Saturday, 11 April 2015

रेणु और राजनीति

११ अप्रैल अमर कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की पुण्य तिथि है| उनकी याद आई तो अपना प्रिय नगर पटना भी याद आया| राजेंद्र नगर स्थित उनका फ्लैट, कॉफ़ी हाउस, मैगज़ीन सेंटर आदि वो सारी जगहें याद आयीं, जिनसे उनका जीवंत संपर्क था| कॉफ़ी हाउस का वो कोना याद आया, जहाँ वे नियमित तौर पर लेखकों से घिरे बैठते थे| साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता के तब के वे नौजवान चेहरे याद आए जिनके भीतर परिवर्तन का तूफानी जज्बा था और जो रेणु के आस-पास हमेशा दिखाई देते थे| रेणु उनके साहित्यिक ही नहीं राजनीतिक प्रेरणा पुरुष भी थे| वे सभी आज अपने-अपने क्षेत्र में उसी जज्बे से काम कर रहे हैं| किसी लेखक ने अपने इर्द-गिर्द के इतने लोगों को प्रेरित और प्रभावित किया हो, इसके उदाहरण बहुत कम मिलेंगे|
      रेणु ने साहित्य और राजनीति के संबंधों की परिभाषा बदल दी और उसे एक नयी दिशा दी| वे विचारों से समाजवादी थे और जे. पी.-लोहिया वाली सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य रह चुके थे| सुना है कि पटना में नया टोला स्थित जो पार्टी कार्यालय था उसमे वे नियमित बैठते थे और कार्यालय सचिव थे| जय प्रकाश नारायण उनके राजनीतिक गुरु-नेता थे जिनके विरुद्ध कुछ भी सुनना उन्हें पसंद नहीं था| जे. पी.- लोहिया के कारण नेपाली राजशाही के खिलाफ चले आन्दोलन में भी उनकी प्रमुख भूमिका थी| लेकिन जे. पी. जब समाजवाद को अलविदा कह कर सर्वोदय में चले गए तो रेणु भी सक्रिय राजनीति से लगभग निष्क्रिय हो गए| १९७२ में पता नहीं किस भरोसे उन्होंने बिहार विधान सभा का चुनाव अपने इलाके से निर्दलीय उमीदवार के तौर पर लड़ा, जिसमे उनकी जमानत ज़ब्त हो गयी थी| उस दौरान किसी साप्ताहिक पत्र में उनका एक इंटरव्यू छपा था| पत्रकार ने पूछा था कि आप लोगों से कैसे वोट मांगेंगे? उन्होंने बड़ा दिलचस्प जवाब दिया था| उन्होंने कहा था कि मैं उन्हें रामचरित मानस के दोहे- चौपाईयां और दिनकर की कविताएँ सुनाऊंगा| जाहिर है कविता से वोट नहीं मिलना था और नहीं मिला| वे हार गए| रेणु की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी १९७४ में जब छात्र आन्दोलन की कमान छात्र नेताओं के आग्रह पर जे. पी. ने संभाली| रेणु तन-मन-धन, तीनो के साथ जे. पी के पीछे खड़े हो गए| उस आन्दोलन में बड़ी संख्या में साहित्यकार और पत्रकार शामिल हुए जिसमे सबसे अग्रणी भूमिका फनीश्वर नाथ रेणु की थी| धरना-प्रदर्शन, जेल यात्रा, सबकुछ किया रेणु ने| उनके नेतृत्व में पटना समेत बिहार के अन्य नगरों में नुक्कड़ काव्यपाठ का सिलसिला शुरू हुआ जो अपनी तरह का साहित्य और राजनीति का जीवंत सम्बन्ध था| आन्दोलन के दौरान जे. पी पर जब लाठी-चार्ज हुआ तो विरोध-स्वरुप रेणु ने अपनी पद्मश्री के उपाधि तो लौटाई ही, बिहार सरकार से प्रति माह लेखकों को मिलने वाली आर्थिक मदद भी लौटा दी, जब की वे मसिजीवी लेखक थे|
      रेणु गहरे और व्यापक अर्थों में राजनीतिक लेखक थे| मैला आँचल भारत के गाँव की धड़कती तस्वीर पेश करने वाले गोदान के बाद हिंदी का दूसरा उपन्यास है| मैला आँचल में आजाद भारत की राजनीतिक दशा-दिशा जितने रचनात्मक ढंग से चित्रित हुई है उसकी मिसाल अन्यत्र शायद ही देखने को मिले| रेणु ने साहित्य को राजनीति का पिछलग्गू न बनने दिया| वे सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता  जरूर थे लेकिन अपने उपन्यास मैला आँचल में उन्होंने उसकी चीर-फाड़ में कोई कोताही नहीं बरती| वे महान लेखक इस लिए बन सके क्योंकि उन्होंने अपनी राजनैतिक लाइन का अतिक्रमण