Saturday 13 June 2015

‘हिन्द स्वराज’ और ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘हिन्द स्वराज’ पर एक अंतररार्ष्ट्रीय संगोष्ठी हुई थी| बीज व्याख्यान प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक और कनाडा में रह रहे ईसाई धर्मावलम्बी एन्थोनी परेल ने दिया| परेल साहब ने कहा कि –‘पश्चिम की पूंजीवादी और मशीनी सभ्यता को देखने के बाद गाँधी ने यह पुस्तक लिखी|गाँधी के पास एक भारतीय दृष्टि और भारतीय चिंतन परम्परा थी और सभ्यता को बचाने का एक रास्ता था|’ बाद में दूसरे दिन प्रभाष जोशी ने हस्तक्षेप किया और वक्तव्य दिया|एन्थोनी परेल के इस वक्तव्य को चिन्हित करके उन्होंने कहा कि –‘मैं इसमें सुधार  ये करना चाहता हूँ कि गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में जो प्रस्तावित किया, वह भारत वर्ष में भी बनी – बनायीं सभ्यता नहीं थी| असल में वो यूरोप के और यूरोप की सभ्यता और पूंजीवादी सभ्यता, और मशीनी सभ्यता और भारत वर्ष की लालसा और आकांक्षा, और जो स्वप्न – जो कुछ था- उसको देखने के बाद सभ्यता की एक नयी प्रस्तावना लिख रहे थे, जिसमें  पश्चिम के भी बहुत सारे विचारकों का योगदान है|.....कल बताया गया कि ‘हिन्द स्वराज’ के अंत में जो बीस पुस्तकों की सूची दी गई है, उसमें  ज्यादातर बाहर के लेखक हैं|लेकिन गाँधी के पास भारतीय जीवन पद्धति के वे सकारात्मक पक्ष भी थे, जिन्हें वे एक सूत्र में पिरोते हुए नई  सभ्यता की नई प्रस्तावना लिख रहे थे|

मित्रों! 1909 में ‘हिन्द स्वराज’ के प्रकाशन के पूर्व 1848 में कार्ल मार्क्स ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो लिख चुके थे| ये दोनों छोटी पुस्तकें हैं, मगर दुनिया को बदलने की, एक नई सभ्यता रचने की आकांक्षा से लिखी गई हैं| मार्क्स ने कहा था कि – दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है|’ यह भी कहा कि – अब तक दुनिया की व्याख्या दार्शनिकों ने अलग-अलग ढंग से की है, लेकिन जरुरत अब इस दुनिया को बदलने की है|गाँधी हिन्द स्वराज’ में न केवल दुनिया को बदलने की बात करते हैं, बल्कि दुनिया की व्याख्या भी करते हैं|मार्क्स मान चुके थे कि दुनिया की व्याख्या हो चुकी है, हिस्टोरिकल मैटेरेलिजम अपने उत्कर्ष पर है, अब इसकी व्याख्या की जरुरत नहीं है, पूंजीवाद के बाद तो समाजवाद को आना है|लेकिन समाजवाद के आने और समाजवाद के ध्वस्त होने के बाद आज ‘हिन्द स्वराज’ को पढ़ते  हुए लगता है कि दुनिया की पुनर्व्याख्या की भी जरुरत है और दुनिया को बदलने की नयी कोशिशों की भी जरुरत है|

दुनिया को बदलने की बात मार्क्स भी  करते हैं और गाँधी भी| मार्क्स क्लास स्ट्रगल के जरिए, वैज्ञानिक चेतना के जरिए, पदार्थवादी दर्शन के द्वारा, हमारी वस्तुवादी दृष्टि का निर्माण करके| जो यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई, फ़्रांसिसी रिवोल्यूशन हुआ, फिर ज्ञानोदय का युग आया- उनसे बनी जो दृष्टि थी- रेशनल दृष्टि, वैज्ञानिक चेतना, उसके जरिए उन्होंने दुनिया की व्याख्या की और दुनिया को बदलने की बात की- समता और स्वतंत्रता के लिए|

