Tuesday, 7 November 2017

मानवीय अंत:करण और मुक्तिबोध

नयी कविता के कवियों में मुक्तिबोध शीर्ष स्थान के अधिकारी अपनी कविताओं के कारण तो हैं ही, अपनी आलोचना के लिए भी हैं. उनका आलोचना साहित्य इतना विचारपूर्ण और समृद्ध है जितना उनके पहले नहीं था. इस अर्थ में उनकी महिमा से सहज तुलनीय एक ही नाम है- ‘अज्ञेय’ का. हालाँकि दोनों के साहित्य चिंतन की दिशाएँ अलग हैं. मुक्तिबोध ने हिंदी कविता और आलोचना को जितने नए पद और प्रत्यय दिए हैं वे उनके नए साहित्यिक सोच के प्रमाण हैं. ज्ञानात्मक संवेदना, संवेदनात्मक ज्ञान, फैंटेसी, सभ्यता-समीक्षा आदि नए प्रत्ययों ने आगे के साहित्य चिंतन को कितना प्रभावित किया है, यह कहने की जरुरत नहीं . इसी तरह का एक नया शब्द मुक्तिबोध के सन्दर्भ में है- ‘अन्तःकरण’.
                   मुक्तिबोध को ठीक-ठीक समझने के लिए इस ‘अन्तःकरण’ को भी समझना जरूरी है. एक मार्क्सवादी का अन्तःकरण की बात करना हमारा ध्यान भी खींचता है और हमें चकित भी करता है. यह ‘अन्तःकरण’ क्या है? मुक्तिबोध के पहले स्वतंत्रता आन्दोलन के महानायक महात्मा गाँधी के यहाँ ‘अंतरात्मा’ की चर्चा अक्सर मिलती है. वे कभी-कभी लोकप्रिय कार्यक्रमों और विचार-सरणियों से अलग ‘अंतरात्मा’ की पुकार पर अपना निर्णय लेते हुए और अपने समानधर्मा साथियों को असमंजस में डालते हुए पाए जाते हैं. गाँधी की अंतरात्मा की यह आवाज अपने साथियों को तो असमंजस में डालती ही थी, प्रेमचंद जैसे प्रशंसक लेखक को भी परेशान करती थी. अन्तःकरण की मौजूदगी के कारण मुक्तिबोध के भी समानधर्मा साथियों में असमंजस की स्थिति है. इस अन्तःकरण के कारण ही उनके यहाँ आत्मसंघर्ष का प्राचुर्य और प्राधान्य है. उनके इस आत्मसंघर्ष को उनके पूर्ववर्ती मार्क्सवादी कवि-आलोचक ठीक नहीं मानते और अवमूल्यित करते हुए उसे ‘मन-मंथन’ तक कह डालते हैं.
                     जिसे महात्मा गाँधी ‘अंतरात्मा’ कहते हैं, उसे ही मुक्तिबोध ‘अन्तःकरण’ कहते हैं. अंतरात्मा के साथ चूँकि आत्मा-परमात्मा का भी सन्दर्भ जुड़ा हुआ है इसलिए वे अंतरात्मा की जगह अन्तःकरण का प्रयोग करते हैं. यूँ तो अन्तःकरण संस्कृत का शब्द है और भारतीय सन्दर्भ में इसका प्रयोग होता रहा है. लेकिन मुक्तिबोध इसे आधुनिक और सेक्युलर सन्दर्भ प्रदान करते हैं. कहा जा सकता है कि उनका यह अन्तःकरण जो भले-बुरे का विवेक प्रदान करने वाली भीतरी इन्द्रिय शक्ति है, अंतरात्मा का ही अधिक आधुनिक और सेक्युलर रूप है. सच तो यह है कि अन्तःकरण किसी भी व्यक्ति की सांस्कृतिक उपलब्धियों का सार होता है. इसलिए मुक्तिबोध वैचारिक चेतना के साथ अन्तःकरण पर भी जोर देते हैं. यद्यपि उनका एक प्रसिद्ध निबंध है- “अंतरात्मा और पक्षधरता’ जिसमें वे अंतरात्मा का प्रयोग अन्तःकरण के अर्थ में ही कर रहे हैं. उन्हें आशंका थी कि उन्हीं के समानधर्मा लोगों को यह बात पसंद नहीं आएगी और वे लोग उन्हें धिक्कारेंगे भी. अपने उस निबंध में वे लिखते हैं: “हाँ, यह सही है कि मेरी जैसी अंतरात्मा वाले लोग मुझे धिक्कार भी सकते हैं. मेरे ही शिविर में मेरी ही हत्या हो सकती है, वास्तविक तिरस्कार हो सकता है, हुआ है, होता रहा है, होता रहेगा- संभवतः” मुक्तिबोध के यहाँ बौद्धिकता के आग्रह के साथ अन्तःकरण पर जोर का जो तनाव है, वह महत्त्वपूर्ण है और उसे समझने की जरूरत है.
