११ अप्रैल अमर कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की पुण्य तिथि है| उनकी याद आई तो
अपना प्रिय नगर पटना भी याद आया| राजेंद्र नगर स्थित उनका फ्लैट, कॉफ़ी हाउस,
मैगज़ीन सेंटर आदि वो सारी जगहें याद आयीं, जिनसे उनका जीवंत संपर्क था| कॉफ़ी हाउस
का वो कोना याद आया, जहाँ वे नियमित तौर पर लेखकों से घिरे बैठते थे| साहित्य,
राजनीति और पत्रकारिता के तब के वे नौजवान चेहरे याद आए जिनके भीतर परिवर्तन का
तूफानी जज्बा था और जो रेणु के आस-पास हमेशा दिखाई देते थे| रेणु उनके साहित्यिक
ही नहीं राजनीतिक प्रेरणा पुरुष भी थे| वे सभी आज अपने-अपने क्षेत्र में उसी जज्बे से
काम कर रहे हैं| किसी लेखक ने अपने इर्द-गिर्द के इतने लोगों को प्रेरित और
प्रभावित किया हो, इसके उदाहरण बहुत कम मिलेंगे|
रेणु ने साहित्य और राजनीति के
संबंधों की परिभाषा बदल दी और उसे एक नयी दिशा दी| वे विचारों से समाजवादी थे और
जे. पी.-लोहिया वाली सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य रह चुके थे| सुना है कि पटना में
नया टोला स्थित जो पार्टी कार्यालय था उसमे वे नियमित बैठते थे और कार्यालय सचिव
थे| जय प्रकाश नारायण उनके राजनीतिक गुरु-नेता थे जिनके विरुद्ध कुछ भी सुनना
उन्हें पसंद नहीं था| जे. पी.- लोहिया के कारण नेपाली राजशाही के खिलाफ चले
आन्दोलन में भी उनकी प्रमुख भूमिका थी| लेकिन जे. पी. जब समाजवाद को अलविदा कह कर
सर्वोदय में चले गए तो रेणु भी सक्रिय राजनीति से लगभग निष्क्रिय हो गए| १९७२ में
पता नहीं किस भरोसे उन्होंने बिहार विधान सभा का चुनाव अपने इलाके से निर्दलीय
उमीदवार के तौर पर लड़ा, जिसमे उनकी जमानत ज़ब्त हो गयी थी| उस दौरान किसी साप्ताहिक
पत्र में उनका एक इंटरव्यू छपा था| पत्रकार ने पूछा था कि आप लोगों से कैसे वोट
मांगेंगे? उन्होंने बड़ा दिलचस्प जवाब दिया था| उन्होंने कहा था कि मैं उन्हें रामचरित
मानस के दोहे- चौपाईयां और दिनकर की कविताएँ सुनाऊंगा| जाहिर है कविता से वोट
नहीं मिलना था और नहीं मिला| वे हार गए| रेणु की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी १९७४ में
जब छात्र आन्दोलन की कमान छात्र नेताओं के आग्रह पर जे. पी. ने संभाली| रेणु
तन-मन-धन, तीनो के साथ जे. पी के पीछे खड़े हो गए| उस आन्दोलन में बड़ी संख्या में
साहित्यकार और पत्रकार शामिल हुए जिसमे सबसे अग्रणी भूमिका फनीश्वर नाथ रेणु की
थी| धरना-प्रदर्शन, जेल यात्रा, सबकुछ किया रेणु ने| उनके नेतृत्व में पटना समेत
बिहार के अन्य नगरों में नुक्कड़ काव्यपाठ का सिलसिला शुरू हुआ जो अपनी तरह का
साहित्य और राजनीति का जीवंत सम्बन्ध था| आन्दोलन के दौरान जे. पी पर जब
लाठी-चार्ज हुआ तो विरोध-स्वरुप रेणु ने अपनी पद्मश्री के उपाधि तो लौटाई ही, बिहार
सरकार से प्रति माह लेखकों को मिलने वाली आर्थिक मदद भी लौटा दी, जब की वे मसिजीवी
लेखक थे|
रेणु गहरे और व्यापक अर्थों में
राजनीतिक लेखक थे| मैला आँचल भारत के गाँव की धड़कती तस्वीर पेश करने वाले गोदान के
बाद हिंदी का दूसरा उपन्यास है| मैला आँचल में आजाद भारत की राजनीतिक दशा-दिशा
जितने रचनात्मक ढंग से चित्रित हुई है उसकी मिसाल अन्यत्र शायद ही देखने को मिले|
रेणु ने साहित्य को राजनीति का पिछलग्गू न बनने दिया| वे सोशलिस्ट पार्टी के
कार्यकर्ता जरूर थे लेकिन अपने उपन्यास
मैला आँचल में उन्होंने उसकी चीर-फाड़ में कोई कोताही नहीं बरती| वे महान लेखक इस
