एक प्रश्न आजकल मुझे अक्सर परेशान करता
है कि क्या हिंदी कविता एक लुप्त होती हुई विधा है ? इसका कारण यह है कि अभी जो
कविता लिखी जा रही है, उसके पाठक नहीं हैं, जो हैं वे अपवाद स्वरुप हैं | कभी-कभी
लगता है कि हिंदी में कवि अधिक हैं और पाठक कम | कवि लिखते हैं, कवि पढ़ते हैं या
वे लोग पढ़ते हैं जो साहित्य पढ़ने-पढ़ाने का धंधा करते हैं | समकालीन हिंदी कविता के
पास अब प्रायः वैसे पाठक नहीं हैं, कविता जिनका धंधा न हो, फिर भी कविता के आत्मिक
सुख के लिए पढ़ते हैं | हिंदी में बड़ी मात्रा में कविता रची जा रही है, लेकिन छोटी
मात्रा में भी उसकी खपत हिंदी समाज में दिखाई नहीं पड़ती | ख़राब कविता कि बात जाने
दीजिए, हिंदी में खूब बारीक, खूब जटिल, खूब कलात्मक कविताएँ लिखने वाले कवियों के
पास भी नाम मात्र के पाठक हैं | मुख्य धारा के नाम पर जो कविताएँ लिखी जा रही हैं,
छप रही हैं और प्रशंसित-पुरस्कृत हो रही हैं, वे सब हिंदी पाठक की समझ से परे हैं
| ऐसी स्थिति में क्या यह ठहरकर सोचने का समय नहीं आ गया है कि हिंदी कविता कि इस
दशा के जिम्मेदार कारणों पर विचार किया
जाए ? मैं तो उस दिन कि कल्पना नहीं कर सकता जिस दिन हमारे साहित्य में कविता नामक
विधा नहीं होगी |
वैसे तो हिंदी समाज
में साहित्य मात्र के पाठक कम हैं | जितना बड़ा हिंदी क्षेत्र है, उसकी तुलना में
पाठक वर्ग बहुत छोटा है | इसके सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक कारणों पर विचार होना
चाहिए | लेकिन हिंदी साहित्य की जिस विधा के लिए सबसे पहले और सबसे अधिक चिंतित
होने की जरुरत है वह कविता ही है | कविता मैं जब कह रहा हूँ तो उसका अर्थ
तुकांत-अतुकांत सबसे है यानी सभी काव्यरूपों से | लेकिन अतुकांत कविता के अलावा
तुकांत काव्यरूपों के लिए हिंदी कविता की तथाकथित मुख्यधारा में कोई जगह नहीं है |
तुकांत काव्यरूपों में पहला स्थान गीत का है और दूसरा गजल का | हिंदी कविता ने प्रयोगवाद
के साथ और उसके बाद जिस काव्यरूप को अवहेलित, उपेक्षित किया, वह गीत ही था | नई
कविता के दौरान यह भाव और तीव्र हुआ | क्या प्रगतिशील और क्या गैर प्रगतिशील, सबने
गीत को हिंदी कविता के देश से निकाला दे दिया | विजयदेव नारायण साही, नामवर सिंह,
अशोक वाजपेयी आदि ने ऐसे काव्य-निकष बनाए और ऐसी कविताओं कि पोथी ठोकी कि गीत
लिखना दोयम दर्जे का कवि कर्म लगने लगा |गजल उर्दू का लोकप्रिय काव्य रूप है|हिंदी
कवियों ने भी इसे अपनाया|भारतेंदु,निराला,शमशेर,त्रिलोचन,जानकीवल्लभ शास्त्री आदि
ने अच्छी गजलें लिखीं लेकिन गजल को हिंदी आलोचना ने कभी स्वीकृति नहीं दी|हालाँकि
हिंदी में गजल लिखने वालों की एक बड़ी जमात है|हिंदी में गजलें लिखी जा रही
हैं|लेकिन हिंदी गजलों को हिंदी के आलोचक कभी उद्धृत नहीं करते|इस महादेश के
वैज्ञानिक विकास के लिए समर्पित एक पत्रिका ने तो लगभग घोषित कर रखा था कि उसके