                      मुक्तिबोध का साहित्य जितनी जगत-समीक्षा है, उतनी ही आत्म-समीक्षा भी. इन दोनों के सम्यक योग के कारण ही उनका साहित्य पाठकीय भरोसा अर्जित करता है और हमें उनकी कविता अपने अन्तःकरण की आवाज लगती है जिसमें नैतिक आवेश-सा है.जगत ज्ञान जब अन्तःकरण के इलाके से गुजरता है तभी वह महत्त्वपूर्ण और भरोसे का साहित्य बनता है. कई बार हमारी वैचारिक चेतना और भले-बुरे का विवेक करने वाले अन्तःकरण के बीच पटरी नहीं बैठती. जो लोग वैचारिक चेतना को प्रमुखता देते हैं, वे इन दोनों के सामंजस्य की चिंता नहीं करते. वे ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने के दबाव के तहत रचते हैं और अन्तःकरण की आवाज की अनसुनी करते हैं. मुक्तिबोध के यहाँ वैचारिक चेतना और अन्तःकरण में द्वंद्व है. उनका साहित्य उनके इसी संघर्ष का परिणाम है. इसलिए यह अकारण नहीं है कि उन्हें पहचानने में उनके समानधर्मा साथी प्रारम्भ में विफल रहे. तब उनको पहचानने वाले ज्यादातर वे लोग थे जो गैर-प्रगतिशील थे. प्रगतिशीलों में परसाई और नामवर सिंह जैसे लोग कम थे. ‘अन्तःकरण का आयतन’ शीर्षक कविता मुक्तिबोध ने जैसे अपनी ही मनःस्थिति को व्यक्त करने के लिए लिखी हो या अपने समय के मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समाज पर टिपण्णी करते हुए लिखी हो लेकिन यह तय है कि वे उस द्वंद्व को महत्त्व दे रहे हैं जो चेतना और अन्तःकरण के द्वंद्व का प्रतिफल है. उनकी अपेक्षा यह है कि मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के अन्तःकरण को विशाल होना चाहिए जिसमें शोषित-पीड़ित मनुष्यता का दुःख-दर्द समा जाए लेकिन वह संकीर्ण और छोटा है. कविता का प्रारम्भिक अंश उस दृष्टि से द्रष्टव्य है:
अन्तःकरण का आयतन संक्षिप्त है,
आत्मीयता के योग्य
             मैं सचमुच नहीं!
पर, क्या करूँ,
यह छाँह मेरी सर्वगामी है !
हवाओं में अकेली सांवली बेचैन उड़ती है
कि श्यामल-अंचला के हाथ में
              तब लाल कोमल फूल होता है
चमकता है अँधेरे में
प्रदीपित द्वंद्व-चेतस एक
               सत-चित-वेदना का फूल

                        न सिर्फ मुक्तिबोध बल्कि सम्पूर्ण नयी कविता का अधिकांश मध्यवर्गीय बोध की कविता है. मुक्तिबोध इस अर्थ में विशिष्ट हैं कि वे मध्यवर्ग में निम्नवर्गीय बुद्धिजीवी जमात के आत्मसंघर्ष को प्रमुखता देते हैं. इसे ही आलोचक उनका आत्मसंघर्ष कहते हैं जिसकी चर्चा मुक्तिबोध के  साहित्य चिंतन में तो है ही, उनकी कविताओं में भी है. इस आत्मसंघर्ष के साथ जगत-संघर्ष की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. जगत-संघर्ष की दृष्टि या विचारधारा मनुष्य विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करता है और चेतना संपन्न बनता है, लेकिन उसका अन्तःकरण तो उसके संस्कार, उसके अनुभव, पारिवारिक-सामाजिक परिवेश आदि से निर्मित होता है. एक लम्बी प्रक्रिया के दौरान भले-बुरे का विवेक करने वाला भीतरी इन्द्रिय बोध ही अन्तःकरण का रूप ग्रहण करता है. मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष उनके अन्तःकरण और बाह्य संघर्ष के द्वंद्व का प्रतिफल है जिसके कारण वे हिंदी कविता का विशिष्ट स्वर बनकर उभरते हैं. अपने उसी निबंध में वे कहते हैं: “मेरी अंतरात्मा ने जीवन यात्रा में जिन लक्ष्यों और भाव-दृश्यों को प्राप्त किया है, जिस भावधारा का विकास किया है, उसमें महत्त्वपूर्ण सचाईयाँ भी हैं. उस अंतरात्मा ने जिन विशेष आग्रहों का विकास किया है, वे उनके लक्ष्यों से प्रसूत आग्रह