Monday 1 June 2015

समीक्षा की साख

हिंदी में जिस विधा की सर्वाधिक दुर्गति हुई है, वह है-- पुस्तक-समीक्षा | फिलहाल पुस्तक-समीक्षा लिखने-लिखाने का जो आलम है, वह प्राय: जुगाड़ उद्योग-सा है | पत्र-पत्रिकाओं के इस जरूरी हिस्से में खानापूरी-सी की जाती है | पुस्तक-समीक्षा अब सीखने-सिखाने के लिए नहीं, बल्कि किसी को उठाने-गिराने के लिए की जाती है | कहा जा सकता है पुस्तक समीक्षा अब शायद ही कोई पढ़ता है,सिवाय उनके जो लिखते हैं और जिनपर लिखा जाता है |
   पुस्तक-समीक्षा व्यावहारिक आलोचना की बुनियादी जमीन है | जो बढ़िया पुस्तक-समीक्षा नहीं लिख सकता, वह बढ़िया आलोचना भी नहीं लिख सकता | साहित्यिक आलोचना के लिए जरूरी है- रचना के मर्म की पहचान | रचना की संवेदना, भाषा-शिल्प, अंतर्वस्तु आदि को पहचानने वाली सक्षम और निर्भीक दृष्टि से  व्यावहारिक आलोचना बनती है | निश्चय ही, साहित्य-सैद्धांतिकी आलोचना में सहायक है, लेकिन वह व्यावहारिक आलोचना का विकल्प नहीं हो सकती | हिंदी और अन्य भाषाओं के जितने मान्य आलोचक हुए हैं, वे प्रायः समर्थ पुस्तक-समीक्षक भी थे | ऐसे आलोचकों में  रामचंद्र शुक्ल, नन्ददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, नलिन विलोचन शर्मा, विजयदेव नारायण साही, नामवर सिंह  या टी. एस. इलियट, एफ. आर. लिविस  आदि को याद किया जा सकता है | जायसी, सूर और तुलसी की जो व्यावहारिक काव्य-समीक्षा शुक्ल जी ने की , वह  हिंदी आलोचना का  शुक्ल पक्ष है | रचना की  व्यावहारिकता की पहचान का ही एक नमूना केशवदास सम्बन्धी उनकी टिप्पणी है | शुक्लजी के यह लिखने के बाद कि ‘केशव को कवि-हृदय नहीं मिला था’, आज तक भी कोई केशव-प्रेमी उन्हें  कवि-ह्रदय नहीं दिला सका ! ‘तारसप्तक’ पर  ‘प्रयोगवादी रचनाएँ’ शीर्षक से नंददुलारे वाजपेयी लिखित सुदीर्घ समीक्षा ने ऐसी बहस को जन्म दिया कि ‘प्रयोगवाद’ नाम ही चल निकला | यह एक काव्य-संकलन की समीक्षा का कमाल था | ‘डॉ. जिवागो’ और ‘बूँद और समुद्र’ जैसी कृतियों की समीक्षा के जरिए रामविलास शर्मा  ने इस विधा के प्रति जो गंभीरता दिखाई, वह उनकी आलोचना का स्थायी आधार बनी | जब कोई  ‘मैला आँचल’ का  नाम भी नहीं ले रहा था, तब नलिन विलोचन शर्मा ने उसकी समीक्षा के जरिए ऐसा धमाका किया कि रेणु यकायक चमक उठे | नलिन जी के शब्दों में ‘गोदान’  के बाद हिंदी उपन्यास में जो गत्यवरोध था, वह ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन से दूर हुआ | नामवर सिंह की आलोचना-दृष्टि  में भी समकालीन रचनाशीलता के बीज विद्यमान रहे हैं | ‘परिंदे’, ‘वापसी’ और ‘अपने-अपने राम’ जैसी कृतियों पर उनके द्वारा लिखित समीक्षा की अनुगूंज अभी भी हिंदी आलोचना में सुनाई पड़ती है | ‘अलग-अलग वैतरणी’ की ‘सलीके से कथा कहने की शैली’ शीर्षक साही लिखित समीक्षा को भला कौन भुला सकता है ? व्यावहारिक आलोचना का सुन्दर उदाहरण एफ. आर. लिविस की प्रसिद्ध पुस्तक ‘दि ग्रेट ट्रेडिशन’ है, जिसमें ‘दि पोर्ट्रेट ऑफ़ अ लेडी’ समेत कुछ अन्य उपन्यासों की गहन समीक्षा प्रस्तुत की गई है | टी.एस. इलियट द्वारा सम्पादित ‘क्राईटेरियन’ और लिविस द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘स्क्रूटनी’ में प्रकाशित समीक्षाएँ पुस्तक समीक्षा का मानक  इतिहास हैं |