गाँधी दूसरे रास्ते से आए, जिसे ‘भाववादी दर्शन’ कहा जाता है - ईश्वर वाला रास्ता | केंद्र में ईश्वर को रखकर और ईश्वर का ही पर्याय, अगर सत्य है तो सत्य को रखकर|यह एक दूसरा रास्ता था| इसलिए जो रेशनल लोग थे, प्रारम्भ में गाँधी का काफी विरोध किया करते थे| वैज्ञानिक चेतना संपन्न लोगों की नजर में गाँधी की बातें अटपटी थीं| मगर  स्वप्न तो दोनों ने एक ही  देखा था| मार्क्स ने यह कहा था कि दुनिया ऐसी हो जो वर्ग विहीन और राज्य विहीन हो| ये कितना सुखद स्वप्न है कि दुनिया हमारी इतनी अच्छी बन जाए, जहाँ कानून की और किसी वर्ग की जरुरत नहीं रह जाए| गाँधी ने स्वराज का जो स्वप्न देखा था- एक बार उन्होंने कहा था कि –मेरे लिए स्वराज्य तो यह है कि एक सोलह साल की लड़की कश्मीर से चले और कन्याकुमारी तक जाए,पूरे देश में घूमे और उसके साथ कोई दुर्घटना न हो,कोई अभद्रता न हो-तो मैं मानूंगा स्वराज्य आ गया|बड़ी छोटी कसौटी रखी गांधी ने|लेकिन आप जानते हैं,इसके जरिये वे कैसे समाज की कल्पना कर रहे थे कि एक लड़की सोलह साल की अकेली घूमे और उसके साथ कोई दुर्घटना और अभद्रता न हो|स्वप्न तो मार्क्स के पास भी हैं और गांधी के पास भी|... स्वप्न दुनिया को बदलने का है,दुनिया में समता और शांति लाने का है,मानवीय गरिमा लौटाने का है|

लेकिन सवाल यह है कि किस रास्ते इस स्वप्न को साकार किया जाए –गांधी के रास्ते या मार्क्स के रास्ते ?दुनिया को बदलने की दो बड़ी कोशिशे हैं|दोनों ही अपने विचारों को, ये नहीं मानते हैं कि ये सिर्फ विचार के लिए हैं और ये अकादमिक डिस्कशन के लिए हैं,और रिसर्च के लिए हैं|जैसे आज हम अद्वैतवाद को पढ़ते हैं और उसकी व्याखाएं होती हैं,लेकिन उसके अनुसार हम समाज को बदलने की कोशिश नहीं करते हैं|ये दोनों कहते हैं कि समाज हमारे विचारों के अनुसार बदलना चाहिए|इसके लिए संगठित होना चाहिए|गाँधी कहते हैं सबसे पहले व्यक्ति को बदलना चाहिए|मार्क्स कहतें हैं कि समाज को बदलना चाहिए|लेकिन एक बुनियादी फर्क मार्क्स और गांधी में है और वही हमें फिर अलग भी करता है-रास्ता चुनने के लिए|

.....दोनों में  बुनियादी फर्क है| मार्क्स मानते हैं कि जो उत्पादन तंत्र हैं , विशाल कारखाने और विशाल बांध, ये तमाम चीजें, पूंजीवादी उत्पादन पद्धति, इन सब पर  मजदूरों का अधिकार हो|  पूंजीपतियों के हाथ में जो उत्पादन तंत्र हैं , इन पर जो  नियंत्रण है, वह स्टेट के हाथ में आ जाए|मशीने वही रहें, बांध वही रहें, कारखाने वही रहें- उत्पादन पूंजीवादी ढंग से और नियंत्रण स्टेट का ! गाँधी बुनियादी रूप से यहाँ मतभेद रखते हैं| वे इस पूंजीवादी उत्पादन पद्धति और इस बड़ी औद्योगिक सभ्यता का ही विरोध करते हैं, क्योकि इसके जरिए जो सभ्यता बनती है और जो भविष्य बनता है, वह बहुत भयावह है| परिणाम धीरे- धीरे अब हमारे सामने  आ रहा है | पर्यावरण और हमारा समाज खतरे में पड़ता जा रहा है| यहाँ गाँधी की और ‘हिन्द स्वराज’  की जरूरत नए सिरे से महसूस होने लगी है | तब, जबकि हमारा देश भी भूमंडलीकरण की प्रतियोगिता में शामिल है| खुली बाज़ार नीति का समर्थक हो चुका है, और वो सारी चीजें अबाध गति से हमारे यहाँ आ रही हैं|

गाँधी ने कहा था कि मैं अपनी खिड़कियाँ और दरवाजे खुले रखना चाहता हूँ,लेकिन इतना नहीं कि बाहर की हवा आए और मेरे घर के सामान को ही उड़ा ले जाए |आज घर का सामान उड़ता हुआ दिखाई दे रहा| कितनी परेशानी और कितनी चिंता हमारे जो पॉलिसी- मेकर हैं, देश का जो नेतृत्व कर रहे हैं-उनके बीच है? सोचिए की आजादी के वे मूल्य, गाँधी के वे मूल्य आज किस तरह तिरोहित हुए हैं?