हैं. वे प्रयोजन हैं. वे अंतरात्मा के संवेदनात्मक उद्देश्य हैं, वे कर्म-प्रक्रिया के लक्ष्य हैं- चाहे वह कर्म-प्रक्रिया कलाकार का कर्म ही क्यों न हो. उन उद्देश्यों और प्रयोजनों, उनसे प्रसूत आग्रहों और अनुरोधों से, मैं तटस्थ नहीं हूँ. मैं अपनी आत्मा का पक्षधर हूँ. इसलिए आप ही आप मेरे अनजाने मेरा अपना एक शिविर बन जाता है, चाहे उसे मैं शिविर कहूँ या न कहूँ, भले ही मैं उस शिविर के सदस्यों के भौतिक अस्तित्त्व से अपरिचित रहूँ.” इस तरह मुक्तिबोध की अंतरात्मा का अर्थ पक्षधरता है. पक्षधरता अपनी तरह से सोचने-समझने वाले लोगों की, जिनसे उनका शिविर है.
                             अंतःकरण या अंतरात्मा मुक्तिबोध के लिए बहुत भरोसे की है. वे उसकी आवाज सुनते हैं, वे उसके निर्णय को मानने के पक्ष में हैं. अंतरात्मा के निर्णय का अर्थ सिर्फ अपना निर्णय नहीं, बल्कि वह सामूहिक सत्य है जो देश-दुनिया में फैले उन जैसे लोग सोचते हैं. इसलिए उस सत्य के खोज की प्रक्रिया सपाट नहीं, द्वंद्वात्मक है और वे द्वंद्व के बिना अन्तःकरण की भी कल्पना नहीं करते. वे मानते हैं कि संसार का सत्य सबके लिए खुला है. वे लिखते हैं: “अगर मैं पहचान जाऊं कि उसने यह सही-सही, ये सच्ची-सच्ची बातें कही हैं, तो मैं उन्हें उठा लूँगा. जिस प्रकार यथार्थ का एक अंश मेरे सम्मुख खुला हुआ है, उसी प्रकार यथार्थ का एक अंश उसके सम्मुख भी खुला हुआ है.” विरोधी शिविर से सीखने की इस प्रक्रिया को वे द्वंद्व मानते हैं, लेकिन वे इस बात के लिए सावधान करते हैं कि द्वंद्व कहीं झूठे न हों. वे मानते हैं कि बौद्धिक अहंकार से ग्रस्त लोग झूठे द्वंद्व का सृजन कर लेते हैं. वे लिखते हैं: “अहंकार अपना एक इंद्रजाल खड़ा करता है. तर्क और युक्ति, सही और आधी सही बातों का एक अस्त्रागार उनके पास है. लेखक अपनी लेखनी से भी अपने अहंकार की तुष्टि करता है. वह खुद ही अपनी आँखों के सामने कैसा-कैसा अभिनय करता है, तन्मय होकर.” इस बौद्धिक अहंकार से, चाहे वह जिस शिविर के व्यक्ति का हो, वे बचना चाहते हैं. वे मानते हैं कि साहित्य या कला का सृजन युक्तियों का कोई संग्राम नहीं है. वह अपनी ही तरह के लोगों के अन्तःकरण की सृजनात्मक शक्ति है.जहाँ वह नहीं है और जहाँ तर्कों से भरा बौद्धिक अहंकार है उससे वे अपने को पराजित होने की हद तक बचाना चाहते हैं. उसी निबंध में उनके शब्द हैं: “मैं इससे बचना चाहता हूँ, और पराजित हो जाने में ही अपना कल्याण समझता हूँ. क्योंकि पराजित हो जाने से ही कोई विजित नहीं हो सकता.” बौद्धिक अंहकार के सामने पराजित हो जाने की जो यह स्वीकारोक्ति है वह उसी व्यक्ति की हो सकती है जिसके पास ज्ञान के साथ अन्तःकरण के आयतन का विस्तार भी हो. इसलिए जिनके अंतःकरण का आयतन विस्तृत नहीं, संक्षिप्त है या जो अंतःकरण की नहीं सुनते, जो सिर्फ तर्कों का वकीली कारोबार करते हैं और लकीर के फ़क़ीर हैं, ऐसे लोगों को वे जड़वादी कहते हैं और लिखते हैं: “जड़वाद कई तरह से प्रकट होता है. वह अध्यात्म का जामा पहनकर आता है, और भौतिकवाद का भी.” इस तरह जड़वाद को व्यक्तित्व और ज्ञान के विकास में बाधक मानते हुए वे अंतरात्मा के प्रश्न पर आते हैं और मानते हैं कि आत्मचेतना का अर्थ विश्वचेतना है. उनके शब्द हैं: “अंतरात्मा का प्रश्न, अपनी जीवन यात्रा में विकसित तथा अर्जित उस मूलभूत यथार्थ-बोध तथा मानव मूल्यों की तत्पर क्रियाशीलता से लगा हुआ है कि जिस मूलभूत यथार्थ-बोध के बिना, और उन मानव मूल्यों के बिना अपने आप को एक ही साथ विश्वचेतन और आत्मचेतन नहीं कह सकते.”
