चंपारण सत्याग्रह का यह सौवाँ साल है!
बोल्शेविक क्रांति का भी यह सौवाँ साल है!
दोनों को एक साथ क्यों याद किया जाए? कहाँ बोल्शेविक क्रांति और कहाँ चंपारण
सत्याग्रह! दोनों में तुलना लायक क्या है?
बोल्शेविक क्रांति ने न सिर्फ रूस को
बदला था, बल्कि पूरी दुनिया में समाजवादी बदलाव की आँधी ला दी थी. देखते-ही-देखते
दर्जनों देशों में समाजवादी क्रांति हुई और पूँजीवादी देशों के शिविर के समानांतर
समाजवादी शिविर अस्तित्व में आया जो पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती देने का मंच
बना. समाजवादी शिविर का नेतृत्व यू.एस.एस.आर. कर रहा था, जो रूस और उसके अनेक
गणराज्यों के जबरन मेल का परिणाम था. गैर समाजवादी शिविर वाले देशों में भी
मार्क्सवाद और समाजवादी व्यवस्था के दीवाने लोगों की बड़ी संख्या थी. मार्क्सवाद से
प्रेरित कम्युनिस्ट पार्टी या दूसरे नामों से पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष करने
वाले समूहों की छोटी-बड़ी हलचलें तब आम बात थीं. संक्षेप में यह कि बोल्शेविक
क्रांति के कारण जहाँ समतामूलक समाज बनाने के स्वप्न का सगुण-साकार होना संभव हुआ.
वहीं पूरी दुनिया में उसकी धमक सुनाई पड़ने लगी.
लेकिन सत्तर साल बाद ही यू.एस.एस.आर.
ताश के पत्तों की तरह बिखर गया. वहाँ पूँजीवादी व्यवस्था कायम हो गई. गणराज्य
स्वतंत्र होते गए और यह बात भी कही जाने लगी कि वे सोवियत साम्राज्य के अधीन थे. यू.एस.एस.आर.
के बिखरने के साथ ही दूसरे समाजवादी देशों में भी जनता ने समाजवादी व्यवस्था उखाड़
फेंकी और पूँजीवादी व्यवस्था स्वीकार कर ली. चीन जैसे देश ने पूँजीवादी बाज़ार नीति
अपनाकर किसी तरह अपनी प्राण की रक्षा की. अब वह कितना समाजवादी है, यह वही जाने!
आज के दिन क्यूबा जैसे कुछ छोटे देशों में समाजवादी व्यवस्था टिमटिमाते दीये की
तरह है!
चंपारण सत्याग्रह वैसी
परिघटना न थी. उसकी गूंज दुनिया में वैसी न सुनाई पड़ी, जैसी बोल्शेविक क्रांति की
थी. ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध जो
भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन था, उसकी दिशा उसने ज़रूर तय कर दी. भारत में गाँधी के
प्रयोग की यह प्रथम प्रयोगशाला है, जिसने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की शब्दावली और
उसके तौर-तरीके बदलकर रख दिए. चंपारण सत्याग्रह को गाँधी ने अपनी तरह से परिभाषित
किया और गाँधी को भी वहाँ के अनुभवों ने भविष्य के मुक्ति-संघर्ष की राह दिखाई. इस
आन्दोलन के दौरान संघर्ष के जो हथियार विकसित हुए, वे आज भी प्रासंगिक बने हुए
हैं; न सिर्फ भारत के लिए बल्कि सारी दुनिया के लिए. साउथ अफ्रीका के मुक्ति
संग्राम में नेलसन मंडेला के लिए गाँधी और उनके सत्याग्रह का जो महत्त्व था, वह
उसके धीरे-धीरे, पर दूरगामी असर का प्रमाण था.
गाँधी 10 अप्रैल 1917 को कलकत्ता से सुवह 10 बजे पटना पहुंचे. यह उनकी पहली बिहार यात्रा थी. वे
1 फरवरी 1918 तक बिहार में रहे. 15 अप्रैल को वे चंपारण मुख्यालय मोतीहारी पहुँचे
और 30 जनवरी 1918 को वे चंपारण से सत्याग्रह का संचालन करने के पश्चात् विदा हुए.