किया| कहा जाता है कि रेणु कबीर पंथी थे| पर इससे क्या? उन्होंने मैला आँचल में कबीर-पंथी मठ की जैसी आलोचना की वैसी आलोचना की उम्मीद किसी अनुयायी से तो नहीं ही की जाती| यही कारण है कि मैला आँचल का बावन दास आज़ादी के बाद के आए हिंदी उपन्यासों का सबसे कद्दावर चरित्र है| काला बाजारियों के हाथों बावन दास की मृत्यु दरअसल स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा देखे गए सपनों की मृत्यु है| स्वतंत्र भारत की राजनीति के व्यवहार और आदर्श के द्वंद्व की मैला आँचल जैसी त्रासद कथा हिंदी में दूसरी नहीं है| मार्क्सवादी लेखक राजनीति से अपने संबंधों को अक्सर महिमा मंडित करते रहते हैं और गैर मार्क्सवादियों को अराजनीतिक बताते रहते हैं| जे. पी.- लोहिया के नेतृत्व में चलने वाला समाजवादी आन्दोलन इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि इसने लेखकों की कितनी बड़ी जमात को प्रेरित-प्रभावित किया| रामवृक्ष बेनीपुरी, विजयदेव नारायण साही, फणीश्वर नाथ रेणु आदि लेखकों की सक्रिय राजनीतिक कार्यवाहियों से पता चलता है कि क्रांति-आन्दोलन आदि सिर्फ मार्क्सवादी लेखकों के ही हवाले नहीं है| जनता और जनसरोकारों की चिंता करने वाली एक दूसरी साहित्यिक धारा भी हिंदी में हैं, जिसकी अनदेखी प्रायः मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों ने की है|
      सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुई जनता-सरकार की विफलता और विभत्सता देखने के लिए अपने राजनीतिक गुरु जे. पी. की तरह रेणु भी जीवित न रहे| जनता-सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद पेप्टिक-अल्सर के ऑपरेशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी................ उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद हमारी मुलाकात कवि नागार्जुन से हुई| वे एक फूटपाथी दूकान में, जहाँ अक्सर मजदूर और रिक्शे वाले भोजन करते हैं, रोटी खा रहे थे| यह दृश्य हम नौजवानों के लिए आश्चर्यजनक था| हमारे एक साथी ने पूछा, “ बाबा, रेणु जी यहाँ बैठ कर रोटी खाते या नहीं?” नागार्जुन कुछ देर चुप रहे| फिर संजीदगी से बोले,’ रेणु यहाँ रोटी नहीं खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए गोली खा लेते|” जनता के एक लेखक द्वारा जनता के ही  दूसरे लेखक की यह नयी पहचान थी| जनता का लेखक सिर्फ वही नहीं होता जो उनके बीच उठता-बैठता है, वह भी होता है जो उनके लिए लड़ता है| यह कम्युनिस्ट नागार्जुन द्वारा सोशलिस्ट रेणु को दी गयी स्वीकृति थी| कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट लेखक आम तौर से आपस में लड़ा करते हैं| क्या वे इस उदहारण से कुछ सीखेंगे? रेणु जब अपने गाँव जाते थे तो कभी-कभी नागार्जुन भी वहाँ जाते थे| रेणु फक्कड़ कवि नागार्जुन का स्वयं बहुत ख्याल रखते थे|  
     
       

4 comments:

  1. रेणु के इस पक्ष की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार सर....निश्चित ही महान साहित्य बिना महान विचार के नहीं लिखा जा सकता...

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  2. क्या इस घटना के बारे में भी हम बीस साल-पच्चीस साल बाद हाशिमपुरा जैसा मरसिया पढ़ने के लिए अभिशप्त होंगे??

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  3. रेणु और नागार्जुन वाला प्रसंग सुखद!

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  4. रेणु जी पर संक्षिप्त किन्तु आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराता है आपका यह लेख। प्रणाम।

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