          अन्तःकरण के रूप में मुक्तिबोध सृजन के लिए ज्ञान के साथ एक ऐसे स्पेस की ओर इशारा करते हैं जो भारत की विकसनशील चिन्ताधारा के मूल में है. उनका यह अन्तःकरण ही है जिसके कारण उनकी हर रचना में एक तड़पती हुई ऐसी बेचैनी है जो दूसरों को अपनी लगने लगती है. उनका यह अन्तःकरण कभी अंतरात्मा के रूप में तो कभी आत्मालोचन के रूप में और कभी अंतर्द्वंद्व के रूप में उनके सृजन में शुरू से आखिर तक मौजूद है. इस कारण वे नयी कविता के दौर में प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील शिविरों में समान आकर्षण के केंद्र बनते हैं. इस अन्तःकरण के कारण वे अपने पूर्ववर्ती प्रगतिशीलों से संघर्ष करते हुए अपने को अलग करते हैं और नयी साहित्य-दृष्टि के साथ सामने आते हैं. श्रीपाद अमृत डांगे के नाम अंग्रेजी में जो उनका पत्र है  उसका सार यही है कि नयी रचनाशीलता को समझने-सराहने में पुरानी प्रगतिशील अवधारणा अपना अर्थ खो चुकी है. उनका यह अन्तःकरण उन कलाप्रेमियों से भी उन्हें पृथक करता है जो अपनी अंतरात्मा की आवाज तो सुनते हैं लेकिन समाज की पुकार उन्हें नहीं सुनाई पड़ती. वे उनकी समाज विमुखता की आलोचना करते हैं लेकिन उनकी कला-चेतना की तारीफ भी करते हैं : “प्रगतिवादियों की तुलना में निःसंदेह ये नए लोग अधिक कला-मर्मज्ञ थे.”  इसलिए मुक्तिबोध का अन्तःकरण नयी कविता के दौर में उन्हें वह विशिष्ट दर्जा देता है, उनके साहित्य को वह नयी चमक देता है, जो दूसरों के पास नहीं है.