दो दिन पटना में रहने के बाद बम्बई के लिए निकल पड़े, जहाँ से उन्हें अहमदावाद जाना
था. नौ महीने बीस-बाईस दिन के करीब वे बिहार में रहे, जिसका मुख्य केंद्र चंपारण
था. इस दौरान उन्होंने जिस ढंग से काम किया, जो जन-जागृति पैदा की,
सामाजिक-राजनीतिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक जो आदर्श गढ़े, जितने समर्पित
नेता-कार्यकर्ता तैयार किए तथा सत्याग्रह की सफलता की जो सघन तैयारी की, उसने
स्वतंत्रता आन्दोलन की दशा और दिशा दोनों बदल दी. चंपारण सत्याग्रह के पहले
कांग्रेस, गाँधी के ही अनुसार सिर्फ प्रस्ताव पास करने तथा जलसे करने वाली संस्था
भर थी, वह चंपारण के बाद व्यापक आन्दोलन में बदलने लगी. चंपारण आने पर जो गाँधी
मि. एम.के. गाँधी या मि. गाँधी थे, वे ‘गान्ही महात्मा’ या ‘महातमा जी’
कहलाने लगे. ‘बापू’ संबोधन भी यहीं प्रचलित हुआ. जो गाँधी चंपारण के एक
अनपढ़ किसान राजकुमार शुक्ल के साथ बिहार की धरती पर अकेले गए थे, जहाँ वे किसी को
जानते न थे, जहाँ की बोली-बानी से परिचित न थे, वही गाँधी लाखों लोगों के ‘बापू’
और ‘महात्मा’ बनकर चंपारण और बिहार से विदा हुए. व्यापक जन भागीदारी से सफल
हुए सत्याग्रह के बाद गाँधी जब चंपारण से विदा हुए तो वे नए गाँधी थे. नई
वेश-भूषा, नए संबोधन और नए संकल्प से युक्त. इन नौ-दस महीनों में गाँधी ने चंपारण
को बदल दिया था और चंपारण ने गाँधी को.
बिहार का उत्तरी-पश्चिमी इलाका, जिसके उत्तर में नेपाल और
पश्चिम में उत्तर प्रदेश है, चंपारण कहलाता है. अब यह पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण नाम से दो जिलों
में बंट चुका है. पूर्वी चंपारण का मुख्यालय मोतीहारी और पश्चिमी चंपारण का बेतिया
है. जब चंपारण एक था, तब उसका मुख्यालय मोतीहारी था. 15 अप्रैल 1917 को इसी मोतीहारी
के छोटे-से स्टेशन पर गाँधी उतरे थे, जहाँ राजकुमार शुक्ल समेत उनका स्वागत करने
के लिए बहुत से लोग उपस्थित थे. वहाँ उमड़े
जन-समूह को देखकर गाँधी को चंपारण की पीड़ा
और अपने से लोगों की जो उम्मीदें थीं, उसका अहसास हुआ. पटना में जब वे राजकुमार शुक्ल
के साथ पाँच दिन पहले उतरे थे, तब स्टेशन पर उनके स्वागत में कोई नहीं था. शुक्ल
उन्हें लेकर राजेन्द्र प्रसाद के घर गए, लेकिन उन दोनों के दुर्भाग्य से वे घर पर
नहीं मिले. नौकरों ने उन्हें वहाँ टिकने न दिया. शुक्ल की कोई दूसरी जान-पहचान नहीं थी. तब गाँधी को संकट काल में
इंग्लैंड के अपने सहपाठी मित्र मजहरुल हक़ की याद आई. मजहरुल हक़ तब पटना के मशहूर
बैरिस्टर थे. खबर मिलते ही वे अपने घर ले गए. गाँधी का दिल खोलकर स्वागत किया,
लेकिन चंपारण मामले में उदासीनता बरती, बल्कि गाँधी को हतोत्साहित ही किया. पटना
के बाद गाँधी का पड़ाव मुजफ्फरपुर में था. वहाँ स्थिति थोड़ी बेहतर थी. एल.एस. कॉलेज
में पढाने वाले जे.बी. कृपलानी और उनके कुछ छात्र स्टेशन पर आगवानी करने आए थे.
वहाँ कुछ वकीलों का गाँधी को साथ मिला. मुजफ्फरपुर तिरहुत कमिश्नरी का मुख्यालय था,
जिसका एक जिला चंपारण था. मुजफ्फरपुर के कमिश्नर ने गाँधी को चंपारण जाने से मना
कर दिया. बावजूद गाँधी वहाँ गए, क्योंकि उनका तर्क था कि मुझे अपने देश में कहीं
जाने से कैसे रोका जा सकता है! वही गाँधी पटना और मुजफ्फरपुर की
परेशानियों-रुकावटों को पार कर जब मोतीहारी पहुँचे तो वहाँ दूसरा नजारा था. उनके
भीतर अपने चंपारण आने का संकल्प मजबूत होता गया.