वहाँ गीत और गजल प्रकाशनार्थ न भेजें|इस घोषणा में गीत गजल के लिए हिकारत का भाव
है|दुष्यंत कुमार की गजलें हिंदी समाज में सबसे अधिक लोकप्रिय हुईं|लोग अक्सर उनके
शेर उद्धृत करते हैं|लेकिन दुष्यंत को प्रगतिशील गैर प्रगतिशील किसी खेमे में
गंभीरता से नहीं लिया जाता|निष्कर्ष यह कि हिंदी में गीत-गजल की रचना तो हुई पर
उसे आलोचकों का प्रमाण पत्र नहीं मिला|एक धारणा-सी बना दी गई कि गीत-गजल लिखने
वाले प्रायः मेडियाकर हैं|
गीत हिंदी का अपना
एक लोकप्रिय काव्यरूप है|व्यक्ति सुख-दुःख में गीत गुनगुनाता है|माना जाता है कि
गीत दिल का सीधा उद्गार है|उसमें विचार कम दिल की भावनाएं अधिक व्यक्त होती
हैं|हिंदी में गीत लेखन की लम्बी परंपरा रही है|भारतेंदु से लेकर प्रसाद-निराला
तक|महादेवी सिर्फ गीत लिखकर छायावाद का चौथा स्तम्भ हैं|निराला ने छंद के बंधन
जरूर तोड़ें पर गीतों से उनका संग साथ कभी न छूटा|यदि गंभीर पाठकों के लिए उन्होंने
‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘सरोज स्मृति’ जैसी कविताएँ लिखीं,तो सामान्य पाठक के दिल
को छूने वाली ‘सरस्वती वंदना’ भी लिखी |हिंदी में गीत भावना और विचार दोनों को वहन
करने वाला सशक्त काव्यरूप रहा है|
गीत हिंदी का जातीय
काव्यरूप तो है ही,सबसे लोकप्रिय काव्य रूप भी रहा है|गीत एक तरह से हिंदी कविता
का लोकप्रिय चेहरा रहा है|भक्तिकाल में पद के नाम से यह गीत ही था,जो
सूर,तुलसी,मीरा,कबीर आदि की अमरवाणी का वाहक बना|महाकाव्य और खंडकाव्य जैसे कठिन
काव्य-दुर्ग में प्रवेश की गीत भूमिका तैयार करता रहा|कविता के कठिन दुर्ग में सभी
प्रवेश नहीं करते|जो प्रवेश करते हैं उनको काव्य मर्मज्ञ बनाने में गीत प्राथमिक
पाठशाला का काम करते रहे हैं|जो काव्य मर्मज्ञ नहीं हैं,साधारण जन हैं ,वैसे पाठक
के शुष्क ह्रदय को सरस बनाने में गीतों की सदियों से भूमिका रही है|इसलिए गीत की
ताकत को आधुनिक कल के पूर्व के कवि तो जानते ही थे,आधुनिक काल के भी बड़े कवियों ने भी इसे पहचाना|भारतेंदु,मैथिलीशरण
गुप्त,प्रसाद,निराला आदि ने हिंदी गीत को अमरता दी|गीत आधुनिक हिंदी कविता की जमीन
को उपजाऊ बनाने में हमेशा सहायक रहे|गीत और गीत लिखने वाले कवियों की ओर हिंदी
समाज हमेशा प्रेम और सम्मान से देखता रहा|जब तक हिंदी कविता में गीत रचना होती रही
और उसे प्रबुद्ध समाज का प्यार मिलता रहा,हिंदी समाज कभी कविता विमुख नहीं हुआ,और
कविता एवं कवियों के प्रति जनता में आदर बना रहा|गीत के प्रति उदासीनता का सिलसिला
प्रयोगवाद-नई कविता के साथ शुरू हुआ|पश्चिमी काव्य प्रतिमानों का थोड़ा प्रभाव तो
छायावाद पर भी था,किन्तु प्रयोगवाद-नई कविता के साथ हिंदी कविता पश्चिमी
काव्यादर्शों के सम्मुख खडी दिखाई देने लगी|क्षणवाद,व्यंग्य,विडंबना,तनाव आदि हिंदी
कविता के मुख्य प्रतिमान बन गए|कविता रचना छंद से पूरी तरह मुक्त हो
गई|अज्ञेय,मुक्तिबोध आदि ने भले कभी-कभार गीत लिखे हों,उनकी मुख्य अभिव्यक्ति का