          लेखक के चरित्र और ईमानदारी का सवाल मुक्तिबोध के यहाँ प्रमुख है, जिसकी चर्चा प्रगतिवादी जमात में प्रायः नहीं होती. असल में यह सवाल वही उठा सकता है जिसके पास विकासोन्मुख विश्व-दृष्टि और विशाल आयतन वाला निष्कलुष, साथ ही निजी लाभ-लोभ रहित, अंतःकरण हो.यह सवाल भी वही उठा सकता है जो संगठन और विचारधारा के अतिक्रमण का साहस करता है और अन्तःकरण की आवाज सुनता है. कहना न होगा कि संसार में ऐसे ही लोगों ने महान रचना और कला को जन्म दिया है. अंतःकरण के कारण लेखक आत्मालोचन के लिए हमेशा सजग और तत्पर रहता है. लेकिन विशाल आयतन वाले अंतःकरण के अभाव में किसी महान विचारधारा के साथ होने के बावजूद अपने चरित्र और विचारधारा प्रेरित कार्यक्रमों की आलोचना का जोखिम बहुतेरे लेखक नहीं उठाते. इस कारण उनके चरित्र  या विचारधारा में गहरे अंतर्विरोध का पैदा होना स्वभाविक है. तब लेखक अंतर्विरोधों की अनदेखी करता है और महान विचारधारा के साथ होने के अहंकार में जीने लगता है. उसे पता भी नहीं होता कि वह एक ऐसी ‘हिपोक्रेसी’ का शिकार है जिसके कारण उसकी महान विचारधारा भी जनता के बीच प्रश्नांकित हो रही है. ऐसा बाहर भी हुआ है, भारत में भी और हिंदी में भी.इसलिए मुक्तिबोध जोर-शोर से लेखकों के चरित्र और ईमानदारी का सवाल उठाते हैं. उनके शब्द हैं - “समीक्षक को भी चरित्र की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि लेखक को ईमानदारी की.” ध्यान में रखने लायक बात यह है कि चरित्र और ईमानदारी- इन दोनों जीवन मूल्यों के प्रति वे स्वयं भी बहुत आग्रहशील थे.यहाँ यह कहना जरुरी नहीं कि चरित्र और ईमानदारी की अंतःकरण के निर्माण में क्या भूमिका है. विचारधारा की भूमिका यदि मनुष्य को सामाजिक रूप से नैतिक बनाने में है तो अंतःकरण की निजी रूप से नैतिक बनाने में. यूँ दोनों भूमिकाएं एक दूसरे के यहाँ आवाजाही भी करती हैं. इसलिए वे लेखक के लिए सही विश्वदृष्टि से जुड़ी विचारधारा और विस्तृत आयतन वाले अंतःकरण दोनों को आवश्यक मानते हैं. ऐसा नहीं होता तो ‘अँधेरे में’ समेत मुक्तिबोध की उन महत्त्वपूर्ण कविताओं का सृजन संभव नहीं था जिनमें ज्ञान और अन्तःकरण का भरपूर द्वंद्व है. ‘अँधेरे में’ कविता का पागल द्वारा गाया हुआ जो गीत है वह आदर्श और यथार्थ के गहन टकराव का ही परिणाम है.
                        मुक्तिबोध ने जब लेखक के चरित्र और ईमानदारी का सवाल उठाया था तब उनके सामने भारत का उभरता हुआ विशाल मध्यवर्ग था, उस मध्यवर्ग का बुद्धिजीवी वर्ग था, जिसकी कथनी और करनी में गहरी फाँक थी. उनके अनुसार लाभ-लोभ के आकर्षण में फँसा हुआ बुद्धिजीवी साहित्य की जनवादी आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता. मुक्तिबोध इस मध्यवर्ग पर बार-बार लिखते हैं, उसकी कमजोरियों को रेखांकित करते हैं और अंततः उसी से उम्मीद भी करते हैं कि एक दिन वह वास्तविकता को समझेगा और सर्वहारा के पक्ष में खड़ा होगा. उनके सामने स्वतंत्रता आन्दोलन और भारतीय नवजागरण के गर्भ से पैदा हुआ मध्यवर्ग था, जिसके भीतर परिवर्तन की चेतना थी. वह जाति और संप्रदाय से मुक्त भारत का सपना देखता था. उसके एजेंडे में कहीं न कहीं समतावादी-समाजवादी सपना भी था. आज के मध्यवर्ग से वह हर तरह से भिन्न था. आज नए वेतनमानों से अघाया मध्यवर्ग है जिसके सपने में दूर-दूर तक वे पुराने एजेंडे नहीं हैं. यह उपभोक्तावादी समय का मध्यवर्ग है जिसका पहला और अंतिम सपना अतिशय भोग है. उपभोक्ता समाज में बदल चुके आज के मध्यवर्गीय व्यक्ति-बुद्धिजीवी के लिए जातिवाद-सम्प्रदायवाद कोई मुद्दा नहीं है. तेजी से पैर पसारते धार्मिक फांसीवाद को वह कोई खतरा नहीं मानता, उसे अपने भोग से मतलब है. मुक्तिबोध को अपने ज़माने के मध्यवर्गीय व्यक्ति के अंतःकरण का आयतन ‘संक्षिप्त’ लगा था. आज उसके पास शायद अंतःकरण है ही नहीं. एक तरफ यह मध्यवर्ग है और दूसरी तरफ वह विशाल वंचित समाज है जिसके दुखों का कोई अंत नहीं है. मुक्तिबोध जब रचनाकार के चरित्र-ईमानदारी की बात करते हैं तब समाज में बढ़ती असमानता की खाई पर उनकी नजर है और रचनाकार से उनकी अपेक्षा है कि इसके चित्रण में वह किसी भटकाव का शिकार नहीं हो. आज लेखक के चरित्र और ईमानदारी पर उनके समय से अधिक संकट और संदेह है. तब प्रश्न है कि मुक्तिबोध को कैसे याद करें ? उनकी एक कविता है, ‘गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे’, जिसमें ‘विचारों की वेदना’ में अपने सरीखे जन से जुड़ने का हृदयग्राही चिंतन है. कविता का एक अंश देखा जा सकता है :
वेदना में हम विचारों की
गुंथे तुमसे,
बिंधे तुमसे,          
...कोई नहीं थे हम तुम्हारे किन्तु
सहचर हो गए
चाहे जलधि, पर्वत, हजारों मील की दूरी
हमारे बीच में आ जाए,
फ़िर भी मानसिक अदृश्य सूत्रों से
हमारी आत्माएँ परस्पर बात करती हैं.. 