मोतीहारी में राजेन्द्र
प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, गोरख प्रसाद, धरणीधर प्रसाद आदि नामी वकीलों का भी
उन्हें भरपूर सहयोग मिला. भोजपुरी न जानने वाले गाँधी को नील की खेती के साथ जनता
के दुःख-दर्द और चंपारण की परेशानियों को समझना इन वकील साथियों के बिना कठिन होता.तब बिहार में
कांग्रेस नाम मात्र को सक्रिय थी. उसका कोई ख़ास संगठन भी नहीं था कि गाँधी को कोई
सहयोग मिलता. वे वकील ही आगे चलकर प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बनें. इसमें कई
राष्ट्रीय स्तर के नेता बनें. राजेन्द्र प्रसाद ने बाद में वकालत छोड़ दी और
स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. जे.पी. कृपलानी ने भी प्रोफेसरी छोड़ दी. इन दोनों
की पहचान स्वतंत्रता के पूर्व तो राष्ट्रीय स्तर पर थी ही, स्वतंत्र भारत में भी
दोनों बड़े नेता के रूप में समादृत हुए. राजेन्द्र प्रसाद को स्वतंत्रता आन्दोलन के
दौरान ‘देश रत्न’ कहा जाता था. वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा
के अध्यक्ष और 1952 से 1962 तक भारत के राष्ट्रपति बने. जे.बी. कृपलानी ने आज़ादी
के बाद ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ बनाई और भारत के लोकतंत्र को जनोन्मुख
बनाने में अपनी भूमिका निभाई. ब्रजकिशोर प्रसाद के बिना बिहार में कांग्रेस के
अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती. उन्हीं के प्रयास से लखनऊ कांग्रेस में
चंपारण संबंधी प्रस्ताव पेश हुआ था. ब्रजकिशोर बाबू की ही बड़ी बेटी से जय प्रकाश
नारायण की बाद में शादी हुई. जय प्रकाश नारायण जो बाद में प्रसिद्ध स्वतंत्रता
सेनानी और समाजवादी आन्दोलन के शिखर नेता बने. मजहरुल हक़ बाद के वर्षों में गाँधी
प्रभाव में सब कुछ छोड़-छाड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. वे एक सफल बैरिस्टर
थे. बैरिस्टरी से उन्होंने खूब पैसे कमाए थे. गाँधी जब पटना से मोतीहारी जाने के
क्रम में उनसे मिले थे तो उनके मन में गाँधी की मोतीहारी यात्रा और उसके प्रयोजन
को लेकर किंचित व्यंग्य भाव ही था. बाद के दिनों में वे ऐसे बदले कि मौलाना मजहरुल
हक़ कहलाने लगे. अमीर का जीवन छोड़कर फकीर की तरह रहने लगे. उन्होंने पटना के बगल
में दीघा गाँव की अपनी पैंतालिस एकड़ जमीन कांग्रेस को दान कर दी. गांधीवादी
आदर्शों के अनुरूप वहाँ एक आश्रम बना जो ‘सदाकत आश्रम’ कहलाया. यही बिहार
में स्वतंत्रता आन्दोलन का केंद्र बना. मजहरुल हक़ यहीं रहते थे. आश्रम का काम अगल -बगल
के गाँवों से ‘मुठिया’ वसूलकर चलता था. राजेन्द्र प्रसाद भी बाद में इसी
सदाकत आश्रम में रहने लगे. आज़ादी प्राप्ति के बाद वहीं से वे राष्ट्रपति भवन गए और
वहाँ का कार्यकाल पूरा होने पर पुनः वहीं लौटे और मृत्युपर्यंत वहीं रहे. वह खपड़ैल
मकान अब भी उसी रूप में है. सदाकत आश्रम में ही गाँधी की प्रेरणा से राष्ट्रीय
विश्वविद्यालय ‘बिहार विद्यापीठ’ की स्थापना हुई. चरखा केंद्र समेत दूसरे
गांधीवादी रचनात्मक कार्यों का केंद्र ‘सदाकत आश्रम’ बना. मौलाना मजहरुल
हक़, राजेन्द्र प्रसाद और जय प्रकाश नारायण आज़ादी के दौरान बने लोकगीतों में गाँधी
के साथ शामिल किए गए. यह उन नेताओं की लोक स्वीकृति का प्रमाण था. कहने दीजिए कि
यह गाँधी के चंपारण सत्याग्रह का ‘बाइ प्रोडक्ट’ था.
गाँधी को चंपारण ले जाने का
एकमात्र श्रेय जिस व्यक्ति को है, वह राजकुमार शुक्ल थे. वे धोती मिरजई पहनने वाले
सीधे-सादे अनपढ़ किसान थे, लेकिन उनकी जन चेतना और सामजिक सक्रियता ग़जब की थी.
पत्राचार के जरिए वे चंपारण के निलहे गोरों के अत्याचार से तथा गरीब जनता की
दुर्दशा से गाँधी को अवगत करा चुके थे.लखनऊ कांग्रेस के दौरान वे बड़ी मिहनत से
गाँधी से मिले. उन्हें वहाँ की स्थिति की जानकारी दी और वहाँ चलने का आग्रह किया.
गाँधी ने उन्हें आश्वस्त किया. बाद में गाँधी के बुलाने पर वे कलकत्ता गए और गाँधी
को लेकर चंपारण लौटे. उनकी ही सक्रियता का परिणाम था कि मुजफ्फरपुर, मोतीहारी और
चंपारण के दूसरे इलाकों में गाँधी गए और व्यापक जन आन्दोलन और जागरण की शुरुआत
हुई. वे कोई साधन संपन्न व्यक्ति नहीं थे. उस जमाने में यातायात और संचार के साधन
भी कम थे. फ़िर भी उस अनपढ़ किसान ने गाँधी के जरिए चंपारण की धरती पर वह करिश्मा कर
दिया जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नया प्रस्थान बिंदु बना.