माध्यम गीत नहीं थे|गीत के प्रति सम्मान और गंभीरता का वह भाव जाता रहा,जो
प्रयोगवाद के पूर्व था|नई कविता के बाद कविता पूरी तरह छंदमुक्त और अतुकांत हो
गई|ऐसी स्थिति में गीत लिखने वाले कवियों की एक अलग जमात सामने आई|शम्भुनाथ
सिंह,ठाकुर प्रसाद सिंह आदि नई कविता के सामानांतर नवगीत के गीतकार कहे जाने लगे|इस
तरह कवि और गीतकार की दो श्रेणियां पहली बार हिंदी कविता में बनीं|कवि प्रथम
श्रेणी के रचनाकार और गीतकार द्वितीय श्रेणी के,जैसी अघोषित धारणा विकसित होती
गई|कवियों में अपने लिए श्रेष्ठता बोध और गीतकारों के लिए उपेक्षा का भाव आता
गया|कवि और गीतकार का यह विभाजन हिंदी कविता और समाज के लिए शुभंकर नहीं हुआ|
कवि और गीतकार के
विभाजन ने एक और काम किया|कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ के जरिए कविता और जनता को
जोड़ने का जो काम होता था,वह भी विभाजित हो गया|कवियों ने कवि सम्मेलनों में जाना
एक तरह से बंद कर दिया|कवि सम्मलेन अब पूरी तरह गीतकारों के हवाले हो गया|नागार्जुन,भवानीप्रसाद
मिश्र ,जानकीवल्लभ शास्त्री आदि संभवतः अतिम पीढ़ी के कवि थे,जो कवि सम्मेलनों में
जाते रहे और कविताएँ सुनते-सुनाते रहे|कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ जनता के काव्य
बोध को बनाए रखने और उसे विकसित करने का एक सशक्त माध्यम था,जिसकी हिंदी की मुख्य
धारा के कवियों ने उपेक्षा की|फल यह हुआ कि कवि-सम्मेलनों का मंच पूरी तरह सस्ते
गीतकारों और फूहड़ हास्य कवियों के हवाले हो गया|
गीतों की रचना में
बाधक बने वे काव्य निकष जो नई कविता के दौरान विकसित
हुए|क्षणवाद,व्यंग्य,विडम्बना,तनाव आदि को अच्छी और श्रेष्ठ कविता की कसौटी माना
गया और इन्हें ही श्रेष्ठ काव्य मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया गया|श्रव्यता को
पुरानी कविता का गुण घोषित करके उसे पठ्य बनाने पर जोर दिया गया|अज्ञेय ने तो
बाजाप्ता इस पर लिखा भी और आधुनिक कविता के लिए श्रव्यता को अच्छा गुण नहीं
माना|उस दौर में प्रतिष्ठित और अत्यंत लोकप्रिय कवि दिनकर ‘रेटारिक’ के कवि कहे
जाते रहे|
हिंदी कविता जब छंद
से मुक्त हुई थी तो कहा गया कि लय मुख्य है|बनावट-बुनावट की लय,भाषा की लय और
भाव-विचार की लय के सहारे नई कविता और उसके बाद की कविता लिखी जाती रही|इधर के
वर्षों वैचारिक लय की प्रधानता बढ़ी|ऐसी कविताओं ने यथार्थ के सूक्ष्म अंकन के
सुन्दर उदाहरण पेश किए,लेकिन पाठक से उसकी दूरी कम नहीं हुई,कुछ बढ़ी ही|ऐसे में
प्रश्न उठता है कि उर्दू कविता क्यों गजल और नज्म के अपने जातीय रूप विधान में
आधुनिक और समकालीन बनी रही|उसको सराहने वाले भी बने रहे और उसका कोई-कोई शेर हम
कभी-कभार उद्धृत करते रहें|क्यों अहमद फराज समकालीन भी लगते हैं और शायरी
प्रेमियों में लोकप्रिय भी हैं?हिंदी के पास कोई अहमद फराज क्यों नहीं है?
