१८ मार्च १९७४ को पटना में शुरू हुए
छात्र आन्दोलन को बिहार आन्दोलन या जे.पी. आन्दोलन भी कहते हैं | प्रारंभ में
आन्दोलन के कर्ता-धर्ता छात्र ही थे | लेकिन जब सरकार ने उनकी मांगे सुनने और
मानने की जगह दमन की नीति अख्तियार कर ली तो आन्दोलन को कुशल नेतृत्व की जरुरत
महसूस हुई | नेतृत्व हेतु पटना में ही रह रहे जयप्रकाश नारायण पर छात्र नेताओं की
दृष्टि गयी | जयप्रकाश जी १९४२ की क्रांति के नायक माने जाते थे | उस कारण दिनकर
ने ‘सेनानी करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है’ और ‘जयप्रकाश है नाम देश की
चढ़ती हुई जवानी का’, जैसी कविता लिखी थी, जो खासी लोकप्रिय हुई थी | रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘जयप्रकाश’ नाम से
पूरी किताब लिखी, जो अपने समय में खूब पढ़ी गयी | वे स्वतंत्र भारत में जवाहर लाल
नेहरु के बाद सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे | भारत में समाजवादी विचारों के प्रसार
में उनकी बड़ी भूमिका थी | उन्होंने न सिर्फ ‘व्हाई सोशलिज्म’ (१९३६) लिखकर नए भारत
के निर्माण का नया वैचारिक आधार प्रस्तुत किया था, बल्कि सोशलिस्ट पार्टी का गठन
कर उसे सक्षम नेतृत्व भी दिया था | उनके नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस के
बाद सबसे बड़ी पार्टी थी | कांग्रेस का विकल्प जयप्रकाश के नेतृत्व में सोशलिस्ट
पार्टी को ही माना जाता था | लेकिन १९५२ के प्रथम आम चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी की
पराजय तथा सोवियत संघ में स्टालिन कालीन दमन नीतियों से वे काफी निराश हो गए |
उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़ सर्वोदय की राह पकड़ी | मोहर सिंह सरीखे चम्बल के
डाकुओं का आत्मसमर्पण १९७० के दशक में उनके नेतृत्व में हो चुका था | १९७१ में
बांग्लादेश के निर्माण के संघर्ष के पक्ष में उन्होंने विश्वव्यापी दौरा किया था |
उनकी छवि ईमानदार और त्यागी नेता की थी | अंग्रेजों की जेल में उन्होंने भयंकर
यातनाएँ सही थी और स्वतंत्र भारत में सत्ता की राजनीति से अपने को दूर रखा था –
जबकि उनके पास प्रधानमंत्री तक बनने का अवसर था |
जयप्रकाश जी ने छात्र नेताओं की बातें
सुनीं | वे स्वयं भी बढती हुई महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सत्ताधारी दल की
बढ़ती निरंकुशता से चिंतित थे | वे सर्वोदय में जरूर थे, पर वे आश्रम बनाकर बैठ
जाने वाले मठी नहीं थे | उनकी मूल चेतना संघर्षधर्मी, परिवर्तनकामी और समाजवादी थी
| उनकी इस चेतना का एक उदाहरण ‘बिहार रिलीफ कमिटी’ थी | १९६६-६७ में जब बिहार में
भयंकर सूखा पड़ा तो उन्होंने ‘बिहार रिलीफ कमिटी’ बनाई और उसके जरिये विपदा की मारी
जनता को सहायता पहुंचाने के अनुपम काम किए | सो, छात्रों ने जब उनसे नेतृत्व
सँभालने का आग्रह किया तो वे अपने को आन्दोलन से अलग नहीं रख सके | उन्होंने छात्र
नेताओं के सामने शर्त रखी – ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा |’ यह
बिहार आन्दोलन का नारा बन गया | इसका अर्थ
यह था कि आन्दोलन का चरित्र अहिंसक, शांतिपूर्ण और लोकतान्त्रिक होगा |
जयप्रकाश जैसे लोकप्रिय, बेदाग,
तपे-तपाये और बड़े व्यक्ति द्वारा नेतृत्व सँभालने का अर्थ था – आन्दोलन को
बहुआयामी और व्यापक दिशा देना | उनके नेतृत्व सँभालने के बाद आन्दोलन का चरित्र
बदला | छात्रों के साथ नौजवानों, किसानों और बुद्धिजीवियों की व्यापक भागीदारी के
कारण आन्दोलन राजधानी पटना से लेकर गाँवों - कस्बों तक फैल गया और यह नारा चारों
ओर गूंजने लगा – ‘नया बिहार बनायेंगे|’ जयप्रकाश जी के कारण कवियों-लेखकों-पत्रकारों
की बड़ी जमात आन्दोलन में आई | फणीश्वरनाथ रेणु के साथ नए – पुराने तमाम साहित्यकार
आन्दोलन में अपनी भागीदारी निभाने तन-मन- धन से आगे आये | नुक्कड़ों पर कवियों ने
काव्य-पाठ शुरू किया | नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में आन्दोलन को शक्ति देने वाली
कविताएँ गूंजने लगी | वामपंथी नागार्जुन भी इस जन आन्दोलन से अपने को अलग नहीं रख
सके और वे पूरे जोश से आन्दोलन में कूद पड़े | गलियों-चौराहों पर उनके नेतृत्व में
लालधुआं, सत्यनारायण, गोपीवल्लभ, रवीन्द्र भारती, परेश सिन्हा, रवीन्द्र राजहंस,
रामवचन राय आदि कवियों का काव्य-पाठ आये दिन का कार्यक्रम हो गया | कवि आलोकधन्वा
भी कभी-कभार नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में शामिल हुए | आन्दोलन की बुलेटिन ‘तरुण क्रांति’ के संपादक और
प्रसिद्ध गांधीवादी चिन्तक कुमार प्रशांत ने बातचीत में बताया कि आन्दोलन को लेकर
आलोक के कुछ ‘रिजर्वेशन’ थे और उनका आलोचनात्मक समर्थन आन्दोलन को था | खैर,उन्ही
नुक्कड़ कविताओं में से कवि सत्यनारायण की एक कविता काफी लोकप्रिय हुई-
जुल्म का
चक्का और तबाही कितने दिन ?