चंपारण उपजाऊ भूमि का इलाका
है. दूसरी फसलें भी होती हैं, लेकिन धान की खेती के लिए वह विख्यात है. धान की न
जाने कितने किस्में वहाँ मिलती रही हैं. चंपारण के बासमती चावल का जोड़ पूरी दुनिया
में मिलना कठिन है. स्वाद में तो वह बेजोड़ है ही, उसकी सुगंध का कोई जवाब नहीं! जब
तक धान और दूसरी फसलों की खेती होती रही, तब तक कोई समस्या नहीं आई. समस्या तब आई
जब परंपरागत खेती की जगह नकदी फसलों की खेती कराई जाने लगी. ऐसी नकदी फसलों में
गन्ना के अलावा नील की फसल थी जिसकी खेती के लिए किसान विवश किए गए. नील की
कंपनियों के मालिक अंग्रेज थे. ये ज्यादातर फ़ौज या प्रशासन के रिटायर्ड ऑफिसर्स
थे. नील कंपनी के मालिक को स्थानीय जन ‘निलहा’ कहते थे. चंपारण नील के
कारोबारी ये ‘निलहे’ तब सौ के ऊपर थे. सरकार से इन्हें नील के कारोबार का अधिकार
मिला हुआ था. उन्होंने नील की फसल इकठ्ठा करने, उन्हें उबालने और नील की टिकिया
बनाने के लिए बड़ी-बड़ी कोठियाँ कायम कर रखी थीं ; जिन्हें लोग ‘निलहा कोठी’
कहते थे. निलहा कोठी के अलावा इन कंपनी मालिकों के बड़े-बड़े फॉर्म हाउस थे जिनमें
ये रहते थे. उसकी सेवा में हर कोठी में दर्जनों देसी नौकर-चाकर
लगे होते थे. इनके नील के कारोबार
के लिए नील की खेती का काम किसान करते थे. प्रति बीघा तीन कट्ठे में नील लगाना
चंपारण के किसानों के लिए बाध्यकारी था. इसे ही ‘तीन कठिया’ कहा गया. नील
की खेती का काम हाड़-तोड़ मिहनत मांगता था. खेत की बहुत ही महीन जुताई करनी पड़ती थी.
धान, गेंहूँ, मकई आदि की तुलना में नील के खेतों को बीज डालने के पूर्व तैयार करना,
किसानों के लिए ऐसा काम था, जैसा इन्होंने कभी किया नहीं था. खेतों की जांच में
कमी पाने पर निलहे या उसके मैनेजर और कारिंदे कड़ी सजा देते थे. नील के बीज विदेश
से आते थे, जिसे किसान खरीदते या उधार लेते थे. नील के पौधे बहुत नाजुक होते थे और
उसके रख रखाव में बहुत मिहनत और सावधानी बरतनी होती थी. इनकी सिंचाई के लिए पानी
की बहुत जरूरत थी. फसल कटने पर जरा-सा पानी पड़ने पर फसल बर्बाद हो जाती थी.
कार्तिक में नील के बीज डाले जाते थे और भादो तक इसकी अंतिम कटाई होती थी. जिस
अनुपात में मिहनत थी उस अनुपात में किसानों को आमदनी नहीं होती थी. नील की खेती से
किसान तबाह हो रहे थे. निलहों के खिलाफ
किसानों में असंतोष बढ़ रहा था. कुछ हिंसक झड़पें भी हुईं. इन हिंसक झड़पों में
किसानों पर खूब मार पड़ी. पुलिस और प्रशासन प्रायः निलहों का साथ देता था. निलहों
का अत्याचार जब सीमा पार करने लगा तो किसान जगने लगे और प्रतिरोध की आवाजें उठने
लगीं. ऐसे ही किसानों के प्रतिनिधि के तौर पर राजकुमार शुक्ल उभरे.