यहाँ ध्यान की बात है कि विचारों का संबंध भले मस्तिष्क से हो वेदना का संबंध तो आत्मा से ही है. इस आत्मा को नजरअंदाज करके विचारों की वेदना को नहीं समझा जा सकता.
           मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे, लेकिन उनकी कविताएँ प्रगतिशील शैली की न थीं. उनकी काव्य-भाषा, प्रतीक, बिम्ब, अभिव्यंजना प्रणाली आदि प्रगतिशील धारा के मेल में न थीं. उनमें निजता, आत्मसंघर्ष, अन्तःकरण आदि पर भी जोर था. इस कारण उनकी कविताओं की प्रायः उपेक्षा होती थी और उनमें अनेक कमियाँ भी देखी जाती थीं. ऐसी स्थिति में उनकी जो मनः स्थिति थी उसका बड़ा ही व्यंजक चित्र उन्होंने अपनी एक कविता में खींचा है:
कहते हैं लोग-बाग़ बेकार है मेहनत तुम्हारी सब
कविताएँ रद्दी हैं.
बेडौल हैं उपमाएँ, विविध है कल्पना की तस्वीरें
उपयोग मुहावरों का शब्दों का अजीब है
सुरों की लकीरों की रफ्तार टूटती ही रहती है.
शब्दों की खड़-खड़ में खयालों की भड़-भड़
अजीब समां बाँधे हैं!!
गड्ढों भरे उखड़े हुए जैसे रास्ते पर किसी
पत्थरों को ढोती हुई बैलगाड़ी जाती हो.
माधुर्य का नाम नहीं; लय-भाव-सुरों का तो काम नहीं
कौन तुम्हारी कविताएँ पढ़ेगा..
अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तार सप्तक’(१९४३) में तो वे थे ही, फ़िर उनकी यह मनोरंजक शिकायत 1950 के दशक में किनसे है? प्रगतिवादियों से? या किसी और से? वे जो भी हों, इतना तय है कि उनकी कविताओं को लेकर तब बहुत से किन्तु-परन्तु थे. संभव है उस किन्तु-परन्तु में यह अंतःकरण भी हो जो तब लोगों को गुजरे ज़माने का लगता हो. आज भी मुक्तिबोध के कीर्तनिये उनके सन्दर्भ में अंतःकरण की कितनी चर्चा करते हैं ! 
                        मुक्तिबोध के लिए विचारधारा जितने महत्व की है उससे कम अंतःकरण नहीं. क्या रचना और क्या आलोचना हर जगह वे अंतःकरण के धरातल पर विचारधारा को रचना में रखकर देखते  हैं. ‘समीक्षा की समस्याएँ’ शीर्षक अपने प्रदीर्घ निबंध में वे विचारधारा के साथ अंतःकरण की जरुरत पर भी बल देते हुए दिखाई देते हैं. हमारा जितना निर्माण बाहरी समाज में होता है उतना ही परिवार में भी. मुक्तिबोध का मानना है : “हमलोग परिवार और पारिवारिक जीवन को साहित्य के अध्ययन में विशेष महत्व ही नहीं देते हैं. आज भी व्यक्ति का विकास बाह्य समाज में तो होता ही है,वह परिवार में भी होता है.परिवार व्यक्ति के अंतःकरण के संस्कार में प्रवृत्ति विकास में पर्याप्त योग देता है.” वे यह भी मानते हैं कि परिवार के भीतर नए और पुराने तथा उदार व अनुदार दृष्टियों के बीच टकराहट चलती रहती है. उस टकराव में अंततः नई और उदार दृष्टियाँ विजयी होती हैं जिनका हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है. इस तरह से हमारे भीतरी जगत के निर्माण में बाहर के साथ परिवार के भीतर की भी भूमिका है. बाहर और भीतर के द्वंद्व के स्वरुप हमारा जो अंतःकरण निर्मित होता है, रचना में उसकी भूमिका से कैसे इंकार किया जा सकता है ! इसलिए मुक्तिबोध काव्य रचना के प्रसंग में कहते हैं, “....कविता एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है. इस अर्थ में वह सांस्कृतिक प्रक्रिया है कि लेखक अपने जाने-अनजाने अपने अंतःकरण में संचित भावावेगों के साथ जीवन-मूल्य भी प्रकट कर रहा है – गूँज की एक अनुगूँज के रूप में.”