उर्दू काव्य रूपों-
गजल और नज्म- की तुलना में हिंदी में अनेक काव्यरूप हैं|गीत उसका सफल और दिल को
छूनेवाला शक्तिशाली काव्यरूप है|उसको तुक्कड़ कवि सम्मेलनी कवियों के भरोसे छोड़कर
हिंदी कविता का भला नहीं हो सकता |सम्प्रेषनियता किसी कविता का दोष नहीं
होती|व्यंग्य,विडम्बना,तनाव ही कविता के सार्वभौम और स्थायी निकष नहीं हैं|यूँ
हिंदी के अच्छे गीतकारों ने इस कसौटी की अनदेखी नहीं की|रमेश रंजक के एक गीत का
टुकड़ा इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है :
अजगर के पाँव दिए
जीवन को और समय को डैने,
ऐसा क्या पाप किया
था मैंने |
समय की विडम्बना यहाँ भी है|जरुरत है गीत के प्रति
आलोचना दृष्टि बदलने की|माना कि गीत में महाकाव्यात्मक संवेदना की समाही नहीं
है, मगर उतनी कम समाही भी नहीं है ,जितना कि समझ लिया गया है और समझा दिया गया है|
हिन्दी के एक वरिष्ठ आलोचक अर्थात आप को गीत की वकालत और उस का महत्त्व प्रतिपादित करते देखना बहुत अच्छा लगा । आज की गद्य कविता के विरोध में मैं ने सन १९९४ में सहज कविता पत्रिका के माध्यम से कविता की सहजता पर बल दिया था । आगे दो पुस्तकें ' सहज कविता , स्वरूप और सम्भावनाएँ ' तथा ' सहज कविता की भूमिका ' छपवाईं । मेरा कवि जीवन सन १९४८ -- ४९ में गीत से शुरु हुआ था । पर आलोचकों की उपेक्षा मिली । आप में गीतप्रेमी दिखा , यों यह लिख गया ।
ReplyDeleteआदरणीय गोपेश जी,
ReplyDeleteमैं शत प्रतिशत सहमत हूँ. विगत दिनों अपने कालेज में एक अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार के दौरान शाम में एक कवि सम्मलेन का भी आयोजन करवा डाला. हिंदी-उर्दू के बड़े-बड़े कवि आए. आयोजक को पूरी आजादी थी, जिसको बुलाये. बिहार गीत के रचयिता चिस्ती साहब भी थे. पर श्रोता नदारत. यद्यपि सभागार में सौ से अधिक लोग थे. पर सभी कवि ही थे. गीत-गजल और कविता की महफ़िल में बड़ा आनंद आया. पर यही चिंता मेरे मन में भी उभरी. हास्य कवि सम्मेलनों में आज भी भीड़ जुटती है. समस्या यह है कि कला और साहित्य को लोग आज भी मनोरंजन की चीज समझते हैं. लोक परम्परा में नाच-गान का अपना महत्व था. पर आज की लोकरुचि और सौन्दर्यबोध को क्या हो गया हा? मैं काव्य की किसी विधा विशेष की आलोचना नहीं करता, पर गीत और गजल ही कविता की स्वाभाविक पहचान है. इसे बढ़ावा मिलना चाहिए.
कविता के पाठक काम होते जाने की पड़ताल करता बेहद सधा आलेख विमर्श के लिए सामग्री उपलब्ध करता है।साथ ही कई सबाल को कठधरे में खड़ा करता है जिरह के लिए।यह बेहद दुखद है लेकिन सच है कि हमारी कविता के पाठक कम होते चले जा रहे है।आलेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteयह बेहद दुखद है लेकिन सच है आलेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteसर आपका यह लेख साहित्य में गीति काव्य और कविता की चिंता को तो दर्शाता ही है जो अपने आप में चिंता का विषय है, लेकिन एक बार मैं कई सालों से देख और महसूस कर रही हूँ अब लोक गीतों में भी पुरानी मिठास खत्म हो गयी है। अगर कविता छंदों से मुक्त हो गयी तो लोक गीत अपनी परंपरा से कट रहे है खासकर विवाह के गीतों में फ़िल्मी गीतों की भाषा और तर्ज ने जगह ले ली है। जिसमे भाव विभोर करने या डूब जाने का संस्कार खत्म हो गया है। वो भी खाना पूर्ति बन कर रह गए हैं।
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