नील की खेती करने वाले किसान
तो निलहों के शोषण के शिकार थे ही, उनसे अधिक शोषण के शिकार वे मजदूर थे जो नील के
पौधों से नील की टिकिया बनाने का काम करते थे. नील के पौधे को बड़े-बड़े हौंदों में
कमर तक पानी में डूबकर मड़ाई करना, फ़िर पौधों के डंठल को अलग करना, उस पानी को कडाहों में उबालना और
टिकिया बनाना इन मजदूरों का काम होता था. नील की टिकिया को बक्सों में पैक किया
जाता था फ़िर उसे नदी के रास्ते पटना, कलकत्ता ले जाया जाता था, जहाँ से उसे विदेश
भेजा जाता था. विदेश में वह कई गुना ऊँची कीमत पर बिकता था. एक तो इन मजदूरों का
पूरा शरीर नीला पड़ जाता था, हाथ-पाँव सड़ जाते थे, दूसरे उन्हें सामजिक रूप से
हिकारत के भाव से देखा जाता था. यह काम ज्यादातर पिछड़ी-दलित जातियों के मजदूर करते
थे. ऐसे मजदूरों में झारखंड से आए आदिवासी मजदूर भी होते थे. किसानों से भी
ज्यादातर इन मजदूरों का भयंकर शोषण था. कुल मिलाकर चंपारण के किसान और मजदूर दोनों
नील की खेती से बर्बाद हो रहे थे और वे निलहे साहबों के अत्याचार सहने को अभिशप्त
थे.
गाँधी ने अपने वकील साथियों के साथ बैठकें कीं और सारे तथ्य
जुटाए. इसके अतिरिक्त उन्होंने वकील साथियों और राजकुमार शुक्ल सहित अन्य किसानों
के साथ बेतिया और सुदूर ग्रामीण इलाकों की यात्राएँ कीं. कभी हाथी पर चढ़कर, कभी
पैदल चलकर ये यात्राएँ पूरी हुई. गाँधी ने सीधे किसानों की बातें सुनीं; उनकी
दुर्दशा देखी और अपने आन्दोलन यानी सत्याग्रह की रुपरेखा बनाई. वे आए तो थे
पाँच-दस दिनों के लिए लेकिन रुक गए लगभग दस महीने. इसका कारण यह था कि सत्याग्रह
के रास्ते ‘निलहा राज’ से मुक्ति के अतिरिक्त चंपारण सत्याग्रह के जो
एजेंडे उन्होंने तय किए वे बिना वहाँ जमकर बैठे पूरे नहीं होते. उन्होंने जैसे तय कर लिया था कि
निलहा राज से मुक्ति के बहुत आगे भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की दिशा तय कर देनी
है, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को प्रस्ताव पास करने वाली पार्टी से आगे व्यापक जन
भागीदारी और जन आन्दोलन की पार्टी बनाना है. इसके लिए कांग्रेस का एक करोड़ ‘चवनिया
मेंबर’ और पच्चीस लाख चरखा चलाने वाले सत्याग्रहियों का जत्था तैयार करने का
विचार उनके मन में वहीं आया. हिन्दू-मुस्लिम एकता, छुआछूत का खात्मा, बुनियादी
शिक्षा पर जोर, ग्राम स्वराज आदि अपनी बुनियादी धारणाओं का बीज- वपन गाँधी ने
चंपारण में ही किया. इसके लिए उन्होंने संगठन बनाए, लोगों को जागरुक किया,
पाठशालाएँ खोलीं, आश्रम बनाया, सत्याग्रहियों को नए आचार-विचार में ढाला और संघर्ष
की सत्य-अहिंसा आधारित नई जमीन तैयार की. इस तरह चंपारण सत्याग्रह के रूप में
उन्होंने भारत के भावी स्वतंत्रता संग्राम की खूबसूरत प्रस्तावना लिखीं. और अब कौन
नहीं जानता कि हमारा स्वातंत्र्य-संग्राम उसी दिशा में चला जिस दिशा में गाँधी उसे
ले गए.
सत्याग्रह
प्रतिरोध और संघर्ष के औजार के रूप में चंपारण में ही सगुण-साकार हुआ. एक प्रयोग
वे दक्षिण अफ्रीका में कर चुके थे, लेकिन वहाँ उनके संघर्ष के लक्ष्य सीमित थे.
चंपारण में सत्याग्रह को परिभाषित भी किया और आजमाया भी. अपने उस प्रयोग में वे
सफल हुए और उनका सिक्का चल गया. उन्होंने सबसे पहले अपनी प्रतिरोधी राजनीति को
सत्य और अहिंसा का आधार दिया. उस आधार को सादगी, श्रम, सफाई, निर्भयता, स्वावलंबन आदि
स्वदेशी जीवन मूल्यों से मजबूत किया और सत्याग्रह को मुक्ति और प्रतिरोध के पवित्र
हथियार के रूप में देश-दुनिया के सामने रखा.