हम पर तुम
पर सर्द सियाही कितने दिन ?
रामगोपाल दीक्षित की एक कविता तो
इतनी पसंद की गयी कि हर आन्दोलनकारी की जुबान पर चढ़ गयी | वह कविता थी –
जयप्रकाश का बिगुल बजा
तो जाग उठी तरुणाई है,
तिलक लगाने तुम्हे जवानों
क्रांति द्वार पर आई है |
यह कविता हर बड़ी रैली में आन्दोलनकारी
गायकों द्वारा गाई जाती थी और इसकी धुन पर जयप्रकाशजी स्वयं झूमने लगते थे | इसी
के साथ नागार्जुन की भी एक कविता पढ़ी जाती थी, जो आन्दोलन के दौरान लिखी गयी थी |
हजारों-लाखों लोगों को इस कविता द्वारा आंदोलित होते मैंने स्वयं देखा है | वह कविता है –
क्या हुआ आपको ?
क्या हुआ आपको ?
सत्ता की मस्ती में भूल गयीं
बाप को ?
इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको ?
जैसे-जैसे आन्दोलन तेज होता गया,
सरकार की दमन नीति और कड़ी होती गयी | एक विशाल जुलूस का जब जयप्रकाश जी नेतृत्व कर
रहे थे तब पुलिस ने उनपर बर्बरतापूर्वक लाठियां बरसाईं | नागार्जुन ने इस दमन का
प्रतिकार किया और कविता के रूप में उनकी प्रतिक्रिया सामने आई | यह कविता भी लोगों की जुबान पर चढ़ गयी -
एक और गाँधी की हत्या
होगी अब क्या ?
बर्बरता के भोग चढ़ेगा योगी अब
क्या ?
पोल खुल गयी शासक दल
के महामंत्र की ?
जयप्रकाश पर पड़ी लाठियां
लोकतंत्र की ?
फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन और अन्य
कवियों की जयप्रकाश जी से अक्सर मुलाकात होती थी और जयप्रकाश जी उनसे आन्दोलन के
सन्दर्भ में बातचीत करते थे | कभी-कभी रेणु और नागार्जुन सम्मानपूर्वक जयप्रकाश जी
के साथ मंच पर भी होते थे | आज के नेताओं के साथ इस दृश्य की कल्पना नहीं की जा
सकती | लेकिन यह सच है, तब मेरी तरह उस आन्दोलन से जुड़े हजारों-लाखों लोगों ने यह
दृश्य देखा था |
नागार्जुन जनपक्षधर रचनाकार थे | वे
आँख मूंदकर आन्दोलन में नहीं उतरे थे | वे अपनी खुली आँखों से उसमें आते उतार-चढ़ाव
को भी देख रहे थे | उन्हीं दिनों उन्होंने एक कविता लिखी, जिसका शीर्षक है-
‘क्रांति सुगबुगाई है’ –
क्रांति
सुगबुगाई है
करवट
बदली है क्रांति ने
मगर,
वह अब भी उसी तरह लेटी है
एक
बार इस ओर देखकर
उसने
फिर से फेर लिया है
अपना
मुंह उसी ओर.........
‘सम्पूर्ण
क्रांति’ और ‘सम्पूर्ण विप्लव’ के मंजु घोष
उसके
कानों के अन्दर
खीज
भर रहे हैं या गुदगुदी
यह
आज नहीं कल बतला सकूंगा !
हवा
में भर उठी इन्कलाब के कपूर की खुशबू
बार-बार
गूंजा आसमान
बार-बार
उमड़ आए नौजवान
बार-बार
लौट गए नौजवान
बिहार आन्दोलन में अक्सर गूंजने
वाली इन कविताओं के द्वारा हमने कवि नागार्जुन को जाना | लेकिन उन्हें करीब से
देखने का सौभाग्य मिला १९७५ में, इमरजेंसी लगने के ठीक पहले | बिहार के सीवान शहर
में एक जन सभा हो रही थी, जिसे नागार्जुन भी संबोधित कर रहे थे | वे अपनी कविताएँ भी
सुना रहे थे | सीवान के बगल के जिले गोपालगंज से छात्र संघर्ष समिति के साथियों के
साथ मैं भी उस सभा में उपस्थित था | वहीं पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और जेल
में डाल दिया | सीवान से छपरा और बाद में बक्सर जेल में वे स्थानांतरित कर दिए गए |
कुछ दिनों बाद ही इमरजेंसी लग गई | इमरजेंसी के बीच में ही लगभग एक साल बाद खबर आई
कि नागार्जुन छूट गए हैं | बाहर आने के बाद नंदकिशोर नवल और खगेन्द्र ठाकुर की पहल
पर उनका एक साक्षात्कार छपा, जिसमें अभद्र भाषा में जयप्रकाश और आन्दोलन की आलोचना
थी |
डॉ. नंदकिशोर नवल के आवास पर १५
जुलाई,१९७६ को, यानी इमरजेंसी का अँधेरा जब खूब घना था और सन्नाटे में पूरा देश डूबा
हुआ था तब यह साक्षात्कार लिया गया था | साक्षात्कार में जे.पी. आन्दोलन को ‘वेश्याओं
और भंडुओं की गली’ कहा गया था, जहाँ जाकर नागार्जुन लौट आये थे | उसके अतिरिक्त
उद्धरण चिह्नों के भीतर नागार्जुन का वक्तव्य है- “सम्पूर्ण क्रांति का पूरा तूमार
‘तरुण क्रांति’ और ‘विचार क्रांति’ की बुनियाद बनाकर खड़ा किया गया था | सम्पूर्ण
क्रांति वालों की दृष्टि में डेमोक्रेसी पटरी से उतर गयी थी और व्यक्तिगत
स्वाधीनता धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी | गुजरात की तरुण क्रांति के बाद
उन्होंने बिहार में अपना मोर्चा जमाया | बंगाल के ‘अष्टवास’ (मार्क्सवादी
कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बना आठ वामपंथी पार्टिओं का मोर्चा) के प्रभाव
में बुद्धिजीवियों का जो एक गिरोह था, मुझ पर थोड़ा-बहुत उसका प्रभाव था और वह
भारत-चीन-सीमा-संघर्ष के दिनों से ही था | १९६४ के बाद से वह प्रभाव और गहरा होता
चला गया | ‘अष्टवास’ द्वारा कांग्रेस और