लिए बन सके क्योंकि उन्होंने अपनी राजनैतिक लाइन का अतिक्रमण किया| कहा जाता है कि
रेणु कबीर पंथी थे| पर इससे क्या? उन्होंने मैला आँचल में कबीर-पंथी मठ की जैसी आलोचना की वैसी आलोचना की उम्मीद किसी
अनुयायी से तो नहीं ही की जाती| यही कारण है कि मैला आँचल का बावन दास आज़ादी के
बाद के आए हिंदी उपन्यासों का सबसे कद्दावर चरित्र है| काला बाजारियों के हाथों
बावन दास की मृत्यु दरअसल स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा देखे गए सपनों की मृत्यु
है| स्वतंत्र भारत की राजनीति के व्यवहार और आदर्श के द्वंद्व की मैला आँचल जैसी
त्रासद कथा हिंदी में दूसरी नहीं है| मार्क्सवादी लेखक राजनीति से अपने संबंधों को
अक्सर महिमा मंडित करते रहते हैं और गैर मार्क्सवादियों को अराजनीतिक बताते रहते
हैं| जे. पी.- लोहिया के नेतृत्व में चलने वाला समाजवादी आन्दोलन इस बात का
साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि इसने लेखकों की कितनी बड़ी जमात को प्रेरित-प्रभावित
किया| रामवृक्ष बेनीपुरी, विजयदेव नारायण साही, फणीश्वर नाथ रेणु आदि लेखकों की
सक्रिय राजनीतिक कार्यवाहियों से पता चलता है कि क्रांति-आन्दोलन आदि सिर्फ
मार्क्सवादी लेखकों के ही हवाले नहीं है| जनता और जनसरोकारों की चिंता करने वाली
एक दूसरी साहित्यिक धारा भी हिंदी में हैं, जिसकी अनदेखी प्रायः मार्क्सवादी
लेखकों-आलोचकों ने की है|
सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के गर्भ
से पैदा हुई जनता-सरकार की विफलता और विभत्सता देखने के लिए अपने राजनीतिक गुरु
जे. पी. की तरह रेणु भी जीवित न रहे| जनता-सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद पेप्टिक-अल्सर
के ऑपरेशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी................ उनकी मृत्यु के कुछ दिनों
बाद हमारी मुलाकात कवि नागार्जुन से हुई| वे एक फूटपाथी दूकान में, जहाँ अक्सर
मजदूर और रिक्शे वाले भोजन करते हैं, रोटी खा रहे थे| यह दृश्य हम नौजवानों के लिए आश्चर्यजनक था| हमारे एक साथी ने पूछा, “ बाबा, रेणु जी यहाँ
बैठ कर रोटी खाते या नहीं?” नागार्जुन कुछ देर चुप रहे| फिर संजीदगी से बोले,’
रेणु यहाँ रोटी नहीं खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए गोली खा लेते|” जनता के एक
लेखक द्वारा जनता के ही दूसरे लेखक की यह
नयी पहचान थी| जनता का लेखक सिर्फ वही नहीं होता जो उनके बीच उठता-बैठता है, वह भी
होता है जो उनके लिए लड़ता है| यह कम्युनिस्ट नागार्जुन द्वारा सोशलिस्ट रेणु को दी
गयी स्वीकृति थी| कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट लेखक आम तौर से आपस में लड़ा करते हैं| क्या
वे इस उदहारण से कुछ सीखेंगे? रेणु जब अपने गाँव जाते थे तो कभी-कभी नागार्जुन भी
वहाँ जाते थे| रेणु फक्कड़ कवि नागार्जुन का स्वयं बहुत ख्याल रखते थे|
रेणु के इस पक्ष की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार सर....निश्चित ही महान साहित्य बिना महान विचार के नहीं लिखा जा सकता...
ReplyDeleteक्या इस घटना के बारे में भी हम बीस साल-पच्चीस साल बाद हाशिमपुरा जैसा मरसिया पढ़ने के लिए अभिशप्त होंगे??
ReplyDeleteरेणु और नागार्जुन वाला प्रसंग सुखद!
ReplyDeleteरेणु जी पर संक्षिप्त किन्तु आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराता है आपका यह लेख। प्रणाम।
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