चंपारण
सत्याग्रह का एक सीमित उद्देश्य था- निलहा राज से मुक्ति. यह लड़ाई गाँधी ने कानून
के दायरे में लड़ी. उनका वकील होना और अंग्रेजी भाषा का जानकार होना इस कानूनी लड़ाई
में बहुत काम का साबित हुआ. कलक्टर, कमिश्नर, मजिस्ट्रेट आदि अंग्रेज अधिकारियों
से बात करते हुए गाँधी ने उन्हीं के अखाड़े में उन्हें चित्त कर दिया और उन्हें
निरुत्तर कर दिया. चंपारण प्रवेश पर रोक लगाने वाले और चंपारण से निकल जाने की बात
करने वाले अंग्रेज अधिकारियों को कुछ सूझ नहीं पाया कि यह आदमी जब असत्य नहीं कहता
और अपनी बात के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेता तो किस बिना पर इसे गिरफ्तार किया
जाए या चंपारण से निकल जाने को कहा जाए ! इसलिए बहुत-से ईमानदार अंग्रेज गाँधी के
प्रशंसक हो गए. लेकिन इसी के साथ यह तथ्य भी ध्यान में रखने का है कि व्यापक जन
समर्थन और गाँधी के लिए लोगों में जो जज्बा था, उसकी अनदेखी ब्रिटिश सरकार नहीं कर
सकती थी. निलहों का जुल्मी राज ख़त्म हुआ और चंपारण की जनता ने गीत गाया- ‘गईल
निलहवा के राज...’.
चंपारण में
नील की खेती लगभग तीन दशक तक चली. 1890 के बाद और 1917 के आसपास तक. पहले बंगाल
में इसकी खेती हो चुकी थी- लगभग पचास वर्षों तक. वहाँ भी लम्बा संघर्ष चला. तब
निलहे भागे और उनमें बहुत-से चंपारण की ओर गए. 1917 में भी नील की खेती भले चंपारण
में होती रही हो, लेकिन कृत्रिम नील का विकास यूँ भी नील की परम्परागत खेती को
अप्रासंगिक बना रहा था. चंपारण आन्दोलन न होता तो भी देर-सबेर नील की खेती को बंद
होना ही था. लेकिन समय से पूर्व ‘निलहा राज’ की समाप्ति से जो राष्ट्रीय और
वैश्विक सन्देश गया उसका असर बहुत दूरगामी साबित हुआ. ‘निलहा राज’ की
समाप्ति के साथ गाँधी ने सत्याग्रह और अपने रचनात्मक कार्यों की जो अतिरिक्त जमीन
तैयार की, वहीं से भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के इतिहास में गाँधी युग का
प्रारम्भ हुआ. वह ‘अतिरिक्त’ क्या था?
उस ‘अतिरिक्त’
में बहुत कुछ है. बुनियादी शिक्षा, सांप्रदायिक सौहार्द, स्वावलंबन, सफाई, खान-पान
में छुआछूत की समाप्ति आदि. लेकिन उनका सबसे बड़ा काम सत्याग्रह
के लिए जनता को ‘अभय’ करना था. अभय वही होगा जो लोभ-लाभ रहित जीवन-पथ का अनुयायी
होगा, जिसके न्याय का आधार सत्य होगा और अहिंसा प्रेम के जरिए उसे वह हासिल करेगा.
इन्हीं के सहारे गाँधी ने चंपारण की जनता को अन्याय के प्रतिकार के लिए अभय होकर
सत्याग्रही होना सिखलाया. गाँधी चंपारण गए थे तो उनके विदेशी साथी चार्ली और
एंड्रूज भी बाद में वहाँ पहुँचे. उन गोरी चमड़ी वालों को अपने बीच पाकर वहाँ के
लोगों को मानसिक राहत महसूस होती थी. जब वे अपने काम से जाने की तैयारी करने लगे तो
लोग नहीं चाहते थे कि वे जाएँ. लोगों को लगता था कि ये रहेंगे तो निलहे हम पर
अत्याचार नहीं करेंगे. गाँधी ने लोगों की यह कमजोरी महसूस की और अपने मित्र चार्ली
और एंड्रूज को जाने दिया. शासन और निलहों का जो भय लोगों के दिलों में था, उसे वे
दूर करना चाहते थे.
सत्याग्रही के लिए, गाँधी ने कहा कि, गरीबी का जीवन जीना
अनिवार्य होगा. कम से कम में अपनी जरूरतें पूरी करना और सादा जीवन जीना उनका यह
सन्देश सभी सत्याग्रहियों के लिए था. इसका व्यापक असर पड़ा. चंपारण में उनके साथ
काम करने वालों पर उनके गरीबी वाले इस दर्शन का तो असर पड़ा ही, इसका व्यापक असर
भारतीय राजनीति पर भी पड़ा. सादगी भारतीय राजनीति का आदर्श हो गई. सुभाष, पटेल,
नेहरू आदि नेताओं पर भी इसका असर पड़ा.
चंपारण में अपने साथ काम करने वाले राजेन्द्र प्रसाद के वे प्रशंसक हो गए. इसकी
पहली वजह थी उनकी विलक्षण स्मृति और लिखने-पढ़ने की विलक्षण प्रतिभा, लेकिन जिस चीज
ने गाँधी को प्रभावित किया वह थी राजेन्द्र बाबू की सादगी. गाँधी से मुलाक़ात के
पूर्व ही वे स्वदेशी के प्रेमी थे, यह बात गाँधीजी को बहुत अच्छी लगी. हालाँकि मि.