गाँधी अति मशीनीकरण और अति औद्योगीकरण का विरोध करते हुए कहते थे कि ये  धरती पूरी दुनिया का और दुनिया के सब लोगों का पेट भरने के लिए काफी है, लेकिन एक आदमी के भी लोभ के लिए छोटी है| वे  इसके जरिए इस सभ्यता को वह ऐसा मानवीय चेहरा देना चाहते थे, जो अतिशय भोगवाद से परे आत्म नियंत्रण  और त्याग पर टिकी हो| गाँधी ने जो सबसे बड़ी बात की है, वह यह कि अतिशय भोग और अतिशय उत्पादन पर नियंत्रण | अतिशय उत्पादन होगा तो अतिशय भोग होगा|अतिशय उत्पादन पर और अतिशय भोग पर नियंत्रण बगैर त्याग के नहीं होगा | इसलिए उन्होंने सबसे पहले  व्यक्ति पर जोर दिया और ‘हिन्द स्वराज’ में भी कहा कि आप  बदलिए और मैं बदलूँ, शुरुआत यहीं से हो|

.....गाँधी जी के विचारों को आज़ादी के बाद बढ़ाने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही – ‘पूंजीवाद को खाद-पानी  उपनिवेशवाद ने दिया है| वगैर औपनिवेशिक शोषण के पूंजीवाद नहीं आ सकता है| जो लोग और जो दल, और जो सरकारें इस तथ्य को समझे बिना पूंजीवाद लाने  के लिए भारत में पूंजी बढ़ाने में लगी हुई हैं, वो इस पर सोचें कि जो देश अमीर हुए हैं और समृद्ध हुए हैं, वो गुलाम देशों का शोषण करके समृद्ध हुए हैं| यह लोहिया ने कहा|सिर्फ यह नहीं कि एक  देश ने दूसरे का शोषण किया और समृद्ध हुआ|ये जो पोलिसी चल रही है, इससे हमारे देश में भी आंतरिक उपनिवेश कायम हो रहे हैं| एक प्रदेश लगातार आगे बढ़ रहा  है, एक लगातार पिछड़ रहा है| हमारी जो योजनायें हैं, उन पर आप ध्यान देंगे, तो पाएंगे कि यह उपनिवेश जो है सो दूसरे किस्म का है | यह नहीं कि इंग्लैंड ने भारत को गुलाम बनाया और दूसरे देशों को गुलाम बनाया – स्वंय  भारत के भीतर भी एक उपनिवेश बन रहा है|  संसाधनों का जो  बंटवारा है और विकास की जो गति है, वह बहुत ही विषम है|

मित्रों, हिन्द स्वराज’ कोई खंडित दृष्टि की पुस्तक नहीं है| आजकल एक शब्द चलता है – ‘पैकेज’- कि उनका बेटा  इतने पैकेज पर नौकरी करने गया है|’हिन्द स्वराज’  एक पूर्ण पैकेज है| पूरी की पूरी दृष्टि है| यह नहीं कि एक वाक्य कहीं से निकाला कि गाँधी  धर्मान्तरण का विरोध करते थे| अगर गाँधी जी धर्मान्तरण का विरोध करते थे, ईसाई धर्मान्तरण का, तो वे  आर्य समाज के धर्मान्तरण का भी विरोध करते थे | गाँधी यहाँ- वहां से कुटेशन उद्धृत करके अपने पक्ष में इस्तेमाल किये जाने की वस्तु नहीं हैं | वे एक ऐसी पूर्ण दृष्टि हैं, जिसको पूरी तरह या तो आप अंगीकार करेंगे या उसे अस्वीकार करेंगे|गांघी के तमाम विकास की कसौटी है समाज का सबसे निचला आदमी|ये जो विकास का दौर चल रहा है वह असमानता बढ़ाने वाला है| चाहे जिस दल की भी सरकार हो, नीति एक है| किस दल की सरकार ने ‘सेज’का विरोध किया है ? सबसे अधिक ‘सेज’के प्रस्ताव तो महाराष्ट्र और गुजरात में हैं| रही सही कसर मार्क्सवादियों ने बंगाल में पूरी कर दी| कम से कम वहां की जनता ने इतना तो विरोध तो किया कि उन्हें हटना पड़ा, कदम पीछे हटाना पड़ा|

