्रणाम किया- हाल तालियों से गूँज उठा- और वह आवाज़- वह
सिंह-गर्जन-आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है- वह है, वह है!काव्य और साहित्य की
गंगा-यमुना के बीच नाट्यकला की सरस्वती का संगम हो, तब त्रिवेणी बनती है- वह उस
दिन जाना!
कुआँ प्यासे के पास आया- प्यास बुझा गया कि अधिक
भड़का गया, यह राम जाने. मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जब-जब सरस्वती के प्रवाह में
बहा जा रहा होता हूँ, तो कवि की गर्जना सुनाई पड़ती है- वह है- वह है- वह है- वह
है- वह है- वह-!!!
(जानकीवल्लभ शास्त्री की पुस्तक—‘नाट्यसम्राट श्री पृथ्वीराज कपूर’ से)
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