                  अंतःकरण की भूमिका वैचारिक रूढ़ियों से लेखक को मुक्त करने में है. ऐसा करके वह रचना की नई भावभूमि में प्रवेश करता है. रूढ़ियों के अतिक्रमण का साहस लेखक तभी कर पाता है जब वह अंतःकरण की सचाई को सुनता है. किसी ज़माने में प्रगतिवादियों ने प्रयोगवाद को खूब लांक्षित किया. अब भी यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है. लेकिन मुक्तिबोध इस प्रवृत्ति को ठीक नहीं मानते. वे लिखते है : “किसी ज़माने में प्रयोगवादी कविता प्रगतिवाद के अधिक निकट थी. किन्तु प्रगतिवादियों ने उसकी खूब उपेक्षा की.” जो उन से भिन्न है उसे प्रगतिवादी अपना विरोधी मानते हैं. इस प्रवृत्ति पर भी मुक्तिबोध ने टिप्पणी करते हुए लिखा : “जो अपने से भिन्न है, वह अपना विरोधी भी है. जो काव्य के अपने माने हुए ढांचे में जमा हुआ नहीं है, वह ग़लत भी है, असुंदर भी है, प्रतिक्रियावादी है. इस प्रकार का सोच-विचार समीक्षकों की मानव यथार्थ से दूरी-लम्बे चौड़े फ़ासले- सूचित करती है.” मुक्तिबोध आगे प्रगतिवादियों के व्यवहार पर टिपण्णी करते हुए यह भी कहते हैं- “....वे मुक्ति-संघर्ष,राष्ट्र-प्रेम,प्राकृतिक-सौन्दर्य,नारी-सौन्दर्य,यथार्थ-आलोचन-भावना,आशा,उत्साह तथा तत्समान अन्य भावों को प्रगतिशील समझते हैं किन्तु शेष सब भावनाएँ,जैसे,भयानक-ग्लानि,आशा-अनाशा,वैफल्य तथा इसी श्रेणी की अन्य भावनाएँ,प्रतिक्रियावादी हैं.” इसलिए मुक्तिबोध मानते हैं कि सिद्धांतों को साहित्य पर लागू करते वक्त जीवन-तथ्यों की वास्तविकता को दृष्टि से ओझल नहीं करना चाहिए. उनके अनुसार जिन प्रगतिवादियों ने ऐसा किया, वे ‘सिद्धांत-व्यवस्था के भीतर अटक गए थे.’
                       मार्क्सवादी मुक्तिबोध यदि प्रगतिवादियों की इस तरह कड़ी आलोचना कर रहे हैं तो इसलिए कि वे खुद ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ के भीतर अटके हुए नहीं हैं. उनकी दृष्टि ‘जीवन-तथ्यों की वास्तविकता’ पर भी है. जीवन और रचना में यह काम वही करेगा जो जरुरत पड़ने पर ‘सिद्धांत-व्यवस्था’ का अतिक्रमण करेगा. इस अतिक्रमण का साहस वही कर सकता है जिसे अपने अंतःकरण पर भरोसा हो. इस कारण मुक्तिबोध में जो आत्मसंघर्ष है उसे व्यक्तिवाद समझने की भूल न करना चाहिए. वे स्वयं अपनी एक कविता में आत्मसंघर्ष को व्यक्तिवाद कहने वालों को ‘आत्मग्रस्त मूर्ख’ कहते हैं| जो मुक्तिबोध यह मानते हैं कि ‘कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती / यदि वह है तो सबके ही साथ है’ उस मुक्तिबोध पर व्यक्तिवाद का आरोप कैसे लग सकता है! ‘चम्बल की घाटी’ में एक अंश है जिसमें आत्मा की आवाज़ को दबा कर सिद्धांतों के सहारे अपने को सही बतलाने वालों पर कड़ी टिपण्णी की गयी है-
ऐसी जो अँधेरे में पड़ी हुई
किरनों की भीतरी गुत्थी
चिलकती- लौंकती,
कहती है-
‘हमने तो पहले भी कहा था|
पर, तुम
अनसुनी करते हो आदतन!’