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का जो अंधविरोध किया जा रहा था, मैं उसका शिकार था |
‘सम्पूर्ण क्रांति’ की ओर मैं जो लपक पड़ा, उसके मूल में यही बातें
थीं...........वे अभी भी मौजूदा शासन के ‘ईमानदार’ विकल्प की टोह में
हैं...........आन्दोलन के वर्ग-चरित्र को मैं अंध कांग्रेस विरोध के प्रभाव में
रहने के कारण समझ नहीं पाया | सम्पूर्ण क्रांति की असलियत मैंने जेल में समझी | सीवान,
छपरा और बक्सर की जेलों में सम्पूर्ण क्रांति के जो कार्यकर्ता थे, उनमें अस्सी
प्रतिशत जनसंघी और विद्यार्थी परिषद् वाले थे | सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता दाल
में नमक के बराबर थे और भालोद के कार्यकर्ता दाल में तैरते हुए जीरे के बराबर |
औद्योगिक और खेत-मजदूर न के बराबर थे | हरिजन भी इक्के-दुक्के ही थे | यह सब देखकर
मैं समझ गया कि यह आन्दोलन किन लोगों का था | इस आन्दोलन के चरित्र के सम्बन्ध में
मैं शुरू से ही संशयग्रस्त था | ठीक इसी तरह सम्पूर्ण क्रांति के लोग अपने मन में
संशय रखते थे | ............कम्युनिस्ट पार्टी के बिहार के साथियों ने सम्पूर्ण
क्रांति के अश्वमेध के घोड़े को नाथने का जो बहादुराना काम किया, वह बेमिसाल था |”
इसके आगे नागार्जुन ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को यह सलाह दी थी कि कांग्रेस का
अंध विरोध न करके उसके प्रगतिशील क़दमों का समर्थन करना चाहिए | इमरजेंसी और बीस
सूत्री कार्यक्रम पर उनकी टिप्पणी थी – “इमरजेंसी के लिए जो वक्त चुना गया था, वह
बिलकुल मौजू था | जरा भी देर होती तो महा अनर्थ घटित होता...........इस कार्यक्रम
(यानी बीस सूत्री कार्यक्रम) ने सम्पूर्ण क्रांति वालों की कमर तोड़ दी
है...........मेरे सम्पूर्ण क्रांति के मित्रों को जरा भी बुद्धि हो तो उन्हें
हुलसकर बीस सूत्री कार्यक्रम का समर्थन करना चाहिए |” नागार्जुन के उस साक्षात्कार
में गैर भाकपाई वामपंथी लोगों की आलोचना के साथ सोवियत संघ की भूमिका का भी समर्थन
है – “मुझे अपने वामपंथी मित्रों पर दया आती है, जो सोवियत संघ के प्रति
संशयग्रस्त हैं | अंगोला, मोजाम्बिक आदि देशों में सोवियत संघ की भूमिका उन्हें
फूटी आँखों नहीं सुहाती है, लेकिन मुझे वह पूर्णतः संगत लगती है | भारत-सोवियत
सम्बन्ध को भी हमें इसी रोशनी में देखना चाहिए |”
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘जनशक्ति’ दैनिक
में छपी यह बातचीत, उस समय की पार्टी लाइन के अनुसार थी | यहाँ यह भी जानना जरूरी
है कि खगेन्द्र ठाकुर कॉलेज की अध्यापकी छोड़कर पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता हो
गए थे | नंदकिशोर नवल अध्यापकी बरक़रार रखते हुए भाकपा के उत्साही सदस्य थे |
स्वाभाविक रूप से उन दिनों दोनों भाकपा और सोवियत संघ के खिलाफ एक शब्द भी सुनना
नहीं पसंद करते थे | आगे चलकर नागार्जुन प्रसंग में ही दोनों का स्थाई विवाद हो
गया | इसका मूल कारण ‘नागार्जुन की
राजनीति’ नामक पुस्तिका थी | बहरहाल, दोनों बिहार में भाकपा के सांस्कृतिक नेता थे
और इस गुरुत्तर और ऐतिहासिक दायित्व के तहत पार्टी लाइन के अनुसार ही अपना काम
जोश-खरोश के साथ कर रहे थे | बिहार के गैर भाकपाई वामपंथी मित्रों के बीच चर्चा
होती थी कि इसी ‘गुरुत्तर तथा ऐतिहासिक दायित्व’ को संपन्न करने के निमित्त पार्टी
के मौखिक निर्देश पर यह साक्षात्कार लिया गया था और वही छपा था जो पार्टी लाइन के
अनुसार था | ‘सम्पूर्ण क्रांति’ को ‘मानव-विरोधी’ घोषित करते हुए साक्षात्कार के
प्रारंभ में नवलजी की टिप्पणी है – “हिंदी
भाषा ही नहीं, इस देश की अहिन्दी भाषी
जनता के लिए यह समाचार अत्यंत दुखद था कि पिछले दिनों बाबा ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के
पक्षधर हो गए थे | यह समाचार उसके लिए न केवल दुखद था, बल्कि आश्चर्यजनक भी था |
कारण यह कि बाबा का मानववाद अब कोई छिपी हुई चीज नहीं है | इस मानववाद को छोड़कर वे
‘सम्पूर्ण क्रांति’ के मानव-विरोधी आन्दोलन में कैसे सम्मिलित हुए, इस संबंध में
तरह-तरह की अटकलें लगायी जा रही थीं |”
लेकिन हम इस लोकचर्चा को महत्व क्यों
दें कि नागार्जुन पर भाकपाई साथियों का दबाव था और उन्होंने वैसा ही बयान दिया, जो
पार्टी लाइन के अनुसार था | भाकपा जरूर ऐसा चाहती होगी, क्योंकि वह जे.पी. आन्दोलन
के खिलाफ थी और सत्तारूढ़ कांग्रेस से उसका गठबंधन था | तब शांतिपूर्ण सहयोग की डांगेवादी
नीति पर चलने वाली पार्टी न सिर्फ सत्तारूढ़ कांग्रेस की समर्थक थी, बल्कि जे.पी.