ऐसे समय में, जबकि ‘हिन्द स्वराज’ की हम शताब्दी  मना रहे हैं, तो निवेदन यह है कि ‘हिन्द स्वराज’ सिर्फ एक पुस्तक नहीं, मनुष्य और समाज को बदलने की सम्पूर्ण कार्यवाही है| अगर यह पुस्तक पढने के बाद हम नहीं बदलते हैं और दूसरों को बदलने के लिए ललकारते नहीं हैं, और कोई बुनियादी फर्क हमारे  सोच में नहीं आता है- तो समझिए कि इस पुस्तक को पढना और न पढना बराबर है, ये गोष्ठी करना और न करना  बराबर है| असल में गाँधी जब मनुष्य को बदलने की बात करते हैं, तो वे एक-एक शब्द पर और अपनी एक-एक नीति पर कहते है कि –‘आत्मा में झाँकों’|
मैं एक बात कहना चाहूँगा कि ‘हिन्द स्वराज’ के जरिए भारतवर्ष में गाँधी सत्य और ईश्वर को केंद्र में रखकर आधुनिक दुनिया बनाने की जो प्रस्तावना लिख रहे थे वह कहीं न कहीं संकट में है|जिस समाज को वो बनाना चाहते थे, वह स्वप्न ही संकट में है|..... प्रश्न है कि जब  इस आर्थिक नीति में गैर बराबरी लगातार बढती जा रही है, तब हम क्या करें? गाँधी के विचारों को आगे बढ़ाने वाले एक विचारक और नेता जय प्रकाश नारायण ने कहा था कि समाज में वर्ग है इसलिए  वर्गभेद को समाप्त करना जरुरी है, तभी शांति होगी |  ये वर्गभेद समाप्त कैसे होगा? जय प्रकाश जी के  शब्द थे कि- वर्ग सत्याग्रह के जरिए’|

गाँधी और ‘हिन्द स्वराज’ को पढ़ते हुए आधुनिक भारत में गाँधी के जो व्याख्याकार और प्रयोगकर्ता हुए- राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश, उनकी बातों तक आयें और देखें कि उपनिवेश किस तरह से कायम हो रहे हैं और आंतरिक उपनिवेश किस तरह से बढ़ रहे हैं, समाज में वर्ग का भेद कैसे बढ़ रहा है?इस वर्ग भेद को मिटाने के लिए हम सत्याग्रह कैसे करें और कैसे लड़ें ? यह चिंतन का विषय है...|

(7 से 9 अगस्त 2009 को  ‘मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ,भोपाल द्वारा आयोजित ‘हिन्द स्वराज’ के प्रकाशन की100वीं वर्षगांठ के अवसर पर दिए गए वक्तव्य का किंचित् संपादित एवम् संक्षिप्त रूप )

4 comments:

  1. Very insightful thought with originality sir..it needs courage to say that India has developed internal colonies and inequalities..though Gandhain thought has got more space than Marxism in the article...one has to be agree with ur analysis of contemporary Indian condition..

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  2. मार्क्सवाद की मुश्किल ही यह रही है कि उसने अपने विचारों में बदलाव की बहुत ही कम कोशिशें की हैं जबकि गांधी सत्य के लिए निरंतर प्रयोग करते रहे। मार्क्सवाद सामूहिक मुक्ति के स्वप्न संजोता रहा लेकिन उसमें समूह की भावनाओं और विचारों के लिए बहुत ही कम जगह थी जबकि गांधी लोगों के बीच जाकर उनके सुख-दुख को अपना बनाकर अपनी बात कहते थे। यही कारण है कि गांधी बेहद सरलता से इस बात को समझ गये कि व्यक्ति को बदले बिना समाज को नहीं बदला जा सकता। ‘क्षमता के अनुसार श्रम और जरुरत के अनुसार संसाधन’ के लिए ऎसे व्यक्ति का निर्माण पहली शर्त है जिसके भीतर कामचोरी से निकलकर खेतों में जाने का उत्साह हो और पैदा की गयी वस्तु को दूसरे को दे देने का त्याग हो। इन दोनों मनोभावों की निर्मिति का कोई औजार मार्क्सवाद के पास नहीं है। यदि ऎसे इंसान के निर्माण के क्रम में आप प्रेम कविताएँ लिखेंगे तो मायकोवस्की की तरह आत्महत्या को मजबूर हॊंगे और कुछ वैचारिक सुझाव देंगे तो संशोधनवादी कहलायेंगे। गांधी ने अपने चिंतन का आधार भले ही ईश्वर को बनाया हो लेकिन उन्होंने गांधीवाद को धर्म और खुद के ईश्वर हो जाने की समस्त संभावनाओं को खारिज कर दिया था जबकि धर्म का पूरजोर विरोध करने वाला मार्क्सवाद मार्क्स के जीवन में ही एक नवीन धर्म में तब्दील हो जाने के लिए अभिशप्त हो गया था। गांधी इंसानों के माध्यम से सत्याग्रह द्वारा सामाजिक बदलाव चाहते थे जबकि मार्क्स मजदूरों (इसमें किसान शामिल नहीं हैं) के बल पर सशस्त्र क्रांति के आकांक्षी थे। मार्क्स की क्रांति असफ़ल हो चुकी है पर गांधी अब भी एक संभावना हैं-भले ही ‘असंभव’ही सही। आपका विश्लेषण हमें यही समझ देता है। इस वैचारिक उत्तेजना के लिए आपको आभार सर।-- अमरेन्द्र त्रिपाठी

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