जिन्ना और डॉ. अम्बेडकर ने गाँधी के सत्याग्रहियों के लिए इस गरीबी वाले दर्शन को
कभी स्वीकार नहीं किया.
गाँधी जब चंपारण गए तो काठियाबाड़ी वेश-भूषा में थे. नंगे पाँव रहते थे.
अपने राजनीति गुरू गोपाल कृष्ण गोखले के शोक में उन्होंने तत्काल जूते-चप्पल पहनना
छोड़ रखा था. उन दिनों खाने में सूखे मेवे, मूंगफली और शहद का वे प्रयोग कर रहे थे.
चंपारण में रहते हुए इसे उन्होंने बदला और वहाँ के चावल खाने लगे. शुरू में
उन्होंने देखा कि उनके साथ के जितने वकील साहबान और अन्य लोग हैं, सबके रसोइए
अलग-अलग हैं. यह खान-पान में शुद्धता के आग्रह का और भेद-भाव का लक्षण था. गाँधी
ने इसे बदला और सत्याग्रहियों के लिए सामूहिक खान-पान की आदत डाली. जन संपर्क के
दौरान उन्हें चंपारण की जनता की भयावह आर्थिक-सामाजिक दुर्दशा का तो पता चला ही,
गरीबी के एक ऐसे सच से उनका साक्षात्कार हुआ जिसने उन्हें हिलाकर रख दिया.इसी
दौरान उन्हें एक ऐसी औरत मिली जिसके तन पर केवल एक साड़ी थी उसके अतिरिक्त कोई
वस्त्र उसके पास नहीं था. इस कारण उसका नहाना-धोना बहुत मुश्किल था. यह देखने के
बाद गाँधी को अपनी काठियाबाड़ी पगड़ी, लम्बी धोती और कुर्ता व्यर्थ लगने लगा.
गाँधी की
सक्रियता, श्रम करने की आदत, सादगी और पारदर्शी जीवन का चंपारण और वहाँ के साथियों
पर गहरा असर पड़ा. वहीं वे ‘महात्मा जी’ कहलाने लगे. राजकुमार शुक्ल और उनके
साथी इसी संबोधन से उन्हें संबोधित करते थे. बाद में कानपुर के ‘प्रताप’
अखबार ने भी महात्मा जी लिखना शुरू किया.यह
ठीक है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बाद में विधिवत उन्हें ‘महात्मा’ कहना शुरू
किया और वे मि. गाँधी से ‘महात्मा गाँधी’ हो गए, लेकिन शुरुआत चंपारण की
जनता ने और कानपुर के अखबार ‘प्रताप’ ने की. यहीं रहते हुए हिंदी के
राष्ट्रभाषा का ख्याल उनके मन में आया और रवीन्द्रनाथ से इस सम्बन्ध में उनका
पत्राचार भी हुआ. गाँधी जब चंपारण गए थे, तब साबरमती आश्रम बन रहा था. बीच-बीच में
वे न सिर्फ साबरमती की बल्कि दक्षिण अफ्रीका के अपने आश्रमों की भी चिंता करते रहे.
कस्तूरबा और देवदास के चंपारण आने के बाद गाँधी के संबोधन में एक और परिवर्तन आया.
देवदास माता-पिता को चूँकि ‘बा’ और ‘बापू’ कहते थे, इसलिए उनकी
देखा-देखी दूसरे लोग भी ‘बा’ और ‘बापू’ कहने लगे. बाद के वर्षों में
ये संबोधन दोनों के लिए चल निकले. इस तरह देखें तो निलहा समस्या समेत चंपारण
सत्याग्रह के जरिए गाँधी ने कई अर्थों में परिवर्तनकारी भूमिकाएँ निर्मित कीं, साथ
ही चंपारण में वे भी कई अर्थों में निर्मित हुए. गाँधी को देश की जमीनी हक़ीकत को
सही अर्थों में समझने का अवसर चंपारण सत्याग्रह के दौरान ही मिला. चंपारण भारत में
गाँधी की प्रथम प्रयोगशाला है जहाँ से तपकर और सिद्ध होकर वे निकले. इस तरह ठीक ही
वह उनकी ‘सिद्धशाला’ भी है.
1916 में
राजकुमार शुक्ल को पीर मोहम्मद मुनीस का लिखा हुआ परचा जो ‘एक दुखी आत्मा’ की
ओर से लिखा गया था और जो ‘प्रताप’ में छपा था, से पता चलता है कि निलहा राज
की समाप्ति के लिए वे सभी कुछ वर्षों से संघर्षरत थे, लेकिन सरकार उनकी सुन नहीं
रही थी. उन लोगों को एक सच्चे और कुशल नेतृत्व की जरूरत थी. लखनऊ में गाँधी से
मुलाक़ात के बाद 27/02/1917 को राजकुमार शुक्ल का एक पत्र जो अनुमानतः पीर मोहम्मद
मुनीस का लिखा हुआ था, गाँधी को मिला, जिसमें ‘मान्यवर महात्मा’ कहकर
उन्हें संबोधित किया गया है. उसमें कहा गया था कि जिस तरह राम के चरण स्पर्श से
अहिल्या तर गई, उसी तरह चंपारण में पैर रखते ही वहाँ की प्रजा का उद्धार हो जाएगा.