आन्दोलन को फासिस्ट और जयप्रकाश को अमेरिकी दलाल बता रही थी | ऐसे में कम्युनिस्ट
पृष्ठभूमि और चेतना के नागार्जुन का आन्दोलन में शामिल होना पार्टी लाइन के
प्रतिकूल था | आन्दोलन के खिलाफ जितना कांग्रेस थी, उससे अधिक भाकपा थी| आन्दोलन
के कार्यक्रमों के सामानांतर भाकपा भी आन्दोलन विरोधी अपना कार्यक्रम चला रही थी |
नागार्जुन उस समय पार्टी सदस्य न थे, पर पार्टी से उनका जुड़ाव बहुत पुराना था | सो,
जेल से निकलने के बाद उनका जयप्रकाश और आन्दोलन के विरोध में दिया गया बयान उसे
राहत पहुँचाने वाला था और यह स्वाभाविक भी था कि भाकपा उनसे इस तरह के बयान की
अपेक्षा करे | नागार्जुन कोई बच्चे तो थे नहीं ! पहल भले खगेन्द्र ठाकुर और
नंदकिशोर नवल की रही हो, वक्तव्य तो नागार्जुन का ही था और उन्होंने उसका कोई खंडन
भी नहीं किया था | न सिर्फ उस समय बल्कि बाद के दिनों में भी | कुछ वर्षों बाद
अन्य लोगों को दिए गए साक्षात्कार में भले ही ‘रंडियों और भंडुओं’ जैसी शब्दावली
का प्रयोग न हो, मगर जे.पी. आन्दोलन के प्रति उनका वही स्टैंड था| हाँ, तब भाकपा
की लाइन को और सत्तारूढ़ दल की नीतियों को सही मानने का जो स्टैंड था, उसमें फर्क आ
गया | नवम्बर १९७९ में विजय बहादुर सिंह से बातचीत करते हुए नागार्जुन ने कहा :
“..............७१-७२ के बाद सत्तारूढ़ पार्टी के नेतृत्व में तानाशाही मंसूबे
साफ़-साफ़ उभरने लगे | श्रमजीवी वर्ग और प्रखर बौद्धिक जमात पर शासन का शिकंजा कसने
लगा | ............मार्च-अप्रैल १९७४ में बीसों छात्र एवं युवक शासकीय बर्बरता के
शिकार हुए | हमें लगा कि बर्बरता के खिलाफ लिखना ही काफी नहीं होगा | हम प्रतीक
अनशन पर बैठे | चौराहों और नुक्कड़ों पर कवितायेँ सुना-सुना कर शासन के प्रति हमने
अपनी बौखलाहट जाहिर की | अपने प्रगतिशील बंधुओं की ओर से मुझे बार-बार समझाया गया
कि यह सब फासिस्टों का सत्यानाशी तमाशा है........ परन्तु मेरा विवेक बार-बार मुझे
ले जाकर चौराहों पर खड़ा कर देता था | जेल के अन्दर मैंने शिद्दत से महसूस किया कि
समूचा आन्दोलन दक्षिणपंथी तत्वों की गिरफ्त में है | बाहर लाखों की भीड़ वाले
प्रदर्शनों में इस तथ्य का पता नहीं चला, इसलिए जेल से बाहर आने पर मैंने आन्दोलन के विरोध में खुलकर वक्तव्य दिए |”
जे.पी. आन्दोलन के सन्दर्भ में
नागार्जुन का एक और साक्षात्कार देखना जरूरी है | २२ जून १९८६ की ‘जनसत्ता’ में
प्रकाशित कर्ण सिंह चौहान, वाचस्पति और मंगलेश डबराल से बातचीत में नागार्जुन ने
कहा : “जे.पी. आन्दोलन में शामिल हुआ तो बड़ा हल्ला-गुल्ला हुआ | कई मित्र समझाने
आये कि कुछ करना हो तो आप कॉपी में लिखकर रखिये, चौराहे पर मत जाइये, जयप्रकाश के
हाथों में मत खेलिए | हमने कहा कि किसी के हाथ में खेलने की बात नहीं है | हमने
जयप्रकाश का विरोध ही किया है जीवन में | तो हम जब उस आन्दोलन में आये तो जयप्रकाश
बहुत चौंके कि ‘जानि न जाई निसाचर माया |’ कहीं केजीबी ने तो नहीं भेजा है | लेकिन
वह खुला आन्दोलन था | कोई किसी को रोक नहीं सकता था कि कोई अन्दर नहीं जायेगा|
अप्रैल ७४ में यह शुरू हुआ | पहले प्रदर्शन में आठ सौ लोग थे, मुंह पर पट्टी बांधे
हुए | हमको लगा कि सक्रिय हस्तक्षेप भी करना होगा | साहित्यकार, शिल्पी, कलाकार
हिस्सेदारी करेगा, तो उसका कोई अलग रूप तो होगा नहीं | तो चौराहे पर अनशन किया| उस
अनशन में हम और रेणु और छः सात आदमी और थे | बारह घंटे का अनशन था | हम जेल गए |
जे. पी. ने हमको लिखा कि आपकी बाहर बहुत जरूरत है, आप जेल मत जाइये | हमने तर्क
दिया कि सरकार ने अपने ढंग से गिरफ्तार किया है और अपने ढंग से छोड़ेगी, हम लिखकर
क्यों देंगे कि अब हम बाहर जाना चाहते हैं | यह तो छिनाली हुई | जयप्रकाश के अन्दर
चले जाने से आन्दोलन में जो कमी आती थी, उसको हमलोग पूरा करते थे | एक रिक्शा करते
थे | एक भोंपू होता था और प्रतिदिन तीन-चार चौराहों को कवर करते थे | जब छूटकर आये
तो हमने जयप्रकाश के खिलाफ वक्तव्य दिया | बड़ा हल्ला हुआ | जे.पी. ने अपना आदमी
भेजा कि आप सिर्फ दो लाइन का वक्तव्य दे दें कि आपके नाम से जो कुछ छप रहा है, वह
आपका नहीं | हमने कहा कि यह छिनाली राजनीति वाले
करते हैं | हम साहित्य वाले राजनीति से ऊपर हैं |............और जब हम छूटे