आलोचकीय विवेक  और निर्भीकता के बिना पुस्तक समीक्षा संभव नहीं | समीक्ष्य  विषय पर अधिकार होने पर ही आलोचक कृति के साथ न्याय कर सकता है | ‘उर्वशी’  की भगवतशरण उपाध्याय लिखित ऐतिहासिक समीक्षा को याद कीजिए | उसकी गूँज आधुनिक हिंदी कविता के चर्चा-क्रम में अब भी सुनाई पड़ती  है| यद्यपि उस समीक्षा में सहृदयता और संवेदनात्मक सहयात्रा का अभाव है, फिर भी जिस तैयारी के साथ वह लिखी गई है, उसे समीक्षा-कर्म में रुचि रखने वालों को अवश्य देखना चाहिए| देवीशंकर अवस्थी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में शोध किया था, लेकिन जब उन्होंने उनके उपन्यास ‘चारु चन्द्र लेख’ की समीक्षा लिखी तो गुरुभक्ति आड़े न आई| शीर्षक ‘टूटा हुआ दर्पण’ से ही पता चलता है कि समीक्षा कितनी कड़ी और निर्भीक रही होगी | भगवतशरण उपाध्याय की पुस्तक ‘समीक्षा के सन्दर्भ’ और देवीशंकर अवस्थी संपादित ‘विवेक के रंग’ में संकलित समीक्षाओं को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब समीक्षा के मानदंड कितने ऊँचे थे| लेखक की सामाजिक  हैसियत, उससे वैचारिक समानता और निजी संपर्क आदि  सटीक समीक्षा की राह के रोड़े नहीं थे|
   पुस्तक समीक्षा की अधोगति के बहुतेरे कारण हैं| आज हिंदी में व्यापक सरोकारों वाली उस दृष्टि का अभाव  है, जो बिना किसी वैचारिक दुराग्रह के अपने समय की रचनाशीलता से संवाद करती है  और आलोचनात्मक  विवेक पाठक को देती है| नन्द दुलारे, रामविलास, नलिन, साही, नामवर  आदि पर और चाहे जो आरोप लगें, किन्तु  यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी दृष्टि में हिंदी का व्यापक परिदृश्य नहीं था और वे अपने विरोधी विचार के लेखकों को नहीं पढ़ते थे| बाद के लोगों में बहुतेरे ऐसे मिलेंगे, जो साहित्य सिद्धांत के क्षेत्र में दुनिया भर के चिंतकों-विचारकों के नाम गिनाएंगे, लेकिन जब व्याहारिक आलोचना करेंगे तो अपने वैचारिक बाड़े  के बाहर झांकना उन्हें  गवारा न होगा| मामला सिर्फ वैचारिक आधार पर वामपंथी- गैरवामपंथी विभाजन का ही नहीं, बल्कि जो अलग-अलग संगठन और गुट  हैं, उनकी साहित्यिक पहलकदमी का भी है, जिसके तहत अपनों  को उठाने और अन्यों  को गिराने की तिकड़में की जाती हैं| प्रगतिशीलता/जनवाद जब व्यापक आन्दोलन न रहकर, कुछ लोगों का क्लब  बन जाए तो उससे आलोचनात्मक वातावरण तो दूषित होगा ही , हुआ भी है | प्रगतिशीलता/जनवाद का कथित विरोधी जो कलावादी शिविर है उसकी समीक्षा- आलोचना का भी वही हाल है| निष्कर्ष यह कि सबको अपने-अपने शिविर की पड़ी है| जो शिविरबद्ध नहीं होंगे, मारे जायेंगे !