वह पत्र बड़ा ही मार्मिक था. गाँधी अपने को रोक नहीं पाए. वे चंपारण गए. लेकिन सवाल
यह है कि शुक्ल और उनके साथियों ने गाँधी को ही क्यों याद किया? उसका कारण उस पत्र
के अनुसार साउथ अफ्रीका का उनका वह प्रयोग था, जो सफल साबित हुआ था और जिसकी गूंज
चंपारण तक पहुँच चुकी थी. लेकिन सबसे बड़ा कारण गाँधी में उन सबका अटूट भरोसा भी
था.
30 जनवरी 1918 को
गाँधी चंपारण से विदा हुए. 15 अप्रैल 1917 को जब उन्होंने चंपारण की धरती पर कदम रखा था, तब वे सर्वमान्य
नेता नहीं थे, जब लौटे तो चंपारण ने उन्हें भारत के सबसे चमत्कारी व्यक्ति के रूप
में प्रतिष्ठित कर दिया था और देश-दुनिया ने उन्हें उसी रूप में मान भी लिया.
गाँधी के हाथ सामान्य से अधिक लम्बे थे. ऐसे ‘आजानुबाहु’ को जनता ‘विशिष्ट’
का दर्जा देती रही है. कहा जाता है कि भगवान राम भी ‘आजानुबाहु’ थे. अजानबाहु
होने के कारण जो जन भरोसा गाँधी के प्रति था उसका आभास उन्हें था. हालाँकि इस तरह
के चमत्कारों में उनका भरोसा नहीं था. लेकिन इसे एक संयोग ही माना जाएगा कि गाँधी एक
चमत्कारी व्यक्तित्व बनकर चंपारण से विदा
हुए.
चंपारण प्रयोग के जरिए स्वाधीन भारत का जो सपना गाँधी ने
देखा था और जिस सपने के साथ वे वहाँ से विदा हुए थे, वह था मशीनी और पूँजीवादी
पश्चिमी सभ्यता का वैकल्पिक सपना- समता, श्रम और सौहार्द की ऐसी सभ्यता का सपना
जिसका आधार प्रेम था, जिसमें मानव-जाति के साथ सभी जीवों और पर्यावरण के लिए
सुरक्षा का बोध था. जिस पूँजीवादी पश्चिमी सभ्यता को वे ‘शैतानी सभ्यता’
कहते थे और जिसे भारतीय सभ्यता के विरुद्ध मानते थे, वही सौ साल बाद दुनिया को तो
छोड़िए, ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में पूजे जाने वाले गाँधी के भारत का भी आज
डरावना सच है!अंग्रेज निलहों का राज 1917 में भले समाप्त हो गया था लेकिन इसे हम
अपना विकास कहें या विनाश, अब ‘नए निलहे’ फ़िर से चंपारण की धरती पर उग आए हैं
.चंपारण ही क्यों, अब तो पूरा भारत ही चंपारण है जिस पर नए निलहे फैलते जा रहे हैं
!
2017 में यानी सौ वर्षों बाद भारत विषमता के जिस मुहाने पर
खड़ा है,वहाँ से 1917 के चंपारण को याद
करने का अर्थ एक शोक गीत को याद करने –सा है.
(यह शोध और अकादमिक लेख नहीं है. स्मृति में कहीं अटके
चंपारण सत्याग्रह पर एक ‘रनिंग कमेंट्री’ भर है. इन पंक्तियों के लेखक का
गाँव चंपारण के बगल के जिला में है. सहज
रूप से चंपारण और उसका इतिहास कभी सच्चाई तो कभी किवदंती के रूप में उसके बोध के
हिस्से रहे हैं. उसे पटना के ‘सदाकत
आश्रम’ में लगभग एक दशक तक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में रहने का भी मौका
मिला है, जो मौलाना मजहरुल हक़, राजेन्द्र प्रसाद और ब्रजकिशोर प्रसाद जैसे चंपारण
सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तपस्या भूमि रही
है. इस कारण इन पंक्तियों के लेखक को, चंपारण सत्याग्रह से सीधे जुड़े लोगों से तो
नहीं, उनके परिजनों-साथियों से उस दौर की स्मृतियों को साझा करने का मौका मिला है.
यूँ ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह आदि स्वतंत्रता
सेनानियों के चंपारण सत्याग्रह पर लिखे हुए के साथ पत्रकार अरविंद मोहन और युवा
आलोचक आशुतोष पार्थेश्वर और अन्य लोगों के शोधकार्यों का भी उसके बोध निर्माण में महत्वपूर्ण योग है- लेखक)
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