तो सी.पी.आई. में हमारी खोज हुई कि अब इनका मोहभंग हुआ है तो इनका इलेक्शन में
इस्तेमाल करें | हम चुपचाप दिल्ली में आकर बैठ गए | न इनके हाथ खेलना है न उनके
हाथ | हम अपने विवेक को बहुत बड़ा स्थान देते हैं | कोई मुगालता नहीं कि हम कोई
गलती नहीं करेंगे | लेकिन सही समय पर हमको अपने अन्दर की आवाज जो कहती है, उसका
बड़ा महत्त्व है |”
तीन जगहों पर तीन समयों में अलग-अलग
लोगों को दिए गए साक्षात्कारों में कुछ बातें ध्यान देने लायक हैं | पहली यह कि
बिहार आन्दोलन नागार्जुन की नज़र में जन आन्दोलन था | उसमें आमजन के साथ
साहित्यकारों की भी भागीदारी थी | आन्दोलन में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक लोग शामिल
थे | इस कारण नागार्जुन आन्दोलन से अलग हुए और बाहर आकर जे.पी. आन्दोलन के खिलाफ वक्तव्य दिया | नवलजी और
खगेन्द्रजी को दिए गए साक्षात्कार में जे.पी. आन्दोलन की कड़ी भर्त्सना के साथ
सी.पी.आई. और शासक दल की नीतियों को सही ठहराया गया है, जबकि ‘जनसत्ता’ वाले
साक्षात्कार में सी.पी.आई. द्वारा इस्तेमाल किये जाने की नौबत आने पर भाग निकलने
की स्पष्ट घोषणा है | अंतिम बात यह कि अपने ‘विवेक’ और अपने ‘अन्दर की आवाज’ पर ही
भरोसा करने की बात नागार्जुन करते हैं | यहाँ ध्यान देने लायक बात यह भी है कि उन्होंने
अपने दूसरे साक्षात्कारों में संघियों की मौजूदगी के कारण जयप्रकाश आन्दोलन की
निंदा तो की है, पर सी.पी.आई., सोवियत संघ, बीस सूत्री कार्यक्रम तथा इमरजेंसी की
जन एवं जनतंत्र विरोधी नीतियों का समर्थन नहीं किया है | इस वजह से नवल जी और
खगेन्द्र जी वाले साक्षात्कार में दोनों साक्षात्कारकर्ताओं की मंशा पर कभी-कभी
शंका होती है | इस शंका का कारण यह है कि ‘वेश्याओं और भंडुओं की गली’ जैसी
शब्दावली के जरिए जयप्रकाश आन्दोलन की निंदा का फूहड़ उपक्रम भी उन साक्षात्कारों
में नहीं है | ‘एक और गाँधी’ संज्ञा के जरिए जिस जयप्रकाश के लिए वे अपार सम्मान
व्यक्त कर चुके थे, उसी के लिए सड़क छाप गाली-गलौच ! सहसा विश्वास नहीं होता |
दूसरा कारण यह कि तब भी और बाद के दिनों में भी नागार्जुन सी.पी.आई. और सोवियत संघ
के प्रति अति आलोचनात्मक थे | उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों से भाकपा एवं प्रगतिशील
लेखक संघ के कुछ लोगों को खासी तिलमिलाहट होती थी | उस तिलमिलाहट का मूर्त रूप
पटना प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से प्रकाशित ‘नागार्जुन की राजनीति’ नामक पुस्तिका
थी, जिसके लेखक अपूर्वानंद और भूमिका लेखक नंदकिशोर नवल थे | पुस्तिका में
नागार्जुन के राजनीतिक विचलन की चर्चा तो थी ही, उन्हें ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ करने
की ‘समझदार’ कोशिश भी थी | इस पुस्तिका पर प्रलेस के भीतर ही तूफ़ान उठ खड़ा हुआ |
नामवर सिंह के कड़े विरोध के कारण पासा पलट गया | कहने वाले कहते हैं कि इस प्रसंग
में खगेन्द्र ठाकुर एवं अन्य लोग व्यावहारिक निकले | इस पूरे प्रकरण से वे अनजान
बन गए | इस विवाद की अंतिम परिणति नागार्जुन को ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ करने की कोशिश
में लगे नंदकिशोर नवल और अपूर्वानंद जैसे भाकपा और प्रलेस के सदस्यों की दोनों
संगठनों से विदाई के रूप में सामने आई | नागार्जुन अपनी जगह कायम रहे | उनका भाकपा
एवं सोवियत संघ के प्रति आलोचनात्मक रूख कठोर से कठोरतर होता गया | खैर, अब लौटते
हैं, उनके वक्तव्य की वास्तविकता पर |
१८ मार्च ७४ को शुरू हुए
छात्र-आन्दोलन में समाजवादी युवजन सभा और विद्यार्थी परिषद् के साथ अन्य छात्र
संगठन भी शामिल थे | लेकिन जयप्रकाश जी के नेतृत्व सँभालने के बाद आन्दोलन का
दायरा जब व्यापक हुआ तो उसमें सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, संगठन कांग्रेस आदि
राजनीतिक पार्टियाँ शामिल हुईं | मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ कुछ नक्सल
समूह भी समर्थन में थे | धरना, प्रदर्शन, जेल भरो आन्दोलन में ये सभी साथ थे | यह
सही है कि जनसंघ और विद्यार्थी परिषद् के लोग भी बड़ी संख्या में थे | लेकिन यह
कहना कि ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के जो कार्यकर्ता थे, उनमें अस्सी प्रतिशत जनसंघी और