   समीक्षात्मक माहौल को दूषित करने में  समीक्षक, सम्पादक और रचनाकार - तीनों की भूमिका है| अधिकतर सम्पादक पुस्तक समीक्षा को एक कर्मकांड भर मानते  हैं| इसलिए छप रही हजारों किताबों में से किनकी समीक्षा जरूरी है और किनको कूड़ेदान में डालना है, इसकी न उन्हें तमीज है,न उनके पास फुरसत है  और न उनमें  इसके लिए जरूरी निर्भीकता है | उनके दफ्तर में जो हाजिरी बजाते हैं, जो उनके लग्गू-भग्गू हैं,  वे उन्हें उतावले लेखकों की समीक्षार्थ आई किताबें पकड़ा देते हैं| समीक्षा के लिए काबिल और विषय-विशेषज्ञ समीक्षकों की सूची कितने संपादकों के पास है? परिणाम यह है कि कोई भी लल्लूलाल समीक्षक बन बैठता है| उसकी समीक्षा रसूखदार लेखकों से संपर्क की सीढ़ी भर होती है| रचनाकार  भी समीक्षक से प्रायः प्रशंसा सुनना चाहते हैं| वे अपने रसूख का इस्तेमाल करते हैं, हजारों-हजार खरचकर, खूब खिला-पिला कर, बड़े धूम-धड़ाके से अपनी किताब का लोकार्पण कराते हैं, प्रशंसकों की भीड़ जुटाते हैं, फिर उन्हीं से अपनी किताब की मनमाफिक समीक्षाएं लिखवाते हैं | अपनी रचना पर विपरीत टिप्पणी कोई नहीं सुनना चाहता| यदि किसी समीक्षक ने सही बात कह दी और  किताब की प्रतिकूल समीक्षा लिख दी तो रचनाकार उसे अपना शत्रु मान लेता है| प्रायः रचनाकार यह मानते हैं कि जो मेरी रचना का मित्र नहीं, वह मेरा भी मित्र नहीं है| स्वाभाविक है कि समीक्षा के नाम पर चापलूसी छपती है| योग्यतम  लोग भी  सही बात कहने से बचने लगे हैं| ऐसा नहीं है कि खरा-खरा कहने, छापने और सुनने वाले समीक्षक, संपादक और रचनाकार नहीं हैं, लेकिन वे अपवादस्वरूप हैं|
यह विमर्शों से बाढ़ग्रस्त समय है| विमर्श की साहित्य रचना में अपनी सकारात्मक भूमिका है, लेकिन उसकी अतिरेकी असहिष्णुता स्वस्थ आलोचना में बाधक बनने लगी है|  पुस्तक समीक्षा की  दुर्दशा के लिए विमर्शमूलक समीक्षाएं भी कम दोषी नहीं हैं | विमर्शधर्मी किताबों की समीक्षा का आधार अब उसकी साहित्यिकता नहीं, विमर्श के वे टूल्स हैं, जो समाज और राजनीति की व्याख्या में इस्तेमाल होते हैं, जिसे पढ़ने के बाद यह तय करना मुश्किल होता है कि आप किसी साहित्यिक कृति की समीक्षा पढ़ रहे हैं या किसी सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाई का विवरण| ऐसी समीक्षाओं में भाषा-भाव का एकसापन होता है |
पिछले दो दशक की पुस्तक समीक्षाओं की भाषा और उनमें प्रयुक्त पदों पर गौर करें तो पाएंगे कि कुछ कॉमन जुमले हैं, जो किसी भी रचनाकार की किताब पर फिट कर दिए जाते हैं | पाठकों को ऐसे तमाम जुमले याद होंगे, जैसे - ‘लेखक ने यथार्थ की  नई जमीन तोड़ी है’, ‘इन्होंने हिंदी कविता को नया मुहावरा दिया है ’, ‘नई काव्य-भाषा ईजाद की है’, ‘अपने समय के साथ मुठभेड़ की है’, ‘लेखक ने अपने समय से  साक्षात्कार किया है’, ‘यह कठिन समय है’, ‘यह अपने समय में रचनात्मक हस्तक्षेप है’ आदि आदि | बहुत संभव है ऐसा लिखने वाले समीक्षक को समीक्ष्य कृति के पहले की भाषा, अंतर्वस्तु आदि की बारीकियों की जानकारी तक न हो | बहुत बार वह जिस ‘नयेपन’ की चर्चा कर रहा होता है, उसके बारे में आप पूछें तो वह बगलें झांकने लगेगा | ऐसे में आलोचना के नए  प्रतिमान गढ़ने वाली समीक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है ?
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3 comments:

  1. तमाम संपादक और पाठक मानने लगे हैं कि किसी नव-प्रकाशित पुस्तक की समीक्षा करना द्वितीय श्रेणी का आलोचकीय कर्म है| जाने कहाँ से, कैसे यह प्रवित्ति पनपी, लेकिन अब संपादकों द्वारा स्थापित रूप से यह स्वीकार कर लिया गया है कि बाज़ार में ‘जस्ट’ घुसा ‘युवा’ आलोचक पुस्तक समीक्षा लिखेगा, और ‘स्थापित’ तथा ‘प्रख्यात’ आलोचक साहित्यिक प्रवित्तियों, महान घोषित हो चुके रचनाकारों या नए-पुराने साहित्यिक विवादों पर अपनी राय देंगे|

    इस समय तो पुस्तक समीक्षा का निन्यानबे प्रतिशत ‘युवा’ आलोचकों के कंधों पर है| ऐसा नहीं है कि इन नए कहलाने वाले आलोचकों में प्रतिभा या साहित्यिक समझ का अभाव है, लेकिन वे डरते हैं...वे डरते हैं, क्योंकि उन्हें डराया गया और उनकी आत्मिक शक्ति कमज़ोर पड़ चुकी है!

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  2. अभी विचार-प्रक्रिया से सीखने की स्थिति में शायद नहीं आ पाया हूँ, लेकिन आपकी आलोचना-भाषा ‘कॉपी’ करने की कोशिश कर रहा हूँ| आचार्य शुक्ल की आलोचना-भाषा मेरा आदर्श है, और आपकी विषयगत गंभीरता, स्वाभाविक विनोदप्रियता एवं तर्कणा मुझे ठीक उसके आसपास खींच ले जाती हैं|

    व्यावहारिक समीक्षा के संदर्भ में, आचार्य शुक्ल के समकालीन दौर में भी घोरतम अव्यवस्था फैली हुई थी| व्यावहारिक समीक्षाओं के नाम पर प्रकाशित की जा रहीं उन झूठी और प्रलापमयी आलोचनाओं का ‘खुल्लम-खुल्ला’ विरोध करते हुए, तब आचार्य ने लिखा था- “ठीक ठिकाने से चलनेवाली समीक्षाओं को देख जितना संतोष होता है, किसी कवि की समीक्षा के नाम पर उसकी रचना से सर्वथा असंबद्ध चित्रमयी कल्पना और भावुकता की सजावट देख उतनी ही ग्लानि होती है| यह सजावट अँगरेजी के अथवा बंगला के क्षेत्र से कुछ विचित्र, कुछ विदग्ध, कुछ अतिरंजित चलते शब्द और वाक्य ला लाकर खड़ी की जाती है| कहीं कहीं तो किसी अँगरेजी कवि के संबंध में की हुई समीक्षा का कोई खंड ज्यों का त्यों उठाकर किसी हिंदी कवि पर भिड़ा दिया जाता है| ऊपरी रंग ढंग से तो ऐसा जान पड़ेगा कि कवि के ह्रदय के भीतर सेंध लगाकर घुसे हैं और बड़े बड़े गूढ़ कोने झाँक रहे हैं, पर कवि के उद्धृत पद्यों से मिलान कीजिए तो पता चलेगा कि कवि के विविध भावों से उनके वाग्विलास का कोई लगाव नहीं| पद्य का आशय या भाव कुछ और है, आलोचक जी उसे उद्धृत करके कुछ और ही राग अलाप रहे हैं|” (हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, सं. २०५६वि., पृष्ठ 306)

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  3. आपने इस लेख में समकालीन हिन्दी आलोचना के कृष्ण-पक्ष और कृपणता का बिल्कुल सही मूल्यांकन किया है.

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