किन्तु, वे जड़ता के पंजे
अपनी ही स्तिथियों का औचित्य
करते हैं स्थापित;
विशेष दृष्टि से चरित्र-विश्लेश
निज-इतिहासिक-विवरण
प्रस्तुत करते हैं,
न्यायोचित वे बताते हैं निज को,
(अनसुनी करते हैं आत्मा की आवाज)
       
                   मुक्तिबोध का अध्ययन अब तक अधिकांशतः उनकी विश्वदृष्टि, विचारधारा, फेंटेसी, आदि आधारों पर होता रहा है. उनके प्रसंग में अंतःकरण का भी कोई महत्व है, इस पर हमारा ध्यान न के बराबर है.  अंतःकरण का अर्थ है मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के अन्तःकरण को प्रश्नांकित करना जो तब की तुलना में अब और अधिक ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध’ हो चुका है. ‘भूतों की शादी में कनात से तन’ जाने वाले इस वर्ग की ‘उदरम्भरि’ प्रवृत्ति खतरनाक रूप ले चुकी है. ‘स्वार्थों के टेरियर कुत्ते’ पालने वाले इस वर्ग के भीतर का ‘राक्षसी-स्वार्थ’ अट्टाहास कर रहा है. मुक्तिबोध की कविताएँ उस वर्ग को ‘बौद्धिक जुगाली’ से मुक्त होकर अपने अंतःकरण में झांकने और उसके आयतन को विस्तृत करने का आह्वान करती हैं. ‘ मुझे कदम-कदम पर’ शीर्षक अपनी कविता में उन्हें दूसरों के अनुभव और अपने सपने दोनों ही सच्चे लगते हैं तथा उन्हें संभावना की अनेक राहें फूटती हुई लगती हैं :

मुझे कदम-कदम पर
                 चौराहे मिलते हैं
                  बाहें    फैलाये !!

एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ;
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने.....
                 सब सच्चे लगते हैं;
उन्हें जनता में अटूट भरोसा है और हर आदमी की भीतरी शक्ति एवं सौंदर्य की सम्भावना को वे सराहते हैं तथा भावावेग में उसे गाते भी हैं. अंतःकरण की गीतात्मक लय और जनता से रागात्मक सम्बन्ध का श्रेष्ठ उदाहरण इसी कविता की अगली पंक्तियों में दिखाई पड़ता है :
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकव्य-पीड़ा है,
पलभर मैं सबसे गुजरना चाहता हूँ
प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ...

जनता की इस भीतरी शक्ति – सम्भावना को वही कवि लक्षित करता है जिसके ‘अंतःकरण का आयतन’ विस्तृत होता है. मुक्तिबोध का अंतःकरण  विस्तृत था इसमें क्या दो राय !

5 comments:

  1. Shj aur srs bhasha me yah smjha diya ki hme apna dukh dard muktibodh ke sahitya me kyo dikhta hai? Aur unke smkalin sahityakaron ka unse virodh kyon hai? Uska uttar unka antahkaran aur usse upja sahitya hai. dhanyavad guru ji
    Lakh padhakar aisa laga ek baar phir mai aapake class me hu

    ReplyDelete
  2. Bahut bahut accha likha hai..sir ..quote karne layak..aur yaad rakhne layak..santulit drishti sampaan..ekdum anootha vishay..aur shalley

    ReplyDelete
  3. विचारोत्तेजक लेख।
    कार्ल मार्क्स के लेखन में 'इनर सेल्फ' की चर्चा है।

    ReplyDelete
  4. अन्तःकरण वह जागृत विवेक है. समष्टिपरक और विकासोन्मुख. शुक्रिया सर इस बेहतर लेख के लिए.

    ReplyDelete
  5. अंत:करण उजास सा है, जो अंधेरे में झांकने की दृष्टि देते हुए मुक्ति की राह मुहैया कराता है। बेहतरीन लेख।
    शुक्रिया सर।

    ReplyDelete