विद्यार्थी परिषद् वाले थे और सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता दाल में नमक के बराबर
थे, आन्दोलन का सही आकलन नहीं है | यहाँ तथ्य की अनदेखी है और वास्तविकता को
अतिरंजित करके देखा गया है | इसलिए कि जनसंघ और विद्यार्थी परिषद् के अतिरिक्त बड़ी
संख्या सोशलिस्टों की थी | जयप्रकाश जी सोशलिस्ट पार्टी के स्टार नेता रह चुके थे |
उनके कारण निष्क्रिय सोशलिस्ट भी सक्रिय हो गए थे | बड़ी संख्या ऐसे छात्रों-युवाओं
की भी थी, जिनकी चेतना आन्दोलन के दौरान बनी थी | ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ के
रूप में जयप्रकाश जी ने एक ऐसा युवा संगठन तैयार किया था जो साम्प्रदायिकता,
जातिवाद, धार्मिक रुढ़िवाद, तिलक-दहेज़, जनेऊ आदि के खिलाफ था और शोषण मुक्त - भ्रष्टाचार
मुक्त भारत के निर्माण के साथ विकेन्द्रित राजनीतिक व्यवस्था का हिमायती था |
जयप्रकाश जी के आह्वान पर ऐसे लोग और छात्र भी आन्दोलन में कूद पड़े थे, जो किसी दल
के सदस्य न थे | कहा जाये तो सबसे बड़ी संख्या इन्हीं लोगों की थी | ‘सम्पूर्ण
क्रांति’ बदले हुए समय में लोहिया की ‘सप्त क्रांति’ ही थी | यह बात जयप्रकाश जी के
बाद के वक्तव्यों से साफ़ होती है | ‘सम्पूर्ण क्रांति’ हो या ‘सप्त क्रांति’,
दरअसल यह समाज के आमूल-चूल परिवर्तन का राजनीतिक स्वप्न थी | जयप्रकाश जी का यह
अपना सामाजिक-राजनीतिक एजेंडा था | वे संघ के एजेंडे पर काम नहीं कर रहे थे | उनका
जो व्यक्तित्व था और जो राजनैतिक हैसियत थी, वह संघ के एजेंडे का मुहताज नहीं थी |
यह सही है कि आन्दोलन में शामिल
साम्प्रदायवादी अपने एजेंडे के प्रति सचेत थे | उस आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के
कारण और जेल-यात्रा में उन सबके आचरण का प्रत्यक्ष गवाह होने के कारण इन पंक्तियों
का लेखक कह सकता है कि आन्दोलन के दौरान बीच-बीच में सोशलिस्टों एवं संघियों के
मतभेद सतह पर आते रहते थे | जयप्रकाश जी को संघियों के कारगुजारियों की खबर भी थी |
अतीत में वे संघ की रीति-नीति के कट्टर आलोचक रह चुके थे | जब सोशलिस्ट पार्टी का
वे नेतृत्व कर रहे थे तो साम्प्रदायिकता विरोध उनके राजनीतिक एजेंडे में सर्वोपरि
था | लेकिन इस बार आन्दोलन में शामिल होने पर उन्हें संघ से परहेज नहीं था क्योंकि
वे तो सबसे अपने-अपने झंडे, बैनर और राजनीतिक लाइन छोड़कर ‘सम्पूर्ण क्रांति’ में
शामिल होने का आह्वान कर रहे थे | इस व्यापक जन भागीदारी वाले आन्दोलन के जरिए
सत्ता परिवर्तन नहीं, व्यवस्था परिवर्तन उनका मुख्य लक्ष्य था | उन्हें उम्मीद थी
कि ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के अभियान में सबका कायाकल्प हो जायेगा, लेकिन यह उनका भ्रम
साबित हुआ | ‘वाहिनी’ के लोगों को छोड़कर कोई उनके साथ शत-प्रतिशत सच्चे मन से नहीं
था | संघी तो बिलकुल नहीं थे | वे उनके साथ रहकर राजनीतिक वैधता प्राप्त करना
चाहते थे | ‘वाहिनी’ के अतिरिक्त सब सत्ता के भूखे थे | जयप्रकाश आन्दोलन के जरिये
सत्ता का रास्ता उन्हें दिख रहा था | व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन उनके सपने में
भी नहीं था | इमरजेंसी के बाद जयप्रकाशजी का सारा ध्यान तानाशाही को पराजित करने
पर केन्द्रित हो गया था | जल्दी में उनकी पहल पर विरोधी दलों को भंग कर ‘जनता
पार्टी’ बनायी गयी | जनता पार्टी प्रचंड बहुमत से जीती | तानाशाही पराजित हुई |
लेकिन जो जनता सरकार बनी उसके एजेंडे में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ दूर-दूर तक नहीं थी |
जयप्रकाश जी हाशिये पर डाल दिए गए | सरकार में संघियों और समाजवादियों के टकराव
खुल कर सामने आने लगे और अंततः सरकार गिर गयी | जनता सरकार की विफलता से निराश
बीमार जयप्रकाश का निधन हो गया |
नागार्जुन ने अपने ‘विवेक’ और
‘अन्दर की आवाज’ की बात की है | उनके जानने वालों को पता है कि यही ‘विवेक’ और
‘अन्दर की आवाज’ उनके कवि-व्यक्तित्व की ताकत है | इसी कारण उन्हें नामवर सिंह ने
‘आधुनिक कबीर’ कहा है | खुली आँखों देखे अनुभव के सच को अनभय यानी बिना भय के कहने
की कला का नाम ‘अनभै सांचा’ है, जो नागार्जुन की कविता की मूल प्रकृति है | यह
‘विवेक’ ही उन्हें जमीन और जनता से हमेशा जोड़े रहता है | जाग्रत विवेक और परिणत
प्रज्ञा के कवि हैं नागार्जुन, लेकिन कभी-कभी उनका यह ‘विवेक’ पाठक को असमंजस में
डालता है और उनका स्टैंड उसकी समझ से परे होता है | भाकपा जब बिहार आन्दोलन और
जयप्रकाश का खुल कर विरोध कर रही थी, तब नागार्जुन भाकपा के सदस्य नहीं थे | लेकिन अतीत में वे औपचारिक सदस्य रह चुके थे
और पार्टी के कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी निभा चुके थे | एक अर्थ में उनके
राजनीतिक संघर्ष का इतिहास भाकपा के राजनीतिक संघर्ष के इतिहास से जुड़ा हुआ था |
उनसे भाकपा की स्वाभाविक अपेक्षा थी कि वे बिहार आन्दोलन का विरोध न भी करें तो
कम-से-कम चुप रहें | लेकिन उनका विवेक जन आन्दोलन के पक्ष में था | वे अपने भाकपाई
मित्रों की मनाही के बावजूद आन्दोलन में शामिल हुए | आन्दोलन के पक्ष में कविताएँ
भी लिखीं, वक्तव्य भी दिए, धरना-प्रदर्शनों में भाग भी लिया, जेल भी गए | उनके जेल
जाने के बाद इमरजेंसी लग गई | जयप्रकाश समेत, भाकपा को छोड़, अन्य वामपंथी दलों तथा
विरोधी दलों के तमाम नेता जेलों में डाल दिए गए | प्रेस की स्वतंत्रता छीन ली गयी |
बिना सेंसर किये कोई भी खबर नहीं छपती थी | जनता के मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए
| भाकपा ने सरकार की इस दमनकारी नीति का समर्थन किया |
इमरजेंसी का आतंक जब चरम पर था,
बचे-खुचे विरोधी भी जब खोज-खोज कर बंद किये जा रहे थे, तभी नागार्जुन जेल से छूट
गए | कैसे छूटे, यह कैसे संभव हुआ ? आन्दोलन समर्थक और नागार्जुन को जानने वाले हर
व्यक्ति के मन में यह जिज्ञासा थी | अफवाह थी कि पैरोल पर छूटे हैं | बाहर आने के
बाद नवलजी और खगेन्द्रजी को जयप्रकाश और आन्दोलन के बारे में उन्होंने जो तीखे
बयान दिए, उनका वह ‘विवेक’ गैर भाकपाई उनके तमाम प्रशंसकों-पाठकों की समझ से परे
था | उनकी समझ में यह भी नहीं आ रहा था कि इमरजेंसी विरोध में जब अधिक दृढ़ता से
डटे रहने की जरूरत थी, तब जन आन्दोलन की चेतना वाला यह कवि एक जन आन्दोलन के विरोध
में और इमरजेंसी के समर्थन में कैसे खड़ा हो गया ! क्या सिर्फ इसलिए कि उसमें संघी
भी थे ! वह कैसे भूल गया कि इमरजेंसी के विरोध में संघियों के अतिरिक्त सोशलिस्ट
पार्टी, सर्वोदय, वाहिनी, संगठन कांग्रेस और गैर भाकपाई वामपंथियों समेत छात्रों-युवाओं
के रूप में गैर सांगठनिक लोग भी बड़ी संख्या में हैं ! यही नहीं उन्होंने बिहार
सरकार का वह वजीफा भी पुनः ले लिया, जिसे न लेने की वे सार्वजनिक घोषणा कर चुके थे
| बिहार सरकार बिहार के मसिजीवी साहित्यकारों को प्रतिमाह ढाई-तीन सौ रूपए का
वजीफा मदद के तौर पर देती थी | जयप्रकाश जी पर जब लाठियां चली तो विरोध स्वरूप
पटना के गाँधी मैदान में एक जन सभा हुई | जयप्रकाश की उपस्थिति में नागार्जुन और
रेणु ने वजीफे लौटा दिए थे | रेणु ने ‘पद्मश्री’ का सम्मान भी लौटा दिया था | नागार्जुन
ने वह वजीफा फिर वापस क्यों लिया ? उनका यह ‘विवेक’ भी आन्दोलन समर्थक- इमरजेंसी
विरोधी उनके प्रेमियों की समझ से परे था | जबकि रेणु ने न तो वह वजीफा पुनः लिया और न अस्वस्थ रहने के बावजूद वे
पैरोल पर जेल से छूटे | क्या नागार्जुन ने आर्थिक मजबूरी में ऐसा किया ? या यह
उनका ढुलमुलपन था ? उनके जीवन और राजनीतिक संघर्ष को देखते हुए ऐसा सोचना अपराध-सा
लगता है | अर्थाभाव की कौन-सी भार नहीं झेली इस कवि ने ! राजनीतिक संघर्ष के
कौन-से कष्ट नहीं उठाए ! फिर क्यों रेणु अपने निर्णय पर डटे रहे और और नागार्जुन ने
‘यू-टर्न’ ले लिया ? कहीं आन्दोलन और जयप्रकाश नारायण से उनका पूरी तरह मोहभंग तो
नहीं हो गया था ? मोहभंग तो हो गया था, तभी तो वे डंके की चोट पर इसकी घोषणा करते
हैं | किन्तु इमरजेंसी का समर्थन क्यों किया मानव अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध इस
कवि ने ? इन प्रश्नों का कोई उत्तर देना नागार्जुन के घनघोर समर्थक के लिए भी कठिन
है | लेकिन यहाँ यह भी देखना चाहिए कि इमरजेंसी-समर्थन और वेश्याओं और भंडुओंवाली
बात केवल नवलजी वाले साक्षात्कार में है, अन्यत्र नहीं | प्रश्न है कि यह
नागार्जुन का हड़बड़ी में दिया गया भावुकता भरा अविचारित क्षोभ है या इसके अलग
निहितार्थ हैं ?
बहरहाल, नागार्जुन ने कवि-रूप में
उस आन्दोलन का आकलन किया और उसे ‘खिचड़ी-विप्लव’ नाम दिया | ‘खिचड़ी विप्लव देखा
हमने’ नाम से उनका संकलन भी आया | इस संकलन में इमरजेंसी के दौरान जेल में लिखी
गयी कविताएँ भी शामिल हैं | नागार्जुन आन्दोलन में जी-जान से जुटे हुए थे | लेकिन
जैसी जनक्रांति वे चाहते थे, उसकी पहल, व्यापक जनसमर्थन के बावजूद, जयप्रकाश की ओर
से नहीं हो रही थी | ‘वो सब क्या था आखिर’ शीर्षक कविता में नागार्जुन कहते हैं कि
दस लाख की बड़ी भीड़ दिल्ली में उन्हें अपना ‘मुख’ बनाकर कूच कर रही थी और उनका
स्पष्ट आदेश चाह रही थी, लेकिन व्यापक जनक्रांति की उनकी अनिच्छा ने कवि को निराश
कर दिया –
उस
दिन मार्च की छठी तारीख थी
‘लोकनायक’
उस रोज को तुम कौन थे ?
तुम्हारा
भोलापन
तुम्हारी
‘लोकनीति’
सम्पूर्ण
क्रांति वाले तुम्हारे सोंधे ख्याल
व्यापक
जनक्रांति की तुम्हारी अनिच्छा
सर्वहारा
के प्रति परायेपन के तुम्हारे भाव
अभिनव
महाप्रभुओं के प्रति शक्ति-संतुलन का
तुम्हारा
हवाई मूल्यबोध .....
तुम्हारी
मसीहाई महत्वाकांक्षाएं
काहिल,
आरामपसंद, संशयशील, डरपोक, कपटी, क्रूर
‘भलेमानसों’
से दिन-रात तुम्हारा घिरा होना
वो
सब क्या था आखिर ?
वामपंथी नागार्जुन के मन में
क्रांति का जो रूप और सपना था, उसका पूरा मेल जयप्रकाश की ‘सम्पूर्ण क्रांति’ तथा
‘लोकनीति’ से बन नहीं पा रहा था | उनके मन में क्रांति का सपना रूसी और चीनी
क्रांतियों का था | उसका मेल ‘सम्पूर्ण क्रांति’ जैसे अहिंसक और जनतांत्रिक
आन्दोलन से कैसे होता ! इसलिए बीच-बीच में वे आलोचनात्मक रूख अख्तियार कर लेते थे |
अंततः उससे वे निराश हुए और नाम दिया ‘खिचड़ी विप्लव’ | ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’
शीर्षक कविता में उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ को ‘क्रांति विलास’ और ‘भ्रान्ति
विलास’ की संज्ञा दी –
खिचड़ी विप्लव देखा
हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी ख़त्म नहीं होगा क्या
पूर्ण क्रांति का भ्रान्ति
विलास
‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ संग्रह में
एक कविता है जो इमरजेंसी का विरोध करनेवालों के स्वागत में है | लगता है यह कविता
तब लिखी गयी थी, जब नागार्जुन इमरजेंसी के प्रारंभ में छपरा जेल में थे | छपरा शहर
में इमरजेंसी विरोध में और जयप्रकाश के समर्थन में एक छोटी सी घटना घटित हुई |
बीस-पच्चीस नौजवानों ने छपरा शहर में घूमते हुए इमरजेंसी विरोधी नारे लगाये |
नागार्जुन को खबर लगी तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था –
धज्जी-धज्जी उड़ा दी
छोकरों ने इमरजेंसी की
घूमते फिरे लगातार चार घंटे
गलियों में, सड़कों पर,
चौराहों, तिराहों पर
आवाम ने मज़ा लिया
साथ-साथ स्लोगन मारे
मुठ्ठियाँ उछली हवा में
साथ-साथ
साथ-साथ
पसीना बहा इनका-उनका
सारा नगर
घूम आया विरोध का काला झंडा
पुलिस ने
कहीं भी छेड़खानी नहीं की उनसे
जाने दिया
उन्हें
आने दिया
उन्हें
लगाने दिए
मनमाने नारे
चायवालों ने उस रोज पहली बार
निडर होकर
तरुणों को चाय पिलाई
जे.पी. के
बारे में पूछा, बहुत कुछ जानना चाहा
पानवालों
ने पान के बीड़े ऑफर किये........
क्या हुआ
छपरा टाउन में उस रोज
धज्जी-धज्जी
उड़ा दी छोकरों ने इमरजेंसी की
यह क्या
हुआ आखिर उस दिन छपरा टाउन में !
उस घटना के कुछ और ब्यौरों के बाद उस
कविता का अंत इन पंक्तियों के साथ होता है –
पीछे, तफसील में हमने
सुनी सारी बातें.......
खूब हँसे, खूब हँसे, खूब हँसे
........
खुश हुए खूब, खुश हुए खूब, खुश
हुए खूब ..........
यहाँ इमरजेंसी विरोध भी है और
जयप्रकाशजी के लिए जिज्ञासा भी | आखिर नागार्जुन का कौन-सा रूप सही है ? जे.पी. आन्दोलन
और इमरजेंसी के सन्दर्भ में उनके पाठक-प्रशंसक के सामने यह पूरा प्रकरण बड़ा-सा
यक्ष प्रश्न है |
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